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कामाय नी - जयशंकर प साद िि ता ििमिििर के उतुंि िशखर पर, बैठ िशला की शीतल छाँ ि एक पुरष, भीिे नयनो से देख रिा था पलय पवाि | नीिे जल था ऊपर ििम था, एक तरल था एक सघन, एक ततव की िी पधानता किो उसे जड या िेतन | दरू दरू तक िवसततृ था ििम सतबध उसी के हदय समान. नीरवता सी िशला िरण से टकराता ििरता पवमान | तरण तपसवी-सा बैठा साधन करता सुर-समशान, नीिे पलय लिरो का िोता था सकरण अवसान।

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Famous Epic from Jayshankar Parsad on story of Manu and Ida

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Page 1: Kamayani-JSP

कामाय नी

- जयशकर प साद

िि त ा

ििमिििर क उति िशखर पर,

बठ िशला की शीतल छाि

एक परष, भीि नयनो स

दख रिा था पलय पवाि |

नीि जल था ऊपर ििम था,

एक तरल था एक सघन,

एक ततव की िी पधानता

किो उस जड या ितन |

दर दर तक िवसतत था ििम

सतबध उसी क हदय समान.

नीरवता सी िशला िरण स

टकराता ििरता पवमान |

तरण तपसवी-सा बठा

साधन करता सर-समशान,

नीि पलय लिरो का िोता

था सकरण अवसान।

Page 2: Kamayani-JSP

उसी तपसवी-स लब थ

दवदार दो िार खड,

िए ििम-धवल, जस पतथर

बनकर िठठर रि अड।

अवयव की दढ मास-पिशया,

ऊजिज सवत था वीयय ज अपार,

सिीत िशराय, सवसथ रक का

िोता था िजनम सिार।

ििता-कातर वदन िो रिा

पौरष िजसम ओत-पोत,

उधर उपकामय यौवनव का

बिता भीतर मधमय सोत।

बधी मिावट स नौका थी

सख म अब पडी रिी,

उतर िला था वि जल पलावन,

और िनकलन लिी मिी।

िनकल रिी थी मम ज वदना

करणा िवकल किानी सी,

विा अकली पकित सन रिी,

िसती-सी पििानी-सी।

Page 3: Kamayani-JSP

"ओ ििता की पिली रखा,

अरी िवश-वन की वयाली,

जवालामखी सिोट क भीषण

पथम कप-सी मतवाली।

ि अभाव की िपल बािलक,

री ललाट की खलखला

िरी-भरी-सी दौड-धप,

ओ जल-माया की िल-रखा

इस गिकका की िलिल

री तरल िरल की लघ-लिरी,

जरा अमर-जीवन की,

और न कछ सनन वाली, बिरी

अरी वयािध की सत-धािरणी-

अरी आिध, मधमय अिभशाप

हदय-ििन म धमकत-सी,

पणय-सिि म सदर पाप।

मनन कराविी त िकतना?

उस िनिित जाित का जीव

अमर मरिा कया?

त िकतनी ििरी डाल रिी ि नीव।

Page 4: Kamayani-JSP

आि िघरिी हदय-लिलि

खतो पर करका-घन-सी,

िछपी रििी अतरतम म

सब क त िनिढ धन-सी।

बिि, मनीषा, मित, आशा,

ििता तर ि िकतन नाम

अरी पाप ि त, जा, िल जा

यिा निी कछ तरा काम।

िवसमित आ, अवसाद घर ल,

नीरवत बस िप कर द,

ितनता िल जा, जडता स

आज शनय मरा भर द।"

"ििता करता ि म िजतनी

उस अतीत की, उस सख की,

उतनी िी अनत म बनती जाती

रखाय दख की।

आि सि ज क अगदत

तम असिल िए, िवलीन िए,

भकक या रकक जो समझो,

कवल अपन मीन िए।

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अरी आिधयो ओ िबजली की

िदवा-राित तरा नतनज,

उसी वासना की उपासना,

वि तरा पतयावतन।ज

मिण-दीपो क अधकारमय

अर िनराशा पण ज भिवषय

दव-दभ क मिामध म

सब कछ िी बन िया ििवषय।

अर अमरता क िमकील पतलो

तर य जयनाद

काप रि ि आज पितधविन बन कर

मानो दीन िवषाद।

पकित रिी दजय, परािजत

िम सब थ भल मद म,

भोल थ, िा ितरत कवल सब

िवलािसता क नद म।

व सब डब, डबा उनका िवभव,

बन िया पारावार

उमड रिा था दव-सखो पर

दख-जलिध का नाद अपार।"

Page 6: Kamayani-JSP

"वि उनमक िवलास िआ कया

सवपन रिा या छलना थी

दवसिि की सख-िवभावरी

ताराओ की कलना थी।

िलत थ सरिभत अिल स

जीवन क मधमय िनशास,

कोलािल म मखिरत िोता

दव जाित का सख-िवशास।

सख, कवल सख का वि सगि,

कदीभत िआ इतना,

छायापथ म नव तषार का

सघन िमलन िोता िजतना।

सब कछ थ सवायत,िवश क-बल,

वभव, आनद अपार,

उदिलत लिरो-सा िोता

उस समिि का सख सिार।

कीितज, दीपी, शोभा थी निती

अरण-िकरण-सी िारो ओर,

सपिसध क तरल कणो म,

दम-दल म, आननद-िवभोर।

Page 7: Kamayani-JSP

शिक रिी िा-पकित थी

पद-तल म िवनम िवशात,

कपती धरणी उन िरणो स िोकर

पितिदन िी आकात।

सवय दव थ िम सब,

तो ििर कयो न िवशखल िोती सिि?

अर अिानक िई इसी स

कडी आपदाओ की विि।

िया, सभी कछ िया,मधर तम

सर-बालाओ का शिार,

उषा जयोतसना-सा यौवन-िसमत

मधप-सदश िनिित िविार।

भरी वासना-सिरता का वि

कसा था मदमत पवाि;

पलय-जलिध म सिम िजसका

दख हदय था उठा कराि।"

"ििर-िकशोर-वय, िनतय िवलासी

सरिभत िजसस रिा िदित,

आज ितरोिित िआ किा वि

मध स पण ज अनत वसत?

Page 8: Kamayani-JSP

कसिमत कजो म व पलिकत

पमािलिन िए िवलीन,

मौन िई ि मिछजत तान

और न सन पडती अब बीन।

अब न कपोलो पर छाया-सी

पडती मख की सरिभत भाप

भज-मलो म िशिथल वसन की

वयसत न िोती ि अब माप।

ककण कविणत, रिणत नपर थ,

ििलत थ छाती पर िार,

मखिरत था कलरव,िीतो म

सवर लय का िोता अिभसार।

सौरभ स िदित पिरत था,

अतिरक आलोक-अधीर,

सब म एक अितन िित थी,

िजसम िपछडा रि समीर।

वि अनि-पीडा-अनभव-सा

अि-भिियो का नतनज,

मधकर क मरद-उतसव-सा

मिदर भाव स आवतन।ज

Page 9: Kamayani-JSP

सरा सरिभमय बदन अरण व

नयन भर आलस अनराग,

कल कपोल था जिा िबछलता

कलपवक का पीत पराि।

िवकल वासना क पितिनिध

व सब मरझाय िल िय,

आि जल अपनी जवाला स

ििर व जल म िल, िय।"

"अरी उपका-भरी अमरत री

अतिप िनबाध ज िवलास

िदधा-रिित अपलक नयनो की

भख-भरी दशनज की पयास

िबछड तर सब आिलिन,

पलक-सपश ज का पता निी,

मधमय िबन कातरताय,

आज न मख को सता रिी।

रत-सौध क वातायन,

िजनम आता मध-मिदर समीर,

टकराती िोिी अब उनम

ितिमििलो की भीड अधीर।

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दवकािमनी क नयनो स जिा

नील निलनो की सिि

िोती थी, अब विा िो रिी

पलयकािरणी भीषण विि।

व अमलान-कसम-सरिभत-मिण

रिित मनोिर मालाय,

बनी शखला, जकडी िजनम

िवलािसनी सर-बालाय।

दव-यजन क पशयजो की

वि पणािज ित की जवाला,

जलिनिध म बन जलती

कसी आज लििरयो की माला।"

"उनको दख कौन रोया

यो अतिरक म बठ अधीर

वयसत बरसन लिा अशमय

यि पालय िलािल नीर

िािाकार िआ कदनमय

किठन किलश िोत थ िर,

िए िदित बिधर, भीषण रव

बार-बार िोता था कर।

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िदगदािो स धम उठ,

या जलिर उठ िकितज-तट क

सघन ििन म भीमपकपन,

झझा क िलत झटक।

अधकार म मिलन िमत की

धधली आभा लीन िई।

वरण वयसत थ, घनी कािलमा

सतर-सतर जमती पीन िई,

पिभत का भरव िमशण

शपाओ क शकल-िनपात

उलका लकर अमर शिकया

खोज रिी जयो खोया पात।

बार बार उस भीषण रव स

कपती धरती दख िवशष,

मानो नील वयोम उतरा िो

आिलिन क ित अशष।

उधर िरजती िसध लििरया

किटल काल क जालो सी,

िली आ रिी िन उिलती

िन िलाय वयालो-सी।

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धसती धरा, धधकती जवाला.,

जवाला-मिखयो क िनसवास

और सकिित कमश: उसक

अवयव का िोता था हास।

सबल तरिाघातो स

उस कि िसि क, िवििलत-सी

वयसत मिाकचछप-सी धरणी

ऊभ-िम थी िवकिलत-सी।

बढन लिा िवलास-वि सा

वि अितभरव जल-सघात,

तरल-ितिमर स पलय-पवन का

िोता आिलिन पितघात।

वला कण-कण िनकट आ रिी

िकितज कीण, ििर लीन िआ

उदिध डबाकर अिखल धरा को

बस मयादज ा-िीन िआ

करका कदन करती

और किलना था सब का,

पिभत का यि ताडवमय

नतय िो रिा था कब का।"

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"एक नाव थी, और न उसम

डाड लित, या पतवार,

तरल तरिो म उठ-ििरकर

बिती पिली बारबार।

लित पबल थपड, धधल तट का

था कछ पता निी,

कातरता स भरी िनराशा

दख िनयित पथ बनी विी।

लिर वयोम िमती उठती,

िपलाय असखय निती,

िरल जलद की खडी झडी म

बद िनज ससित रिती।

िपलाय उस जलिध-िवश म

सवय िमतकत िोती थी।

जयो िवराट बाडव-जवालाय

खड-खड िो रोती थी।

जलिनिध क तलवासी

जलिर िवकल िनकलत उतरात,

िआ िवलोिडत िि,

तब पाणी कौन किा कब सख पात?

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घनीभत िो उठ पवन,

ििर शासो की िित िोती रि,

और ितना थी िबलखाती,

दिि िविल िोती थी कि।

उस िवराट आलोडनम गि,

तारा बद-बद स लित,

पखर-पलय पावस म जिमग,

जयोितिरिणो-स जित।

पिर िदवस िकतन बीत,

अब इसको कौन बता सकता,

इनक सिक उपकरणो का

ििह न कोई पा सकता।

काला शासन-िक मतय का

कब तक िला, न समरण रिा,

मिामतसय का एक िपटा

दीन पोत का मरण रिा।

िकत उसी न ला टकराया

इस उतरिििर क िशर स,

दव-सिि का धवस अिानक

शास लिा लन ििर स।

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आज अमरता का जीिवत ि म

वि भीषण जजरज दभ,

आि सि ज क पथम अक का

अधम-पात मय सा िवषकभ।"

"ओ जीवन की मर-मिरििका,

कायरता क अलस िवषाद

अर परातन अमत अिितमय

मोिमगध जजरज अवसाद

मौन नाश िवधवस अधरा

शनय बना जो पकट अभाव,

विी सतय ि, अरी अमरत

तझको यिा किा अब ठाव।|

मतय, अरी ििर-िनद

तरा अक ििमानी-सा शीतल,

त अनत म लिर बनाती

काल-जलिध की-सी िलिल।

मिानतय का िवषम सम अरी

अिखल सपदनो की त माप,

तरी िी िवभित बनती ि सिि

सदा िोकर अिभशाप।

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अधकार क अटटािस-सी

मखिरत सतत ििरतन सतय,

िछपी सिि क कण-कण म त

यि सदर रिसय ि िनतय।

जीवन तरा कद अश ि

वयक नील घन-माला म,

सौदािमनी-सिध-सा सनदर

कण भर रिा उजाला म।"

पवन पी रिा था शबदो को

िनजनज ता की उखडी सास,

टकराती थी, दीन पितधविन

बनी ििम-िशलाओ क पास।

ध-ध करता नाि रिा था

अनिसततव का ताडव नतय,

आकषणज -िविीन िवदतकण

बन भारवािी थ भतय

मतय सदश शीतल िनराश िी

आिलिन पाती थी दिि,

परमवयोम स भौितक कण-सी

घन किासो की थी विि।

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वाषप बना उडता जाता था

या वि भीषण जल-सघात,

सौरिक म आवतन ज था

पलय िनशा का िोता पात।

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आशा उषा सनिल तीर बरसती

जयलकमी सी उदय िई,

उधर परािजत काल राित भी

जल म अतिनिज ित िई।

वि िववण ज मख तसत पकित का

आज लिा िसन ििर स,

वषा ज बीती, िआ सिि म

शरद-िवकास नय िसर स।

नव कोमल आलोक िबखरता

ििम-ससित पर भर अनराि,

िसत सरोज पर कीडा करता

जस मधमय िपि पराि।

धीर-धीर ििम-आचछादन

िटन लिा धरातल स,

जिी वनसपितया अलसाई

मख धोती शीतल जल स।

नत िनमीलन करती मानो

पकित पबि लिी िोन,

जलिध लििरयो की अिडाई

बार-बार जाती सोन।

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िसधसज पर धरावध अब

तिनक सकिित बठी-सी,

पलय िनशा की िलिल समित म

मान िकय सी ऐठी-सी।

दखा मन न वि अितरिजत

िवजन का नव एकात,

जस कोलािल सोया िो

ििम-शीतल-जडता-सा शात।

इदनीलमिण मिा िषक था

सोम-रिित उलटा लटका,

आज पवन मद सास ल रिा

जस बीत िया खटका।

वि िवराट था िम घोलता

नया रि भरन को आज,

'कौन'? िआ यि पश अिानक

और कतिल का था राज

"िवशदव, सिवता या पषा,

सोम, मरत, ििल पवमान,

वरण आिद सब घम रि ि

िकसक शासन म अमलान?

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िकसका था भ-भि पलय-सा

िजसम य सब िवकल रि,

अर पकित क शिक-ििनि

य ििर भी िकतन िनबल रि।

िवकल िआ सा काप रिा था,

सकल भत ितन समदाय,

उनकी कसी बरी दशा थी

व थ िववश और िनरपाय।

दव न थ िम और न य ि,

सब पिरवतनज क पतल,

िा िक िवज-रथ म तरि-सा,

िजतना जो िाि जत ल।"

"मिानील इस परम वयोम म,

अतिरक म जयोितमानज ,

गि, नकत और िवदतकण

िकसका करत स-सधान

िछप जात िम और िनकलत

आकषणज म िखि िए?

तण, वीरध लिलि िो रि

िकसक रस स िसि िए?

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िसर नीिा कर िकसकी सता

सब करत सवीकार यिा,

सदा मौन िो पविन करत

िजसका, वि अिसततव किा?

ि अनत रमणीय कौन तम?

यि म कस कि सकता,

कस िो कया िो? इसका तो

भार िविार न सि सकता।

ि िवराट ि िवशदव तम कछ िो,

ऐसा िोता भान-

मद-िभीर-धीर-सवर-सयत

यिी कर रिा सािर िान।"

"यि कया मधर सवपन-सी िझलिमल

सदय हदय म अिधक अधीर,

वयाकलता सी वयक िो रिी

आशा बनकर पाण समीर

यि िकतनी सपिणीय बन िई

मधर जािरण सी-छिवमान,

िसमित की लिरो-सी उठती ि

नाि रिी जयो मधमय तान।

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जीवन जीवन की पकार ि

खल रिा ि शीतल-दाि-

िकसक िरणो म नत िोता

नव पभात का शभ उतसाि।

म ि, यि वरदान सदश कयो

लिा िजन कानो म

म भी किन लिा, 'म रि'

शाशत नभ क िानो म।

यि सकत कर रिी सता

िकसकी सरल िवकास-मयी,

जीवन की लालसा आज

कयो इतनी पखर िवलास-मयी?

तो ििर कया म िजऊ

और भी-जीकर कया करना िोिा?

दव बता दो, अमर-वदना

लकर कब मरना िोिा?"

एक यविनका िटी,

पवन स पिरत मायापट जसी।

और आवरण-मक पकित थी

िरी-भरी ििर भी वसी।

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सवण ज शािलयो की कलम थी

दर-दर तक िल रिी,

शरद-इिदरा की मिदर की

मानो कोई िल रिी।

िवश-कलपना-सा ऊिा वि

सख-शीतल-सतोष-िनदान,

और डबती-सी अिला का

अवलबन, मिण-रत-िनधान।

अिल ििमालय का शोभनतम

लता-किलत शिि सान-शरीर,

िनदा म सख-सवपन दखता

जस पलिकत िआ अधीर।

उमड रिी िजसक िरणो म

नीरवता की िवमल िवभित,

शीतल झरनो की धाराय

िबखराती जीवन-अनभथी

उस असीम नील अिल म

दख िकसी की मद मसकयान,

मानो िसी ििमालय की ि

िट िली करती कल िान।

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िशला-सिधयो म टकरा कर

पवन भर रिा था िजार,

उस दभद अिल दढता का

करता िारण-सदश पिार।

सधया-घनमाला की सदर

ओढ रि-िबरिी छीट,

ििन-ििबनी शल-शिणया

पिन िए तषार-िकरीट।

िवश-मौन, िौरव, मितव की

पितिनिधयो स भरी िवभा,

इस अनत पािण म मानो

जोड रिी ि मौन सभा।

वि अनत नीिलमा वयोम की

जडता-िस जो शात रिी,

दर-दर ऊि स ऊि

िनज अभाव म भात रिी।

उस िदखाती जिती का सख,

िसी और उललास अजान,

मानो ति-तरि िवश की।

ििमिििर की वि सढर उठान

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थी अनत की िोद सदश जो

िवसतत ििा विा रमणीय,

उसम मन न सथान बनाया

सदर, सवचछ और वरणीय।

पिला सिित अिगन जल रिा

पास मिलन-दित रिव-कर स,

शिक और जािरण-ििनि-सा

लिा धधकत अब ििर स।

जलन लिा िनरतर उनका

अिगनिोत सािर क तीर,

मन न तप म जीवन अपना

िकया समपणज िोकर धीर।

सजि िई ििर स सर-सकित

दव-यजन की वर माया,

उन पर लिी डालन अपनी

कमममयी शीतल छाया।

उठ सवसथ मन जयो उठता ि

िकितज बीि अरणोदय कात,

लि दखन लबध नयन स

पकित-िवभित मनोिर, शात।

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पाकयज करना िनिित कर

लि शािलयो को िनन,

उधर विह-जवाला भी अपना

लिी धम-पट थी बनन।

शषक डािलयो स वको की

अिगन-अिियज ा िई समि।

और सोिकर अपन मन म

"जस िम ि बि िए-

कया आिय ज और कोई िो

जीवन-लीला रि िए,"

अिगनिोत-अविशि अनन कछ

किी दर रख आत थ,

िोिा इसस तप अपिरिित

समझ सिज सख पात थ।

दख का ििन पाठ पढकर

अब सिानभित समझत थ,

नीरवता की ििराई म

मगन अकल रित थ।

मनन िकया करत व बठ

जविलत अिगन क पास विा,

Page 27: Kamayani-JSP

एक सजीव, तपसया जस

पतझड म कर वास रिा।

ििर भी धडकन कभी हदय म

िोती ििता कभी नवीन,

यो िी लिा बीतन उनका

जीवन अिसथर िदन-िदन दीन।

पश उपिसथत िनतय नय थ

अधकार की माया म,

रि बदलत जो पल-पल म

उस िवराट की छाया म।

अध ज पसििटत उतर िमलत

पकित सकमकज रिी समसत,

िनज अिसततव बना रखन म

जीवन िआ था वयसत।

तप म िनरत िए मन,

िनयिमत-कम ज लि अपना करन,

िवशरि म कमजज ाल क

सत लि घन िो िघरन।

उस एकात िनयित-शासन म

िल िववश धीर-धीर,

Page 28: Kamayani-JSP

एक शात सपदन लिरो का

िोता जयो सािर-तीर।

िवजन जित की तदा म

तब िलता था सना सपना,

गि-पथ क आलोक-वत स

काल जाल तनता अपना।

पिर, िदवस, रजनी आती थी

िल-जाती सदश-िवििन,

एक िवरािपण ज ससित म

जयो िनषिल आरभ नवीन।

धवल,मनोिर िदिबब स अिकत

सदर सवचछ िनशीथ,

िजसम शीतल पावन िा कर

पलिकत िो पावन उदिीथ।

नीि दर-दर िवसतत था

उिमलज सािर वयिथत, अधीर

अतिरक म वयसत उसी सा

ििदका-िनिध िभीर।

खली उस रमणीय दशय म

अलक ितना की आख,

Page 29: Kamayani-JSP

हदय-कसम की खली अिानक

मध स व भीिी पाख।

वयक नील म िल पकाश का

कपन सख बन बजता था,

एक अतीिदय सवपन-लोक का

मधर रिसय उलझता था।

नव िो जिी अनािद वासना

मधर पाकितक भख-समान,

ििर-पिरिित-सा िाि रिा था

दद सखद करक अनमान।

िदवा-राित या-िमत वरण की

बाला का अकय शिार,

िमलन लिा िसन जीवन क

उिमलज सािर क उस पार।

तप स सयम का सिित बल,

तिषत और वयाकल था आज-

अटटािास कर उठा िरक का

वि अधीर-तम-सना राज।

धीर-समीर-परस स पलिकत

िवकल िो िला शात-शरीर,

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आशा की उलझी अलको स

उठी लिर मधिध अधीर।

मन का मन था िवकल िो उठा

सवदन स खाकर िोट,

सवदन जीवन जिती को

जो कटता स दता घोट।

"आि कलपना का सदर

यि जित मधर िकतना िोता

सख-सवपनो का दल छाया म

पलिकत िो जिता-सोता।

सवदन का और हदय का

यि सघष ज न िो सकता,

ििर अभाव का असिलताओ की

िाथा कौन किा बकता

कब तक और अकल?

कि दो ि मर जीवन बोलो?

िकस सनाऊ कथा-किो मत,

अपनी िनिध न वयथ ज खोलो।

"तम क सदरतम रिसय,

ि काित-िकरण-रिजत तारा

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वयिथत िवश क साितवक शीतल िबद,

भर नव रस सारा।

आतप-तिपत जीवन-सख की

शाितमयी छाया क दश,

ि अनत की िणना

दत तम िकतना मधमय सदश

आि शनयत िप िोन म

त कयो इतनी ितर िई?

"जब कामन िसध तट आई

ल सधया का तारा दीप,

िाड सनिली साडी उसकी

त िसती कयो अिर पतीप?

इस अनत काल शासन का

वि जब उचछखल इितिास,

आस और' तम घोल िलख रिी त

सिसा करती मद िास।

िवश कमल की मदल

मधक रजनी त िकस कोन स-

आती िम-िम िल जाती

पढी िई िकस टोन स।

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िकस िदित रखा म इतनी

सिित कर िससकी-सी सास,

यो समीर िमस िाि रिी-सी

िली जा रिी िकसक पास।

िवकल िखलिखलाती ि कयो त?

इतनी िसी न वयथ ज िबखर,

तििन कणो, ििनल लिरो म,

मि जाविी ििर अधर।

घघट उठा दख मसकयाती

िकस िठठकती-सी आती,

िवजन ििन म िकस भल सी

िकसको समित-पथ म लाती।

रजत-कसम क नव पराि-सी

उडा न द त इतनी धल-

इस जयोतसना की, अरी बावली

त इसम जाविी भल।

पिली िा समिाल ल,

कस छट पडा तरा अिल?

दख, िबखरती ि मिणराजी-

अरी उठा बसध ििल।

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िटा िआ था नील वसन कया

ओ यौवन की मतवाली।

दख अिकिन जित लटता

तरी छिव भोली भाली

ऐस अतल अनत िवभव म

जाि पडा कयो तीव िवराि?

या भली-सी खोज रिी कछ

जीवन की छाती क दाि"

"म भी भल िया ि कछ,

िा समरण निी िोता, कया था?

पम, वदना, भाित या िक कया?

मन िजसम सख सोता था

िमल किी वि पडा अिानक

उसको भी न लटा दना

दख तझ भी दिा तरा भाि,

न उस भला दना"

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शिा कौन िो तम? ससित-जलिनिध

तीर-तरिो स िकी मिण एक,

कर रि िनजनज का िपिाप

पभा की धारा स अिभषक?

कौन िो तम? ससित-जलिनिध

तीर-तरिो स िकी मिण एक,

कर रि िनजनज का िपिाप

पभा की धारा स अिभषक?

मधर िवशात और एकात-जित का

सलझा िआ रिसय,

एक करणामय सदर मौन

और ििल मन का आलसय"

सना यि मन न मध िजार

मधकरी का-सा जब सानद,

िकय मख नीिा कमल समान

पथम किव का जयो सदर छद,

एक िझटका-सा लिा सिषज,

िनरखन लि लट-स

कौन िा रिा यि सदर सिीत?

कतिल रि न सका ििर मौन।

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और दखा वि सदर दशय

नयन का इदजाल अिभराम,

कसम-वभव म लता समान

ििदका स िलपटा घनशयाम।

हदय की अनकित बाह उदार

एक लमबी काया, उनमक

मध-पवन कीिडत जयो िशश साल,

सशोिभत िो सौरभ-सयक।

मसण, िाधार दश क नील

रोम वाल मषो क िमज,

ढक रि थ उसका वप कात

बन रिा था वि कोमल वम।ज

नील पिरधान बीि सकमार

खल रिा मदल अधखला अि,

िखला िो जयो िबजली का िल

मघवन बीि िलाबी रि।

आि वि मख पिशम क वयोमबीि

जब िघरत िो घन शयाम,

अरण रिव-मडल उनको भद

िदखाई दता िो छिवधाम।

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या िक, नव इदनील लघ शि

िोड कर धधक रिी िो कात

एक जवालामखी अित

माधवी रजनी म अशात।

िघर रि थ घघराल बाल अस

अवलिबत मख क पास,

नील घनशावक-य सकमार

सधा भरन को िवध क पास।

और, उस पर वि मसकयान

रक िकसलय पर ल िवशाम

अरण की एक िकरण अमलान

अिधक अलसाई िो अिभराम।

िनतय-यौवन छिव स िी दीप

िवश की करण कामना मितज,

सपश ज क आकषणज स पण ज

पकट करती जयो जड म सिित।ज

उषा की पििली लखा कात,

माधिर स भीिी भर मोद,

मद भरी जस उठ सलजज

भोर की तारक-दित की िोद

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कसम कानन अिल म

मद-पवन पिरत सौरब साकार,

रिित, परमाण-पराि-शरीर

खडा िो, ल मध का आधार।

और, पडती िो उस पर शभ नवल

मध-राका मन की साध,

िसी का मदिवहल पितिबब

मधिरमा खला सदश अबाध

किा मन न-"नभ धरणी बीि

बना जीिन रिसय िनरपाय,

एक उलका सा जलता भात,

शनय म ििरता ि असिाय।

शल िनझरज न बना ितभागय,

िल निी सका जो िक ििम-खड,

दौड कर िमला न जलिनिध-अक

आि वसा िी ि पाषाड।

पिली-सा जीवन ि वयसत,

उस सलझान का अिभमान

बताता ि िवसमित का माि ज

िल रिा ि बनकर अनजान।

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भलता िी जाता िदन-रात

सजल अिभलाषा किलत अतीत,

बढ रिा ितिमर-िभ ज म

िनतय जीवन का यि सिीत।

कया कि, कया ि म उदभात?

िववर म नील ििन क आज

वाय की भटकी एक तरि,

शनयता का उजडा-सा राज।

एक समित का सतप अित,

जयोित का धधला-सा पितिबब

और जडता की जीवन-रािश,

सिलता का सकिलत िवलब।"

घन-ितिमर म िपला की रख

तपन म शीतल मद बयार।

नखत की आशा-िकरण समान

हदय क कोमल किव की कात-

कलपना की लघ लिरी िदवय

कर रिी मानस-िलिल शात

लिा किन आितक वयिक

िमटाता उतकठा सिवशष,

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द रिा िो कोिकल सानद

समन को जयो मधमय सदश

"भरा था मन म नव उतसाि

सीख ल लिलत कला का जान,

इधर रिी िनधवो क दश,

िपता की ि पयारी सतान।

घमन का मरा अभयास बढा था

मक-वयोम-तल िनतय,

कतिल खोज रिा था,

वयसत हदय-सता का सदर सतय।

दिि जब जाती ििमििरी ओर

पश करता मन अिधक अधीर,

धरा की यि िसकडन भयभीत आि,

कसी ि? कया ि? पीर?

मधिरमा म अपनी िी मौन

एक सोया सदश मिान,

सजि िो करता था सकत,

ितना मिल उठी अनजान।

बढा मन और िल य पर,

शल-मालाओ का शिार,

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आख की भख िमटी यि दख

आि िकतना सदर सभार

एक िदन सिसा िसध अपार

लिा टकरान नद तल कबध,

अकला यि जीवन िनरपाय

आज तक घम रिा िवशबध।

यिा दखा कछबिल का अनन,

भत-िित-रत िकसका यि दान

इधर कोई ि अभी सजीव,

िआ ऐसा मन म अनमान।

तपसवी कयो िो इतन कलात?

वदना का यि कसा वि?

आि तम िकतन अिधक िताश-

बताओ यि कसा उदि

हदय म कया ि निी अधीर-

लालसा की िनशशष?

कर रिा विित किी न तयाि तमि,

मन म घर सदर वश

दख क डर स तम अजात

जिटलताओ का कर अनमान,

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काम स िझझक रि िो आज

भिवषयत स बनकर अनजान,

कर रिी लीलामय आनद-

मिाििित सजि िई-सी वयक,

िवश का उनमीलन अिभराम-

इसी म सब िोत अनरक।

काम-मिल स मिडत शय,

सि ज इचछा का ि पिरणाम,

ितरसकत कर उसको तम भल

बनात िो असिल भवधाम"

"दःख की िपछली रजनी बीि

िवकसता सक का नवल पभात,

एक परदा यि झीना नील

िछपाय ि िजसम सख का िात।

िजस तम समझ िो अिभशाप,

जित की जवालाओ का मल-

ईश का वि रिसय वरदान,

कभी मत इसको जाओ भल।

िवषमता की पीडा स वयक िो रिा

सपिदत िवश मिान,

यिी दख-सख िवकास का सतय

यिी भमा का मधमय दान।

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िनतय समरसता का अिधकार

उमडता कारण-जलिध समान,

वयथा स नीली लिरो बीि

िबखरत सख-मिणिण-दितमान।"

लि किन मन सिित िवषाद-

"मधर मारत -स य उचछवास

अिधक उतसाि तरि अबाध

उठात मानस म सिवलास।

िकत जीवन िकतना िनरपाय

िलया ि दख, निी सदि,

िनराशा ि िजसका कारण,

सिलता का वि किलपत िि।"

किा आितक न ससनि- "अर,

तम इतन िए अधीर

िार बठ जीवन का दाव,

जीतत मर कर िजसको वीर।

तप निी कवल जीवन-सतय

करण यि किणक दीन अवसाद,

तरल आकाका स ि भरा-

सो रिा आशा का आलिाद।

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पकित क यौवन का शिार

करि कभी न बासी िल,

िमलि ि अित शीघ

आि उतसक ि उनकी धल।

परातनता का यि िनमोक

सिन करती न पकित पल एक,

िनतय नतनता का आनद

िकय ि पिरवतनज म टक।

यिोम की िटटानो पर सिि

डाल पद-ििनिो िली िभीर,

दव,िधवज,िसर की पिक

अनसरण करती उस अधीर।"

"एक तम, यि िवसतत भ-खड

पकित वभव स भरा अमद,

कम ज का भोि, भोि का कमज,

यिी जड का ितन-आननद।

अकल तम कस असिाय

यजन कर सकत? तचछ िविार।

तपसवी आकषणज स िीन

कर सक निी आतम-िवसतार।

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दब रि िो अपन िी बोझ

खोजत भी निी किी अवलब,

तमिारा सििर बन कर कया न

उऋण िोऊ म िबना िवलब?

समपणज लो-सवा का सार,

सजल ससित का यि पतवार,

आज स यि जीवन उतसि ज

इसी पद-तल म िवित-िवकार

दया, माया, ममता लो आज,

मधिरमा लो, अिाध िवशास,

िमारा हदय-रत-िनिध

सवचछ तमिार िलए खला ि पास।

बनो ससित क मल रिसय,

तमिी स िलिी वि बल,

िवश-भर सौरब स भर जाय

समन क खलो सदर खल।"

"और यि कया तम सनत निी

िवधाता का मिल वरदान-

'शिकशाली िो, िवजयी बनो'

िवश म िज रिा जय-िान।

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डरो मत, अर अमत सतान

अगसर ि मिलमय विि,

पण ज आकषणज जीवन कद

िखिी आविी सकल समिि।

दव-असिलताओ का धवस

पिर उपकरण जटाकर आज,

पडा ि बन मानव-समपित

पण ज िो मन का ितन-राज।

ितना का सदर इितिास-

अिखल मानव भावो का सतय,

िवश क हदय-पटल पर

िदवय अकरो स अिकत िो िनतय।

िवधाता की कलयाणी सिि,

सिल िो इस भतल पर पणज,

पट सािर, िबखर गि-पज

और जवालामिखया िो िण।ज

उनि ििनिारी सदश सदप ज

किलती रि खडी सानद,

आज स मानवता की कीित ज

अिनल, भ, जल म रि न बद।

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जलिध क िट िकतन उतस-

दीि-कचछप डब-उतराय।

िकनत वि खडी रि दढ-मित ज

अभयदय का कर रिी उपाय।

िवश की दबलज ता बल बन,

पराजय का बढता वयापार-

िसाता रि उस सिवलास

शिक का कीडामय सिार।

शिक क िवदतकण जो वयसत

िवकल िबखर ि, िो िनरपाय,

समनवय उसका कर समसत

िवजियनी मानवता िो जाय"।

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काम "मधमय वसत जीवन-वन क,

बि अतिरक की लिरो म,

कब आय थ तम िपक स

रजनी क िपछल पिरो म?

कया तमि दखकर आत यो

मतवाली कोल बोली थी?

उस नीरवता म अलसाई

किलयो न आख खोली थी?

जब लीला स तम सीख रि

कोरक-कोन म लक करना,

तब िशिथल सरिभ स धरणी म

िबछलन न िई थी? सि किना

जब िलखत थ तम सरस िसी

अपनी, िलो क अिल म

अपना कल कठ िमलात थ

झरनो क कोमल कल-कल म।

िनिित आि वि था िकतना,

उललास, काकली क सवर म

आननद पितधविन िज रिी

जीवन िदित क अबर म।

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िशश िितकार ििलता म,

िकतनी आशा ििितत करत

असपि एक िलिप जयोितमय-

जीवन की आखो म भरत।

लितका घघट स िितवन की वि

कसम-दगध-सी मध-धारा,

पलािवत करती मन-अिजर रिी-

था तचछ िवश वभव सारा।

व िल और वि िसी रिी वि

सौरभ, वि िनशास छना,

कलरव, वि सिीत अर

वि कोलािल एकात बना"

कित-कित कछ सोि रि

लकर िनशास िनराशा की-

मन अपन मन की बात,

रकी ििर भी न पिित अिभलाषा की।

"ओ नील आवरण जिती क

दबोध न त िी ि इतना,

अविठन िोता आखो का

आलोक रप बनता िजतना

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िल-िक वरण का जयोित भरा

वयाक त कयो दता िरी?

तारो क िल िबखरत ि

लटती ि असिलता तरी।

नव नील कज ि झीम रि

कसमो की कथा न बद िई,

ि अतिरक आमोद भरा ििम-

किणका िी मकरद िई।

इस इदीवर स िध भरी

बनती जाली मध की धारा,

मन-मधकर की अनरािमयी

बन रिी मोििनी-सी कारा।

अणओ कोि िवशाम किा

यि कितमय वि भरा िकतन

अिवराम नािता कपन ि,

उललास सजीव िआ िकतना

उन नतय-िशिथल-िनशासो की

िकतनी ि मोिमयी माया?

िजनस समीर छनता-छनता

बनता ि पाणो की छाया।

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आकाश-रध ि पिरत-स

यि सिि ििन-सी िोती ि

आलोक सभी मिछजत सोत

यि आख थकी-सी रोती ि।

सौदययमज यी ििल कितया

बनकर रिसय ि नाि रिी,

मरी आखो को रोक विी

आि बढन म जाि रिी।

म दख रिा ि जो कछ भी

वि सब कया छाया उलझन ि?

सदरता क इस परद म

कया अनय धरा कोई धन ि?

मरी अकय िनिध तम कया िो

पििान सकिा कया न तमि ?

उलझन पाणो क धािो की

सलझन का समझ मान तमि।

माधवी िनशा की अलसाई

अलको म लकत तारा-सी,

कया िो सन-मर अिल म

अतःसिलला की धारा-सी,

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शितयो म िपक-िपक स कोई

मध-धारा घोल रिा,

इस नीरवता क परद म

जस कोई कछ बोल रिा।

ि सपश ज मलय क िझलिमल सा

सजा को और सलाता ि,

पलिकत िो आख बद िकय

तदा को पास बलाता ि।

वीडा ि ििल िकतनी

िवभम स घघट खीि रिी,

िछपन पर सवय मदल कर स

कयो मरी आख मीि रिी?

उदि िकितज की शयाम छटा

इस उिदत शक की छाया म,

ऊषा-सा कौन रिसय िलय

सोती िकरनो की काया म।

उठती ि िकरनो क ऊपर

कोमल िकसलय की छाजन-सी,

सवर का मध-िनसवन रधो म-

जस कछ दर बज बसी।

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सब कित ि- 'खोलो खोलो,

छिव दखिा जीवन धन की'

आवरन सवय बनत जात ि

भीड लि रिी दशनज की।

िादनी सदश खल जाय किी

अविठत आज सवरता सा,

िजसम अनत कललोल भरा

लिरो म मसत िविरता सा-

अपना ििनल िन पटक रिा

मिणयो का जाल लटाता-सा,

उिननद िदखाई दता िो

उनमत िआ कछ िाता-सा।"

"जो कछ, म न समिालिा

इस मधर भार को जीवन क,

आन दो िकतनी आती ि

बाधाय दम-सयम बन क।

नकतो, तम कया दखोि-

इस ऊषा की लाली कया ि?

सकलप भरा ि उनम

सदिो की जाली कया ि?

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कौशल यि कोमल िकतना ि

सषमा दभद बनिी कया?

ितना इदयो िक मरी,

मरी िी िार बनिी कया?

"पीता ि, िा म पीता ि-यि

सपशज,रप, रस िध भरा मध,

लिरो क टकरान स

धविन म ि कया िजार भरा।

तारा बनर यि िबखर रिा

कयो सवपनो का उनमाद अर

मादकता-माती नीद िलय

सोऊ मन म अवसाद भर।

ितना िशिथल-सी िोती ि

उन अधकार की लिरो म-"

मन डब िल धीर-धीर

रजनी क िपछल पिरो मम।

उस दर िकितज म सिि बनी

समितयो की सिित छाया स,

इस मन को ि िवशाम किा

ििल यि अपनी माया स।

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जािरण-लोक था भल िला

सवपनो का सख-सिार िआ,

कौतक सा बन मन क मन का

वि सदर कीडािार िआ।

था वयिक सोिता आलस म

ितना सजि रिती दिरी,

कानो क कान खोल करक

सनती थी कोई धविन ििरीः-

"पयासा ि, म अब पयासा

सति ओध स म न िआ,

आया ििर भी वि िला िया

तषणा को तिनक न िन िआ।

दवो की सिि िविलन िई

अनशीलन म अनिदन मर,

मरा अितिविार न बद िआ

उनमत रिा सबको घर।

मरी उपासना करत व

मरा सकत िवधान बना,

िवसतत जो मोि रिा मरा वि

दव-िवलास-िवतान तना।

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म काम, रिा सििर उनका

उनक िवनोद का साधन था,

िसता था िसाता था

उनका म कितमय जीवन था।

जो आकषणज बन िसती थी

रित थी अनािद-वासना विी,

अवयक-पकित-उनमीलन क

अतर म उसकी िाि रिी।

िम दोनो का अिसततव रिा

उस आरिभक आवतनज -सा।

िजसस ससित का बनता ि

आकार रपक नतनज -सा।

उस पकित-लता क यौवन म

उस पषपवती क माधव का-

मध-िास िआ था वि पिला

दो रप मधर जो ढाल सका।"

"वि मल शिक उठ खडी िई

अपन आलस का तयाि िकय,

परमाण बल सब दौड पड

िजसका सदर अनराि िलय।

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ककम का िण ज उडात स

िमलन को िल ललकत स,

अतिरक म मध-उतसव क

िवदतकण िमल झलकत स।

वि आकषणज , वि िमलन िआ

पारभ माधरी छाया म,

िजसको कित सब सिि,

बनी मतवाली माया म।

पतयक नाश-िवशषण भी

सिशि िए, बन सिि रिी,

ऋतपित क घर कसमोतसव था-

मादक मरद की विि रिी।

भज-लता पडी सिरताओ की

शलो क ल सनाथ िए,

जलिनिध का अिल वयजन

बना धरणी का दो-दो साथ िए।

कोरक अकर-सा जनम रिा

िम दोनो साथी झल िल,

उस नवल सि ज क कानन म

मद मलयािनल क िल िल,

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िम भख-पयास स जाि उठ

आकाका-तिप समनवय म,

रित-काम बन उस रिना म

जो रिी िनतय-यौवन वय म?'

"सरबालाओ को सखी रिी

उनकी हतती की लय थी

रित, उनक मन को सलझाती

वि राि-भरी थी, मधमय थी।

म तषणा था िवकिसत करता,

वि तिप िदखती थी उनकी,

आननद-समनवय िोता था

िम ल िलत पथ पर उनको।

व अमर रि न िवनोद रिा,

ितना रिी, अनि िआ,

ि भटक रिा अिसततव िलय

सिित का सरल पसि िआ।"

"यि नीड मनोिर कितयो का

यि िवश कम ज रिसथल ि,

ि परपरा लि रिी यिा

ठिरा िजसम िजतना बल ि।

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व िकतन ऐस िोत ि

जो कवल साधन बनत ि,

आरभ और पिरणामो क

सबध सत स बनत ि।

उषा की सजल िलाली

जो घलती ि नील अबर म

वि कया? कया तम दख रि

वणो क मघाडबर म?

अतर ि िदन औ 'रजनी का यि

साधक-कम ज िबखरता ि,

माया क नील अिल म

आलोक िबद-सा झरता ि।"

"आरिभक वातया-उदम म

अब पिित बन रिा ससित का,

मानव की शीतल छाया म

ऋणशोध करिा िनज कित का।

दोनो का समिित पिरवतनज

जीवन म शि िवकास िआ,

परणा अिधक अब सपि िई

जब िवपलव म पड हास िआ।

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यि लीला िजसकी िवकस िली

वि मल शिक थी पम-कला,

उसका सदश सनान को

ससित म आयी वि अमला।

िम दोनो की सतान विी-

िकतनी सदर भोली-भाली,

रिो न िजनस खला िो

ऐस िलो की वि डाली।

जड-ितनता की िाठ विी

सलझन ि भल-सधारो की।

वि शीतलता ि शाितमयी

जीवन क उषण िविारो की।

उसको पान की इचछा िो तो

योगय बनो"-किती-किती

वि धविन िपिाप िई सिसा

जस मरली िप िो रिती।

मन आख खोलकर पछ रि-

"पथ कौन विा पििाता ि?

उस जयोितमय को दव

किो कस कोई नर पाता?"

Page 60: Kamayani-JSP

पर कौन विा उतर दता

वि सवपन अनोखा भि िआ,

दखा तो सदर पािी म

अरणोदय का रस-रि िआ।

उस लता कज की िझल -िमल स

िमाभरिशम थी खल रिी,

दवो क सोम-सधा-रस की

मन क िाथो म बल रिी।

Page 61: Kamayani-JSP

वासन ा िल पड कब स हदय दो,

पिथक-स अशात,

यिा िमलन क िलय,

जो भटकत थ भात।

एक ििपित, दसरा था

अितिथ अित-िवकार,

पश था यिद एक,

तो उतत िदतीत उदार।

एक जीवन-िसध था,

तो वि लिर लघ लोल,

एक नवल पभात,

तो वि सवणज-िकरण अमोल।

एक था आकाश वषा ज

का सजल उिाम,

दसरा रिजत िकरण स

शी-किलत घनशयाम।

नदी-तट क िकितज म

नव जलद सायकाल-

खलता दो िबजिलयो स

जयो मधिरमा-जाल।

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लड रि थ अिवरत यिल

थ ितना क पाश,

एक सकता था न

कोई दसर को िास।

था समपणज म गिण का

एक सिनिित भाव,

थी पिित, पर अडा रिता

था सतत अटकाव।

िल रिा था िवजन-पथ पर

मधर जीवन-खल,

दो अपिरिित स िनयित

अब िािती थी मल।

िनतय पिरिित िो रि

तब भी रिा कछ शष,

िढ का अतर का िछपा

रिता रिसय िवशष।

दर, जस सघन वन-पथ-

अत का आलोक-

सतत िोता जा रिा िो,

नयन की िित रोक।

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ििर रिा िनसतज िोलक

जलिध म असिाय,

घन-पटल म डबता था

िकरण का समदाय।

कम ज का अवसाद िदन स

कर रिा छल-छद,

मधकरी का सरस-

सिय िो िला अब बद।

उठ रिी थी कािलमा

धसर िकितज स दीन,

भटता अितम अरण

आलोक-वभव-िीन।

यि दिरद-िमलन रिा

रि एक करणा लोक,

शोक भर िनजनज िनलय स

िबछडत थ कोक।

मन अभी तक मनन करत

थ लिाय धयान,

काम क सदश स िी

भर रि थ कान।

Page 64: Kamayani-JSP

इधर िि म आ जट थ

उपकरण अिधकार,

शसय, पश या धानय

का िोन लिा सिार।

नई इचछा खीि लाती,

अितिथ का सकत-

िल रिा था सरल-शासन

यक-सरिि-समत।

दखत थ अिगनशाला

स कतिल-यक,

मन िमतकत िनज िनयित

का खल बधन-मक।

एका माया आ रिा था

पश अितिथ क साथ,

िो रिा था मोि

करणा स सजीव सनाथ।

िपल कोमल-कर रिा

ििर सतत पश क अि,

सनि स करता िमर-

उदगीव िो वि सि।

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कभी पलिकत रोमराजी

स शरीर उछाल,

भावरो स िनज बनाता

अितिथ बदन िनिार,

सकल सिित-सनि

दता दिि-पथ स ढार।

और वि पिकारन का

सनि शबिलत िाव,

मज ममता सस िमला

बन हदय का सदभाव।

दखत-िी-दखत

दोनो पिि कर पास,

लि करन सरल शोभन

मधर मगध िवलास।

वि िवराि-िवभित

ईषाज-पवन स िो वयसत

िबखरती थी और खलतत

जवलन-कण जो असत।

िकनत यि कया?

एक तीखी घट, िििकी आि

कौन दता ि हदय म

वदनामय डाि?

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"आि यि पश और

इतना सरल सनदर सनि

पल रि मर िदय जो

अनन स इस िि।

म? किा म? ल िलया करत

सभी िनज भाि,

और दत िक मरा

पापय तचछ िवराि

अरी नीि कतघनत

िपचछल-िशला-सलगन,

मिलन काई-सी करिी

िकतन हदय भगन?

हदय का राजसव अपहत

कर अधम अपराध,

दसय मझस िाित ि

सख सदा िनबाधज ।

िवश म जो सरल सदर

िो िवभित मिान,

सभी मरी ि, सभी

करती रि पितदान।

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यिी तो, म जविलत

वाडव-विह िनतय-अशात,

िसध लिरो सा कर

शीतल मझ सब शात।"

आ िया ििर पास

कीडाशील अितिथ उदार,

िपल शशव सा

मनोिर भल का ल भार।

किा "कयो तम अभी

बठ िी रि धर धयान,

दखती ि आख कछ,

सनत रि कछ कान-

मन किी, यि कया िआ ि ?

आज कसा रि? "

नत िआ िण दप

ईषा ज का, िवलीन उमि।

और सिलान लािा कर-

कमल कोमल कात,

दख कर वि रप -सषमा

मन िए कछ शात।

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किा " अितिथ किा रि

तम िकधर थ अजात?

और यि सििर तमिारा

कर रिा जयो बात-

िकसी सलभ भिवषय की,

कयो आज अिधक अधीर?

िमल रिा तमस ििरतन

सनि सा िभीर?

कौन िो तम खीित यो

मझ अपनी ओर

ओर ललिात सवय

िटत उधर की ओर

जयोतसना-िनझरज ठिरती

िी निी यि आख,

तमि कछ पििानन की

खो ियी-सी साख।

कौन करण रिसय ि

तमम िछपा छिवमान?

लता वीरध िदया करत

िजसम छायादान।

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पश िक िो पाषाण

सब म नतय का नव छद,

एक आिलिन बलाता

सभा का सानद।

रािश-रािश िबखर पडा

ि शात सिित पयार,

रख रिा ि उस ढोकर

दीन िवश उधार।

दखता ि ििकत जस

लिलत लितका-लास,

अरण घन की सजल

छाया म िदनात िनवास-

और उसम िो िला

जस सिज सिवलास,

मिदर माधव-यािमनी का

धीर-पद-िवनयास।

आि यि जो रिा

सना पडा कोना दीन-

धवसत मिदर का,

बसाता िजस कोई भी न-

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उसी म िवशाम माया का

अिल आवास,

अर यि सख नीद कसी,

िो रिा ििम-िास

वासना की मधर छाया

सवासथय, बल, िवशाम

िदय की सौदयज-पितमा

कौन तम छिवधाम

कामना की िकरन का

िजसम िमला िो ओज,

कौन िो तम, इसी

भल हदय की ििर-खोज

कद -मिदर-सी िसी

जयो खली सषमा बाट,

कयो न वस िी खला

यि हदय रि-कपाट?

किा िसकर "अितिथ ि म,

और पिरिय वयथज,

तम कभी उिदगन

इतन थ न इसक अथ।ज

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िलो, दखो वि िला

आता बलान आज-

सरल िसमख िवध जलद-

लघ-खड-वािन साज

कािलमा धलन लिी

घलन लिा आलोक,

इसी िनभत अनत म

बसन लिा अब लोक।

इस िनशामख की मनोिर

सधामय मसकयान,

दख कर सब भल जाय

दख क अनमान।

दख लो, ऊि िशखर का

वयोम-वबन-वयसत-

लौटना अितम िकरण का

और िोना असत।

िलो तो इस कौमदी म

दख आव आज,

पकित का यि सवपन-शासन,

साधना का राज।"

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सिि िसन लिी

आखो म िखला अनराि,

राि-रिजत ििदका थी,

उडा समन-पराि।

और िसता था अितिथ

मन का पकडकर िाथ,

िल दोनो सवपन-पत म,

सनि-सबल साथ।

दवदार िनकज िहर

सब सधा म सनात,

सब मनात एक उतसव

जािरण की रात।

आ रिी थी मिदर भीनी

माधवी की िध,

पवन क घन िघर पडत थ

बन मध-अध।

िशिथल अलसाई पडी

छाया िनशा की कात-

सो रिी थी िशिशर कण की

सज पर िवशात।

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उसी झरमट म हदय की

भावना थी भात,

जिा छाया सजन करती

थी कतिल कात।

किा मन न "तमि दखा

अितिथ िकतनी बार,

िकत इतन तो थ

तम दब छिव क भार

पवज-जनम कि िक था

सपिणीय मधर अतीत,

िजत जब मिदर घन म

वासना क िीत।

भल कर िजस दशय को

म बना आज अित,

विी कछ सवीड,

सिसमत कर रिा सकत।

"म तमिारा िो रिा ि"

यिी सदढ िविार'

ितना का पिरिध

बनता घम िकाकार।

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मध बरसती िवध िकरन

ि कापती सकमार?

पवन म ि पलक,

मथर िल रिा मध-भार।

तम समीप, अधीर

इतन आज कयो ि पाण?

छक रिा ि िकस सरभी स

तप िोकर घाण?

आज कयो सदि िोता

रठन का वयथज,

कयो मनाना िािता-

सा बन रिा था असमथ।ज

धमिनयो म वदना-

सा रक का सिार,

हदय म ि कापती

धडकन, िलय लघ भार

ितना रिीन जवाला

पिरिध म सानद,

मानती-सी िदवय-सख

कछ िा रिी ि छद।

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अिगनकीट समान जलती

ि भरी उतसाि,

और जीिवत ि,

न छाल ि न उसम वाि

कौन िो तम-माया-

किक-सी साकार,

पाण-सता क मनोिर

भद-सी सकमार

हदय िजसकी कात छया

म िलय िनशास,

थक पिथक समान करता

वयजन गलािन िवनाश।"

शयाम-नभ म मध-िकरन-

सा ििर विी मद िास,

िसध की ििलकोर

दिकण का समीर-िवलास

कज म िजिरत

कोई मकल सा अवयक-

लिा किन अितिथ,

मन थ सन रि अनरक-

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"यि अतिप अधीर मन की,

कोभयक उनमाद,

सख तमल-तरि-सा

उचछवासमय सवाद।

मत किो, पछो न कछ,

दखो न कसी मौन,

िवमल राका मित ज बन कर

सतबध बठा कौन

िवभव मतवाली पकित का

आवरण वि नील,

िशिथल ि, िजस पर िबखरता

पिर मिल खील,

रािश-रािश नखत-कसम

की अिनज ा अशात

िबखरती ि, तामरस

सदर िरण क पात।"

मन िनखरन लि

जयो-जयो यािमनी का रप,

वि अनत पिाढ

छाया िलती अपरप,

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बरसता था मिदर कण-सा

सवचछ सतत अनत,

िमलन का सिीत

िोन लिा था शीमत।

छटती ििनिािरया

उतजना उदभात।

धधकती जवाला मधर,

था वक िवकल अशात।

वातिक समान कछ

था बाधता आवश,

धय ज का कछ भी न

मन क हदय म था लश।

कर पकड उनमक स

िो लि किन "आज,

दखता ि दसरा कछ

मधिरमामय साज

विी छिव िा विी जस

िकत कया यि भल?

रिी िवसमित-िसध म समित-

नाव िवकल अकल

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जनम सििनी एक थी

जो कामबाला नाम-

मधर शिा था,

िमार पाण को िवशाम-

सतत िमलता था उसी स,

अर िजसको िल

िदया करत अध ज म

मकरद सषमा-मल

पलय म भी बि रि िम

ििर िमलन का मोद

रिा िमलन को बिा,

सन जित की िोद

जयोतसना सी िनकल आई

पार कर नीिार,

पणय-िवध ि खडा

नभ म िलय तारक िार

किटल कतक स बनाती

कालमाया जाल-

नीिलमा स नयन की

रिती तिमसा माल।

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नीद-सी दभद तम की,

िकती यि दिि,

सवपन-सी ि िबखर जाती

िसी की िल-सिि।

िई कदीभत-सी ि

साधना की सिितज,

दढ-सकल सकमारता म

रमय नारी-मित ज

िदवाकर िदन या पिरशम

का िवकल िवशात

म परष, िशश सा भटकता

आज तक था भात।

िद की िवशाम राका

बािलका-सी कात,

िवजयनी सी दीखती

तम माधरी-सी शात।

पददिलत सी थकी

वजया जयो सा आकात,

शसय-शयामल भिम म

िोती समाप अशात।

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आि वसा िी हदय का

बन रिा पिरणाम,

पा रिा आज दकर

तमिी स िनज काम।

आज ल लो ितना का

यि समपणज दान।

िवश-रानी सदरी नारी

जित की मान"

धम-लितका सी ििन-तर

पर न िढती दीन,

दबी िशिशर-िनशीथ म

जयो ओस-भार नवीन।

झक िली सवीड

वि सकमारता क भार,

लद िई पाकर परष का

नममज य उपिार।

और वि नारीतव का जो

मल मध अनभाव,

आज जस िस रिा

भीतर बढाता िाव।

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मधर वीडा-िमश

ििता साथ ल उललास,

हदय का आनद-कजन

लिा करन रास।

ििर रिी पलक,

झकी थी नािसका की नोक,

भलता थी कान तक

िढती रिी बरोक।

सपश ज करन लिी लजजा

लिलत कण ज कपोल,

िखला पलक कदब सा

था भरा िदिद बोल

िकनत बोली "कया

समपणज आज का ि दव

बनिा-ििर-बध-

नारी-हदय-ित-सदव।

आि म दबलज , किो

कया ल सकिी दान

वि, िजस उपभोि करन म

िवकल िो पान?"

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लजजा

"कोमल िकसलय क अिल म

ननिी किलका जयो िछपती-सी,

िोधली क धिमल पट म

दीपक क सवर म िदपती-सी।

मजल सवपनो की िवसमित म

मन का उनमाद िनखरता जयो-

सरिभत लिरो की छाया म

बलल का िवभव िबखरता जयो-

वसी िी माया म िलपटी

अधरो पर उिली धर िए,

माधव क सरस कतिल का

आखो म पानी भर िए।

नीरव िनशीथ म लितका-सी

तम कौन आ रिी िो बढती?

कोमल बाि िलाय-सी

आिलिन का जाद पढती

िकन इदजाल क िलो स

लकर सिा-कण-राि-भर,

िसर नीिा कर िो िथ माला

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िजसस मध धार ढर?

पलिकत कदब की माला-सी

पिना दती िो अतर म,

झक जाती ि मन की डाली

अपनी िलभरता क डर म।

वरदान सदश िो डाल रिी

नीली िकरनो स बना िआ,

यि अिल िकतना िलका-सा

िकतना सौरभ स सना िआ।

सब अि मोम स बनत ि

कोमलता म बल खाती ि,

म िसिमट रिी-सी अपन म

पिरिास-िीत सन पाती ि।

िसमत बन जाती ि तरल िसी

नयनो म भरकर बाकपना,

पतयक दखती ि सब

जो वि बनता जाता ि सपना

मर सपनो म कलरव का ससार

आख जब खौल रिा,

अनराि समीरो पर ितरता था

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इतराता-सा डोल रिा।

अिभलाषा अपन यौवन म

उठती उस सख क सवाित को,

जीवन भर क बल-वभव स

सतकत करती दराित को।

िकरनो का रजज समट िलया

िजसका अवलबन ल िढती,

रस क िनझरज म धस कर म

आननद-िशख क पित बढती।

छन म िििक, दखन म

पलक आखो पर झकती ि,

कलरव पिरिास भरी िज

अधरो तक सिसा रकती ि।

सकत कर रिी रोमाली

िपिाप बरजती खडी रिी,

भाषा बन भौिो की काली-रखा-सी

भम म पडी रिी।

तम कौन हदय की परवशता?

सारी सवततता छीन रिी,

सवचछद समन जो िखल रि

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जीवन-वन स िो बीन रिी"

सधया की लाली म िसती,

उसका िी आशय लती-सी,

छाया पितमा िनिना उठी

शिा का उतर दती-सी।

" इतना न िमतकत िो बाल

अपन मन का उपकार करो,

म एक पकड ि जो किती

ठिरो कछ सोि-िविार करो।

अबर-िबी ििम-शिो स

कलरव कोलािल साथ िलय,

िवदत की पाणमयी धारा

बिती िजसम उनमाद िलय।

मिल ककम की शी िजसम

िनखरी िो ऊषा की लाली,

भोला सिाि इठलाता िो

ऐसा िो िजसम ििरयाली।

िो नयनो का कलयाण बना

आननद समन सा िवकसा िो,

वासती क वनवभव म

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िजसका पिमसवर िपक-सा िो,

जो िज उठ ििर नस-नस म

मछजना समान मिलता-सा,

आखो क साि म आकर

रमणीय रप बन ढता-सा,

नयनो की नीलम की घाटी

िजस रस घन स छा जाती िो,

वि कौध िक िजसस अतर की

शीतलता ठडक पाती िो,

ििललोल भरा िो ऋतपित का

िोधली की सी ममता िो,

जािरण पात-सा िसता िो

िजसम मधयाह िनखरता िो,

िो ििकत िनकल आई

सिसा जो अपन पािी क घर स,

उस नवल ििदका-स िबछल जो

मानस की लिरो पर-स,

िलो की कोमल पखिडया

िबखर िजसक अिभनदन म,

मकरद िमलाती िो अपना

सवाित क ककम िदन म ,

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कोमल िकसलय ममरज -रव-स

िजसका जयघोष सनात िो,

िजसम दख-सख िमलकर

मन क उतसव आनद मनात िो,

उजजवल वरदान ितना का

सौदयय ज िजस सब कित ि।

िजसम अनत अिभलाषा क

सपन सब जित रित ि।

म उसी िपल की धाती ि,

िौरव मििमा ि िसखलाती,

ठोकर जो लिन वाली ि

उसको धीर स समझाती,

म दव-सिि की रित-रानी

िनज पिबाण स विित िो,

बन आवजनज ा-मित ज दीना

अपनी अतिप-सी सिित िो,

अविशि रि िई अनभव म

अपनी अतीत असिलता-सी,

लीला िवलास की खद-भरी

अवसादमयी शम-दिलता-सी,

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म रित की पितकित लजजा ि

म शालीनता िसखाती ि,

मतवाली सदरता पि म

नपर सी िलपट मनाती ि,

लाली बन सरल कपोलो म

आखो म अजन िस लिती,

किित अलको सी घघराली

मन की मरोर बनकर जिती,

ििल िकशोर सदरता की म

करती रिती रखवाली,

म वि िलकी सी मसलन ि

जो बनती कानोम की लाली।

" िा, ठीक, परत बताओिी

मर जीवन का पथ कया ि?

इस िनिवड िनसा म ससित की

आलोकमयी रखा कया ि?

यि आज समझ तो पाई ि

म दबलज ता मम नारी ि,

अवयव की सदर कोमलता

लकर म सबस िारी ि।

Page 89: Kamayani-JSP

पर मन भी कयो इतना ढीला

अपन िी िोता जाता ि,

घनशयाम-खड-सी आखो म कयो

सिसा जल भर आता ि?

सवसज व-समपणज करन की

िवसवास-मिा-तर-छाया म,

िपिाप पडी रिन की कयो

ममता जिती ि माया म?

छायापथ म तारक-दित सी

िझलिमल करन की मध-लीला,

अिभनय करती कयो इस मन म

कोमल िनरीिता शम-शीला?

िनससबल िोकर ितरती ि

इस मानस की ििराई म,

िािती निी जािरण कभी

सपन की इस सधराई म।

नारी जीवन का िित यिी कया?

िवकल रि भर दती िो,

असिट रख की सीमा म

आकार कला को दती िो।

Page 90: Kamayani-JSP

रकती ि ठिरती ि

पर सोि-िविार न कर सकती,

पिली सी कोई अतर म

बठी जस अनिदत बकती।

म जभी तोलन का करती

उपिार सवय तल जाती ि

भजलता िसा कर नर-तर स

झल सी झोक खाती ि।

इस अपणज मम कछ और निी

कवल उतसि ज छलकता ि,

म द द और न कछ ल,

इतना िी सरल झलकता ि।"

" कया किती िो ठिरो नारी

सकलप अश-जल-स-अपन-

तम दान कर िकी पिल िी

जीवन क सोन-स सपन।

नारी तम कवल शिा िो

िवशास-रजत-नि पितल म,

पीयष-सोत-सी बिा करो

जीवन क सदर समतल म।

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दवो की िवजय, दानवो की

िारो का िोता-यि रिा,

सघष ज सदा उर-अतर म जीिवत

रि िनतय-िवरि रिा।

आस स भीि अिल पर मन का

सब कछ रखना िोिा-

तमको अपनी िसमत रखा स

यि सिधपत िलखना िोिा।

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ईषय ाज

पल भर की उस ििलता न

खो िदया हदय का सवािधकार,

शिा की अब वि मधर िनशा

िलाती िनषिल अधकार

मन को अब मिया छोड निी

रि िया और था अिधक काम

लि िया रक था उस मख म-

ििसा-सख लाली स ललाम।

ििसा िी निी-और भी कछ

वि खोज रिा था मन अधीर,

अपन पभतव की सख सीमा

जो बढती िो अवसाद िीर।

जो कछ मन क करतलित था

उसम न रिा कछ भी नवीन,

शिा का सरल िवनोद निी रिता

अब था बन रिा दीन।

उठती अतसतल स सदव

दलिज लत लालसा जो िक कात,

वि इदिाप-सी िझलिमल िो

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दब जाती अपन आप शात।

"िनज उदम का मख बद िकय

कब तक सोयि अलस पाण,

जीवन की ििर ििल पकार

रोय कब तक, ि किा ताण

शिा का पणय और उसकी

आरिभक सीधी अिभवयिक,

िजसम वयाकल आिलिन का

अिसततव न तो ि कशल सिक

भावनामयी वि सिित ज निी

नव-नव िसमत रखा म िवलीन,

अनरोध न तो उललास,

निी कसमोदम-साकछ भी नवीन

आती ि वाणी म न कभी

वि िाव भरी लीला-ििलोर,

िजसमम नतनता नतयमयी

इठलाती िो ििल मरोर।

जब दखो बठी िई विी

शािलया बीन कर निी शात,

या अनन इकटठ करती ि

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िोती न तिनक सी कभी कलात

बीजो का सगि और इधर

िलती ि तकली भरी िीत,

सब कछ लकर बठी ि वि,

मरा अिसततव िआ अतीत"

लौट थ मिया स थक कर

िदखलाई पडता ििा-दार,

पर और न आि बढन की

इचछा िोती, करत िविार

मि डाल िदया, ििर धन को भी,

मन बठ िय िशिथिलत शरीर

िबखर त सब उपकरण विी

आयध, पतयिा, शि, तीर।

" पििम की रािमयी सधया

अब काली ि िो िली, िकत,

अब तक आय न अिरी

व कया दर ल िया िपल जत

" यो सोि रिी मन म अपन

िाथो म तकली रिी घम,

शिा कछ-कछ अनमनी िली

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अलक लती थी िलि िम।

कतकी-िभज-सा पीला मि

आखो म आलस भरा सनि,

कछ कशता नई लजीली थी

किपत लितका-सी िलय दि

माततव-बोझ स झक िए

बध रि पयोधर पीन आज,

कोमल काल ऊनो की

नवपिटटका बनाती रििर साज,

सोन की िसकता म मानो

कािलदी बिती भर उसास।

सवििज ा म इदीवर की या

एक पिक कर रिी िास

किट म िलपटा था नवल-वसन

वसा िी िलका बना नील।

दभरज थी िभज-मधर पीडा

झलती िजस जननी सलील।

शम-िबद बना सा झलक रिा

भावी जननी का सरस िवज,

बन कसम िबखरत थ भ पर

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आया समीप था मिापव।ज

मन न दखा जब शिा का

वि सिज-खद स भरा रप,

अपनी इचछा का दढ िवरोध-

िजसम व भाव निी अनप।

व कछ भी बोल निी,

रि िपिाप दखत सािधकार,

शिा कछ कछ मसकरा उठी

जयो जान िई उनका िविार।

'िदन भर थ किा भटकत तम'

बोली शिा भर मधर सनि-

"यि ििसा इतनी ि पयारी

जो भलवाती ि दि-दि

म यिा अकली दख रिी पथ,

सनती-सी पद-धविन िनतात,

कानन म जब तम दौड रि

मि क पीछ बन कर अशात

ढल िया िदवस पीला पीला

तम रकारण वन रि घम,

दखो नीडो म िविि-यिल

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अपन िशशओ को रि िम

उनक घर मम कोलािल ि

मरा सना ि ििा-दार

तमको कया ऐसी कमी रिी

िजसक िित जात अनय-दार?'

" शि तमको कछ कमी निी

पर म तो दक रिा अभाव,

भली-सी कोई मधर वसत

जस कर दती िवकल घाव।

ििर-मक-परष वि कब इतन

अवरि शास लिा िनरीि

िितिीन पि-सा पडा-पडा

ढि कर जस बन रिा डीि।

जब जड-बधन-सा एक मोि

कसता पाणो का मद शरीर,

अकलता और जकडन की

तब गिथ तोडती िो अधीर।

िस कर बोल, बोलत िए िनकल

मध-िनझरज -लिलत-िान,

िानो म उललास भरा

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झम िजसम बन मधर पान।

वि आकलता अब किा रिी

िजसम सब कछ िी जाय भल,

आशा क कोमल तत-सदश

तम तकली म िो रिी झल।

यि कयो, कया िमलत निी

तमि शावक क सदर मदल िमज?

तम बीज बीनती कयो?

मरा मिया का िशिथल िआ न कम।ज

ितस पर यि पीलापन कसा-

यि कयो बनन का शम सखद?

यि िकसक िलए, बताओ तो कया

इसम ि िछप रिा भद?"

" अपनी रका करन म जो

िल जाय तमिारा किी अस

वि तो कछ समझ सकी ि म-

ििसक स रका कर शस।

पर जो िनरीि जीकर भी

कछ उपकारी िोन म समथज,

व कयो न िजय, उपयोिी बन-

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इसका म समझ सकी न अथ।ज

िमड उनक आवरण रि

ऊनो स िल मरा काम,

व जीिवत िो मासल बनकर

िम अमत दि-व दगधधाम।

व दोि न करन क सथल ि

जो पाल जा सकत सित,

पश स यिद िम कछ ऊि ि

तो भव-जलिनिध म बन सत।"

"म यि तो मान निी सकता

सख-सिज लबध यो छट जाय,

जीवन का जो सघष ज िल

वि िविल रि िम िल जाय।

काली आखो की तारा म-

म दख अपना िित धनय,

मरा मानस का मकर रि

पितिबिबत तमस िी अननय।

शि यि नव सकलप निी-

िलन का लघ जीवन अमोल,

म उसको िनिय भोि िल

जो सख िलदल सा रिा डोल

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दखा कया तमन कभी निी

सविीय सखो पर पलय-नतय?

ििर नाश और ििर-िनदा ि

तब इतना कयो िवशास सतय?

यि ििर-पशात-मिल की

कयो अिभलाषा इतनी जाि रिी?

यि सिित कयो िो रिा सनि

िकस पर इतनी िो सानराि?

यि जीवन का वरदान-मझ

द दो रानी-अपना दलार,

कवल मरी िी ििता का

तव-िित विन कर रि भार।

मरा सदर िवशाम बना सजता

िो मधमय िवश एक,

िजसम बिती िो मध-धारा

लिर उठती िो एक-एक।"

"मन तो एक बनाया ि

िल कर दखो मरा कटीर,"

यो किकर शिा िाथ पकड

मन को विा ल िली अधीर।

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उस ििा समीप पआलो की

छाजन छोटी सी शाित-पज,

कोमल लितकाओ की डाल

िमल सघन बनाती जिा कमज।

थ वातायन भी कट िए-

पािीर पणमज य रिित शभ,

आव कण भर तो िल जाय-

रक जाय किी न समीर, अभ।

उसम था झला वतसी-

लता का सरििपणज,

िबछ रिा धरातल पर ििकना

समनो का कोमल सरिभ-िण।ज

िकतनी मीठी अिभलाषाय

उसम िपक स रिी घम

िकतन मिल क मधर िान

उसक कानो को रि िम

मन दख रि थ ििकत नया यि

ििलकमी का िि-िवधान

पर कछ अचछा-सा निी लिा

'यि कयो'? िकसका सख सािभमान?'

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िप थ पर शिा िी बोली-

"दखो यि तो बन िया नीड,

पर इसम कलरव करन को

आकल न िो रिी अभी भीड।

तम दर िल जात िो जब-

तब लकर तकली, यिा बठ,

म उस ििराती रिती ि

अपनी िनजनज ता बीि पठ।

म बठी िाती ि तकली क

पितवतनज म सवर िवभोर-

'िल िर तकली धीर-धीर

िपय िय खलन को अिर'।

जीवन का कोमल तत बढ

तरी िी मजलता समान,

ििर-नगन पाण उनम िलपट

सदरता का कछ बढ मान।

िकरनो-िस त बन द उजजवल

मर मध-जीवन का पभात,

िजसम िनवसज ना पकित सरल ढक

ल पकाश स नवल िात।

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वासना भरी उन आखो पर

आवरण डाल द काितमान,

िजसम सौदय ज िनखर आव

लितका म िलल-कसम-समान।

अब वि आितक ििा बीि

पश सा न रि िनवसज न-नगन,

अपन अभाव की जडता म वि

रि न सकिा कभी मगन।

सना रििा मरा यि लघ-

िवश कभी जब रिोि न,

म उसक िलय िबछाऊिा

िलो क रस का मदल ि।

झल पर उस झलाऊिी

दलरा कर लिी बदन िम,

मरी छाती स िलपटा इस

घाटी म लिा सिज घम।

वि आविा मद मलयज-सा

लिराता अपन मसण बाल,

उसक अधरो स िलिी

नव मधमय िसमित-लितका-पवाल।

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अपनी मीठी रसना स वि

बोलिा ऐस मधर बोल,

मरी पीडा पर िछडकिी जो

कसम-धिल मकरद घोल।

मरी आखो का सब पानी

तब बन जायिा अमत िसनगध

उन िनिवकज ार नयनो म जब

दखिी अपना िित मगध"

"तम िल उठोिी लितका सी

किपत कर सख सौरभ तरि,

म सरिभ खोजता भटकिा

वन-वन बन कसतरी करि।

यि जलन निी सि सकता म

िाििय मझ मरा ममतव,

इस पिभत की रिना म म

रमण कर बन एक ततव।

यि दत, अर यि िवधातो ि

पम बाटन का पकार

िभकक म ना, यि कभी निी-

म लोटा लिा िनज िविार।

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तम दानशीलता स अपनी बन

सजल जलद िबतरो न िवद।

इस सख-नभ म म िविरिा

बन सकल कलाधर शरद-इद।

भल कभी िनिारोिी कर

आकषणज मय िास एक,

मायािविन म न उस लिा

वरदान समझ कर-जान टक

इस दीन अनगि का मझ पर

तम बोझ डालन म समथज-

अपन को मत समझो शि

िोिा पयास यि सदा वयथ।ज

तम अपन सख स सखी रिो

मझको दख पान दो सवतत,

' मन की परवशता मिा-दख'

म यिी जपिा मिामत

लो िला आज म छोड यिी

सिित सवदन-भार-पज,

मझको काट िी िमल धनय

िो सिल तमि िी कसम-कज। "

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कि, जवलनशील अतर लकर मन

िल िय, था शनय पात,

"रक जा, सन ल ओ िनमोिी"

वि किती रिी अधीर शात।

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इडा

"िकस ििन ििा स अित अधीर

झझा-पवाि-सा िनकला

यि जीवन िवकबध मिासमीर

ल साथ िवकल परमाण-पज

नभ, अिनल, अनल,

भयभीत सभी को भय दता

भय की उपासना म िवलीन

पाणी कटता को बाट रिा

जिती को करता अिधक दीन

िनमाणज और पितपद-िवनाश म

िदखलाता अपनी कमता

सघष ज कर रिा-सा सब स,

सब स िवराि सब पर ममता

अिसततव-ििरतन-धन स कब,

यि छट पडा ि िवषम तीर

िकस लकय भद को शनय िीर?

दख मन व शल-शि

जो अिल ििमानी स रिजत,

उनमक, उपका भर ति

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अपन जड-िौरव क पतीक

वसधा का कर अिभमान भि

अपनी समािध म रि सखी,

बि जाती ि निदया अबोध

कछ सवद-िबद उसक लकर,

वि िसमत-नयन ित शोक-कोध

िसथर-मिक, पितषा म वसी

िािता निी इस जीवन की

म तो अबाध िित मरत-सदश,

ि िाि रिा अपन मन की

जो िम िला जाता अि-जि

पित-पि म कपन की तरि

वि जवलनशील िितमय पति।

अपनी जवाला स कर पकाश

जब छोड िला आया सदर

पारिभक जीवन का िनवास

वन, ििा, कज , मर-अिल म ि

खोज रिा अपना िवकास

पािल म, िकस पर सदय रिा-

कया मन ममता ली न तोड

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िकस पर उदारता स रीझा-

िकसस न लिा दी कडी िोड?

इस िवजन पात म िबलख रिी

मरी पकार उतर न िमला

ल-सा झलसाता दौड रिा-

कब मझस कोई िल िखला?

म सवपन दखत ि उजडा-

कलपना लोक म कर िनवास

दख कब मन कसम िास

इस दखमय जीवन का पकाश

नभ-नील लता की डालो म

उलझा अपन सख स िताश

किलया िजनको म समझ रिा

व काट िबखर आस-पास

िकतना बीिड-पथ िला और

पड रिा किी थक कर िनतात

उनमक िशखर िसत मझ पर-

रोता म िनवािज सत अशात

इस िनयित-नटी क अित भीषण

अिभनय की छाया नाि रिी

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खोखली शनयता म पितपद-

असिलता अिधक कलाि रिी

पावस-रजनी म जिन िण को

दौड पकडता म िनराश

उन जयोित कणो का कर िवनाश

जीवन-िनशीथ क अधकार

त, नील तििन-जल-िनिध बन कर

िला ि िकतना वार-पार

िकतनी ितनता की िकरण ि

डब रिी य िनिवकज ार

िकतना मादकतम, िनिखल भवन

भर रिा भिमका म अबि

त, मितमज ान िो िछप जाता

पितपल क पिरवतनज अनि

ममता की कीण अरण रख

िखलती ि तझम जयोित-कला

जस सिाििनी की ऊिमलज

अलको म ककमिण ज भला

र ििरिनवास िवशाम पाण क

मोि-जलद-छया उदार

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मायारानी क कशभार

जीवन-िनशीथ क अधकार

त घम रिा अिभलाषा क

नव जवलन-धम-सा दिनवज ार

िजसम अपणज-लालसा, कसक

ििनिारी-सी उठती पकार

यौवन मधवन की कािलदी

बि रिी िम कर सब िदित

मन-िशश की कीडा नौकाय

बस दौड लिाती ि अनत

कििकिन अपलक दि क अजन

िसती तझम सदर छलना

धिमल रखाओ स सजीव

ििल िितो की नव-कलना

इस ििर पवास शयामल पथ म

छायी िपक पाणो की पकार-

बन नील पितधविन नभ अपार

उजडा सना निर-पात

िजसम सख-दख की पिरभाषा

िवधवसत िशलप-सी िो िनतात

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िनज िवकत वक रखाओ स,

पाणी का भागय बनी अशात

िकतनी सखमय समितया,

अपणा ज रिि बन कर मडराती िवकीण ज

इन ढरो म दखभरी करिि

दब रिी अभी बन पात जीण ज

आती दलार को िििकी-सी

सन कोनो म कसक भरी।

इस सखर तर पर मनोवित

आकाश-बिल सी रिी िरी

जीवन-समािध क खडिर पर जो

जल उठत दीपक अशात

ििर बझ जात व सवय शात।

यो सोि रि मन पड शात

शिा का सख साधन िनवास

जब छोड िल आय पशात

पथ-पथ म भटक अटकत व

आय इस ऊजड निर-पात

बिती सरसवती वि भरी

िनसतबध िो रिी िनशा शयाम

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नकत िनरखत िनिममज ष

वसधा को वि िित िवकल वाम

वतघनी का व जनाकीण ज

उपकल आज िकतना सना

दवश इद की िवजय-कथा की

समित दती थी दख दना

वि पावन सारसवत पदश

दसवपन दखता पडा कलात

िला था िारो ओर धवात।

"जीवन का लकर नव िविार

जब िला दद था असरो म

पाणो की पजा का पिार

उस ओर आतमिवशास-िनरत

सर-वि ज कि रिा था पकार-

म सवय सतत आराधय आतम-

मिल उपासना म िवभोर

उललासशीलता म शिक-कनद,

िकसकी खोज ििर शरण और

आनद-उचछिलत-शिक-सोत

जीवन-िवकास विितय भरा

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अपना नव-नव िनमाणज िकय

रखता यि िवश सदव िरा,

पाणो क सख-साधन म िी,

सलगन असर करत सधार

िनयमो म बधत दिनवज ार

था एक पजता दि दीन

दसरा अपण ज अिता म

अपन को समझ रिा पवीण

दोनो का िठ था दिनवज ार,

दोनो िी थ िवशास-िीन-

ििर कयो न तकज को शसो स

व िसि कर-कयो िि न यि

उनका सघष ज िला अशात

व भाव रि अब तक िवरि

मझम ममतवमय आतम-मोि

सवाततयमयी उचछखलता

िो पलय-भीत तन रका म

पजन करन की वयाकलता

वि पव ज दद पिरविततज िो

मझको बना रिा अिधक दीन-

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सिमि म ि शिा-िविीन।"

मन तम शिाको िय भल

उस पण ज आतम-िवशासमयी को

उडा िदया था समझ तल

तमन तो समझा असत िवश

जीवन धाि म रिा झल

जो कण बीत सख-साधन म

उनको िी वासतव िलया मान

वासना-तिप िी सवि ज बनी,

यि उलटी मित का वयथज-जान

तम भल िय परषतव-मोि म

कछ सता ि नारी की

समरसता ि सबध बनी

अिधकार और अिधकारी की।"

जब िजी यि वाणी तीखी

किपत करती अबर अकल

मन को जस िभ िया शल।

"यि कौन? अर विी काम

िजसन इस भम म ि डाला

छीना जीवन का सख-िवराम?

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पतयक लिा िोन अतीत

िजन घिडयो का अब शष नाम

वरदान आज उस ितयि का

किपत करता ि अतरि

अिभशाप ताप की जवाला स

जल रिा आज मन और अि-"

बोल मन-" कया भात साधना

म िी अब तक लिा रिा

का तमन शिा को पान

क िलए निी ससनि किा?

पाया तो, उसन भी मझको

द िदया हदय िनज अमत-धाम

ििर कयो न िआ म पणज-काम?"

"मन उसन त कर िदया दान

वि हदय पणय स पण ज सरल

िजसम जीवन का भरा मान

िजसम ितना िी कवल

िनज शात पभा स जयोितमान

पर तमन तो पाया सदव

उसकी सदर जड दि मात

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सौदय ज जलिध स भर लाय

कवल तम अपना िरल पात

तम अित अबोध, अपनी अपणतज ा को

न सवय तम समझ सक

पिरणय िजसको परा करता

उसस तम अपन आप रक

कछ मरा िो' यि राि-भाव

सकिित पणतज ा ि अजान

मानस-जलिनिध का कद-यान।

िा अब तम बनन को सवतत

सब कलष ढाल कर औरो पर

रखत िो अपना अलि तत

ददो का उदम तो सदव

शाशत रिता वि एक मत

डाली म कटक सि कसम

िखलत िमलत भी ि नवीन

अपनी रिि स तम िबध िए

िजसको िाि ल रि बीन

तमन तो पाणमयी जवाला का

पणय-पकाश न गिण िकया

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िा, जलन वासना को जीवन

भम तम म पिला सथान िदया-

अब िवकल पवतनज िो ऐसा जो

िनयित-िक का बन यत

िो शाप भरा तव पजातत।

यि अिभनव मानव पजा सिि

दयता मम लिी िनरतर िी

वणो की करित रि विि

अनजान समसयाय िढती

रिती िो अपनी िविनिि

कोलािल कलि अनत िल,

एकता नि िो बढ भद

अिभलिषत वसत तो दर रि,

िा िमल अिनिचछत दखद खद

हदयो का िो आवरण सदा

अपन वकसथल की जडता

पििान सकि निी परसपर

िल िवश ििरता पडता

सब कछ भी िो यिद पास भरा

पर दर रििी सदा तिि

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दख दिी यि सकिित दिि।

अनवरत उठ िकतनी उमि

ििबत िो आस जलधर स

अिभलाषाओ क शल-शि

जीवन-नद िािाकार भरा-

िो उठती पीडा की तरि

लालसा भर यौवन क िदन

पतझड स सख जाय बीत

सदि नय उतपनन रि

उनस सतप सदा सभीत

िलिा सवजनो का िवरोध

बन कर तम वाली शयाम-अमा

दािरदय दिलत िबलखाती िो यि

शसयशयामला पकित-रमा

दख-नीरद म बन इदधनष

बदल नर िकतन नय रि-

बन तषणा-जवाला का पति।

वि पम न रि जाय पनीत

अपन सवाथो स आवत

िो मिल-रिसय सकि सभीत

सारी ससित िो िवरि भरी,

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िात िी बीत करण िीत

आकाका-जलिनिध की सीमा िो

िकितज िनराशा सदा रक

तम राि-िवराि करो सबस

अपन को कर शतशः िवभक

मिसतषक हदय क िो िवरि,

दोनो म िो सदाव निी

वि िलन को जब कि किी

तब हदय िवकल िल जाय किी

रोकर बीत सब वतमज ान

कण सदर अपना िो अतीत

पिो म झल िार-जीत।

सकिित असीम अमोघ शिक

जीवन को बाधा-मय पथ पर

ल िल मद स भरी भिक

या कभी अपण ज अिता म िो

रािमयी-सी मिासिक

वयापकता िनयित-परणा बन

अपनी सीमा म रि बद

सवजज -जान का कद-अश

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िवदा बनकर कछ रि छद

करततव-सकल बनकर आव

नशर-छाया-सी लिलत-कला

िनतयता िवभािजत िो पल-पल म

काल िनरतर िल ढला

तम समझ न सको, बराई स

शभ-इचछा की ि बडी शिक

िो िविल तकज स भरी यिक।

जीवन सारा बन जाय यि

उस रक, अिगन की वषा ज म

बि जाय सभी जो भाव शि

अपनी शकाओ स वयाकल तम

अपन िी िोकर िवरि

अपन को आवत िकय रिो

िदखलाओ िनज कितम सवरप

वसधा क समतल पर उननत

िलता ििरता िो दभ-सतप

शिा इस ससित की रिसय-

वयापक, िवशि, िवशासमयी

सब कछ दकर नव-िनिध अपनी

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तमस िी तो वि छली ियी

िो वतमज ान स विित तम

अपन भिवषय म रिो रि

सारा पपि िी िो अशि।

तम जरा मरण म ििर अशात

िजसको अब तक समझ थ

सब जीवन पिरवतनज अनत

अमरतव, विी भलिा तम

वयाकल उसको किो अत

दखमय ििर िितन क पतीक

शिा-वमिक बनकर अधीर

मानव-सतित गि-रिशम-रजज स

भागय बाध पीट लकीर

'कलयाण भिम यि लोक'

यिी शिा-रिसय जान न पजा।

अितिारी िमथया मान इस

परलोक-विना स भरा जा

आशाओ म अपन िनराश

िनज बिि िवभव स रि भात

वि िलता रि सदव शात।"

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अिभशाप-पितधविन िई लीन

नभ-सािर क अतसतल म

जस िछप जाता मिा मीन

मद-मरत -लिर म िनोपम

तारािण िझलिमल िए दीन

िनसतबध मौन था अिखल लोक

तदालस था वि िवजन पात

रजनी-तम-पजीभत-सदश

मन शास ल रि थ अशात

व सोि रि थ" आज विी

मरा अदि बन ििर आया

िजसन डाली थी जीवन पर

पिल अपनी काली छाया

िलख िदया आज उसन भिवषय

यातना िलिी अतिीन

अब तो अविशि उपाय भी न।"

करती सरसवती मधर नाद

बिती थी शयामल घाटी म

िनिलपज भाव सी अपमाद

सब उपल उपिकत पड रि

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जस व िनषर जड िवषाद

वि थी पसननता की धारा

िजसम था कवल मधर िान

थी कमज-िनरतरता-पतीक

िलता था सववश अनत-जान

ििम-शीतल लिरो का रि-रि

कलो स टकरात जाना

आलोक अरण िकरणो का उन पर

अपनी छाया िबखराना-

अदभत था िनज-िनिमतज -पथ का

वि पिथक िल रिा िनिववज ाद

किता जाता कछ ससवाद।

पािी म िला मधर राि

िजसक मडल म एक कमल

िखल उठा सनिला भर पराि

िजसक पिरमल स वयाकल िो

शयामल कलरव सब उठ जाि

आलोक-रिशम स बन उषा-

अिल म आदोलन अमद

करता पभात का मधर पवन

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सब ओर िवतरन को मरद

उस रमय िलक पर नवल िित सी

पकट िई सदर बाला

वि नयन-मिोतसव की पतीक

अमलान-निलन की नव-माला

सषमा का मडल सिसमत-सा

िबखरता ससित पर सराि

सोया जीवन का तम िवराि।

वि िवश मकट सा उजजवलतम

शिशखड सदश था सपि भाल

दो पद-पलाश िषक-स दि

दत अनराि िवराि ढाल

िजिरत मधप स मकल सदश

वि आनन िजसम भरा िान

वकसथल पर एकत धर

ससित क सब िवजान जान

था एक िाथ म कमज-कलश

वसधा-जीवन-रस-सार िलय

दसरा िविारो क नभ को था

मधर अभय अवलब िदय

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ितवली थी ितिण-तरिमयी,

आलोक-वसन िलपटा अराल

िरणो म थी िित भरी ताल।

नीरव थी पाणो की पकार

मिछजत जीवन-सर िनसतरि

नीिार िघर रिा था अपार

िनसतबध अलस बन कर सोयी

िलती न रिी ििल बयार

पीता मन मकिलत कज आप

अपनी मध बद मधर मौन

िनसवन िदित म रि रि

सिसा बोल मन " अर कौन-

आलोकमयी िसमित-ितना

आयी यि िमवती छाया'

तदा क सवपन ितरोिित थ

िबखरी कवल उजली माया

वि सपशज-दलार-पलक स भर

बीत यि को उठता पकार

वीििया नािती बार-बार।

पितभा पसनन-मख सिज खोल

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वि बोली-" म ि इडा, किो

तम कौन यिा पर रि डोल"

नािसका नकीली क पतल पट

िरक रि कर िसमत अमोल

" मन मरा नाम सनो बाल

म िवश पिथक स रिा कलश।"

" सवाित पर दख रि िो तम

यि उजडा सारसवत पदश

भौित िलिल स यि

ििल िो उठा दश िी था मरा

इसम अब तक ि पडी

इस आशा स आय िदन मरा।"

" म तो आया ि- दिव बता दो

जीवन का कया सिज मोल

भव क भिवषय का दार खोल

इस िवशकिर म इदजाल

िजसन रि कर िलाया ि

गि, तारा, िवदत, नखत-माल

सािर की भीषणतम तरि-सा

खल रिा वि मिाकाल

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तब कया इस वसधा क

लघ-लघ पाणी को करन को सभीत

उस िनषर की रिना कठोर

कवल िवनाश की रिी जीत

तब मख ज आज तक कयो समझ ि

सिि उस जो नाशमयी

उसका अिधपित िोिा कोई,

िजस तक दख की न पकार ियी

सख नीडो को घर रिता

अिवरत िवषाद का िकवाल

िकसन यि पट ि िदया डाल

शिन का सदर वि नील लोक

िजसकी छाया-िला ि

ऊपर नीि यि ििन-शोक

उसक भी पर सना जाता

कोई पकाश का मिा ओक

वि एक िकरण अपनी दकर

मरी सवततता म सिाय

कया बन सकता ि? िनयित-जाल स

मिक-दान का कर उपाय।"

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कोई भी िो वि कया बोल,

पािल बन नर िनभरज न कर

अपनी दबलज ता बल समिाल

ितवय माि ज पर पर धर-

मत कर पसार-िनज परो िल,

िलन की िजसको रि झोक

उसको कब कोई सक रोक?

िा तम िी िो अपन सिाय?

जो बिि कि उसको न मान कर

ििर िकसकी नर शरण जाय

िजतन िविार ससकार रि

उनका न दसरा ि उपाय

यि पकित, परम रमणीय

अिखल-ऐशयज-भरी शोधक िविीन

तम उसका पटल खोलन म पिरकर

कस कर बन कमलज ीन

सबका िनयमन शासन करत

बस बढा िलो अपनी कमता

तम िी इसक िनणायज क िो,

िो किी िवषमता या समता

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तम जडा को ितनया करो

िवजान सिज साधन उपाय

यश अिखल लोक म रि छाय।"

िस पडा ििन वि शनय लोक

िजसक भीतर बस कर उजड

िकतन िी जीवन मरण शोक

िकतन हदयो क मधर िमलन

कदन करत बन िवरि-कोक

ल िलया भार अपन िसर पर

मन न यि अपना िवषम आज

िस पडी उषा पािी-नभ म

दख नर अपना राज-काज

िल पडी दखन वि कौतक

ििल मलयािल की बाला

लख लाली पकित कपोलो म

ििरता तारा दल मतवाला

उिननद कमल-कानन म

िोती थी मधपो की नोक-झोक

वसधा िवसमत थी सकल-शोक।

"जीवन िनशीथ का अधकार

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भि रिा िकितज क अिल म

मख आवत कर तमको िनिार

तम इड उषा-सी आज यिा

आयी िो बन िकतनी उदार

कलरव कर जाि पड

मर य मनोभाव सोय िविि

िसती पसननता िाव भरी

बन कर िकरनो की सी तरि

अवलब छोड कर औरो का

जब बििवाद को अपनाया

म बढा सिज, तो सवय

बिि को मानो आज यिा पाया

मर िवकलप सकलप बन,

जीवन िी कमो की पकार

सख साधन का िो खला दार।"

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सवपन

सधया अरण जलज कसर ल

अब तक मन थी बिलाती,

मरझा कर कब ििरा तामरस,

उसको खोज किा पाती

िकितज भाल का ककम िमटता

मिलन कािलमा क कर स,

कोिकल की काकली वथा िी

अब किलयो पर मडराती।

कामायनी-कसम वसधा पर पडी,

न वि मकरद रिा,

एक िित बस रखाओ का,

अब उसम ि रि किा

वि पभात का िीनकला शिश-

िकरन किा िादनी रिी,

वि सधया थी-रिव, शिश,तारा

य सब कोई निी जिा।

जिा तामरस इदीवर या

िसत शतदल ि मरझाय-

अपन नालो पर, वि सरसी

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शिा थी, न मधप आय,

वि जलधर िजसम िपला

या शयामलता का नाम निी,

िशिशर-कला की कीण-सोत

वि जो ििमिल म जम जाय।

एक मौन वदना िवजन की,

िझलली की झनकार निी,

जिती असपि-उपका,

एक कसक साकार रिी।

ििरत-कज की छाया भर -थी

वसधा-आिलिन करती,

वि छोटी सी िवरि-नदी थी

िजसका ि अब पार निी।

नील ििन म उडती-उडती

िविि-बािलका सी िकरन,

सवपन-लोक को िली थकी सी

नीद-सज पर जा ििरन।

िकत, िवरििणी क जीवन म

एक घडी िवशाम निी-

िबजली-सी समित िमक उठी तब,

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लि जभी तम-घन िघरन।

सधया नील सरोरि स जो

शयाम पराि िबखरत थ,

शल-घािटयो क अिल को

वो धीर स भरत थ-

तण-िलमो स रोमािित नि

सनत उस दख की िाथा,

शिा की सनी सासो स

िमल कर जो सवर भरत थ-

"जीवन म सख अिधक या िक दख,

मदािकिन कछ बोलोिी?

नभ म नखत अिधक,

सािर म या बदबद ि ििन दोिी?

पितिबब ि तारा तम म

िसध िमलन को जाती िो,

या दोनो पितिबिबत एक क

इस रिसय को खोलोिी

इस अवकाश-पटी पर

िजतन िित िबिडत बनत ि,

उनम िकतन रि भर जो

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सरधन पट स छनत ि,

िकत सकल अण पल म घल कर

वयापक नील-शनयता सा,

जिती का आवरण वदना का

धिमल-पट बनत ि।

दगध-शास स आि न िनकल

सजल कि म आज यिा

िकतना सनि जला कर जलता

ऐसा ि लघ-दीप किा?

बझ न जाय वि साझ-िकरन सी

दीप-िशखा इस किटया की,

शलभ समीप निी तो अचछा,

सखी अकल जल यिा

आज सन कवल िप िोकर,

कोिकल जो िाि कि ल,

पर न परािो की वसी ि

ििल-पिल जो थी पिल।

इस पतझड की सनी डाली

और पतीका की सधया,

काकायिन त हदय कडा कर

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धीर-धीर सब सि ल

िबरल डािलयो क िनकज

सब ल दख क िनशास रि,

उस समित का समीर िलता ि

िमलन कथा ििर कौन कि?

आज िवश अिभमानी जस

रठ रिा अपराध िबना,

िकन िरणो को धोयि जो

अश पलक क पार बि

अर मधर ि कि पण ज भी

जीवन की बीती घिडया-

जब िनससबल िोकर कोई

जोड रिा िबखरी किडया।

विी एक जो सतय बना था

ििर-सदरता म अपनी,

िछपा किी, तब कस सलझ

उलझी सख-दख की लिडया

िवसमत िो बीती बात,

अब िजनम कछ सार निी,

वि जलती छाती न रिी

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अब वसा शीतल पयार निी

सब अतीत म लीन िो िली

आशा, मध-अिभलाषाय,

िपय की िनषर िवजय िई,

पर यि तो मरी िार निी

व आिलिन एक पाश थ,

िसमित िपला थी, आज किा?

और मधर िवशास अर वि

पािल मन का मोि रिा

विित जीवन बना समपणज

यि अिभमान अिकिन का,

कभी द िदया था कछ मन,

ऐसा अब अनमान रिा।

िविनयम पाणो का यि िकतना

भयसकल वयापार अर

दना िो िजतना द द त,

लना कोई यि न कर

पिरवतनज की तचछ पतीका

परी कभी न िो सकती,

सधया रिव दकर पाती ि

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इधर-उधर उडिन िबखर

व कछ िदन जो िसत आय

अतिरक अरणािल स,

िलो की भरमार सवरो का

कजन िलय किक बल स।

िल ियी जब िसमित की माया,

िकरन-कली की कीडा स,

ििर-पवास म िल िय

व आन को किकर छल स

जब िशरीष की मधर िध स

मान-भरी मधऋत रात,

रठ िली जाती रिकम-मख,

न सि जािरण की घात,

िदवस मधर आलाप कथा-सा

किता छा जाता नभ म,

व जित-सपन अपन तब

तारा बन कर मसकयात।"

वन बालाओ क िनकज सब

भर वण क मध सवर स

लौट िक थ आन वाल

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सन पकार िपन घर स,

िकनत न आया वि परदसी-

यि िछप िया पतीका म,

रजनी की भीिी पलको स

तििन िबद कण-कण बरस

मानस का समित-शतदल िखलता,

झरत िबद मरद घन,

मोती किठन पारदशी य,

इनम िकतन िित बन

आस सरल तरल िवदतकण,

नयनालोक िवरि तम म,

पान पिथक यि सबल लकर

लिा कलपना-जि रिन।

अरण जलज क शोण कोण थ

नव तषार क िबद भर,

मकर िण ज बन रि, पितचछिव

िकतनी साथ िलय िबखर

वि अनराि िसी दलार की

पिक िली सोन तम म,

वषाज-िवरि-कि म जलत

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समित क जिन डर-डर।

सन िििर-पथ म िजािरत

शिनाद की धविन िलती,

आकाका लिरी दख-तिटनी

पिलन अक म थी ढलती।

जल दीप नभ क, अिभलाषा-

शलभ उड, उस ओर िल,

भरा रि िया आखो म जल,

बझी न वि जवाला जलती।

"मा"-ििर एक िकलक दराित,

िज उठी किटया सनी,

मा उठ दौडी भर हदय म

लकर उतकठा दनी।

लटरी खली अलक, रज-धसर

बाि आकर िलपट ियी,

िनशा-तापसी की जलन को

धधक उठो बझती धनी

किा रिा नटखट त ििरता

अब तक मरा भागय बना

अर िपता क पितिनिध

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तन भी सख-दख तो िदया घना,

ििल त, बनिर-मि बन कर

भरता ि िौकडी किी,

म डरती त रठ न जाय

करती कस तझ मना"

"म रठ मा और मना त,

िकतनी अचछी बात किी

ल म अब सोता ि जाकर,

बोलिा म आज निी,

पक िलो स पट भरा ि

नीद निी खलन वाली।"

शिा िबन ल पसनन

कछ-कछ िवषाद स भरी रिी

जल उठत ि लघ जीवन क

मधर-मधर व पल िलक,

मक उदास ििन क उर म

छाल बन कर जा झलक।

िदवा-शात-आलोक-रिशमया

नील-िनलय म िछपी किी,

करण विी सवर ििर उस

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ससित म बि जाता ि िल क।

पणय िकरण का कोमल बधन

मिक बना बढता जाता,

दर, िकत िकतना पितपल

वि हदय समीप िआ जाता

मधर िादनी सी तदा

जब िली मिछजत मानस पर,

तब अिभनन पमासपद उसम

अपना िित बना जाता।

कामायनी सकल अपना सख

सवपन बना-सा दख रिी,

यि-यि की वि िवकल पतािरत

िमटी िई बन लख रिी-

जो कसमो क कोमल दल स

कभी पवन पर अिकत था,

आज पपीिा की पकार बन-

नभ म िखिती रख रिी।

इडा अिगन-जवाला-सी

आि जलती ि उललास भरी,

मन का पथ आलोिकत करती

िवपद-नदी म बनी तरी,

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उननित का आरोिण, मििमा

शल-शि सी शाित निी,

तीव परणा की धारा सी

बिी विा उतसाि भरी।

वि सदर आलोक िकरन सी

हदय भिदनी दिि िलय,

िजधर दखती-खल जात ि

तम न जो पथ बद िकय।

मन की सतत सिलता की

वि उदय िवजियनी तारा थी,

आशय की भखी जनता न

िनज शम क उपिार िदय

मन का निर बसा ि सदर

सियोिी ि सभी बन,

दढ पािीरो म मिदर क

दार िदखाई पड घन,

वषा ज धप िशिशर म छाया

क साधन सपनन िय,

खतो म ि कषक िलात िल

पमिदत शम-सवद सन।

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उधर धात िलत, बनत ि

आभषण औ' अस नय,

किी सािसी ल आत ि

मिया क उपिार नय,

पषपलािवया िनती ि बन-

कसमो की अध-िवकि कली,

िध िण ज था लोध कसम रज,

जट नवीन पसाधन य।

घन क आघातो स िोती जो

पिड धविन रोष भरी,

तो रमणी क मधर कठ स

हदय मछजना उधर ढरी,

अपन वि ज बना कर शम का

करत सभी उपाय विा,

उनकी िमिलत-पयत-पथा स

पर की शी िदखती िनखरी।

दश का लाघव करत

व पाणी ििल स ि,

सख-साधन एकत कर रि

जो उनक सबल म ि,

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बढ जान-वयवसाय, पिरशम,

बल की िवसमत छाया म,

नर-पयत स ऊपर आव

जो कछ वसधा तल म ि।

सिि-बीज अकिरत, पििललत

सिल िो रिा िरा भरा,

पलय बीव भी रिकत मन स

वि िला उतसाि भरा,

आज सवितन-पाणी अपनी

कशल कलपनाय करक,

सवावलब की दढ धरणी

पर खडा, निी अब रिा डरा।

शिा उस आियज-लोक म

मलय-बािलका-सी िलती,

िसिदार क भीतर पििी,

खड पििरयो को छलती,

ऊि सतभो पर वलभी-यत

बन रमय पासाद विा,

धप-धप-सरिभत-िि,

िजनम थी आलोक-िशखा जलती।

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सवणज-कलश-शोिभत भवनो स

लि िए उदान बन,

ऋज-पशसत, पथ बीव-बीि म,

किी लता क कज घन ,

िजनम दपित समद िविरत,

पयार भर द िलबािी,

िज रि थ मधप रसील,

मिदरा-मोद पराि सन।

दवदार क व पलब भज,

िजनम उलझी वाय-तरि,

िमखिरत आभषण स कलरव

करत सदर बाल-िविि,

आशय दता वण-वनो स

िनकली सवर-लिरी-धविन को,

नाि-कसरो की कयारी म

अनय समन भी थ बिरि

नव मडप म िसिासन

सममख िकतन िी मि तिा,

एक ओर रख ि सनदर मढ

िम ज स सखद जिा,

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आती ि शलय-अिर की

धम-िध आमोद-भरी,

शिा सोि रिी सपन म

'यि लो म आ ियी किा'

और सामन दखा िनज

दढ कर म िषक िलय,

मन, वि कतमय परष विी

मख सधया की लािलमा िपय।

मादक भाव सामन, सदर

एक िित सा कौन यिा,

िजस दखन को यि जीवन

मर-मर कर सौ बार िजय-

इडा ढालती थी वि आसव,

िजसकी बझती पयास निी,

तिषत कठ को, पी-पीकर भी

िजसम ि िवशास निी,

वि-वशानर की जवाला-सी-

मि विदका पर बठी,

सौमनसय िबखराती शीतल,

जडता का कछ भास निी।

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मन न पछा "और अभी कछ

करन को ि शष यिा?"

बोली इडा "सिल इतन म

अभी कम ज सिवशष किा

कया सब साधन सववश िो िक?"

निी अभी म िरक रिा-

दश बसाया पर उजडा ि

सना मानस-दश यिा।

सदर मख, आखो की आशा,

िकत िए य िकसक ि,

एक बाकपन पितपद-शिश का,

भर भाव कछ िरस क ि,

कछ अनरोध मान-मोिन का

करता आखो म सकत,

बोल अरी मरी ितनत

त िकसकी, य िकसक ि?"

"पजा तमिारी, तमि पजापित

सबका िी िनती ि म,

वि सदश-भरा ििर कसा

नया पश सनती ि म"

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"पजा निी, तम मरी रानी

मझ न अब भम म डालो,

मधर मराली किो 'पणय क

मोती अब िनती ि म'

मरा भागय-ििन धधला-सा,

पािी-पट-सी तम उसम,

खल कर सवय अिानक िकतनी

पभापण ज िो छिव-यश म

म अतप आलोक-िभखारी

ओ पकाश-बािलक बता,

कब डबिी पयास िमारी

इन मध-अधरो क रस म?

'य सख साधन और रपिली-

रातो की शीतल-छाया,

सवर-सििरत िदशाय, मन ि

उनमद और िशिथल काया,

तब तम पजा बनो मत रानी"

नर-पश कर िकार उठा,

उधर िलती मिदर घटा सी

अधकार की घन-माया।

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आिलिन ििर भय का कदन

वसधा जस काप उठी

विी अितिारी, दबलज नारी-

पिरताण-पथ नाप उठी

अतिरक म िआ रद-िकार

भयानक िलिल थी,

अर आतमजा पजा पाप की

पिरभाषा बन शाप उठी।

उधर ििन म कबध िई

सब दव शिकया कोध भरी,

रद-नयन खल िया अिानक-

वयाकल काप रिी निरी,

अितिारी था सवय पजापित,

दव अभी िशव बन रि

निी, इसी स िढी िशिजनी

अजिव पर पितशोध भरी।

पकित तसत थी, भतनाथ न

नतय िवकिपत-पद अपना-

उधर उठाया, भत-सिि सब

िोन जाती थी सपना

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आशय पान को सब वयाकल,

सवय-कलष म मन सिदगध,

ििर कछ िोिा, यिी समझ कर

वसधा का थर-थर कपना।

काप रि थ पलयमयी

कीडा स सब आशिकत जत,

अपनी-अपनी पडी सभी को,

िछनन सनि को कोमल तत,

आज किा वि शासन था

जो रका का था भार िलय,

इडा कोध लजजा स भर कर

बािर िनकल िली िथ िकत।

दखा उसन, जनता वयाकल

राजदार कर रि रिी,

पिरी क दल भी झक आय

उनक भाव िवशि निी,

िनयमन एक झकाव दबा-सा

टट या ऊपर उठ जाय

पजा आज कछ और सोिती

अब तक तो अिवरि रिी

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कोलािल म िघर, िछप बठ

मन कछ सोि िविार भर,

दार बद लख पजा तसत-सी,

कस मन ििर धयय ज धर

शिकत-तरिो म आनदोलन,

रद-कोध भीषणतम था,

मिानील-लोिित-जवाला का

नतय सभी स उधर पर।

वि िवजानमयी अिभलाषा,

पख लिाकर उडन की,

जीवन की असीम आशाय

कभी न नीि मडन की,

अिधकारो की सिि और

उनकी वि मोिमयी माया,

विो की खाई बन िली

कभी निी जो जडन की।

असिल मन कछ कबध िो उठ,

आकिसमक बाधा कसी-

समझ न पाय िक यि िआ कया,

पजा जटी कयो आ ऐसी

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पिरताण पाथनज ा िवकल थी

दव-कोध स बन िवदोि,

इडा रिी जब विा सपि िी

वि घटना किक जसी।

"दार बद कर दो इनको तो

अब न यिा आन दना,

पकित आज उतपाद कर रिी,

मझको बस सोन दना"

कि कर यो मन पकट कोध म,

िकत डर-स थ मन म,

शयन-कक म िल सोित

जीवन का लना-दना।

शिा काप उठी सपन म

सिसा उसकी आख खली,

यि कया दखा मन? कस

वि इतना िो िया छली?

सवजन-सनि म भय की

िकतनी आशकाय उठ आती,

अब कया िोिा, इसी सोि म

वयाकल रजनी बीत िली।

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सघष ज शिा का था सवपन

िकत वि सतय बना था,

इडा सकिित उधर

पजा म कोभ घना था।

भौितक-िवपलव दख

िवकल व थ घबराय,

राज-शरण म ताण पाप

करन को आय।

िकत िमला अपमान

और वयविार बरा था,

मनसताप स सब क

भीतर रोष भरा था।

कबध िनरखत वदन

इडा का पीला-पीला,

उधर पकित की रकी

निी थी ताडव-लीला।

पािण म थी भीड बढ रिी

सब जड आय,

पिरी-िण कर दार बद

थ धयान लिाय।

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राित घनी-लािलमा-पटी

म दबी-लकी-सी,

रि-रि िोती पिट मघ की

जयोित झकी सी।

मन ििितत स पड

शयन पर सोि रि थ,

कोध और शका क

शापद नोि रि थ।

" म पजा बना कर

िकतना ति िआ था,

िकत कौन कि सकता

इन पर रि िआ था।

िकतन जव स भर कर

इनका िक िलाया,

अलि-अलि य एक

िई पर इनकी छाया।

म िनयमन क िलए

बिि-बल स पयत कर,

इनको कर एकत,

िलाता िनयम बना कर।

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िकत सवय भी कया वि

सब कछ मान िल म,

तिनक न म सवचछद,

सवण ज सा सदा िल म

जो मरी ि सिि

उसी स भीत रि म,

कया अिधकार निी िक

कभी अिवनीत रि म?

शिा का अिधकार

समपणज द न सका म,

पितपल बढता िआ भला

कब विा रका म

इडा िनयम-परतत

िािती मझ बनाना,

िनवािज धत अिधकार

उसी न एक न माना।

िवश एक बनधन

िविीन पिरवतनज तो ि,

इसकी िित म रिव-

शिश-तार य सब जो ि।

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रप बदलत रित

वसधा जलिनिध बनती,

उदिध बना मरभिम

जलिध म जवाला जलती

तरल अिगन की दौड

लिी ि सब क भीतर,

िल कर बित ििम-नि

सिरता-लीला रि कर।

यि सििलि का नतय

एक पल आया बीता

िटकन कब िमला

िकसी को यिा सभीता?

कोिट-कोिट नकत

शनय क मिा-िववर म,

लास रास कर रि

लटकत िए अधर म।

उठती ि पवनो क

सतर म लिर िकतनी,

यि असखय िीतकार

और परवशता इतनी।

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यि नतनज उनमक

िवश का सपदन दततर,

िितमय िोता िला

जा रिा अपन लय पर।

कभी-कभी िम विी

दखत पनरावतनज ,

उस मानत िनयम

िल रिा िजसस जीवन।

रदन िास बन िकत

पलक म छलक रि ि,

शत-शत पाण िवमिक

खोजत ललक रि ि।

जीवन म अिभशाप

शाप म ताप भरा ि,

इस िवनाश म सिि-

कज िो रिा िरा ि।

'िवश बधा ि एक िनयम स'

यि पकार-सी,

िली ियी ि इसक मन म

दढ पिार-सी।

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िनयम इनिोन परखा

ििर सख-साधन जाना,

वशी िनयामक रि,

न ऐसा मन माना।

म-ििर-बधन-िीन

मतय-सीमा-उललघन-

करता सतत िलिा

यि मरा ि दढ पण।

मिानाश की सिि बीि

जो कण िो अपना,

ितनता की तिि विी ि

ििर सब सपना।"

पिित मन रका

इक कण करवट लकर,

दखा अिविल इडा खडी

ििर सब कछ दकर

और कि रिी "िकत

िनयामक िनयम न मान,

तो ििर सब कछ नि

िआ िनिय जान।"

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"ऐ तम ििर भी यिा

आज कस िल आयी,

कया कछ और उपदव

की ि बात समायी-

मन म, यि सब आज िआ ि

जो कछ इतना

कया न िई तिि?

बि रिा ि अब िकतना?"

"मन, सब शासन सवतव

तमिारा सतत िनबाि,

तिि, ितना का कण

अपना अनय न िाि

आि पजापित यि

न िआ ि, कभी न िोिा,

िनवािज धत अिधकार

आज तक िकसन भोिा?"

यि मनषय आकार

ितना का ि िवकिसत,

एक िवश अपन

आवरणो म ि िनिमतज

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ििित-कनदो म जो

सघष ज िला करता ि,

दयता का जो भाव सदा

मन म भरता ि-

व िवसमत पििान

रि स एक-एक को,

िोत सतत समीप

िमलात ि अनक को।

सपधा ज म जो उतम

ठिर व रि जाव,

ससित का कलयाण कर

शभ माि ज बताव।

वयिक ितना इसीिलए

परतत बनी-सी,

रािपणज, पर दष-पक म

सतत सनी सी।

िनयत माि ज म पद-पद

पर ि ठोकर खाती,

अपन लकय समीप

शात िो िलती जाती।

Page 162: Kamayani-JSP

यि जीवन उपयोि,

यिी ि बिि-साधना,

पना िजसम शय

यिी सख की अ'राधना।

लोक सखी िो आशय ल

यिद उस छाया म,

पाण सदश तो रमो

राष की इस काया म।

दश कलपना काल

पिरिध म िोती लय ि,

काल खोजता मिाितना

म िनज कय ि।

वि अनत ितन

निता ि उनमद िित स,

तम भी नािो अपनी

दयता म-िवसमित म।

िकितज पटी को उठा

बढो बहाड िववर म,

िजािरत घन नाद सनो

इस िवश किर म।

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ताल-ताल पर िलो

निी लय छट िजसम,

तम न िववादी सवर

छडो अनजान इसम।

"अचछा यि तो ििर न

तमि समझाना ि अब,

तम िकतनी परणामयी

िो जान िका सब।

िकत आज िी अभी

लौट कर ििर िो आयी,

कस यि सािस की

मन म बात समायी

आि पजापित िोन का

अिधकार यिी कया

अिभलाषा मरी अपणा ज

िी सदा रि कया?

म सबको िवतिरत करता

िी सतत रि कया?

कछ पान का यि पयास

ि पाप, सि कया?

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तमन भी पितिदन िदया

कछ कि सकती िो?

मझ जान दकर िी

जीिवत रि सकती िो?

जो म ि िािता विी

जब िमला निी ि,

तब लौटा लो वयथ ज

बात जो अभी किी ि।"

"इड मझ वि वसत

िाििय जो म िाि,

तम पर िो अिधकार,

पजापित न तो वथा ि।

तमि दखकर बधन िी

अब टट रिा सब,

शासन या अिधकार

िािता ि न तिनक अब।

दखो यि दधषज ज

पकित का इतना कपन

मर हदय समक कद

ि इसका सपदन

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इस कठोर न पलय

खल ि िस कर खला

िकत आज िकतना

कोमल िो रिा अकला?

तम किती िो िवश

एक लय ि, म उसम

लीन िो िल? िकत

धरा ि कया सख इसम।

कदन का िनज अलि

एक आकाश बना ल,

उस रोदन म अटटािास

िो तमको पा ल।

ििर स जलिनिध उछल

बि मययादज ा बािर,

ििर झझा िो वज-

पिित स भीतर बािर,

ििर डिमड िो नाव

लिर ऊपर स भाि,

रिव-शिश-तारा

सावधान िो िौक जाि,

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िकत पास िी रिो

बािलक मरी िो, तम,

म ि कछ िखलवाड

निी जो अब खलो तम?"

आि न समझोि कया

मरी अचछी बात,

तम उतिजत िोकर

अपना पापय न पात।

पजा कबध िो शरण

मािती उधर खडी ि,

पकित सतत आतक

िवकिपत घडी-घडी ि।

सािधान, म शभाकािकणी

और कि कया

किना था कि िकी

और अब यिा रि कया"

"मायािविन, बस पाली

तमन ऐस छटटी,

लडक जस खलो म

कर लत खटटी।

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मितमज यी अिभशाप बनी

सी सममख आयी,

तमन िी सघष ज

भिमका मझ िदखायी।

रिधर भरी विदया

भयकरी उनम जवाला,

िवनयन का उपिार

तमिी स सीख िनकाला।

िार वण ज बन िय

बटा शम उनका अपना

शस यत बन िल,

न दखा िजनका सपना।

आज शिक का खल

खलन म आतर नर,

पकित सि सघष ज

िनरतर अब कसा डर?

बाधा िनयमो की न

पास म अब आन दो

इस िताश जीवन म

कण-सख िमल जान दो।

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राष-सवािमनी, यि लो

सब कछ वभव अपना,

कवल तमको सब उपाय स

कि ल अपना।

यि सारसवत दश या िक

ििर धवस िआ सा

समझो, तम िो अिगन

और यि सभी धआ सा?"

"मन जो मन, िकया

उस मत यो कि भलो,

तमको िजतना िमला

उसी म यो मत िलो।

पकित सि सघष ज

िसखाया तमको मन,

तमको कद बनाकर

अनिित िकया न मन

मन इस िबखरी-िबभित

पर तमको सवामी,

सिज बनाया, तम

अब िजसक अतयामज ी।

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िकत आज अपराध

िमारा अलि खडा ि,

िा म िा न िमलाऊ

तो अपराध बडा ि।

मन दखो यि भात

िनशा अब बीत रिी ि,

पािी म नव-उषा

तमस को जीत रिी ि।

अभी समय ि मझ पर

कछ िवशास करो तो।'

बनती ि सब बात

तिनक तम धय ज धरो तो।"

और एक कण वि,

पमाद का ििर स आया,

इधर इडा न दार ओर

िनज पर बढाया।

िकत रोक ली ियी

भजाओ की मन की वि,

िनससिाय िी दीन-दिि

दखती रिी वि।

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"यि सारसवत दश

तमिारा तम िो रानी।

मझको अपना अस

बना करती मनमानी।

यि छल िलन म अब

पि िआ सा समझो,

मझको भी अब मक

जाल स अपन समझो।

शासन की यि पिित

सिज िी अभी रकिी,

कयोिक दासता मझस

अब तो िो न सकिी।

म शासक, म ििर सवतत,

तम पर भी मरा-

िो अिधकार असीम,

सिल िो जीवन मरा।

िछनन िभनन अनयथा

िई जाती ि पल म,

सकल वयवसथा अभी

जाय डबती अतल म।

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दख रिा ि वसधा का

अित-भय स कपन,

और सन रिा ि नभ का

यि िनममज -कदन

िकत आज तम

बदी िो मरी बािो म,

मरी छाती म,"-ििर

सब डबा आिो म

िसिदार अरराया

जनता भीतर आयी,

"मरी रानी" उसन

जो िीतकार मिायी।

अपनी दबलज ता म

मन तब िाि रि थ,

सखलन िवकिपत पद व

अब भी काप रि थ।

सजि िए मन वज-

खिित ल राजदड तब,

और पकारा "तो सन लो-

जो किता ि अब।

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"तमि तिपकर सख क

साधन सकल बताया,

मन िी शम-भाि िकया

ििर वि ज बनाया।

अतयािार पकित-कत

िम सब जो सित ि,

करत कछ पितकार

न अब िम िप रित ि

आज न पश ि िम,

या िि काननिारी,

यि उपकित कया

भल िय तम आज िमारी"

व बोल सकोध मानिसक

भीषण दख स,

"दखो पाप पकार उठा

अपन िी सख स

तमन योिकम स

अिधक सिय वाला,

लोभ िसखा कर इस

िविार-सकट म डाला।

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िम सवदनशील िो िल

यिी िमला सख,

कि समझन लि बनाकर

िनज कितम दख

पकत-शिक तमन यतो

स सब की छीनी

शोषण कर जीवनी

बना दी जजरज झीनी

और इडा पर यि कया

अतयािार िकया ि?

इसीिलय त िम सब क

बल यिा िजया ि?

आज बिदनी मरी

रानी इडा यिा ि?

ओ यायावर अब

मरा िनसतार किा ि?"

"तो ििर म ि आज

अकला जीवन रभ म,

पकित और उसक

पतलो क दल भीषण म।

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आज साििसक का पौरष

िनज तन पर खल,

राजदड को वज बना

सा सिमि दख।"

यो कि मन न अपना

भीषण अस समिाला,

दव 'आि' न उिली

तयो िी अपनी जवाला।

छट िल नाराि धनष

स तीकण नकील,

टट रि नभ-धमकत

अित नील-पील।

अधड थ बढ रिा,

पजा दल सा झझलाता,

रण वषा ज म शसो सा

िबजली िमकाता।

िकत कर मन वारण

करत उन बाणो को,

बढ किलत िए खडि स

जन-पाणो को।

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ताडव म थी तीव पिित,

परमाण िवकल थ,

िनयित िवकषणज मयी,

तास स सब वयाकल थ।

मन ििर रि अलात-

िक स उस घन-तम म,

वि रिकम-उनमाद

नािता कर िनममज म।

उठ तमल रण-नाद,

भयानक िई अवसथा,

बढा िवपक समि

मौन पददिलत वयवसथा।

आित पीछ िट, सतभ स

िटक कर मन न,

शास िलया, टकार िकया

दलकज यी धन न।

बित िवकट अधीर

िवषम उिास-वात थ,

मरण-पव ज था, नता

आकिल औ' िकलात थ।

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ललकारा, "बस अब

इसको मत जान दना"

िकत सजि मन पिि

िय कि "लना लना"।

"कायर, तम दोनो न िी

उतपात मिाया,

अर, समझकर िजनको

अपना था अपनाया।

तो ििर आओ दखो

कस िोती ि बिल,

रण यि यज, परोिित

ओ िकलात औ' आकिल।

और धराशायी थ

असर-परोिित उस कण,

इडा अभी किती जाती थी

"बस रोको रण।

भीषन जन सिार

आप िी तो िोता ि,

ओ पािल पाणी त

कयो जीवन खोता ि

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कयो इतना आतक

ठिर जा ओ िवील,

जीन द सबको ििर

त भी सख स जी ल।"

िकत सन रिा कौण

धधकती वदी जवाला,

सामििक-बिल का

िनकला था पथ िनराला।

रकोनमद मन का न

िाथ अब भी रकता था,

पजा-पक का भी न

िकत सािस झकता था।

विी धिषतज ा खडी

इडा सारसवत-रानी,

व पितशोध अधीर,

रक बिता बन पानी।

धकत-सा िला

रद-नाराि भयकर,

िलय पछ म जवाला

अपनी अित पलयकर।

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अतिरक म मिाशिक

िकार कर उठी

सब शसो की धार

भीषण वि भर उठी।

और ििरी मन पर,

ममव ज व ििर विी पर,

रक नदी की बाढ-

िलती थी उस भ पर।

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िनव द वि सारसवत निर पडा था कबि,

मिलन, कछ मौन बना,

िजसक ऊपर िवित कम ज का

िवष-िवषाद-आवरण तना।

उलका धारी पिरी स गि-

तारा नभ म टिल रि,

वसधा पर यि िोता कया ि

अण-अण कयो ि मिल रि?

जीवन म जािरण सतय ि

या सषिप िी सीमा ि,

आती ि रि रि पकार-सी

'यि भव-रजनी भीमा ि।'

िनिशिारी भीषण िविार क

पख भर रि सराटज ,

सरसवती थी िली जा रिी

खीि रिी-सी सननाट।

अभी घायलो की िससकी म

जाि रिी थी ममज-वयथा,

पर-लकमी खिरव क िमस

कछ कि उठती थी करण-कथा।

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कछ पकाश धिमल-सा उसक

दीपो स था िनकल रिा,

पवन िल रिा था रक-रक कर

िखनन, भरा अवसाद रिा।

भयमय मौन िनरीकक-सा था

सजि सतत िपिाप खडा,

अधकार का नील आवरण

दशय-जित स रिा बडा।

मडप क सोपान पड थ सन,

कोई अनय निी,

सवय इडा उस पर बठी थी

अिगन-िशखा सी धधक रिी।

शनय राज-ििहो स मिदर

बस समािध-सा रिा खडा,

कयोिक विी घायल शरीर

वि मन का था रिा पडा।

इडा गलािन स भरी िई

बस सोि रिी बीती बात,

घणा और ममता म ऐसी

बीत िकी िकतनी रात।

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नारी का वि हदय हदय म-

सधा-िसध लिर लता,

बाडव-जवलन उसी म जलकर

किन सा जल रि दता।

मध-िपिल उस तरल-अिगन म

शीतलता ससित रिती,

कमा और पितशोध आि र

दोनो की माया निती।

"उसन सनि िकया था मझस

िा अननय वि रिा निी,

सिज लबध थी वि अननयता

पडी रि सक जिा किी।

बाधाओ का अितकमण कर

जो अबाध िो दौड िल,

विी सनि अपराध िो उठा

जो सब सीमा तोड िल।

"िा अपराध, िकत वि िकतना

एक अकल भीम बना,

जीवन क कोन स उठकर

इतना आज असीम बना

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और पिर उपकार सभी वि

सहदयता की सब माया,

शनय-शनय था कवल उसम

खल रिी थी छल छाया

"िकतना दखी एक परदशी बन,

उस िदन जो आया था,

िजसक नीि धारा निी थी

शनय ितिदजक छाया था।

वि शासन का सतधार था

िनयमन का आधार बना,

अपन िनिमतज नव िवधान स

सवय दड साकार बना।

"सािर की लिरो स उठकर

शल-शि पर सिज िढा,

अपितित िित, ससथानो स

रिता था जो सदा बढा।

आज पडा ि वि ममष ज सा

वि अतीत सब सपना था,

उसक िी सब िए पराय

सबका िी जो अपना था।

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"िकत विी मरा अपराधी

िजसका वि उपकारी था,

पकट उसी स दोष िआ ि

जो सबको िणकारी था।

अर सिज-अकर क दोनो

पललव ि य भल बर,

एक दसर की सीमा ि

कयो न यिल को पयार कर?

"अपना िो या औरो का सख

बढा िक बस दख बना विी,

कौन िबद ि रक जान का

यि जस कछ जात निी।

पाणी िनज-भिवषय-ििता म

वतमज ान का सख छोड,

दौड िला ि िबखराता सा

अपन िी पथ म रोड।"

"इस दड दन म बठी

या करती रखवाली म,

यि कसी ि िवकट पिली

िकतनी उलझन वाली म?

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एक कलपना ि मीठी यि

इसस कछ सदर िोिा,

िा िक, वासतिवकता स अचछी

सतय इसी को वर दिा।"

िौक उठी अपन िविार स

कछ दराित-धविन सनती,

इस िनसतबध-िनशा म कोई

िली आ रिी ि किती-

"अर बता दो मझ दया कर

किा पवासी ि मरा?

उसी बावल स िमलन को

डाल रिी ि म िरा।

रठ िया था अपनपन स

अपना सकी न उसको म,

वि तो मरा अपना िी था

भला मनाती िकसको म

यिी भल अब शल-सदश

िो साल रिी उर म मर

कस पाऊिी उसको म

कोई आकर कि द र"

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इडा उठी, िदख पडा राजपथ

धधली सी छाया िलती,

वाणी म थी करणा-वदना

वि पकार जस जलती।

िशिथल शरीर, वसन िवशखल

कबरी अिधक अधीर खली,

िछननपत मकरद लटी सी

जयो मरझायी ियी कली।

नव कोमल अवलब साथ म

वय िकशोर उिली पकड,

िला आ रिा मौन धय ज सा

अपनी माता को पकड।

थक िए थ दखी बटोिी

व दोनो िी मा-बट,

खोज रि थ भल मन को

जो घायल िो कर लट।

इडा आज कछ दिवत िो रिी

दिखयो को दखा उसन,

पििी पास और ििर पछा

"तमको िबसराया िकसन?

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इस रजनी म किा भटकती

जाओिी तम बोलो तो,

बठो आज अिधक ििल ि

वयथा-िाठ िनज खोलो तो।

जीवन की लमबी याता म

खोय भी ि िमल जात,

जीवन ि तो कभी िमलन ि

कट जाती दख की रात।"

शिा रकी कमार शात था

िमलता ि िवशाम यिी,

िली इडा क साथ जिा पर

विह िशखा पजविलत रिी।

सिसा धधकी वदी जवाला

मडप आलोिकत करती,

कामायनी दख पायी कछ

पििी उस तक डि भरती।

और विी मन घायल सिमि

तो कया सचिा सवपन रिा?

आि पाणिपय यि कया?

तम यो घला हदय,बन नीर बिा।

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इडा ििकत, शिा आ बठी

वि थी मन को सिलाती,

अनलपन-सा मधर सपश ज था

वयथा भला कयो रि जाती?

उस मिछजत नीरवता म

कछ िलक स सपदन आय।

आख खली िार कोनो म

िार िबद आकर छाय।

उधर कमार दखता ऊि

मिदर, मडप, वदी को,

यि सब कया ि नया मनोिर

कस य लित जी को?

मा न किा 'अर आ त भी

दख िपता ि पड िए,'

'िपता आ िया लो' यि

कित उसक रोय खड िए।

"मा जल द, कछ पयास िोि

कया बठी कर रिी यिा?"

मखर िो िया सना मडप

यि सजीवता रिी यिा?"

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आतमीयता घली उस घर म

छोटा सा पिरवार बना,

छाया एक मधर सवर उस पर

शिा का सिीत बना।

"तमल कोलािल कलि म

म हदय की बात र मन

िवकल िोकर िनतय ििल,

खोजती जब नीद क पल,

ितना थक-सी रिी तब,

म मलय की बात र मन

ििर-िवषाद-िवलीन मन की,

इस वयथा क ितिमर-वन की ल

म उषा-सी जयोित-रखा,

कसम-िवकिसत पात र मन

जिा मर-जवाला धधकती,

िातकी कन को तरसती,

उनिी जीवन-घािटयो की,

म सरस बरसात र मन

पवन की पािीर म रक

जला जीवन जी रिा झक,

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इस झलसत िवश-िदन की

म कसम-शत-रात र मन

ििर िनराशा नीरधार स,

पितचछाियत अश-सर म,

मधप-मखर मरद-मकिलत,

म सजल जलजात र मन"

उस सवर-लिरी क अकर

सब सजीवन रस बन घल।

उधर पभात िआ पािी म

मन क मिदत-नयन खल।

शिा का अवलब िमला

ििर कतजता स हदय भर,

मन उठ बठ िदिद िोकर

बोल कछ अनराि भर।

"शिा त आ ियी भला तो-

पर कया था म यिी पडा'

विी भवन, व सतभ, विदका

िबखरी िारो ओर घणा।

आख बद कर िलया कोभ स

"दर-दर ल िल मझको,

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इस भयावन अधकार म

खो द किी न ििर तझको।

िाथ पकड ल, िल सकता ि-

िा िक यिी अवलब िमल,

वि त कौन? पर िट, शि आ िक

हदय का कसम िखल।"

शिा नीरव िसर सिलाती

आखो म िवशास भर,

मानो किती "तम मर िो

अब कयो कोई वथा डर?"

जल पीकर कछ सवसथ िए स

लि बित धीर किन,

"ल िल इस छाया क बािर

मझको द न यिा रिन।

मक नील नभ क नीि

या किी ििा म रि लि,

अर झलता िी आया ि-

जो आविा सि लि"

"ठिरो कछ तो बल आन दो

िलवा िलिी तरत तमि,

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इतन कण तक" शिा बोली-

"रिन दिी कया न िम?"

इडा सकिित उधर खडी थी

यि अिधकार न छीन सकी,

शिा अिविल, मन अब बोल

उनकी वाणी निी रकी।

"जब जीवन म साध भरी थी

उचछखल अनरोध भरा,

अिभलाषाय भरी हदय म

अपनपन का बोध भरा।

म था, सदर कसमो की वि

सघन सनिली छाया थी,

मलयािनल की लिर उठ रिी

उललासो की माया थी।

उषा अरण पयाला भर लाती

सरिभत छाया क नीि

मरा यौवन पीता सख स

अलसाई आख मीि।

ल मकरद नया ि पडती

शरद-पात की शिाली,

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िबखराती सख िी, सधया की

सदर अलक घघराली।

सिसा अधकार की आधी

उठी िकितज स वि भरी,

िलिल स िवकबि िवश-थी

उदिलत मानस लिरी।

वयिथत हदय उस नील नभ म

छाया पथ-सा खला तभी,

अपनी मिलमयी मधर-िसमित

कर दी तमन दिव जभी।

िदवय तमिारी अमर अिमट

छिव लिी खलन रि-रली,

नवल िम-लखा सी मर हदय-

िनकष पर िखिी भली।

अरणािल मन मिदर की वि

मगध-माधरी नव पितमा,

िी िसखान सनि-मयी सी

सदरता की मद मििमा।

उस िदन तो िम जान सक थ

सदर िकसको ि कित

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तब पििान सक, िकसक िित

पाणी यि दख-सख सित।

जीवन किता यौवन स

"कछ दखा तन मतवाल"

यौवन किता सास िलय

िल कछ अपना सबल पाल"

हदय बन रिा था सीपी सा

तम सवाती की बद बनी,

मानस-शतदल झम उठा

जब तम उसम मकरद बनी।

तमन इस सख पतझड म

भर दी ििरयाली िकतनी,

मन समझा मादकता ि

तिप बन ियी वि इतनी

िवश, िक िजसम दख की

आधी पीडा की लिरी उठती,

िजसम जीवन मरण बना था

बदबद की माया निती।

विी शात उजजवल मिल सा

िदखता था िवशास भरा,

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वषा ज क कदब कानन सा

सिि-िवभव िो उठा िरा।

भिवती वि पावन मध-धारा

दख अमत भी ललिाय,

विी, रमय सौदययज-शल स

िजसम जीवन धल जाय

सधया अब ल जाती मझस

ताराओ की अकथ कथा,

नीद सिज िी ल लती थी

सार शमकी िवकल वयथा।

सकल कतिल और कलपना

उन िरणो स उलझ पडी,

कसम पसनन िए िसत स

जीवन की वि धनय घडी।

िसमित मधराका थी, शवासो स

पािरजात कानन िखलता,

िित मरद-मथर मलयज-सी

सवर म वण किा िमलता

शास-पवन पर िढ कर मर

दराित वशी-रत-सी,

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िज उठी तम, िवश किर म

िदवय-राििनी-अिभनव-सी

जीवन-जलिनिध क तल स

जो मका थ व िनकल पड,

जि-मिल-सिीत तमिारा

िात मर रोम खड।

आशा की आलोक-िकरन स

कछ मानस स ल मर,

लघ जलधर का सजन िआ था

िजसको शिशलखा घर-

उस पर िबजली की माला-सी

झम पडी तम पभा भरी,

और जलद वि िरमिझम

बरसा मन-वनसथली िई िरी

तमन िस-िस मझ िसखाया

िवश खल ि खल िलो,

तमन िमलकर मझ बताया

सबस करत मल िलो।

यि भी अपनी िबजली क स

िवभम स सकत िकया,

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अपना मन ि िजसको िािा

तब इसको द दान िदया।

तम अजस वषा ज सिाि की

और सनि की मध-रजनी,

िवर अतिप जीवन यिद था

तो तम उसम सतोष बनी।

िकतना ि उपकार तमिारा

आिशररात मरा पणय िआ

आिकतना आभारी ि, इतना

सवदनमय हदय िआ।

िकत अधम म समझ न पाया

उस मिल की माया को,

और आज भी पकड रिा ि

िष ज शोक की छाया को,

मरा सब कछ कोध मोि क

उपादान स ििठत िआ,

ऐसा िी अनभव िोता ि

िकरनो न अब तक न छआ।

शािपत-सा म जीवन का यि

ल ककाल भटकता ि,

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उसी खोखलपन म जस

कछ खोजता अटकता ि।

अध-तमस ि, िकत पकित का

आकषणज ि खीि रिा,

सब पर, िा अपन पर भी

म झझलाता ि खीझ रिा।

निी पा सका ि म जस

जो तम दना िाि रिी,

कद पात तम उसम िकतनी

मध-धारा िो ढाल रिी।

सब बािर िोता जाता ि

सवित उस म कर न सका,

बिि-तकज क िछद िए थ

हदय िमारा भर न सका।

यि कमार-मर जीवन का

उचि अश, कलयाण-कला

िकतना बडा पलोभन मरा

हदय सनि बन जिा ढला।

सखी रि, सब सखी रि बस

छोडो मझ अपराधी को"

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शिा दख रिी िप मन क

भीतर उठती आधी को।

िदन बीता रजनी भी आयी

तदा िनदा सि िलय,

इडा कमार समीप पडी थी

मन की दबी उमि िलय।

शिा भी कछ िखनन थकी सी

िाथो को उपधान िकय,

पडी सोिती मन िी मन कछ,

मन िप सब अिभशाप िपय-

सोि रि थ, "जीवन सख ि?

ना, यि िवकट पिली ि,

भाि अर मन इदजाल स

िकतनी वयथा न झली ि?

यि पभात की सवण ज िकरन सी

िझलिमल ििल सी छाया,

शिा को िदखलाऊ कस

यि मख या कलिषत काया।

और शत सब, य कतघन ििर

इनका कया िवशास कर,

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पितििसा पितशोध दबा कर

मन िी मन िपिाप मर।

शिा क रित यि सभव

निी िक कछ कर पाऊिा

तो ििर शाित िमलिी मझको

जिा खोजता जाऊिा।"

जि सभी जब नव पभात म

दख तो मन विा निी,

'िपता किा' कि खोज रिा था

यि कमार अब शात निी।

इडा आज अपन को सबस

अपराधी ि समझ रिी,

कामायनी मौन बठी सी

अपन म िी उलझ रिी।

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दश जन

वि िदिीन थी एक रात,

िजसम सोया था सवचछ पात ल

उजल-उजल तारक झलमल,

पितिबिबत सिरता वकसथल,

धारा बि जाती िबब अटल,

खलता था धीर पवन-पटल

िपिाप खडी थी वक पात

सनती जस कछ िनजी बात।

धिमल छायाय रिी घम,

लिरी परो को रिी िम,

"मा त िल आयी दर इधर,

सनधया कब की िल ियी उधर,

इस िनजनज म अब कया सदर-

त दख रिी, मा बस िल घर

उसम स उठता िध-धम"

शिान वि मख िलया िम।

"मा कयो त ि इतनी उदास,

कया म ि निी तर पास,

त कई िदनो स यो िप रि,

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कया सोि रिी? कछ तो कि,

यि कसा तरा दख-दसि,

जो बािर-भीतर दता दि,

लती ढीली सी भरी सास,

जसी िोती जाती िताश।"

वि बोली "नील ििन अपार,

िजसम अवनत घन सजल भार,

आत जात, सख, दख, िदिश, पल

िशश सा आता कर खल अिनल,

ििर झलमल सदर तारक दल,

नभ रजनी क जिन अिवरल,

यि िवश अर िकतना उदार,

मरा िि र उनमक-दार।

यि लोिन-िोिर-सकल-लोक,

ससित क किलपत िष ज शोक,

भावादिध स िकरनो क मि,

सवाती कन स बन भरत जि,

उतथान-पतनमय सतत सजि,

झरन झरत आिलिित नि,

उलझन मीठी रोक टोक,

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यि सब उसकी ि नोक झोक।

जि, जिता आख िकय लाल,

सोता ओढ तम-नीद-जाल,

सरधन सा अपना रि बदल,

मित, ससित, नित, उननित म ढल,

अपनी सषमा म यि झलमल,

इस पर िखलता झरता उडदल,

अवकाश-सरोवर का मराल,

िकतना सदर िकतना िवशाल

इसक सतर-सतर म मौन शाित,

शीतल अिाध ि, ताप-भाित,

पिरवतनज मय यि ििर-मिल,

मसकयात इसम भाव सकल,

िसता ि इसम कोलािल,

उललास भरा सा अतसतल,

मरा िनवास अित-मधर-काित,

यि एक नीड ि सखद शाित

"अब ििर कयो इतना िवराि,

मझ पर न िई कयो सानराि?"

पीछ मड शिा न दखा,

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वि इडा मिलन छिव की रखा,

जयो रािगसत-सी शिश-लखा,

िजस पर िवषाद की िवष-रखा,

कछ गिण कर रिा दीन तयाि,

सोया िजसका ि भागय, जाि।

बोली "तमस कसी िवरिक,

तम जीवन की अधानरिक,

मझस िबछड को अवलबन,

दकर, तमन रकखा जीवन,

तम आशामिय ििर आकषणज ,

तम मादकता की अवनत धन,

मन क मसतककी ििर-अतिप,

तम उतिजत ििला-शिक

म कया तमि द सकती मोल,

यि हदय अर दो मधर बोल,

म िसती ि रो लती ि,

म पाती ि खो दती ि,

इसस ल उसको दती ि,

म दख को सख कर लती ि,

अनराि भरी ि मधर घोल,

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ििर-िवसमित-सी ि रिी डोल।

यि पभापण ज तव मख िनिार,

मन ित-ितन थ एक बार,

नारी माया-ममता का बल,

वि शिकमयी छाया शीतल,

ििर कौन कमा कर द िनशछल,

िजसस यि धनय बन भतल,

'तम कमा करोिी' यि िविार

म छोड कस सािधकार।"

"अब म रि सकती निी मौन,

अपराधी िकत यिा न कौन?

सख-दख जीवन म सब सित,

पर कव सख अपना कित,

अिधकार न सीमा म रित।

पावस-िनझरज -स व बित,

रोक ििर उनको भला कौन?

सब को व कित-शत िो न"

अगसर िो रिी यिा िट,

सीमाय कितम रिी टट,

शम-भाि वि ज बन िया िजनि,

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अपन बल का ि िव ज उनि,

िनयमो की करनी सिि िजनि,

िवपलव की करनी विि उनि,

सब िपय मत लालसा घट,

मरा सािस अब िया छट।

म जनपद-कलयाणी पिसि,

अब अवनित कारण ि िनिषि,

मर सिवभाजन िए िवषम,

टटत, िनतय बन रि िनयम

नाना कदो म जलधर-सम,

िघर िट, बरस य उपलोपम

यि जवाला इतनी ि सिमि,

आिित बस िाि रिी समि।

तो कया म भम म थी िनतात,

सिार-बधय असिाय दात,

पाणी िवनाश-मख म अिवरल,

िपिाप िल िोकर िनबलज

सघष ज कम ज का िमथया बल,

य शिक-ििनि, य यज िविल,

भय की उपासना पणाित भात

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अिनशासन की छाया अशात

ितस पर मन छीना सिाि,

ि दिव तमिारा िदवय-राि,

मम आज अिकिन पाती ि,

अपन को निी सिाती ि,

म जो कछ भी सवर िाती ि,

वि सवय निी सन पाती ि,

दो कमा, न दो अपना िवराि,

सोयी ितनता उठ जाि।"

"ि रद-रोष अब तक अशात"

शिा बोली, " बन िवषम धवात

िसर िढी रिी पाया न हदय

त िवकल कर रिी ि अिभनय,

अपनापन ितन का सखमय

खो िया, निी आलोक उदय,

सब अपन पथ पर िल शात,

पतयक िवभाजन बना भात।

जीवन धारा सदर पवाि,

सत , सतत, पकाश सखद अथाि,

ओ तकज मयी त ििन लिर,

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पितिबिबत तारा पकड, ठिर,

त रक-रक दख आठ पिर,

वि जडता की िसथित, भल न कर,

सख-दख का मधमय धप-छाि,

त न छोडी यि सरल राि।

ितनता का भौितक िवभाि-

कर, जि को बाट िदया िवराि,

ििित का सवरप यि िनतय-जित,

वि रप बदलता ि शत-शत,

कण िवरि-िमलन-मय-नतय-िनरत

उललासपण ज आनद सतत

तललीन-पण ज ि एक राि,

झकत ि कवल 'जाि जाि'

म लोक-अिगन म तप िनतात,

आिित पसनन दती पशात,

त कमा न कर कछ िाि रिी,

जलती छाती की दाि रिी,

त ल ल जो िनिध पास रिी,

मझको बस अपनी राि रिी,

रि सौमय यिी, िो सखद पात,

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िविनमय कर द कर कम ज कात।

तम दोनो दखो राष-नीित,

शासक बन िलाओ न भीती,

म अपन मन को खोज िली,

सिरता, मर, नि या कज -िली,

वि भोला इतना निी छली

िमल जायिा, ि पम-पली,

तब दख कसी िली रीित,

मानव तरी िो सयश िीित।"

बोला बालक " ममता न तोड,

जननी मझस मि यो न मोड,

तरी आजा का कर पालन,

वि सनि सदा करता लालन।

म मर िजऊ पर छट न पन,

वरदान बन मरा जीवन

जो मझको त यो िली छोड,

तो मझ िमल ििर यिी कोड"

"ि सौमय इडा का शिि दलार,

िर लिा तरा वयथा-भार,

यि तकज मयी त शिामय,

त मननशील कर कम ज अभय,

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इसका त सब सताप िनिय,

िर ल, िो मानव भागय उदय,

सब की समरसता कर पिार,

मर सत सन मा की पकार।"

"अित मधर विन िवशास मल,

मझको न कभी य जाय भल

ि दिव तमिारा सनि पबल,

बन िदवय शय-उदिम अिवरल,

आकषणज घन-सा िवतर जल,

िनवािज सत िो सताप सकल"

किा इडा पणत ल िरण धल,

पकडा कमार-कर मदल िल।

व तीनो िी कण एक मौन-

िवसमत स थ, िम किा कौन

िवचछद बाह, था आिलिन-

वि हदयो का, अित मधर-िमलन,

िमलत आित िोकर जलकन,

लिरो का यि पिरणत जीवन,

दो लौट िल पर ओर मौन,

जब दर िए तब रि दो न।

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िनसतबध ििन था, िदशा शात,

वि था असीम का िित कात।

कछ शनय िबद उर क ऊपर,

वयिथता रजनी क शमसीकर,

झलक कब स पर पड न झर,

िभीर मिलन छाया भ पर,

सिरता तट तर का िकितज पात,

कवल िबखरता दीन धवात।

शत-शत तारा मिडत अनत,

कसमो का सतबक िखला बसत,

िसता ऊपर का िवश मधर,

िलक पकाश स पिरत उर,

बिती माया सिरता ऊपर,

उठती िकरणो की लोल लिर,

िनिल सतर पर छाया दरत,

आती िपक, जाती तरत।

सिरता का वि एकात कल,

था पवन ििडोल रिा झल,

धीर-धीर लिरो का दल,

तट स टकरा िोता ओझल,

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छप-छप का िोता शबद िवरल,

थर-थर कप रिती दीिप तरल

ससित अपन म रिी भल,

वि िध-िवधर अमलान िल।

तब सरसवती-सा िक सास,

शिा न दखा आस-पास,

थ िमक रि दो िल नयन,

जयो िशलालगन अनिढ रतन,

वि कया तम म करता सनसन?

धारा का िी कया यि िनसवन

ना, ििा लतावत एक पास,

कोई जीिवत ल रिा सास।

वि िनजनज तट था एक िित,

िकतना सदर, िकतना पिवत?

कछ उननत थ व शलिशखर,

ििर भी ऊिा शिा का िसर,

वि लोक-अिगन म तप िल कर,

थी ढली सवणज-पितमा बन कर,

मन न दखा िकतना िविित

वि मात-मित ज थी िवश-िमत।

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बोल "रमणी तम निी आि

िजसक मन म िो भरी िाि,

तमन अपना सब कछ खोकर,

विित िजस पाया रोकर,

म भिा पाण िजनस लकर,

उसको भी, उन सब को दकर,

िनदजय मन कया न उठा कराि?

अदत ि तब मन का पवाि

य शापद स ििसक अधीर,

कोमल शावक वि बाल वीर,

सनता था वि पाणी शीतल,

िकतना दलार िकतना िनमलज

कसा कठोर ि तव हतल

वि इडा कर ियी ििर भी छल,

तम बनी रिी िो अभी धीर,

छट िया िाथ स आि तीर।"

"िपय अब तक िो इतन सशक,

दकर कछ कोई निी रक,

यि िविनयम ि या पिरवतनज ,

बन रिा तमिारा ऋण अब धन,

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अपराध तमिारा वि बधन-

लो बना मिक, अब छोड सवजन-

िनवािज सत तम, कयो लि डक?

दो लो पसनन, यि सपि अक।"

"तम दिव आि िकतनी उदार,

यि मातमित ज ि िनिवकज ार,

ि सवमज िल तम मिती,

सबका दख अपन पर सिती,

कलयाणमयी वाणी किती,

तम कमा िनलय म िो रिती,

म भला ि तमको िनिार-

नारी सा िी, वि लघ िविार।

म इस िनजनज तट म अधीर,

सि भख वयथा तीखा समीर,

िा भाविक म िपस-िपस कर,

िलता िी आया ि बढ कर,

इनक िवकार सा िी बन कर,

म शनय बना सता खोकर,

लघता मत दखो वक िीर,

िजसम अनशय बन घसा तीर।"

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"िपयतम यि नत िनसतबध रात,

ि समरण कराती िवित बात,

वि पलय शाित वि कोलािल,

जब अिपतज कर जीवन सबल,

म िई तमिारी थी िनशछल,

कया भल म, इतनी दबलज ?

तब िलो जिा पर शाित पात,

म िनतय तमिारी, सतय बात।

इस दव-दद का वि पतीक-

मानव कर ल सब भल ठीक,

यि िवष जो िला मिा-िवषम,

िनज कमोननित स करत सम,

सब मक बन, काटि भम,

उनका रिसय िो शभ-सयम,

ििर जायिा जो ि अलीक,

िल कर िमटती ि पडी लीक।"

वि शनय असत या अधकार,

अवकाश पटल का वार पार,

बािर भीतर उनमक सघन,

था अिल मिा नीला अजन,

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भिमका बनी वि िसनगध मिलन,

थ िनिनमज ष मन क लोिन,

इतना अनत था शनय-सार,

दीखता न िजसक पर पार।

सता का सपदन िला डोल,

आवरण पटल की गिथ खोल,

तम जलिनिध बन मधमथन,

जयोतसना सिरता का आिलिन,

वि रजत िौर, उजजवल जीवन,

आलोक परष मिल ितन

कवल पकाश का था कलोल,

मध िकरणो की थी लिर लोल।

बन िया तमस था अलक जाल,

सवािा जयोितमय था िवशाल,

अतिननज ाद धविन स पिरत,

थी शनय-भिदनी-सता िित,

नटराज सवय थ नतय-िनरत,

था अतिरक पििसत मखिरत,

सवर लय िोकर द रि ताल,

थ लप िो रि िदशाकाल।

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लीला का सपिदत आहाद,

वि पभा-पज ििितमय पसाद,

आननद पण ज ताडव सदर,

झरत थ उजजवल शम सीकर,

बनत तारा, ििमकर, िदनकर

उड रि धिलकण-स भधर,

सिार सजन स यिल पाद-

िितशील, अनाित िआ नाद।

िबखर असखय बहाड िोल,

यि गिण कर रि तोल,

िवदत कटाक िल िया िजधर,

किपत ससित बन रिी उधर,

ितन परमाण अनथ िबखर,

बनत िवलीन िोत कण भर

यि िवश झलता मिा दोल,

पिरवतनज का पट रिा खोल।

उस शिक-शरीरी का पकाश,

सब शाप पाप का कर िवनाश-

नतनज म िनरत, पकित िल कर,

उस काित िसध म घल-िमलकर

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अपना सवरप धरती सदर,

कमनीय बना था भीषणतर,

िीरक-ििरी पर िवदत-िवलास,

उललिसत मिा ििम धवल िास।

दखा मन न निततज नटश,

ित ित पकार उठ िवशष-

"यि कया शि बस त ल िल,

उन िरणो तक, द िनज सबल,

सब पाप पणय िजसम जल-जल,

पावन बन जात ि िनमलज ,

िमटतत असतय-स जान-लश,

समरस, अखड, आनद-वश" ।

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रिसय

उधव ज दश उस नील तमस म,

सतबध िि रिी अिल ििमानी,

पथ थककर ि लीन ितिदजक,

दख रिा वि िििर अिभमानी,

दोनो पिथक िल ि कब स,

ऊि-ऊि िढत जात,

शिा आि मन पीछ थ,

सािस उतसािी स बढत।

पवन वि पितकल उधर था,

किता-'ििर जा अर बटोिी

िकधर िला त मझ भद कर

पाणो क पित कयो िनमोिी?

छन को अबर मिली सी

बढी जा रिी सतत उिाई

िवकत उसक अि, पिट थ

भीषण खडड भयकारी खाई।

रिवकर ििमखडो पर पड कर

ििमकर िकतन नय बनाता,

दततर िककर काट पवन थी

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ििर स विी लौट आ जाता।

नीि जलधर दौड रि थ

सदर सर-धन माला पिन,

कजर -कलभ सदश इठलात,

िपला क ििन।

पविमान थ िनमन दश म

शीतल शत-शत िनझरज ऐस

मिाशत िजराज िड स

िबखरी मध धाराय जस।

ििरयाली िजनकी उभरी,

व समतल िितपटी स लित,

पितकितयो क बाह रख-स िसथर,

नद जो पित पल थ भित।

लघतम व सब जो वसधा पर

ऊपर मिाशनय का घरा,

ऊि िढन की रजनी का,

यिा िआ जा रिा सबरा,

"किा ल िली िो अब मझको,

शि म थक िला अिधक ि,

सािस छट िया ि मरा,

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िनससबल भगनाश पिथक ि,

लौट िलो, इस वात-िक स म,

दबलज अब लड न सकिा ,

शास रि करन वाल,

इस शीत पवन स अड न सकिा।

मर, िा व सब मर थ,

िजन स रठ िला आया ि।"

व नीि छट सदर,

पर भल निी उनको पाया ि।"

वि िवशास भरी िसमित िनशछल,

शिा-मख पर झलक उठी थी।

सवा कर-पललव म उसक,

कछ करन को ललक उठी थी।

द अवलब, िवकल साथी को,

कामायनी मधर सवर बोली,

"िम बढ दर िनकल आय,

अब करन का अवसर न िठठोली।

िदशा-िवकिपत, पल असीम ि,

यि अनत सा कछ ऊपर ि,

अनभव-करत िो, बोलो कया,

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पदतल म, सिमि भधर ि?

िनराधार ि िकत ठिरना,

िम दोनो को आज यिी ि

िनयित खल दख न, सनो

अब इसका अनय उपाय निी ि।

झाई लिती, वि तमको,

ऊपर उठन को ि किती,

इस पितकल पवन धकक को,

झोक दसरी िी आ सिती।

शात पक, कर नत बद बस,

िविि-यिल स आज िम रि,

शनय पवन बन पख िमार,

िमको द आधारा, जम रि।

घबराओ मत यि समतल ि,

दखो तो, िम किा आ िय"

मन न दखा आख खोलकर,

जस कछ ताण पा िय।

ऊषमा का अिभनव अनभव था,

गि, तारा, नकत असत थ,

िदवा-राित क सिधकाल म,

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य सब कोई निी वयसत थ।

ऋतओ क सतर िय ितरोिित,

भ-मडल रखा िवलीन-सी

िनराधार उस मिादश म,

उिदत सितनता नवीन-सी।

ितिदक िवश, आलोक िबद भी,

तीन िदखाई पड अलि व,

ितभवन क पितिनिध थ मानो व,

अनिमल थ िकत सजि थ।

मन न पछा, "कौन नय,

गि य ि शि मझ बताओ?

म िकस लोक बीि पििा,

इस इदजाल स मझ बिाओ"

"इस ितकोण क मधय िबद,

तम शिक िवपल कमता वाल य,

एक-एक को िसथर िो दखो,

इचछा जान, िकया वाल य।

वि दखो रािारण ि जो,

उषा क कदक सा सदर,

छायामय कमनीय कलवर,

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भाव-मयी पितमा का मिदर।

शबद, सपशज, रस, रप, िध की,

पारदिशनज ी सघड पतिलया,

िारो ओर नतय करती जयो,

रपवती रिीन िततिलया

इस कसमाकर क कानन क,

अरण पराि पटल छाया म,

इठलाती सोती जिती य,

अपनी भाव भरी माया म।

वि सिीतातमक धविन इनकी,

कोमल अिडाई ि लती,

मादकता की लिर उठाकर,

अपना अबर तर कर दती।

आिलिन सी मधर परणा,

छ लती, ििर िसिरन बनती,

नव-अलबषा की वीडा-सी,

खल जाती ि, ििर जा मदती।

यि जीवन की मधय-भिम,

ि रस धारा स िसिित िोती,

मधर लालसा की लिरो स,

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यि पवाििका सपिदत िोती।

िजसक तट पर िवदत-कण स।

मनोिािरणी आकित वाल,

छायामय सषमा म िवहल,

िविर रि सदर मतवाल।

समन-सकिलत भिम-रध-स,

मधर िध उठती रस-भीनी,

वाषप अदश ििार इसम,

छट रि, रस-बद झीनी।

घम रिी ि यिा ितिदजक,

िलिितो सी ससित छाया,

िजस आलोक-िवद को घर,

वि बठी मसकयाती माया।

भाव िक यि िला रिी ि,

इचछा की रथ-नािभ घमती,

नवरस-भरी अराए अिवरल,

िकवाल को ििकत िमती।

यिा मनोमय िवश कर रिा,

रािारण ितन उपासना,

माया-राजय यिी पिरपाटी,

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पाश िबछा कर जीव िासना।

य अशरीरी रप, समन स,

कवल वण ज िध म िल,

इन अपसिरयो की तानो क,

मिल रि ि सदर झल।

भाव-भिमका इसी लोक की,

जननी ि सब पणय-पाप की।

ढलत सब, सवभाव पितकित,

बन िल जवाला स मधर ताप की।

िनयममयी उलझन लितका का,

भाव िवटिप स आकर िमलना,

जीवन-वन की बनी समसया,

आशा नभकसमो का िखलना।

ििर-वसत का यि उदिम ि,

पतझर िोता एक ओर ि,

अमत िलािल यिा िमल ि,

सख-दख बधत, एक डोर ि।"

"सदर यि तमन िदखलाया,

िकत कौन वि शयाम दश ि?

कामायनी बताओ उसम,

कया रिसय रिता िवशष ि"

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"मन यि शयामल कम ज लोक ि,

धधला कछ-कछ अधकार-सा

सघन िो रिा अिवजात

यि दश, मिलन ि धम-धार सा।

कमज-िक-सा घम रिा ि,

यि िोलक, बन िनयित-परणा,

सब क पीछ लिी िई ि,

कोई वयाकल नयी एषणा।

शममय कोलािल, पीडनमय,

िवकल पवतनज मिायत का,

कण भर भी िवशाम निी ि,

पाण दास ि िकया-तत का।

भाव-राजय क सकल मानिसक,

सख यो दख म बदल रि ि,

ििसा िवोननत िारो म य,

अकड अण टिल रि ि।

य भौितक सदि कछ करक,

जीिवत रिना यिा िाित,

भाव-राष क िनयम यिा पर,

दड बन ि, सब कराित।

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करत ि, सतोष निी ि,

जस कशाघात-पिरत स-

पित कण करत िी जात ि,

भीित-िववश य सब किपत स।

िनयात िलाती कमज-िक यि,

तषणा-जिनत ममतव-वासना,

पािण-पादमय पिभत की,

यिा िो रिी ि उपासना।

यिा सतत सघष ज िविलता,

कोलािल का यिा राज ि,

अधकार म दौड लि रिी

मतवाला यि सब समाज ि।

सथल िो रि रप बनाकर,

कमो की भीषण पिरणित ि,

आकाका की तीव िपपाशा

ममता की यि िनममज िित ि।

यिा शासनादश घोषणा,

िवजयो की िकार सनाती,

यिा भख स िवकल दिलत को,

पदतल म ििर ििर ििरवाती।

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यिा िलय दाियतव कम ज का,

उननित करन क मतवाल,

जल-जला कर िट पड रि

ढल कर बिन वाल छाल।

यिा रािशकत िवपल िवभव सब,

मरीििका-स दीख पड रि,

भागयवान बन किणक भोि क व,

िवलीन, य पनः िड रि।

बडी लालसा यिा सयश की,

अपराधो की सवीकित बनती,

अध परणा स पिरिािलत,

कता ज म करत िनज ििनती।

पाण ततव की सघन साधना जल,

ििम उपल यिा ि बनता,

पयास घायल िो जल जात,

मर-मर कर जीत िी बनता

यिा नील-लोिित जवाला कछ,

जला-जला कर िनतय ढालती,

िोट सिन कर रकन वाली धात,

न िजसको मतय सालती।

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वषा ज क घन नाद कर रि,

तट-कलो को सिज ििराती,

पलािवत करती वन कजो को ,

लकय पािप सिरता बि जाती।"

"बस अब ओर न इस िदखा त,

यि अित भीषण कम ज जित ि,

शि वि उजजवल कसा ि,

जस पजीभत रजत ि।"

"िपयतम यि तो जान कत ि,

सख-दख स ि उदासीनत,

यिा नयाय िनममज , िलता ि,

बिि-िक, िजसम न दीनता।

अिसत-नािसत का भद, िनरकश करत,

य अण तकज -यिक स,

य िनससि, िकत कर लत,

कछ सबध-िवधान मिक स।

यिा पापय िमलता ि कवल,

तिप निी, कर भद बाटती,

बिि, िवभित सकल िसकता-सी,

पयास लिी ि ओस िाटती।

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नयाय, तपस , ऐशय ज म पि य,

पाणी िमकील लित,

इस िनदाघ मर म, सख स,

सोतो क तट जस जित।

मनोभाव स काय-कम ज क

समतोलन म दतिित स,

य िनसपि नयायासन वाल,

िक न सकत तिनक िवत स

अपना पिरिमत पात िलय,

य बद-बद वाल िनझरज स,

माि रि ि जीवन का रस,

बठ यिा पर अजर-अमर-स।

यिा िवभाजन धमज-तला का,

अिधकारो की वयाखया करता,

यि िनरीि, पर कछ पाकर िी,

अपनी ढीली सास भरता।

उतमता इनका िनजसव ि,

अबज वाल सर सा दखो,

जीवन-मध एकत कर रिी,

उन सिखयो सा बस लखो।

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यिा शरद की धवल जयोतसना,

अधकार को भद िनखरती,

यि अनवसथा, यिल िमल स,

िवकल वयवसथा सदा िबखरती।

दखो व सब सौमय बन ि,

िकत सशिकत ि दोषो स,

व सकत दभ क िलत,

भ-वालन िमस पिरतोषो स।

यिा अछत रिा जीवन रस,

छओ मत, सिित िोन दो।

बस इतना िी भाि तमिारा,

तषणा मषा, विित िोन दो।

सामजसय िल करन य,

िकत िवषमता िलात ि,

मल-सवतव कछ और बतात,

इचछाओ को झठलात ि।

सवय वयसत पर शात बन-स,

शास शस-रका म पलत,

य िवजान भर अनशासन,

कण कण पिरवतनज म ढलत।

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यिी ितपर ि दखा तमन,

तीन िबद जयोतोमयज इतन,

अपन कनद बन दख-सख म,

िभनन िए ि य सब िकतन

जान दर कछ, िकया िभनन ि,

इचछा कयो परी िो मन की,

एक दसर स न िमल सक,

यि िवडबना ि जीवन की।"

मिाजयोित-रख सी बनकर,

शिा की िसमित दौडी उनम,

व सबि िए िर सिसा,

जाि उठी थी जवाला िजनम।

नीि ऊपर लिकीली वि,

िवषम वाय म धधक रिी सी,

मिाशनय म जवाल सनिली,

सबको किती 'निी निी सी।

शिक-तरि पलय-पावक का,

उस ितकोण म िनखर-उठा-सा।

ििितमय ििता धधकती अिवरल,

मिाकाल का िवषय नतय था,

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िवश रध जवाला स भरकर,

करता अपना िवषम कतय था,

सवपन, सवाप, जािरण भसम िो,

इचछा िकया जान िमल लय थ,

िदवय अनाित पर-िननाद म,

शिायत मन बस तनमय थ।

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आनद

िलता था-धीर-धीर

वि एक याितयो का दल,

सिरता क रमय पिलन म

िििरपथ स, ल िनज सबल।

या सोम लता स आवत वष

धवल, धम ज का पितिनिध,

घटा बजता तालो म

उसकी थी मथर िित-िविध।

वष-रजज वाम कर म था

दिकण ितशल स शोिभत,

मानव था साथ उसी क

मख पर था तज अपिरिमत।

कििर-िकशोर स अिभनव

अवयव पसििटत िए थ,

यौवन िमभीर िआ था

िजसम कछ भाव नय थ।

िल रिी इडा भी वष क

दसर पाश ज म नीरव,

ििरक-वसना सधया सी

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िजसक िप थ सब कलरव।

उललास रिा यवको का

िशश िण का था मद कलकल।

मििला-मिल िानो स

मखिरत था वि याती दल।

िमरो पर बोझ लद थ

व िलत थ िमल आिवरल,

कछ िशश भी बठ उनिी पर

अपन िी बन कतिल।

माताए पकड उनको

बात थी करती जाती,

'िम किा िल रि' यि सब

उनको िविधवत समझाती।

कि रिा एक था" त तो

कब स िी सना रिी ि

अब आ पििी लो दखो

आि वि भिम यिी ि।

पर बढती िी िलती ि

रकन का नाम निी ि,

वि तीथ ज किा ि कि तो

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िजसक िित दौड रिी ि।"

"वि अिला समतल िजस पर

ि दवदार का कानन,

घन अपनी पयाली भरत ल

िजसक दल स ििमकन।

िा इसी ढालव को जब बस

सिज उतर जाव िम,

ििर सनमख तीथ ज िमलिा

वि अित उजजवल पावनतम"

वि इडा समीप पिि कर

बोला उसको रकन को,

बालक था, मिल िया था

कछ और कथा सनन को।

वि अपलक लोिन अपन

पादाग िवलोकन करती,

पथ-पदिशकज ा-सी िलती

धीर-धीर डि भरती।

बोली, "िम जिा िल ि

वि ि जिती का पावन

साधना पदश िकसी का

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शीतल अित शात तपोवन।"

"कसा? कयो शात तपोवन?

िवसतत कयो न बताती"

बालक न किा इडा स

वि बोली कछ सकिाती

"सनती ि एक मनसवी था

विा एक िदन आया,

वि जिती की जवाला स

अित-िवकल रिा झलसाया।

उसकी वि जलन भयानक

िली िििर अिल म ििर,

दावािगन पखर लपटो न

कर िलया सघन बन अिसथर।

थी अधािा िनी उसी की

जो उस खोजती आयी,

यि दशा दख, करणा की

वषा ज दि म भर लायी।

वरदान बन ििर उसक आस,

करत जि-मिल,

सब ताप शात िोकर,

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बन िो िया ििरत, सख शीतल।

िििर-िनझरज िल उछलत

छायी ििर ििरयाली,

सख तर कछ मसकराय

िटी पललव म लाली।

व यिल विी अब बठ

ससित की सवा करत,

सतोष और सख दकर

सबकी दख जवाला िरत।

ि विा मिाहद िनमलज

जो मन की पयास बझाता,

मानस उसको कित ि

सख पाता जो ि जाता।

"तो यि वष कयो त यो िी

वस िी िला रिी ि,

कयो बठ न जाती इस पर

अपन को थका रिी ि?"

"सारसवत-निर-िनवासी

िम आय याता करन,

यि वयथज, िरक-जीवन-घट

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पीयष-सिलल स भरन।

इस वषभ धमज-पितिनिध को

उतसि ज करि जाकर,

ििर मक रि यि िनभयज

सवचछद सदा सख पाकर।"

सब समिल िय थ

आि थी कछ नीिी उतराई,

िजस समतल घाटी म,

वि थी ििरयाली स छाई।

शम, ताप और पथ पीडा

कण भर म थ अतििजत,

सामन िवराट धवल-नि

अपनी मििमा स िवलिसत।

उसकी तलिटी मनोिर

शयामल तण-वीरध वाली,

नव-कज , ििा-िि सदर

हद स भर रिी िनराली।

वि मजिरयो का कानन

कछ अरण पीत ििरयाली,

पित-पव ज समन-सकल थ

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िछप िई उनिी म डाली।

याती दल न रक दखा

मानस का दशय िनराला,

खि-मि को अित सखदायक

छोटा-सा जित उजाला।

मरकत की वदी पर जयो

रकखा िीर का पानी,

छोटा सा मकर पकित

या सोयी राका रानी।

िदनकर िििर क पीछ अब

ििमकर था िढा ििन म,

कलास पदोष-पभा म िसथर

बठा िकसी लिन म।

सधया समीप आयी थी

उस सर क, वलकल वसना,

तारो स अलक िथी थी

पिन कदब की रशना।

खि कल िकलकार रि थ,

कलिस कर रि कलरव,

िकननिरया बनी पितधविन

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लती थी तान अिभनव।

मन बठ धयान-िनरत थ

उस िनमलज मानस-तट म,

समनो की अजिल भर कर

शिा थी खडी िनकट म।

शिा न समन िबखरा

शत-शत मधपो का िजन,

भर उठा मनोिर नभ म

मन तनमय बठ उनमन।

पििान िलया था सबन

ििर कस अब व रकत,

वि दव-दद दितमय था

ििर कयो न पणित म झकत।

तब वषभ सोमवािी भी

अपनी घटा-धविन करता,

बढ िला इडा क पीछ

मानव भी था डि भरता।

िा इडा आज भली थी

पर कमा न िाि रिी थी,

वि दशय दखन को िनज

दि-यिल सराि रिी थी

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ििर-िमिलत पकित स पलिकत

वि ितन-परष-परातन,

िनज-शिक-तरिाियत था

आनद-अब-िनिध शोभन।

भर रिा अक शिा का

मानव उसको अपना कर,

था इडा-शीश िरणो पर

वि पलक भरी िदिद सवर

बोली-"म धनय िई जो

यिा भलकर आयी,

ि दवी तमिारी ममता

बस मझ खीिती लायी।

भिवित, समझी म सिमि

कछ भी न समझ थी मझको।

सब को िी भला रिी थी

अभयास यिी था मझको।

िम एक कटमब बनाकर

याता करन ि आय,

सन कर यि िदवय-तपोवन

िजसम सब अघ छट जाय।"

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मन न कछ-कछ मसकरा कर

कलास ओर िदखालाया,

बोल- "दखो िक यिा

कोई भी निी पराया।

िम अनय न और कटबी

िम कवल एक िमी ि,

तम सब मर अवयव िो

िजसम कछ निी कमी ि।

शािपत न यिा ि कोई

तािपत पापी न यिा ि,

जीवन-वसधा समतल ि

समरस ि जो िक जिा ि।

ितन समद म जीवन

लिरो सा िबखर पडा ि,

कछ छाप वयिकित,

अपना िनिमतज आकार खडा ि।

इस जयोतसना क जलिनिध म

बदबद सा रप बनाय,

नकत िदखाई दत

अपनी आभा िमकाय।

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वस अभद-सािर म

पाणो का सिि कम ि,

सब म घल िमल कर रसमय

रिता यि भाव िरम ि।

अपन दख सख स पलिकत

यि मतज-िवश सिरािर

ििित का िवराट-वप मिल

यि सतय सतत िित सदर।

सबकी सवा न परायी

वि अपनी सख-ससित ि,

अपना िी अण अण कण-कण

दयता िी तो िवसमित ि।

म की मरी ितनता

सबको िी सपश ज िकय सी,

सब िभनन पिरिसथितयो की ि

मादक घट िपय सी।

जि ल ऊषा क दि म

सो ल िनशी की पलको म,

िा सवपन दख ल सदर

उलझन वाली अलको म

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ितन का साकी मानव

िो िनिवकज ार िसता सा,

मानस क मधर िमलन म

ििर ििर धसता सा।

सब भदभाव भलवा कर

दख-सख को दशय बनाता,

मानव कि र यि म ि,

यि िवश नीड बन जाता"

शिा क मध-अधरो की

छोटी-छोटी रखाय,

रािारण िकरण कला सी

िवकसी बन िसमित लखाय।

वि कामायनी जित की

मिल-कामना-अकली,

थी-जयोितषमती पििललत

मानस तट की वन बली।

वि िवश-ितना पलिकत थी

पणज-काम की पितमा,

जस िभीर मिाहद िो

भरा िवमल जल मििमा।

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िजस मरली क िनसवन स

यि शनय रािमय िोता,

वि कामायनी िविसती अि

जि था मखिरत िोता।

कण-भर म सब पिरविततज

अण-अण थ िवश-कमल क,

िपिल-पराि स मिल

आनद-सधा रस छलक।

अित मधर िधवि बिता

पिरमल बदो स िसिित,

सख-सपश ज कमल-कसर का

कर आया रज स रिजत।

जस असखय मकलो का

मादन-िवकास कर आया,

उनक अछत अधरो का

िकतना िबन भर लाया।

रक-रक कर कछ इठलाता

जस कछ िो वि भला,

नव कनक-कसम-रज धसर

मकरद-जलद-सा िला।

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जस वनलकमी न िी

िबखराया िो कसर-रज,

या िमकट ििम जल म

झलकाता परछाई िनज।

ससित क मधर िमलन क

उचछवास बना कर िनज दल,

िल पड ििन-आिन म

कछ िात अिभनव मिल।

वललिरया नतय िनरत थी,

िबखरी सिध की लिर,

ििर वण रध स उठ कर

मचछजना किा अब ठिर।

िजत मधर नपर स

मदमात िोकर मधकर,

वाणी की वीणा-धविन-सी

भर उठी शनय म िझल कर।

उनमद माधव मलयािनल

दौड सब ििरत-पडत,

पिरमल स िली निा कर

काकली, समन थ झडत।

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िसकडन कौशय वसन की थी

िवश-सनदरी तन पर,

या मादन मदतम कपन

छायी सपण ज सजन पर।

सख-सििर दख-िवदषक

पिरिास पण ज कर अिभनय,

सब की िवसमित क पट म

िछप बठा था अब िनभयज ।

थ डाल डाल म मधमय

मद मकल बन झालर स,

रस भार पिलल समन

सब धीर-धीर स बरस।

ििम खड रिशम मिडत िो

मिण-दीप पकाश िदखता,

िजनस समीर टकरा कर

अित मधर मदि बजाता।

सिीत मनोिर उठता

मरली बजती जीवन की,

सकत कामना बन कर

बतलाती िदशा िमलन की।

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रिसमया बनी अपसिरया

अतिरक म निती थी,

पिरमल का कन-कन लकर

िनज रिमि रिती थी।

मासल-सी आज िई थी

ििमवती पकित पाषाणी,

उस लास-रास म िवहल

थी िसती सी कलयाणी।

वि िद िकरीट रजत-नि

सपिदत-सा परष परातन,

दखता मानिस िौरी

लिरो का कोमल नतन ज

पितििलत िई सब आख

उस पम-जयोित-िवमला स,

सब पििान स लित

अपनी िी एक कला स।

समरस थ जड या ितन

सनदर साकार बना था,

ितनता एक िवलसती

आनद अखड घना था।