प्रेमचंद - kishore karuppaswamy · web viewबम बई क व यवस थ प...

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पे्रमचंद

क्रम

वि�श्वास : 3नरक का मार्ग� : 20

स्त्री और पुरूष : 28उध्दार : 34

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विश्वास

न दिदनो मिमस जोसी बम्बई सभ्य-समाज की रामि!का थी। थी तो �ह एक छोटी सी कन्या पाठशाला की अध्याविपका पर उसका ठाट-बाट, मान-सम्मान बड़ी-बडी !न-

राविनयों को भी लज्जि5त करता था। �ह एक बडे़ महल में रहती थी, जो विकसी जमाने में सतारा के महाराज का विन�ास-स्थान था। �हॉँ सारे दिदन नर्गर के रईसों, राजों, राज-कमचारिरयों का तांता लर्गा रहता था। �ह सारे प्रांत के !न और कीर्तित? के उपासकों की दे�ी थी। अर्गर विकसी को खिAताब का Aब्त था तो �ह मिमस जोशी की Aुशामद करता था। विकसी को अपने या संब!ी के लिलए कोई अच्छा ओहदा दिदलाने की !ुन थी तो �ह मिमस जोशी की अरा!ना करता था। सरकारी इमारतों के ठीके ; नमक, शराब, अफीम आदिद सरकारी चीजों के ठीके ; लोहे-लकड़ी, कल-पुरजे आदिद के ठीके सब मिमस जोशी ही के हाथो में थे। जो कुछ करती थी �ही करती थी, जो कुछ होता था उसी के हाथो होता था। जिजस �क्त �ह अपनी अरबी घोड़ो की विफटन पर सैर करने विनकलती तो रईसों की स�ारिरयां आप ही आप रास्ते से हट जाती थी, बडे़ दुकानदार Aडे़ हो-हो कर सलाम करने लर्गते थे। �ह रूप�ती थी, लेविकन नर्गर में उससे बढ़कर रूप�ती रमणिQयां भी थी। �ह सुलिशणिRता थीं, �क्चतुर थी, र्गाने में विनपुQ, हंसती तो अनोAी छवि� से, बोलती तो विनराली घटा से, ताकती तो बांकी लिचत�न से ; लेविकन इन र्गुQो में उसका एकामि!पत्य न था। उसकी प्रवितष्ठा, शलिक्त और कीर्तित? का कुछ और ही रहस्य था। सारा नर्गर ही नही ; सारे प्रान्त का बच्चा जानता था विक बम्बई के र्ग�न�र मिमस्टर जौहरी मिमस जोशी के विबना दामों के र्गुलाम है।मिमस जोशी की आंAो का इशारा उनके लिलए नादिदरशाही हुक्म है। �ह लिथएटरो में दा�तों में, जलसों में मिमस जोशी के साथ साये की भॉँवित रहते है। और कभी-कभी उनकी मोटर रात के सन्नाटे में मिमस जोशी के मकान से विनकलती हुई लोर्गो को दिदAाई देती है। इस पे्रम में �ासना की मात्रा अमि!क है या भलिक्त की, यह कोई नही जानता । लेविकन मिमस्टर जौहरी वि��ाविहत है और मिमस जौशी वि�!�ा, इसलिलए जो लोर्ग उनके पे्रम को कलुविषत कहते है, �े उन पर कोई अत्याचार नहीं करते।

बम्बई की व्य�स्थाविपका-सभा ने अनाज पर कर लर्गा दिदया था और जनता की ओर से उसका वि�रो! करने के लिलए एक वि�राट सभा हो रही थी। सभी नर्गरों से प्रजा के प्रवितविनमि! उसमें सम्मिम्मलिलत होने के लिलए हजारो की संख्या में आये थे। मिमस जोशी के वि�शाला भ�न के सामने, चौडे़ मैदान में हरी-भरी घास पर बम्बई की जनता उपनी फरिरयाद सुनाने के लिलए जमा थी। अभी तक सभापवित न आये थे, इसलिलए लोर्ग बैठे र्गप-शप कर रहे थे। कोई कम�चारी पर आRेप करता था, कोई देश की ज्जिस्थवित पर, कोई अपनी दीनता पर—अर्गर हम लोर्गो में अर्गड़ने का जरा भी सामर्थ्यय� होता तो मजाल थी विक यह कर लर्गा दिदया जाता, अमि!कारिरयों का घर से बाहर विनकलना मुश्किaकल हो जाता। हमारा जरुरत से ज्यादा सी!ापन हमें अमि!कारिरयों के हाथों का खिAलौना बनाए हुए है। �े जानते हैं विक इन्हें जिजतना दबाते जाओ, उतना दबते जायेर्गें, लिसर नहीं उठा सकते। सरकार ने भी उपद्र� की आंशका से सशस्त्र पुलिलस बुला ली।ैै उस मैदान के चारों कोनो पर लिसपाविहयों के दल डेरा डाले पडे़ थे। उनके अफसर, घोड़ों पर स�ार, हाथ में हंटर लिलए, जनता के बीच में विनaशंक भा� से घोंडे़ दौड़ाते विफरते थे, मानों साफ मैदान है। मिमस जोशी के ऊंचे बरामदे में नर्गर के सभी बडे़-बडे़

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रईस और राज्यामि!कारी तमाशा देAने के लिलए बैठे हुए थे। मिमस जोशी मेहमानों का आदर-सत्कार कर रही थीं और मिमस्टर जौहरी, आराम-कुसh परलेटे, इस जन-समूह को घृQा और भय की दृमिl से देA रहे थे। सहसा सभापवित महाशय आपटे एक विकराये के तांर्गे पर आते दिदAाई दिदये। चारों तरफ हलचल मच र्गई, लोर्ग उठ-उठकर उनका स्�ार्गत करने दौडे़ और उन्हें ला कर मंच पर बेठा दिदया। आपटे की अ�स्था ३०-३५ �ष� से अमि!क न थी ; दुबले-पतले आदमी थे, मुA पर लिचन्ता का र्गाढ़ा रंर्ग-चढ़ा हुआ था। बाल भी पक चले थे, पर मुA पर सरल हास्य की रेAा झलक रही थी। �ह एक सफेद मोटा कुरता पहने थे, न पां� में जूते थे, न लिसर पर टोपी। इस अद्धन�ग्न, दुब�ल, विनस्तेज प्राQी में न जाने कौल-सा जादू था विक समस्त जनता उसकी पूजा करती थी, उसके पैरों में न जाने कौन सा जादू था विक समस्त जरत उसकी पूजा करती थी, उसकेपैरोे पर लिसर रर्गड़ती थी। इस एक प्राQी क हाथों में इतनी शलिक्त थी विक �ह RQ मात्र में सारी मिमलों को बंद करा सकता था, शहर का सारा कारोबार मिमटा सकता था। अमि!कारिरयों को उसके भय से नींद न आती थी, रात को सोते-सोते चौंक पड़ते थे। उससे ज्यादा भंयकर जन्तु अमि!कारिरयों की दृमिlमें दूसरा नथा। ये प्रचंड शासन-शलिक्त उस एक हड्डी के आदमी से थरथर कांपती थी, क्योंविक उस हड्डी मेंएक पवि�त्र, विनष्कलंक, बल�ान और दिदव्य आत्मा का विन�ास था। २

पटे नें मंच पर Aड़ें होकरह पहले जनता को शांत लिचत्त रहने और अहिह?सा-व्रत पालन करने का आदेश दिदया। विफर देश में राजविनवितक ज्जिस्थवित का �Q�न करने

लर्गे। सहसा उनकी दृमिl सामने मिमस जोशी के बरामदे की ओर र्गई तो उनका प्रजा-दुA पीविड़त हृदय वितलमिमला उठा। यहां अर्गणिQत प्राQी अपनी वि�पणित्त की फरिरयाद सुनने के लिलए जमा थे और �हां मेंजो पर चाय और विबस्कुट, मे�े और फल, बफ� और शराब की रेल-पेल थी। �े लोर्ग इन अभार्गों को देA-देA हंसते और तालिलयां बजाते थे। जी�न में पहली बार आपटे की जबान काबू से बाहर हो र्गयी। मेघ की भांवित र्गरज कर बोले—

आ ‘इ!र तो हमारे भाई दाने-दाने को मुहताज हो रहे है, उ!र अनाज पर कर लर्गाया जा रहा है, के�ल इसलिलए विक राजकम�चारिरयों के हल�े-पूरी में कमी न हो। हम जो देश जो देश के राजा हैं, जो छाती फाड़ कर !रती से !न विनकालते हैं, भूAों मरते हैं; और �े लोर्ग, जिजन्हें हमने अपने सुA और शावित की व्य�स्था करने के लिलए रAा है, हमारे स्�ामी बने हुए शराबों की बोतले उड़ाते हैं। विकतनी अनोAी बात है विक स्�ामी भूAों मरें और से�क शराबें उड़ायें, मे�े Aायें और इटली और से्पन की मिमठाइयां चलें! यह विकसका अपरा! है? क्या से�कों का? नहीं, कदाविप नहीं, हमारा ही अपरा! है विक हमने अपने से�कों को इतना अमि!कार दे रAा है। आज हम उच्च स्�र से कह देना चाहते हैं विक हम यह कू्रर और कुदिटल व्य�हार नहीं सह सकते।यह हमारें लिलए असह्य है विक हम और हमारे बाल-बचे्च दानों को तरसें और कम�चारी लोर्ग, वि�लास में डूबें हुए हमारे करूQ-क्रन्दन की जरा भी पर�ा न करत हुए वि�हार करें। यह असह्य है विक हमारें घरों में चूल्हें न जलें और कम�चारी लोर्ग लिथएटरों में ऐश करें, नाच-रंर्ग की महविफलें सजायें, दा�तें उड़ायें, �ेश्चाओं पर कंचन की �षा� करें। संसार में और ऐसा कौन ऐसा देश होर्गा, जहां प्रजा तो भूAी मरती हो और प्र!ान कम�चारी अपनी पे्रम-

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विक्रड़ा में मग्न हो, जहां म्मिस्त्रयां र्गलिलयों में ठोकरें Aाती विफरती हों और अध्याविपकाओं का �ेष !ारQ करने �ाली �ेaयाए ंआमोद-प्रमोद के नशें में चूर हों----

काएक सशस्त्र लिसपाविहयों के दल में हलचल पड़ र्गई। उनका अफसर हुक्म दे रहा था—सभा भंर्ग कर दो, नेताओं को पकड़ लो, कोई न जाने पाए। यह वि�द्रोहात्म व्याख्यान है।ए

मिमस्टर जौहरी ने पुलिलस के अफसर को इशारे पर बुलाकर कहा—और विकसी को विर्गरफ्तार करने की जरुरत नहीं। आपटे ही को पकड़ो। �ही हमारा शतु्र है। पुलिलस ने डंडे चलने शुरु विकये। और कई लिसपाविहयों के साथ जाकर अफसर ने अपटे का विर्गरफ्तार कर लिलया। जनता ने त्यौरिरयां बदलीं। अपने प्यारे नेता को यों विर्गरफ्तार होते देA कर उनका !ैय� हाथ से जाता रहा। लेविकन उसी �क्त आपटे की ललकार सुनाई दी—तुमने अहिह?सा-व्रत लिलया है ओर अर्गर विकसी ने उस व्रत को तोड़ा तो उसका दोष मेरे लिसर होर्गा। मैं तुमसे सवि�नय अनुरो! करता हंू विक अपने-अपने घर जाओं। अमि!कारिरयों ने �ही विकया जो हम समझते थे। इस सभा से हमारा जो उदे्दaय था �ह पूरा हो र्गया। हम यहां बल�ा करने नहीं , के�ल संसार की नैवितक सहानुभूवित प्राप्त करने के लिलए जमाहुए थे, और हमारा उदे्दaय पूराहो र्गया। एक RQ में सभा भंर्ग हो र्गयी और आपटे पुलिलस की ह�ालात में भेज दिदए र्गये ४

स्टर जौहरी ने कहा—बच्चा बहुत दिदनों के बाद पंजे में आए हैं, राज-द्रोह कामुकदमा चलाकर कम से कम १० साल के लिलए अंडमान भेंजूर्गां।मिम

मिमस जोशी—इससे क्या फायदा? ‘क्यों? उसको अपने विकए की सजा मिमल जाएर्गी।’ ‘लेविकन सोलिचए, हमें उसका विकतना मूल्य देना पडे़र्गा। अभी जिजस बात को विर्गने-विर्गनाये लोर्ग जानते हैं, �ह सारे संसार में फैलेर्गी और हम कहीं मुंह दिदAाने लायक नहीं रहेंर्गें। आप अAबारों में सं�ाददाताओं की जबान तो नहीं बंद कर सकते।’ ‘कुछ भी हो मैं इसे जोल में सड़ाना चाहता हंू। कुछ दिदनों के लिलए तो चैन की नींद नसीब होर्गी। बदनामी से डरना ही व्यथ� है। हम प्रांत के सारे समाचार-पत्रों को अपने सदाचार का रार्ग अलापने के लिलए मोल ले सकते हैं। हम प्रत्येक लांछन को झूठ साविबत कर सकते हैं, आपटे पर मिमर्थ्यया दोषारोपरQ का अपरा! लर्गा सकते हैं।’ ‘मैं इससे सहज उपाय बतला सकती हंू। आप आपटे को मेरे हाथ में छोड़ दीजिजए। मैं उससे मिमलूंर्गी और उन यंत्रों से, जिजनका प्रयोर्ग करने में हमारी जावित लिसद्धहस्त है, उसके आंतरिरक भा�ों और वि�चारों की थाह लेकर आपके सामने रA दंूर्गी। मैं ऐसे प्रमाQ Aोज विनकालना चाहती हंूजिजनके उत्तर में उसे मुंह Aोलने का साहस न हो, और संसार की सहानुभूवित उसके बदले हमारे साथ हो। चारों ओर से यही आ�ाज आये विक यह कपटी ओर !ूत� था और सरकर ने उसके साथ �ही व्य�हार विकया है जो होना चाविहए। मुझे वि�श्वास है विक �ह षंडं्यत्रकारिरयों को मुखिAया है और मैं इसे लिसद्ध कर देना चाहती हंू। मैं उसे जनता की दृमिl में दे�ता नहीं बनाना चाहतीं हंू, उसको राRस के रुप में दिदAाना चाहती हंू। ‘ऐसा कोई पुरुष नहीं है, जिजस पर यु�ती अपनी मोविहनी न डाल सके।’

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‘अर्गर तुम्हें वि�श्वास है विक तुम यह काम पूरा कर दिदAाओंर्गी, तो मुझे कोई आपणित्त नहीं है। मैं तो के�ल उसे दंड देना चाहता हंू।’ ‘तो हुक्म दे दीजिजए विक �ह इसी �क्त छोड़ दिदया जाय।’ ‘जनता कहीं यह तो न समझेर्गी विक सरकार डर र्गयी?’ ‘नहीं, मेरे ख्याल में तो जनता पर इस व्य�हार का बहुत अच्छा असर पडे़र्गा। लोर्ग समझेर्गें विक सरकार ने जनमत का सम्मान विकया है।’ ‘लेविकन तुम्हें उसेक घर जाते लोर्ग देAेंर्गे तो मन में क्या कहेंर्गे?’ ‘नकाब डालकर जाऊंर्गी, विकसी को कानोंकान Aबर न होर्गी।’ ‘मुझे तो अब भी भय है विक �ह तुम्हे संदेह की दृमिl से देAेर्गा और तुम्हारे पंजे में न आयेर्गा, लेविकन तुम्हारी इच्छा है तो आजमा देAों।’ यह कहकर मिमस्टर जौहरी ने मिमस जोशी को पे्रममय नेत्रों से देAा, हाथ मिमलाया और चले र्गए। आकाश पर तारे विनकले हुए थे, चैत की शीतल, सुAद �ायु चल रही थी, सामने के चौडे़ मैदान में सन्नाटा छाया हुआ था, लेविकन मिमस जोशी को ऐसा मालूम हुआ मानों आपटे मंच पर Aड़ा बोल रहा है। उसक शांत, सौम्य, वि�षादमय स्�रुप उसकी आंAों में समाया हुआ था। ५

त:काल मिमस जोशी अपने भ�न से विनकली, लेविकन उसके �स्त्र बहुत सा!ारQ थे और आभूषQ के नाम शरीर पर एक !ार्गा भी नथा। अलंकार-वि�हीन हो कर

उसकी छवि� स्�च्छ, जल की भांवित और भी विनAर र्गयी। उसने सड़क पर आकर एक तांर्गा लिलया और चली।

प्रा अपटे का मकान र्गरीबों के एक दूर के मुहल्ले में था। तांर्गे�ाला मकान का पता जानता था। कोई दिदक्कत न हुई। मिमस जोशी जब मकान के द्वार पर पहुंची तो न जाने क्यों उसका दिदल !ड़क रहा था। उसने कांपते हुए हाथों से कंुडी AटAटायी। एक अ!ेड़ औरत विनकलकर द्वार Aोल दिदय। मिमस जोशी उस घर की सादर्गी देA दंर्ग रह र्गयी। एक विकनारें चारपाई पड़ी हुई थी, एक टूटी आलमारी में कुछ विकताबें चुनी हुई थीं, फश� पर खिAलने का डेस्क था ओर एक रस्सी की अलर्गनी पर कपडे़ लटक रहे थे। कमरे के दूसरे विहस्से में एक लोहे का चूल्हा था और Aाने के बरतन पडे़ हुए थे। एक लम्बा-तर्गड़ा आदमी, जो उसी अ!ेड़ औरत का पवित था, बैठा एक टूटे हुए ताले की मरम्मत कर रहा था और एक पांच-छ �ष� का तेजस्�ी बालक आपटे की पीठ पर चढ़ने के लिलए उनके र्गले में हाथ डाल रहा था।आपटे इसी लोहार के साथ उसी घर में रहते थे। समाचार-पत्रों के लेA लिलAकर जो कुछ मिमलता उसे दे देते और इस भांवित र्गृह-प्रबं! की चिच?ताओं से छुट्टी पाकर जी�न व्यतीत करते थें। मिमस जोशी को देAकर आपटे जरा चौंके, विफर Aडे़ होकर उनका स्�ार्गत विकया ओर सोचने लर्गे विक कहां बैठाऊं। अपनी दरिरद्रता पर आज उन्हें जिजतनी लाज आयी उतनी और कभी न आयी थी। मिमस जोशी उनका असमंजस देAकर चारपाई पर बैठ र्गयी और जरा रुAाई से बोली---मैं विबना बुलाये आपके यहां आने के लिलए Rमा मांर्गती हंू हिक?तु काम ऐसा जरुरी था विक मेरे आये विबना पूरा न हो सकता। क्या मैं एक मिमनट के लिलए आपसे एकांत में मिमल सकती हंू।

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आपटे ने जर्गन्नाथ की ओर देA कर कमरे से बाहर चले जाने का इशारा विकया। उसकी स्त्री भी बाहर चली र्गयी। के�ल बालक रह र्गया। �ह मिमस जोशी की ओर बार-बार उत्सुक आंAों से देAता था। मानों पूछ रहा हो विक तुम आपटे दादा की कौन हो? मिमस जोशी ने चारपाई से उतर कर जमीन पर बैठते हुए कहा---आप कुछ अनुमान कर सकते हैं विक इस �क्त क्यों आयी हंू।

आपटे ने झेंपते हुए कहा---आपकी कृपा के लिस�ा और क्या कारQ हो सकता है? मिमस जोशी---नहीं, संसार इतना उदार नहीं हुआ विक आप जिजसे र्गांलिलयां दें, �ह आपको !न्य�ाद दे। आपको याद है विक कल आपने अपने व्याख्यान में मुझ पर क्या-क्या आRेप विकए थे? मैं आपसे जोर देकर कहती हंू विक�े आRेप करके आपने मुझपर घोर अत्याचार विकया है। आप जैसे सहृदय, शील�ान, वि�द्वान आदमी से मुझे ऐसी आशा न थी। मैं अबला हंू, मेरी रRा करने �ाला कोई नहीं है? क्या आपको उलिचत था विक एक अबला पर मिमर्थ्ययारोपQ करें? अर्गर मैं पुरुष होती तो आपसे डू्यल Aेलने काक आग्रह करती । अबला हंू, इसलिलए आपकी स5नता को स्पश� करना ही मेरे हाथ में है। आपने मुझ पर जो लांछन लर्गाये हैं, �े स��था विनमू�ल हैं। आपटे ने दृढ़ता से कहा---अनुमान तो बाहरी प्रमाQों से ही विकया जाता है। मिमस जोशी—बाहरी प्रमाQों से आप विकसी के अंतस्तल की बात नहीं जान सकते । आपटे—जिजसका भीतर-बाहर एक न हो, उसे देA कर भ्रम में पड़ जाना स्�ाभावि�क है। मिमस जाशी—हां, तो �ह आपका भ्रम है और मैं चाहती हंू विक आप उस कलंक को मिमटा दे जो आपने मुझ पर लर्गाया है। आप इसके लिलए प्रायणिश्चत करेंर्गे? आपटे---अर्गर न करंू तो मुझसे बड़ा दुरात्मा संसार में न होर्गा। मिमस जोशी—आप मुझपर वि�श्वास करते हैं। आपटे—मैंने आज तक विकसी रमQी पर वि�श्वास नहीं विकया। मिमस जोशी—क्या आपको यह संदेह हो रहा है विक मैं आपके साथ कौशल कर रही हंू? आपटे ने मिमस जोशी की ओर अपने सदय, सजल, सरल नेत्रों से देA कर कहा—बाई जी, मैं र्गं�ार और अलिशl प्राQी हंू। लेविकन नारी-जावित के लिलए मेरे हृदय में जो आदर है, �ह श्रद्धा से कम नहीं है, जो मुझे दे�ताओं पर हैं। मैंने अपनी माता का मुA नहीं देAा, यह भी नहीं जानता विक मेरा विपता कौन था; हिक?तु जिजस दे�ी के दया-�ृR की छाया में मेरा पालन-पोषQ हुआ उनकी पे्रम-मूर्तित? आज तक मेरी आंAों के सामने है और नारी के प्रवित मेरी भलिक्त को सजी� रAे हुए है। मै उन शब्दों को मुंह से विनकालने के लिलए अत्यंत दु:Aी और लज्जि5त हंू जो आ�ेश में विनकल र्गये, और मै आज ही समाचार-पत्रों में Aेद प्रकट करके आपसे Rमा की प्राथ�ना करंुर्गा। मिमस जोशी का अब तक अमि!कांश स्�ाथh आदमिमयों ही से साविबका पड़ा था, जिजनके लिचकने-चुपडे़ शब्दों में मतलब छुपा हुआ था। आपटे के सरल वि�श्वास पर उसका लिचत्त आनंद से र्गद्गद हो र्गया। शायद �ह र्गंर्गा में Aड़ी होकर अपने अन्य मिमत्रों से यह कहती तो उसके फैशनेबुल मिमलने �ालों में से विकसी को उस पर वि�श्वास न आता। सब मुंह के सामने तो ‘हां-हां’ करते, पर बाहर विनकलते ही उसका मजाक उड़ाना शुरु करते। उन कपटी मिमत्रों के सम्मुA यह आदमी था जिजसके एक-एक शब्द में सच्चाई झलक रही थी, जिजसके शब्द अंतस्तल से विनकलते हुए मालूम होते थे।

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आपटे उसे चुप देAकर विकसी और ही चिच?ता में पडे़ हुए थें।उन्हें भय हो रहा था अब मैं चाहे विकतना Rमा मांर्गू, मिमस जोशी के सामने विकतनी सफाइयां पेश करंू, मेरे आRेपों का असर कभी न मिमटेर्गा। इस भा� ने अज्ञात रुप से उन्हें अपने वि�षय की र्गुप्त बातें कहने की पे्ररQा की जो उन्हें उसकी दृमिl में लघु बना दें, जिजससे �ह भी उन्हें नीच समझने लर्गे, उसको संतोष हो जाए विक यह भी कलुविषत आत्मा है। बोले—मैं जन्म से अभार्गा हंू। माता-विपता का तो मुंह ही देAना नसीब न हुआ, जिजस दयाशील मविहला ने मुझे आश्रय दिदया था, �ह भी मुझे १३ �ष� की अ�स्था में अनाथ छोड़कर परलोक लिस!ार र्गयी। उस समय मेरे लिसर पर जो कुछ बीती उसे याद करके इतनी ल5ा आती हे विक विकसी को मुंह न दिदAाऊं। मैंने !ोबी का काम विकया; मोची का काम विकया; घोडे़ की साईसी की; एक होटल में बरतन मांजता रहा; यहां तक विक विकतनी ही बार Rु!ासे व्याकुल होकर भीA मांर्गी। मजदूरी करने को बुरा नहीं समझता, आज भी मजदूरी ही करता हंू। भीA मांर्गनी भी विकसी-विकसी दशा में Rम्य है, लेविकन मैंने उस अ�स्था में ऐसे-ऐसे कम� विकए, जिजन्हें कहते ल5ा आती है—चोरी की, वि�श्वासघात विकया, यहां तक विक चोरी के अपरा! में कैद की सजा भी पायी। मिमस जोशी ने सजल नयन होकर कहा—आज यह सब बातें मुझसे क्यों कर रहे हैं? मैं इनका उल्लेA करके आपको विकतना बदनाम कर सकतीं हंू, इसका आपको भय नहीं है? आपटे ने हंसकर कहा—नहीं, आपसे मुझे भय नहीं है। मिमस जोशी—अर्गर मैं आपसे बदला लेना चाहंू, तो? आपटे---जब मैं अपने अपरा! पर लज्जि5त होकर आपसे Rमा मांर्ग रहा हंू, तो मेरा अपरा! रहा ही कहाँ, जिजसका आप मुझसे बदला लेंर्गी। इससे तो मुझे भय होता है विक आपने मुझे Rमा नहीं विकया। लेविकन यदिद मैंने आपसे Rमा न मांर्गी तो मुझसे तो बदला न ले सकतीं। बदला लेने �ाले की आंAें यो सजल नहीं हो जाया करतीं। मैं आपको कपट करने के अयोग्य समझता हंू। आप यदिद कपट करना चाहतीं तो यहां कभी न आतीं। मिमस जोशी—मै आपका भेद लेने ही के लिलए आयी हंू। आपटे---तो शौक से लीजिजए। मैं बतला चुका हंू विक मैंने चोरी के अपरा! में कैद की सजा पायी थी। नालिसक के जेल में रAा र्गया था। मेरा शरीर दुब�ल था, जेल की कड़ी मेहनत न हो सकती थी और अमि!कारी लोर्ग मुझे कामचोर समझ कर बेंतो से मारते थे। आखिAर एक दिदन मैं रात को जेल से भार्ग Aड़ा हुआ। मिमस जोशी—आप तो लिछपे रुस्तम विनकले! आपटे--- ऐसा भार्गा विक विकसी को Aबर न हुई। आज तक मेरे नाम �ारंट जारी है और ५०० रु0 का इनाम भी है। मिमस जोशी----तब तो मैं आपको जरुर पकड़ा दंूर्गी। आपटे---तो विफर मैं आपको अपना असल नाम भी बता देता हंू। मेरा नाम दामोदर मोदी है। यह नाम तो पुलिलस से बचने के लिलए रA छोड़ा है। बालक अब तक तो चुपचाप बैठा हुआ था। मिमस जोशी के मुंह से पकड़ाने की बात सुनकर �ह सजर्ग हो र्गया। उन्हें डांटकर बोला—हमाले दादा को कौन पकडे़र्गा? मिमस जोशी---लिसपाही और कौन? बालक---हम लिसपाही को मालेंर्गे।

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यह कहकर �ह एक कोने से अपने Aेलने �ाला डंडा उठा लाया और आपटे के पास �ीरोलिचता भा� से Aड़ा हो र्गया, मानो लिसपाविहयों से उनकी रRा कर रहा है। मिमस जोशी---आपका रRक तो बड़ा बहादुर मालूम होता है। आपटे----इसकी भी एक कथा है। साल-भर होता है, यह लड़का Aो र्गया था। मुझे रास्ते में मिमला। मैं पूछता-पूछता इसे यहां लाया। उसी दिदन से इन लोर्गों से मेरा इतना पे्रम हो र्गया विक मैं इनके साथ रहने लर्गा। मिमस जोशी---आप अनुमान कर सकते हैं विक आपका �ृतान्त सुनकर मैं आपको क्या समझ रही हंू। आपटे---�ही, जो मैं �ास्त� में हंू---नीच, कमीना !ूत�.... मिमस जोशी---नहीं, आप मुझ पर विफर अन्याय कर रहे है। पहला अन्याय तो Rमा कर सकती हंू, यह अन्याय Rमा नहीं कर सकती। इतनी प्रवितकूल दशाओं में पड़कर भी जिजसका हृदय इतना पवि�त्र, इतना विनष्कपट, इतना सदय हो, �ह आदमी नहीं दे�ता है। भर्ग�न्, आपने मुझ पर जो आRेप विकये �ह सत्य हैं। मैं आपके अनुमान से कहीं भ्रl हंू। मैं इस योग्य भी नहीं हंू विक आपकी ओर ताक सकंू। आपने अपने हृदय की वि�शालता दिदAाकर मेरा असली स्�रुप मेरे सामने प्रकट कर दिदया। मुझे Rमा कीजिजए, मुझ पर दया कीजिजए। यह कहते-कहते �ह उनके पैंरो पर विर्गर पड़ी। आपटे ने उसे उठा लिलया और बोले----ईश्वर के लिलए मुझे लज्जि5त न करो। मिमस जोशी ने र्गद्गद कंठ से कहा---आप इन दुlों के हाथ से मेरा उद्धार कीजिजए। मुझे इस योग्य बनाइए विक आपकी वि�श्वासपात्री बन सकंू। ईश्वर साRी है विक मुझे कभी-कभी अपनी दशा पर विकतना दुA होता है। मैं बार-बार चेlा करती हंू विक अपनी दशा सु!ारंु;इस वि�लालिसता के जाल को तोड़ दंू, जो मेरी आत्मा को चारों तरफ से जकडे़ हुए है, पर दुब�ल आत्मा अपने विनश्चय पर ज्जिस्थत नहीं रहती। मेरा पालन-पोषQ जिजस ढंर्ग से हुआ, उसका यह परिरQाम होना स्�ाभावि�क-सा मालूम होता है। मेरी उच्च लिशRा ने र्गृविहQी-जी�न से मेरे मन में घृQा पैदा कर दी। मुझे विकसी पुरुष के अ!ीन रहने का वि�चार अस्�ाभावि�क जान पउ़ता था। मैं र्गृविहQी की जिजम्मेदारिरयों और चिच?ताओं को अपनी मानलिसक स्�ा!ीनता के लिलए वि�ष-तुल्य समझती थी। मैं तक� बुजिद्ध से अपने स्त्रीत्� को मिमटा देना चाहती थी, मैं पुरुषों की भांवित स्�तंत्र रहना चाहती थी। क्यों विकसी की पांबद होकर रहंू? क्यों अपनी इच्छाओं को विकसी व्यलिक्त के सांचे में ढालू? क्यों विकसी को यह अमि!कार दंू विक तुमने यह क्यों विकया, �ह क्यों विकया? दाम्पत्य मेरी विनर्गाह में तुच्छ �स्तु थी। अपने माता-विपता की आलोचना करना मेरे लिलए अलिचत नहीं, ईश्वर उन्हें सद्गवित दे, उनकी राय विकसी बात पर न मिमलती थी। विपता वि�द्वान् थे, माता के लिलए ‘काला अRर भैंस बराबर’ था। उनमें रात-दिदन �ाद-वि��ाद होता रहता था। विपताजी ऐसी स्त्री से वि��ाह हो जाना अपने जी�न का सबसे बड़ा दुभा�ग्य समझते थे। �ह यह कहते कभी न थकते थे विक तुम मेरे पां� की बेड़ी बन र्गयीं, नहीं तो मैं न जाने कहां उड़कर पहुंचा होता। उनके वि�चार मे सारा दोष माता की अलिशRा के लिसर था। �ह अपनी एकमात्र पुत्री को मूAा� माता से संसर्ग� से दूररAना चाहते थे। माता कभी मुझसे कुछ कहतीं तो विपताजी उन पर टूट पड़ते—तुमसे विकतनी बार कह चुका विक लड़की को डांटो मत, �ह स्�यं अपना भला-बुरा सोच सकती है, तुम्हारे डांटने से उसके आत्म-सम्मान का विकतना!क्का लर्गेर्गा, यह तुम नहीं जान सकतीं। आखिAर माताजी ने विनराश होकर मुझे मेरे हाल पर छोड़ दिदया और कदालिचत् इसी शोक में चल बसीं। अपने घर की अशांवित देAकर

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मुझे वि��ाह से और भी घृQा हो र्गयी। सबसे बड़ा असर मुझ पर मेरे कालेज की लेडी हिप्र?लिसपल का हुआ जो स्�यं अवि��ाविहत थीं। मेरा तो अब यह वि�चार है विक यु�को की लिशRा का भार के�ल आदश� चरिरत्रों पर रAना चाविहए। वि�लास में रत, कालेजों के शौविकन प्रोफेसर वि�द्यार्थिथ?यों पर कोई अच्छा असर नहीं डाल सकते । मैं इस �क्त ऐसी बात आपसे कह रही हंू। पर अभी घर जाकर यह सब भूल जाऊंर्गी। मैं जिजस संसार में हंू, उसकी जल�ायु ही दूविषत है। �हां सभी मुझे कीचड़ में लतपत देAना चाहते है।, मेरे वि�लासासक्त रहने में ही उनका स्�ाथ� है। आप �ह पहले आदमी हैं जिजसने मुझ पर वि�श्वास विकया है, जिजसने मुझसे विनष्कपट व्य�हार विकया है। ईश्वर के लिलए अब मुझे भूल न जाइयेर्गा। आपटे ने मिमस जोशी की ओर �ेदना पूQ� दृमिl से देAकर कहा—अर्गर मैं आपकी कुछ से�ा कर सकंू तो यह मेरे लिलए सौभाग्य की बात होर्गी। मिमस जोशी! हम सब मिमट्टी के पुतले हैं, कोई विनद�ष� नहीं। मनुष्य विबर्गड़ता है तो परिरज्जिस्थवितयों से, या पू�� संस्कारों से । परिरज्जिस्थवितयों का त्यार्ग करने से ही बच सकता है, संस्कारों से विर्गरने �ाले मनुष्य का मार्ग� इससे कहीं कदिठन है। आपकी आत्मा सुन्दर और पवि�त्र है, के�ल परिरज्जिस्थवितयों ने उसे कुहरे की भांवित ढंक लिलया है। अब वि��ेक का सूय� उदय हो र्गया है, ईश्वर ने चाहातो कुहरा भी फट जाएर्गा। लेविकन सबसे पहले उन परिरज्जिस्थवितयों का त्यार्ग करने को तैयार हो जाइए। मिमस जोशी—यही आपको करना होर्गा। आपटे ने चुभती हुई विनर्गाहों से देA कर कहा—�ैद्य रोर्गी को जबरदस्ती द�ा विपलाता है। मिमस जोशी –मैं सब कुछ करुर्गीं। मैं कड़�ी से कड़�ी द�ा विपयंूर्गी यदिद आप विपलायेंर्गे। कल आप मेरे घर आने की कृपा करेंर्गे, शाम को? आपटे---अ�aय आऊंर्गा। मिमस जोशी ने वि�दा देते हुए कहा---भूलिलएर्गा नहीं, मैं आपकी राह देAती रहंूर्गी। अपने रRक को भी लाइएर्गा। यह कहकर उसने बालक को र्गोद मे उठाया ओर उसे र्गले से लर्गा कर बाहर विनकल आयी। र्ग�� के मारे उसके पां� जमीन पर न पड़ते थे। मालूम होता था, ह�ामें उड़ी जा रही है, प्यास से तड़पते हुए मनुष्य को नदी का तट नजर आने लर्गा था। ६

सरे दिदन प्रात:काल मिमस जोशी ने मेहमानों के नाम दा�ती काड� भेजे और उत्स� मनाने की तैयारिरयां करने लर्गी। मिमस्टर आपटे के सम्मान में पाट� दी जा रही थी। मिमस्टर जौहरी

ने काड� देAा तो मुस्कराये। अब महाशय इस जाल से बचकरह कहां जायेर्गे। मिमस जोशी ने ने उन्हें फसाने के लिलए यह अच्छी तरकीब विनकाली। इस काम में विनपुQ मालूम होती है। मैने सकझा था, आपटे चालाक आदमी होर्गा, मर्गर इन आन्दोलनकारी वि�द्राविहयों को बक�ास करने के लिस�ा और क्या सूझ सकती है।

दू

चार ही बजे मेहमान लोर्ग आने लर्गे। नर्गर के बडे़-बडे़ अमि!कारी, बडे़-बडे़ व्यापारी, बडे़-बडे़ वि�द्वान, समाचार-पत्रों के सम्पादक, अपनी-अपनी मविहलाओं के साथ आने लर्गे। मिमस जोशी ने आज अपने अचे्छ-से-अचे्छ �स्त्र और आभूषQ विनकाले हुए थे, जिज!र विनकल जाती थी मालूम होता था, अरुQ प्रकाश की छटा चली आरही है। भ�न में चारों ओर सुर्गं! की लपटे आ रही थीं और म!ुर संर्गीत की ध्�विन ह�ा में र्गूंज रहीं थी।

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पांच बजते-बजते मिमस्टर जौहरी आ पहुंचे और मिमस जोशी से हाथ मिमलाते हुए मुस्करा कर बोले—जी चाहता है तुम्हारे हाथ चूम लूं। अब मुझे वि�श्वास हो र्गया विक यह महाशय तुम्हारे पंजे से नहीं विनकल सकते। मिमसेज पेदिटट बोलीं---मिमस जोशी दिदलों का लिशकार करने के लिलए ही बनाई र्गई है। मिमस्टर सोराब जी---मैंने सुना है, आपटे विबलकुल र्गं�ार-सा आदमी है। मिमस्टर भरुचा---विकसी यूविन�र्थिस?टी में लिशRा ही नहीं पायी, सभ्यता कहां से आती? मिमस्टर भरुचा---आज उसे Aूब बनाना चाविहए। महंत �ीरभद्र डाढ़ी के भीतर से बोले---मैंने सुना है नाश्किस्तक है। �Qा�श्रम !म� का पालन नहीं करता। मिमस जोशी---नाश्किस्तक तो मै भी हंू। ईश्वर पर मेरा भी वि�श्वास नहीं है। महंत---आप नाश्किस्तक हों, पर आप विकतने ही नाश्किस्तकों को आश्किस्तक बना देती हैं। मिमस्टर जौहरी---आपने लाA की बात की कहीं मंहत जी! मिमसेज भरुचा—क्यों महंत जी, आपको मिमस जोशी ही न आश्किस्तक बनाया है क्या? सहसा आपटे लोहार के बालक की उंर्गली पकडे़ हुए भ�न में दाखिAल हुए। �ह पूरे फैशनेबुल रईस बने हुए थे। बालक भी विकसी रईस का लड़का मालूम होता था। आज आपटे को देAकर लोर्गो को वि�दिदत हुआ विक �ह विकतना सुदंर, सजीला आदमी है। मुA से शौय� विनकल रहा था, पोर-पोर से लिशlता झलकती थी, मालूम होता था �ह इसी समाज में पला है। लोर्ग देA रहे थे विक �ह कहीं चूके और तालिलयां बजायें, कही कदम विफसले और कहकहे लर्गायें पर आपटे मंचे हुए खिAलाड़ी की भांवित, जो कदम उठाता था �ह स!ा हुआ, जो हाथ दिदAलाता था �ह जमा हुआ। लोर्ग उसे पहले तुच्छ समझते थे, अब उससे ईष्या� करने लर्गे, उस पर फबवितयां उड़ानी शुरु कीं। लेविकन आपटे इस कला में भी एक ही विनकला। बात मुंह से विनकली ओर उसने ज�ाब दिदया, पर उसके ज�ाब में मालिलन्य या कटुता का लेश भी न होता था। उसका एक-एक शब्द सरल, स्�च्छ , लिचत्त को प्रसन्न करने �ाले भा�ों में डूबा होता था। मिमस जोशी उसकी �ाक्यचातुरी पर फुल उठती थी? सोराब जी---आपने विकस यूविन�र्थिस?टी से लिशRा पायी थी? आपटे---यूविन�र्थिस?टी में लिशRा पायी होती तो आज मैं भी लिशRा-वि�भार्ग का अध्यR होता। मिमसेज भरुचा—मैं तो आपको भयंककर जंतु समझती थी? आपटे ने मुस्करा कर कहा—आपने मुझे मविहलाओं के सामने न देAा होर्गा। सहसा मिमस जोशी अपने सोने के कमरे में र्गयी ओर अपने सारे �स्त्राभूषQ उतार फें के। उसके मुA से शुभ्र संकल्प का तेज विनकल रहा था। नेंत्रो से दबी ज्योवित प्रसु्फदिटत हो रही थी, मानों विकसी दे�ता ने उसे �रदान दिदया हो। उसने सजे हुए कमरे को घृQा से देAा, अपने आभूषQों को पैरों से ठुकरा दिदया और एक मोटी साफ साड़ी पहनकर बाहर विनकली। आज प्रात:काल ही उसने यह साड़ी मंर्गा ली थी। उसे इस नेय �ेश में देA कर सब लोर्ग चविकत हो र्गये। कायापलट कैसी? सहसा विकसी की आंAों को वि�श्वास न आया; हिक?तु मिमस्टर जौहरी बर्गलें बजाने लर्गे। मिमस जोशी ने इसे फंसाने के लिलए यह कोई नया स्�ांर्ग रचा है। ‘मिमत्रों! आपको याद है, परसों महाशय आपटे ने मुझे विकतनी र्गांलिलयां दी थी। यह महाशय Aडे़ हैं । आज मैं इन्हें उस दुव्य��हार का दण्ड देना चाहती हंू। मैं कल इनके मकान

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पर जाकर इनके जी�न के सारे र्गुप्त रहस्यों को जान आयी। यह जो जनता की भीड़ र्गरजते विफरते है, मेरे एक ही विनशाने पर विर्गर पडे़। मैं उन रहस्यों के Aोलने में अब वि�लंब न करंुर्गी, आप लोर्ग अ!ीर हो रहे होर्गें। मैंने जो कुछ देAा, �ह इतना भंयकर है विक उसका �ृतांत सुनकर शायद आप लोर्गों को मूछा� आ जायेर्गी। अब मुझे लेशमात्र भी संदेह नहीं है विक यह महाशय पक्के देशद्रोही है....’ मिमस्टर जौहरी ने ताली बजायी ओर तालिलयों के हॉल र्गूंज उठा। मिमस जोशी---लेविकन राज के द्रोही नहीं, अन्याय के द्रोही, दमन के द्रोही, अणिभमान के द्रोही--- चारों ओर सन्नाटा छा र्गया। लोर्ग वि�श्किस्मत होकर एक दूसरे की ओर ताकने लर्गे। मिमस जोशी---र्गुप्त रुप से शस्त्र जमा विकए है और र्गुप्त रुप से हत्याऍं की हैं......... मिमस्टर जौहरी ने तालिलयां बजायी और तालिलयां का दौर्गड़ा विफर बरस र्गया। मिमस जोशी—लेविकन विकस की हत्या? दु:A की, दरिरद्रता की, प्रजा के कlों की, हठ!मh की ओर अपने स्�ाथ� की। चारों ओर विफर सन्नाटा छा र्गया और लोर्ग चविकत हो-हो कर एक दूसरे की ओर ताकने लर्गे, मानो उन्हें अपने कानों पर वि�श्वास नहीं है। मिमस जोशी—महाराज आपटे ने डकैवितयां की और कर रहे हैं--- अब की विकसी ने ताली न बजायी, लोर्ग सुनना चाहते थे विक देAे आर्गे क्या कहती है। ‘उन्होंने मुझ पर भी हाथ साफ विकया है, मेरा सब कुछ अपहरQ कर लिलया है, यहां तक विक अब मैं विनरा!ार हंू और उनके चरQों के लिस�ा मेरे लिलए कोई आश्रय नहीं है। प्राण्!ार! इस अबला को अपने चरQों में स्थान दो, उसे डूबने से बचाओ। मैं जानती हंू तुम मुझे विनराश न करोंर्गें।’ यह कहते-कहते �ह जाकर आपटे के चरQों में विर्गर पड़ी। सारी मण्डली स्तंणिभत रह र्गयी।

७क सप्ता र्गुजर चुका था। आपटे पुलिलस की विहरासत में थे। उन पर चार अणिभयोर्ग चलाने की तैयारिरयां चल रहीं थी। सारे प्रांत में हलचल मची हुई थी। नर्गर में रोज सभाए ंहोती

थीं, पुलिलस रोज दस-पांच आदमिमयां को पकड़ती थी। समाचार-पत्रों में जोरों के साथ �ाद-वि��ाद हो रहा था।

ए रात के नौ बज र्गये थे। मिमस्टर जौहरी राज-भ�न में मेंज पर बैठे हुए सोच रहे थे विक मिमस जोशी को क्यों कर �ापस लाए?ं उसी दिदन से उनकी छाती पर सांप लोट रहा था। उसकी सूरत एक RQ के लिलए आंAों से न उतरती थी। �ह सोच रहे थे, इसने मेरे साथ ऐसी दर्गा की! मैंने इसके लिलएक्या कुछ नहीं विकया? इसकी कौन-सी इच्छा थी, जो मैने पूरी नहीं की इसी ने मुझसे बे�फाई की। नहीं, कभी नहीं, मैं इसके बर्गैर जिज?दा नहीं रह सकता। दुविनया चाहे मुझे बदनाम करे, हत्यारा कहे, चाहे मुझे पद से हाथ !ोना पडे़, लेविकन आपटे को नहीं छोड़ूर्गां। इस रोडे़ को रास्ते से हटा दंूर्गा, इस कांटे को पहलू से विनकाल बाहर करंुर्गा। सहसा कमरे का दर�ाजा Aुला और मिमस जाशी ने प्र�ेश विकया। मिमस्टर जौहरी हकबका कर कुसh पर से उठ Aडे़ हुए, यह सोच रहे थे विक शायद मिमस जोशी ने विनराश होकर मेरे

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पास आयी हैं, कुछ रुAे, लेविकन नम्र भा� से बोले---आओ बाला, तुम्हारी याद में बैठा था। तुम विकतनी ही बे�फाई करो, पर तुम्हारी याद मेरे दिदल से नहीं विनकल सकती। मिमस जोशी---आप के�ल जबान से कहते है। मिमस्टर जौहरी—क्या दिदल चीरकर दिदAा दंू? मिमस जोशी—पे्रम प्रवितकार नहीं करता, पे्रम में दुराग्रह नहीं होता। आप मरे Aून के प्यासे हो रहे हैं, उस पर भी आप कहते हैं, मैं तुम्हारी याद करता हंू। आपने मेरे स्�ामी को विहरासत में डाल रAा है, यह पे्रम है! आखिAर आप मुझसे क्या चाहते हैं? अर्गर आप समझ रहे हों विक इन सज्जिख्तयों से डर कर मै आपकी शरQ आ जाऊंर्गी तो आपका भ्रम है। आपको अज्जिख्तयार है विक आपटे को काले पानी भेज दें, फांसी चढ़ा दें, लेविकन इसका मुझ परकोई असर न होर्गा।�ह मेरे स्�मी हैं, मैं उनको अपना स्�ामी समझती हंू। उन्होने अपनी वि�शाल उदारता से मेरा उद्धार विकया । आप मुझे वि�षय के फंदो में फंसाते थे, मेरी आत्मा को कलुविषत करते थे। कभी आपको यह Aयाल आया विक इसकी आत्मा पर क्या बीत रही होर्गी? आप मुझे आत्मशुन्य समझते थे। इस दे�पुरुष ने अपनी विनम�ल स्�च्छ आत्मा के आकष�Q से मुझे पहली ही मुलाकात में Aींच लिलया। मैं उसकी हो र्गयी और मरते दम तक उसी की रहंूर्गी। उस मार्ग� से अब आप हटा नहीं सकते। मुझे एक सच्ची आत्मा की जरुरत थी , �ह मुझे मिमल र्गयी। उसे पाकर अब तीनों लोक की सम्पदा मेरी आंAो में तुच्छ है। मैं उनके वि�योर्ग में चाहे प्राQ दे दंू, पर आपके काम नहीं आ सकती। मिमस्टर जौहरी---मिमस जोशी । पे्रम उदार नहीं होता, Rमाशील नहीं होता । मेरे लिलए तुम स��स्� हो, जब तक मैं समझता हंू विक तुम मेरी हो। अर्गर तुम मेरी नहीं हो सकती तो मुझे इसकी क्या चिच?ता हो सकती है विक तुम विकस दिदशा में हो? मिमस जोशी—यह आपका अंवितम विनQ�य है? मिमस्टर जौहरी—अर्गर मैं कह दंू विक हां, तो? मिमस जोशी ने सीने से विपस्तौल विनकाल कर कहा---तो पहले आप की लाश जमीन पर फड्रकती होर्गी और आपके बाद मेरी ,बोलिलए। यह आपका अंवितम विनQ�य विनश्चय है? यह कहकर मिमस जोशी ने जौहरी की तरफ विपस्तौल सी!ा विकया। जौहरी कुसh से उठ Aडे़ हुए और मुस्कर बोले—क्या तुम मेरे लिलए कभी इतना साहस कर सकती थीं? जाओं, तुम्हारा आपटे तुम्हें मुबारक हो। उस पर से अणिभयोर्ग उठा लिलया जाएर्गा। पवि�त्र पे्रम ही मे यह साहस है। अब मुझे वि�श्वास हो र्गया विक तुम्हारा पे्रम पवि�त्र है। अर्गर कोई पुराना पापी भवि�ष्य�ाQी कर सकता है तो मैं कहता हंू, �ह दिदन दूर नहीं है, जब तुम इस भ�न की स्�ामिमनी होर्गी। आपटे ने मुझे पे्रम के Rेत्र में नहीं, राजनीवित के Rेत्र में भी परास्त कर दिदया। सच्चा आदमी एक मुलाकात में ही जी�न बदल सकता है, आत्मा को जर्गा सकता है और अज्ञान को मिमटा कर प्रकाश की ज्योवित फैला सकता है, यह आज लिसद्ध हो र्गया।

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नरक का मार्ग�त “भक्तमाल” पढ़ते-पढ़ते न जाने कब नींद आ र्गयी। कैसे-कैसे महात्मा थे जिजनके लिलए भर्ग�त्-पे्रम ही सब कुछ था, इसी में मग्न रहते थे। ऐसी भलिक्त बड़ी तपस्या से

मिमलती है। क्या मैं �ह तपस्या नहीं कर सकती? इस जी�न में और कौन-सा सुA रAा है? आभूषQों से जिजसे पे्रम हो जाने , यहां तो इनको देAकर आंAे फूटती है;!न-दौलत पर जो प्राQ देता हो �ह जाने, यहां तो इसका नाम सुनकर ज्�र-सा चढ़ आता हैं। कल पर्गली सुशीला ने विकतनी उमंर्गों से मेरा श्रृंर्गार विकया था, विकतने पे्रम से बालों में फूल र्गूंथे। विकतना मना करती रही, न मानी। आखिAर �ही हुआ जिजसका मुझे भय था। जिजतनी देर उसके साथ हंसी थी, उससे कहीं ज्यादा रोयी। संसार में ऐसी भी कोई स्त्री है, जिजसका पवित उसका श्रृंर्गार देAकर लिसर से पां� तक जल उठे? कौन ऐसी स्त्री है जो अपने पवित के मुंह से ये शब्द सुने—तुम मेरा परलोर्ग विबर्गाड़ोर्गी, और कुछ नहीं, तुम्हारे रंर्ग-ढंर्ग कहे देते हैं---और मनुष्य उसका दिदल वि�ष Aा लेने को चाहे। भर्ग�ान्! संसार में ऐसे भी मनुष्य हैं। आखिAर मैं नीचे चली र्गयी और ‘भलिक्तमाल’ पढ़ने लर्गी। अब �ृंदा�न विबहारी ही की से�ा करंुर्गी उन्हीं को अपना श्रृंर्गार दिदAाऊंर्गी, �ह तो देAकर न जलेरे्ग। �ह तो हमारे मन का हाल जानते हैं।

रा

२ भर्ग�ान! मैं अपने मन को कैसे समझाऊं! तुम अंतया�मी हो, तुम मेरे रोम-रोम का हाल जानते हो। मैं चाहती हंु विक उन्हें अपना इl समझूं, उनके चरQों की से�ा करंु, उनके इशारे पर चलंू, उन्हें मेरी विकसी बात से, विकसी व्य�हार से नाममात्र, भी दु:A न हो। �ह विनद�ष हैं, जो कुछ मेरे भाग्य में था �ह हुआ, न उनका दोष है, न माता-विपता का, सारा दोष मेरे नसीबों ही का है। लेविकन यह सब जानते हुए भी जब उन्हें आते देAती हंू, तो मेरा दिदल बैठ जाता है, मुह पर मुरदनी सी-छा जाती है, लिसर भारी हो जाता है, जी चाहता है इनकी सूरत न देAंू, बात तक करने को जी नही चाहता;कदालिचत् शतु्र को भी देAकर विकसी का मन इतना क्लांत नहीं होता होर्गा। उनके आने के समय दिदल में !ड़कन सी होने लर्गती है। दो-एक दिदन के लिलए कहीं चले जाते हैं तो दिदल पर से बोझ उठ जाता है। हंसती भी हंू, बोलती भी हंू, जी�न में कुछ आनंद आने लर्गता है लेविकन उनके आने का समाचार पाते ही विफर चारों ओर अं!कार! लिचत्त की ऐसी दशा क्यों है, यह मैं नहीं कह सकती। मुझे तो ऐसा जान पड़ता है विक पू��जन्म में हम दोनों में बैर था, उसी बैर का बदला लेने के लिलए उन्होंने मुझेसे वि��ाह विकया है, �ही पुराने संस्कार हमारे मन में बने हुए हैं। नहीं तो �ह मुझे देA-देA कर क्यों जलते और मैं उनकी सूरत से क्यों घृQा करती? वि��ाह करने का तो यह मतलब नहीं हुआ करता! मैं अपने घर कहीं इससे सुAी थी। कदालिचत् मैं जी�न-पय�न्त अपने घर आनंद से रह सकती थी। लेविकन इस लोक-प्रथा का बुरा हो, जो अभाविर्गन कनयाओं को विकसी-न-विकसी पुरुष के र्गलें में बां! देना अविन�ाय� समझती है। �ह क्या जानता है विक विकतनी यु�वितयां उसके नाम को रो रही है, विकतने अणिभलाषाओं से लहराते हुए, कोमल हृदय उसके पैरो तल रौंदे जा रहे है? यु�वित के लिलए पवित कैसी-कैसी म!ुर कल्पनाओं का स्रोत्र होता है, पुरुष में जो उत्तम है, श्रेष्ठ है, दश�नीय है, उसकी सजी� मूर्तित? इस शब्द के ध्यान में आते ही उसकी नजरों के सामने आकर Aड़ी हो जाती है।लवेिकन मेरे लिलए यह शब्द क्या है। हृदय में उठने �ाला शूल, कलेजे में Aटकने�ाला कांटा, आंAो में र्गड़ने �ाली विकरविकरी, अंत:करQ को

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बे!ने �ाला वं्यर्ग बाQ! सुशीला को हमेशा हंसते देAती हंू। �ह कभी अपनी दरिरद्रता का विर्गला नहीं करती; र्गहने नहीं हैं, कपडे़ नहीं हैं, भाडे़ के नन्हेंसे मकान में रहती है, अपने हाथों घर का सारा काम-काज करती है , विफर भी उसे रोतेनहीे देAती अर्गर अपने बस की बात होती तो आज अपने !न को उसकी दरिरद्रता से बदल लेती। अपने पवितदे� को मुस्कराते हुए घर में आते देAकर उसका सारा दु:A दारिरद्रय छूमंतर हो जाता है, छाती र्गज-भर की हो जाती है। उसके पे्रमाचिल?र्गन में �ह सुA है, जिजस पर तीनों लोक का !न न्योछा�र कर दंू। ३

ज मुझसे जब्त न हो सका। मैंने पूछा—तुमने मुझसे विकसलिलए वि��ाह विकया था? यह प्रश्न महीनों से मेरे मन में उठता था, पर मन को रोकती चली आती थी।

आज प्याला छलक पड़ा। यह प्रश्न सुनकर कुछ बौAला-से र्गये, बर्गलें झाकने लर्गे, Aीसें विनकालकर बोले—घर संभालने के लिलए, र्गृहस्थी का भार उठाने के लिलए, और नहीं क्या भोर्ग-वि�लास के लिलए? घरनी के विबना यह आपको भूत का डेरा-सा मालूम होता था। नौकर-चाकर घर की सम्पवित उडाये देते थे। जो चीज जहां पड़ी रहती थी, कोई उसको देAने �ाला न था। तो अब मालूम हुआ विक मैं इस घर की चौकसी के लिलए लाई र्गई हंू। मुझे इस घर की रRा करनी चाविहए और अपने को !न्य समझना चाविहए विक यह सारी सम्पवित मेरी है। मुख्य �स्तु सम्पणित्त है, मै तो के�ल चौकी दारिरन हंू। ऐसे घर में आज ही आर्ग लर्ग जाये! अब तक तो मैं अनजान में घर की चौकसी करती थी, जिजतना �ह चाहते हैं उतना न सही, पर अपनी बुजिद्ध के अनुसार अ�aय करती थी। आज से विकसी चीज को भूलकर भी छूने की कसम Aाती हंू। यह मैं जानती हंू। कोई पुरुष घर की चौकसी के लिलए वि��ाह नहीं करता और इन महाशय ने लिचढ़ कर यह बात मुझसे कही। लेविकन सुशीला ठीक कहती है, इन्हें स्त्री के विबना घर सुना लर्गता होर्गा, उसी तरह जैसे हिप?जरे में लिचविड़या को न देAकर हिप?जरा सूना लर्गता है। यह हम म्मिस्त्रयों का भाग्य!

४लूम नहीं, इन्हें मुझ पर इतना संदेह क्यो होता है। जब से नसीब इस घर में लाया हैं, इन्हें बराबर संदेह-मूलक कटाR करते देAती हंू। क्या कारQ है? जरा बाल

र्गुथ�ाकर बैठी और यह होठ चबाने लर्गे। कहीं जाती नहीं, कहीं आती नहीं, विकसी से बोलती नहीं, विफर भी इतना संदेह! यह अपमान असह्य है। क्या मुझे अपनी आबरु प्यारी नहीं? यह मुझे इतनी लिछछोरी क्यों समझते हैं, इन्हें मुझपर संदेह करते ल5ा भी नहीं आती? काना आदमी विकसी को हंसते देAता है तो समझता है लोर्ग मुझी पर हंस रहे है। शायद इन्हें भी यही बहम हो र्गया है विक मैं इन्हें लिचढ़ाती हंू। अपने अमि!कार के बाहर से बाहर कोई काम कर बैठने से कदालिचत् हमारे लिचत्त की यही �ृणित्त हो जाती है। णिभRुक राजा की र्गद्दी पर बैठकर चैन की नींद नहीं सो सकता। उसे अपने चारों तरफ शुत्र दिदAायी देंर्गें। मै समझती हंू, सभी शादी करने �ाले बुड्ढ़ो का यही हाल है।

मा

आज सुशीला के कहने से मैं ठाकुर जी की झांकी देAने जा रही थी। अब यह सा!ारQ बुजिद्ध का आदमी भी समझ सकता हैविक फूहड़ बहू बनकर बाहर विनकलना अपनी हंसी उड़ाना है, लेविकन आप उसी �क्त न जाने विक!र से टपक पडे़ और मेरी ओर वितरस्कापूQ� नेत्रों से देAकर बोले—कहां की तैयारी है? मैंने कह दिदया, जरा ठाकुर जी की झांकी देAने जाती हंू।इतना सुनते ही त्योरिरयां चढ़ाकर बोले—तुम्हारे जाने की कुछ जरुरत नहीं। जो अपने पवित की से�ा नहीं कर सकती,

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उसे दे�ताओं के दश�न से पुण्य के बदले पाप होता। मुझसे उड़ने चली हो । मैं औरतों की नस-नस पहचानता हंू। ऐसा क्रो! आया विक बस अब क्या कहूं। उसी दम कपडे़ बदल डाले और प्रQ कर लिलया विक अब कभ दश�न करने जाऊंर्गी। इस अवि�श्वास का भी कुछ दिठकाना है! न जाने क्या सोचकर रुक र्गयी। उनकी बात का ज�ाब तो यही था विक उसी RQ घरसे चल Aड़ी हुई होती, विफर देAती मेरा क्या कर लेते। इन्हें मेरा उदास और वि�मन रहने पर आश्चय� होता है। मुझे मन-में कृतघ्न समझते है। अपनी समQमें इन्होने मरे से वि��ाह करके शायद मुझ पर एहसान विकया है। इतनी बड़ी जायदाद और वि�शाल सम्पणित्त की स्�ामिमनी होकर मुझे फूले न समाना चाविहए था, आठो पहरइनका यशर्गान करते रहना चाविहये था। मैं यह सब कुछ न करके उलटे और मुंह लटकाए रहती हंू। कभी-कभी बेचारे पर दया आती है। यह नहीं समझते विक नारी-जी�न में कोई ऐसी �स्तु भी है जिजसे देAकर उसकी आंAों में स्�र्ग� भी नरकतुल्य हो जाता है। ५

न दिदन से बीमान हैं। डाक्टर कहते हैं, बचने की कोई आशा नहीं, विनमोविनया हो र्गया है। पर मुझे न जाने क्यों इनका र्गम नहीं है। मैं इनती �ज्र-हृदय कभी न थी।न जाने

�ह मेरी कोमलता कहां चली र्गयी। विकसी बीमार की सूरत देAकर मेरा हृदय करुQा से चंचल हो जाता था, मैं विकसी का रोना नहीं सुन सकती थी। �ही मैं हंू विक आज तीन दिदन से उन्हें बर्गल के कमरे में पडे़ कराहते सुनती हंू और एक बार भी उन्हें देAने न र्गयी, आंAो में आंसू का जिजक्र ही क्या। मुझे ऐसा मालूम होता है, इनसे मेरा कोई नाता ही नहीं मुझे चाहे कोई विपशाचनी कहे, चाहे कुलटा, पर मुझे तो यह कहने में लेशमात्र भी संकोच नहीं है विक इनकी बीमारी से मुझे एक प्रकार का ईष्या�मय आनंद आ रहा है। इन्होने मुझे यहां कारा�ास दे रAा था—मैं इसे वि��ाह का पवि�त्र नाम नहींदेना चाहती---यह कारा�ास ही है। मैं इतनी उदार नहीं हंू विक जिजसने मुझे कैद मे डाल रAा हो उसकी पूजा करंु, जो मुझे लात से मारे उसक पैरो का चूंमू। मुझे तो मालूम हो रहा था। ईश्वर इन्हें इस पाप का दण्ड दे रहे है। मै विनस्सकोंच होकर कहती हंू विक मेरा इनसे वि��ाह नहीं हुआ है। स्त्री विकसी के र्गले बां! दिदये जाने से ही उसकी वि��ाविहता नहीं हो जाती। �ही संयोर्ग वि��ाह का पद पा सकता है। जिज?समे कम-से-कम एक बार तो हृदय पे्रम से पुलविकत हो जाय! सुनती हंू, महाशय अपने कमरे में पडे़-पडे़ मुझे कोसा करते हैं, अपनी बीमारी का सारा बुAार मुझ पर विनकालते हैं, लेविकन यहां इसकी पर�ाह नहीं। जिजसकाह जी चाहे जायदाद ले, !न ले, मुझे इसकी जरुरत नहीं!

ती

६ज तीन दिदन हुए, मैं वि�!�ा हो र्गयी, कम-से-कम लोर्ग यही कहते हैं। जिजसका जो जी चाहे कहे, पर मैं अपने को जो कुछ समझती हंू �ह समझती हंू। मैंने चूविड़या

नहीं तोड़ी, क्यों तोड़ू? क्यों तोड़ू? मांर्ग में सेंदुर पहले भी न डालती थी, अब भी नहीं डालती। बूढे़ बाबा का विक्रया-कम� उनके सुपुत्र ने विकया, मैं पास न फटकी। घर में मुझ पर मनमानी आलोचनाए ं होती हैं, कोई मेरे र्गुंथे हुए बालों को देAकर नाक चिस?कोड़ता हैं, कोई मेरे आभूषQों पर आंA मटकाता है, यहां इसकी चिच?ता नहीं। उन्हें लिचढ़ाने को मैं भी रंर्ग=-विबरंर्गी साविड़या पहनती हंू, और भी बनती-सं�रती हंू, मुझे जरा भी दु:A नहीं हैं। मैं तो कैद से छूट र्गयी। इ!र कई दिदन सुशीला के घर र्गयी। छोटा-सा मकान है, कोई सजा�ट न सामान, चारपाइयां तक नहीं, पर सुशीला विकतने आनंद से रहती है। उसका उल्लास देAकर मेरे मन

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में भी भांवित-भांवित की कल्पनाए ंउठने लर्गती हैं---उन्हें कुज्जित्सत क्यों कहुं, जब मेरा मन उन्हें कुज्जित्सत नहीं समझता ।इनके जी�न में विकतना उत्साह है।आंAे मुस्कराती रहती हैं, ओठों पर म!ुर हास्य Aेलता रहता है, बातों में पे्रम का स्रोत बहताहुआजान पड़ता है। इस आनंद से, चाहे �ह विकतना ही RणिQक हो, जी�न सफल हो जाता है, विफर उसे कोई भूल नहीं सकता, उसी स्मृवित अंत तक के लिलए काफी हो जाती है, इस मिमजराब की चोट हृदय के तारों को अंतकाल तक म!ुर स्�रों में कंविपत रAसकती है। एक दिदन मैने सुशीला से कहा---अर्गर तेरे पवितदे� कहीं परदेश चले जाए तो रोत-रोते मर जाएर्गी! सुशीला र्गंभीर भा� से बोली—नहीं बहन, मरुर्गीं नहीं , उनकी याद सदै� प्रफुज्जिल्लत करती रहेर्गी, चाहे उन्हें परदेश में बरसों लर्ग जाए।ं मैं यही पे्रम चाहती हंू, इसी चोट के लिलए मेरा मन तड़पता रहता है, मै भी ऐसी ही स्मृवित चाहती हंू जिजससे दिदल के तार सदै� बजते रहें, जिजसका नशा विनत्य छाया रहे। ७

त रोते-रोते विहचविकयां बं! र्गयी। न-जाने क्यो दिदल भर आता था। अपना जी�न सामने एक बीहड़ मैदान की भांवित फैला हुआ मालूम होता था, जहां बर्गूलों के लिस�ा

हरिरयाली का नाम नहीं। घर फाडे़ Aाता था, लिचत्त ऐसा चंचल हो रहा था विक कहीं उड़ जाऊं। आजकल भलिक्त के ग्रंथो की ओर ताकने को जी नहीं चाहता, कही सैर करने जाने की भी इच्छा नहीं होती, क्या चाहती हंू �ह मैं स्�यं भी नहीं जानती। लेविकन मै जो जानती �ह मेरा एक-एक रोम-रोम जानता है, मैं अपनी भा�नाओं को संजी� मूर्तित? हैं, मेरा एक-एक अंर्ग मेरी आंतरिरक �ेदना का आत�नाद हो रहा है।

रा

मेरे लिचत्त की चंचलता उस अंवितम दशा को पहंच र्गयी है, जब मनुष्य को हिन?दा की न ल5ा रहती है और न भय। जिजन लोभी, स्�ाथh माता-विपता ने मुझे कुए ंमें ढकेला, जिजस पाषाQ-हृदय प्राQी ने मेरी मांर्ग में सेंदुर डालने का स्�ांर्ग विकया, उनके प्रवित मेरे मन में बार-बार दुष्कामनाए ंउठती हैं। मैं उन्हे लज्जि5त करना चाहती हंू। मैं अपने मुंह में कालिलA लर्गा कर उनके मुA में कालिलA लर्गाना चाहती हंू मैअपने प्राQदेकर उन्हे प्राQदण्ड दिदलाना चाहती हंू।मेरा नारीत्� लुप्त हो र्गया है,। मेरे हृदय में प्रचंड ज्�ाला उठी हुई है। घर के सारे आदमी सो रहे है थे। मैं चुपके से नीचे उतरी , द्वार Aोला और घर से विनकली, जैसे कोई प्राQी र्गमh से व्याकुल होकर घर से विनकले और विकसी Aुली हुई जर्गह की ओर दौडे़।उस मकान में मेरा दम घुट रहा था। सड़क पर सन्नाटा था, दुकानें बंद हो चुकी थी। सहसा एक बुदिढयां आती हुई दिदAायी दी। मैं डरी कहीं यह चुडै़ल न हो। बुदिढया ने मेरे समीप आकर मुझे लिसर से पां� तक देAा और बोली ---विकसकी राह देAरही हो मैंने लिचढ़ कर कहा---मौत की! बुदिढ़या---तुम्हारे नसीबों में तो अभी जिजन्दर्गी के बडे़-बडे़ सुA भोर्गने लिलAे हैं। अं!ेरी रात र्गुजर र्गयी, आसमान पर सुबह की रोशनी नजर आ रही हैं। मैने हंसकर कहा---अं!ेरे में भी तुम्हारी आंAे इतनी तेज हैंविक नसीबों की लिलAा�ट पढ़ लेती हैं? बुदिढ़या---आंAो से नहीं पढती बेटी, अक्ल से पढ़ती हंू, !ूप में चूडे़ नही सुफेद विकये हैं।। तुम्हारे दिदन र्गये और अचे्छ दिदन आ रहे है। हंसो मत बेटी, यही काम करते इतनी उम्र र्गुजर

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र्गयी। इसी बुदिढ़या की बदौलत जो नदी में कूदने जा रही थीं, �े आज फूलों की सेज पर सो रही है, जो जहर का प्याल पीने को तैयार थीं, �े आज दू! की कुज्जिल्लयां कर रही हैं। इसीलिलए इतनी रात र्गये विनकलती हू विक अपने हाथों विकसी अभाविर्गन का उद्धार हो सके तो करंु। विकसी से कुछ नहीं मांर्गती, भर्ग�ान् का दिदया सब कुछ घर में है, के�ल यही इच्छा है उन्हे !न, जिजन्हे संतान की इच्छा है उन्हें संतान, बस औरक्या कहूं, �ह मंत्र बता देती हंू विक जिजसकी जो इच्छा जो �ह पूरी हो जाये। मैंने कहा---मुझे न !न चाविहए न संतान। मेरी मनोकामना तुम्हारे बस की बात नहीं है। बुदिढ़या हंसी—बेटी, जो तुम चाहती हो �ह मै जानती हंू; तुम �ह चीज चाहती हो जो संसार में होते हुए स्�र्ग� की है, जो दे�ताओं के �रदान से भी ज्यादा आनंदप्रद है, जो आकाश कुसुम है,र्गुलर का फूल है और अमा�सा का चांद है। लेविकन मेरे मंत्र में �ह शंलिक्त है जो भाग्य को भी सं�ार सकती है। तुम पे्रम की प्यासी हो, मैं तुम्हे उस ना� पर बैठा सकती हंू जो पे्रम के सार्गर में, पे्रम की तंरर्गों पर क्रीड़ा करती हुई तुम्हे पार उतार दे। मैने उत्कंदिठत होकर पूछा—माता, तुम्हारा घर कहां है। बुदिढया---बहुत नजदीक है बेटी, तुम चलों तो मैं अपनी आंAो पर बैठा कर ले चलंू। मुझे ऐसा मालूम हुआ विक यह कोई आकाश की दे�ी है। उसेक पीछ-पीछे चल पड़ी। ८

ह! �ह बुदिढया, जिजसे मैं आकाश की दे�ी समझती थी, नरक की डाइन विनकली। मेरा स��नाश हो र्गया। मैं अमृत Aोजती थी, वि�ष मिमला, विनम�ल स्�च्छ पे्रम की

प्यासी थी, र्गंदे वि�षाक्त नाले में विर्गर पड़ी �ह �स्तु न मिमलनी थी, न मिमली। मैं सुशीला का –सा सुA चाहती थी, कुलटाओं की वि�षय-�ासना नहीं। लेविकन जी�न-पथ में एक बार उलटी राह चलकर विफर सी!े मार्ग� पर आना कदिठन है?

आ लेविकन मेरे अ!:पतन का अपरा! मेरे लिसर नहीं, मेरे माता-विपता और उस बूढे़ पर है जो मेरा स्�ामी बनना चाहता था। मैं यह पंलिक्तयां न लिलAतीं, लेविकन इस वि�चार से लिलA रही हंू विक मेरी आत्म-कथा पढ़कर लोर्गों की आंAे Aुलें; मैं विफर कहती हंू विक अब भी अपनी बालिलकाओ के लिलए मत देAों !न, मत देAों जायदाद, मत देAों कुलीनता, के�ल �र देAों। अर्गर उसके लिलए जोड़ा का �र नहीं पा सकते तो लड़की को क्�ारी रA छोड़ो, जहर दे कर मार डालो, र्गला घोंट डालो, पर विकसी बूढे़ Aूसट से मत ब्याहो। स्त्री सब-कुछ सह सकती है। दारुQ से दारुQ दु:A, बडे़ से बड़ा संकट, अर्गर नहीं सह सकती तो अपने यौ�न-काल की उंमर्गो का कुचला जाना। रही मैं, मेरे लिलए अब इस जी�न में कोई आशा नहीं । इस अ!म दशा को भी उस दशा से न बदलंूर्गी, जिजससे विनकल कर आयी हंू।

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स्त्री और पुरुषविपन बाबू के लिलए स्त्री ही संसार की सुन्दर �स्तु थी। �ह कवि� थे और उनकी कवि�ता के लिलए म्मिस्त्रयों के रुप और यौ�न की प्रशसा ही सबसे चिच?ताकष�क वि�षय था। उनकी

दृमिl में स्त्री जर्गत में व्याप्त कोमलता, मा!ुय� और अलंकारों की सजी� प्रवितमा थी। जबान पर स्त्री का नाम आते ही उनकी आंAे जर्गमर्गा उठती थीं, कान Aड़ें हो जाते थे, मानो विकसी रलिसक ने र्गाने की आ�ाज सुन ली हो। जब से होश संभाला, तभी से उन्होंने उस संुदरी की कल्पना करनी शुरु की जो उसके हृदय की रानी होर्गी; उसमें ऊषा की प्रफुल्लता होर्गी, पुष्प की कोमलता, कंुदन की चमक, बसंत की छवि�, कोयल की ध्�विन—�ह कवि� �र्णिQ?त सभी उपमाओं से वि�भूविषत होर्गी। �ह उस कज्जिल्पत मूवित्र के उपासक थे, कवि�ताओं में उसका र्गुQ र्गाते, �ह दिदन भी समीप आ र्गया था, जब उनकी आशाए ं हरे-हरे पत्तों से लहरायेंर्गी, उनकी मुरादें पूरी हो होर्गी। कालेज की अंवितम परीRा समाप्त हो र्गयी थी और वि��ाह के संदेशे आने लर्गे थे।

वि�

२�ाह तय हो र्गया। विबविपन बाबू ने कन्या को देAने का बहुत आग्रह विकया, लेविकन जब उनके मांमू ने वि�श्वास दिदलाया विक लड़की बहुत ही रुप�ती है, मैंने अपनी आंAों से

देAा है, तब �ह राजी हो र्गये। !ूम!ाम से बारात विनकली और वि��ाह का मुहूत� आया। �!ू आभूषQों से सजी हुई मंडप में आयी तो वि�विपन को उसके हाथ-पां� नजर आये। विकतनी संुदर उंर्गलिलया थीं, मानों दीप-लिशAाए ंहो, अंर्गो की शोभा विकतनी मनोहारिरQी थी। वि�विपन फूले न समाये। दूसरे दिदन �!ू वि�दा हुई तो �ह उसके दश�नों के लिलए इतने अ!ीर हुए विक ज्यों ही रास्ते में कहारों ने पालकी रAकर मुंह-हाथ !ोना शुरु विकया, आप चुपके से �!ू के पास जा पहुंचे। �ह घूंघट हटाये, पालकी से लिसर विनकाले बाहर झांक रही थी। वि�विपन की विनर्गाह उस पर पड़ र्गयी। यह �ह परम संुदर रमQी न थी जिजसकी उन्होने कल्पना की थी, जिजसकी �ह बरसों से कल्पना कर रहे थे---यह एक चौडे़ मुंह, लिचपटी नाक, और फुले हुए र्गालों �ाली कुरुपा स्त्री थी। रंर्ग र्गोरा था, पर उसमें लाली के बदले सफदी थी; और विफर रंर्ग कैसा ही संुदर हो, रुप की कमी नहीं पूरी कर सकता। वि�विपन का सारा उत्साह ठंडा पड़ र्गया---हां! इसे मेरे ही र्गले पड़ना था। क्या इसके लिलए समस्त संसार में और कोई न मिमलता था? उन्हें अपने मांमू पर क्रो! आया जिजसने �!ू की तारीफों के पुल बां! दिदये थे। अर्गर इस �क्त �ह मिमल जाते तो वि�विपन उनकी ऐसी Aबर लेता विक �ह भी याद करते।

वि�

जब कहारों ने विफर पालविकयां उठायीं तो वि�विपन मन में सोचने लर्गा, इस स्त्री के साथ कैसे मैं बोलूर्गा, कैसे इसके साथ जी�न काटंर्गा। इसकी ओर तो ताकने ही से घृQा होती है। ऐसी कुरुपा म्मिस्त्रयां भी संसार में हैं, इसका मुझे अब तक पता न था। क्या मुंह ईश्वर ने बनाया है, क्या आंAे है! मैं और सारे ऐबों की ओर से आंAे बंद कर लेता, लेविकन �ह चौड़ा-सा मुंह! भर्ग�ान्! क्या तुम्हें मुझी पर यह �ज्रपात करना था। ३

विपन हो अपना जी�न नरक-सा जान पड़ता था। �ह अपने मांमू से लड़ा। ससुर को लंबा Aरा� लिलAकर फटकारा, मां-बाप से हु5त की और जब इससे शांवित न हुई तो

कहीं भार्ग जाने की बात सोचने लर्गा। आशा पर उसे दया अ�aय आती थी। �ह अपने का वि�

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समझाता विक इसमें उस बेचारी का क्या दोष है, उसने जबरदस्ती तो मुझसे वि��ाह विकया नहीं। लेविकन यह दया और यह वि�चार उस घृQा को न जीत सकता था जो आशा को देAते ही उसके रोम-रोम में व्याप्त हो जाती थी। आशा अपने अचे्छ-से-अचे्छ कपडे़ पहनती; तरह-तरह से बाल सं�ारती, घंटो आइने के सामने Aड़ी होकर अपना श्रृंर्गार करती, लेकन वि�विपन को यह शुतुरर्गमज-से मालूम होते। �ह दिदल से चाहती थी विक उन्हें प्रसन्न करंु, उनकी से�ा करने के लिलए अ�सर Aोजा करती थी; लेविकन वि�विपन उससे भार्गा-भार्गा विफरता था। अर्गर कभी भेंट हो जाती तो कुछ ऐसी जली-कटी बातें करने लर्गता विक आशा रोती हुई �हां से चली जाती।सबसे बुरी बात यह थी विक उसका चरिरत्र भ्रl होने लर्गा। �ह यह भूल जाने की चेlा करने लर्गा विक मेरा वि��ाह हो र्गया है। कई-कई दिदनों क आशा को उसके दश�न भी न होते। �ह उसके कहकहे की आ�ाजे बाहर से आती हुई सुनती, झरोAे से देAती विक �ह दोस्तों के र्गले में हाथ डालें सैर करने जा रहे है और तड़प कर रहे जाती।

एक दिदन Aाना Aाते समय उसने कहा—अब तो आपके दश�न ही नहीं होतें। मेरे कारQ घर छोड़ दीजिजएर्गा क्या ?

वि�विपन ने मुंह फेर कर कहा—घर ही पर तो रहता हंू। आजकल जरा नौकरी की तलाश है इसलिलए दौड़-!ूप ज्यादा करनी पड़ती है।

आशा—विकसी डाक्टर से मेरी सूरत क्यों नहीं बन�ा देते ? सुनती हंू, आजकल सूरत बनाने �ाले डाक्टर पैदा हुए है।

वि�विपन— क्यों नाहक लिचढ़ती हो, यहां तुम्हे विकसने बुलाया था ?आशा— आखिAर इस मज� की द�ा कौन करेंर्गा ?वि�विपन— इस मज� की द�ा नहीं है। जो काम ईश्चर से ने करते बना उसे आदमी क्या

बना सकता है ?आशा – यह तो तुम्ही सोचो विक ईश्वर की भुल के लिलए मुझे दंड दे रहे हो। संसार में

कौन ऐसा आदमी है जिजसे अच्छी सूरत बुरी लर्गती हो, विकन तुमने विकसी मद� को के�ल रुपहीन होने के कारQ क्�ांरा रहते देAा है, रुपहीन लड़विकयां भी मां-बाप के घर नहीं बैठी रहतीं। विकसी-न-विकसी तरह उनका विन�ा�ह हो ही जाता है; उसका पवित उप पर प्राQ ने देता हो, लेविकन दू! की मक्Aी नहीं समझता।

वि�विपन ने झुंझला कर कहा—क्यों नाहक लिसर Aाती हो, मै तुमसे बहस तो नहीं कर रहा हंू। दिदल पर जब्र नहीं विकया जा सकता और न दलीलों का उस पर कोई असर पड़ सकता है। मैं तुम्हे कुछ कहता तो नहीं हंू, विफर तुम क्यों मुझसे हु5त करती हो ?

आशा यह जिझड़की सुन कर चली र्गयी। उसे मालूम हो र्गया विक इन्होने मेरी ओर से सदा के लिलए ह्रदय कठोर कर लिलया है।

४विपन तो रोज सैर-सपाटे करते, कभी-कभी रात को र्गायब रहते। इ!र आशा चिच?ता और नैराaय से घुलते-घुलते बीमार पड़ र्गयी। लेविकन वि�विपन भूल कर भी उसे देAने न

आता, से�ा करना तो दूर रहा। इतना ही नहीं, �ह दिदल में मानता था विक �ह मर जाती तो र्गला छुटता, अबकी Aुब देAभाल कर अपनी पसंद का वि��ाह करता।

वि�अब �ह और भी Aुल Aेला। पहले आशा से कुछ दबता था, कम-से-कम उसे यह

!ड़का लर्गा रहता था विक कोई मेरी चाल-ढ़ाल पर विनर्गाह रAने �ाला भी है। अब �ह !ड़का 20

छुट र्गया। कु�ासनाओं में ऐसा लिलप्त हो र्गया विक मरदाने कमरे में ही जमघटे होने लर्गे। लेविकन वि�षय-भोर्ग में !न ही का स��नाश होता, इससे कहीं अमि!क बुजिद्ध और बल का स��नाश होता है। वि�विपन का चेहरा पीला लर्गा, देह भी RीQ होने लर्गी, पसलिलयों की हविड्डयां विनकल आयीं आंAों के इद�-विर्गद� र्गढे़ पड़ र्गये। अब �ह पहले से कहीं ज्यादा शोक करता, विनत्य तेल लर्गता, बाल बन�ाता, कपडे़ बदलता, विकन्तु मुA पर कांवित न थी, रंर्ग-रोर्गन से क्या हो सकता ?

एक दिदन आशा बरामदे में चारपाई पर लेटी हुई थी। इ!र हफ्तों से उसने वि�विपन को न देAा था। उन्हे देAने की इच्छा हुई। उसे भय था विक �ह सन आयेंर्गे, विफर भी �ह मन को न रोक सकी। वि�विपन को बुला भेजा। वि�विपन को भी उस पर कुछ दया आ र्गयी आ र्गयी। आकार सामने Aडे़ हो र्गये। आशा ने उनके मुंह की ओर देAा तो चौक पड़ी। �ह इतने दुब�ल हो र्गये थे विक पहचनाना मुलिशकल था। बोली—तुम भी बीमार हो क्या? तुम तो मुझसे भी ज्यादा घुल र्गये हो।

वि�विपन—उंह, जिज?दर्गी में रAा ही क्या है जिजसके लिलए जीने की विफक्र करंु !आशा—जीने की विफक्र न करने से कोई इतना दुबला नहीं हो जाता। तुम अपनी

कोई द�ा क्यों नहीं करते?यह कह कर उसने वि�विपन का दाविहन हाथ पकड़ कर अपनी चारपाई पर बैठा लिलया।

वि�विपन ने भी हाथ छुड़ाने की चेlा न की। उनके स्�ाभा� में इस समय एक वि�लिचत्र नम्रता थी, जो आशा ने कभी ने देAी थी। बातों से भी विनराशा टपकती थी। अक्Aड़पन या क्रो! की र्गं! भी न थी। आशा का ऐसा मालुम हुआ विक उनकी आंAो में आंसू भरे हुए है।

वि�विपन चारपाई पर बैठते हुए बोले—मेरी द�ा अब मौत करेर्गी। मै तुम्हें जलाने के लिलए नहीं कहता। ईश्वर जानता है, मैं तुम्हे चोट नहीं पहुंचाना चाहता। मै अब ज्यादा दिदनों तक न जिजऊंर्गा। मुझे विकसी भयंकर रोर्ग के लRQ दिदAाई दे रहे है। डाक्टर नें भी �ही कहा है। मुझे इसका Aेद है विक मेरे हाथों तुम्हे कl पहुंचा पर Rमा करना। कभी-कभी बैठे-बैठे मेरा दिदल डूब दिदल डूब जाता है, मूछा�-सी आ जाती है।यह कहतें-कहते एकाएक �ह कांप उठे। सारी देह में सनसनी सी दौड़ र्गयी। मूर्थिछ?त हो कर चारपाई पर विर्गर पडे़ और हाथ-पैर पटकने लर्गे।मुंह से विफचकुर विनकलने लर्गा। सारी देह पसीने से तर हो र्गयी। आशा का सारा रोर्ग ह�ा हो र्गया। �ह महीनों से विबस्तर न छोड़ सकी थी। पर इस समय उसके लिशलिथल अंर्गो में वि�लिचत्र सु्फर्तित? दौड़ र्गयी। उसने तेजी से उठ कर वि�विपन को अच्छी तरह लेटा दिदया और उनके मुA पर पानी के छींटे देने लर्गी। महरी भी दौड़ी आयी और पंAा झलने लर्गी। पर भी वि�विपन ने आंAें न Aोलीं। संध्या होते-होते उनका मुंह टेढ़ा हो र्गया और बायां अंर्ग शुन्य पड़ र्गया। विहलाना तो दूर रहा, मूंह से बात विनकालना भी मुश्किaकल हो र्गया। यह मूछा� न थी, फालिलज था।

५लिलज के भयंकर रोर्ग में रोर्गी की से�ा करना आसान काम नहीं है। उस पर आशा महीनों से बीमार थी। लेविकन उस रोर्ग के सामने �ह पना रोर्ग भूल र्गई। 15 दिदनों

तक वि�विपन की हालत बहुत नाजुक रही। आशा दिदन-के-दिदन और रात-की-रात उनके पास बैठी रहती। उनके लिलए पर्थ्यय बनाना, उन्हें र्गोद में सम्भाल कर द�ा विपलाना, उनके जरा-जरा

फा21

से इशारों को समझाना उसी जैसी !ैयशाली स्त्री का काम था। अपना लिसर दद� से फटा करता, ज्�र से देह तपा करती, पर इसकी उसे जरा भी पर�ा न थी।

१५ दिदनों बाद वि�विपन की हालत कुछ सम्भली। उनका दाविहना पैर तो लुंज पड़ र्गया था, पर तोतली भाषा में कुछ बोलने लर्गे थे। सबसे बुरी र्गत उनके सुन्दर मुA की हुई थी। �ह इतना टेढ़ा हो र्गया था जैसे कोई रबर के खिAलौने को Aींच कर बढ़ा दें। बैटरी की मदद से जरा देर के लिलए बैठे या Aडे़ तो हो जाते थे; लेविकन चलने−विफरने की ताकत न थी।

एक दिदनों लेटे−लेटे उन्हे क्या ख्याल आया। आईना उठा कर अपना मुंह देAने लर्गे। ऐसा कुरुप आदमी उन्होने कभी न देAा था। आविहस्ता से बोले−−आशा, ईश्वर ने मुझे र्गरुर की सजा दे दी। �ास्त� में मुझे यह उसी बुराई का बदला मिमला है, जो मैने तुम्हारे साथ की। अब तुम अर्गर मेरा मुंह देAकर घृQा से मुंह फेर लो तो मुझेसे उस दुव्य��हार का बदला लो, जो मैने, तुम्हारे साथ विकए है।

आशा ने पवित की ओर कोमल भा� से देAकर कहा−−मै तो आपको अब भी उसी विनर्गाह से देAती हंु। मुझे तो आप में कोई अन्तर नहीं दिदAाई देता।

६विपन−−�ाह, बन्दर का−सा मुंह हो र्गया है, तुम कहती हो विक कोई अन्तर ही नहीं। मैं तो अब कभी बाहर न विनकलूंर्गा। ईश्वर ने मुझे सचमुच दंड दिदया।वि�बहुत यत्न विकए र्गए पर वि�विपन का मुंह सी!ा न हुआ। मुख्य का बायां भार्ग इतना

टेढ़ा हो र्गया था विक चेहरा देAकर डर मालूम होता था। हां, पैरों में इतनी शलिक्त आ र्गई विक अब �ह चलने−विफरने लर्गे।

आशा ने पवित की बीमारी में दे�ी की मनौती की थी। आज उसी की पुजा का उत्स� था। मुहल्ले की म्मिस्त्रयां बना�−चिस?र्गार विकये जमा थीं। र्गाना−बजाना हो रहा था।

एक सेहली ने पुछा−−क्यों आशा, अब तो तुम्हें उनका मुंह जरा भी अच्छा न लर्गता होर्गा।

आशा ने र्गम्भीर होकर कहा−−मुझे तो पहले से कहीं मुंह जरा भी अच्छा न लर्गता होर्गा।

‘चलों, बातें बनाती हो।’‘नही बहन, सच कहती हंु; रुप के बदले मुझे उनकी आत्मा मिमल र्गई जो रुप से कहीं

बढ़कर है।’वि�विपन कमरे में बैठे हुए थे। कई मिमत्र जमा थे। ताश हो रहा था।

कमरे में एक खिAड़की थी जो आंर्गन में Aुलती थी। इस �क्त �ह बन्द� थी। एक मिमत्र ने उसे चुपके से Aोल दिदया। एक मिमत्र ने उसे चुपके दिदया और शीशे से झांक कर वि�विपन से कहा−− आज तो तुम्हारे यहां पारिरयों का अच्छा जमघट है।

वि�विपन−−बन्दा कर दो।‘अजी जरा देAो तो: कैसी−कैसी सूरतें है ! तुम्हे इन सबों में कौन सबसे अच्छी

मालूम होती है ?वि�विपन ने उड़ती हुई नजरों से देAकर कहा−−मुझे तो �हीं सबसे अच्छी मालूम होती

है जो थाल में फुल रA रही है।‘�ाह री आपकी विनर्गाह ! क्या सूरत के साथ तुम्हारी विनर्गाह भी विबर्गड़ र्गई? मुझे तो

�ह सबसे बदसुरत मालूम होती है।’22

‘इसलिलए विक तुम उसकी सूरत देAते हो और मै उसकी आत्मा देAता हंू।’‘अच्छा, यही मिमसेज वि�विपन हैं?’‘जी हां, यह �ही दे�ी है।

23

उद्धारदू समाज की �ै�ाविहक प्रथा इतनी दुविषत, इतनी चिच?ताजनक, इतनी भयंकर हो र्गयी है विक कुछ समझ में नहीं आता, उसका सु!ार क्योंकर हो। विबरलें ही ऐसे माता−विपता

होंर्गे जिजनके सात पुत्रों के बाद एक भी कन्या उत्पन्न हो जाय तो �ह सहष� उसका स्�ार्गत करें। कन्या का जन्म होते ही उसके वि��ाह की चिच?ता लिसर पर स�ार हो जाती है और आदमी उसी में डुबविकयां Aाने लर्गता है। अ�स्था इतनी विनराशमय और भयानक हो र्गई है विक ऐसे माता−विपताओं की कमी नहीं है जो कन्या की मृत्यु पर ह्रदय से प्रसन्न होते है, मानों लिसर से बा!ा टली। इसका कारQ के�ल यही है विक देहज की दर, दिदन दूनी रात चौर्गुनी, पा�स−काल के जल−र्गुजरे विक एक या दो हजारों तक नौबत पहुंच र्गई है। अभी बहुत दिदन नहीं र्गुजरे विक एक या दो हजार रुपये दहेज के�ल बडे़ घरों की बात थी, छोटी−छोटी शादिदयों पांच सौ से एक हजार तक तय हो जाती थीं; अब मामुली−मामुली वि��ाह भी तीन−चार हजार के नीचे तय नहीं होते । Aच� का तो यह हाल है और लिशणिRत समाज की विन!�नता और दरिरद्रता दिदन बढ़ती जाती है। इसका अन्त क्या होर्गा ईश्वर ही जाने। बेटे एक दज�न भी हों तो माता−विपता का चिच?ता नहीं होती। �ह अपने ऊपर उनके वि��ाह−भार का अविन�ाय� नहीं समझता, यह उसके लिलए ‘कम्पलसरी’ वि�षय नहीं, ‘आप्शनल’ वि�षय है। होर्गा तों कर देर्गें; नही कह देंरे्ग−−बेटा, Aाओं कमाओं, कमाई हो तो वि��ाह कर लेना। बेटों की कुचरिरत्रता कलंक की बात नहीं समझी जाती; लेविकन कन्या का वि��ाह तो करना ही पडे़र्गा, उससे भार्गकर कहां जायेर्गें ? अर्गर वि��ाह में वि�लम्ब हुआ और कन्या के पां� कहीं ऊंचे नीचे पड़ र्गये तो विफर कुटुम्ब की नाक कट र्गयी; �ह पवितत हो र्गया, टाट बाहर कर दिदया र्गया। अर्गर �ह इस दुघ�टना को सफलता के साथ र्गुप्त रA सका तब तो कोई बात नहीं; उसकों कलंविकत करने का विकसी का साहस नहीं; लेविकन अभाग्य�श यदिद �ह इसे लिछपा न सका, भंडाफोड़ हो र्गया तो विफर माता−विपता के लिलए, भाई−बं!ुओं के लिलए संसार में मुंह दिदAाने को नहीं रहता। कोई अपमान इससे दुस्सह, कोई वि�पणित्त इससे भीषQ नहीं। विकसी भी व्यामि! की इससे भयंकर कल्पना नहीं की जा सकती। लुत्फ तो यह है विक जो लोर्ग बेदिटयों के वि��ाह की कदिठनाइयों को भोर्गा चुके होते है �हीं अपने बेटों के वि��ाह के अ�सर पर विबलकुल भुल जाते है विक हमें विकतनी ठोकरें Aानी पड़ी थीं, जरा भी सहानुभूवित नही प्रकट करतें, बश्किल्क कन्या के वि��ाह में जो ता�ान उठाया था उसे चक्र−�ृजिद्ध ब्याज के साथ बेटे के वि��ाह में �सूल करने पर कदिटबद्ध हो जाते हैं। विकतने ही माता−विपता इसी चिच?ता में ग्रहQ कर लेता है, कोई बूढे़ के र्गले कन्या का मढ़ कर अपना र्गला छुड़ाता है, पात्र−कुपात्र के वि�चार करने का मौका कहां, ठेलमठेल है।

हिह?

मुंशी र्गुलजारीलाल ऐसे ही हतभारे्ग विपताओं में थे। यों उनकी ज्जिस्थवित बूरी न थी। दो−ढ़ाई सौ रुपये महीने �कालत से पीट लेते थे, पर Aानदानी आदमी थे, उदार ह्रदय, बहुत विकफायत करने पर भी माकूल बचत न हो सकती थी। सम्बम्मि¶यों का आदर−सत्कार न करें तो नहीं बनता, मिमत्रों की Aावितरदारी न करें तो नही बनता। विफर ईश्वर के दिदये हुए दो पुत्र थे, उनका पालन−पोषQ, लिशRQ का भार था, क्या करते ! पहली कन्या का वि��ाह टेढ़ी Aीर हो रहा था। यह आ�aयक था विक वि��ाह अचे्छ घराने में हो, अन्यथा लोर्ग हंसेर्गे और अचे्छ घराने के लिलए कम−से−कम पांच हजार का तAमीना था। उ!र पुत्री सयानी होती जाती थी।

24

�ह अनाज जो लड़के Aाते थे, �ह भी Aाती थी; लेविकन लड़कों को देAो तो जैसे सूAों का रोर्ग लर्गा हो और लड़की शुक्ल पR का चांद हो रही थी। बहुत दौड़−!ूप करने पर बचारे को एक लड़का मिमला। बाप आबकारी के वि�भार्ग में ४०० रु० का नौकर था, लड़का सुलिशणिRत। स्त्री से आकार बोले, लड़का तो मिमला और घरबार−एक भी काटने योग्य नहीं; पर कदिठनाई यही है विक लड़का कहता है, मैं अपना वि��ाह न करंुर्गा। बाप ने समझाया, मैने विकतना समझाया, औरों ने समझाया, पर �ह टस से मस नहीं होता। कहता है, मै कभी वि��ाह न करंुर्गा। समझ में नहीं आता, वि��ाह से क्यों इतनी घृQा करता है। कोई कारQ नहीं बतलाता, बस यही कहता है, मेरी इच्छा। मां बाप का एकलौता लड़का है। उनकी परम इच्छा है विक इसका वि��ाह हो जाय, पर करें क्या? यों उन्होने फलदान तो रA लिलया है पर मुझसे कह दिदया है विक लड़का स्�भा� का हठीला है, अर्गर न मानेर्गा तो फलदान आपको लौटा दिदया जायेर्गा। स्त्री ने कहा−−तुमने लड़के को एकांत में बुला�कर पूछा नहीं? र्गुलजारीलाल−−बुलाया था। बैठा रोता रहा, विफर उठकर चला र्गया। तुमसे क्या कहूं, उसके पैरों पर विर्गर पड़ा; लेविकन विबना कुछ कहे उठाकर चला र्गया।

स्त्री−−देAो, इस लड़की के पीछे क्या−क्या झेलना पड़ता है? र्गुलजारीलाल−−कुछ नहीं, आजकल के लौंडे सैलानी होते हैं। अंर्गरेजी पुस्तकों में पढ़ते है विक वि�लायत में विकतने ही लोर्ग अवि��ैाविहत रहना ही पसंद करते है। बस यही सनक स�ार हो जाती है विक विनद्व�द्व रहने में ही जी�न की सुA और शांवित है। जिजतनी मुसीबतें है �ह सब वि��ाह ही में है। मैं भी कालेज में था तब सोचा करता था विक अकेला रहंूर्गा और मजे से सैर−सपाटा करंुर्गा।

स्त्री−−है तो �ास्त� में बात यही। वि��ाह ही तो सारी मुसीबतों की जड़ है। तुमने वि��ाह न विकया होता तो क्यों ये चिच?ताए ंहोतीं ? मैं भी क्�ांरी रहती तो चैन करती।

२सके एक महीना बाद मुंशी र्गुलजारीलाल के पास �र ने यह पत्र लिलAा−− ‘पूज्य�र,

सादर प्रQाम।इ

मैं आज बहुत असमंजस में पड़कर यह पत्र लिलAने का साहस कर रहा हंू। इस !ृlता को Rमा कीजिजएर्गा।आपके जाने के बाद से मेरे विपताजी और माताजी दोनों मुझ पर वि��ाह करने के लिलए नाना प्रकार से दबा� डाल रहे है। माताजी रोती है, विपताजी नाराज होते हैं। �ह समझते है विक मैं अपनी जिजद के कारQ वि��ाह से भार्गता हंू। कदालिचता उन्हे यह भी सन्देह हो रहा है विक मेरा चरिरत्र भ्रl हो र्गया है। मैं �ास्तवि�क कारQ बताते हुए डारता हंू विक इन लोर्गों को दु:A होर्गा और आश्चय� नहीं विक शोक में उनके प्राQों पर ही बन जाय। इसलिलए अब तक मैने जो बात र्गुप्त रAी थी, �ह आज वि��श होकर आपसे प्रकट करता हंू और आपसे साग्रह विन�ेदन करता हंू विक आप इसे र्गोपनीय समजिझएर्गा और विकसी दशा में भी उन लोर्गों के कानों में इसकी भनक न पड़ने दीजिजएर्गा। जो होना है �ह तो होर्गा है, पहले ही से क्यों उन्हे शोक में डुबाऊं। मुझे ५−६ महीनों से यह अनुभ� हो रहा है विक मैं Rय रोर्ग से ग्रलिसत हंू। उसके सभी लRQ प्रकट होते जाते है। डाक्टरों की भी यही राय है। यहां सबसे अनुभ�ी जो दो डाक्टर हैं, उन दोनों ही से मैने अपनी आरोग्य−परीRा करायी और दैोनो ही ने स्पl कहा विक तुम्हे

25

लिसल है। अर्गर माता−विपता से यह कह दंू तो �ह रो−रो कर मर जायेर्गें। जब यह विनश्चय है विक मैं संसार में थोडे़ ही दिदनों का मेहमान हंू तो मेरे लिलए वि��ाह की कल्पना करना भी पाप है। संभ� है विक मैं वि�शेष प्रयत्न करके साल दो साल जीवि�त रहंू, पर �ह दशा और भी भयंकर होर्गी, क्योविक अर्गर कोई संतान हुई तो �ह भी मेरे संस्कार से अकाल मृत्यु पायेर्गी और कदालिचत् स्त्री को भी इसी रोर्ग−राRस का भक्ष्य बनना पडे़। मेरे अवि��ाविहत रहने से जो बीतेर्गी, मुझ पर बीतेर्गी। वि��ाविहत हो जाने से मेरे साथ और कई जी�ों का नाश हो जायर्गा। इसलिलए आपसे मेरी प्राथ�ना है विक मुझे इस ब¶न में डालने के लिलए आग्रह न कीजिजए, अन्यथा आपको पछताना पडे़र्गा।

से�क‘हजारीलाल।’

पत्र पढ़कर र्गुलजारीलाल ने स्त्री की ओर देAा और बोले−−इस पत्र के वि�षय में तुम्हारा क्या वि�चार हैं।

स्त्री−−मुझे तो ऐसा मालूम होता है विक उसने बहाना रचा है।र्गुलजारीलाल−−बस−बस, ठीक यही मेरा भी वि�चार है। उसने समझा है विक बीमारी

का बहाना कर दंूर्गा तो आप ही हट जायेंर्गे। असल में बीमारी कुछ नहीं। मैने तो देAा ही था, चेहरा चमक रहा था। बीमार का मुंह लिछपा नहीं रहता।

स्त्री−−राम नाम ले के वि��ाह करो, कोई विकसी का भाग्य थोडे़ ही पढे़ बैठा है।र्गुलजारीलाल−−यही तो मै सोच रहा हंू।स्त्री−−न हो विकसी डाक्टर से लड़के को दिदAाओं । कहीं सचमुच यह बीमारी हो तो

बेचारी अम्बा कहीं की न रहे।र्गुलजारीलाल−तुम भी पार्गल हो क्या? सब हीले−ह�ाले हैं। इन छोकरों के दिदल का हाल मैं Aुब जानता हंू। सोचता होर्गा अभी सैर−सपाटे कर रहा हंू, वि��ाह हो जायर्गा तो यह र्गुलछर̧ कैसे उडे़र्गे!

स्त्री−−तो शुभ मुहूत� देAकर लग्न णिभज�ाने की तैयारी करो। ३ हजारीलाल बडे़ !म�−सन्देह में था। उसके पैरों में जबरदस्ती वि��ाह की बेड़ी डाली जा रही थी और �ह कुछ न कर सकता था। उसने ससुर का अपना कच्चा लिचट्ठा कह सुनाया; मर्गर विकसी ने उसकी बालों पर वि�श्वास न विकया। मां−बाप से अपनी बीमारी का हाल कहने का उसे साहस न होता था। न जाने उनके दिदल पर क्या र्गुजरे, न जाने क्या कर बैठें ? कभी सोचता विकसी डाक्टर की शहदत लेकर ससूर के पास भेज दंू, मर्गर विफर ध्यान आता, यदिद उन लोर्गों को उस पर भी वि�श्वास न आया, तो? आजकल डाक्टरी से सनद ले लेना कौन−सा मुश्किaकल काम है। सोचेंर्गे, विकसी डाक्टर को कुछ दे दिदलाकर लिलAा लिलया होर्गा। शादी के लिलए तो इतना आग्रह हो रहा था, उ!र डाक्टरों ने स्पl कह दिदया था विक अर्गर तुमने शादी की तो तुम्हारा जी�न−सुत्र और भी विनब�ल हो जाएर्गा। महीनों की जर्गह दिदनों में �ारा−न्यारा हो जाने की सम्भा�ाना है।

लग्न आ चुकी थी। वि��ाह की तैयारिरयां हो रही थीं, मेहमान आते−जाते थे और हजारीलाल घर से भार्गा−भार्गा विफरता था। कहां चला जाऊं? वि��ाह की कल्पना ही से उसके प्राQ सूA जाते थे। आह ! उस अबला की क्या र्गवित होर्गी ? जब उसे यह बात मालूम होर्गी तो �ह मुझे अपने मन में क्या कहेर्गी? कौन इस पाप का प्रायणिश्चत करेर्गा ? नहीं, उस

26

अबला पर घोर अत्याचार न करंुर्गा, उसे �ै!व्य की आर्ग में न जलाऊंर्गा। मेरी जिजन्दर्गी ही क्या, आज न मरा कल मरंुर्गा, कल नहीं तो परसों, तो क्यों न आज ही मर जाऊं। आज ही जी�न का और उसके साथ सारी चिच?ताओं को, सारी वि�पणित्तयों का अन्त कर दंू। विपता जी रोयेंर्गे, अम्मां प्राQ त्यार्ग देंर्गी; लेविकन एक बालिलका का जी�न तो सफल हो जाएर्गा, मेरे बाद कोई अभार्गा अनाथ तो न रोयेर्गा।

क्यों न चलकर विपताजी से कह दंू? �ह एक−दो दिदन दु:Aी रहेंर्गे, अम्मां जी दो−एक रोज शोक से विनराहार रह जायेर्गीं, कोई चिच?ता नहीं। अर्गर माता−विपता के इतने कl से एक यु�ती की प्राQ−रRा हो जाए तो क्या छोटी बात है?

यह सोचकर �ह !ीरे से उठा और आकर विपता के सामने Aड़ा हो र्गया।रात के दस बज र्गये थे। बाबू दरबारीलाल चारपाई पर लेटे हुए हुक्का पी रहे थे।

आज उन्हे सारा दिदन दौड़ते र्गुजरा था। शामिमयाना तय विकया; बाजे �ालों को बयाना दिदया; आवितशबाजी, फुल�ारी आदिद का प्रब¶ विकया। घंटो ब्राहमQों के साथ लिसर मारते रहे, इस �क्त जरा कमर सी!ी कर रहें थे विक सहसा हजारीलाल को सामने देAकर चौंक पड़ें। उसका उतरा हुआ चेहरा सजल आंAे और कंुदिठत मुA देAा तो कुछ चिच?वितत होकर बोले−−क्यों लालू, तबीयत तो अच्छी है न? कुछ उदास मालूम होते हो।

हजारीलाल−−मै आपसे कुछ कहना चाहता हंू; पर भय होता है विक कहीं आप अप्रसन्न न हों।

दरबारीलाल−−समझ र्गया, �ही पुरानी बात है न ? उसके लिस�ा कोई दूसरी बात हो शौक से कहो।

हजारीलाल−−Aेद है विक मैं उसी वि�षय में कुछ कहना चाहता हंू। दरबारीलाल−−यही कहना चाहता हो न मुझे इस ब¶न में न डालिलए, मैं इसके अयोग्य हंू, मै यह भार सह नहीं सकता, बेड़ी मेरी र्गद�न को तोड़ देर्गी, आदिद या और कोई नई बात ?

हजारीलाल−−जी नहीं नई बात है। मैं आपकी आज्ञा पालन करने के लिलए सब प्रकार तैयार हंू; पर एक ऐसी बात है, जिजसे मैने अब तक लिछपाया था, उसे भी प्रकट कर देना चाहता हंू। इसके बाद आप जो कुछ विनश्चय करेंर्गे उसे मैं लिशरो!ाय� करंुर्गा।

हजारीलाल ने बडे़ वि�नीत शब्दों में अपना आशय कहा, डाक्टरों की राय भी बयान की और अन्त में बोलें−−ऐसी दशा में मुझे पूरी आशा है विक आप मुझे वि��ाह करने के लिलए बाध्य न करेंर्गें।दरबारीलाल ने पुत्र के मुA की और र्गौर से देAा, कहे जद� का नाम न था, इस कथन पर वि�श्वास न आया; पर अपना अवि�श्वास लिछपाने और अपना हार्दिद?क शोक प्रकट करने के लिलए �ह कई मिमनट तक र्गहरी चिच?ता में मग्न रहे। इसके बाद पीविड़त कंठ से बोले−−बेटा, इस इशा में तो वि��ाह करना और भी आ�aयक है। ईश्वर न करें विक हम �ह बुरा दिदन देAने के लिलए जीते रहे, पर वि��ाह हो जाने से तुम्हारी कोई विनशानी तो रह जाएर्गी। ईश्वर ने कोई संतान दे दी तो �ही हमारे बुढ़ापे की लाठी होर्गी, उसी का मुंह देAरेA कर दिदल को समझायेंर्गे, जी�न का कुछ आ!ार तो रहेर्गा। विफर आर्गे क्या होर्गा, यह कौन कह सकता है ? डाक्टर विकसी की कम�−रेAा तो नहीं पढ़ते, ईश्वर की लीला अपरम्पार है, डाक्टर उसे नहीं समझ सकते । तुम विनश्चिश्च?त होकर बैठों, हम जो कुछ करते है, करने दो। भर्ग�ान चाहेंर्गे तो सब कल्याQ ही होर्गा।

27

हजारीलाल ने इसका कोई उत्तर नहीं दिदया। आंAे डबडबा आयीं, कंठा�रो! के कारQ मुंह तक न Aोल सका। चुपके से आकर अपने कमरे मे लेट रहा।

तीन दिदन और र्गुजर र्गये, पर हजारीलाल कुछ विनश्चय न कर सका। वि��ाह की तैयारिरयों में रAे जा चुके थे। मंते्रयी की पूजा हो चूकी थी और द्वार पर बाजों का शोर मचा हुआ था। मुहल्ले के लड़के जमा होकर बाजा सुनते थे और उल्लास से इ!र−उ!र दौड़ते थे।

संध्या हो र्गयी थी। बरात आज रात की र्गाड़ी से जाने �ाली थी। बरावितयों ने अपने �स्त्राभूष्Q पहनने शुरु विकये। कोई नाई से बाल बन�ाता था और चाहता था विक Aत ऐसा साफ हो जाय मानों �हां बाल कभी थे ही नहीं, बुढे़ अपने पके बाल को उAड़�ा कर ज�ान बनने की चेlा कर रहे थे। तेल, साबुन, उबटन की लूट मची हुई थी और हजारीलाल बर्गीचे मे एक �ृR के नीचे उदास बैठा हुआ सोच रहा था, क्या करंु?

अन्तिन्तम विनश्चय की घड़ी लिसर पर Aड़ी थी। अब एक RQ भी वि�ल्म्ब करने का मौका न था। अपनी �ेदना विकससे कहें, कोई सुनने �ाला न था। उसने सोचा हमारे माता−विपता विकतने अदुरदशh है, अपनी उमंर्ग में इन्हे इतना भी नही सूझता विक �!ु पर क्या र्गुजरेर्गी। �!ू के माता−विपता विकतने अदूरशh है, अपनी उमंर्ग मे भी इतने अ¶े हो रहे है विक देAकर भी नहीं देAते, जान कर नहीं जानते।

क्या यह वि��ाह है? कदाविप नहीं। यह तो लड़की का कुए ं में डालना है, भाड़ मे झोंकना है, कंुद छुरे से रेतना है। कोई यातना इतनी दुस्सह, कर अपनी पुत्री का �ै!व््य के अखिग्न−कंुड में डाल देते है। यह माता−विपता है? कदाविप नहीं। यह लड़की के शतु्र है, कसाई है, बमि!क हैं, हत्यारे है। क्या इनके लिलए कोई दण्ड नहीं ? जो जान−बूझ कर अपनी विप्रय संतान के Aुन से अपने हाथ रंर्गते है, उसके लिलए कोई दण्ड नहीं? समाज भी उन्हे दण्ड नहीं देता, कोई कुछ नहीं कहता। हाय !

यह सोचकर हजारीलाल उठा और एक ओर चुपचाप चल दिदया। उसके मुA पर तेज छाया हुआ था। उसने आत्म−बलिलदान से इस कl का विन�ारQ करने का दृढ़ संकल्प कर लिलया था। उसे मृत्यु का लेश−मात्र भी भय न था। �ह उस दशा का पहुंच र्गया था जब सारी आशाए ंमृत्यु पर ही अ�लम्मिम्बत हो जाती है।

उस दिदन से विफर विकसी ने हजारीलाल की सूरत नहीं देAी। मालूम नहीं जमीन Aा र्गई या आसमान। नादिदयों मे जाल डाले र्गए, कुओं में बांस पड़ र्गए, पुलिलस में हुलिलया र्गया, समाचार−पत्रों मे वि�ज्ञन्तिप्त विनकाली र्गई, पर कहीं पता न चला ।

कई हफ्तो के बाद, छा�नी रेल�े से एक मील पणिश्चम की ओर सड़क पर कुछ हविड्डयां मिमलीं। लोर्गो को अनुमान हुआ विक हजारीलाल ने र्गाड़ी के नीचे दबकर जान दी, पर विनणिश्चत रुप से कुछ न मालुम हुआ। भादों का महीना था और तीज का दिदन था। घरों में सफाई हो रही थी। सौभाग्य�ती रमणिQयां सोलहो श्रृंर्गार विकए र्गंर्गा−स्नान करने जा रही थीं। अम्बा स्नान करके लौट आयी थी और तुलसी के कच्चे चबूतरे के सामने Aड़ी �ंदना कर रही थी। पवितर्गृह में उसे यह पहली ही तीज थी, बड़ी उमंर्गो से व्रत रAा था। सहसा उसके पवित ने अन्दर आ कर उसे सहास नेत्रों से देAा और बोला−−मुंशी दरबारी लाल तुम्हारे कौन होते है, यह उनके यहां से तुम्हारे लिलए तीज पठौनी आयी है। अभी डाविकया दे र्गया है। यह कहकर उसने एक पास�ल चारपाई पर रA दिदया। दरबारीलाल का नाम सुनते ही अम्बा की आंAे सजल हो र्गयीं। �ह लपकी हुयी आयी और पास�ल स्मृवितयां जीवि�त हो

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र्गयीं, ह्रदय में हजारीलाल के प्रवित श्रद्धा का एक उद−्र्गार−सा उठ पड़ा। आह! यह उसी दे�ात्मा के आत्मबलिलदान का पुनीत फल है विक मुझे यह दिदन देAना नसीब हुआ। ईश्वर उन्हे सद−्र्गवित दें। �ह आदमी नहीं, दे�ता थे, जिजसने अपने कल्याQ के विनमिमत्त अपने प्राQ तक समप�Q कर दिदए।

पवित ने पूछा−−दरबारी लाल तुम्हारी चचा हैं।अम्बा−−हां।पवित−−इस पत्र में हजारीलाल का नाम लिलAा है, यह कौन है?अम्बा−−यह मुंशी दरबारी लाल के बेटे हैं।पवित−−तुम्हारे चचरे भाई ?अम्बा−−नहीं, मेरे परम दयालु उद्धारक, जी�नदाता, मुझे अथाह जल में डुबने से

बचाने �ाले, मुझे सौभाग्य का �रदान देने �ाले। पवित ने इस भा� कहा मानो कोई भूली हुई बात याद आ र्गई हो−−आह! मैं समझ र्गया। �ास्त� में �ह मनुष्य नहीं दे�ता थे।

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