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शशशशशशश शशशशशशशशशश / Shankhayan Shrautsutra अअअअअअअ [अअअअ ] 1 अअअअअअ 2 अअअअअअअ 3 अअअअअअअअअअ अअअअ 4 अअअअ अअअअअ अअ अअअअअअअ अअअअअअअअ अअ अअअअअअअ 5 अअअअअअअअ अअअअ [शशशशशशश शशशश ] शशशशशश शशशशशशश शशशशशशशशशश शश शशशशशश शशश शशशशशशशश शशशशशश शश शशशश शशश शशशश शश शशशशशशशश शश शशशशशशशशश शशशश शशश शश शशशशशशश शशशशशशशशशश शश शशशशशशशशशश शशशश शश शशशशशश शश शशशशशश शश शशशशशशश शशशशशशशशशशशश शशश* [शशशशशशश शशशश ] शशशशशशश शशशशशश-शशश शशशशशशश शश शशशश शशशश शशशशशशश शशशशशशशशशश शश शशशशशशशशशशशशशशशश शश शशशशशशश शशशश शश शश शशशशशशश शश शशश शशशशश शशश 1888-1899 शशश शशशशशशशश शशशशशशश 17 शश 18 शशशशशशशश शश शशशशशशश शश शशशश शशशश शशशशशश शश शशशशशशशशश शशश शशशशशश शशशशशश शश शशशश शशशश शशशशश शशशशशश शश शशशशशशशश शशशशशश शशशशशश शश 1953 शशश शशशशशशशश शशशश शशशशशशश शशश शशशशशशश शशशशशशशशशश शश शशशश शशश शश शशशशशशशशशश शश शश[शशशशशशश शशशश ] शशशशशशशशशश शशशश शशशश शशशशशशश शश शशशशशशश शशशशशशशशशश शशशशशशश शशशशशशशश शश शशशशशश शशशश शश; शशशशशशशशशश शशशशशशश शशशशशशशशशश* शशश शशश 'शशशशशशशशशश: शशशशश शशशश शशश:' शशशशश शशशशशशश शशशशशशशश* शश शशशश शशशशश शशश शशशशशशश शशशशशशशशशश* शश 'शशशशशशशशश:' शशशशश शशशशशशश शशशशशशशश* शश शशशश शश, शशशशशशश शशशशशशशशशश शशश शशश-शशश शशशश शशशशशशशश शश शशशशशश शशशश शशश शशशशशश शश शशशशशशश शशशशश शशशशशशश 'शशशशशशश शशशशशशशशशश शशशशशशशश शशशशशशशशशशशशशशश शशशशशशश शश शशशशशशशशशशशशशशशशशशशशश:'* शश शशशश शशशश शशशशशशशश* शश 'शश शशशशशशशश शशश शशशशशशशशशशशश शशशशशशशशशशशशशशशशशशशशशशशशशश शशशशशश श शशशशशशशशशशश शश शशश शशशशशशशशशशश' शशशशशशश शशशशशशशशशश* 'शशशशशशशशशशशशशशशशशशश शशशशशशशशशशशशशशशशशशशशशशश शशशश शशशशशशशशश' शशशशशशश शशशशशशशशशश* शश 'शशश शशशशशश शशशशशशशशशश शशशशशशशशशशशशशशशश शशशशशशशशश शशशशशश शशशशशशशशशशशशशशशशशश शशशश शशशशशशशशशशश शशशशशशशशशशश शशशशशशशशशशशशशशशश' शशशशशशशशशशशशशशशशशश * शशश 'शशश शशशशशश शशशशशशशश शश शशशशशशशशशशशशशशश शशशशशशशशश शशशशशशशशशशशशशशशशशश शशशश शशशशशशशशशश' शशश शशश शशशशशशश शशशशश शशश शशशश शशश शशशशश शशशशशश शशशश शश शशशश शश शश शशशशशशश शशशशशशशश शशशशशशश शशशशशशशशशश शश शशशशश शशशशश शशशश शशशशशशशशशशशश शशशशशशश शशशशशशशशशश* शशश शशश शश 'शशशशशशशशशशश शशशशशशश शशशशश: शशशशशश शशशशशशशशशशशशशशशशशशशशशशश शशशशशशशश शशशशशशशशशशशशशशशशशशश शशशशशशश शशशशशश:' शशशशशशश शशशशशशशश शशश शश शशशशशश शशश शश शशशशशश शश शशशशश शशशशशशश शशशशशशशशशश शशश शश शशशशशश शशशशश शशश शश शशशश शशश शश, शशशश

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शांखायन श्रौतसूत्र / Shankhayan Shrautsutra

अनुक्रम[छुपा]1 नामकरण 2 संस्करण 3 ब्राह्मणगत आधार 4 वि�षय − �स्तु और कौषीतविक ब्राह्मण से सम्बन्ध 5 सम्बंधिधत लि'ंक

[संपादि*त करें ] नामकरणशांखायन श्रौतसूत्र का ग्रन्थ नाम प्रत्येक अध्याय के अन्त में लि'खी गई पुष्पि6पका से विनधा7रिरत विकया गया है। शांखायन श्रौतसूत्र की आनत=यकृत टीका के अनुसार इस ग्रन्थ के कर्त्ताा7 सुयज्ञाचाय7 हैं।*

[संपादि*त करें ] संस्करण�र*र्त्ता-सुत आनत=य की टीका सविहत शांखायन श्रौतसूत्र का विहल्'ेब्राण्ड्ट् न ेसम्पा*न विकया है जो क'कर्त्ताा से चार भागों में 1888-1899 में प्रकालिशत है। इसमें 17 और 18 अध्यायों पर गोवि�न्* की टीका है। इस ग्रन्थ का अंग्रेज़ी में अन�ुा* का'न्* न ेविकया जिजसे 'ोकेश चन्द्र न ेसम्पादि*त विकया। यह नागपुर से 1953 में प्रकालिशत है। इस संस्करण में शांखायन श्रौतसूत्र के वि�षय में एक प्रस्ता�ना भी है।

[संपादि*त करें ] ब्राह्मणगत आधारअनेक स्थानों पर शांखायन श्रौतसूत्र कौषीतविक ब्राह्मण का अनुसरण करता है; उ*ाहरणार्थ7 शांखायन श्रौतसूत्र* में आया '�ात्र7घ्न: पू�7 आज्य भाग:' �ाक्य कौषीतविक ब्राह्मण* पर आधृत है। इसी तरह शांखायन श्रौतसूत्र* गत 'न�ानुयाजा:' �ाक्य कौषीतविक ब्राह्मण* पर आधृत है, शांखायन श्रौतसूत्र में कभी-कभी शतपर्थ ब्राह्मण का अनुसरण विकया गया है। जैसे विक शांखायन श्रौत सूत्रगत 'असावि�वित ज्येष्ठस्य पुत्रस्य नामाभिभव्या�ृत्य या�न्तो �ा भ�न्तिन्त। आत्मनोऽजातपुत्र:'* का आधार शतपर्थ ब्राह्मण* गत 'अर्थ पुत्रस्य नाम ग्रह्णावित। इ*ं मेऽयंपूत्रोऽनुसंतन�दि*वित। यदि* पुत्रा न स्या*र्थात्मन ए� नाम ग्रह्णीयात्' शांखायन श्रौतसूत्र* 'सुब्रह्मण्याप्रतीकं वित्ररूपांश्वभिभव्याहृत्य �ाचं वि�सृजन्ते।' शांखायन श्रौतसूत्र* गत 'यदि* सत्राय *ीभिbतोऽर्थ साम्युभिर्त्ताषे्ठत् सोममपभज्य राजानं वि�श्वजिजतावितरात्रेण यजेत स�7स्तोमेन स�7पृषे्ठन स�7�े*स*भिbणेन' ताण्ड्यमहाब्राह्मण* में 'यदि* सत्राय *ीbेरन अर्थ साम्युभिर्त्ताषे्ठत सोममपभज्य वि�श्वजिजतावितरात्रेण यजेत स�7�े*सेन' रूप में प्राप्य है।

ऐसे कुछ स्थ' हैं जिजनसे अनुमान विकया जा सकता है विक कौषीतविक ब्राह्मण शांखायन श्रौतसूत्र को गृहीत मानकर च'ता है। उ*ाहरणार्थ7 शांखायन श्रौतसूत्र* में आया है 'अयाज्ययजं्ञ जात�े*ा अन्तर: पू�f अस्मिस्मधिhषद्य। सन्�न्सनिनं सुवि�मुचा वि�मुञ्चधेह्यस्मभ्यं द्रवि�णं जात�े*:।' कौषीतविक ब्राह्मण में यह मन्त्र आधा ही उद्धतृ है 'ेविकन शांखायन श्रौतसूत्र में यह मन्त्र पूण7 रूप से दि*या गया है, इससे का'न्* न*े यह अनुमान विकया है विक शांखायन श्रौतसूत्र कौषीतविक ब्राह्मण से भी अधिधक प्राचीन हो सकता है। उसी तरह शांखायन श्रौतसूत्र* में यह मन्त्र आया है विक− 'भद्रा*भिभ श्रेय: पे्रविह बृहस्पवित: पुरएता ते अस्तु। अरे्थम�स्य �र आ पृलिर्थव्या आरेशत्रून्कृणुविह स�7�ीर:।।' शांखायन श्रौतसूत्र में यह मन्त्र पूण7 रूप से दि*या गया है जब विक कौषीतविक ब्राह्मण* में इस मन्त्र के के�' प्रर्थम *ो पा* ही दि*ए गए हैं। शांखायन श्रौतसूत्र* में जो विनग* धिम'ता है �ह कौषीतविक ब्राह्मण* में पूण7 रूप से उप'ब्ध है। यदि* शांखायन श्रौतसूत्र कौषीतविक ब्राह्मण से प्राचीन होता तो �ह यह विनग* पूण7 रूप से कैसे उद्धतृ करता? इससे भी यह सूलिचत होता है विक शांखायन श्रौतसूत्र कौषीतविक ब्राह्मण से प्राचीन है। खोन्*ा का इस सन्*भ7 में अनुमान है विक ये *ोनों ग्रन्थ समका'ीन हैं, अर्थ�ा शब्* रचना और कल्पना−वि�न्यास *ोनों पारस्परिरक होंगे और ब्राह्मण ग्रन्थ का प्र�क्ता उससे प्रभावि�त होगा।*

[संपादि*त करें ] वि�षय−�स्तु और कौषीतविक ब्राह्मण से सम्बन्धशांखायन श्रौतसूत्र *श7पूण7मास (कौषीतविक ब्राह्मण 4) शांखायन श्रौतसूत्र* अग्न्याधेय, पुनराधेय (कौषीतविक ब्राह्मण) शांखायन श्रौतसूत्र* अग्निग्नहोत्र (कौषीतविक ब्राह्मण 2) शांखायन श्रौतसूत्र* वि�वि�ध इधिvयाँ (कौषीतविक ब्राह्मण 3) शांखायन श्रौतसूत्र* −चातुमा7स्य (कौषीतविक ब्राह्मण 5) शांखायन श्रौतसूत्र* प्रायभिxर्त्ता*, शांखायन श्रौतसूत्र 4 − विपण्डविपतृयज्ञ, शू'ग� इत्यादि* शांखायन श्रौतसूत्र 5−8 अग्निग्नvोम* शांखायन श्रौतसूत्र 9 − उक्थ्य, षोडलिशन,् अवितरात्र* शांखायन श्रौतसूत्र 10 − द्वा*शाह*, शांखायन श्रौतसूत्र चतुर्विं�ंश अभिभप्'� षडह, अभिभजिजत, स्�र सामन, वि�षु�त, वि�श्वजिजत*, शांखायन श्रौतसूत्र 12 − होत्रक के शस्त्र* शांखायन श्रौतसूत्र* प्रायभिxर्त्ता इत्यादि* 3.14−29 सत्रयागग�ामयन इत्यादि*। आश्व'ायन श्रौतसूत्र / Ashvlayan Shrautsutraयह श्रौतसूत्र गाग्य7 नारायण की टीका सविहत रामनारायण वि�द्यारत्न के द्वारा सम्पादि*त होकर क'कर्त्ताा से 1874 ई. में प्रकालिशत है। उसी टीका के सार्थ जी. एस. गोख'े न ेपुणे से 1917 में प्रकालिशत विकया। *े�त्रात−भा6य के सार्थ यह श्रौतसूत्र रण�ीर लिसंह बाबा आदि* के द्वारा सम्पादि*त होकर 1986 और 1990 में होलिशयारपुर से 'गभग आधा प्रकालिशत हुआ है। आश्व'ायन न ेऋग्�े* की बा6क' तर्था शाक' इन *ोनों शाखाओं का अनुसरण विकया− 'शाक'समाम्नायस्य बा6क'समाम्नायस्य चे*मे� सूत्रं गृहं्य चेत्यध्येतृप्रलिसद्धम्।' शांखायन श्रौतसूत्र और कौषीतविक ब्राह्मण से सम्बन्धों की तु'ना में आश्व'ायन श्रौतसूत्र और ऐतरेय ब्राह्मण के सम्बन्ध अधिधक लिशलिर्थ' हैं। आश्व'ायन श्रौतसूत्र में ऐतरेय परम्परा का उल्'ेख स्�तन्त्र और दूर की परम्परा की तरह विकया गया है। उ*ाहरणार्थ7 आश्व'ायन श्रौतसूत्र* में उल्'ेख है– 'अन्तरेण हवि�षी

वि�6णुमुपांश्वैतरेधियण: तत्र पै्रषेकतर ए�ाग्नीषोमा�े�धिमत्यैतरेधियण:'* तर्था 'एकाहxतैरेभिणयः।* ऐतरेय ब्राह्मण में अनलु्लिल्'ग्निखत कुछ कम7काण्ड �ेर्त्तााओं का अ�'ायन श्रौतसूत्र में उल्'ेख है, जैसे विक 'आश्मरथ्य विक्रयामाश्मरथ्योःन्तिन्�ताप्रवितषेधान्'।* कौत्स*- गाणगारिर 'तस्मै तस्मै य एषां पे्रताः स्युरिरवित गाणगारिरः प्रत्यbधिमतरानच7येत् त*र्थ7त्�ात्'* इत्यादि*। सामान्य रूप से हम कह सकते हैं विक आश्व'ायन श्रौतसूत्र में बहुत से ऐसे वि�षय हैं जो ऐतरेय ब्राह्मण में नहीं धिम'ते, जैसे विक *श7पूण7मास, अग्निग्नहोत्र अग्न्याधान, चातुमा7स्य याग इत्यादि*। ये सब वि�षय प्रायः पह'े तीन अध्यायों में हैं। के�' पशुयज्ञ सम्बन्धी*, अग्निग्नहोत्र* तर्था प्रायभिxर्त्ता सम्बन्धी* वि�षय– इन्हीं का ऐतरेय ब्राह्मण से विनभिxत सम्बन्ध है।

[संपादि*त करें ] वि�षय �स्तुआश्व'ायन श्रौतसूत्र की वि�षय�स्तु और उसके ऐतरेय ब्राह्मण से सम्बनध का वि��रण इस प्रकार हैः–

आश्व'ायन श्रौतसूत्र वि�षय

1. *श7पूण7मास

2. अग्निग्नहोत्र, विपण्डविपतृयज्ञ, आग्रयण, चातुमा7स्य इत्यादि*।

3. पशुयाग, प्रायभिxर्त्ता इत्यादि*।

4. सोमयाग का प्रारस्मि�क भाग*

5. अग्निग्नvोम*

6. 1–6 उक्थ्य, षोडलिशन,् अवितरात्र* 6–7–10 प्रायभिxर्त्ता इत्यादि*।

7. 11–14 अग्निग्नvोम का अन्तिन्तम भाग*

7.1 सामान्य विनयम।

7.2-4 चतुर्विं�ंश*

7.5–9 अभिभप्'� षडह इत्यादि**

7.10–12 पृष्ठ्य षडह इत्यादि**

8.1–4 छठे दि*न पर होतृ और होत्रक–शस्त्र*

8.6 वि�षु�त्*

8.7 वि�श्वजिजत् और स्�रसामन्*

8.8.8 वू्यढ द्वा*शाह*

8.9.11 छन्*ोम*

8.12 *स�ां दि*�स*

8.13 *शम दि*�स की अ�लिशv वि�धिध।

8.14 पठन सम्बन्धी विनयम।

9.12 अहीन और सत्र।

बौधायन श्रौतसूत्र / Baudhayan Shrautsutra

अनुक्रम[छुपा]1 बौधायन श्रौतसूत्र / Baudhayan Shrautsutra 2 तैभिर्त्तारीय शाखा की संविहता 3 तीस प्रश्न 4 यजु��* 5 सूत्र – रचना 6 अग्न्याधेय 7 पुनराधान का वि�धान 8 अग्निग्नहोत्र का वि�धान 9 आग्रयणेधिv 10 अध्�यु7 और यजमान 11 पशुबन्ध 12 चातुमा7स्य याग 13 अग्निग्न चयन 14 �ाजपेय 15 राजसूय 16 काम्य इधिv 17 औपान�ुाक्य 18 अश्वमेध 19 उर्त्तारातवित : 20 काठक चयन 21 दै्वध 22 परिरभाषा 23 प्रायभिxर्त्ता सूत्र 24 शुल्बसूत्र 25 शाखागत क्रम 26 �ैवि�ध्य 27 भ�स्�ामी का भा6य 28 बौधायन श्रौतसूत्र की रचना 29 बौधायन श्रौतसूत्र के संस्करण 30 टीका दिटप्पणी 31 सम्बंधिधत लि'ंक

तैभिर्त्तारीय शाखा के छह श्रौतसूत्र हैं:– बौधायन, भारद्वाज, आपस्तम्ब, सत्याषाढ (विहरण्यकेलिश), �ैखानस और �ाधू'। इनमें बौधायन का स्थान प्रर्थम है। सत्याषाढ श्रौतसूत्र के प्रारस्मि�क अंश पर महा*े� का ‘�ैजयन्ती’ संज्ञक भा6य है, जिजसके मंग' श्लोकों में उन्होंने तैभिर्त्तारीय शाखा के सूत्रकारों को प्रणाम विकया है– यत्राकरोत् सूत्रमती� गौर�ा* ्बौधायनाचाय7�रोऽर्थ7गुप्तये।तर्था भरद्वाज मुनीश्वरस्तर्थाऽऽपस्तम्ब आचाय7 इ*ं पर ंसु्फटम्।।अती� गूढार्थ7मनन्य*र्शिशंतं न्यायैx युकं्त रचयhसौ पुन:।विहरण्यकेशीवित यर्थार्थ7नामभाग् अभूद्वरार्त्ताुv मुनीन्द्रसम्मातात्।।�ाधू' आचाय7�रोऽकरोत् पर ंसूत्रं तु यत् केर' *ेशसंल्लिस्थतम्।�ैखानसाचाय7कृतं त्�र्थापरं पूत�न युकं्त न्तित्�वित सूत्र षड्वि�धा:।। उपयु7क्त पद्वों में �ैजयन्तीकार महा*े� न ेतैभिर्त्तारीय शाखा के बौधायन, भारद्वाज, आपस्तम्ब, विहरण्यकेशी, �ैखानस, �ाधू' – इन सूत्रकारों का क्रम से विन*�श करके उन्हें प्रणाम विकया है। इनमें बौधायन का नाम प्रर्थम है।[1] और अन्य नाम; �ाधू' को छोड़कर, ऐवितहालिसक क्रम से भी युक्त हैं। पह'ा नाम बोधायन और बौधायन – इन *ो प्रकारों से ही लि'खा गया है। व्याकरण की दृधिv से 'बुध' शब्* से गोत्रापत्य*श7क बौधायन शब्* लिसद्ध होता है तब आदि*�ृजिद्ध होती है, विकन्तु प्राचीन का' से बोधायन शब्* ही स�7त्र रूढ़ है। इन आचाय� में भारद्वाज से �ाधू' तक सूत्रकार कह'ाते हैं, जबविक बोधायन को प्र�चनकार की संज्ञा *ी गई है।[2] आचाय7 लिश6यों को संबोधिधत करके प्र�चन करता है, जबविक सूत्रकार सूत्र–प्रणयन करता है। सूत्रकार के सम्मुख लिश6य उपल्लिस्थत नहीं होते। �ास्त� में ही बौधायन श्रौतसूत्र प्र�चन ही है। उसमें वि�स्तार है, जबविक सूत्रों की रचना संभिbप्त होती है। वि�षय के पुनरुक्त होने पर भी बोधायन संbेप नहीं करते। बीच–बीच में वि�धिध की पुधिv के लि'ए ब्राह्मण �ाक्यों को उद्धतृ करते हैं। ऐसा प्रतीत होता है जैसे विक सामने बैठे हुए लिश6यों को समझाने के लि'ए आचाय7 हर प्रकार से प्रयास कर रहे हों। आ�श्यकता होने पर अभिभनय के द्वारा भी �ह विकसी बात को स्पv करते हैं। अग्न्याधान के अ�सर पर आह�नीय अग्निग्न की स्थापना के लि'ए गाह7पत्य अग्निग्न से प्रज्�लि'त काष्ठ को �ह हार्थ में पकड़ 'ेते हैं और उस काष्ठ को क्रम से ऊपर 'ेते हैं। प्र�चनकार का प्रश्न है– 'इत्यग्नेय हरवित अर्थ7�वित अर्थ7यवित।' इस प्रकार अपना *ाविहना हार्थ ऊँचा करके �ह अध्�यु7 द्वारा की जाने �ा'ी वि�धिध बत'ाते हैं।

[संपादि*त करें ] तैभिर्त्तारीय शाखा की संविहतायद्यविप बोधायन के समय में तैभिर्त्तारीय शाखा की संविहता, ब्राह्मण और आरण्यक का पाठ सुविनभिxत र्था, तो भी सूत्र में बहुसंख्यक मन्त्र सक' पाठ के रूप में उद्धतृ हैं। इस शाखा के अन्य सूत्रों में मन्त्र प्रतीक रूप में प्र*र्शिशंत हैं। बौधायन के समय तैभिर्त्तारीय शाखा का पाठ सुप्रवितधिष्ठत र्था, इसके अनेक प्रमाण सूत्र में धिम'ते हैं। जब पू�ा7पर मन्त्रों का वि�विनयोग अपेभिbत है, तब पह'े प्रतीक उद्धतृ करके 'इत्यनुहृत्य' कहकर दूसरे मन्त्र का प्रतीक पाठ दि*या जाता है। अग्निग्न–चयन–प्रकरण में जब अग्निग्नलिचवित की रचना पूरी होती है, तब लिचवित के उर्त्तार पb में अन्तिन्तम इvका पर तैभिर्त्तारीय संविहतागत रूद्राध्याय* के मन्त्रोच्चारण के सार्थ अजाbीर कर अभिभषेक विकया जाता है। आगे च'कर अन्य मन्त्रों* से �सोधा7रा की सन्तत आहुवित *ी जाती है। यहाँ के�' संविहता के अन्तग7त अन�ुाकों का विन*�श विकया जाता है।

[संपादि*त करें ] तीस प्रश्नमुदिद्रत श्रौतसूत्र में तीस प्रश्न हैं, जिजनका वि�षयानुक्रम विनम्न प्रकार से है:–

प्रश्न वि�षय

1. *श7पूण7मास

2. अग्न्याधेय

3. *शाध्याधियक (पुनराधेय, अग्निग्नहोत्र, विपण्डविपतृयज्ञ, आग्रयण, याजमान, ब्रह्मत्�, हौत्र)

4. पशुबन्ध

5. अग्निग्नहोत्र

6–8. अग्निग्नहोत्र

9. प्र�ग्य7

10. अग्निग्न–चयन

11. �ाजपेय

12. राजसूय

13. इधिvकल्प

14. औपानु�ाक्य

15. अश्वमेध

16. द्वा*शाह, ग�ामयन, अहीन

17-18. उर्त्तारातवित (अवितरात्र, एका*लिशनी, सत्र, अयन, एकाह)

19. काठक

20-23. दै्वध

24-26 कमा7न्त

27-29 प्रायभिxर्त्ता

30. शुल्ब, प्र�र।

[संपादि*त करें ] यजु��*यजु��* अध्�यु7–�े* है। यज्ञ में अध्�यु7 और उसके सहायकों के काय7 का वि��रण यजु��* और उससे सम्बद्ध ग्रन्थों में धिम'ता है। यद्यविप यज्ञ, वि�शेष रूप से सोमयाग में चार प्रधान ऋन्तित्�ज् होते हैं, तो भी उनमें अध्�यु7 का काय7 अधिधक महत्�पूण7 होता है। सायणाचाय7 न ेतैभिर्त्तारीय संविहता–भा6य के उपोद्घात में लि'खा है विक तीन �े*ों में से यजु��* भिभभिर्त्तास्थानीय है। यदि* भिभभिर्त्ता न हो तो लिचत्र कहाँ अवंिकत विकया जाए? यजु��*ीय साविहत्य में अध्�यु7 के सार्थ ही यजमान और ब्रह्मा नामक ऋन्तित्�क का काय7 भी विनरूविपत है।

[संपादि*त करें ] सूत्र–रचनायह कहा जा चुका है विक बौधायन सूत्र प्र�चन रूप में है। लिश6य के प्रश्न पूछन ेपर आचाय7 उसका वि��रण *ेते हैं, इसलि'ए इस सूत्र में प्रकरण को ‘प्रश्न’ संज्ञा *ी गई है। कर्थन का तात्पय7 यद्यविप वि�ध्यर्थ7रूप है, तर्थाविप सूत्र–रचना में �त7मान का' का प्रयोग विकया गया है। प्राय: सभी सूत्र ग्रन्थों में यही शै'ी स्�ीकृत है। वि�स्तृत वि��रण के फ'स्�रूप समग्र वि�धिध स्पv हो जाती है। हाँ; जहाँ पारिरभाविषक प* आते हैं, �हाँ सुबोधता के लि'ए अन्य साधन आ�श्यक होते हैं। प्र�चन होने के कारण इसमें सूत्रचे्छ* नहीं बत'ाया गया है। सूत्र तो हैं ही नहीं, विकन्तु सुबोधता के लि'ए सम्पा*क न े�ाक्य के अंत में ऊपरी ओर रेखा *ी है। प्रत्येक मन्त्र या मन्त्र समूह पूरा–पूरा दि*या गया है। *श�धिv में पू�7 दि*न अनुष्ठान का आर� होता है और दूसरे दि*न प्राय: इधिv समाप्त होती है। पूण7मासेधिv भी *ो दि*नों में वि�भक्त होती है, चाहने पर एक दि*न में भी पूरी वि�धिध की जा सकती है। इसमें चार ऋन्तित्�ज् होते हैं और ऋग्�े* तर्था यजु��* से ही काय7 सम्पh हो जाता है।

[संपादि*त करें ] अग्न्याधेयदूसरे प्रश्न में अग्न्याधेय का वि��रण है। ब्राह्मण, bवित्रय और �ैश्य इन तीनों �ण� को श्रौताग्निग्नयों की स्थापना करने का मू'त: अधिधकार है। वि�शेष योग्यता �ा'े विनषा* स्थपवित को भी यज्ञ करने का अधिधकार है। यजमान अपने घर के एक पb में अग्निग्नशा'ा की योजना करता है तर्था शुल्ब सूत्रोक्त विनयमों के अनुसार अग्न्यायतन और �ेदि* बनाई जाती है। अग्निग्न–स्थापना के लि'ए वि�शेष मास और नbत्र वि�विहत हैं। इसमें गृहस्थ ही अधिधकृत हैं। यजु��* के सभी श्रौतसूत्रों में अग्न्याधेय की वि�धिध �र्णिणंत है, विकन्तु बौधायनोक्त वि�धिध में कुछ वि�शेषताए ँहैं। यजमान जब सोमयाग करता है, तब उसे अपने विन�ास से दूर न*ी या ज'ाशय के पास वि�स्तृत *े�यजन भूधिम की यज्ञ के लि'ए आ�श्यकता होती है। सोमयाग के लि'ए सो'ह ऋन्तित्�जों का चयन विकया जाता है। बौधायन सूत्र में अग्न्याधेय के अ�सर पर ही *े�यजनयाचन और ऋन्तित्�ग्�रण करने की वि�धिध है। उसमें कुछ वि�धिधयाँ ऐसी भी हैं जो बौधायन सूत्र के सार्थ ही अग्न्याधेय वि�धिध की प्राचीनता भी बत'ाती हैं। अग्न्याधेय वि�धिध के पह'े दि*न गोविपतृयज्ञ करने का वि�धान है, जो अन्य सूत्रों में प्रवितपादि*त नहीं है। तैभिर्त्तारीय शाखा में तो उसका आधार ही नहीं है। यह गृह्यकम� में वि�विहत श्राद्ध का प्राचीन रूप है और एक �ैलिशष्ट्य पूण7 वि�धिध बौधायनोक्त अग्न्याधेय के सम्बन्ध में बत'ाई गई है। बौधायन श्रौताग्निग्नयों की स्थापना के पू�7 यजमान की अन्तबा7ह्य शुजिद्ध के समर्थ7क हैं। इसके लि'ए उन्होंने अनेक उपाय बताए हैं। 'पाप्मनो वि�विनधय:' उनमें से एक है। यजमान के आन्तरिरक और बाह्य पापों तर्था वि�कारों को अन्य तविद्वलिशv �स्तुओं और प्राभिणयों में प्रस्थाविपत विकया जाता है। एत*र्थ7 संगृहीत मन्त्र ('लिसंहे मे मन्यु:' तर्था 'व्याघ्रे मेऽन्तरामय: प्रभृवित') ही 'पाप्मनो वि�विनधय:' कह'ाते हैं। ये के�' बौधायन श्रौतसूत्र में ही हैं। अग्न्याधान की यह वि�शेषता है विक उसमें सामगान होता है। �ैसे तो सामगान सोमयाग में होता है, जहाँ तीनों सामगायक शस्त्र–शंसन से पू�7 वि�विहत स्त्रोत गाते हैं। इनमें से प्रत्येक सामगायक अपने–अपन ेअंश का गायन करता है। विकन्तु सोमयाग से पू�7 अग्न्याधान वि�धिध में अके'े उद्गाता ही पूरा साम गाता है।

[संपादि*त करें ] पुनराधान का वि�धान'दृशाध्याधियक' संज्ञक तृतीय प्रश्न के प्रर्थम अध्याय में, जिजसमें विक तीन खण्ड हैं, पुनराधान का वि�धान है। श्रौताग्निग्नयों की स्थापना के अनन्तर एक �ष7 की अ�धिध में यदि* यजमान आपभिर्त्ताग्रस्त हो जाए, तो यह मान्यता र्थी विक उसके लि'ए 'ाभकारक नहीं लिसद्ध हुआ। अत: उसे पुन: अग्निग्न–स्थापना करनी चाविहए। एत*र्थ7 ब्राह्मण ग्रन्थों में पुनराधेय वि�धिध वि�विहत है। इसमें �े ही प*ार्थ7 प्रयोज्य हैं, जिजन्हें जीण7 होने के कारण नया रूप दि*या गया हो।

[संपादि*त करें ] अग्निग्नहोत्र का वि�धानछह खण्डों �ा'े विद्वतीय तर्था तृतीय अध्यायों में अग्निग्नहोत्र का वि�धान है। श्रौताग्निग्नयों की स्थापना के पxात यजमान दि*न में *ो बार सूया7स्त और सूयf*य के समय अग्निग्नयों में स्�यं अर्थ�ा पुरोविहत के माध्यम से आहुवितयों का प्रbेप करता है। सामान्यत: ये आहुवितयाँ गाय के दूध की होती हैं। इसके लि'ए यजमान एक वि�शेष अग्निग्नहोत्री गाय का पा'न करता है। अग्निग्नहोत्रजन्य आहुवितयों के लि'ए अन्य द्रव्यों के वि�कल्प भी हैं। सांयकालि'क अग्निग्नहोत्र के पxात यजमान *े�ताओं का उपस्थान करता है। आविहताग्निग्न यजमान होने के लि'ए पत्नी सविहत वि�लिशv विनयमों का पा'न करना पड़ता है। विकसी काय7�श अके'े अर्थ�ा पत्नी के सार्थ प्र�ास पर जाते और �ापस आते समय �ह अपनी अग्निग्नयों की प्रार्थ7ना करता है। ये विनयम 'प्र�ासवि�धिध' नाम से छठे अध्याय के *ो खण्डों में संकलि'त हैं।

[संपादि*त करें ] आग्रयणेधिv�ैदि*क धम7 में अमा�स्या प�7 में विपतरों की पूजा वि�विहत है। गृहस्थ पुरुष उस दि*न और अन्य अ�सरों पर भी स्मार्त्ता7 सूत्रानुसार श्राद्ध करता है। आविहताग्निग्न व्यलिक्त को अमा�स्या के दि*न अपराह्ण का' में विपण्डविपतृयज्ञ करना चाविहए। बौधायन न ेचतुर्थ7 अध्याय के *ो खण्डों में उसकी वि�धिध बताई है। पाँच�े अध्याय (इसमें के�' एक खण्ड है– 1) में आग्रयणेधिv का वि��रण है। इस इधिv का सम्बन्ध न�ीन धान्य से है। पह'े *े�ताओं को न�ीन धान्य की आहुवित *ेकर तब उसका अपने आहार में उपयोग विकया जाए, यह वि�चार इस इधिv के स्�रूप में विनविहत है। �षा7का' में

श्यामाक धान्य उत्पh होता है। इसका याग *े�ताओं के लि'ए विकया जाता है। शर* ऋतु में व्रीह्याग्रयण तर्था बसन्त में य�ाग्रयण की इधिv की जाती है।

[संपादि*त करें ] अध्�यु7 और यजमान*श7पूण7मासेधिv (जिजसका वि�धान प्रर्थम प्रश्न में है...) में अध्�यु7 और यजमान की वि�शेष भूधिमका है। सात�ें और आठ�ें अध्यायों में यजमान का कर्त्ता7व्य बताया गया है। ब्रह्मा नामक ऋन्तित्�क के कर्त्ता7व्य चार खण्डों �ा'े न�म अध्याय में प्र*र्शिशंत हैं। *शम अध्याय में हौत्र (जो मुख्यत: ऋग्�े* के bेत्र में आता है) का आ�श्यक वि��रण है।

[संपादि*त करें ] पशुबन्धचौर्थे प्रश्न में पशुबन्ध का वि��रण है। यह प्रश्न तीन अध्यायों और 11 खण्डों में वि�भक्त है। पशुबन्ध का ही नामान्तर विनरूढ पशुबन्ध भी है। इसका साbात् वि��रण तैभिर्त्तारीय संविहता में नहीं है। अग्निग्नvोम क्रतु के अंगरूप में अग्नीषोमीय पशुयाग उप�सर्थ के दि*न अनुषे्ठय है। इसके *े�ता अग्निग्न और सोम हैं, जबविक विनरूढ पशुबन्ध के *े�ता इन्द्राग्नी है।

[संपादि*त करें ] चातुमा7स्य यागपाँच�ें प्रश्न में चातुमा7स्य याग का वि��रण है। �ास्त� में, तैर्त्ताीरीय शाखा में यह याग राजसूय के अंगरूप में वि�विहत है। �हाँ से 'ेकर सूत्र में उसका अनुष्ठान पृर्थक रूप से दि*या गया है। इस प्रश्न में छह अध्याय और 18 खण्ड हैं। चातुमा7स्य याग चार प�� में वि�विहत हैं– �ैश्व*े�, �रुण प्रघास, साकमेध और शुनासीरीय। प्रर्थम प�7 के चार मासों के अनन्तर दूसरे प�7 का अनुष्ठान होता है। सं�त्सर के अन्त में शुनासीरीय प�7 विकया जाता है। इस याग के अनुष्ठानार्थ7 छह ऋन्तित्�जों की आ�श्यकता होती है। ये सभी याग अग्निग्नvोम नामक प्रकृवित–भूत सोमयाग के पू�7 विकए जाते हैं, इसलि'ए इन सबको 'प्राक्सोम' वि�भाग या प्रकरण की संज्ञा *ी गई है। इनके पxात तीन प्रश्नों (6–8) में अग्निग्नvोम का वि��रण है, जिजसका आधार तैभिर्त्तारीय संविहता में है। इसमें प्रधान द्रव्य सोम है, सो'ह ऋन्तित्�क होते हैं जो जो होतृ, अध्�यु7, उद्गातृ और ब्रह्म संज्ञक गणों में वि�भक्त हैं। इस प्रकरण में उनके काय� का वि��रण है। ब्रह्मगण के चार ऋन्तित्�जों के लि'ए �े* सम्बन्धी कोई विनयम नहीं है। हाँ, ब्रह्मा को तीनों �े*ों का ज्ञान होना आ�श्यक है। विकसी भी अनुष्ठान में त्रुदिट होने पर प्रायभिxर्त्ता का अधिधकारी �ही है। सोमयाग के प्रधान अनुष्ठान के पू�7 अनुष्ठान के पू�7 यजमान *ीbा ग्रहण करता है। *ीbा दि*नों की संख्या सोमयाग के महत्� पर विनभ7र है। कम से कम एक दि*न *ीbा का होना चाविहए। आगे उपस* ्दि*न होते हैं, जिजनकी न्यूनतम संख्या तीन होती है। त*नन्तर उप�सर्थ और बा* में सुत्या दि*न। प्रर्थम दि*�स प्रारस्मि�क लिसद्धता का है और यजमान तर्था उसकी पत्नी की *ीbा होती है। दूसरे दि*न सोम �नस्पवित का संपा*न होता है। दूसरे, तीसरे और चौर्थे दि*नों में प्रवितदि*न प्रात: और अपराह्ण का' में प्र�ग्य7 और उपस* ्नामक कम7 होते हैं। महा�ेदि*का और शा'ाओं का विनमा7ण होता है। अग्नीषोमीय पशु–याग होता है। पाँच�ें दि*न, ऊषा का' से 'ेकर रावित्र तक वि�धिधयाँ च'ती रहती हैं जो चार वि�भागों में वि�भक्त होती हैं– प्रात: स�न, माध्यजिन्*न स�न, तृतीय स�न और यज्ञपुच्छ। तीनों स�नों में सोमरस का सृजन, स�नीय पशु–याग, *भिbणा *ान आदि* विकए जाते हैं। सोमरस से भरे हुए ग्रहों और चमसों का याग स्तोत्रगान और शस्त्र–शंसन के सार्थ होता है। यज्ञपुच्छ में अनुष्ठान का उपसंहार होता है। अग्निग्नvोमगत प्र�ग्य7 नामक कम7, जो तीन दि*नों में छह बार होता है, का पूरा वि��रण 9 �ें प्रश्न में है।

[संपादि*त करें ] अग्निग्न चयन10 �ें प्रश्न में अग्निग्न–चयन की वि�धिध वि�स्तार से उप�र्णिणंत है। सोमयागगत उर्त्तार�े*ी के स्थान में इvकाओं की पाँच लिचवितयाँ एक के ऊपर दूसरी के क्रम से रची जाती हैं। इस लिचवित पर आह�नीयाग्निग्न की प्रवितष्ठापना करके उसमें सोमयागादि* सम्पh विकए जाते हैं। अग्निग्न–चयन एक वि�स्तृत कम7 है, अत: इसे याग नहीं कहा जा सकता।

[संपादि*त करें ] �ाजपेय11 �ें प्रश्न में �ाजपेय का वि��रण है। यह एक एकाह सोमयाग है। इसमें 17 रर्थों की शकटी होती है जो यजमान जविनता है। यजमान और उसकी पत्नी स्�गा7रोहण का अभिभनय और भा�ना करते हैं। यजमान का अभिभषेक होता है। bोभ के सार्थ सूरा का भी प्रकम्पन होता है। ब्राह्मण और राजन्य इस याग के अधिधकारी हैं। �ाजपेय जी को बड़ा सम्मान प्राप्त होता है।

[संपादि*त करें ] राजसूय12 �ें प्रश्न में राजसूय का वि��रण है। इस यज्ञ का अधिधकारी राजा माना गया है। इसमें अनेक इधिvयाँ और सोमयाग सष्पिम्मलि'त हैं। अनेक प्रकार की ज'रालिश से यजमान का अभिभषेक होता है। राज्याधिधकार के अनुकू' कुछ वि�धिधयाँ इसमें समावि�v हैं। सामान्यत: एक �ष7 से अधिधक का' तक इसका अनुष्ठान च'ता है।

[संपादि*त करें ] काम्य इधिv13 �ें प्रश्न में अनेक काम्य इधिvयों का वि��रण है।

[संपादि*त करें ] औपानु�ाक्य14 �ें प्रश्न का वि�षय है औपानु�ाक्य। इसका आधार तैभिर्त्तारीय संविहता का तीसरा काण्ड है जो औपानु�ाक्य ही कह'ाता है। इसमें मन्त्र–ब्राह्मण धिमभिश्रत अनेक वि�षय हैं। चौर्थे �ैश्व*े� काण्ड में जो वि�षय अन्तभू7त हैं, उनमें एक है औपानु�ाक्य, अर्था7त् सारस्�तपाठ[3] की तैभिर्त्तारीय संविहता का सम्पूण7 तीसरा काण्ड। इस काण्ड में क्रम से जो वि�षय आए हैं, चाहे �े मन्त्र हों या ब्राह्मण, उनका उसी क्रम से वि��रण बौधायन सूत्र के 14 �ें प्रश्न में है। अत: उसका स्�रूप अन्य प्रश्नों से भिभh है। स्�ाभावि�क र्था विक इसमें ब्राह्मण अंश कुछ अधिधक प्रमाण में उद्धतृ होता। इससे स्पv है विक बौधायन के समय में तैभिर्त्तारीय शाखा का आष�य पाठ सुप्रवितधिष्ठत र्था। सत्याषाढ प्रभृवित अन्य गृह्यसूत्रों में आष�य पाठ के छह, चार या नौ काण्ड माने गए हैं।

[संपादि*त करें ] अश्वमेध15 �ें प्रश्न में अश्वमेध का वि��रण है। 16 �ें प्रश्न में द्वा*शाह, ग�ामयन और अहीन क्रतुओं से सम्बद्ध सामग्री है। द्वा*शाह अहीन और सत्र प्रकार से उभयवि�ध होता है। अहीनरूप हो तो एक ही यजमान होता है। सत्ररूप होने पर ऋन्तित्�क ही उसके सहभागी यजमान होते हैं। इन्हीं में से एक को गृहपवित का स्थान *ेकर काय7 करने को कहा जाता है। ग�ामयन सं�त्सरसत्र है। सं�त्सरसत्रों की �ह प्रकृवित है। काम्य, अहीन क्रतुओं का वि��रण भी इस प्रश्न में है। *ो से 'ेकर सहस्त्ररात्र तक अहीन क्रतुओं की वि�धिधयाँ संbेप में बताई गई हैं।

[संपादि*त करें ] उर्त्तारातवित:17 �ें और 18 �ें प्रश्नों को 'उर्त्तारातवित:' कहा गया है। 17 �ें प्रश्न में बहुत से वि�षय आए हैं, जैसे अवितरात्र, एका*लिशनी, सत्रों और अयनों के प्रकार, सौत्रामभिण इत्यादि*। अन्यत्र गृह्यकम� में अन्तभू7त समा�त7न वि�धिध भी उर्त्तारातवित में �र्णिणंत है। 18 �ें प्रश्न में काम्य एकाह क्रतुओं का वि��रण है।

[संपादि*त करें ] काठक चयन19 �ें प्रश्न में काठक चयन उप�र्णिणंत है। पाँच काठक �चनों में चार का आधार तैभिर्त्तारीय ब्राह्मण में और एक का आरण्यक में विनविहत है।

[संपादि*त करें ] दै्वध20 �ें से 23 �ें तक के चार प्रश्न 'दै्वध' के नाम से जाने जाते हैं। यह बौधायन सूत्र की वि�शेषता है। दै्वधसूत्र में उन वि�धिधयों के वि�षय में वि�भिभh मतों का संग्रह है, बौधायनीय परम्परा में जिजनके भिभh सम्प्र*ाय रे्थ। आर� में मू'सूत्र का सन्*भ7 *ेकर उस वि�षय में जिजतने आचाय� के वि�भिभh मत हैं, उनका विन*�श है। दै्वधसूत्र में जिजन वि�भिभh आचाय� के मत प्र*र्शिशंत हैं, �े ये हैं– आञ्जीगवि�, आत्रेय, अर्त्ता7भागीपुत्र, औपमन्य�, औपमन्य�ीपुत्र, भा6य, कौणपतन्तिन्त्र, गौतम, ज्यायान् कात्यायन, *भिbणाकार, रार्थीतर, *ीघ7�ात्स्य, बौधायन, मांग', मैते्रय, मौद्गल्य, �ाधू'क और शा'ीविक। दै्वधसूत्र में कुछ ऐसे स्थ' हैं जिजनका मू' सूत्र बौधायन सूत्र में नहीं धिम'ता है। तीन प्रश्न (24–26) 'कमा7न्तसूत्र' के नाम से प्रलिसद्ध हैं। मू'सूत्र में जो अंश विकसी कारण अधूरा रहा, उसकी इस वि�भाग में पूर्तितं की गई है।

[संपादि*त करें ] परिरभाषा24 �ें प्रश्न के आरस्मि�क खण्डों में ऐसे वि�षय आए हैं, जिजन्हें परिरभाषा कहा जा सकता है।

[संपादि*त करें ] प्रायभिxर्त्ता सूत्र27 �ें से 29 �ें तक के तीन प्रश्न प्रायभिxर्त्ता सूत्र हैं। इनमें अग्निग्नहोत्र से 'ेकर सत्र तक सभी वि�धिधयों के सम्बन्ध में प्रायभिxर्त्ता संगृहीत हैं। नधैिमभिर्त्ताकी वि�धिध भी इसी में समावि�v है।

[संपादि*त करें ] शुल्बसूत्र30 �ाँ प्रश्न शुल्बसूत्र है और उसके पxात प्र�रसूत्र है, जिजसकी प्रश्न संख्या नहीं *ी गई है।

[संपादि*त करें ] शाखागत क्रमतैभिर्त्तारीय शाखा, जिजससे बौधायन श्रौतसूत्र का सम्बन्ध है, सूत्र रचना से पू�7 सुप्रवितधिष्ठत र्थी। सूत्रकार न ेमन्त्रों को शाखागत क्रम से उद्धतृ विकया है। ब्राह्मण �ाक्यों को उद्धतृ करते समय �ह 'अर्थ �ै यजवित' शब्* *ेते हैं, विकन्तु तैभिर्त्तारीय ब्राह्मण के विद्वतीय काण्ड के सप्तम प्रपाठक (अल्लिच्छद्र काण्ड) का कोई अंश बौधायन सूत्र में उद्धतृ नहीं विकया गया है। काण्डानुक्रम के अनुसार चतुर्थ7 �ैश्व*े� काण्ड में 'अल्लिच्छद्राभिण' अन्तभू7त है। तैभिर्त्तारीय ब्राह्मण * में *श7पूण7मासेधिv का हौत्र संगृहीत है, जिजसका वि�विनयोग बौधायन सूत्र में प्र*र्त्ता है। अपनी शाखा से तो बौधायन एकविनष्ठ है ही, सार्थ ही काठक शाखा का भी कुछ प्रभा� उनकी रचना पर प्रतीत होता है। इस शाखा के कुछ मन्त्रों का वि�विनयोग बौधायन न ेदि*या है। बौधायन सूत्र ताण्ड्यमहाब्राह्मण, षडनि�ंश ब्राह्मण , पैङ्ग'ायविन ब्राह्मण, छाग'ेय ब्राह्मण तर्था ऋग्�े* प्रभृवित के भी सन्*भ7 धिम'ते हैं।[4] अनेक सामों का भी विन*�श है।

[संपादि*त करें ] �ैवि�ध्यबौधायन कल्पसूत्र में शुल्ब सूत्र के अंत तक 32 प्रश्न परिरगभिणत हैं, विकन्तु मुदिद्रत सूत्र में उनकी संख्या 30 है। बौधायन श्रौतसूत्र के हस्त'ेखों में पाठक्रम के �ैवि�ध्य का अनुभ� होता है। विकसी हस्त'ेख में प्रश्न अग्निग्नvोम से पू�7 और विकसी में पxात्। सौत्रामणी याग *ो प्रकार का है– चरक और कौविक'ी। वि�द्यमान सूत्र में कौविक'ी है ही नहीं। बौधायन श्रौतसूत्र के भा6यकार भ�स्�ामी न ेलि'खा है विक बौधायन श्रौतसूत्र का कौविक'ी

सौत्रामणीपरक अंश नv हो गया है। उसके पू�7 अस्मिस्तत्� के प्रमाण सूत्र में भी हैं। बौधायन श्रौतसूत्र की भाषा–शै'ी भाषा के सदृश है। बौधायन श्रौतसूत्र के सम्पा*क डॉ. का'ान्* न ेइसका वि�स्तृत अध्ययन प्रस्तुत विकया है।

[संपादि*त करें ] भ�स्�ामी का भा6यबौधायन श्रौतसूत्र के 1 से 26 प्रश्नों पर भ�स्�ामी का भा6य है। यह भाग संभिbप्त है और उसके हस्त'ेख अत्यन्त *ोषपूण7 हैं। अब तक यह अप्रकालिशत है। विन:सं*ेह इसका प्रकाशन बौधायन श्रौतसूत्र के अध्ययन में अती� 'ाभ*ायक होगा। सायणाचाय7 का भी इस सूत्र के प्रर्थम प्रश्न पर भा6य उप'ब्ध है। यह प्रकालिशत भी हुआ है। *शम प्रश्न (अग्निग्नचयनपरक) पर �ासु*े� *ीभिbतकृत 'महाग्निग्नस�7स्�' संज्ञक भा6य है, जो उपा*ेय है। 17 �ें प्रश्नगत एका*लिशनी पर भी एक भा6य है। कमा7न्तसूत्र पर �ेंकटेश्वर का भा6य उप'ब्ध है। 27 �ें से 29 �ें तक के प्रश्नों पर भी भा6य धिम'ता है। शुल्बसूत्र पर द्वारकानार्थ यज्�न ्का भा6य मुदिद्रत ही है। तंजाऊर के महा*े� �ाजपेयी न ेप्रर्थम आठ प्रश्नों पर 'सुबोधिधनी' नाम्नी वि�स्तृत टीका रची है जो अभी तक अप्रकालिशत है। केश� स्�ामी न ेबौधायन श्रौतसूत्रानुसार अनेक यागों के प्रयोग लि'खे हैं जो हस्त'ेखों के रूप में सुरभिbत हैं। ये यागानुष्ठान कराने �ा'े ऋन्तित्�जों के लि'ए बहुत ही उपयोगी हैं। यों भी केश� स्�ामी के �य में स�7शाखीय �ैदि*कों में अत्यन्त आ*रभा� रहा है। 17 �ीं शताब्*ी के अनन्त*े� न ेभी अनेक श्रौतप्रयोग और बौधायन शाखापरक ग्रन्थ लि'खे हैं। अनन्त*े� के आश्रय*ाता रे्थ विहमाच' प्र*ेश के राजा बाजबहादुर। महाराष्ट्रीय शेषकु' के ब्राह्मणों न ेभी जो 16 �ीं शती में �ाराणसी च'े गए रे्थ, अनेक श्रौतयागों के प्रयोग लि'खे।

[संपादि*त करें ] बौधायन श्रौतसूत्र की रचनाबुह्लर न ेधम7सूत्रों के अपने अंग्रेज़ी अन�ुा* की प्रस्ता�ना में कहा है विक तैभिर्त्तारीय शाखा का सूत्रपात *भिbण भारत में हुआ और �हीं सम्प्रवित उसके अनुयायी रहते हैं। अब यह बात नहीं मानी जाती। जब कृ6णयजु��* की अन्य शाखाओं का उद्भ� उर्त्तार भारत में हुआ तो यही मानना युलिक्तयुक्त है विक तैभिर्त्तारीय शाखा भी �हीं पनपी। इस शाखा के प्राचीनतम सूत्र बौधायन श्रौतसूत्र की रचना भी उर्त्तार भारत में हुई। व्याकरण–महाभा6यकार पतञ्जलि' के अनुसार (ई. पू. 150) में कठ–का'ाप शाखाओं का अध्ययन गाँ�–गाँ� में प्रचलि'त र्था। बौधायन न ेकाठकचयन काठकशाखा से ही लि'ए हैं। इससे पv होता है विक �ह काठकशाखा के साधिhध्य में रहते रे्थ। बौधायन श्रौतसूत्र में उर्त्तार भारत के अनेक भौगोलि'क विन*�श धिम'ते हैं। *भिbण भारत में भारतीयों का वि�स्तार ई. पू. पाँच�ीं शती में हुआ, तभी बौधायन श्रौतसूत्र के अनुयायी भी *भिbण भारत में जाकर रहे। इसकी पृष्ठभूधिम में ऋग्�े*ीय (आश्व'ायनशाखीय) यजमानों का आग्रह विनविहत र्था, क्योंविक उन्हें आध्�य7� के लि'ए बौधायनशाखीय ऋन्तित्�जों की आ�श्यकता र्थी। सम्प्रवित आन्ध्र और तधिम'नाडु की अपेbा कना7टक और केर' में इस शाखा का वि�शेष प्रचार है। ब्राह्मण ग्रन्थों के सदृश भाषा–शै'ी होने के आधार पर कहा जा सकता है विक बौधायन श्रौतसूत्र की रचना पाभिणविन और बुद्ध के का' (ई. पू. 500) से पह'े हुई। जैधिमविन की पू�7मीमांसा में कल्पसूत्राधिधकरण है। �ह जिजस आधार पर है, उसमें बौधायन का अ�श्य अन्तभा7� होना चाविहए। बौधायन की रचना प्र�चन रूप में है, सूत्राकार रूप में नहीं। इन प्रमाणों के आधार पर यह कहना युलिक्तयुक्त होगा विक बौधायन श्रौतसूत्र की रचना ई. पू�7 650 से पह'े हुई होगी।

[संपादि*त करें ] बौधायन श्रौतसूत्र के संस्करणबौधायन श्रौतसूत्र, सम्पा*क–वि�ल्हेल्म का'ान्*, प्रर्थम संस्करण 1904 से 1923 के मध्य प्रकालिशत। विद्वतीय संस्करण मुंशीराम मनोहर'ा', दि*ल्'ी, भाग–1–2, 1982।

[संपादि*त करें ] टीका दिटप्पणी↑ सायण से पू�7का'ीन भा6यकार भट्टभास्कर न ेभी तैभिर्त्तारीय संविहता–भा6य में स�7प्रर्थम बोधायन को ही प्रणाम विकया है – ‘प्रणम्य लिशरसाऽऽचाया7न् बोधायनपुर: सरान् व्याख्यैषाध्�यु7�े*स्य यर्थाबुजिद्ध वि�धीयते।’ ↑ बौधायन गृह्यसूत्र में उत्सज7न वि�धिध के अ�सर पर *े�ताओं, ऋविषयों और आचाय� के लि'ए आसनों की कल्पना के समय बोधायन को प्र�चनकार कहा गया है – 'काण्�ाय बोधायनाय प्र�चनकाराय।' ↑ तैभिर्त्तारीय शाखा की *ो पाठ–परम्पराए ँहैं, सारस्�त पाठ और आष�य पाठ। संविहता, ब्राह्मण और आरण्यक – इन तीनों पृर्थक ग्रन्थों के द्वारा रूढ़ परम्परा सारस्�त–पाठानुसारिरणी है। आष�य पाठ में संविहता, ब्राह्मण और आरण्यक को एक में धिम'ा दि*या गया है। बौधायन गृह्यसूत्र(3.3) के अनुसार यह पाठ पाँच भागों में वि�भक्त है– प्राजापत्य काण्ड, सौम्य काण्ड, आग्नेय काण्ड, �ैश्व*े� काण्ड और स्�ाय�ु� काण्ड। इनके ऋविष क्रमश: प्रजापवित, सोम, अग्निग्न, वि�श्वे*े�ा: और स्�य�ू हैं। ↑ द्रvव्य, बौधायन सूत्र– 27.4, 2.9, 2.7, 25.5, 26, 13, 27.7।भारद्वाज श्रौतसूत्र / Bhardvaj Shrautsutra

अनुक्रम[छुपा]1 सूची 2 सूत्रग्रन्थ 3 अग्निग्नvोम या ज्योवितvोम 4 मन्त्र और संविहता 5 �े* 6 श्रौतसूत्र तर्था गृह्यसूत्र

7 संस्करण 8 सम्बंधिधत लि'ंक

यह तैभिर्त्तारीय शाखा का दूसरा श्रौतसूत्र है। सत्याषाढ (विहरण्यकेलिशसूत्र) की महा*े�कृत '�ैजयन्ती' टीका के मंग' में तैभिर्त्तारीय शाखा के कल्पाचाय� की �न्*ना की गई है। उसमें बौधायन के बा* भरद्वाज का नाम है। परम्परा से भरद्वाज और भारद्वाज– इन *ोनों शब्*ों के प्रयोग धिम'ते हैं। भारद्वाज शब्* का प्रयोग अधिधक प्राचीन है। स्�यं भारद्वाज गृह्यसूत्र* में आचाय7 भरद्वाज का विन*�श है–'भारद्वाजाय सूत्रकाराय।'

[संपादि*त करें ] सूचीउप'ब्ध श्रौतसूत्र में विनम्नलि'ग्निखत वि�षयों का �ण7न है:–

प्रश्न वि�षय

1–4. *श7पूण7मास

5. अग्न्याधेय

6. अग्निग्नहोत्र, आग्रयण

7. विनरूढपशु

8. चातुमा7स्ययाग

9. पू�7प्रायभिxर्त्ता

10–14. ज्योवितvोम, प्र�ग्य7

15. ज्योवितvोम ब्रह्मत्�

[संपादि*त करें ] सूत्रग्रन्थजैसा विक उपयु7क्त वि��रण से स्पv है, यह सूत्रग्रन्थ प्रश्नों में वि�भक्त है। प्रत्येक प्रश्न में कुछ कल्लिण्डकाए ँहैं और कल्लिण्डकाओं में सूत्र हैं। यह सूत्रग्रन्थ है, प्र�चन नहीं है। सूत्रार� में वि�ध्यंश है और बा* में मन्त्र। बौधायन श्रौतसूत्र की अपेbा इसमें अनेक तैभिर्त्तारीय शाखीय वि�षयों का अभा� होने से अपूण7 प्रतीत होता है। प्रमाणपुरस्सर कहा जा सकता है विक क*ालिचत् पह'े यह सूत्रग्रन्थ पूण7 र्था, जिजसके अप्रकालिशत अंशों के हस्त'ेख परम्परा का 'ोप होने से नv हो गए। सौभाग्य से इसके प्रमाण अन्य सूत्रग्रन्थों में, उनके भा6यों और प्रयोगों में धिम'ते हैं। डॉ. रघु�ीर न ेअपन ेसंस्करण में भारद्वाज श्रौतसूत्र के उन प्रकरणों का संग्रह विकया है, जो उन्हें आपस्तम्ब श्रौतसूत्र के रूद्र*र्त्ताकृत भा6य में और सत्याषाढ सूत्र की महा*े�कृत '�ैजयन्ती' में धिम'े। डॉ. काशीकर न ेभी अपन ेसंस्करणों में इन उद्धरणों का संक'न कर उन्हें प्रकालिशत विकया है। इन प्रकरणों (उद्धरणों) में *ाbायण यज्ञ, इधिvहोत्र, काम्य पशुयाग, सोमयाग, प्रायभिxर्त्ता, पश्वैका*लिशनी, अग्निग्नचयन और अश्वमेध का विनरूपण है। इससे स्पv है विक मू' श्रौतसूत्र में ये वि�षय अन्तभू7त रे्थ। न�म प्रश्न में अग्निग्नहोत्र और इधिv सम्बन्धी प्रायभिxर्त्ता समावि�v हैं। इसी कारण उसे पू�7 प्रायभिxर्त्ता कहा गया है। अन्य वि�षय सम्बन्धी प्रायभिxर्त्ता विनरूपक भारद्वाज सूत्र के उद्धरण धिम'न ेसे अनुमान होता है विक इस सूत्रग्रन्थ में 'उर्त्तारप्रायभिxर्त्ता' संज्ञक एक प्रश्न र्था। भरद्वाज न ेसंविहता, ब्राह्मण और आरण्यक इन तीनों ग्रन्थों के मन्त्रों का वि�विनयोग विकया है। भरद्वाज न ेतीसरे काण्ड के मन्त्रों का वि�विनयोग उलिचत स्थान पर दि*या है। उनके सामन ेसारस्�त पाठ प्रवितधिष्ठत रूप में र्था, इस कारण आ�श्यकता के अनुरूप �ह मन्त्रों का विन*�श 'अन�ुाक' या 'अन�ुाशकशेष' शब्*ों से करते हैं। कभी–कभी 'इवित प्रवितपद्य ... इत्यन्ते' (यहाँ से �हाँ तक) रूप में भी विन*�श है। भारद्वाज सूत्रों में ब्राह्मण ग्रन्थों के उद्धरण भी धिम'ते हैं। इन्हें उद्धतृ करके अन्त में 'इवित वि�ज्ञायते' का उल्'ेख है। इस सम्बन्ध में कभी–कभी 'ब्राह्मण–व्याख्यातम्' या 'यर्था समाम्नातम्' शब्*ों का भी प्रयोग विकया गया है। बौधायन श्रौतसूत्र के वि�परीत भारद्वाज न ेतैभिर्त्तारीय ब्राह्मण * के अल्लिच्छद्र काण्ड में से भी कुछ मन्त्रों का वि�विनयोग विकया है। उप'ब्ध भारद्वाज सूत्र में हौत्र का कोई अंश नहीं है।

[संपादि*त करें ] अग्निग्नvोम या ज्योवितvोमप्र�ग्य7 वि�धिध सोमयाग के अंगरूप में की जाती है। उसका स्थान कहाँ होना चाविहए, इस वि�षय में यजु��*ीय सूत्रों में कोई विनयम नहीं है। बहुधा अग्निग्नvोम या ज्योवितvोम के पxात इसका वि��रण स्�तन्त्र प्रश्न में दि*या गया है। भारद्वाज सूत्र की हस्तलि'ग्निखत प्रवितयों में और प्रकालिशत संस्करण में भी �ह ज्योवितvोम के मध्य में दि*या गया है। इस प्रकार भारद्वाज सूत्र में प्र�ग्य7 वि�धिध स्�तन्त्र प्रश्न में �र्णिणंत है। प्रतीत होता है विक विकसी हस्त'ेख के 'ेखक न ेअपनी सुवि�धा के लि'ए उसे ज्योवितvोम के मध्य में रख दि*या जिजसका अनुसरण अन्य 'ोगों न ेविकया, क्योंविक �स्तुत: प्र�ग्य7 का स्थान ज्योवितvोम के अन्त में होना चाविहए, न विक अनुष्ठान–क्रम को खल्लिण्डत करते हुए मध्य में।

[संपादि*त करें ] मन्त्र और संविहता

भरद्वाज सूत्र अपनी तैभिर्त्तारीय शाखा के सार्थ अन्य शाखाओं से भी मन्त्र 'ेकर उनका वि�विनयोग बत'ाता है। उसने काण्ड और मैत्रायणीय शाखाओं से भी मन्त्र लि'ए हैं। �ाजसनेय संविहता के भी कुछ मन्त्र उसमें धिम'ते हैं। चार ऋचाए ँउसमें शौनकीय अर्थ�7�े* से भी उद्धतृ हैं। इनमें से अधिधकाशं उद्धरण भारद्वाज और आपस्तम्ब सूत्र में समान हैं। हाँ, एक अन्तर अ�श्य है। आपस्तम्ब श्रौतसूत्र में जहाँ ‘�ाजसनेयक’ अर्थ�ा '�ाजसननेधियन'् के विन*�श के सार्थ कुछ मत प्र*र्शिशंत हैं, �हीं भारद्वाज सूत्र में एक बार भी इस प्रकार का विन*�श नहीं धिम'ता। एक बात और ध्यान *ेने की है। कुछ स्थ'ों में भारद्वाज सूत्र जहाँ काठक और मैत्रायणीय संविहता का मन्त्र वि�विनयुक्त करता है, �हीं आपस्तम्ब सूत्र तैभिर्त्तारीय या �ाजसनेय संविहता का आश्रय 'ेता है।

[संपादि*त करें ] �े*�े*ों के कम7काण्ड में जो वि�भिभh परम्पराए ँविनर्मिमंत हुईं, उनके कारण का सन्धान वि�वि�ध ऐवितहालिसक और भौगोलि'क ल्लिस्थवितयों में करना चाविहए। पह'े प्रत्येक �े* के शाक', बा6क' प्रभृवित वि�भिभh चरण हुए, विफर उनके आधार पर वि�भिभh सम्प्र*ाय स्थाविपत हुए, जो शाखाओं के रूप में वि�द्यमान हैं। सामान्यत: यह कहा जा सकता है विक जिजस वि�षय में ब्राह्मणोक्त वि�धिध स्पv नहीं है, �हाँ सूत्रों में परस्पर मतभे* दि*ख'ाई पड़ते हैं। यों ब्राह्मणों में भी भिभh–भिभh अनुष्ठान वि�षयक मत व्यक्त करने �ा'े आचाय� के नाम धिम'ते हैं। ‘क्�लिचत्, एके, अपरे’ प्रभृवित शब्*ों द्वारा इस मत–�ैभिभन्न्य का प्रकाशन हुआ है। भारद्वाज श्रौतसूत्र में आश्मरथ्य और आ'ेखन इन *ो आचाय� के नाम कुछ बार आए हैं जो वि�धिध के सम्बन्ध में वि�भिभh मत व्यक्त करते हैं। भारद्वाज परिरशेष सूत्र और भारद्वाज गृह्यसूत्र में भी इनके वि�भिभh मतों का विन*�श धिम'ता है। भारद्वाज सूत्र के अवितरिरक्त आपस्तम्ब श्रौतसूत्र, सत्याषाढ सूत्र, आश्व'ायन श्रौतसूत्र , बौधायन प्र�रसूत्र, अर्थ�7 प्रायभिxर्त्तााविन तर्था पू�7मीमांसा सूत्र में भी इन *ो आचाय� के वि�भिभh मत उद्धतृ हैं। इनके अध्ययन से यह विन6कष7 विनक'ता है विक प्राय: आश्मरथ्य का मत परम्परा के अनुकू' होता है और आ'ेखन का मत सुवि�धा की प्रधानता के अनुरूप होता है। भारद्वाज परिरशेष सूत्र का विद्वतीय प्रशोजन है विक एक ओर यह भारद्वाज भारद्वाज श्रौतसूत्र का परिरलिशv है तर्था दूसरी ओर परिरभाषाओं का संग्रह है। कु' 222 सूत्रों में से 102 परिरभाषा स्�रूप हैं, तर्था 9 अनुग्रह रू�रूप तर्था शेष परिरलिशv प्रकार के हैं। परिरलिशv सूत्र मू' सूत्रों को 'ेकर प्र�ृर्त्ता होते हैं। परिरशेष सूत्र में आश्मरथ्य और आ'ेखन के सार्था बा*रायण और औडु'ोधिम के नाम आते हैं। कुछ सूत्र ब्राह्मण �ाक्य सदृश हैं। हस्त'ेखों में प्राप्त संकेतों से अनुमान होता है विक परिरभाषा सूत्र कंविडकाओं में वि�भक्त र्था। सूत्रों में से एक वितहाई ऊसे सूत्र हैं, जिजनके वि�षय उप'ब्ध भारद्वाज सूत्र में नहीं हैं। परिरशेष सूत्र का अधिधकार भारद्वाज श्रौतसूत्र के ही समान रहा है। इसका प्रमाण यह है विक तैभिर्त्तारीय शाखा के सूत्रों के टीकाकारों न ेपरिरशेष और श्रौतसूत्र *ोनों के ही सूत्रों का विन*�श भारद्वाज के नाम से ही विकया गया है। परिरशेष सूत्र के वि�षयक्रम के संकीण7 होने से प्रतीत होता है विक यह एक आचाय7 की कृवित नहीं है। इसके प्रणयन में अनेक रचनाकारों न ेयोग*ान विकया होगा।

[संपादि*त करें ] श्रौतसूत्र तर्था गृह्यसूत्रभारद्वाज रलिचत श्रौतसूत्र तर्था गृह्यसूत्र; *ोनों की एक ही शै'ी है। इससे विन6कष7 विनक'ता है विक *ोनों की रचना एक ही व्यलिक्त न ेकी र्थी। भारद्वाज पैतृमेधिधक सूत्र का भी श्रौतसूत्र से साधम7य है। अत: इसे भी उसी रचनाकार की कृवित मानना उपयुक्त है। भारद्वाज श्रौतसूत्र में ब्राह्मण ग्रन्थों की भाषा–शै'ी के बहुत प्रयोग धिम'ते हैं। प्राकृत भाषा के अंश भी इसमें धिम'ते हैं। भारद्वाज श्रौतसूत्र के पयु7क्त परिरचय से इसकी प्राचीनता सुस्पv है। बौधायन और भारद्वाज सूत्रों में कुछ बातें समान हैं तर्था कुछ में भिभhता भी है। भारद्वाज बौधायन के सदृश वि�स्तार से वि�षयों का प्रवितपा*न नहीं करते और न ही मन्त्रों को पूण7 रूप से उद्धतृ करते हैं। जहाँ तक भारद्वाज सूत्र का वि�स्तार है, �हीँ तक बौधायन और भारद्वाज के वि�षयक्रम में भिभhता है। *श7पूण7मासेधिv में ब्रह्मत्� में ज्योवितvोम के पू�7 प्रायभिxर्त्ताों का वि�धान है। बौधायन में सभी प्रायभिxर्त्ता अन्त में एकत्र दि*ए गए हैं। भारद्वाज में प्र�ग्य7प्रश्न को हस्त'ेखों के 'ेखकों न ेज्योवितvोम के मध्य में सष्पिम्मलि'त कर दि*या है। बौधायन की अपेbा आपस्तम्ब श्रौतसूत्र से भारद्वाज की रचना–शै'ी अधिधक धिम'ती है। *ोनों में वि�षयों का क्रम प्राय: समान है। इतना ही नहीं, सूत्रों और शब्*–प्रयोगों में भी बहुधा साम्य है। आपस्तम्ब की अपेbा भारद्वाज की रचना–शै'ी कुछ लिशलिर्थ' है। इन प्रमाणों से यह स्पv है विक भारद्वाज का समय बौधायन के पxात और आपस्तम्ब के पू�7 है। भारद्वाज न ेस��त: ई. पू. 550 के आस–पास अपना श्रौतसूत्र रचा होगा। भारद्वाज सूत्र में मैत्रायणीय संविहता से मन्त्र उद्धतृ विकए गए हैं। इस संविहता का भौगोलि'क bेत्र कुरूपाञ्चा' प्र*ेश में र्था। भारद्वाज गृह्यसेत्र में यमुना न*ी का विन*�श धिम'ता है। इससे स्पv है विक भारद्वाज का स्थान कुरु-पांचा' में यमुना न*ी के प्र*ेश में र्था। इस शाखा के अनुयायी आन्ध्र प्र*ेश और तधिम'नाडु में रे्थ। इस शाखा के हस्त'ेख भी इन्हीं प्र*ेशों में धिम'े हैं। प्रतीत होता है विक इस शाखा के इन–ेगुने अनुयायी ही शेष हैं।

[संपादि*त करें ] संस्करणभारद्वाज श्रौतसूत्र के प्रर्थम 11 प्रश्न समग्र रूप से और 12 �ें प्रश्न का कुछ अंश स�7प्रर्थम डॉ. रघु�ीर न े‘जन7' ऑफ �ैदि*क स्टडीज़’ भाग 1–2, में 'ाहौर से सन ्1934 में प्रकालिशत विकया गया र्था। सन् 1964 में डॉ. लिचं. ग. काशीकर के द्वारा अनेक हस्त'ेखों के आधार पर पुन: सम्पादि*त तर्था अंग्रेज़ी में अनदूि*त रूप में विपतृमेध और परिरशेष सूत्र सविहत �ैदि*क संशोधन मण्ड', पुणे से *ो भागों में प्रकालिशत इस संस्करण का उपोद्घात अत्यन्त शोधपूण7 सामग्री से सं�लि'त है।आपस्तम्ब श्रौतसूत्र / Apstamb Shrautsutra

अनुक्रम[छुपा]1 भारद्वाज की आपस्तम्ब सूत्र से तु'ना 2 भाषा – शै'ी

3 रचना – का' 4 आपस्तम्ब श्रौतसूत्र के संस्करण 5 टीका दिटप्पणी 6 सम्बंधिधत लि'ंक

तैभिर्त्तारीय शाखा का यह तृतीय श्रौतसूत्र है। �ास्त� में आचाय7 आपस्तम्ब न ेसम्पूण7 कल्पसूत्र की रचना की है। इसकी वि�षय–�स्तु विनम्नलि'ग्निखत प्रकार से है:–

प्रश्न वि�षय

1–4. *श7पूण7मास

5. अग्न्याधेय

6. अग्निग्नहोत्र

7. विनरूढ पशुबन्ध

8. चातुमा7स्ययाग

9. प्रायभिxर्त्ता

10–13. अग्निग्नvोम

14. ज्योवितvोमान्तग7त अन्य क्रतु

15. प्र�ग्य7

16–17. अग्निग्नचयन

18. �ाजपेय और राजसूय

19. सौत्रामणी, काठकचयन, काम्यपशु, काम्येधिv।

20. अश्वमेध, पुरुषमेध तर्था स�7मेध।

21. द्वा*शाह, ग�ामयन तर्था उत्सर्तिगंणामयन।

22. एकाह और अहीन याग

23. सत्रयाग

24. परिरभाषा, प्र�र, हौत्रक।

25–26. गृह्यसूत्रगत मन्त्रपाठ

27. गृह्यसेत्र

28–29. धम7सूत्र

30. शुल्बसूत्र।

इस प्रकार श्रौतसूत्र की व्यान्तिप्त 24 �ें प्रश्न तक मानी जानी चाविहए।

[संपादि*त करें ] भारद्वाज की आपस्तम्ब सूत्र से तु'ना

उप'ब्ध भारद्वाज श्रौतसूत्र की आपस्तम्ब सूत्र से तु'ना करने पर स्पv होता है विक *ोनों के वि�षय–क्रम में बहुत साम्य है। भारद्वाज के षष्ठ प्रश्न में पह'े अग्न्युपस्थान और तत्पxात अग्नहोत्र वि�धिध है। आपस्तम्ब में इसके वि�परीत पह'े अग्निग्नहोत्र वि�धिध और त*न्तर अग्न्यु�स्थान है। आपस्तम्ब के प्रायभिxर्त्ता प्रश्न में अग्निग्नहोत्र, इधिv और पशु इनसे सम्बद्ध प्रायभिxर्त्ता हैं। भारद्वाज में पशु सम्बन्धी प्रायभिxर्त्ता नहीं हैं। भारद्वाज न ेपूरे ज्योवितvोम की वि�धिध संहत या संकलि'त रूप में *ी है। आपस्तम्ब न ेअग्निग्नvोम की वि�धिध *ेकर तत्पxात उक्थ्य आदि* वि�कृवित यागों की वि�शेषताए ँबताईं हैं। आपस्तम्ब में प्र�ग्य7 वि�धिध स्�तन्त्र प्रश्न के अन्तग7त ज्योवितvोम के अनन्तर *ी गई है। भारद्वाज में भी प्र�ग्य7 के लि'ए स्�तन्त्र प्रश्न है, विकन्तु �ह ज्योवितvोम के अन्तग7त है। भारद्वाज न ेसूत्र में पह'े वि�ध्यंश और तत्पाxात मन्त्र दि*या है। आपस्तम्ब का क्रम इसके वि�परीत है। भारद्वाज के ही सदृश आपस्तम्ब न ेभी अपनी वि�धिध के समर्थ7न में तैभिर्त्तारीय ब्राह्मण, और कभी–कभी अन्य शाखीय ब्राह्मणों के भी उद्धरण दि*ए हैं। भिभh मतों के भी उद्धरण हैं। ऐसे उद्धरणों के सार्थ ‘वि�ज्ञायते’ शब्* का प्रयोग प्रचुर परिरमाण में है। 'इत्युक्तम्', 'श्रूयते', 'एके', 'अपरम्' सदृश शब्* भी आते हैं। आपस्तम्ब न ेकुछ 'काठका:', 'कौषीतविकन:', 'छन्*ोगब्राह्मणम्', 'ताण्डकम्' प्रभृवित �ाक्य उप'ब्ध ब्राह्मणों से दि*ए हैं, तो कुछ ब्राह्मण �ाक्य सम्प्रवित उप'ब्ध ब्राह्मणों में नहीं धिम'ते। कङ्कवित, का'बवि�, पैङ्गायविन प्रभृवित ब्राह्मण ग्रन्थ ऐसे ही हैं, जो आज अनुप'ब्ध हैं।

[संपादि*त करें ] भाषा–शै'ीभारद्वाज और आपस्तम्ब की भाषा–शै'ी में बहुत साम्य है। वि�षयों की समान्तरता के सार्थ ही सूत्र–रचना में भी समानता है। जब कहीं सामान्य विनयम की बात होती है, तो सूत्रकार 'तत्रैषोऽत्यन्तप्र*ेश:' कहते हैं। आपस्तम्ब सूत्र–रचना के समय सूत्रकार के सम्मुख तैभिर्त्तारीय शाखा का सारस्�त पाठ प्रवितधिष्ठत रूप में र्था। 'आपस्तम्ब हौत्रप्रश्न' नामक एक प्रकरण सत्याषाढ–विहरण्यकेलिश सूत्र के 21 �ें प्रश्न के पू�7 (आनन्*ाश्रम, पुणे) संस्कृत टीका के सार्थ छापा गया है। यह आपस्तम्ब सूत्र का परिरलिशv प्रतीत होता है। आपस्तम्ब तैभिर्त्तारीय संविहता के मन्त्र प्रतीक रूप में 'ेते हैं, जबविक तैभिर्त्तारीय ब्राह्मण के मन्त्रों का सक' पाठ *ेते हैं। आपस्तम्ब न ेमैत्रायणी अर्था7त मान� श्रौतसूत्र से कुछ आ*ान विकया है, यद्यविप उसमें इस शाखा का साbात् विन*�श नहीं है। आपस्तम्ब सूत्र–रचना में तैभिर्त्तारीय शाखा की परम्परा सबसे अच्छी तरह प्र*र्शिशंत करते हैं। इसी के सार्थ का'गवित से �ैदि*क कम7काण्ड में जो परिर�त7न हुए और समीप �र्तितंनी शाखाओं से जो आ*ान–प्र*ान हुए, उनका अच्छा प्रवितविबम्ब आपस्तम्ब सूत्र में सु'भ है। तैभिर्त्तारीय ब्राह्मण की भाषा–शै'ी का प्रभा� सूत्र की भाषा–शै'ी पर पड़ना स्�ाभावि�क ही र्था। परिरणामत: �ैदि*क भाषा के अनेक शब्*ों का प्रयोग आपस्तम्ब सूत्र में धिम'ता है। सूत्रकार के का' में व्य�हृत प्राकृत भाषा का भी उस पर प्रभा� है। आपस्तम्ब सूत्र में अनेक प्राकृत शब्* इस कारण धिम' जाते हैं; सत्याषाढ सूत्र से भी वि�षय–क्रम, कम7काण्ड और रचना की दृधिv से आपस्तम्ब की बहुत समानता है। अनेक स्थ'ों पर सत्याषाढ का स्�रूप आपस्तम्ब के समान है। आपस्तम्ब श्रौतसूत्र के सम्पा*क डॉ. गाब� न ेअपनी प्रस्ता�ना* में लि'खा है विक आपस्तम्ब सूत्र में समय समय पर बीच–बीच में सूत्र जोडे़ गए हैं। डॉ. गाब� का यह मत स्�ीकाय7 नहीं है। मैंने इसका खण्डन विकया है।[1]

[संपादि*त करें ] रचना–का'आपस्तम्ब श्रौतसूत्र पर धूत7स्�ामी का अधूरा भा6य प्रकालिशत हुआ है। इस पर कौलिशक रामाग्निग्नलिचत् की �ृभिर्त्ता है। प्रश्न 1–15 पर रूद्र*र्त्ता का भा6य भी मुदिद्रत है। रूद्र*र्त्ता न ेकुछ स्थ'ों पर धूत7स्�ामी से अपना मतभे* व्यक्त विकया है। 14 �ीं शताब्*ी के चौण्डपाचाय7 न ेआपस्तम्ब श्रौतसूत्र के कुछ प्रश्नों पर टीका लि'खी है, जो अभी तक अप्रकालिशत है। श्रौतयागों पर आपस्तम्बानुसारी प्रयोग भी रचे गए रे्थ, जिजनका उपयोग ऋन्तित्�ग्गण कमा7नुष्ठान में करते हैं। ऐसा ही एक *श7पूण7मासेधिv प्रयोग आनन्*ाश्रम (पुणे) से प्रकालिशत हुआ है। रचना–का' की दृधिv से आपस्तम्ब सूत्र का प्रणयन ई. पू�7 5 �ीं शती में माना जा सकता है क्योंविक �ह भारद्वाज श्रौतसूत्र (ई. पू�7 550) से पर�त= है। आपस्तम्ब सूत्र में मैत्रायणी के सार्थ �ाजसनेय शाखा के सम्बन्ध वि�षयक प्रमाण धिम'ते हैं। �ाजसनेय शाखा का प्रचार पू�= उर्त्तार प्र*ेश तर्था विबहार में रहा है। इससे लिसद्ध होता है विक भारद्वाज सूत्र की प्रचार भूधिम की पू�7 दि*शा में आपस्तम्ब का प्रचार र्था। का'ान्तर से सामाजिजक–राजनीवितक परिरल्लिस्थवितयों�श कृ6ण यजु��*ीय तैभिर्त्तारीय शाखा के अनुयायी *भिbण के आन्ध्र, कना7टक और तधिम'नाडु में च'े गए। आज भी ये ही प्र*ेश उनके विन�ास–स्थान हैं।

[संपादि*त करें ] आपस्तम्ब श्रौतसूत्र के संस्करणआपस्तम्ब श्रौतसूत्र, सं. रिरचड7 गाब�, विद्वतीय संस्करण, खण्ड 1–3। मुंशीराम मनोहर'ा', दि*ल्'ी से 14983 में प्रकालिशत। वि�ल्हेल्म का'न्* का जम7न में अन�ुा* ‘‘श्रौतसूत्र डेस आपस्तम्ब’’ (तीन खण्ड) गादिटन्जन् तर्था एम्सटड7म से क्रमश: 1821, 1824 तर्था 1828 ई. में प्रकालिशत। आपस्तम्ब श्रौतसूत्र (धूत7स्�ाधिमभा6य और रामाग्निग्नलिचत् की �ृभिर्त्ता सविहत), 1–10 प्रश्नान्त भाग, ग. ओरिर. 'ाइब्रेरी मैसूर से प्रकालिशत। धूत7स्�ाधिमभा6य के सार्थ गायक�ाड़ सीरीज़ में बड़ौ*ा से *ो भागों में प्रकालिशत, सं. लिचhस्�ाधिमशास्त्री। �ाधू' श्रौतसूत्र / Vadhul Shrautsutraअनुक्रम[छुपा]1 �ाधू' शाखा 2 रलिचयता 3 वि�भाग ए�ं चयनक्रम 4 �ण्य7 वि�षय 4.1 प्रपाठक – 1

4.2 प्रपाठक – 2 4.3 प्रपाठक – 3 4.4 प्रपाठक – 4 4.5 प्रपाठक – 5 4.6 प्रपाठक – 6 4.7 प्रपाठक – 7 4.8 प्रपाठक – 8 4.9 प्रपाठक – 9 4.10 प्रपाठक – 10 4.11 प्रपाठक – 11 4.12 प्रपाठक – 12 4.13 प्रपाठक – 13 4.14 प्रपाठक – 14 4.15 प्रपाठक – 15 5 शै'ीगत �ैलिशष्ट्य 6 भाषागत �ैलिशष्ट्य 7 कृ6णयजु��*ीय में �ाधू' का स्थान 8 *ेश और का' 9 संस्करण 10 टीका दिटप्पणी 11 सम्बंधिधत लि'ंक

�ाधू' श्रौतसूत्र कृ6ण यजु��* की �ाधू' शाखा से सम्बष्पिन्धत है। [संपादि*त करें ] �ाधू' शाखामहा*े� न ेसत्याषाढ श्रौतसूत्र के अपन ेभा6य (�ैजयन्ती) के प्रार� (भूधिमका, श्लोक 7–9) में �ाधू' को तैभिर्त्तारीय की एक उपशाखा के रूप में उद्धतृ विकया गया है। विकन्तु इस बात के अनेक प्रमाण धिम'ते हैं विक �ाधू' तैभिर्त्तारीय शाखा से सम्बद्ध न होकर उससे अ'ग एक स्�तन्त्र शाखा र्थी। इस वि�षय में कवितपय प्रमाण अधोलि'ग्निखत हैं:– �ाधू' श्रौतसूत्र में अनेक ऐसे मन्त्र हैं जो तैभिर्त्तारीय संविहता या तैभिर्त्तारीय ब्राह्मण में नहीं धिम'ते। �ाधू' श्रौतसूत्र में कुछ मन्त्र तैभिर्त्तारीय संविहता के मन्त्र के सार्थ पया7प्त अन्तर रखते हैं, जैसे– *े�ो �: सवि�ता पे्ररयतु*, *े�ो �: सवि�ता प्राप7यतु*, �सुभ्यस्त्�ाऽनल्लिज्म*, �सुभ्यस्त्�ा*, वि�श्वधाया अस्युतरेणधाम्ना*, वि�xधाया अलिस परमेण धाम्ना*, रbायैत्�ानारात्यै*, स्फात्यै त्�ा नारात्यै* इत्यादि*। �ाधू' श्रौतसूत्र में मन्त्रों का वि�विनयोग तैभिर्त्तारीयों से कई स्थ'ों पर भिभh है, यर्था– �ाधू' श्रौतसूत्र* में ज'ते अंगारे को हटाते समय 'पृलिर्थव्यै मूधा7न ंमा विनधा7bी:' मन्त्र वि�विनयुक्त है, जबविक तैभिर्त्तारीय शाखानुयायी इस क्रम में 'विन*7ग्धं रbो विन*7ग्धा अरात्म:'* मन्त्र का प्रयोग करते हैं। तैभिर्त्तारीय परम्परा में 'प्राणाय त्�ा अपानाय त्�ा, व्यानाय त्�ा*' इन तीन मन्त्रों का वि�विनयोग हवि�द्र7व्य के पसीन ेमें विकया जाता है, जबविक �ाधू' श्रौतसूत्र में यह कम7 चार मन्त्रों– प्राणाय त्�ा, व्यानाय त्�ा, अपानाय त्�ा उ*ानाय त्�ा* से विकया जाता है। तैभिर्त्तारीय परम्परा में *ीघा7मनु प्रलिसवित मायुषे धाम्* इस एक मन्त्र का हवि�द्र7व्य को पीसने के बा* *ोनों हार्थों को *ेखने में वि�विनयोग होता है, जबविक �ाधू' श्रौतसूत्र में *ीघा7मनु प्रलिसनितं संस�ेर्थाम्* मन्त्र का वि�विनयोग चा�' कणों को पीसने में तर्था आयुषे धाम्* का *ोनों हार्थों को *ेखने में वि�विनयोग होता है। तैभिर्त्तारीय परम्परा में *े�ो �: सवि�ता विहरण्यपाभिण: प्रवितगृह्णातु* का वि�विनयोग विपसे चा�' के आटे को एकवित्रत करने में विकया जाता है, जबविक �ाधू' में *े�ो �: सवि�ता विहरण्यपाभिण: प्रवितगृह्णात्�*बे्धन �xbुषाऽ�ेbेसुप्रजास्त्�ाय* का वि�विनयोग विबना पीसे अ�लिशv चा�' कणों को *ेखने में होता है। अग्न्युपस्थान के प्रकरण में �ाधू' श्रौतसूत्र महाचमसोपस्थान*, महासम्प*ोपस्थान*, �स्योपस्थान*, स�7*ोपस्थान* आदि* का वि�धान करता है जो तैभिर्त्तारीय परम्परा में कहीं नहीं धिम'ते। अग्निग्नचयन के प्रकरण में �ाधू' श्रौतसूत्र कुछ इधिvकाओं के चयन का वि�धान करता है जो तैभिर्त्तारीय परम्परा में नहीं धिम'ता। उ*ाहरण के लि'ए योविनसंज्ञक इvकाओं का उल्'ेख करता है।* इन प्रमाणों से यह बात पुv होती है विक �ाधू' शाखा की स्�तन्त्र सर्त्ताा र्थी और स��त: इसकी अपनी संविहता भी र्थी जो अभी उप'ब्ध नहीं है। [संपादि*त करें ] रलिचयता�ाधू' श्रौतसूत्र के रलिचयता �ाधू' नाम के कोई आचाय7 हैं अर्थ�ा �ाधू' गोत्र से सम्बद्ध कोई अन्य आचाय7 यह वि�चारणीय हैं। का'ान्* न े�ाधू' को एक गोत्र�ाचक नाम माना।* बौधायन प्र�रसूत्र में �ाधू' का उल्'ेख यस्क–भृगु के अन्तग7त एक गोत्र के रूप में हुआ है।[1] पाभिणविन भी कात7कौजपादि*गण में �ाधू' का उल्'ेख करते हैं।* पर�त= परम्परा में भी �ाधू' एक गोत्र नाम के रूप में प्रचलि'त रहा। श्रीम*ानन्ताचाय7 न ेअपने 'प्रपhामृतम्' नामक ग्रन्थ की भूधिमका में स्�. गुरु श्री विन�ासाचाय7 के प्रवित श्रद्धा व्यक्त करते हुए उनके �ाधू'गोत्री होने का उल्'ेख विकया है।[2] गाग्य7 गोपा' यज्�ा न ेभी अपन े'शुल्ब रहस्य प्रकाशन भा6य' में अपने गुरु पं. रंगराज के �ाधू'गोत्री होने का उल्'ेख विकया है।[3] आज भी �ाधू'गोत्री ब्राह्मण *भिbण में धिम'ते हैं। प्रो. वि�त्स' का मत है विक मू'त: केर' में पाँच �ाधू'गोत्री परिर�ार रे्थ, जो 60 ए'म में फै'े रे्थ।[4] स्टा'

की गणना के अनुसार केर' के तैभिर्त्तारीय नम्बूदि*री ब्राह्मणों में 10 प्रवितशत �ाधू'गोत्री हैं जो आज अपनी मौग्निखक परम्परा खो चुके हैं।[5] यदि* �ाधू' गोत्र�ाची नाम है तो प्रश्न यह खड़ा होता है विक �ाधू'ों में कौन श्रौतसूत्र का रलिचयता है। �ाधू' अन्�ाख्यान ब्राह्मण* में एक पाठ धिम'ता है, जिजसमें �ाधू'ों की लिश6य परम्परा का उल्'ेख है– 'एतद्ध सौबभ्रू�ो �ाधू'ाय प्रोच्यो�ाच पृन्�ै �यं यास्कायाग्न्याधेयम �ोचामेवित'। इस पाठ के आधार पर का'न्* न ेयह मत व्यक्त विकया विक सौबभ्रु� नामक आचाय7 मू' सूत्रग्रन्थ के रलिचयता रे्थ। उन्होंने �ाधू' को इसका उप*ेश विकया।* एक दूसरी युलिक्त के आधार पर का'न्* न ेयह भी मत* व्यक्त विकया विक �ाधू' का मत एक प्रवितधिष्ठत आचाय7 के रूप में आ*रपू�7क अन्�ाख्यान ब्राह्मण में उद्धतृ विकया गया है, इसलि'ए �े इस सूत्र के रलिचयता नहीं हो सकते। स��त: �ाधू' के विकसी लिश6य न ेइस सूत्रग्रन्थ का संक'न विकया हो। इस संभा�ना से यह भी अनुमान विकया जा सकता है विक �ाधू' कोई चरण र्था, जिजसके अन्तग7त कई उपशाखाए ँरहीं हों। आय7*ास न े'कल्पागमसंग्रह' नामक अपनी �ाधू' श्रौतसूत्र की व्याख्या में चार �ाधू'ों का उल्'ेख विकया है– 'कस्य पुनस्ते वि�ध्य�शेषा: चतुणा² �ाधू'ानाधिमवित। के ते चत्�ारो �ाधू'ा:[6] कौल्लिण्डमग्निग्न�ेश्यशार�ानां कल्पा:। तर्थाविह ...शुल्ब उक्त �ाधू'का: स�ाधू'ाxत्�ारो वि�विहता क्रमादि*वित।' इस उपयु7क्त एद्धरण में �ाधू' के चार वि�भागों का उल्'ेख तो विकया गया है, विकन्तु परिरगणना में के�' तीन– कौल्लिण्डन्य, आग्निग्न�ेश्य तर्था गार� (गा'�) का ही उल्'ेख है। डॉ. रवि� �मा7 न े'कल्पागमसंग्रह' के उपयु7क्त उद्धरण का एक पाठ दि*या है जो इस प्रकार है–..... चतुणा² �ाधू'ानाधिमवित। के ते चत्�ारो �ाधू'ा:कौल्लिण्डन्याग्निग्न�ेश्यगार (') �शाङ्खानां कल्पा:[7]। इस उद्धरण में चार �ाधू'ों में कौल्लिण्डन्य, आग्निग्न�ेश्य, गा'� तर्था शांख का उल्'ेख है। प्रा. त्सुजी:[8] तर्था वि�त्स'* इन चारों को �ाधू' का लिश6य मानते हैं। अब प्रश्न यह है विक यदि* �ाधू'ाचाय7 इस सूत्रग्रन्थ के रलिचयता नहीं, तो इन चारों में से कोई रलिचयता होना चाविहए। विकन्तु इस बात का हमें कोई प्रमाण नहीं धिम'ता विक इन चारों में से कोई इस सूत्रग्रन्थ का रलिचयता है। भारतीय सूत्रकारों ए�ं भा6यकारों की परम्परा जब �ाधू' को ही श्रौतसूत्र का रलिचयता मानती है, तब उस पर अवि�श्वास करने का कोई कारण नहीं है। बौधायन, कात्यायन, आपस्तम्ब आदि* आचाय7 अपन ेग्रन्थों में उद्धतृ हैं, विकन्तु उन ग्रन्थों का रलिचयता माना जाता है। इसी प्रकार यदि* �ाधू' अन्�ाख्यान ब्राह्मण में �ाधू' का नाम आ*र के सार्थ उद्धतृ है तो इसमें कोई आपभिर्त्ता नहीं विक �े श्रौतसूत्र के रलिचयता हैं। सार्थ ही �ाधू' श्रौतसूत्र जिजस रूप में हमें उप'ब्ध है उसमें कहीं भी �ाधू' का नाम विकसी प्रसंग में उद्धतृ नहीं है। इसलि'ए यही मानना समुलिचत है विक �ाधू'ाचाय7 ही �ाधू' श्रौतसूत्र के रलिचयता हैं। [संपादि*त करें ] वि�भाग ए�ं चयनक्रम�ाधू' श्रौतसूत्र में प्रपाठक, अन�ुाक, खण्ड या पट'–वि�भाग में धिम'ता है। हस्त'ेखों में *ो स्थानों पर प्रश्न–वि�भाग का भी उल्'ेख धिम'ता है।[9] विकन्तु इसके वि�षय में पूण7 सामग्री न धिम'न ेके कारण विनभिxत रूप से नहीं कहा जा सकता। प्रपाठक वि�भाग के अनुसार इसमें 15 प्रपाठक हैं। प्रत्येक प्रपाठक में अनेक अन�ुाक तर्था अन�ुा*ों के अनेक अन�ुाक तर्था अन�ुाकों के अन्तग7त पट' हैं। प्रर्थम प्रपाठक में 6 अन�ुाक तर्था 23 पट', विद्वतीय में 3 अन�ुाक तर्था 12 पट', तृतीय में 6 अन�ुाक तर्था 16 पट', चतुर्थ7 में 5 अन�ुाक तर्था 18 पट', पंचम में 3 अन�ुाक तर्था 10 पट', षष्ठ में 8 अन�ुाक तर्था 28 पट', सप्तम में 7 अन�ुाक तर्था 23 पट', अvम में 15 अन�ुाक तर्था 51 पट', न�म में 3 अन�ुाक तर्था 9 पट', *शम में 5 अन�ुाक तर्था 15 पट', एका*श में 9 अन�ुाक तर्था 27 पट', द्वा*श में 2 अन�ुाक तर्था 5 पट', त्रयो*श में 4 अन�ुाक तर्था 13 पट', चतु*7श में 1 अन�ुाक तर्था 5 पट', पंच*श में (अन�ुाक नहीं) 27 पट' हैं। इस प्रकार कु' 15 प्रपाठकों में 67 अन�ुाक तर्था 270 पट' हैं। प्रो. वि�त्से' का मत है विक �ाधू' श्रौतसूत्र में अनुप*, शुल्बसूत्र, विपतृमेध सूत्र, परिरभाषा सूत्र तर्था मन्त्र पाठ से सम्बष्पिन्धत पांच और प्रपाठक होंगे।* विकन्तु ये उप'ब्ध नहीं हैं। प्रपाठकों का वि�भाग वि��ेच्य वि�षय के आधार पर है। प्राय: प्रत्येक प्रमुख इv या याग का वि��ेचन एक–एक प्रपाठक के अन्*र विकया गया है। के�' अग्निग्नvोम का वि��ेचन *ो प्रपाठकों (7–8) में विकया गया है। प्राय: प्रत्येक प्रपाठक के अंत में सूत्र की पुनरा�ृभिर्त्ता प्रपाठक–समान्तिप्तद्योतन के लि'ए की गई है। यर्था–सन्तिन्तषे्ठते *श7पूण7मासौ सन्तिन्तषे्ठते *श7पूण7मासौ* 6 सन्तिन्तषे्ठते पशुबन्ध: सन्तिन्तषे्ठते पशुबन्ध:* इत्यादि*। प्रर्थम प्रपाठक से 'ेकर एका*श प्रपाठक तक प्रपाठकों के स्�रूप तर्था आकार के वि�षय में कोई मतभे* नहीं है, विकन्तु आगे के प्रपाठक के वि�षय में मतभे* है। प्रपाठकों का नाम भी उस प्रपाठक में �र्णिणंत मुख्य भाग के नाम पर पुष्पि6पकाओं में धिम'ता है, यर्था– 'इत्यग्न्याधेयाख्य प्रपाठक:, पशुबन्धाख्य प्रपाठक:' इत्यादि*। कल्पागम संग्रह में प्रपाठक के अन्तग7त अन�ुा*ों की संख्या *ी गई है, विकन्तु अन�ुाकों के अन्तग7त पट'ों की संख्या तर्था पट'ान्तग7त सूत्रों की संख्या नहीं *ी गई है। हमने अपन ेसंस्करण में पट'ों तर्था सूत्रों की संख्या भी *ी गई है। अन�ुाक–परिर�त7न के सार्थ पट' संख्या पुन: एक से प्रार� न होकर प्रपाठक पय7न्त क्रमश: च'ती है। इस प्रकार सन्*भ7–विन*�श के लि'ए प्रपाठक–पट' सूत्र इन्हीं तीन इकाइयों को प्रधानता *ी गई है। [संपादि*त करें ] �ण्य7 वि�षय�ाधू' श्रौतसूत्र के 15 प्रपाठकों में वि��ेलिचत वि�षय इस प्रकार हैं– [संपादि*त करें ] प्रपाठक–1अग्न्याधेय, अग्न्युपस्थान, आग्नेयीधिv, ऐन्द्राग्नेयीधिv, द्वा*शाह व्रत, स�7*ोपस्थान, उप�सर्थहोम, पुनराधेय, अग्निग्नहोत्र, अग्न्युपस्थान तर्था प्र�सदुपस्थान। [संपादि*त करें ] प्रपाठक–2*श7पूण7मासेधिv–�त्सापाकरण, बर्तिहंराहरण, विपतृयज्ञ, सांय*ोह, ब्रीविहविन�ा7प, ब्रीहय�घात, कपा'ोपधान, ब्रीविहपेषण, विपvसं�पन, पुरोडाशश्रपण, �ेदि*करण, प्रोbणीरासा*न, स्फ्यप्रbा'न, स्तु्रक् संमाग7, पत्नीसंनहन, इध्मबर्तिहंषो: संनहन, स्तु्रक् प्रोbण, �ेद्यां हवि�रासा*न, आघाराहुवित, इडोपाह्वान, स्तु्रग्व्यूहनान्युर्त्तार तन्त्र।

[संपादि*त करें ] प्रपाठक–3याजमान–प्र�त्स्यदुपस्थान, वि�राजक्रमोपस्थान, माहाचमसोपस्थान, वि�ल्लिच्छhप्रायभिxभिर्त्ता, अन्�ाधान, व्रतोपायन, हवि�रभिभमन्त्रण, नvकपा' पगायभिxभिर्त्ता, भिभhकपा' प्रायभिxभिर्त्ता, *ीण7पात्र प्रायभिxभिर्त्ता, एकत्रसाhाय प्रायभिxभिर्त्ता, आज्या�काशोत्प�न, आज्यग्रहाणाम नुमन्त्रण, हवि�ग्र7हणानुमन्त्रण, इडाभागाद्यनुमन्त्रण, आदि*त्योपस्थान, आग्रयणेधिv, ब्रह्मत्�। [संपादि*त करें ] प्रपाठक–4चातुमा7स्य–�ैश्व*े� प�7, �रुणप्रघास प�7, साकमेध प�7 अनीक�तीधिv, सान्तपनीयेधिv, गृहमेधीयेधिv, क्रीविडनीयेधिv, महहवि�रिरv, विपतृयज्ञ, त्र्यम्बकेधिv, शुनासीरीय प�7। [संपादि*त करें ] प्रपाठक–5पशुबन्ध। [संपादि*त करें ] प्रपाठक–6अग्निग्नvोम–*ीbणीयेधिv, यजमान *ीbा, प्रायणीयेधिv, पत्नी *ीbा, सोमक्रय, राज्ञ: पया7�त7न, आवितथ्येधिv, प्र�ग्यfपस*, महा�ेदि*वि�मान, उर्त्तार�ेदि* संभार, हवि�धा7न सं�त7न, औदुम्बया7�ट परिर'ेखन, छदि*: कम7, उपर� कम7, धिधल्लि6णयकरण, �सती�रीग्र7हण, यूपकम7, अग्नीषोमय पशुकम7, �सती�रीव्य7पहरण। [संपादि*त करें ] प्रपाठक–7अग्निग्नvोम–प्रात: स�न ग्रहग्रहण, संसप7ण, विद्व*े�त्यग्रह, विद्व*े�त्यभb, माध्यजिन्*नस�न, तृतीयस�न। [संपादि*त करें ] प्रपाठक–8अग्नविकल्प–उखासंभरण, त्रैधात�ीयेधिv, प्राजापत्य पश्वा'�न, प्रर्थमालिचवित, महालिचवित, विद्वतीया लिचवित, मध्यमालिचवित, चतुर्थ=लिचवित, उर्त्तामालिचवित, शतरूद्रीय। [संपादि*त करें ] प्रपाठक–9�ाजपेय। [संपादि*त करें ] प्रपाठक–10राजसूय, सैत्रामणी, अवितरात्र। [संपादि*त करें ] प्रपाठक–11अश्वमेध। [संपादि*त करें ] प्रपाठक–12अप्तोया7म, पवि�त्रं *शहवि�:। [संपादि*त करें ] प्रपाठक–13प्र�ग्य7। [संपादि*त करें ] प्रपाठक–14याजमानाग्निग्नvोधिमक प्रायभिxर्त्ताम्। [संपादि*त करें ] प्रपाठक–15परिरशेष–स्त्रीशान्तिन्तकम7, नामकरण, मेधाजनन, विपतृकम7, उपव्याहरण, स्�स्मिस्त�ाचन, पाप्मनोवि�विनधय:, *भिbणा। प्रर्थम प्रपाठक से 'ेकर एका*श प्रपाठक तक की वि�षय–�स्तु के वि�षय में कोई मतभे* नहीं है, विकन्तु द्वा*श प्रपाठक से 'ेकर पञ्च*श प्रपाठक की वि�षय–�स्तु के स्�रूप के वि�षय में वि�द्वानों में एकमत्य नहीं है। अश्वमेध के द्वा*श प्रपाठक के प्रर्थम सूत्र– 'द्वा*शाहाय *ीभिb6यमाणा: सम�स्यन्तिन्त' को *ेखकर का'न्* न ेयह संभा�ना व्यक्त की विक इस द्वा*श प्रपाठक का मुख्य प्रवितपाद्य द्वा*शाह ही रहा होगा।* वि�त्से' न ेभी यही संभा�ना व्यक्त की।* चूंविक द्वा*शाह का यहाँ उल्'ेख है और कल्पागम संग्रह द्वा*शाह प्रपाठक के चार अध्यायों की व्याख्या करता है। इसलि'ए इस संभा�ना में ब' है, विकन्तु इस द्वा*शाह प्रपाठक के मू' सूत्रपाठ उप'ब्ध नहीं हैं। क्योंविक क'पागम संग्रह भी सेत्रों को स्पv रूप से उद्धतृ नहीं करता, इसलि'ए इन सूत्रों का विनभिxत पाठ नहीं दि*या जा सकता। डॉ. काशीकर प्र�ग्य7 को भी इसी द्वा*श प्रपाठक के अन्तग7त मानते हैं।[10] दूसरी तरफ वि�त्से' अप्तोया7म, पवि�त्रेधिv को द्वा*श प्रपाठक का वि�षय न मानकर अ'ग–अ'ग खण्ड मानते हैं।* प्र�ग्य7 तर्था याजमानाग्निग्नvोधिमक को भी �ह स्�तन्त्र प्रपाठक न मानकर अग्निग्नvोम का अंग मानते हैं। का'न्* तर्था काशीकर त्रयो*श प्रपाठक में याजमानाग्निग्नvोधिमक मन्त्रसंग्रहण, अग्न्याधेय–ब्राह्मण, अग्निग्नहोत्र ब्राह्मण, पशुबन्ध ब्राह्मण, अग्निग्नvोम ब्राह्मण, अग्निग्नचयन–ब्राह्मण (अपूण7), तर्था इधिv पशु प्र�ग्य7 वि�षयक प्रायभिxर्त्ता कम� का चतु*7श प्रपाठक में अहीनों का तर्था पञ्च*श प्रपाठक में एकाहों का वि��ेचन मानते हैं। वि�त्से' का मत है विक �ाधू' सूत्र में पांच और प्रपाठक रे्थ जिजनमें क्रमश: अनुप*सूत्र, शुल्बसूत्र, विपतृमेध सूत्र, परिरभाषा सूत्र तर्था मन्त्रपाठ रे्थ, विकन्तु ये आज उप'ब्ध नहीं हैं। का'न्* तर्था काशीकर जी न ेत्रयो*श प्रपाठक में जिजन ब्राह्मणों का उल्'ेख विकया है �े अन्�ाख्यान ब्राह्मण हैं। इसलि'ए उनको श्रौतसूत्र में नहीं दि*या गया है। इसी प्रकार चतु*7श तर्था पञ्च*श प्रपाठक में अहीनों तर्था एकाहों का वि��ेचन माना गया है। �ाधू' श्रौतसूत्र के हस्त'ेख में यह उप'ब्ध नहीं है। हमने �ाधू' श्रौतसूत्र के अपने संस्करण में त्रयो*श में प्र�ग्य7 तर्था चतु*7श में याजमानाग्निग्नvोधिमक प्रायभिxर्त्ता का वि��ेचन माना है। पञ्च*श प्रपाठक परिरशेष प्रकृवित का है। [संपादि*त करें ] शै'ीगत �ैलिशष्ट्यसूत्रका' की समस्त रचनाए ँएक ऐसी शै'ी में की गई हैं जिजनको ब्राह्मण शै'ी की तु'ना में सूत्रशै'ी की संज्ञा *ी जा सकती है। ब्राह्मणों का उदे्दश्य मन्त्रों का यज्ञपरक व्याख्यान करना, उनका वि�वि�ध यालिज्ञक कम� में वि�विनयोग बताना तर्था संपाद्य यालिज्ञक कृत्यों की उत्पभिर्त्ता ए�ं

आधिध*ैवि�क, आध्याष्पित्मक तर्था आधिधभौवितक महत्� का अर्थ7�ा* के रूप में प्रवितपा*न करना र्था। सूत्रग्रन्थों का उदे्दश्य अपनी शाखा में प्रचलि'त यालिज्ञक कम� का एक सुव्य�ल्लिस्थत ए�ं विनभिxत क्रम में वि��ेचन करना र्था ताविक उसके आधार पर यज्ञकम7 का सम्पा*न सर'ता से विकया जा सके। यालिज्ञक वि�धिध–वि�धानों के �ण7न में व्याख्यानात्मक तर्था अर्थ7�ा*ात्मक भाग भी प्राप्त रे्थ, विकन्तु सूत्रकारों न ेइनको अपने bेत्र से अ'ग रखा। सूत्रात्मक शै'ी में वि�धिधभाग को प्रस्तुत करना उन्हें अभीv र्था। इसके लि'ए उन्होंने कई पद्धवितयाँ अपनायीं। सूत्र–साविहत्य की एक प्रमुख रचना के रूप में �ाधू' श्रौतसूत्र की शै'ी का वि�शेष महत्� है। इसकी शै'ीगत विनम्न वि�शेषताए ँउप'ब्ध हैं– �ाधू' श्रौतसूत्र में एक प*ात्मक छोटे सूत्र से 'ेकर कई मन्त्रों �ा'े बडे़–बडे़ सूत्र धिम'ते हैं; छोटे सूत्र जैसे– अनुप्रहरवित*, प्रश्नन्तिन्त*, माज7यन्ते* इत्यादि*। बडे़ सूत्र यर्था– �ाधू' श्रौतसूत्र 8.10.1, 8.19.9.8.25.17 इत्यादि*। श्रौतसूत्र प्राय: वि�धिध मात्र और मन्त्रभाग को एक सार्थ *ेते हैं। कभी वि�धिधमात्र पह'े होती है � मन्त्रभाग बा* में, तर्था कभी मन्त्रभाग पह'े होता है � वि�धिधभाग बा* में। सूत्रग्रन्थ अपनी शाखा के मन्त्र को प्रतीक रूप में उद्धतृ करते हैं, कभी सम्पूण7 रूप में। �ाधू' श्रौतसूत्र ऐसे स्थ'ों पर सूत्र को तीन भागों में वि�भक्त कर प्रस्तुत करता है। स�7प्रर्थम मन्त्र के प्रतीक को *ेता है, त*नन्तर वि�धिध–वि�भाग को और इसके बा* मन्त्रशेष को। मन्त्रशेष को प्राय: संभिbप्त रूप में तर्था कभी सम्पूण7 रूप में *ेता है। यर्था:–संभिbप्त 'श्रृणोत्�ग्निग्न:' सधिमधा ह�ं मे इवित चतुगृ7हीतेन गाह7पत्यस्योद्धते *भ7स्तम्बे विहरण्यमुपास्य जुहोवित। 'श्रृण्�न्त्�ापो धिधषणाx *े�ी ह�ं मे स्�ाहा' इवित* इत्यादि*। सम्पूण7 'त्�ाधिमजिद्ध ह�ामहे' इवित बृहतोपवितष्ठते। साता �ाजस्य कार�: त्�ां �ृत्रेष्पि6�न्द्र सत्पनितं नरस्त�ां काष्ठास्��7त:, स त्�ं नभिxत्र �ज्रहस्त धृ6णुया मह स्त�ानो अदिद्र�:। गामश्वं रथ्यधिमन्द्र सं विकर सत्रा �ाजं न जिजग्युषे'* इत्यादि*। कभी–कभी एक ही सूत्र में चार भाग दि*खाई पड़ते हैं– वि�धिधभाग, मन्त्रप्रतीक, वि�धिधभाग शेष, मन्त्रशेष; कभी सम्पूण7 मन्त्र तो कभी संbेप, यर्था– सम्पूण7 तज्जुहोवित– 'स्योना पृलिर्थवि� नो भ�' इत्यौदुम्बय¹ का'े *भ7स्तम्बे विहरण्यमुपास्यान्तामाहुवितम्। 'अनbृरा विन�ेशनी यच्छा न: शम7 सप्रर्था: स्�ाहा' इवित* इत्यादि*। संbेप अपरेण �ेदि*मत्याक्रम्य 'अहे *ैधिधषव्य' इत्युपवितषे्ठते यत्रोप�ेक्ष्यन् भ�वित। 'उ*तस्मिस्तष्ठान्यस्य योऽस्मत्पाकतर:’ इवित* इत्यादि*। यह उल्'ेखनीय है विक आश्व'ायन श्रौतसूत्र, कात्या. श्रौतसूत्र आदि* अपनी शाखा के मन्त्र को प्रतीकरूप में तर्था अन्य शाखीय मन्त्र को सम्पूण7 रूप में *ेते हैं। बौधायन श्रौतसूत्र स�7त्र मन्त्रों को सम्पूण7 रूप में प्रस्तुत करता है चाहे मन्त्र उसकी अपनी शाखा का ही क्यों न हो। �ाधू' श्रौतसूत्र भी मन्त्रों के प्रतीक रूप में या सम्पूण7 यप में *ेने के विकसी विनभिxत विनयम का पा'न नहीं करता। सूत्रग्रन्थ विकसी प्रकरण का प्रार� प्राय: 'अर्थ' या 'अर्थात:' से करते हैं। �ाधू' श्रौतसूत्र इसके लि'ए 'ए�ात:' प* का प्रयोग करता है, यर्था– 'अग्निग्नहोत्रमे�ातो जुहोवित*, 'हवि�: क्'ृन्तिप्तरे�ात:'*, '�रुणप्रघासा ए�ात:'* इत्यादि*। इसी प्रकार इधिv के समान्तिप्त–द्योतन के लि'ए �ाधू' श्रौतसूत्र 'सन्तिन्तष्ठते' प* का प्रयोग करता है, यर्था– 'सन्तिन्तष्ठते पूणा7हुवित:'*, 'सन्तिन्तष्ठत एविषधिv:'* इत्यादि*। जहाँ प्रपाठक की समान्तिप्त होती है �हाँ सूत्र की आ�ृभिर्त्ता करता है, यर्था– सन्तिन्तष्ठते *श7पूण7मासौ सन्तिन्तषे्ठते *श7पूण7मासौ*, सन्तिन्तष्ठतेऽग्निग्नvोम: सन्तिन्तष्ठतेऽग्निग्नvोम:* इत्यादि*। �ाधू' श्रौतसूत्र प्राय: पट' की समान्तिप्त पर अग'े पट' के प्रारस्मि�क सूत्र को अर्थ�ा उसके कुछ प*ों को *ेता है, यर्था– 'अयं ते योविनर्ॠ7 न्तित्�य:' इत्यरण्योरग्निग्नं समारोहयते*– 'अयं ते योविनर्ॠ7 न्तित्�य इत्यरण्योरग्निग्नं समारोहयते यतो' – रधियम् इवित।* �ाधू' श्रौतसूत्र से पू�7 दि*ए गए सम्पूण7 पट' को अर्थ�ा अनेक सूत्रों को आगे जब उद्धतृ करना होता है तब उसे एक या *ो सूत्रों में पट'ादि* और पट'ान्त प* *ेकर संbेप में प्रस्तुत करता है। उ*ाहरण के लि'ए 'स�7*ोपस्थान' का �ण7न �ाधू' श्रौतसूत्र* में सम्पूण7 रूप में विकया गया है। *ो स्थानों पर आगे उसे संभिbप्त रूप में प्रस्तुत विकया गया है– 'ज्योवित6मन्तंत्�ाऽग्ने – स काम: पद्यते य एतेनोपवितष्ठते'।* यालिज्ञक कम7काण्ड के वि��ेचन में �ाधू' श्रौतसूत्र की शै'ी ब्राह्मणों की तरह दि*खाई पड़ती है। उस �ण7न को पढ़ते समय 'गता है विक हम विकसी ब्राह्मण–ग्रन्थ को पढ़ रहे हैं, यर्था–'त* ्�ा एन*ग्न्युपस्थान मायु6यं 'ोक्यं पुवित्रयं पशव्यम्।आयु6मान् ह�ै 'ोकी पुत्री पशुमान् भ�वित य एतेनोपवितष्ठते।तस्मिस्मन्�ा एतस्मिस्मhग्न्युपस्थाने स�ा7भिण छन्*ांलिस स�ा7 आलिशष: स�� कामा:।न ह �ा अस्य विकल्लिञ्चच्छोन्*ोऽपरादं्ध भ�वित नाशीन7 कामो य एतेनोपवितष्ठते'*, इत्यादि*। इस प्रकार के �ण7न में �ाधू' श्रौतसूत्र की शै'ी ब्राह्मणों की तरह आख्यान भी *ेता है, यर्था– गरु्थनसो *ाbीकायणस्य हस्ती साhाय्यं पपौ।स ह स्म पय7स्तरचङ्क्रम्यते यन्मया7 इत्थम�ेदि*6यामो हस्ती न: साhाय्यं पातेत्यन्�स्य प्रायभिxभिर्त्ताम�क्ष्या महीवित।तदु हो �ाचानुबुध्योद्दा'क आरूभिण:। अल्पा ममा7 गग्'ना आस।

एता�h वि�*ाञ्चकार।यज्ञो �ै यज्ञस्य प्रायभिxर्त्ता: साhाय्या�ृत् साhाय्यस्याग्निग्नहोत्रस्येवित।'*, इत्यादि*। �ाधू' श्रौतसूत्र 'इवित ब्राह्मणम्', 'तस्यैत* ्ब्राह्मणम्', 'त* ्ब्राह्मणमे�' इन �ाक्यों के सार्थ ब्राह्मण–पाठ को उद्धतृ करता है। मन्त्रों के वि�विनयोग, द्रव्यों के वि�धान, *ेश–का' के वि�धान तर्था वि�धिध की इवितकर्त्ता7व्यता के वि��ेचन में �ाधू' श्रौतसूत्र स्थान–स्थान पर 'मीमांसा' शब्* का प्रयोग करता है, यर्था– अग्न्याधेयस्य मीमांसा*, तस्य साधिमधेनीनां मीमांसा*, *ीbायै मीमांसा* इत्यादि*। इन स्थ'ों पर �ाधू' दूसरों के मतों को 'त*ाहु:', 'तदु�ा आहु:', 'अर्थो खल्�ाहु:', 'त*ेनम्', 'अरै्थकम्', 'त* ्हैनो', 'एके', 'तhु हैत *ेखे' इन �ाक्याशों के द्वारा प्रस्तुत करते हैं। दूसरों का मत उद्धतृ करने के बा* �ाधू' अपना मत 'एषा ल्लिस्थवित:' ऐसा कहकर प्रवितधिष्ठत करते हैं– यर्था �ाधू' श्रौतसूत्र* इत्यादि*। [संपादि*त करें ] भाषागत �ैलिशष्ट्य�ाधू' श्रौतसूत्र की भाषा अन्य सूत्रग्रन्थों की अपेbा प्राचीन प्रतीत होती है। ब्राह्मणों की तरह प्र�चनात्मक होने के कारण इसकी भाषा की पर�त= ब्राह्मणों की भाषा के सार्थ समानता की जा सकती है, �स्तुत: इसकी भाषा ब्राह्मणों और पाभिणविनका'ीन भाषा की मध्य�र्तितंनी अ�स्था की द्योतक है। इसकी कवितपय भाषा वि�षयक वि�शेषताए ँविनम्नलि'ग्निखत हैं जो इसकी प्राचीनता का द्योतन करती हैं:– नकारान्त प्रावितपादि*क के स. ए. �. में इ का 'ोप, यर्था– चम7न ्(चम7भिण), भस्मन् (भस्मविन), हेमन् (हेमविन हेमन्ते 'ौ.)। अकारान्त प्रावितपादि*क का तृ. तर्था सप्तमी के ए. �. में आकारान्त रूप, यर्था– *भिbणा (तृ. ए. �.), �सन्ता (स. ए. �. �सन्ते) इत्यादि*। आकारान्त तर्था ईकारान्त स्त्री. प्रावितपादि*कों के षष्ठी, ए. �. में आकारान्त वि�भलिक्तरूप के स्थान पर ऐकारान्त रूप का प्रयोग, यर्था– ईडायै (इडाया:), धु्र�ायै (धु्र�ाया:), उतर�ेदै्य (उतर�ेद्या:), औदुम्बय¹ (औदुम्बया7:) इत्यादि*। चतुर्थ=बोधक ए�ं पंचमी–षष्ठी बोधक तुमुhर्थ=य – त�ै तर्था तोस् प्रत्ययों का प्रयोग, यर्था– एv�ै, रभिbत�ै, परिरवे्यतो:, उपकतf: इत्यादि*। आम्रेविडत समास का प्रयोग, यर्था– इत्थधिमत्थम्, इvधिमvम्, जुहू�न्तोजुहूत:, प्रण�ेप्रण�े इत्यादि*। 'ुङ् तर्था 'ेट् का प्रयोग, यर्था– अहाषु7:, अयासीत्, वि�सृजासै, छैत्सी: इत्यादि*। 'ोट् म. घ.ु, ए. �. में तात् प्रत्यय का प्रयोग, यर्था– विनधर्त्ताात्, प्रहरतात्, आगच्छतात्, धिमनुतात्, कुरूतात् इत्यादि*। कवितपय नए विक्रयाप*ों का प्रयोग, यर्था– विनविपचवित इत्यादि*। �ाक्य में वि�भिभh विनपातों का प्रयोग, यर्था– अर्थ, यदि*, अर्थह, अर्थौ ख'ु अर्थो यदि*, अविप ह, अविप ह �ै, इन्तु, उ �े�, उ �ै, उ ह, उ ह �ै, ए�ं ह तु ह, त्�े�, न,ु नुह, न ुह स्म, न्�े�, यर्था है�, य*ा �ै, यद्य'म्, यदु्य ह, ह... उ, ह �ा�, ह स्मै�म् विह, है� इत्यादि*। �ाक्य के आर� में स�7नाम 'स' प* का विनरर्थ7क प्रयोग, यर्था स यत्र, स यर्था, स य* य यदि*, स ह स्मै�म् इत्यादि*। उपसग7 के सार्थ विक्रयाप* के समास में *ोनों प*ों के बीच अन्य प* के प्रयोग द्वारा *ोनों प*ों का पृर्थक प्रयोग, यर्था– उप �ा विन*धावित*, अभ्य�भृरं्थ यन्तिन्त*, अभ्यसौ पाचयेत*, उपेतरा: प्राज7न्तिन्त* इत्यादि*। प्रत्यb �स्तु के लि'ए स�7नाम का प्रयोग, यर्था– आभ्यां हैके प्राश्नन्तिन्त, आभ्यामेके त*नाहत्याभ्यामे� प्राश्नीयात्*, एतां दि*शं संbा'ं विननीय*, एता�न्मात्रे* इत्यादि*। �ाधू' श्रौतसूत्र में बहुत से ऐसे नए शब्* धिम'ते हैं जिजनका अन्यत्र कहीं भी प्रयोग नहीं धिम'ता। कोष ग्रन्थों में भी �े शब्* नहीं धिम'ते, यर्था– विनपेचत, अध्यृषभ अपरीणत्क, आण्डी�', तीर्तितं, विनजु, पयु7*क्त, पुञ्जी', प्रष्ठी', यजमानयजूंविषक, स�7*ोपस्थान माहाचमसोपस्थान, स्त्री�ृbी इत्यादि*। भाषागत इन वि�लिशvताओं से �ाधू' श्रौतसूत्र की भाषा की प्राचीनता लिसद्ध होती है। इस पर ब्राह्मणों की भाषा का स्पv प्रभा� दि*खाई पड़ता है। [संपादि*त करें ] कृ6णयजु��*ीय में �ाधू' का स्थान�ाधू' श्रौतसूत्र के अवितरिरक्त कृ6णयजु��* से सम्बष्पिन्धत आज आठ श्रौतसूत्र उप'ब्ध हैं। महा*े� के अनुसार तैभिर्त्तारीय श्रौतसूत्रों का क्रम इस प्रकार है– बौधायन, भारद्वाज, आपस्तम्ब, विहरण्यकेलिश, �ाधू' तर्था �ैखानस।* महा*े� द्वारा दि*ए गए इस क्रम के अनुसार �ाधू' की ल्लिस्थवित पाँच�े स्थान पर है। अर्था7त यह बौधायन, भारद्वाज, आपस्तम्ब, विहरण्यकेलिश से अ�ा7चीन तर्था �ैखानस से प्राचीन है। विकन्तु ऐसा मानना समीचीन नहीं है। श्रौतसूत्रों में बौधायन श्रौतसूत्र सबसे प्रचीन माना जाता है, क्योंविक उसकी शै'ी प्र�चनात्मक है। हाँ, काशीकर न े�ाधू' श्रौतसूत्र को भी उसकी प्र�चन शै'ी के आधार पर बौधायन श्रौतसूत्र का समका'ीन माना है।* अनेक बविहरंग तर्था अन्तरंग प्रमाणों से यह लिसद्ध होता है विक �ह बौधायन श्रौतसूत्र से भी प्राचीन है।* कवितपय प्रमाण यहाँ प्रस्तुत हैं:– बौधायन श्रौतसूत्र न ेएक स्थ' पर अग्नीषोमीय छाग पशु के लि'ए इध्माबर्तिहं का वि�धान विकसी आचाय7 के मत में माना है। �हाँ आचाय7 का नाम न *ेकर 'एके' प* का प्रयोग विकया गया है– एत*े�ेध्मा� बर्तिहंरग्नीषोमीयाय पश�े परिरशयीतेत्येक आहु:।* �ाधू' श्रौतसूत्र में उसी का वि�धान धिम'ता है– 'अग्नीषोमीयस्यैष पशोरिरध्मा भ�वित'।* का'न्* न ेइस पाठ को– 'अग्निग्नषोमीयस्यै� पशोरिरध्मा बर्तिहंभ�वित' ऐसा मानने का सुझा� दि*या है। �ाधू' श्रौतसूत्र में प्राप्त उस वि�धान के आधार पर यह अनुमान 'गाया जा सकता है विक बौधायन श्रौतसूत्र में 'एके' प* के द्वारा जिजस विकसी आचाय7 के मत को उद्धतृ विकया गया है, �ह �ाधू' श्रौतसूत्र में प्रवितपादि*त �ाधू'ों के मत की ओर संकेत करता है। का'न्* न ेयद्यविप 'एके' प* के द्वारा �ाजसनेधिययों के मत को उद्धतृ करने की संभा�ना व्यक्त की है जहाँ से �ाधू'ों न ेभी ग्रहण विकया होगा, विकन्तु बौधायन और �ाधू' के पाठों में जो समानता दि*खाई पड़ती है, उससे प्रत्यbत: यही प्रतीत होता है विक बौधायन न े�ाधू' से ही यह ग्रहण विकया है।* �ाधू' श्रौतसूत्र* में यूपतbण से पू�7 पशुबन्ध में अन्�ाहाय7पचन में विपतरों के लि'ए हवि� *ेने के पxात एक अvाकपा' आग्नेयीधिv का वि�धान �ैकल्लिल्पक रूप में है। बौधायन श्रौतसूत्र के मू' भाग में कहीं भी इस इधिv का संकेत नहीं है, विकन्तु इसके दै्वध और कमा7न्त में इसका उल्'ेख है।* इससे अनुमान विकया जा सकता है विक बौधायन श्रौतसूत्र का यह दै्वध ए�ं कमा7न्त भाग �ाधू' श्रौतसूत्र पर आधृत है।

�ाधू' श्रौतसूत्र* में 'कत7म्' प* का प्रयोग करता है जबविक बौधायन श्रौतसूत्र* उसी के लि'ए 'गत7म्' प* का प्रयोग करता है। शं �ा शीय7ते गत² �ा पतवित। 'कत7म्' रूप 'गत7म्' से भाषा की दृधिv से अधिधक प्राचीन है। �ाधू' श्रौतसूत्र* में 'अन्�ज7वित' विक्रयाप* का प्रयोग करता है (अरै्थनामन्�ज7वित) विकन्तु बौधायन श्रौतसूत्र इसके लि'ए 'उत्सृजवित' विक्रयाप* का प्रयोग करता है।* उल्'ेखनीय है विक 'अन्�ज7वित' का प्रयोग 'उत्सृजवित' की अपेbा प्राचीन है। �ाधू' श्रौतसूत्र* '�ारम्' प* का प्रयोग करता है जबविक बौधायन श्रौतसूत्र उसके लि'ए '�ा'म्' प* का प्रयोग करता है।* '�ारम्' प* '�ा'म्' से ध्�विनशास्त्र की दृधिv से प्राचीन है। बौधायन श्रौतसूत्र �सती�री ज'ों के ग्रहण के प्रसंग में एक जगह प्रत्यb रूप से �ाधू' का उल्'ेख करता है– 'अर्थाभिभ*ग्धाविन स*ो हवि�धा7नाविन समस्त *े�यजमान�ृतै� विक्रयेरhा�ृता �ा, �सती�री: प्रर्थमं गृह्णीयादि*वित �ाधू'कस्य मतम्।* बौधायन श्रौतसूत्र में �ाधू' के नाम से उद्धतृ यह वि�धान �ाधू' श्रौतसूत्र* में धिम'ता है। बौधायन प्र�र सूत्र* में यस्क–भृगु से सम्बष्पिन्धत एक गोत्र प्र�त7क के रूप में �ाधू' का उल्'ेख है।[11] �ाधू' श्रौतसूत्र की भाषा तर्था रचना–शै'ी ब्राह्मणों की भाषा तर्था रचना–शै'ी के अधिधक समीप है। इस प्रकार �ाधू' श्रौतसूत्र कृ6णयजु��*ीय श्रौतसूत्रों में सबसे प्राचीन है। [संपादि*त करें ] *ेश और का'महा*े� के कर्थनानुसार �ाधू'ाचाय7 न ेअपन ेश्रौतसूत्र का विनमा7ण केर' में विकया। इसी आधार पर कुछ वि�द्वान केर' को ही �ाधू' का मू' *ेश मानते हैं, विकन्तु यह मत स्�ीकाय7 नहीं है। यद्यविप महा*े� न ेकेर' में इसके रचे जाने का उल्'ेख विकया है तर्था आज केर' में �ाधू'ों की जीवि�त परम्परा भी है, विकन्तु यह नहीं कहा जा सकता विक �ाधू'ों का मू' प्र*ेश केर' है। विकसी ग्रन्थ के विकसी प्र*ेश–वि�शेष में प्रचलि'त होने से यह नहीं कहा जा सकता विक उस ग्रन्थ का प्रणयन भी �हीं हुआ हो। नदि*यों, प�7तों, राजाओं, जनसमाज, रीवित–रिर�ाज आदि* के ग्रन्थ में उल्'ेख विकसी भी ग्रन्थ के मू' *ेश–विनधा7रण में सहायक होते हैं। �ाधू' श्रौतसूत्र में *भिbण के विकसी भी नगर, प�7त, न*ी, जनसमाज अर्थ�ा रीवित–रिर�ाज का उल्'ेख नहीं धिम'ता, जबविक उसमें इसके उर्त्तार भारत में रचे जाने के प्रचुर प्रमाण धिम'ते हैं। कुछ प्रमाण इस प्रकार हैं:– �ाधू' श्रौतसूत्र* विबना नाम के 16 जनप*ों का उल्'ेख करता है जो विन:सं*ेह उर्त्तार भारत के जनप*ों की ओर संकेत है। ये पू�7 बुद्धकालि'क हैं। �ाधू' श्रौतसूत्र कुरू और पाञ्चा'ों का उल्'ेख करता है। �ाधू' श्रौतसूत्र* में कुरु *ेश के अश्वपा'ों का उल्'ेख है जो वितरxीन सhद्व अश्व को ग्रहण करते हैं। �ाधू' श्रौतसूत्र* में कुरु *ेश के उन रीवित–रिर�ाजों का उल्'ेख है जो �ाधू' श्रौतसूत्र की रचना के समय में प्रचलि'त रे्थ। �ाधू' श्रौतसूत्र* में पांचा' *ेश में षाधिष्ठक (साठी) धानों से यज्ञ करने का उल्'ेख विकया गया है जो उर्त्तार–पू�7 भारत में वि�शेष रूप से उत्पादि*त विकए जाते हैं। �ाधू' श्रौतसूत्र* अग्निग्नvोम में सरस्�ती न*ी के ज' को �सती�री ज' के रूप में प्रयोग करने का उल्'ेख करता है। �ाधू' श्रौतसूत्र श्रुतसेन तर्था केशी मैते्रय द्वारा विकए गए अश्वमेध यज्ञों का उल्'ेख करता है। इन उल्'ेखों से यह प्रमाभिणत होता है विक �ाधू'ों का मू' स्थान उर्त्तार भारत में कुरू–पाञ्चा' प्र*ेश र्था, जिजसके पभिxम में सरस्�ती न*ी बहती र्थी तर्था पू�7 में वि�*ेह प्र*ेश र्था। बा* में विकन्हीं कारणों से यह शाखा *भिbण भारत में फै'ी। मान� श्रौतसूत्र / Manav Shrautsutraअनुक्रम[छुपा]1 का' 2 स्�रूप और प्रवितपाद्य 2.1 प्रर्थम भाग 2.2 दूसरा भाग 2.3 तीसरा भाग 2.4 चौर्था भाग 2.5 पाँच�ा भाग 2.6 छठा भाग 2.7 सात�ाँ भाग 2.8 आठ�ाँ भाग 2.9 न�ाँ भाग 2.10 *स�ाँ भाग 3 आधार 4 शै'ी 5 विन6कष7 6 व्याख्याएँ ए�ं संस्करण 7 सम्बंधिधत लि'ंक

कृ6णयजु��*ीय की मैत्रायणी शाखा के *ो श्रौतसूत्र उप'ब्ध होते हैं– (1) मान� श्रौतसूत्र तर्था (2) �ाराह श्रौतसूत्र । मान� श्रौतसूत्र का प्रसार–प्र*ेश *भिbण का गो*ा नामक भू–भाग है। मैत्रायणी शाखा के ब्राह्मण और आरण्यक पृर्थक रूप से उप'ब्ध नहीं हैं। मैत्रायणी शाखा से सम्बद्ध मान� श्रौतसूत्र आकार, शै'ी ए�ं श्रौत यागों के वि�श* विनरूपण के कारण श्रौत साविहत्य में अपना वि�लिशv स्थान रखता है। [संपादि*त करें ] का'

वि�द्वानों के अनुसार समग्र श्रौत साविहत्य उर्त्तार �ैदि*क का' में रचा गया है। ब्रैड'े न ेअनेक उद्धरणों से यही लिसद्ध विकया है विक मान� श्रौतसूत्र अर्थ�ा मान� गृह्यसूत्र एक ही सूत्रकार की रचनाए ँहैं। मान� श्रौतसूत्र आपस्तम्ब श्रौतसूत्र से पह'े की रचना है, क्योंविक आपस्तम्ब श्रौतसूत्र न ेयज्ञों के �ण7न में मान� श्रौतसूत्र का अनुकरण विकया है। डॉ. रामगोपा' न ेक'प–साविहत्य की वितलिर्थ पर वि�चार करते हुए मान� श्रौतसूत्र को सूत्रका' के प्रर्थम चरण की कृवित माना है। यह तथ्य उसकी शै'ी से भी प्रमाभिणत है। इसकी शै'ी ब्राह्मण ग्रन्थों की शै'ी के सदृश है। इसलि'ए बहुत स�� है विक यह श्रौतसूत्र पाभिणविन से पू�7�त= रचना हो। सूत्र–साविहत्य के प्रर्थम चरण में लि'खे गए सभी सूत्र–ग्रन्थ पाभिणविन से पू�7 संभावि�त हैं। पाभिणविन का समय डॉ. �ासू*े� शरण अग्र�ा' न ेपाँच�ीं शती ईस्�ी पू�7 का माना है। अत: मान� श्रौतसूत्र उससे पह'े की रचना है। [संपादि*त करें ] स्�रूप और प्रवितपाद्यमैत्रायणी शाखा के कल्प–साविहत्य में यह श्रौतसूत्र अत्यन्त महत्�पूण7 है। यह श्रौतसूत्र *स भागों में वि�भक्त है। प्रत्येक भाग अध्यायों, खण्डों ए�ं सूत्रों के उपवि�भाजन में वि�भाजिजत है। [संपादि*त करें ] प्रर्थम भागप्रर्थम भाग की संज्ञा प्राक्सोम है। प्राक्सोम भाग के प्रर्थम चार अध्यायों में *श7पौणमास यज्ञ का �ण7न है। यह सभी हवि�य7ज्ञों की प्रकृवित है। इस याग में *ो इधिvओं का धिमश्रण है– इन छ: हवि�यों की समाधिv को *श7पौणमास कहते हैं। *श�धिv का सम्पा*न अमा�स्या तर्था पौण7मास का सम्पा*न पूर्णिणंमा को होता है। इस यज्ञ में अनेकानेक कृत्य होते हैं जिजनमें से अधिधकांश का �ण7न मान� श्रौतसूत्र में उप'ब्ध होता है। इसके प्रमुख कृत्य ये हैं:– �त्स अपाकरण, बर्तिहं आहरण, इध्म आहरण, विपण्डविपतृ यज्ञ, �ेष ए�ं उप�ेष–विनमा7ण, पवि�त्र विनमा7ण, सांय *ोह, �ाग्यमन, प्रात*fह, वि�हार संस्तरण, पात्राधान, प्रणीता–प्रणयन, हवि�विनमा7ण, �ेदि* विनमा7ण, पत्नी'ोक स्थापन, पत्नी सhहन, आज्याधिधश्रयण, प्रस्तर अपा*ान, परिरधिध स्थापन, पुरोडाशाभिभघारण, साधिमधेनी अन�ुाचन, आघार, होतृ�रण, प्रयाज, आज्यभाग का यजन, आग्नेय पुरोडाश होम, ऐन्द्राग्नपुरोडाश होम, उपांशुयाग, स्मिस्�vकृत् याग, प्रालिशत्रहरण, इडाकम7, *भिbणा, अनुयाज, सूक्त�ाक्, शंयु�ाक्, वि�6णुक्रम, परिरधिध होम, पत्नीसंयाज, सधिमvयजुहfम। इन कृत्यों में विकसी प्रकार की त्रुदिट होने पर प्रायभिxर्त्ता का भी वि�धान है। पाँच�े अध्याय में अग्न्याधान इधिv का वि�श* वि��ेचन है। सत्याषाढ श्रौतसूत्र के अनुसार रर्थकार भी अग्न्याधान कर सकता है पर मान� श्रौतसूत्र में ऐसा उल्'ेख नहीं है। मान� श्रौतसूत्र के अनुसार अग्न्याधान के प्रमुख कृत्य ये है:– व्रत ग्रहण, अरणी–आहरण ए�ं यजमान द्वारा उनका ग्रहण, अग्निग्नस्थ' विनधा7रण, संभार विन�पन, अग्निग्न–मंर्थन, गाह7पत्य आधान, अभिbणाग्निग्न आधान, आह�नीयाग्निग्न आधान, सभ्य ए�ं आ�सथ्य अग्निग्नयों का आधान, ब्रह्मौ*न, अधिध*े�न, अग्निग्न उपस्थान, *भिbणा, आर�णीयेधिv तर्था जय होम आदि*। प्राक्सोम के छठे अध्याय में अग्निग्नहोत्र, आग्रयण तर्था पुनराधान इधिvयों का �ण7न धिम'ता है। मान� श्रौतसूत्र के अनुसार प्रात: ए�ं सांयका'ीन अग्निग्नहोत्र का उदे्दश्य प्रवितदि*न क्रमश: रावित्र ए�ं दि*न में विकए गए पापों से मुक्त होना है। वि�भिभh कामनाओं में भिभh–भिभh प*ार्थ� की आहुवित का वि�धान है। विनत्य अग्निग्नहोत्र में आज्याहुवितयाँ ही वि�विहत हैं, क्योंविक आज्याहुवितयाँ यज्ञ की आँखें हैं। आग्रयण इधिv न�ीन अhों के प्रयोग के पू�7 की जाती है। बसंत में य� तर्था शर* ्में चा�' से आग्रयणेधिv की जाती है। आग्रयण में अनेकानेक अनुष्ठानों का वि�धान है। अग्न्याधान के पxात इvफ' की प्रान्तिप्त न होने पर अर्थ�ा विकसी प्रकार का वि�घ्न पड़ जाने पर पुनराधान का विनयम है। पुनराधान की पद्धवित अग्न्याधान की ही भाँवित है। इसी भाग के सात�ें अध्याय में चातुमा7स्य इधिv का विनरूपण है। चातुमा7स्य इधिv मंप चार प�7 होते हैं:– �ैश्व*े�, �रुण प्रघास, साकमेध, शुनासीरीय। कुछ ग्रन्थों में तो प्रर्थम तीन प�7 का ही वि�धान है। इन चारों प�� की पाँच सामान्य हवि�याँ हैं। इसके सार्थ ही प्रत्येक प�7 की कुछ वि�लिशv हवि�याँ भी हैं। चातुमा7स्य का सम्पा*न एक दि*न में भी संभ� है तर्था पाँच दि*न में भी। यह ऐधिvक, पाशुक तर्था सौधिमक तीन प्रकार का होता है। प्राक्सोम के अवंितम अध्याय में पशुयाग की प्रकृवित विनरूढ पशुबन्ध का विनरूपण है। इसका सम्पा*न *ो दि*न में होता है पर एक दि*न में भी संभ� है। इस याग में चार प्रमुख ऋन्तित्�जों के अवितरिरक्त प्रवितप्रस्थाता तर्था मैत्रा�रुण नामक *ो और ऋन्तित्�क् होते हैं जो क्रमश: होता है तर्था अध्�यु7 की सहायता करते हैं। [संपादि*त करें ] दूसरा भागमान� श्रौतसूत्र के दूसरे भाग में कु' पाँच अध्याय हैं। इन पाँचों अध्यायों में सोमयाग की प्रकृवित अग्निग्नvोम का �ण7न विकया गया है। [संपादि*त करें ] तीसरा भागतीसरे भाग में एक ही अध्याय है जिजसमें इधिv, सोम तर्था पशुयागों से सम्बष्पिन्धत प्रायभिxर्त्ताों का �ण7न है। [संपादि*त करें ] चौर्था भागचौर्थे भाग में भी एक ही अध्याय है तर्था इसमें प्र�ग्य7 याग का वि�स्तृत �ण7न विकया गया है। प्र�ग्य7 याग के सम्पा*न से यजमान न�ीन जी�न प्राप्त करता है। प्र�ग्य7 में प्रयुक्त धम7 को सूय7 से समीकृत विकया गया है तर्था उसे यश का लिसर कहा गया है। गम7 दूध को दि*व्य जी�न ए�ं प्रकाश का प्रतीक माना गया है। मान� श्रौतसूत्र के अनुसार प्रर्थम ज्योवितvोम तर्था उक्थ्य के समय प्रजा ए�ं पशुकामी को प्र�ग्य7 याग नहीं करना चाविहए। [संपादि*त करें ] पाँच�ा भागपाँच�े भाग में *ो अध्याय हैं, इसे इधिv तर्था पशुयाग का परिरशेष माना जा सकता है, क्योंविक इस प्रकरण में उस प्रसंग में छूटी हुई बातों का �ण7न है। इसी प्रकरण में वि�भिभh कामनाओं की पूर्तितं के उदे्दश्य से की जाने �ा'ी अनेक कामेधिvयों का विनरूपण है। उनमें आयु6कामेधिv, स्�स्मिस्त

कामेधिv, पुरोधा कामेधिv, पुत्र कामेधिv, श्रेष्ठत्� कामेधिv, �ृधिv कामेधिv, पशु कामेधिv, धन कामेधिv, ब्रह्म�च7स कामेधिv तका प्रजा कामेधिv पुभृवित प्रमुख हैं। [संपादि*त करें ] छठा भागछठा भाग *ो अध्यायों में वि�भक्त है जिजसमें अग्निग्नचयन नामक जदिट' सोमयाग का वि�श* विनरूपण है। अग्निग्नचयन का अर्थ7 है– ईंटों के द्वारा उर्त्तार�ेदि* पर प्रस्तरों की संरचना करना। �स्तुत: यह अग्निग्न का संस्कार है और सोमयाग का अंग है। इसमें अनेक कृत्यों का अनुष्ठान आ�श्यक है, यर्था– उखा संभरण, पांशुक इधिv, *ीbणीयेधिv, गाह7पत्य चयन, नऋै7 त चयन, महा�ेदि* विनमा7ण, 'ोष्ठ चयन, प्रर्थम लिचवित, विद्वतीय लिचवित, तृतीय लिचवित, चतुर्थ7 लिचवित, अन्तिन्तम लिचवित, पुनभिxवित, महाव्रत, अग्निग्नप्रोbण, शतरुदिद्रय होम, अग्निग्नलिसञ्चन, वि�कष7ण, अग्निग्नसा*न, सधिमधाधान, द्वा*श तर्था सप्तकपा'क पुरोडाशयाग, �सुधारा, राष्ट्रभृत होम, धिध6ण्य विनप�न, अन्�ारोह आहुवित आदि*। [संपादि*त करें ] सात�ाँ भागसात�ाँ भाग भी *ो अध्यायों में वि�भक्त है। प्रर्थम अध्याय में स्�राज्य–प्रान्तिप्त की कामना से विकए जाने �ा'े �ाजपेय याग का �ण7न है। मान� के अनुसार स्�राज्यकामी ब्राह्मण � bवित्रय को शर* ऋतु में इसका अनुष्ठान करना चाविहए। �ाजपेय यज्ञ में सत्रह *ीbा दि*�स और तीन उपस* ्दि*�स होते हैं। दूसरे अध्याय में उभयात्मक–सत्रात्मक तर्था अहीनात्मक द्वा*शाह तर्था ग�ामयन याग विनरूविपत हैं। [संपादि*त करें ] आठ�ाँ भागआठ�ें भाग की संज्ञा अनुग्राविहक है। इसे इधिv, पशु तर्था सोम का परिरशेष कहा जा सकता है। इसमें कुछ ऐसे भी वि�षयों का उल्'ेख है जिजन्हें प्रत्यb रूप से श्रौत याग से सम्बद्ध नहीं विकया जा सकता। [संपादि*त करें ] न�ाँ भागन�ाँ तर्था पाँच�ा अ�ान्तर भागों में वि�भक्त है जिजसमें प्रर्थम में राजसूय, दूसरे में अश्वमेध, तीसरे में एकाह, चौर्थे में अहीन और पाँच�ें में सत्र यागों का विनरूपण है। राजसूय एक जदिट' यज्ञ है जिजसमें बहुत सी इधिvयाँ पृर्थक–पृर्थक सम्पादि*त की जाती हैं। यह *ीघा7�धिध तक च'ता है। मान� श्रौतसूत्र के अनुसार राज्यकामी राजा को राजसूय यज्ञ करना चाविहए। [संपादि*त करें ] *स�ाँ भागमान� श्रौतसूत्र के *स�ें भाग में शुल्ब सूत्रों का उल्'ेख है जिजसमें वि�वि�ध श्रौत यागों में प्रयुक्त होने �ा'ी �ेदि*–विनमा7ण प्रविक्रया सवि�स्तर विनरूविपत है। हवि�, पशु ए�ं सोम– इन तीनों यज्ञों में पृर्थक–पृर्थक �ेदि*यों का प्रयोग विकया जाता है। अग्निग्नहोत्र, *श7पौण7मास आदि* इधिvयों की �ेदि* का स्�रूप सर' है। चातुमा7स्य के �रुणप्रघास प�7 में इधिvयों की �ेदि* के सार्थ ही एक अवितरिरक्त �ेदि* की आ�श्यकता होती है जिजसे उर्त्तार�ेदि* कहते हैं। स्�तन्त्र पशुयाग की �ेदि* इधिvयों से जदिट' है। अग्निग्नvोम आदि* सोमयागों की �ेदि* जदिट'तर होती है। इसके अवितरिरक्त एक और �ेदि* होती है जिजसका आकार पभिbयों के सदृश होता है तर्था रचना जदिट'तम होती है। [संपादि*त करें ] आधारइस श्रौतसूत्र का आधार मुख्य रूप से मैत्रायणी संविहता है। अधिधकांश यज्ञों में प्रयुक्त संकेतात्मक मन्त्रों का ग्रहण मत्रायणी संविहता से ही विकया गया है। परन्तु *ोनों के सम्बन्धों पर सूक्ष्म दृधिv–विनbेप करने से यह तथ्य प्रकट होता है विक इस श्रौतसूत्रकार न ेआधारभूत मैत्रायणी संविहता का अbरश: अनुकरण नहीं विकया है। मान� श्रौतसूत्र के बहुत से सूत्र उक्त संविहता में नहीं धिम'ते, क्योंविक *ोनों के उदे्दश्य, bेत्र तर्था शै'ी में मौलि'क अंतर है। मान� श्रौतसूत्र में स�7मेध का �ण7न धिम'ता है 'ेविकन कृ6णयजु��*ी संविहताओं में इसका विनरूपण नहीं विकया गया है। मान� श्रौतसूत्र में इसका �ैणन शतपर्थ ब्राह्मण के आधार पर विकया गया है। कहीं–कहीं मान� श्रौतसूत्र में शुक्'यजु��* संविहता के मन्त्रों का भी वि�विनयोग धिम'ता है। इसी प्रकार कहीं–कहीं काठक शाखा के मन्त्रों का वि�विनयोग भी उप'ब्ध होता है। कुछ एकाह, अहीन तर्था सत्त्र यागों का आधार तैभिर्त्तारीय संविहता, ताण्डय तर्था षड्नि�ंश ब्राह्मण भी हैं। अत: मान� श्रौतसूत्र इन ग्रन्थों का ऋणी माना जा सकता है। [संपादि*त करें ] शै'ीसभी यज्ञों के �ण7न में सम्पा*न–का', हवि�द्र7व्य तर्था कामना आदि* का विन*�श है। वि�भिभh �ण� के लि'ए भिभh–भिभh ऋतुओं तर्था भिभh–भिभh हवि�द्र7व्यों का उल्'ेख है। इस श्रौतसूत्र में कहीं–कहीं 'म्बे 'म्बे �ाक्यों का प्रयोग भी दृधिvगत होता है। यद्यविप यह श्रौतसूत्र प्राचीनतम श्रौतसूत्रों के मध्य परिरगभिणत है, विफर भी इसकी शै'ी में सूत्रात्मकता, संभिbप्तता तर्था स्पvता का कहीं भी अभा� नहीं है। शै'ी आद्यन्त रोचक तर्था प्र�ाहपूण7 है। भाषा सर' तर्था प्राञ्ज' है। वि�षय–प्रवितपा*न का ढंग सर' है। �ाक्य छोटे–छोटे हैं परन्तु उनमें गूढ़ अभिभप्राय विनविहत है। प्राय: प्रत्येक अध्याय का आर� न�ीन ढंग से विकया गया है। प्रत्येक यज्ञ के प्रर्थम सूत्र में यज्ञ के प्रयोजन, सम्पा*न–का', अधिधकारी, कामना आदि* का विन*�श विकया है, जिजसमें प्रर्थम सूत्र के पढ़ते ही पूर ेअध्याय को पढ़न ेकी जिजज्ञासा होती है। यर्थास्थान पारिरभाविषक शब्*ों तर्था पात्रों के स्�रूप का भी उल्'ेख विकया गया है। पूरे *स�ें भाग में �ेदि*–रचना का �ण7न इस श्रौतसूत्र की मौलि'क वि�शेषता है। ग्रन्थ की शै'ी आदि* से अंत तक एक–जैसी है। जहाँ कहीं भी 'म्बे �ाक्यों का प्रयोग है, �हाँ ब्राह्मण ग्रन्थों का स्पv प्रभा� परिर'भिbत होता है। [संपादि*त करें ] विन6कष7संbेप में कहा जा सकता है विक इस श्रौतसूत्र का श्रौत साविहत्य में वि�लिशv स्थान है। सूत्रकार को श्रौतयागीय परम्पराओं की पूण7 जानकारी र्थी। यह श्रौतसूत्र सामाजिजक ए�ं सांस्कृवितक दृधिv से भी अत्यन्त महत्�पूण7 है। उर्त्तार�ैदि*क का'ीन सभ्यता, संस्कृवित ए�ं समाज को जानने के लि'ए इस श्रौतसूत्र का परिरशी'न अवित आ�श्यक है। मैत्रायणी शाखा की यालिज्ञक परम्परा को सुरभिbत और अbुण्ण बनाए रखन ेका श्रेय के�' मान� श्रौतसूत्र को ही प्राप्त है। यद्यविप श्रौतसूत्रकार न ेयागों के विनरूपण में मैत्रायणी संविहता को मुख्य रूप से आधार बनाया है, तर्था प्राचीनों के प्रवित गौर�बुजिद्ध रखते हुए मैत्रायणी संविहता में अप्राप्त स�7मेध, एकाह, अहीनादि* यागों का विनरूपण करने के लि'ए मैत्रायणी शाखेतर शाखा की संविहताओं और ब्राह्मण ग्रन्थों का आश्रय भी लि'या है। [संपादि*त करें ] व्याख्याए ँए�ं संस्करण

मान� श्रौतसूत्र के प्राक्सोम भाग पर कुमारिर' भट्ट की टीका का संपा*न गोल्डस्टकर न ेविकया है, जो 'न्*न से 1861 में छपी है। हस्त'ेख रूप में बा'कृ6णकृत 'मान� सूत्र�ृभिर्त्ता' भी उप'ब्ध है। 1–5 भागों में फे्रडरिरक क्नायेर (F. Knauer¬) के द्वारा सम्पादि*त तर्था 1900–1903 के मध्य सैंट पीटस7बग7 से यह श्रौतसूत्र प्रकालिशत है। षष्ठ पाठ का संपा*न गेल्डर न े1919 में विकया र्था। गेल्डर (V. M. Van Gelder) न ेही 1961 में सम्पूण7 ग्रन्थ को दि*ल्'ी से संपादि*त कर प्रकालिशत कराया है। 1985 में इसी का पुनमु7द्रण हुआ। लिचं. ग. काशीकर न ेभी मान� श्रौतसूत्र के सम्पा*न में महत्�पूण7 योग*ान दि*या है।

�ाराह श्रौतसूत्र / Varah Shrautsutraअनुक्रम[छुपा]1 �ाराह श्रौतसूत्र / Varah Shrautsutra 2 पारिरभाविषक सूत्रों 3 हवि�द्र7व्य 4 यूपछे*न 5 अश्वमेध याग 6 व्याख्याएँ ए�ं संस्करण 7 टीका दिटप्पणी 8 सम्बंधिधत लि'ंक

कृ6णयजु��* की मैत्रायणी शाखा से सम्बद्ध �ाराह श्रौतसूत्र क'े�र में 'घ ुतर्था कानक्रम से पxात�त= होने पर भी श्रौत साविहत्य में अपना वि�लिशv स्थान रखता है। यह श्रौतसूत्र तीन अध्यायों में वि�भक्त है– प्राक्सोधिमक, अग्निग्नचयन तर्था �ाजपेय। इन अध्यायों का अ�ान्तर �ग=करण खण्डों तर्था सूत्रों में विकया गया है। �ाराह श्रौतसूत्र में अग्निग्नचयन, *श7पौण7मास, अग्न्याधान, पुनराधान, अग्निग्नहोत्र, पशुबन्ध, चातुमा7स्य, �ाजपेय, द्वा*शाह, ग�ामयन, राजसूय, अश्वमेध ए�ं सौत्रामणी आदि* यज्ञों का विनरूपण है।

[संपादि*त करें ] पारिरभाविषक सूत्रों�ाराह श्रौतसूत्र के प्रर्थम भाग के प्रर्थम अध्याय में पारिरभाविषक सूत्रों का संक'न है। इसमें रर्थकार को भी यज्ञ का अधिधकार दि*या गया है। यहाँ ऋन्तित्�जों की योग्यता पर भी प्रकाश डा'ा गया है। इस श्रौतसूत्र के आर� में अग्न्याधानेधिv का �ण7न है। इस प्रसंग में वि�भिभh स�ारों, यर्था– �ाराहवि�विहत, �ल्मीक �पा आदि* का विनरूपण हुआ है। मान� की ही भाँवित इस श्रौतसूत्र में अग्न्याधान में ब्रह्मौ*न तर्था व्रतोपायन के विनयमों का उल्'ेख है। चारों ऋन्तित्�जों को भिभh–भिभh *भिbणा *ेने का वि�धान अग्न्याधान की समान्तिप्त पर विकया गया है। अग्न्याधान के प्रसंग में इस श्रौतसूत्र में अग्निग्नप�मान, पा�क तर्था शुलिच; इन तीनों इधिvयों का �ण7न है। शर* ्में �ैश्य को, �षा7 में रर्थकार को तर्था अन्य �ण� को लिशलिशर ऋतु में अग्न्याधान करना चाविहए। अग्न्याधान के वि�फ' होने और अभीv फ' की प्रान्तिप्त न होने पर पुनराधानेधिv का वि�धान विकया गया है। पुनराधानेधिv में अग्निग्न �ैश्वानर के लि'ए द्वा*शक–पा'क उत्सा*नीयेधिv का विन�ा7प विकया जाता है। पुनराधान �षा7 अर्थ�ा शर* ्ऋतु में रोविहणी, अनुराधा तर्था पुन�7सु में से विकसी एक नbत्र में विकया जा सकता है। पूणा7हुवित से पू�7 संतवितहोम करना तर्था *भिbणा में स्�ण7 *ेना चाविहए।

[संपादि*त करें ] हवि�द्र7व्यअग्निग्नहोत्र प्रात: तर्था सांयका' अग्निग्न को उदिद्दv कर सम्पादि*त करना चाविहए। कामनानुसार हवि�द्र7व्य का वि�धान है। पशु कामना में दुग्ध से, ग्राम कामना में जौ से, तेजस् कामना में आज्य से, इजिन्द्रय कामना में *धिध से तर्था ब' कामना में तण्डु' से अग्निग्नहोत्र याग काने का वि�धान है। *श7पूण7मास का सम्पा*न स�7कामना से तीस �ष7 तक अर्थ�ा या�ज्जी�न करना चाविहए। *श�धिv के अंग के रूप में अमा�स्या के अपराह्ण में विपण्डविपतृयज्ञ का सम्पा*न करना चाविहए।[1] चातुमा7स्य का �ैश्व*े� प�7 पशुकामना से विकया जाता है। �रुण प्रघास के प्रसंग में मेष–मेषीकरण तर्था कर� पात्रों का �ण7न विकया गया है। शुनासीरीय प�7 का सम्पा*न ग्राम, अh�ृधिv, पशु तर्था स्�ग7 कामना से विकया जाता है।

[संपादि*त करें ] यूपछे*नपशुयाग में �ै6ण� आहुवित *ेकर यूपछे*न करने का वि�चार है। यूज्ञीययूप पाँच अरष्पित्न का होना चाविहए। यूप के काष्ठ का इस श्रौतसूत्र में विन*�श नहीं विकया गया है। पशु अंगों का भी वि�स्तृत �ण7न उप'ब्ध होता है। ब्राह्मण अर्थ�ा bवित्रय को शर* ऋतु में �ाजपेय याग करना चाविहए। इस याग में सत्रह *ीbा और तीन उपस* होते हैं। सप्त*श संख्या का इस याग में वि�शेष महत्� है। प्रजापवित हेतु सप्त*श–पशु का वि�धान है। यूप सप्त*श अरष्पित्न मात्र 'म्बे होते हैं। सभी ऋन्तित्�क् विहरण्यस्त्रज् धारण करते हैं।[2] �ाजपेय याग की *भिbणा में भी सप्त*श संख्या का योग प्राप्त होता है। �ाजपेय याग की समान्तिप्त ब्रहस्पवितस� नामक कृत्य से होती है। ग�ामयन यज्ञ का आर� पूण7मासी से पू�7 एका*शी को *ीbाकम7 से वि�विहत है। �ाराह श्रौतसूत्र में राजसूय याग का अधिधकारी राजा को बताया गया है। राजसूय याग में अभिभषेचनीय, सां�त्सरिरक चातुमा7स्य, *शपेयादि* कृत्यों का वि�श* �ण7न उप'ब्ध होता है। इस श्रौतसूत्र में चरक सौत्रामणी तर्था कोविक' सौत्रामणी के रूप में *ो सौत्रामभिणयों का विनरूपण विकया गया है।

[संपादि*त करें ] अश्वमेध याग�ाराह श्रौतसूत्र में अश्वमेध याग वि�जिजगीषु के लि'ए वि�विहत है। इस याग में एक �ष7 तक सवि�तृ–प्रसवि�तृ, सवि�तृ–आसवि�तृ तर्था सत्यप्रस�–सवि�तृ हेतु तीन हवि�यों से यजन यज्ञानुष्ठाता द्वारा विकया जाता है। अश्व को प्रbालि'त करके उसका उपाकरण करते हैं। इस उपाकृत अश्व के मुख से 'ेकर अग'ी टाँगों तक के भाग को मविहषी कसाम्बु के ते' से लिचकना करती है। उससे आगे नाभिभ तक के प्र*ेश में �ा�ाता गुग्गु' का ते'

और उसके आगे पृष्ठ तक के अ�लिशv भाग में परिर�ृक्ता मुस्तकृत का ते' चुपड़ती है।[3] इसके पश्वात तीनों– मविहषी, �ा�ाता और परिर�ृक्ती क्रमश: स्�ण7, रजत और शंख मभिणयाँ सहस्त्र संख्या में अश्व के बाँधती हैं। मविहषी अभिभषेक के योग्य राजपुत्रों और सौ पुवित्रयों के सार्थ ‘भू’ मन्त्र से, �ा�ाता ‘भु�:’ मन्त्र से राजाओं और उनकी सौ पुवित्रयों सविहत अश्वाङ्गों में क्रमश: स्�ण7, रजत और शंखमभिणयों को प्रवि�v कराकर अश्वाभिभषेक करती हैं। अश्वमेधयाजी मृत्यु तर्था ब्रह्महत्या जैसे पाप से मुक्त हो जाता है। इस प्रकार विन6कष7 रूप में कहा जा सकता है विक �ाराह श्रौतसूत्र में यज्ञों का संभिbप्त क्रधिमक वि��रण धिम'ता है। सोमयागों की प्रकृवित अग्निग्नvोम याग तर्था अन्य अनेक एकाहों, अहीनों, सत्रों, पुरुषमेध, स�7मेध जैसे महत्�पूण7 कृत्यों का इसमें अभा� है।

[संपादि*त करें ] व्याख्याए ँए�ं संस्करण�ाराह श्रौतसूत्र पर कोई भी व्याख्या उप'ब्ध नहीं है। प्रो. का'न्* और डॉ. रघु�ीर के द्वारा सम्पादि*त रूप में यह श्रौतसूत्र प्रर्थम बार 'ाहौर से सन् 1933 में मेहरचन्* 'क्ष्मण*ास के द्वारा प्रकालिशत हुआ र्था। इसी का पुनमु7द्रण 1971 ई. में दि*ल्'ी में हुआ। सन् 1988 में पुणे से श्री लिचं. ग. काशीकर के द्वारा सुसम्पादि*त और शोधपूण7 संस्करण प्रकालिशत हुआ है, जो स�7श्रेष्ठ है। विहरण्यकेलिश श्रौतसूत्र / Hiranyakeshi Shrautsutra

अनुक्रम[छुपा]1 रचधियता 2 रचना – शै'ी 3 भाषा – शै'ी 4 व्याख्याएँ 5 टीका दिटप्पणी 6 सम्बंधिधत लि'ंक

कृ6णयजु��* श्रौतसूत्रों के मध्य इसका स्थान आपस्तम्ब के अनन्तर है। '�ैजयन्ती' कार महा*े� *ीभिbत न ेइसके रलिचयता को नामकरण के यर्थार्थ7 अनुरूप बत'ाते हुए सूत्रग्रन्थ को विनगूढ भा�ों और अचर्शिचंत वि�धिधयों से युक्त कहा है– 'अती� गूढार्थ7 मनन्य*र्शिशंतं न्यायैx युकं्त रचयhसौ पुन:। विहरण्यकेशीवित यर्थार्थ7 नामभाग भूद्वरार्त्ताुv मुनीन्द्रसम्मतात्।।' भा6य के उपोद्घातगत एक अन्य पद्य में सत्याषाढ को भग�ान वि�6णु का अ�तार माना गया है– 'श्रीम* ्भग�तो वि�6णोर�तारेण सूवित्रतम्। सत्याषाढेन ........।' व्याख्याकार महा*े� न ेये सूचना भी अवंिकत की है विक उनके समय में ही यह सूत्र 'ुप्तप्राय र्था और कहीं–कहीं ही उप'ब्ध र्था। *भिbण में ताम्रपण= न*ी के तटीय bेत्रों में इसका वि�शेष प्रचार र्था– 'ुप्तप्रायधिम*ं सूत्रं *ै�ा*ासीत् क्�लिचत् क्�लिचत्।*भिbणस्यां ताम्रपण्या7स्तीरेष्पि6�*माहृतम्।।

[संपादि*त करें ] रचधियतातैभिर्त्तारीय शाखा के ही अन्तग7त विहरण्यकेलिश उपशाखा है, जो सूत्र–भे* पर विनभ7र है, संविहता–भे* पर नहीं। विहरण्यकेलिश आचाय7 को सत्या�'म्बन के कारण अपने विपता से सत्याषाढ नाम धिम'ा र्था। �ही इस सूत्र के प्रणेता माने जाते हैं। सम्पूण7 विहरण्यकेलिश कल्प में महा*े� के अनुसार सर्त्तााईस प्रश्न हैं, जिजनमें से *ो (19–20) गृह्यसूत्र, एक (25 �ाँ) शुल्बसूत्र, *ो धम7सूत्र (26–27) माने जाते हैं। इस प्रकार श्रौतसूत्र की व्यान्तिप्त कु' 22 प्रश्नों में है तर्था प्रश्नों का अ�ान्तर वि�भाजन पट'ों में है। इसकी वि�षय–�स्तु इस प्रकार है– प्रश्न 1 � 2– परिरभाषा पू�7क, प्रश्न 3– अग्न्याधेय, अग्निग्नहोत्र और आग्रयण, प्रश्न 4– विनरूढ पशुबन्ध, प्रश्न 5– चातुमा7स्य, प्रश्न 6– याजमान की सामान्य और वि�शेष वि�धिध, प्रश्न 7 से 10– ज्योवितvोम, प्रश्न 11 � 12– अग्निग्नचयन, प्रश्न 13– �ाजपेय, राजसूय तर्था चरक सौत्रामणी, प्रश्न 14– अश्वमेध, पुरुषमेध, स�7मेध, प्रश्न 15– प्रायभिxर्त्ता, प्रश्न 16– द्वा*शाह, ग�ामयन (महाव्रत सविहत), प्रश्न 17– अयन, एकाह, अहीन, प्रश्न 18– सत्रयाग, प्रश्न 19 से 21– होत्र, प्र�र, प्रश्न 22– कामेधिvयाँ तर्था काम्यपशुयाग, प्रश्न 23– सौत्रामणी (कौविक'ी), स�, काठक चयन, प्रश्न 24– प्र�ग्य7।

भारद्वाज और आपस्तम्ब श्रौतसूत्रों का इस पर बहुत प्रभा� है। विपतृमेध सूत्र तो सम्पूण7 रूप से ही भारद्वाज का 'े लि'या गया है, जैसा विक महा*े� जी का कर्थन है– 'विपतृमेधस्तु भारद्वाजीयो मुविनना परिरगृहीतौ द्वौ प्रश्नौ।'

[संपादि*त करें ] रचना–शै'ीयद्यविप इसकी रचना–शै'ी बहुत ही व्य�ल्लिस्थत है, तर्थाविप श्रौत कम� के मध्य गृह्यसूत्रों का समा�ेश कुछ अटपटा–सा 'गता है। इस सन्*भ7 में के�' इतना ही कहा जा सकता है विक 18 �ें प्रश्न तक सत्रान्त अधिधकांश श्रौतयाग विनरूविपत हैं। यही ल्लिस्थवित प्र�ग्य7 की भी है, जो विबल्कु' अंत में रखा गया है। 21 �ें प्रश्न में हौत्रसूत्रों के रूप में भी आपस्तम्ब श्रौतसूत्र के हौत्र परिरलिशv की ही पुन: प्रस्तुवित है। अनेक स्थ'ों पर सत्याषाढ श्रौतसूत्र में मैत्रायणी और काठक संविहताओं से भी मन्त्र गृहीत हैं। अश्वमेधीय प्रकरण में अश्व रbकों को अपन ेभोजन आदि* के लि'ए अश्वमेध प्रविक्रया से अनभिभज्ञ ब्राह्मणों को 'ूटने का विन*�श वि�लिचत्र प्रतीत होता है।*

[संपादि*त करें ] भाषा–शै'ीसत्याषाढ श्रौतसूत्र की भाषा–शै'ी में सर'ता और स्पvता है। सूत्र–रचना में प्रसंग के अनुरूप 'घ�ुाक्यता तर्था *ीघ7�ाक्यता *ेखी जा सकती है। उ*ाहरण के लि'ए ब्राह्मण ग्रन्थों के प्रवितपाद्य से सम्बद्ध ये सूत्र द्रvव्य हैं:– 'मन्त्रब्राह्मणयो��* नामधेयम्,कम7वि�धानं ब्राह्मणाविन, तचे्छषोऽर्थ7�ा*:, विनन्*ा–प्रशंसा,परकृवित: पुराकल्पx'*

[संपादि*त करें ] व्याख्याएँइस श्रौतसूत्र पर बहुसंख्यक व्याख्याए ँहैं, विकन्तु दुभा7ग्य से सभी अपूण7 हैं। प्रर्थम छह प्रश्नों तर्था 21 �ें प्रश्न पर महा*े� *ीभिbतकृत '�ैजयन्ती' नाम्नी सुप्रलिसद्ध व्याख्या धिम'ती है, जिजसका वि�स्तृत उपोद्घात वि�शेष रूप से उल्'ेखनीय है। श्रौतसूत्र की यह वि�श* व्याख्या उसे समझन ेमें �ास्त� में स�ा7धिधक सहायक है। 7–10 प्रश्नों पर गोपीनार्थ *ीभिbत न े'ज्योत्सना' व्याख्या लि'खी है। महा*े� शास्त्री (20 �ीं शती) की प्रयोग–चजिन्द्रका 11–25 प्रश्नों पर है। प्रर्थम 10 प्रश्नों तर्था 24 �ें प्रश्न पर हो. क. �ाचेश्वर सुधी की व्याख्या उप'ब्ध है। महा*े� सोमयाजी न ेइस सूत्र के अनुसार श्रौतसूत्रों की बहुसंख्यक पद्धवित रची हैं। 'प्रयोगरत्नमा'ा' भी इस सन्*भ7 में उल्'ेखनीय है। सत्याषाढ श्रौतसूत्र का आनन्*ाश्रम पूना से के�' एक संस्करण ही सन ्1907 में प्रकालिशत हुआ है, जिजसका सम्पा*न काशीनार्थ शास्त्री आगाशे न ेविकया है। �ैखानस श्रौतसूत्र / Vaikhanas Shrautsutra

अनुक्रम[छुपा]1 हस्त'ेख 2 आनन्*संविहता 3 वि�षय �स्तु 4 अशे्वमेध 5 शै'ी 6 संस्करण 7 सम्बंधिधत लि'ंक

श्रौतसूत्रों में यह सबसे अवंितम माना जाता है। इसका सम्बन्ध �ै6ण�ों के �ैखानस सम्प्र*ाय से है जिजसमें नारायण (वि�6णु) की उपासना प्रचलि'त है। *ाश7विनक दृधिv से �ैखानसों की आस्था वि�लिशvा दै्वत के तत्�त्रय–जी�, ईश्वर और प्रकृवित में है। ये लिशखा, वित्र*ण्ड और यज्ञोप�ीत धारण करते हैं। वितरूपवित सदृश मंदि*रों के अच7क प* पर इन्हीं की विनयुलिक्त की जाती है। तप्त चक्राङ्क में इनकी आस्था नहीं है। श्री �ै6ण� सम्प्र*ाय के अन्य आचाय� तर्था उनके ग्रन्थों में भी उनकी अधिधक श्रद्धा नहीं है। आन्ध्र bेत्र के विकस्तना, गुंटूर, गो*ा�री जिज'ों में ये अधिधक परिरमाण में हैं। गंजाम, वि�शाखापट्टनम्, �े'मोर, चुड़घा, कोचीन, बेल्'ड़ी, अनन्तपुरम्, कुनू7', तंजोर, वित्रचनापल्'ी प्रभृवित जनप*ों में भी ये र्थोडे़ बहुत पाए जाते हैं।

[संपादि*त करें ] हस्त'ेख�ैखानस श्रौतसूत्रों की अधिधकांश पाण्डुलि'विपयाँ *भिbण भारत में ही प्राप्त हुईं हैं। साम्प्र*ाधियक मान्यताओं के अनुसार इसकी रचना वि�खना मुविन न ेकी, जैसा विक कुछ हस्त'ेखों में प्रर्थम प्रश्न के अंत में लि'खा धिम'ता है–'इवित श्री �ैखानसे वि�खनसा ऋविषणा प्रोके्त मू'गृह्ये श्रौतसूत्रे।' एक अन्य हस्त'ेख के आरंभ में भी वि�खना मुविन की �ं*ना की गई है– श्री 'क्ष्मी�ल्'भाद्यान्तां वि�खनामुविन मध्यमाम्।अस्म*ाचाय7 पय7न्तां �न्*े गुरुपरम्पराम्।।

[संपादि*त करें ] आनन्*संविहता�ैखानसों की मान्यता के अनुसार �ैखानस ब्रह्मा के अ�तार रे्थ, जिजन्होंने वि�लिशvता दै्वत के अध्ययनार्थ7 भूत' पर आकर नधैिमषारण्य में तपस्या की र्थी। उनकी तपस्या से प्रसh होकर वि�6णु न ेउन्हें �ैखानस सूत्र समझाया र्था। वि�खनस् न े'*ैवि�कसूत्रम्' (*े�पूजा की वि�धिधयों के प्रवितपा*क ग्रन्थ) की रचना की। इसका संbेपीकरण भृगु, मरीलिच, अवित्र और कश्यप ऋविषयों न ेविकया। इस संभिbप्त संस्करण का नाम पड़ा 'भग�च्छास्त्रम्'।

अनुष्ठान संबन्धी समस्त मन्त्रों का संक'न '�ैखानसमन्त्रप्रश्नम्' संज्ञक पृर्थक ग्रन्थ में विकया गया है। �ैखानस श्रौतसूत्र के व्याख्याकार श्री विन�ास *ीभिbत न ेइसे 'औखेय सूत्र' कहा है। �ैखानस सम्प्र*ाय की 'आनन्*संविहता' के अनुसार 'औखेय' का अर्थ7 भी �ैखानस ही है। सत्याषाढ श्रौतसूत्र के व्याख्याकार महा*े� जी न ेऔखेय शाखा को खाल्लिण्डकेय शाखा की उपशाखा बत'ाया है।

[संपादि*त करें ] वि�षय �स्तु�ैखानस श्रौतसूत्र में विनरूविपत वि�षय–�स्तु इस प्रकार है:–

प्रश्न वि�षय

प्रश्न 1 अग्न्याधेय और पुनराधेय;

प्रश्न 2 अग्निग्नहोत्र;

प्रश्न 3 से 7 *श7पूण7मास;

प्रश्न 8 � 9 आग्रयण और चातुमा7स्य;

प्रश्न 10 विनरूढ पशुबन्ध;

प्रश्न 11 चरक सौत्रामणी और परिरभाषाए;ँ

प्रश्न 12 से 16 अग्निग्नvोम तर्था प्र�ग्य7;

प्रश्न 17 उक्थ्य, षोडशी, अवितरात्र, अप्तोया7म तर्था �ाजपेय;

प्रश्न 18 � 19 अग्निग्नचयन;

प्रश्न 20 इधिvवि�षयक प्रायभिxर्त्ता;

प्रश्न 21– सोमवि�षयक प्रायभिxर्त्ता।

[संपादि*त करें ] अश्वेमेधअशे्वमेध का नाम्ना एक स्थान* पर उल्'ेख होने पर भी उसका प्रवितपा*न नहीं है। नारायण (वि�6णु) का उल्'ेख उसमें बहुधा है। श्रौतसूत्र में मौलि'कता कम प्रमाण में है। अधिधकांश सामग्री बौधायन, आपस्तम्ब, विहरण्यकेशी श्रौतसूत्रों में गृहीत है।

[संपादि*त करें ] शै'ीश्रौतसूत्र की शै'ी में सर'ता है। का'न्* न ेइसमें प्रयुक्त अप्रचलि'त शब्*ों की 'म्बी तालि'का *ी है, विकन्तु उसमें से बहुत से शब्* पौन: पुन्येन अन्यत्र प्रचलि'त दि*खाई *ेते हैं, यर्था 'घन', '*े�ाह7', 'अनवितनीन्य', 'अनुच्च', 'अभिभभूय', 'कुल्या', 'नायक' इत्यादि*। उस सूची में कुछ शब्* अ�श्य नए हैं, यर्था– 'अ�कावि�'', 'आल्लिच्छद्रक', 'न6ैपुरी6य', 'अविनरूप्र', 'सेष्ट्याधान' इत्यादि*। अग्निग्नकुण्डों, अग्निग्नमंर्थन तर्था यज्ञीय पात्रों का वि�श* �ण7न �ैखानस श्रौतसूत्र की वि�लिशvता है। इस पर श्री विन�ास *ीभिbत की व्याख्या उप'ब्ध होते हुए भी अप्रकालिशत है। कात्यायन श्रौतसूत्र / Katyayan Shrautsutra

अनुक्रम[छुपा]1 वि�षय �स्तु 2 अश्वमेध 3 रचना 4 संस्करण 5 सम्बंधिधत लि'ंक

यह यजु��* की �ाजसनेधिय संविहता की काण्� और माध्यजिन्*न *ोनों शाखाओं से सम्बद्ध है, विकन्तु वि�विनयुक्त मन्त्रों का ग्रहण काण्� शाखा से ही अधिधक विकया गया है। इसका वि�भाजन 26 अध्यायों में है। प्रत्येक अध्याय कवितपय कल्लिण्डकाओं में वि�भक्त है। तीन अध्यायों (22–24) को छोड़कर, जो साम�े*ीय ताण्ड्य महाब्राह्मण के अनुरूप हैं, शेष भाग में शतपर्थ ब्राह्मणोक्त वि�धिधयों का प्रायेण अनुगमन है, जो विनतरां स्�ाभावि�क है। शतपर्थ में भी इसकी काण्�शाखा का अधिधक प्रभा� इस पर परिर'भिbत होता है।

[संपादि*त करें ] वि�षय �स्तुअध्याय–क्रम से कात्यायन श्रौतसूत्र में �र्णिणंत वि�षय–�स्तु का वि��रण इस प्रकार है–

प्रश्न वि�षय

अध्याय 1 परिरभाषा;

अध्याय 2-3 *श7पूण7मास,

अध्याय 4 विपण्डविपतृयज्ञ, *ाbायणयज्ञ, अन्�ार�णीयेधिv, आग्रयणेधिv, अग्न्याधेय तर्था अग्निग्नहोत्र,

अध्याय 5 विनरूढ पशुबन्ध,

अध्याय 6-11 अग्निग्नvोम,

अध्याय 12 द्वा*शाह,

अध्याय 13 ग�ामयनसत्र,

अध्याय 14 �ाजपेय,

अध्याय 15 राजसूय,

अध्याय 16-18 अग्निग्नचयन,

अध्याय 19 कौविक'ी सौत्रामणी,

अध्याय 20 अश्वमेध,

अध्याय 21 पुरुषमेध, स�7मेध, विपतृमेध,

अध्याय 22 एकाह,

अध्याय 23-24 अहीन,

अध्याय 25 प्रायभिxर्त्ता,

अध्याय 26 प्र�ग्य7।

जातूकण्य7, �ात्स्य तर्था बा*रिर आचाय� का इसमें नाम्ना उल्'ेख है। अन्य शाखान्तरीय अर्थ�ा स्�शाखीय मतों का उल्'ेख 'इत्येके' अर्थ�ा 'इत्येकेषाम्' कहकर विकया गया है। जैधिमविन के पू�7मीमांसा सूत्रों का इस पर बहुत अधिधक प्रभा� है। पू�7मीमांसागत श्रुवित, लि'ंग, �ाक्य, प्रकरण, स्थान और समाख्या; इन छ: प्रमाणों का भी इसमें उल्'ेख है। क्रम, तन्त्र, अवित*ेश प्रभृवित मीमांसा की पारिरभाविषक शब्*ा�'ी का बहुधा प्रयोग *ेखा जा सकता है।

[संपादि*त करें ] अश्वमेधसूत्रकार का मुख्य उदे्दश्य कम7 के व्य�हारिरक स्�रूप का यर्थातथ्य प्रवितपा*न करना है, इसलि'ए शतपर्थ ब्राह्मण के *शम काण्ड (अग्निग्न रहस्य) से गृहीत सामग्री कात्यायन श्रौतसूत्र में नहीं दि*ख'ाई *ेती, क्योंविक उसमें रहस्यमय पb पर अधिधक ब' है। सौत्रामणी और अश्वमेध के विनरूपण में सूत्रकार न ेशतपर्थोक्त क्रमों से भिभh प* स्�ीकार विकए हैं। एकाह और अहीन यागों का वि��रण ताण्ड्यानुसार अधिधक है। अश्वमेध की *भिbणा में यजमान राजा के द्वारा ऋन्तित्�जों के विनधिमर्त्ता वि�भिभh राविनयों के *ान का भी वि�धान है। वि�कल्प में राविनयों की अनुचरिरयाँ भी *ी जा सकती हैं।

[संपादि*त करें ] रचनाकात्यायन श्रौतसूत्र की कुछ सामग्री का सादृश्य बौधायन श्रौतसूत्र से भी है। परम्परा कात्यायन श्रौतसूत्र के प्रणयन का श्रेय कात्यायन को *ेती है। यह �े ही कात्यायन हैं, जिजन्होंने पाभिणनीय सूत्रों पर �ार्तितंकों की तर्था �ाजसनेधिय प्रावितशाख्य की रचना की है। इनका समय ई. पू�7 तीसरी

शती से पू�7 होना चाविहए। कात्यायन श्रौतसूत्र की रचना अत्यन्त सुव्य�ल्लिस्थत सूत्रशै'ी में हुई है। वि�षय वि��ेचन क्रमयुक्त और सुसम्बद्ध है। �ैदि*क शब्*ा�'ी और अपाभिणनीय प्रयोग भी कहीं–कहीं पाए जाते हैं। कात्यायन श्रौतसूत्र पर लि'ग्निखत व्याख्याओं में भतृ7यज्ञ की व्याख्या स�7प्राचीन मानी जाती है। अनन्त *े� के भा6य के सार्थ ही स्कन्* पुराण * में भी भतृ7यज्ञ का उल्'ेख है, जिजससे ज्ञात होता है विक �े नागर ब्राह्मण रे्थ। 12 �ीं शती के 'वित्रकाण्डमण्डन' तर्था मनुस्मृवित के भा6यकार मेधावितलिर्थ* न ेभी इनका उल्'ेख विकया है। तीसरी प्राचीन व्याख्या कका7चाय7 न ेकी है, जो सम्पूण7 सूत्र पर उप'ब्ध है। आनन्त *े� का भा6य अभी हस्त'ेख के रूप में ही है। आधुविनक का' में पं. वि�द्याधर गौड़ न ेइस पर 'सर'ा�ृभिर्त्ता' की रचना की है।

आष�य कल्पसूत्र / Arsheya Kalpsutraअनुक्रम[छुपा]1 आष�य कल्पसूत्र / Arsheya Kalpsutra 2 स्तोत्रीय ऋचा 3 साम – गान 4 याग दृधिv 5 वि�षय 6 व्याख्या 7 संस्करण 8 टीका दिटप्पणी 9 सम्बंधिधत लि'ंक

सामान्यत: श्रौतसूत्रों और वि�शेष रूप से साम–'bण ग्रन्थों के मध्य इसका अत्यन्त सम्मानपूण7 स्थान है। का'न्* के अनुसार यह 'ाट्यायन ए�ं द्राह्यायण श्रौतसूत्रों की अपेbा अधिधक प्राचीन है।[1] इसके रलिचयता मशक या मशक गाग्य7 माने जाते हैं। परिरमाण की दृधिv से इसमें एका*श अध्याय हैं, जिजनमें वि�भिभh सोमयागों में गेय स्तोमों की क्'ृन्तिप्तयाँ *ी गई हैं, जिजनसे यागों का औद्गात्र पb सम्पh होता है। �स्तुत: सोमयाग वित्रवि�ध होते हैं– एकाह (एक सुत्यादि*�स �ा'े) याग, अहीन (*ो से ग्यारह सुत्यादि*�सों �ा'े) तर्था सत्रयाग (12 से 'ेकर तीन सौ इकसठ दि*नों में साध्य)।

[संपादि*त करें ] स्तोत्रीय ऋचाआष�यकल्प में एकाह से 'ेकर सहस्त्र सं�त्सरसाध्य सोमयागों से सम्बद्ध वि�वि�ध सामों और उनकी स्तोत्रीय ऋचाओं की सूची मात्र प्र*र्त्ता है, जो विकसी सीमा तक याग–परम्परा में रुलिच न रखन े�ा'े को नीरस भी प्रतीत हो सकती है। प्रार� ग�ामयन सत्रयाग से हुआ है। आष�यकल्प पूण7तया ताण्ड्य ब्राह्मण के क्रम का अनुसर्त्ताा7 है। 361 दि*नों में सम्पद्यमान ग�ामयन सत्र के अनन्तर इसमें एकाह, अहीन और सत्रयागों से सम्बद्ध वि��रण दि*या गया है। श्येन, इषु, सं*ंश और �ज्र प्रभृवित अभिभचार यागों के विनरूपण में, जो पंचनि�ंश ब्राह्मण में न विनरूविपत होकर षडनि�ंश ब्राह्मण में वि�विहत हैं, आष�यकल्प यजु��*ीय क्रम का अनुयायी है, जहाँ श्येन का उल्'ेख साद्यस्क्र के रूप में इषु का ब्रहस्पवितस� के तर्था सं*ेश और �ज्र का एकाह यागों के अनन्तर हुआ है। सोमयागों में गान–वि�विनयोग प्रायेण विनयमत: ऊह और ऊह्य ग्रन्थों से हुआ है, विकन्तु इसके कवितपय अप�ा* भी हैं, जहाँ ग्रामेगेय और अरण्येगेय गानों से भी गान वि�विहत हैं। आष�यकल्प में बत'ाया गया है विक तर्त्तात् सोमयागों के वि�भिभh स्त्रोतों में केन सामों का गान विकया जाना चाविहए और उनकी स्तोत्रगत ऋचाए ँकौन–कौन सी हैं? प्रतीक ऋक् के प्रर्थम पा* से उल्लिल्'ग्निखत हैं, विकन्तु �े उस प्रतीक से आर� होने �ा'े सम्पूण7 तृच के द्योतक हैं। कल्पकार जब यह अनुभ� करते हैं विक ताण्ड्य ब्राह्मण में से विकसी याग की वि�स्तार से स्तोम–क्'ृन्तिप्त *ी गई है, तब �े �हाँ पुनरूलिक्त नहीं करते। हाँ, भा6यकार �र*राज अ�श्य उस स्थ' पर आ�श्यक और अपेभिbत वि��रण जुटाकर न्यूनता की पूर्तितं का प्रयत्न करते हैं।

[संपादि*त करें ] साम–गानसोमयागों के साम–गान की प्रविक्रया अत्यन्त जदिट' है। इसलि'ए यहाँ उसका आंलिशक परिरचय *े *ेना आ�श्यक है। साम–गान *ो भागों में वि�भक्त हैं– पू�7गान और उर्त्तारगान। पू�7गान में ग्रामेगेयगान और अरण्येगेयगान नाम से *ो भाग हैं। इन्हें प्रकृवितगान भी कहते हैं। सोमयाग में उर्त्तारगानों का ही मुख्यतया व्य�हार होता है। ये साम�े* के उर्त्तारार्शिचंक पर आधृत हैं जिजसके 20 अध्यायों पर ऊह और ऊह्यगान प्राप्त होते हैं। उर्त्तारगानों के 'ऊह' और 'ऊह्य' नाम इनके वि�चारपू�7क गान होने की सूचना *ेते हैं। सोमयागों में उद्गातृ–मण्ड' इनका पाँच अर्थ�ा साप्तभलिक्तक रूप में आगान करता है। ये पाँच वि�भलिक्तयाँ क्रमश: इस प्रकार हैं– प्रस्ता�, उद्गीर्थ, प्रवितहार, उपद्र� और विनधन। इन्हीं में ओङ्कार और विहङ्कार का समा�ेश करने से इनकी संख्या सात हो जाती है। प्रस्तोता प्रवितहर्त्ताा7 और उद्गाता अपन–ेअपने भागों का गान करते हैं। अन्तिन्तम विनधन भलिक्त का गान सम�ेत स्�र में होता है। विकसी सामवि�शेष में विकतना–विकतना भाग विकस ऋन्तित्�क् के द्वारा गेय है, यही वि�चार �स्तुत: 'ऊह' है। �ह आधारभूत ऋचा, जिजस पर साम (गान) आधृत होता है, 'योविन' या 'सामयोविन' कह'ाती है। ऊह और ऊह्य गानगततृच की प्रर्थम स्तोत्रीय ऋक् ग्रामेगेयगान या अरण्येगेयगान के एकच7 गान के सदृश होती है और अन्य *ो स्तोत्रीय ऋचाओं में �ही ज्ञान अपनाया जाता है जो प्रर्थम स्तोत्रीय ऋचा में होता है। इस प्रकार उर्त्तारगान में सामान्यत: एक स्तोत्र का सम्पा*न तीन ऋचाओं से होता है। इसे ही 'प्रगार्थ' भी कहा जाता है। इन्हीं तृच रूप स्तोत्रों का आ�ृभिर्त्तापू�7क गान 'स्तोत' है– 'आ�ृभिर्त्तायुकं्त तत्साम स्तोम इत्यभिभधीयते।'[2] स्तोमों की कु' संख्या नौ है– वित्र�ृत, पञ्च*श, सप्त*श, एकनि�ंश, वित्रण�, त्रयस्त्रिस्त्रंश, चतुर्विं�ंश, चतुxत्�ारिरंश तर्था अvचत्�ारिरंश। स्तोमों के वि�भिभh प्रकारों को ‘वि�vुवित’ कहा जाता है। 'पञ्चपल्लिञ्चनी', 'उद्यती', 'कु'ाधियनी' इत्यादि* वि�भिभh वि�vुवितयाँ हैं, जिजनका वि�शेष वि��रण ताण्ड्यमहाब्राह्मण में है।

[संपादि*त करें ] याग दृधिvइस प्रकार याग दृधिv से साम–गान में सामान्यत: बविह6प�मानादि* तैंतीस प्रमुख स्तोत्र, नौ स्तोम और 28 वि�vुवितयाँ व्य�हृत होती हैं। ऋचा को गान रूप *ेने के लि'ए कवितपय परिर�त7न होते हैं, जिजन्हें 'वि�कार' कहा जाता है। इनमें 'स्तोभ' (ऋस्मिग्भh 'औहो�ा', 'हाउ' इत्यादि* अbर) मुख्य हैं। इनके अवितरिरक्त पु6पसूत्र में आइत्�, प्रकृवितभा� इत्यादि* 20 भा� वि�कार भी बत'ाए गए हैं।[3] चतु:संस्थ सोमयागों का नामकरण इन्हीं सामों और स्तोमों के आधार पर सम्पh हुआ है। अग्निग्नvोम, उक्थ्य, षोडशी तर्था अवितरात्र नाम �स्तुत: वि�भिभh स्तोत्रों और स्तोमों के ही उप'bक है। उ*ाहरण के लि'ए सभी सोमयागों के प्रकृवितभूत याग 'अग्निग्नvोम' का नामकरण 'यज्ञायज्ञा �ो अग्नये'* इस आग्नेयी ऋचा में उत्पh 'यज्ञायज्ञीय अग्निग्नvोम' संज्ञक साम से समाप्त होने के कारण हुआ है। इसी प्रकार 'उक्थ्य' संज्ञक तीन वि�शेष स्तोत्रों (साकमश्व साम, सौरभ साम तर्था नाम�ध साम) का एकनि�ंश स्तोम में प्रयोग उक्थ्य संस्थ ज्योवितvोम में होता है।

[संपादि*त करें ] वि�षयअध्याय–क्रम से ‘आष�यकल्प’ में प्रवितपादि*त वि�षयों का वि��रण इस प्रकार है:– प्रर्थम *ो अध्यायों में ग�ामयन सत्र का विनरूपण है, जो �ास्त� में वि�भिभh एकाहों के विनभिxत क्रम में अनुष्ठान से सम्पh होता है। पू�7पb के पह'े *ो दि*नों में अवितरात्र तर्था प्रायणीयेधिv का अनुष्ठान होता है। त*नन्तर पाँच मासों तक वि�भिभh अभिभप्'� षडहों (ज्योवित, गौ, आयु, आयु तर्था ज्योवित संज्ञक एकाहों) तर्था पृष्ठ्य षडहों का अनुष्ठान विकया जाता है। षष्ठ मास में तीन अभिभप्'� षडहों, एक अभिभजिजत तर्था तीन स्�र सामों का अनुष्ठान होता है। अन्तिन्तम दि*न 'वि�षु�त्' संज्ञक होता है। उर्त्तारपb के सप्तम मास में तीन स्�र साम, एक वि�श्वजिजत, तीन अभिभप्'� षडह अनुषे्ठय हैं। अvम से एका*श मास तक पृष्ठ्य तर्था अभिभप्'� षडहों का ही अनुष्ठान होता है। 12 �ें मास में तीन अभिभप्'� षडह, एक आयु, एक गोvोम तर्था द्वा*शाह के 10 दि*न अनुषे्ठय हैं। अन्त में 'महाव्रत' का अनुष्ठान वि�विहत है, जिजसकी कल्पना पbी के वि�भिभh अ�य�ों के रूप में की गई है। यह हास–परिरहास तर्था मनोरंजन से सं�लि'त कृत्य है। तृतीय अध्याय में ज्योवित, गौ:, आयु प्रभृवित एकाहों के सार्थ ही श्येन और इषु सदृश अभिभचार यागों तर्था संस्कारवि�हीन व्रात्यस्तोम यागों का भी वि�धान है। इसी अध्याय में 'स�7स्�ार' नामक वि�'bण याग (जो सुत्या के दि*न मृत्यु–कामना करने �ा'े के द्वारा अनुषे्ठय है) का वि�धान भी हुआ है। चतुर्थ7 अध्याय में चातुमा7स्यों का वि�श* वि��रण है। इनके सार्थ ही उपहव्य, ऋतपेय, दूणाश, �ैश्य स्तोम, तीव्रसुत, �ाजपेय तर्था राजसूय संज्ञक यागों का विनरूपण भी हुआ है। पञ्चम अध्याय में राज, वि�राज, औपश*,् पुन: स्तोम, विद्ववि�ध चतुvोम, उजिद्भ*,् ब'भिभ*,् अपलिचवित, ज्योवित, ऋषभ प्रभृवित का �ण7न हुआ है। 'गोस�' संज्ञक वि�'bण याग, जिजसमें एक �ष7 तक सभी विक्रयाए ँपशु के समान की जाती हैं, का तर्था 'सं*ंश' और '�ज्र' संज्ञक अभिभचार यागों का प्रवितपा*न भी इसी अध्याय में हुआ है। षष्ठ से अvम अध्याय तक वि�भिभh अहीन यागों (*ो सुत्यादि*�सों से 'ेकर 11 सुत्यादि*�सों से युक्त) का विनरूपण विकया गया है। इनमें आंविगरस, चैत्ररर्थ तर्था काविप�न संज्ञक विद्वरात्र हैं, गग7, अश्व, �ै*, छन्*ोमप�मान, अन्त�7सु तर्था पराक संज्ञक वित्ररात्र हैं, अवित्र, जाम*ग्न्य, �लिसष्ठ और �ैश्वाधिमत्र संज्ञक चतुरार्थ7 हैं, *े�, पञ्च शार*ीय और व्रतमध्य नामक पञ्चरात्र हैं। तीन षडह हैं, सात सप्तरात्र हैं, एक अvरात्र है, *ो न�रात्र हैं, चार *शरात्र हैं और एक एका*श रात्र है। न�म अध्याय में 48 सत्रयागों का वि��रण है। *शम तर्था एका*श अध्याय वि�भिभh 'अयन' संज्ञक यागों के वि�धिध–वि�धान के प्रस्ता�क हैं। इनमें आदि*त्यों, अविङ्गरसों, दृवित�ात�ानों, कुण्डपाधिययों, तपभिxतों के अयनों के सार्थ ही सारस्�त, *ाष7�त, सप7रात्र, वित्रसं�त्सर, प्राजापत्य (सहस्त्र सं�त्सरसाध्य) तर्था वि�श्वसृजामयन प्रमुखतया उपपादि*त हैं। कवितपय अप�ा*ों को छोड़कर 'आष�यकल्प' सामान्यत: ताण्ड्य महाब्राह्मण का अन�ुत7न करता है।

[संपादि*त करें ] व्याख्या'आष�यकल्प' पर �र*राज की �ैदु6यपूण7 व्याख्या उप'ब्ध है जिजसका नाम है 'वि��ृवित'। आर� में 'गभग 90 पृष्ठों का उनका उपोद्घात सोमयागों के स्�रूप के परिरज्ञान के लि'ए अत्यन्त उपा*ेय है। व्याख्या की पुष्पि6पका से ज्ञात होता है विक �र*राज के विपता का नाम �ामनाय7 तर्था विपतामह का नाम अनन्तनारायण यज्�ा र्था। �े तधिम'नाडु के विन�ासी तर्था श्री �ै6ण� सम्प्र*ाय के अनुयायी रे्थ। साम�े*ीय राणायनीय शाखा से उनका वि�शेष सम्बन्ध र्था। bुद्र कल्पसूत्र / Kshudra Kalpsutra

अनुक्रम[छुपा]1 प्रपाठक 2 याग – क्'ृन्तिप्त 3 भाषा और शै'ी 4 व्याख्या 5 संस्करण 6 टीका दिटप्पणी 7 सम्बंधिधत लि'ंक

यह भी मशक गाग्य7कृत है और �स्तुत: आष�यकल्प का विद्वतीय भाग है, जिजसे का'ान्तर से अन्य साम�े*ीय ग्रन्थों की भाँवित व्याख्याकारों न ेस्�तन्त्र ग्रन्थ मान लि'या। 'विन*ान सूत्र' तर्था 'उपग्रन्थ सूत्र' से भी इसी तथ्य का समर्थ7न होता है। व्याख्याकार श्री विन�ास न ेइसे 'उतर कल्पसूत्र' कहा है।

[संपादि*त करें ] प्रपाठकसम्पूण7 ग्रन्थ तीन प्रपाठकों तर्था छह अध्यायों में वि�भक्त है। जैसा विक नाम से स्पv है, इसमें bुद्र श्रौत यागों–सोमयागों का विनरूपण है। प्रर्थम प्रपाठक के अन्तग7त प्रर्थम और विद्वतीय अध्यायों में वि�भिभh प्रकार के काम्य याग और प्रायभिxर्त्ता �र्णिणंत हैं। विद्वतीय प्रपाठक (विद्वतीय और तृतीय अध्यायों) में �ण7कल्प, उभय सामयज्ञ, प्र�ह7याग तर्था अग्निग्नvोम, चतुर्थ7 अध्याय में पृष्ठ्य षडहानुकल्प द्वा*शाहानुकल्प और तृतीय प्रपाठकगत पञ्चम तर्था षष्ठ अध्यायों में वि�भिभh द्वा*शाहगत �विकल्प याग विनरूविपत हैं। इस प्रकार bुद्र कल्पसूत्र में 85 एकाहयागों, 22 पृष्ठ्यषडहों तर्था अनेकवि�ध द्वा*शाहों का �ण7न है। ताण्ड्य ब्राह्मण का अनुसरण इसमें के�' काम्य और प्रायभिxर्त्ता विनरूपण के सन्*भ7 में ही हैं। प्रायभिxर्त्ता यागों के सन्*भ7 में नराशंस और उप*ंशन सदृश कवितपय याग भी छूट गए हैं।

[संपादि*त करें ] याग–क्'ृन्तिप्तआष�य की तु'ना में bुद्र कल्प में वि�स्तार से याग–क्'ृन्तिप्त *ी गई है। इसमें वि�vुवितयों और सम्पत् (वि�भिभh छन्*स्क सामों की अbर गणना) का भी उल्'ेख है। इस सन्*भ7 में इसकी साम�े*ीय ब्राह्मणों से समानता है। उल्'ेख्य है विक bुद्र कल्पसूत्र में प्रायभिxर्त्ता यागों का कल्प सम्पभिर्त्ताजन्य वि��रण *ेने के पxात् विकसी अन्य शाखा का भी अनुसरण विकया गया है– अत: परं bुद्र तन्त्रोक्तानां साम्नां शाखान्तरानुसारेण कल्पमाह। इसमें कवितपय ऐसे यागों का वि��रण है जो सामान्यत: अन्य श्रौतसूत्रों में अनलु्लिल्'ग्निखत हैं, यर्था ऋन्तित्�गपोहन[1], पुरस्तात् ज्योवित: तर्था शुक्रजातय: इत्यादि*।

[संपादि*त करें ] भाषा और शै'ीभाषा और �ण7न शै'ी की दृधिv से 'bुद्र कल्पसूत्र' वि�शेष रूप से उसका अन्तिन्तम भाग, सूत्रग्रन्थों के सदृश न होकर ब्राह्मण – ग्रन्थों के समान हैं। सूत्रों के समान संल्लिश्लvता, संभिbप्तता, �चोभङ्गी तर्था �ाक्य वि�न्यास की प्रान्तिप्त इसमें नहीं होती। इसमें अनेक स्थ'ों पर छान्*स प्रयोग भी दि*ख'ाई *ेते हैं, यर्था– 'जाधिमतायै' ('जाधिमताया' के स्थान पर)।

[संपादि*त करें ] व्याख्याbुद्र कल्पसूत्र पर शतक्रतु कुमार ताताचाय7 के आत्मज श्री विन�ास की वि�श* व्याख्या उप'ब्ध है। कुमार ताताचाय7 तंजौर (तंजा�ुर) के राजा उच्युत राय (सन ्1561 ई. से 1614 ई.) के कृपापात्र रे्थ। ताताचाय7 न ेस्�रलिचत नाटक 'परिरजातहरण' में सूचना *ी है विक उनके सात पुत्र रे्थ, जिजन्होंने अनेक ग्रन्थों की रचना की। श्री विन�ास न ेकम7काण्ड के एक अन्य ग्रन्थ 'पञ्चका' विक्रया*ीप' का प्रणयन भी विकया र्था। इस �ंश के वि�षय में 'ना�'क्कं ताताचाय7:', 'शतक्रतु चतु��दि*न:' प्रभृवित वि�रुद्ध अत्यन्त प्रलिसद्ध हैं। कृ6णयजु��* के अध्येता होने पर भी श्री विन�ास स�7शाखीय कम7काण्ड में विन6णात प्रतीत होते हैं। 'ाट्यायन श्रौतसूत्र / Latyayan Shrautsutra

अनुक्रम[छुपा]1 प्रपाठक – क्रम 2 व्याख्याएँ 3 संस्करण 4 टीका दिटप्पणी 5 सम्बंधिधत लि'ंक

'गोभिभ'गृह्यकम7 प्रकालिशका' के अनुसार कौर्थुम शाखीय साम�े*ीय श्रौतसूत्रों में इसका तृतीय स्थान है। इसमें 10 प्रपाठक हैं। सप्तम प्रपाठक में 13 खाल्लिण्डकाए ँहैं और *शम में 201, शेष प्रपाठकों में से प्रत्येक में 12 खल्लिण्डकाए ँहैं। इस प्रकार 'ाट्यायन श्रौतसूत्र में कु' 129 खल्लिण्डकाए ँहैं। कुमारिर' भट्ट के कर्थनानुसार ''ाट्यायन' का नाम 'ाट प्र*ेश (गुजरात) के आधार पर है। त*नुसार विकसी 'ाटीय व्यलिक्त के द्वारा विनर्मिमंत होने के कारण यह 'ाट्यायन कह'ाता है।*

[संपादि*त करें ] प्रपाठक–क्रमकल्पानुप* तर्था द्राह्ययायण श्रौतसूत्र में 'ाट्यायन का उल्'ेख है। प्रपाठक–क्रम से पवितपाद्य वि�षय का वि��रण अधोलि'ग्निखत है:–

प्रपाठक वि�षय

प्रपाठक 1 परिरभाषाए ँतर्था ऋन्तित्�ग्�रण।

प्रपाठक 2 अग्निग्नvोम ए�ं इससे सम्बद्ध याग।

प्रपाठक 3 षोडलिशवि�षयक द्रव्य वि�धान।

प्रपाठक 4 �ाजिजभbण।

प्रपाठक 5 चातुमा7स्य, �रुण प्रघास तर्था सोमचमस।

प्रपाठक 6 सामवि�धान तर्था द्वयbर प्रवितहार।

प्रपाठक 7 चतुरbर प्रवितहार तर्था गायत्रगान।

प्रपाठक 8 एकाह, अहीन तर्था �ाजपेय याग।

प्रपाठक 9 राजसूय।

प्रपाठक 10 सत्रयाग तर्था उसकी परिरभाषाए।ँ

इसमें कु' 2641 सूत्र हैं। याग–क्रम को छोड़कर, वि�षय�स्तु की दृधिv से यह ताण्ड्य ब्राह्मण का प्राय: अनुसरण करता है। इसलि'ए ब्राह्मणोक्त वि�धिधयों के स्पvीकरण के लि'ए सायणाचाय7 सदृश भा6यकार प्राय: इसी को उद्धतृ करते हैं। 'ाट्यायन श्रौतसूत्र में ताण्ड्य के अवितरिरक्त धानञ्जय्य, शाल्लिण्डल्यायन, गौतम, शौलिच�ृभिb, bैरक'स्मि�, कौत्स, �ाष7गण्य, 'ामकायन, राणायनी–पुत्र, शाट्यायविन तर्था शा'ङ्कायविन नामक आचाय� के मतों का उल्'ेख हुआ है। कुमारिर' भट्ट का कर्थन है विक इसमें 'स्तु�ीरन' जैसे अपाभिणनीय प्रयोग पाए जाते हैं।

[संपादि*त करें ] व्याख्याएँइस श्रौतसूत्र पर अग्निग्नस्�ामीकृत प्राचीन भा6य प्राप्त होता है। अग्निग्नस्�ामी का अनेक प्राचीन व्याख्याकारों न ेउल्'ेख विकया है। अस्को परपो'ा के अनुसार अग्निग्नस्�ामी मगध विन�ासी रे्थ, क्योंविक उन्होंने कुमारगुप्त का उल्'ेख विकया है।[1] दूसरी व्याख्या रामकृ6ण *ीभिbत उपाख्य नानाभाई (17 �ीं शती) की है। अग्निग्नvोम भाग पर मुकुन्* झा बख्शी की व्याख्या भी प्रकालिशत हुई है। द्राह्यायण श्रौतसूत्र / Drahyayan Shrautsutra

अनुक्रम[छुपा]1 हस्त'ेख और पट' 2 सूत्र 3 व्याख्याएँ 4 संस्करण 5 टीका दिटप्पणी 6 सम्बंधिधत लि'ंक

इसका सम्बन्ध राणायनीय शाखा से है। द्राह्यायण श्रौतसूत्र के नामान्तर हैं– छन्*ोग सूत्र, प्रधान सूत्र तर्था �लिसष्ठ सूत्र। राणायनीय शाखा के अनुयायी आज कना7टक के लिशमोगा, उर्त्तारी कनागा जिज'ों में, तधिम'नाडु में ताम्रपण= न*ी के तट�त= bेत्रों, उर्त्तारी आन्ध्र और उड़ीसा के सीमान्त भा्र में ही अधिधकांशतया पाए जाते हैं। उनके अवितरिरक्त *भिbण के कौर्थुम शाखीय (मू'त: 'ाट्यायनीय) साम�ेदि*यों न ेभी प्रो. बेल्लिल्'कोर्त्ताु रामचन्द्र शमा7 की सूचनानुसार, द्राह्यायण श्रौतसूत्र को ही स्�ीकार कर लि'या है। अस्को परपो'ा न ेभी यह इंविगत विकया है विक *भिbण में 'ाट्यायन श्रौतसूत्र के हस्त'ेख कम ही धिम'े हैं। इसके वि�परीत द्राह्यायण श्रौतसूत्र के हस्त'ेख प्राय: धिम' ही जाते हैं।[1] *ोनों ही श्रौतसूत्रों की एकता में सबसे बड़ी भूधिमका साम'bण ग्रन्थों न ेविनभाई है, जो प्राय: समान हैं। प्रो. शामा7 न ेद्राह्यायण और 'ाट्यायन श्रौतसूत्रों के मध्य वि�द्यमान साम्य के आधार पर यह अ�धारणा व्यक्त की है विक 'ाट्यायन श्रौतसूत्र में सुरभिbत विकसी प्राचीन सूत्र को ही द्राह्यायण में पुन: सम्पादि*त रूप में प्रस्तुत विकया है। द्राह्यायण श्रौतसूत्र में खण्डों का वि�भाग बहुधा स्�ाभावि�क प्र�ाह को बाधिधत कर *ेता है।

[संपादि*त करें ] हस्त'ेख और पट'द्राह्यायण श्रौतसूत्र 31 पट'ों में वि�भक्त है। 22 �ें और 28 �ें पट'ों को छोड़कर, जिजनमें पाँच–पाँच खण्ड हैं, शेष पट'ों में प्राय: चार–चार खण्ड हैं। 27 �ाँ पट' भी अप�ा* है– इसमें छ: खण्ड हैं। कुछ हस्त'ेखों में पट' के स्थान पर अध्यायात्मक वि�भाजन भी धिम'ा है। प्रवितपाद्य वि�षय की दृधिv से द्राह्यायण श्रौतसूत्र के प्रर्थम सात पट'ों में ज्योवितvोम (अग्निग्नvोम) का ही विनरूपण हुआ है। अvम से एका*शान्त पट'ों में ग�ामयन (सत्रयाग) का वि��रण है। 12 �ें से 21 �ें तक ब्रह्मा के काय�, हवि�यागों और सोमयागों से सम्बद्ध सामान्य काय7–क'ापों का विनरूपण

है। 22 �ें से 25 �ें पट' तक एकाहयागों का �ण7न है। 28–29 पट'ों में सत्रयागों तर्था 30–31 पट'ों में अयनयागों का विनरूपण है। �ाजपेय, राजसूय और अश्वमेध सदृश बहुचर्शिचंत यागों का �ण7न क्रमश: 24 �ें, 25 �ें तर्था 27 �ें पट'ों में है।

[संपादि*त करें ] सूत्रजैसा विक पह'े कहा गया है, द्राह्यायण की दृधिv में 'ाट्यायन श्रौतसूत्र उपजीव्य रहा है। वि�षय प्रवितपा*न में प्राय: समानता है। सूत्रों के क्रम तर्था उनके वि�भाजन में अ�श्य कहीं–कहीं भिभhता है। द्राह्यायण श्रौतसूत्र में अपेbाकृत कुछ �ृजिद्ध भी दि*ख'ाई *ेती है। अस्को परपो'ा के अनुसार 'ाट्यायन श्रौतसूत्र में के�' 13 सूत्र ऐसे हैं, जिजनके समानान्तर द्राह्यायण श्रौतसूत्र में कोई सूत्र नहीं है, जबविक द्राह्यायण श्रौतसूत्र में 250 से अधिधक ऐसे सूत्र हैं, जिजनके समानान्तर 'ाट्यायन श्रौतसूत्र में सूत्र उप'ब्ध नहीं हैं।

[संपादि*त करें ] व्याख्याएँरुद्रस्कन्* की कृवित 'औद्गात्र सारसंग्रह' के अवितरिरक्त अग्निग्नस्�ामी तर्था धन्तिन्�न ्न ेमखस्�ामी की प्राचीन व्याख्या का उल्'ेख विकया है। यह अद्या�धिध प्रकालिशत है। उप'ब्ध और प्रकालिशत व्याख्या है धन्तिन्�न ्कृत '*ीप'। धन्तिन्�न ्में पुष्पि6पका में जो श्लोक दि*ए हैं त*नुसार �े साम�े*ीय औद्गात्र तन्त्र के ग�ीर वि�द्वान ही नहीं, स्�यं ही सोमयागों के अनुष्ठाता रे्थ– विन*ानकल्पोग्रन्थ ब्राह्मणाविन पुन: पुन:। समीक्ष्य धन्�ी मेधा�ी *ीपमारोपयत् सु्फटम्।। इवित छन्*ोगसूत्रस्य सुतसोमेन धन्तिन्�ना। आरोविपत: प्र*ीपोऽयं प्रीयतां पुरुषोर्त्ताम:।। कुछ मातृकाओं में काश्पगोत्रेण सुतसोमेन पाठ धिम'ता है, जिजससे ज्ञात होता है विक धन्तिन्�न ्कश्यप गोत्रीय रे्थ। जैधिमनीय श्रौतसूत्र / Jaiminiya Shrautsutra

अनुक्रम[छुपा]1 सोमयाग 2 सामगान 3 शै'ी 4 व्याख्याकार 5 संस्करण 6 सम्बंधिधत लि'ंक

साम�े* की जैधिमनीय शाखा अत्यन्त समृद्ध है। इसके गान ग्रन्थ, ब्राह्मण, श्रौतसूत्र परिरशेष ए�ं गृह्यसूत्र आदि* सभी ग्रन्थ उप'ब्ध हैं। जैधिमनीय श्रौतसूत्र तीन खण्डों में वि�भक्त है– सूत्र कल्प तर्था पय7ध्याय जो पुन: 18 अध्यायों में वि�भाजिजत हैं। सूत्रखण्ड अत्यन्त 'घ ुहै, जिजसमें 'म्बे–'म्बे �ाक्यों से युक्त 26 कल्लिण्डकाओं में ज्योवितvोम, अग्न्याधान तर्था अग्निग्नचयन से सम्बद्ध सामों का वि��रण प्र*र्त्ता है।

[संपादि*त करें ] सोमयागकल्पखण्ड कौर्थुमीयय मशककल्प के समानान्तर प्रणीत प्रतीत होता है। इसमें अनेक उपख्ण्ड हैं। स्तोत्रकल्प में वि�भिभh स्तोत्रों के लि'ए स्तोत्रों का वि��रण है। समस्त सोमयागों के याग–दि*�सों और यज्ञानुष्ठान के क्रम का �ण7न भी है। प्रकृवितकल्प (अर्थ�ा प्राकृत) में एकाहों, अहीनों तर्था सत्रयागों की प्रकृवितयों (क्रमश: ज्योवितvोम, द्वा*शाह तर्था ग�ामयन) में प्रयोज्य सामों का वि��रण है। संज्ञाकल्प में परिरभाविषक शब्*ों की व्याख्या की गई है। 'वि�कृवितकल्प' में एकाहों, अहीनों और सोमयागों की वि�कृवितयों का सामगान की दृधिv से विनरूपण है।

[संपादि*त करें ] सामगानपय7ध्याय या परिरशेष खण्ड के 12 अध्यायों में यज्ञीय दि*नों का तन्त्र, सामगान के वि�भिभh विनयमों (आवि�गा7न, छhागान तर्था 'ेशगान), सामगान की वि�भिभh वि�भलिक्तयों, वि�भाज्य सामों, ऊहन प्रविक्रया इत्यादि* का वि��रण है। इस प्रकार जैधिमनीय श्रौतसूत्र में सोमयागों के समग्र कम7काण्ड की वि�श* प्रस्तुवित दि*ख'ाई *ेती है।

[संपादि*त करें ] शै'ीपरम्परा से यह जैधिमनीय प्रणीत माना जाता है। इसकी शै'ी ब्राह्मण–ग्रन्थों के सदृश है। कौर्थुमशाखीय श्रौतसूत्रों के व्याख्याकारों न ेभी इसे बहुधा उद्धतृ विकया है। बौधायन श्रौतसूत्र के सार्थ जैधिमनीय श्रौतसूत्र का घविनष्ठ सम्बन्ध प्रतीत होता है। अद्या�धिध जैधिमनीय शाखानुयायी अपन ेयागों में बौधायन शाखीय अध्�यु7 को ही स्थान *ेते हैं। ताण्ड्य को भी जैधिमनीय श्रौतसूत्र में उद्धतृ विकया गया है।

[संपादि*त करें ] व्याख्याकारजैधिमनीय श्रौतसूत्र पर भ�त्रात की �ृभिर्त्ता प्राचीनतम होने के सार्थ ही अत्यन्त महत्�पूण7 भी है। भ�त्रात के विपता मातृ*र्त्ता विहरण्यकेलिशयों के श्रौत ए�ं गृह्यसूत्रों के प्रवितधिष्ठत व्याख्याकार रे्थ। भ�त्रात स्�यं '�ृभिर्त्ता' पूण7 नहीं कर सके रे्थ। यह काय7 जयन्त भारद्वाज न ेविकया जो उनके भाविगनेय, लिश6य और जामाता भी रे्थ। भ�त्रात की व्याख्या के अवितरिरक्त जैधिमनीय श्रौतसूत्र पर कतपय कारिरकाग्रन्थ (�ैनतेयकारिरका–215 कारिरकाओं से युक्त तर्था 116 कारिरकाओं से युक्त अन्य ग्रन्थ) प्रयोग और पद्धवितयाँ भी उप'ब्ध हैं। �ैतान श्रौतसूत्र / Vaitan shrautsutra

अनुक्रम[छुपा]1 श्रौत कम7

2 आज्यतन्त्र तर्था पाकतन्त्र 3 होम 4 वि�रिरvाधान 5 संस्कार 6 नामकरण 7 संस्करण तर्था अन�ुा* 8 सम्बंधिधत लि'ंक

�े*ों द्वारा वि�विहत कम� के चार प्रकार हैं– विनत्य, नधैिमभिर्त्ताक, काम्य और विनविषद्ध। अर्थ�7�े* में ऐविहक फ' प्र*ान करने �ा'े काम्य कम� पर वि�शेष ब' दि*या गया, जो साधारण मनु6य के लि'ए सबसे अधिधक उपा*ेय हैं। समृजिद्ध की अभिभ'ाषा से विकए जाने �ा'े कम7 अगर पौधिvक कह'ाए, तो अशुभ विन�ारण तर्था अभिभचार के उदे्दश्य से विकए जाने �ा'े कम� को शान्तिन्तक की संज्ञा प्राप्त हुई। यज्ञ के पूण7 विन6पा*न के लि'ए जिजन चार ऋन्तित्�जों की आ�श्यकता होती है, उनमें से ब्रह्मा नाम के ऋन्तित्�क् से इस �े* का साbात् सम्बन्ध है। संविहताओं तर्था ब्राह्मणों की वि�वि�ध वि�धिधयों के सार–ग्रन्थों के रूप में प्रस्तुत रचना को कल्पसूत्र या संbेप में सूत्र कहा जाता है। गोपर्थ ब्राह्मण के अनुसार अर्थ�7�े* की शौनकीय जाज', ज'* तर्था ब्रह्म�* शाखाओं के अन�ुाकों, ऋचाओं ए�ं सूक्तों का वि�विनयोग बताने �ा'े पाँच मू'भूत सूत्र हैं– 1. तंत्रलिशक, 2. �ैतान, 3. नbत्रकल्प, 4. शान्तिन्तकल्प तर्था आविङ्गरस कल्प अर्थ�ा अभिभचार कल्प। �े*का'ीन आचाय7 धम7 के यज्ञ प्रधान होने के कारण यज्ञ करने की पद्धवित पर कामनाओं की सफ'ता विनभ7र मानी गई, जिजससे यज्ञ वि�धिधयों में प्रयुक्त �स्तुओं का प्रयुक्त �स्तुओं का तत्का'ीन व्य�हारों से गहरा सम्बन्ध रहा। यह सम्बन्ध का' ए�ं स्थ' पर आधारिरत ब्राह्मण–सम्प्र*ायों की सीधिमत परिर�त7नीयता के सार्थ–सार्थ भारतीयों के सामाजिजक, सांस्कृवितक ए�ं धार्मिमंक इवितहास पर रोचक प्रकाश डा'ता है।

[संपादि*त करें ] श्रौत कम7'�ैतान सूत्र' अर्थ�7�े* से सम्बद्ध श्रौत यागों की जानकारी *ेने �ा'ा एकमात्र उप'ब्ध, अतए� महत्�पूण7 सूत्र है। इस श्रौतसूत्र की आठ अध्यायों में वि�भाजिजत, 43 कल्लिण्डकाओं में ये श्रौत कम7 बत'ाए गए हैं– *श7पूण7मास, अग्न्याधेय, उक्थ्य, षोडशी, अवितरात्र, �ाजपेय, अप्तोया7म, अग्निग्नचयन, सौत्रामणी, ग�ामयन, राजसूय, अश्वमेध, पुरुषमेध, स�7मेध, एकाह, अहीन तर्था कामनाओं के अनुसार अन्य यज्ञों का वि�धान। प्रस्तुत श्रौतसूत्र की वि�शेषता– 'होमानादि*vाननुमन्त्रयते' अर्था7त्; वि�विहत होमों के अनुमन्त्रण को ब्रह्मा को सौंपन ेमें है जो अन्य श्रौतसूत्रों की तरह अनुमन्त्रण का अधिधकार यजमान को प्र*ान नहीं करता। ब्रह्मा के सभी कर्त्ता7व्य इस श्रौतसूत्र के पह'े ही अध्याय में *श7पूण7मास यज्ञ के वि��रण में प्रवितपादि*त हैं। कता7 यानी यजमान का यदि* पृर्थक विन*�श नहीं हैं, तो सभी ब्रह्मा के ही कर्त्ता7व्य हैं जिजनमें पुरस्ताद्धोम, संल्लिस्थतहोम तर्था अन्य कोई आहुवितयाँ सष्पिम्मलि'त हैं। कवितपय यजुष् मन्त्रों को छोड़कर ब्रह्मा के अनुमन्त्रण से सम्बद्ध प्राय: सभी मन्त्र अर्थ�7�े* में छन्*ोबद्ध पाए जाते हैं।

[संपादि*त करें ] आज्यतन्त्र तर्था पाकतन्त्रआर्थ�7ण कम7 के *ो तन्त्र हैं– आज्यतन्त्र तर्था पाकतन्त्र। आज्यतन्त्र में आज्य अगर प्रधान हवि� होता है, तो पाकतन्त्र में चरुपुरोडाशादि* को प्रधानता प्राप्त है। आज्यतन्त्र के अनुष्ठान का क्रम विनयमानुसार है:– कर्त्ताा7 का वि�लिशv मन्त्र जप, बर्तिहं'7�न, �ेदि*, उर्त्तार�ेदि*, अग्निग्नप्रणयन, व्रतग्रहण, पवि�त्रकरण, पवि�त्र की सहायता से इध्म प्रोbण, इध्मोपसमाधान, बर्तिहं:प्रोbण, ब्रह्मा का आसन ग्रहण, बर्तिहंस्तरण, स्तीण7 �ेदि* का प्रोbण। इसके पxात् कर्त्ताा7 का आसनस्थ होना, उ*पात्र स्थापन, आज्य संस्कार, स्तु्र� ग्रहण, ग्रह ग्रहण, पुरस्तात् होम, आज्यभाग ए�ं अभ्यातान होम। यहीं पू�7तन्त्र समाप्त होता है। उर्त्तारतन्त्र प्रधान होम के अनन्तर होता है जिजसके अनुष्ठान का क्रम यह है:– अभ्यातान होम, पा�7ण होम, समृजिद्ध होम, संतवित होम, स्मिस्�vकृत् होम, स�7प्रायभिxर्त्ताीय होम, स्कh होम। 'पुनमैंन्तित्�जिन्*यम्' मन्त्र की सहायता से होम, स्कhास्मृवित होम, संल्लिस्थत होम, चतुगृ7हीत होम, बर्तिहं होम, संस्त्रा� होम, वि�6णुक्रम, व्रत वि�सज7न, *भिbणा*ान और इसके पxात् ब्रह्मा का विन6करण। पाकतन्त्र में यही क्रम होता है, लिसर्फ़7 अभ्यातान होम नहीं विकया जाता।*

[संपादि*त करें ] होमआर्थ�7ण श्रौतकम7 की वि�शेषता पुरस्ताद्धोम ए�ं संल्लिस्थत होम में है। पुरस्ताद्धोम की आहुवितयाँ अगर प्रधान होम के पह'े *ी जाती है, तो संल्लिस्थत होम की उसके बा* में। जिजस प्रधान होम के कारण ये होम सम्पh होते हैं, उस होम के मन्त्रों की सहायता से भी इन आहुवितयों को *ेने के कवितपय आचाय� के मतों का उल्'ेख �ैतान सूत्र के पह'े अध्याय की चौर्थी कल्लिण्डका में विकया गया है। यह काय7 ब्रह्मा द्वारा सम्पh कराना है और हर एक आहुवित के बा* बा* 'जनत्' शब्* को जोड़ना आ�श्यक है। प्रस्तुत सूत्र के श्रौतकम7 में भू:, भु�:, स्�:, जनत्, �ृधत्, करत्, महत्, नत्, शम् और ओम्; इन व्याहृवितयों के वि�विनयोग का कर्थन भी �ैलिशष्ट्यपूण7 है।

[संपादि*त करें ] वि�रिरvाधानवि�रिरvाधान ब्रह्मा का एक और कर्त्ता7व्य है। वि�रिरv का सम्बन्ध अकुश' अर्थ�ा दुxरिरत्र अर्थ�ा ब्रह्मचय7 व्रत को भंग करने �ा'े ऋन्तित्�जों के कारण यज्ञ में अर्थ�ा यजमान की फ'–प्रान्तिप्त में उत्पh बाधाओं से है जिजसका परिरहार ब्रह्मा अग्निग्न को प्रज्�लि'त ए�ं शान्त्यु*क को तैयार करके उसके तीन आचमन ए�ं यजमान तर्था यज्ञ�स्तु के प्रोbण से करता है। इसलि'ए यह वि�धिध यज्ञ का वि�रिरvसंधान कह'ाती है जिजससे बाधाओं का विन�ारण और यज्ञ का प्रयोजन सफ' होता है। स्पv है विक शान्त्यु*क भी आर्थ�7ण वि�धिध में महत्�पूण7 है। अग्न्याधेय के अ�सर पर आह�नीयायतन में अग्निग्न की स्थापना के पू�7 समूची सामग्री पर अश्व का *ाविहना पैर अवंिकत करने का वि�धान है जिजससे अग्न्याधेय सम्पh होता

र्था। इस शान्त्यु*क को तैयार करने में आर्थ�7ण ए�ं आविङ्गरस इन *ोनों औषधिधयों के यजमान द्वारा समा�ेश की बात प्रस्तुत �ैतान सूत्र में कौलिशक सूत्र से ही अनदूि*त की गई।

[संपादि*त करें ] संस्कारअग्निग्नहोत्र होम की तान्तित्�क वि��ेचना में अग्निग्नहोत्र धेनु के लि'ए ग�ीडा समुद्धान्त (उब'कर विगरन े�ा'ा दूध) जैसे शब्*ों के स्थान पर 'समुद्धान्त' अर्थ�ा प्राचीना�ीत के ब*'े विपत्र्युप�ीत जैसे शब्* �ैतान सूत्र में प्रयुक्त हुए हैं। *श7पूण7मासेधिv में भी यजमान–मन्त्रों का पाठन करान े�ा'े ब्रह्मा को भृग्�विङ्गरस के जानकार पुरोविहत द्वारा उन्हें संस्कार समर्तिपंत कराने का विनयम वि�विहत है और *श�धिv में यजमान पर इधिv के पह'े एक दि*न अपराह्ण में व्रतोपायन के पू�7 भोजन का (उप�त्स्य* ्भक्त) का बन्धन प्रस्तुत श्रौतसूत्र में डा'ा गया है। सोमयाग की *ीbा में ऋतुस्नाता यजमान पत्नी के लि'ए सरूप�त्सा गौ के दूध में स्था'ीपाक को पचाकर गभ7�े*न ए�ं पंुस�न मन्त्रों से उसे तपाकर उसके भbण की वि�धिध का वि�धान पवि�त्रता को बनाए रखन ेके सार्थ–सार्थ उसकी कामना पूर्तितं की ओर संकेत करने �ा'ा है। अभिभप्राय यह है विक �ैतान श्रौतसूत्र में विनत्य नधैिमभिर्त्ताक ए�ं काम्य कम� के सार्थ वि�भिभh क्रतुओं का वि�धान है और यह भी बत'ाया गया है विक कामनाओं के अन्तहीन होने के कारण यज्ञों का भी आनन्त्य है, जिजससे प्रकृवितभूत यज्ञों के आधार पर वि�कृवितभूत यज्ञों का अनुमान करके सन्तोष मानना समीचीन है। यज्ञ–वि�धिधयों के वि�तान यानी वि�स्तार के सार्थ–सार्थ �ैतान सूत्र का सम्बन्ध उनके वि�धान से भी है जिजनमें पूजा या समप7ण का भा� तन तर्था मन *ोनों के संस्कार से सम्बद्ध होकर �ैदि*कों की मू'त: आध्याष्पित्मक लिचन्तन–धारा की ओर संकेत करता है।

[संपादि*त करें ] नामकरण�ैतान सूत्र का नामकरण संभ�त: उसमें आए प्रर्थम सूत्र 'अर्थ वि�तानस्य' के आधार पर हुआ है। इसमें भागलि', यु�ाकौलिशक और माठर प्रभृवित आचाय� के मतों का नाम्ना उल्'ेख हुआ है। इसमें शौनकीय अर्थ�7�े* संविहता के 20 �ें काण्ड में उल्लिल्'ग्निखत मन्त्रों का प्रमुख आधार लि'या गया है। गाब� के अनुसार इसमें ऋग्�े* का 16 बार, �ाजसनेधिययों का 34 बार तर्था तैभिर्त्तारीय शाग्निखयों का 19 बार विन*�श है। कौलिशक सूत्र के सार्थ इसका अनेक सन्*भ� में सादृश्य है। उ*ाहरण के लि'ए *ोनों ही पू�7�र्णिणंत बात को श्लोक से पुv करते हैं– 'त*विप श्लोकौ �*त:' या 'अर्थाविप श्लोकौ भ�त:'। सूक्तों तर्था ऋचाओं को गण के रूप में विनर्दि*ंv करने की परिरपाटी भी *ोनों में समान रूप से धिम'ती है। �ैतान सूत्र के भा6यकार सोमादि*त्य अपन ेआbेपानवुि�धिध संज्ञक भा6य में *ोनों को एक ही व्यलिक्त की रचना मानते प्रतीत होते हैं।