21 व ीं सदी के आींचलिक हिन्दी उपन्यासों...

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21 व सदी के आचलिक हिदी उपयास का लिपगत अययन आंचलिक उपयास की बनावट अय उपयास से अिग होती है | इसम उपयासकार पहिे एक पछड़े/अतत पपछड़े, पवलिट, समयात आदि से सबित अंचि का पविान करता है | उपयासकार }kरा चचित अंचि/ पररवेि अय ेि से अिग होता है, उसकी अिग पहचान होती है | अपनी अिग पहचान रखने के कारण ही वह अंचि परवेिगत आिार पर अय से लिन होता है | उपयासकार की रचना ट इसी परवेि से जुड़कर तनरतर पवकलसत होती रहती है तथा संवेिनिीि पाठक इन उपयास म रमता ह आ िेखक के इस खास तीक को अपने रचनािीि मानस के }kरा बड़े आसानी से पकड़ िेता है| यथाथथता आंचलिक उपयास का मुख गुण है, इसलिए पररवेि चचिण म यथाथथता िाना उपयासकार के लिये एक चुनौती होती है इसलिए यथाथथ पररवेि का अंकन रचनाकार के उपयास िेखन के वैलिय का एक अलिन अंग है | 6.1 - पररवेि का पविान 21 वीं सिी के पववेय आंचलिक उपयास म उपयासकार }kरा चित अंचि का पररवेि खुिकर सामने आया है | इन उपयास म परवेि के चचिण के मायम से गांव म बसे िारत को घेरती अटूट जड़ता, अंिपववास, रदिय अलिा सामंतवािी एव गुिामी की िीवार पट ऱप से िेखने को लमिती है | उपयासकार ने इन पवसंगततय का उजागर बह त जीवंतता के साथ कया है | इन पवसंगततय के लिये पररवेिगत पवलिनताएं बह त हि तक जमेिार रही ह | ‘सेतुबि’ म गंगा तट पर थत खािर के गाव गंगापुर के थत का चचिण इस कार है, “खािर म जैसे -जैसे समय बीतता गया वहा के आिमी की जिगी िू िर होती गई | बाढ़ और अकाि उस आिमी के िाय की क छ ऐसी अलमट रेखाएं बनती गई जनके आगे मानवता बार-बार

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  • 21 व ीं सदी के आींचलिक हिन्दी उपन्यासों का लिल्पगत अध्ययन

    आचंलिक उपन्यास की बनावट अन्य उपन्यासों से अिग होती है |

    इसमें उपन्यासकार पहिे एक पपछड़े/अतत पपछड़े, पवलिष्ट, समस्याग्रस्त आदि से

    सम्बन्न्ित अंचि का पविान करता है | उपन्यासकार }kरा चचत्रित अंचि/ पररवेि अन्य

    क्षेिों से अिग होता है, उसकी अिग पहचान होती है | अपनी अिग पहचान रखने के

    कारण ही वह अंचि पररवेिगत आिार पर अन्य से लिन्न होता है | उपन्यासकार की

    रचना दृन्ष्ट इसी पररवेि से जुड़कर तनरन्तर पवकलसत होती रहती है तथा संवेिनिीि

    पाठक इन उपन्यासों में रमता हुआ िेखक के इस खास प्रतीक को अपने रचनािीि

    मानस के }kरा बड़े आसानी से पकड़ िेता है| यथाथथता आंचलिक उपन्यासों का प्रमुख

    गुण है, इसलिए पररवेि चचिण में यथाथथता िाना उपन्यासकार के लिये एक चुनौती

    होती है इसलिए यथाथथ पररवेि का अंकन रचनाकार के उपन्यास िेखन के वैलिष््य का

    एक अलिन्न अंग है |

    6.1 - पररवेि का पविान –

    21 वीं सिी के पववेच्य आचंलिक उपन्यासों में उपन्यासकारों }kरा

    चचत्रित अंचि का पररवेि खुिकर सामने आया है | इन उपन्यासों में पररवेि के चचिण

    के माध्यम से गांवों में बसे िारत को घेरती अटूट जड़ता, अंिपवश्वासों, रुदियों अलिक्षा

    सामंतवािी एव गुिामी की िीवारें स्पष्ट रूप से िेखने को लमिती है | उपन्यासकारों ने

    इन पवसंगततयों का उजागर बहुत जीवंतता के साथ ककया है | इन पवसंगततयों के लिये

    पररवेिगत पवलिन्नताएं बहुत हि तक न्जम्मेिार रही हैं | ‘सेतुबन्ि’ में गंगा तट पर

    न्स्थत खािर के गााँव गंगापुर के न्स्थतत का चचिण इस प्रकार है, “खािर में जैसे-जैसे

    समय बीतता गया वहााँ के आिमी की न्जन्िगी ििूर होती गई | बाढ़ और अकाि उस

    आिमी के िाग्य की कुछ ऐसी अलमट रेखाएं बनती गई न्जनके आगे मानवता बार-बार

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    घुटने टेकने को मजबूर होती रही |”1 अथाथत गंगा के ककनारे का खािर क्षेि में न्स्थत

    गााँव के पररवेि तथा यहााँ सम्बन्न्ित समस्याओ ंका चचिण ककया गया है | ग्िोबि गााँव

    के िेवता में आदिवालसयों वनवालसयों से सम्बन्न्ित असुर जातत के तनवास से सम्बन्न्ित

    अंचि झारखंड राज्य के बरवे न्जिे में न्स्थत कोयि बीघा प्रखंड में अवन्स्थत िौरापाट

    से सम्बन्न्ित है, “मीिों तक पसरे पहाड़ के ऊपर का यह चौरस इिाका मन को और

    उचाट कर रहा था | तछटपुट जंगि बाकी खािी िरू-िरू तक फैिे उजाड़ बंजर खेत |

    बीच-बीच में बााँक्साइट की खुिी खिाने | जहााँ से बाक्साइट तनकािे जा चुके थे वे गड्िे

    िी मुाँह बाएं पड़े थे | मानो िरती मााँ के चेहरे पर चेचक के बड़े-बड़े िब्बे हों |”2 ‘बचपन

    िास्कर का’ नामक उपन्यास में उपन्यासकार ने राप्ती और गौराथ नदियों के बीच मीिों

    िम्बे फैिे कछार में अवन्स्थत गााँव मािोपुर के पररवेि का वणथन इस प्रकार करता है,

    “गााँव के उत्तर में िो बड़े-बड़े बाग थे | एक पन्श्चमोत्तर में एक पूवोत्तर में, एक िोनों

    के बीच में िी था | गााँव के पूवथ तरफ िरू तक कोई गााँव नहीं था | बस खेत थे और

    गााँव के लसवान पर टीिा था न्जस पर िीक्षक्षत वरम बाबा की पीढ़ी थी और उसके बगि

    में एक पोखरा था | पूवथ दििा में ही गााँव के एक फिांग की िरूी पर पाकड़ के िो पेड़

    थे| एक के नीचे डीह बाबा का थान था, िसूरे के नीचे बरम बाबा की पीढ़ी थी | यह गााँव

    का खलिहान िी था | गााँव के िक्षक्षण दििा में िलितों की बस्ती के पीछे कािी माई का

    थान था और वहााँ से एक ककिोमीटर की िरूी पर एक गााँव | पन्श्चम दििा में िी काफी

    िरू तक खुिापन था | इसी दििा में पीपि का एक बड़ा पेड़ था न्जस पर मतृकों के घंटे

    बंिते थे | िक्षक्षण पन्श्चम में िगना नािा था न्जससे होकर राप्ती उत्पात मचाती थी

    यानी बाढ़ बन जाती थी |”3 ‘आछरी-माछरी’ का पररवेि पहाड़ी जन-जीवन से सम्बन्न्ित

    है इसकी जानकारी हमे उपन्यास के प्रारम्ि में ही लमि जाती है, “वह दिन था आछरी

    का अपनों से अिग होने का | सुबह उसकी आाँख खुिी तो, उस दिन की उषा की

    िालिमा सिा की अपेक्षा उसे त्रबल्कुि लिन्न िगी | उसने क्षक्षततज की ओर िेखा तो

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    समझ में कुछ िी नहीं आया | एक आग उगिता क्षक्षततज | िंुि उसे िरू-िरू तक नहीं

    दिखी | सामने की पहाड़ड़यों पर नजर िौड़ायी एकिम नंगी | पहाड़ड़यों को िेखकर उसका

    दिि बैठ गया | हवा में िरू से आती तैरती आवाज को सुनने के लिये उसने कान के

    पीछे हथेिी िगायी | सरसराती हवा के िोर के अिावा उसे कुछ िी नहीं सुनाई पड़ा |”4

    मिन मोहन के उपन्यास ‘जहााँ एक जंगि था’ का पररवेि उत्तर

    प्रिेि में न्स्थत पूवाांचि का नेपाि से सटा हुआ इिाका है | यहााँ पर बहुतायत मािा में

    जंगि है तथा यहााँ पर न्स्थत बन्स्तयों को वनटांचगया बन्स्तयों के नाम से जाना जाता

    था, “बीरगंज क़स्बा के पूवी सीमांत से एक जंगि िरुू होता था ----- जंगि का

    लसिलसिा नेपाि की सीमा तक पसरा था | बीच-बीच में जंगि का दहस्सा बनती गवई

    बन्स्तयां िी थी | न्जन्हें वनटांचगया या बनवासी बन्स्तयों के नाम से जाना जाता था |”5

    आचंलिक पररवेि की पहचान हमेिा उपन्यास के प्राकृततक पररवेि के }kरा ही नहीं होती

    बन्ल्क किी-किी उपन्यासकार सीिे –सीिे प्राकृततक पररवेि का चचिण आदि न करके

    िाषा पािों के बोिी आदि के माध्यम से पवलिष्ट अंचि की पहचान करवाता है |

    िगवान िास मोरवाि के उपन्यास ‘बाबि तेरा िेि में’ उपन्यास के पररवेि की पहचान

    िाषा बोिी के आिार पर की जा सकती है | बोिी के आिार पर बड़ी आसानी से ज्ञात

    होता है कक यह उपन्यास राजस्थान के मेवात अंचि से सम्बन्न्ित है, “रईसन का बाप,

    छाती तो मेरी िी फट-फट जावे है | बहू पोतान के त्रबना पर मैं रााँड कहााँ तिक मााँग-

    मााँग के िाऊाँ | एकाि कुढ़ बाड़ी त्रबसवा िी ना है | न्जन्ने काई वणणया-वामण के पै

    (पास) चगरवी िरके ब्याज –बट्टा पे पैसा-िैिा उठा िेती और याहे कही िपेट िेती|”6

    ‘हेमन्न्तया उफथ किेक्टरनी बाई’ में बुन्िेिखंड के बेड़तनयो से

    सम्बन्न्ित पररवेि है, “हमारे गााँव की तरफ जब कोई मिथ सजीिजी बैिगाड़ी, घोड़ा-गाड़ी

    या घोड़े पर सवार होकर आता दिखाई िेता तो सारे गााँव में खुिी की िहर िौड जाती |

  • 210

    ‘आया कोई न्जजमान ककसी त्रबड़तनया को बिाई या राई नाचने की साई िेने’ जावर

    नामक नाम हमारे गााँव का कैसे पडा, यह कोई नहीं जानता | मगर पहाड़ी की तिहटी

    में बेतवा के पन्श्चमी ककनारे पर, घनी हररयािी के बीच, बीस-पच्चीस टपरों का यह गााँव

    िरू-िरू तक मिहूर है |” 7 ‘बसेरा’ उपन्यास में नई दिल्िी के ककनारे बसे नोएडा का

    नगरीय पररवेि है,” ‘कंुिीपाक डाटकाम’ ---- माफ़ करें न्जस्म चोर जी मेि सपवथस’ का

    यह दठकाना बिि चुका है | पाठक अब नए पते पर संपकथ करें | ---- यहााँ के बेनाम

    हवामहि बंगिे कोदठयां सेक्टर-िर सेक्टर की मैनहोि चीखों से िवरेज है |”8

    इसी तरह ‘िेफािी के फूि’, ‘अाँिेरा जहााँ उजािा’,तपथण, आणखरी

    छिांग, रंग गई मोर चुनररया’ एवं ‘गमके माटी गााँव’ नामक उपन्यास का पररवेि

    ग्रामीण अंचि से सम्बन्न्ित है | ‘गमके माटी गााँव की’ नामक उपन्यास में ग्रामीण

    पररवेि का चचिण दृष्टव्य है, “सूरज ििने ही वािा था | रामजतन नीम के पेड़ की

    छाया में आज िी अिाव जिाने की तैयारी में िगा था | अिाव पि जाए तो कुछ

    आिमी गपिप के लिये प्रततदिन एकि हो जाते हैं | फगुनाहट के आगमन के साथ हर

    ककसान का मन आन्िोलित हो जाता है | रामजतन आज सुबह उठते ही अपने खेतों का

    चक्कर िगा आया था | फसि अच्छी नहीं थी | जौ, चना, मटर, सरसो और तीसी

    सबकी फसि बेकार थी | खेत की फसि के साथ ही ककसान के मन की आिा

    िहिहाती है | इस आिा के अिाव में ककसान के मन की फसि कैसे णखि सकती है|”9

    तनष्कषथत: प्रस्तुत संक्षक्षप्त पववेचन के आिार पर कहा जा सकता है की २१ वीं सिी के

    आचंलिक उपन्यासों में पररवेि पविेषत: प्राकृततक प्रवेि न्जतना पषृ्ठिूलम के रूप में

    आया है, उससे कहीं अचिक सजथक तत्व के रूप में आया है | पववेच्य उपन्यासों में

    पररवेि माि आचंलिक रंगत िेने के लिये ही नहीं अपपतु मानवीय संवेिनाओ को जोड़ने

    के रूप में िी रूपापपत हुआ है न्जससे अंचि का यथाथथ रूप दृन्ष्टगोचर होता है |

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    उपन्यासकारों ने आचंलिक पररवेि का पविान सजगता के साथ ककया है | आचंलिक

    पररवेि के तनिाथरक तत्व उनके उपन्यासों में पूणथतया पररिक्षक्षत हुए हैं |

    6.2 - कथा पवन्यास में नवीन प्रयोग –

    आचंलिक उपन्यासों में वस्तु/कथा का पवस्तार ही उनका मुख्य

    आिार है | “आचंलिक उपन्यासों में कथानक का स्वरुप मनोवैज्ञातनक, ऐततहालसक,

    चररि-प्रिान एवं घटना प्रिान उपन्यासों से लिन्न होता है | जहााँ इन उपन्यासों में

    केन्रीयकरण की प्रवनृ्त्त इतनी प्रबि होती है कक वस्तु में त्रबखराव या फैिाव होने पर

    िी एक ससुम्बद्धता रहती है और कथा में त्रबखराव या फैिाव होने पर िी एक कथा में

    त्रबखराव नहीं आ पाता, वहीीँ आंचलिक उपन्यासों में केन्रीय प्रवनृ्त्त का अिाव होने के

    कारण त्रबखराव आ जाता है क्योंकक आचंलिक उपन्यासकार का ध्यान अंचि पविेष पर

    केन्न्रत रहता है | उसका उद्देश्य अंचि के उसके समग्र रूप में प्रस्तुत करना होता है|”10

    आचंलिक उपन्यासकार – रामिरि लमश्रा के अनुसार, “आचंलिक उपन्यास की गतत एक

    दििा में नहीं चारों दििाओ ंमें होती है| वह स्थान की अपेक्षा समय में जीता है | अंचि

    की पवपविता को रूप िेने के लिये िेखक किी इस कोण पर खड़ा होता है किी उस

    कोण पर, किी ऊाँ चाई पर, किी तनचाई पर |”11

    आचंलिक उपन्यासकार का उद्देश्य केवि कथा कहना या ककसी

    चररि का उद्घाटन करना न होकर अंचि पविेष को पाठक के सम्मुख रखना होता है |

    इसी अंचि को स्पष्ट करने के लिये ही वह पािों आदि का सहारा िेता है | इसलिए

    आचंलिक उपन्यासों में पाि पविेष का केन्र में न रहने के कारण उपन्यास की कथा में

    क्रमबद्धता नहीं रहती, कथा से कथा तनकिती िीखती है, कथा में से कथा का जन्म होता

    है | आचंलिक उपन्यासों के कथानक में त्रबखराव अचिक होता है क्योंकक उपन्यासकार

    सम्बन्न्ित अंचि का चचिण पवपविताओ ंके साथ-साथ अनेक कोणों से करता है |

  • 212

    21वीं सिी के पववेच्य िगिग सिी आचंलिक उपन्यासों के वस्तु

    संयोजना में कथा का त्रबखराव िेखा जा सकता है | इन उपन्यासों में उपन्यासकार ने

    परंपरागत कथानक पवन्यास को तोड़कर एक अिग प्रकार की बुनावट को प्रस्तुत ककया

    है | उपन्यासकार का मुख्य ध्येय अंचि के जीवन को अलिव्यक्त करना होता है इसलिए

    िेखक एक पाि पर ही फोकस न करके पािों को जल्िी एक िसूरे से गुजारता रहता है |

    उपन्यास के हर अध्याय में एक साथ अनेक पाि आते है | एक पाि की कहानी कुछ िेर

    तक चिी नहीं की उसको काटता हुआ कोई और पाि आ जाता है और इस प्रकार कई-

    कई पािों की टकराहटों से अध्याय बढ़ता चिता है | िगवानिास मोरवाि का उपन्यास

    ‘बाबि तेरा िेि में’ का कथानक इस तरह की पविेषताओ ंसे युक्त एक प्रमुख उपन्यास

    है | उपन्यास में अनेक स्िी-पुरुष पाि है | एक पाि की कहानी कुछ समय तक चिती

    है तो वह कुछ समय बाि िसूरे पाि की कफर तीसरे की कफर चौथे और इसीतरह

    कथानक आगे बढ़ता रहता है | उपन्यास में जैतूनी, असगरी, जुम्मी, पारो, िकीिा,

    िगुुफ्ता, समीना, जैनब, मैना, और मुमताज, चन्रकिा, हसीना, जरीना, जमीिा, बत्तो,

    सोनिेई, मजीिन आदि तथा नसीब खां, हाजी चााँिमि, िीन मोहम्मि, हनीफ, फौजी,

    जगन प्रसाि, मुबारक अिी, किन्िर, जमिेि, याकूब, मुबीन, यूनुस, जावेि, इकबाि,

    इरसाि, विी मोहम्मि, हसन मोहम्मि आदि पुरुष पाि है | इन पािों की कहातनयााँ एक

    साथ आने के कारण उपन्यास के कथानक में त्रबखराव स्पष्ट दिखाई पड़ता है परन्तु

    मेवात अंचि के वैलिष््य के उद्घाटन में कोई कमी नहीं रह गयी | उपन्यासकार ने

    मेवात क्षेि के मुसिमानी पररवेि को इन पािों तथा इनकी बोिी िाषा के }kरा बहुत

    अच्छी तरह स्पष्ट ककया है |

    21 वीं सिी के आचंलिक उपन्यासकारों ने अंचि को नायक

    बनाकर उससे सम्बद्ध अनेक छोटी-छोटी कथाओ ंप्रसंगों एवं सन्ििों की सनृ्ष्ट ककया है |

    कथानक के तनमाथण में प्राकृततक पररवेि का बहुत योगिान होता है | पररवेि के }kरा

  • 213

    िेखक पािों की सनृ्ष्ट के साथ कथानक का पवन्यास िी करता है | प्राकृततक सन्ििों में

    नदियााँ, नािें, पवथत, पहाड़, मौसम बाग-बगीचे तथा सामान्जक सन्ििों में पवथ, त्यौहार

    िोकगीत आदि आचंलिक रंगत पेि करने के साथ-साथ िेखक की कथा िी कहते है |

    िेखक न्जस बात को सीिे कथा की सहायता से नहीं कह पाता, उसे िोकगीतों,

    िोककथाओ ंया नदियों एवं नािों के माध्यम से व्यक्त करता है |

    ‘जहााँ एक जंगि था’ नामक उपन्यास में उपन्यासकार ने प्राकृततक

    प्रवेि का िरपूर उपयोग ककया है | पूवाांचि का नेपाि से सटा इिाका एवं इससे

    सम्बन्न्ित वनटाचंगया बस्ती, टांचगया, ककसान, बनटांचगया, मजिरूों, इन्ही जंगिों से

    सम्बन्न्ित कच्छा बतनयान चगरोह एवं मुंहनोचवा और इन्ही से सम्बन्न्ित संघषथ को

    सन्म्मलित करके एक गजब के प्राकृततक पररवेि की सनृ्ष्ट िेखक ने ककया है |

    ‘बसेरा’ में बिबूिार सुरंग का मुहाना, मैनहोि बड़े-बड़े बंगिों,

    कोदठयााँ आाँकफसों अस्पताि, झोपड़ी, नािे है आदि कथानक के आिार है तथा इसके

    आगे बढ़ाने में महत्वपूणथ िलूमका तनिाते है |

    ‘हेमन्न्तया उफ़थ किेक्टरनी बाई’ में िेखक ने अनेक कायथ

    िोकगीतों के माध्यम से करवाया है जैसे कक सुबह िड़ककयों के प्रिाती गायन से हेमन्ती

    को नींि खुिने का आिास होता है –

    ‘िोर िई मुरगा ने टेर िगाई,

    तुम जाग उठो िाई, |

    सूरज नारायण की ककरणें फूटी,

    पंतछन ने तान सुनाई,

  • 214

    तुम जाग उठो िाई |

    पवन तुमारी सांकर बजा रई

    सुरहन ने हांक िगाई,

    तुम जाग उठो िाई |”12

    ‘रंग गई मोर चुनररया’ में पविवा स्िी के मालमथक जीवन के

    उद्घाटन के साथ-साथ िेखक ने अनेक कथासिूों की रचना की है न्जससे उपन्यास आगे

    बढ़ता चिा जाता है इन कथा सूिों के माध्यम से िेखक समाज की अनेक पवसंगततयों

    एवं राजनैततक षड्यंिों को िी उजागर करता है |

    बुन्िेि खंडी पररवेि को संघषथ एवं पपछड़े अंचि के रूप में जाना

    जाता है| िेणखका ने िुवन नामक पाि की सनृ्ष्ट करके ‘अगनपाखी’ नमक उपन्यास में

    पूरे बुन्िेिखंडी पररवेि एव वहां की संस्कृतत के साथ-साथ िुवन के आजीवन संघषथ का

    चचिण बहुत सू्मता के साथ ककया है|

    पववेच्य उपन्यासों में ऐसा िी नहीं है कक उपन्यासकार जब चाहे

    ककसी िी कथा सूि को उठा िेता हो और कहीं िी छोड़ िेता हो बन्ल्क कथा में त्रबखराव

    के बावजूि एक आन्तररक संगठन बनाये रखता है |

    ‘िेहरी के पार’ उपन्यास में ज्ञानेश्वर }kरा रचचत यह कपवता अनेक

    बार िेखक को मुसीबतों में चचतंन िमन का कारण बनती है |

    “जो होना होता है वही होता है,

    जो नहीं होना होता है, नहीं होता है,

    सब कुछ ईश्वरािीन है”

  • 215

    त्रबना उसकी मरजी के एक पत्ता िी नहीं खड़कता है, वह जो कुछ

    िी करता है अच्छा करता है | इसलिए उसकी इच्छा पूणथ हो |”13

    इसी तरह ‘अाँिेरा जहााँ उजािा’ में िी अनेक कथा सूि है परन्तु वे

    सिी उपन्यास के कथानक को आगे बढ़ाने एव ं अंचि का पूणथतया चचत्रित करने के

    दृन्ष्टकोण से ही प्रकट है | कथा त्रबखराव है परन्तु वह अंचि को चचत्रित करने में

    मििगार है |

    इसी प्रकार पववेच्य उपन्यासों ‘गमके माटी गावं की, आछरी-

    माछरी, बाबा की िरती, सेतुबंि,िेफािी के फूि, बचपन िास्कर का, आणखरी छिांग,

    तपथण, ग्िोबि गांव का िेवता में उपन्यास का हर कथा सूि एक नया आयाम खोिता

    है| उपन्यासों में प्रस्तुत िोक गीत अंचि पविेष की संस्कृतत का चचिण करने के साथ-

    साथ आगे की घटना की और िी संकेत करती है न्जससे उपन्यासों के कथा सिूों में एक

    तारतम्यता बनी रही है |

    गांवों में फैिी भ्रष्ट राजनीतत, स्वाथी एवं पि िोिी प्रवनृ्त्त,

    अनैततक न्स्थततयां अनैततक यौन संबंि , सामान्जक एवं नैततक मलू्यों का पवखंडन,

    िालमथक अन्िपवश्वास, छुआछूत सूिखोरी, ििािी आदि सिी का चचिण करने का ि्य

    उपन्यासकार के }kरा वहां के िैतनक जीवन में िगे घुनो को चुन-चुन कर प्रस्तुत करना

    ही रहा है | अंचि में व्याप्त कोई िी पवसंगततयां िेखक से छूटी नहीं है |

    इस प्रकार हम कह सकते है की 21 वीं सिी के आचंलिक

    उपन्यासों के कथानक पवलिन्न क्षेिों के आचंलिक जीवन से सम्बन्न्ित हैं | िेखक अपने

    अंचिों को िूिे नहीं हैं | अपने अंचिों में िेखे हुए एवं िोगे हुए यथाथथ को चचत्रित करने

    में उन्होंने कोई कसर/कमी नहीं छोड़ा है | अंचि के यथाथथ जीवन को अपने प्रामाणणक

    अनुिव के आिार पर उन्होंने कथावस्तु का आिार बनाया है | िेखक सम्बन्न्ित अंचि

  • 216

    में रहे है या िेखे है िुुःख ििथ िोगे हैं, यहााँ की खुलियााँ िेखे हैं यहााँ के गीत सुने हैं और

    इसी पररवेि में पिे बढ़े हैं | यहााँ का एक-एक घर, एक-एक खेत खलिहान, एक-एक निी

    नािा, एक-एक गलियां सिी उनका जाने पहचाने हैं | उन्होंने अपने िुुःख-ििथ अपने

    अनुिवों की प्रमाणणक पहचान कराते हुए इनका ऐसा पवन्यास ककया कक समाज और

    मनुष्य माि के लिए एक जीवन दृन्ष्ट प्राप्त होती है जीने का पवश्वास प्राप्त होता है |

    वस्तु में त्रबखराव एवं फैिाव है परन्तु अंचि की यथान्स्थतत स्पष्ट करने में बािा नही

    पड़ी है |

    6.3 - चररिांकन वैलिष््य –

    आचंलिक उपन्यास पािों के दृन्ष्टकोण से अन्य उपन्यासों से

    लिन्न होते है | रामिरि लमश्र के अनुसार, “ न तो घटना प्रिान उपन्यासों की तरह कुछ

    खास पािों के जीवन से सम्बद्ध घटनाओ ंऔर समस्याओ ंको िेकर बेगवती िारा की

    तरह नई-नई िूलमयों को पार करता हुआ आगे बढ़ता है और न तो वह मनोवैज्ञातनक

    उपन्यासों की तरह चगने चुने पािों के मन का पवश्िेषण प्रस्तुत करता है |”14 इसके

    बजाय आचंलिक उपन्यासों में अगणणत पािों की आवश्यकता य|पप आचंलिक समग्रता

    के लिये पािों की बहुिता अतनवायथ प्रवनृ्त्त है अपपतु पाि का अपना पविेष महत्व िी

    होता है, “इनमे से कोई पाि एक-िसूरे के तनलमत्त नहीं होता, वे सब अंचि के तनलमत्त

    होते है | इस उद्देश्य को न समझ पाने के कारण ही िोगों को कथानक पािों के

    सांस्कृततक पक्षों का त्रबखराव दिखता है, उनमे एक सूिता और एक दििा गलमता नहीं

    दिखती |”15

    आचंलिक उपन्यासों में कोई व्यन्क्त-पविेष नायक न होकर समग्र

    अंचि ही नायक होता है | उपन्यासों में आये हुये पाि केवि अंचि की पवलिष्टताओ ंको

    उजागर करने के तनलमत्त होते हैं | इस सम्बन्ि में डा० सुषमा पप्रयिलिथनी ने लिखा है

  • 217

    कक, “पररणाम: इन उपन्यासों में परम्परागत दृन्ष्ट से ‘नायक िनू्यता’ या ‘नायकत्व का

    अिाव’ की असािारणता दृन्ष्टगोचर होती है | ----- इनमे नायक व्यन्क्त नहीं ‘अंचि’

    माना जा सकता है | नायक का आिास िेने वािा प्रमुख पाि अंचि के असखं्य जन

    समूह का प्रिाव प्रतततनचि माि होता है, वह िी महानायक अंचि के अिीन होता है |

    अंचि से सवाथचिक एक रूपात्म होने के कारण ही वह पाि अनजाने ही प्रिानता प्राप्त

    कर िेता है |”16 डा० प्रिीप श्री िर के अनुसार, - “आचंलिक उपन्यास के संगठन का

    आिार न तो कथानक होता है और न ही पाि पविेष अथवा पािों का चररि चचिण

    अपपतु अंचि पविेष की समग्र सजीवता का प्रततत्रबम्ब ही उसका केन्र होता है |”17

    आचंलिक उपन्यास का प्रत्येक घटना एवं, चररि घटना वैचचत्र्य के लिए न होकर अंचि

    के लिए होते है | अंचि से ही उनका जन्म एव ं पवकास होता है | उपन्यासों में पाि

    अपने शे्रष्ठ चाररत्रिक पविेषताओ ंको उद्घादटत न कर केवि अंचि के चचिण में सहयोग

    प्रिान करते है | अंचि की तनजी पविेषताओ ं से जन्म िेने के कारण वे अिग-अिग

    अन्स्तत्व रखते है, “आचंलिक उपन्यास के पाि सवथथा अंचि के कण-कण से जुड़े रहते है

    | उन्हें अंचि की पररचि के अन्िर ही घूमने कफरने की स्वतन्िता होती है | जबकक अन्य

    उपन्यासों के पािों के लिए इस प्रकार का कोई बंिन नहीं है | आचंलिक उपन्यासों में

    जीवन की समस्त कक्रयाएं उनका रहन-सहन, खान-पान, आचरण, वेि-िूषा, पवश्वास ,

    प्रथाएं आदि उस अंचि –पविेष की िरती , पेड़-पौिों, निी-नािों, मैिान-जंगि, स्िी-पुरुषों

    से सम्पकृ्त रहती है | उपन्यास के सिी पाि अचंि की िरती फोड़कर उिय होते है,

    पवकलसत होते है और उसी में पवहीन हो जाते है |”18

    तात्पयथ यह है कक मनोवैज्ञातनक अथवा ऐततहालसक उपन्यासों की

    तरह आचंलिक उपन्यासों में कोई मुख्य चररि नहीं होता है और न ही उपन्यासकार का

    ककसी एक पाि पर फोकस होता है | इनमे व्यन्क्त के स्थान पर समूह की प्रततष्ठा होती

  • 218

    है न कक ककसी पाि की | आंचलिक उपन्यासों में अंचि ही नायक होता है अंचि का

    समग्र चचिण करना ही िेखक का ध्येय होता है न कक पािों की कहानी कहना |

    जैसा कक ऊपर बताया जा चुका है कक उपन्यासों में पाि अंचि की

    पवलिष्टताओ ं को उजागर करने के लिये आते है तथा अंचि ही नायक होता है |

    आचंलिक उपन्यासों में चररि एव नायक की इस अविारणा को 21 वीं सिी के पववेच्य

    आचंलिक उपन्यासों में िेखा जा सकता है | पववेच्य आचंलिक उपन्यासों में पूरा अंचि

    ही नायक बनकर उिरा है | ‘आछरी-माछरी’ उपन्यास में पूरा पहाड़ी अंचि मुखर होकर

    सामने आया है | िेखक ने आछरी एवं अन्य पािों की सनृ्ष्ट अंचि के प्राकृततक एवं

    संस्कृततक पररवेि को उजागर करने के तनलमत्त ककया है | ‘आछरी’ के माध्यम से

    िेखक ने पहाड़ी सामान्जक व्यवस्था का अमोघ संिान ककया है | आछरी, पहाड़ी जातत

    के संघषथ का प्रतीक है, “यह इस गांव का ररवाज है बेटे ! ये िोग अपनी जात-त्रबरािरी से

    बाहर के इंसान को इंसान नहीं समझते | मैं ही हूाँ जो दिपरी-िेप इनके बीच िेती रहती हूाँ

    | यह सोचकर की समय आने पर सबकुछ ठीक हो जायेगा | हमेिा मुझे आनन्ि िी

    इसी बात में आया | मैंने इन िोगों को साथ िेकर अपनी खुिी आाँखों में सपने िेखे थे |

    बन्ि आाँखों से सपने तो ितुनया िेखती है |”19 आछरी की यह आवाज पहाड़ी पर न्स्थत

    डूगंरपुर गांव के मदहिाओ ंकी आवाज है |

    ‘अाँिेरा जहााँ उजािा’ में रामजीत पूरे गांव में फैिे हुए अाँिेरे को

    िरू करना चाहता है | वह अंचि में व्याप्त अाँिेरे को लमटाने में रोिनी का काम करता है

    | उजािे की एक ककरण घने अाँिेरे को चीर कर नया मागथ प्रिस्त कर सकती है, यही

    दिखाना उपन्यास का मुख्य ि्य है | उपन्यास में आये अन्य पाि अंचि में व्याप्त

    अाँिेरे एवं उजािे के प्रतीक के रूप में ही आये हैं |

  • 219

    ‘बाबि तेरा िेि में’ अनेक पाि एक साथ आये हैं | कोई पाि बैठा

    हुआ कुछ सोच रहा है, पवचार कर रहा है, िगता है इस पाि की कहानी कुछ िेर चिेगी

    कक उसे काटता हुआ कोई और पाि आ जाता है, कफर उसे काटता हुआ कोई और पाि

    आ जाता है और इस तरह कई-कई पािों की टकराहटों से अध्याय बढ़ता चिा जाता है |

    उिाहरण के लिए उपन्यास के कथानक का आरम्ि असगरी के बेटे फत्तू }kरा अपनी मााँ

    के गहने आदि को िेकर िागने से प्रारम्ि होता है परन्तु इस प्रसंग में अनेक चररि

    उिर का सामने आते है | िनलसहं , नसीब खां, जैतूनी रईसन आदि | िनलसहं के इन

    पंन्क्तयों के }kरा असगरी जैसी अन्य बेवा औरतों के व्यन्क्तत्व को बांि िेता है “कुआाँ

    कांकर मत ड़डगे, मत वासन ड़डगे अिाय (आवां) | मत गोरी को पी मरे, मत बािक की

    म ाय |”20

    “बाबा की िरती’ में ‘कुमार’ के माध्यम से िेखक ने गांव में

    व्याप्त भ्रष्टाचार कायथ के प्रतत िापरवाही एवं जोड़-तोड़ की राजनीतत को उजागर ककया है

    | प्रिान पि पर पवजयी होने के बाि कुमार गांव के लिए अपना कायथक्रम इस प्रकार

    स्पष्ट करता है, “इस वषथ ककसी कीमत पर अपना गांव रोड से जोड़ दिया जायेगा |

    अपनी पंचायत का एक िी गांव या इिाका पक्के मागथ तक िगुथम नहीं रहेगा | गांव के

    आहार-पोखर की बन्िोंबस्ती होगी | उससे जो पैसे आएाँगे, पंचायत के }kरा गांव में

    नालियां बनेंगी | सावथजातनक िौचािय बनाये जायेंगे |”21 कुमार की यह उद्घोषणा उसके

    गांव के पररवेि को प्रकट करता है |

    ‘बसेरा’ उपन्यास में िेखक ने आिमी और उसकी औरत के

    माध्यम से वायवी संबंिों को टटोिती पवकषथण की कथा है | वह औरत िारतीय संस्कारों

    को कब का छोड़ चुकी है | ितुनया का सुख, ऐश्वयथ िोगने की आकांक्षा में वह औरत

    अमानवीय व्यवहारों में पुरुषों को िी पीछे छोड़ चुकी है | वह घर पररवार से मुक्त और

  • 220

    िौततक सुख की िािसा में मानव अंग बेचने के अवैि काम में िी लिप्त होती है और

    एक दिन पुलिस के िफड़ों से बचने के लिए अपने िोनों बच्चों को िेकर अपने पतत को

    छोड़कर चिी गयी थी | उसकी यह कायथििैी महानगरीय जन-जीवन के पवरपूताओ ंको

    व्यक्त करती है |

    ‘आणखरी छिांग’ में पहिवान नामक चररि अंचि के ककसानों की

    ििुथिा को उजागर करने में सक्षम है | सर पर कजथ की अिायगी, बेटे की पिाई, िड़की

    की िािी एवं खेती बारी का बोझ लिए आत्महत्या को पववि ककसानों की असहनीय

    न्स्थतत अंचि के ककसानों की कथा को उजागर करने के लिए काफी है, “उन्होंने आस-

    पास िेखा | कोई नहीं था | कोई हो िी तो क्या ? सारी चचतंा झोकों िाड़ में | खेत

    रेहन होने की चचन्ता | बेटी के ब्याह की चचन्ता | बेटे की फीस की चचन्ता | ्यूबेि के

    त्रबि की चचन्ता | सबको झोको िाड़ में | बाजुओ ंको तौिते हुए वे सााँस खींचकर फेफड़ों

    में हवा िरते है | ककतनी कुव्वत बची है िेह में ? आज कूिकर िेख िेना चादहए |”22

    इसी तरह 21 वीं सिी के पववेच्य अन्य आचंलिक उपन्यासों में िी पाि अंचि की

    पवलिष्टता उजागर करने के तनलमत्त ही हैं जबकक अंचि ही नायक बनकर उिरा है |

    तनष्कषथत: 21 वीं के आचंलिक उपन्यासों की चररि योजना केवि

    अंचि को सम्पूणथता में उद्घादटत कर कथानक को आगे बढ़ाने के तनलमत्त है | िेखक

    }kरा प्रगततिीि पािों के माध्यम से अंचिों में आ रहे पररवतथनों को िी इंचगत ककया

    गया है | आंचलिक उपन्यासों में पािों की अचिसंख्य न्स्थतत अंचि के िोकजीवन को

    उजागर करने में मििगार है | िेखक न्जन पािों की सनृ्ष्ट ककया है वे उनके िेखे हुए या

    जाने पहचाने होते हैं न्जससे पािों }kरा पररवेि का यथाथथ अंकन हुआ है |

  • 221

    6.4 - लिल्प प्रपवचि –

    उपन्यास को प्रस्तुत करने की प्रपवचि उपन्यास लिल्प के नाम से

    जानी जाती है उपन्यास िब्िाचश्रत होता है | ये िब्ि केवि अनुिवों, संवेिनाओ ंऔर

    पवचारों के प्रतीक होते है | िब्िों से बनने वािा रूप केवि मानलसक रूप से ही

    प्रत्यक्षीकृत हो सकता है | “उपन्यास का एक रूप (फामथ) होता है | पर वह स्थापत्य या

    मूतत थ की तरह दिखाई नहीं पड़ता | वस्तुतत:वह पाठक की चेतना में ही बनता और

    केवि अनुिव गम्य होता है | वह छाया की तरह अस्पशृ्य और गततिीि होता है |”23

    उपन्यास के इसी रूप/आकार या फामथ के तनलमथतत में प्रयुक्त कौििों को न्जसके }kरा

    ग्रहण करके पाठक िेखक के रूप पवन्यास को समझता है ‘लिल्प’ कहते है, “उपन्यास

    की अमूतथ किा में रूप िांचा, ‘बनावट’, ‘आकल्पन’, ‘स्थापत्य’ ‘संरचना’ ‘लिल्प’ आदि

    पिों का प्रयोग ततनक अतनन्श्चत और िीिे-िािे अथथ में ही हो सकता है |”24 उपन्यास के

    बनावट के, पववेचन के लिये इन पिों का प्रयोग पूणथतया स्पष्ट नहीं होता है क्योंकक इन

    पिों का प्रयोग पूणथतया स्पष्ट नहीं होता है | क्योंकक इन पिों का प्रयोग मूतथ किा के

    पववेचन में िी ककया जाता है, “उपन्यास की बनावट अन्य किाओ ंकी बनावट से लिन्न

    होती है और चाक्षुष किाओ ंकी तरह इसका रूप न्स्थर और अपररवतथनीय नहीं होता |

    यह कहीं ‘फामथ’ के रूप में दिखाई िेता है, कही ‘स्रक्चर’ के रूप में, कहीं ‘ड़डजाइन’ के

    रूप में तो कहीं ‘ररद् .म’ के रूप में | कहीं उसका ‘पैटनथ’ होता है, कहीं ‘सफेस’|”25

    उपन्यास के बनावट के लिए मुख्यतया लिल्प (सफेस) पि का ही प्रयोग ककया जाता है |

    उपन्यास के लिल्प का पववेचन करने का अथथ उस कौिि का उद्घाटन करना है न्जससे

    उसके रूप या आकार की तनलमथतत हुई है, “पाठक ककस प्रकार उपन्यास के रूप को ग्रहण

    करता है ? वह ककस स्थान से उपन्यास के तनलमथत होते हुए छाया रूप को ग्रहण करता

    है ? वह ककस स्थान से उपन्यास के तनलमथत होते हुए छाया रूप का अविोकन करता है

  • 222

    और उसे ककसकी आाँखों से िेखता है ? यही कारण है कक उपन्यास लिल्प के पववेचन में

    अविोकन त्रबन्ि ु(प्वाइंट आफ व्यू) का महत्व बहुत अचिक होता है |”26

    अंगे्रजी के प्रलसद्ध उपन्यास – आिोचक पसी िव्वााँक27 ने वस्तु

    तनरूपण के चार प्रकारों का उल्िेख ककया है- 1_दृश्यात्मक 2_पररदृश्यात्मक 3_चचिात्मक

    और 4_नाटकीय |

    उपन्यास लिल्प की दृश्यात्मक एवं पररदृश्यात्मक प्रपवचियों को

    अत्यन्त प्रचलित प्रपवचि के रूप में जाना जाता है | दृश्यात्मक प्रपवचि में पाठक बोि के

    िराति पर, उपन्यास में घदटत ककसी प्रसंग या दृश्य के त्रबल्कुि पास होता है | और

    उस घदटत होते हुए दृश्य तथा चिते हुए वाताथिाप को खुि िेखता-सुनता है | पाठक और

    दृश्य के बीच उपन्यासकार या कथाकार की उपन्स्थतत नहीं होती | ‘पररदृश्यात्मक’ प्रपवचि

    में पाठक की चेतना के समक्ष एक फैिा हुआ दृश्य या अतीत का पवस्तार होता है न्जसे

    वह उपन्यासकार }kरा प्रित्त ऊंचाई और िरूबीन से िेखता और अनुिव करता है |”28

    चचिात्मक एवं नाटकीय प्रपवचियों के बारे में गोपाि राय ने लिखा है, “ककसी दृश्य का

    प्रिाव िो रूपों में हो सकता है | एक चचि के रूप में और िो नाटक के रूप में |”29

    उपन्यास में जब कोई घटना चचि के रूप में वणणथत होती है तो वस्तु तनरूपण में

    चचिात्मक प्रपवचि का प्रयोग होता है | तथा जब घटनाओ ंके वणथन में चचि के साथ-साथ

    संवाि िी होता है तो वस्तु तनरूपण में ‘नाटकीय प्रपवचि’ का प्रयोग होता है |

    उपन्यासकार वस्तु वणथन में रोचकता िाने के लिये इन सिी प्रपवचियों का लमश्रण िी

    कर िेता है तथा किी-किी अन्तश्चेतना में प्रवेि प्रपवचि का िी प्रयोग करता है |

    21 वीं सिी के पववेच्य आचंलिक उपन्यासों में मुख्यतया

    दृश्यात्मक एवं पररदृश्यात्मक प्रपवचियों का सहारा लिया गया है | इससे पूवथ आचंलिक

    उपन्यास के जन्मिाता रेणु ने िी इन्ही िोनों प्रपवचियों का कुििता से प्रयोग ककया है |

  • 223

    इस समय इन पवचियों के अिग-अिग प्रयोग के साथ इनके लमचश्रत रूप को िी अपनाने

    पर बि दिया गया है | 21 वीं सिी के उपन्यासकारों ने जहााँ पररदृश्यात्मक पद्धतत सहारा

    लिया है , उन्होंने केवि अपने ‘कथाकार’ रूप की सहायता नहीं िी है | उसके साथ

    उन्होंने उपन्यासों के पािों का िी लमश्रण कर दिया है जो कथ्य को आगे बढ़ाने के साथ-

    साथ अपनी हरकतों और बातचीत से अपनी आचथथक सामान्जक न्स्थतत और अपनी

    मानलसकता को िी परत िर परत खोिते चिते हैं |

    ‘दृश्यात्मक प्रपवचि’ का प्रयोग ‘आणखरी छिांग’ के िरुुआत में ही

    िेखा जा सकता है, “पहिवान ने चरी का बोझ चारा मिीन के पास पटका तो पास में

    सोया पड़ा कुत्ता चौंककर िौंकते हुए िागा | लसर से अंगोछा उतारकर उन्होंने चेहरे का

    पसीना पोछना िरुू ही ककया था कक िलिया के हुाँकारने और चचतकबरे के फुफकारने की

    आवाज एक साथ आई |”30

    इसी उपन्यास से पररदृश्यात्मक प्रापवचि का प्रयोग दृष्टव्य है,

    “पहिे वे नहाने के लिए सगरे पर जाते थे | चाहे न्जतनी िेर होती रहे | त्रबना नागा |

    िस-पांच लमनट गहरे नीिें पानी में तैरे और गहराई तक डुबकी िगाये त्रबना उनका

    नहाना पूरा नहीं होता था | कहते थे कक जब चचखुरी साह ने गांव वािों के नहाने के

    लिए इतना बड़ा पक्का सगरा बनवा दिया है, अपनी न्जन्िगी िर की कमाई गांव वािों

    के नहाने के लिए िुटा िी है तो उसमें न नहाकर कुएाँ या गड़ही में नहाना, सगरा और

    चचखुरी साह िोनों का अपमान है|”31 इसी अनुच्छेि में िेखक ने बहु प्रचलित पवचि पािों

    की चेतना में प्रवेि का िी प्रयोग ककया है तथा इसी अनुच्छेि में वह पहिवान के पत्नी

    की चेतना में िी प्रवेि कर गया है | इस प्रकार इस अनुच्छेि में पाठक को कथांि की

    प्रान्प्त िो अविोकन त्रबिंओु ं से होती है | इस प्रकार उपन्यास की कथा प्रस्तुतत

  • 224

    दृश्यात्मक एवं पररदृश्यात्मक प्रपवचि के अिग-अिग तथा कही-ंकही ंिोनों के लमश्र रूप

    का िी प्रयोग ककया गया है |

    इसी प्रकार िोकगीतों और िोककथाओ ं के माध्यम से कथा को

    अग्रसर करने की प्रापवचि का प्रयोग िी पववेच्य उपन्यासों के िेखकों ने ककया है |

    हेमन्न्तया उफ़थ किेक्टरनी बाई उपन्यास के आरम्ि के पररच्छेि में ही वहां के िोकगीत

    का वणथन िेखा जा सकता है,

    तोरे आ गए लिवौआ, तू काए मरी जाये ,

    काए मरी जाए, कें सी मरी जाए,

    तोरे आ गए लिवौआ,

    तू काए मरी जाए ||”32

    ‘रंग गई मोर चुनररया’ में कई जगह िोकगीतों के कड़ड़यों की

    सहायता से कथा अग्रसर होती है | एक जगह पररच्छेि की िरुुआत इस िोकगीत से

    होती है –

    “सेजरी सूनी िई हो सजन त्रबन ु

    का होइहइ सोना , का होइहइ चांडी

    का होइहइ िहंगा पटोर हो सजन त्रबनु |

    सेजरी सूनी िई हो बिम त्रबनु |”33

    ‘सेतुबंि’ में बांि के तनमाथण को रोकने में संिग्न न्स्ियों }kरा इस

    िोकगीत से कथा आगे बिती है –

  • 225

    गंगा मैया के तीर

    बनाओ हरर ने ब िा -------------

    जो तू बााँि पै गंगा नहायगो,

    तेरी जन्म सफि है जायगो |

    अरे तेरो कंचन होय िरीर

    बनाओ हरी ने ब िा ! ------------

    जो तू बांि के ििथन करतो

    यमराज िेख के तोय डरतो |

    अरर कदट जाय िव सागर जंजीर

    बनाओ हरर ने बंिा ! ------------

    × × × × ×

    × × × × ×

    हे हनुमत बंिा वारे

    अरे सब खािर के रखवारे |

    ििथन कर िे मेरे वीर

    बनाओ हरर ने बाँिा ! -----------34

    ‘ग्िोबि गांव के िेवता’ में असुरों से सम्बन्न्ित िोककथा के

    माध्यम से कथा पररच्छेि इस प्रकार आगे बढ़ता है, “अन्त में उन अहंकारी िषु्ट असुरों

  • 226

    को सजा िेने स्वयं िगवान ्लसगंबोंगा ने चमथ रोग वािे िड़के का िेष बििा | िुटुकुम

    बूढ़ा और िुटुकुम बुदढ़या के यहााँ िााँगर-नौकर बनकर रहने िगे | रहते-रहते चािाकी से

    िािची असुरों ने सोने-चांिी के िािच में उन्ही की िटटी में जिाकर मार डािा | िौटने

    को आकाि की और बढ़े तो असुर औरतें उनके पैरों में िटक गयीं | तब लसगंबोंगा

    िगवान ्ने पैरों को ऐसा झटका कक वे जहााँ-तहााँ पहाड़, जंगि-झरना-निी में चगरी और

    िूत बनकर रहने िगी |”35 इसी तरह अन्य उपन्यासों में िी िोकगीत एवं िोककथाओ ं

    के माध्यम से कथासिू आगे बढ़ता है

    पववेच्य आचंलिक उपन्यासों में चचिात्मक एवं नाटकीय प्रपवचि का

    प्रयोग करके िी कथा सूि को आगे बढ़ाया गया है | ‘गमके माटी गांव की’ में नाटकीय

    प्रापवचि का प्रयोग उपन्यास में कई जगहों पर हुआ है | गयािास एवं रेिमा के संवािों

    का प्रयोग पूणथतया नाटकीय रूप में हुआ है –

    “अिी रात अचिक है-सो जाइए सुबह िेखा जायेगा “

    ‘चिना जरूरी है |’

    ‘मैं नहीं जाऊाँ गी |’

    ‘रजवन्ती क्या सोचेगी ?’

    ‘सोचने िो’

    मैंने तुम्हारी मााँ से वािा ककया था इस बार -------|’

    ‘अब तो लसर ििथ ठीक हो गया होगा |’

    ‘हााँ कुछ आराम जरूर हुआ है |’

    ‘अगर मैं चिती हूाँ तो पूरा आराम हो जाएगा’

  • 227

    रेिमा को हिकी हाँसी आ गई | गयािास ने हाँसी तछपा िी

    ‘हााँ लसरििथ की जब एक ही िवा है, तो क्या करुाँगी ?

    इस बार िोनों को हाँसी आ गई |”36

    ‘अाँिेरा जहााँ उजािा’ में कमथलसहं }kरा गाया जाने वािा आल्हा गीत

    पूणथतया नाटकीय रूप में हुआ है | गायक की चेष्टाओ,ं हरकतों और बोिों को िब्ि के

    माध्यम से ध्वतन दृश्यात्मक त्रबम्ब प्रस्तुत ककया गया है | पूरा अलिनय आाँखों के समक्ष

    प्रस्तुत होता है | िोि मजंीरें के थाप पर कमथ लसहं }kरा गाये जाने वािे आल्हा गीत को

    िेखक ने पूरी स्वािापवकता एवं जीवन्तता के साथ िब्ि बद्ध ककया है -

    “ड़डगतनक – ड़डगतनक – ड़डगतनक – ड़डगतनक ----|

    है – ए – ए – ए – ए ---- वमचक- वमचक- वमचक- वमचक ------|

    छकमक – छकमक – छकमक ----- |

    वा ---- िईया --- | जीते रहो ठाकुर ------ |

    कोई ििकार िेता है तो और जोि में गाने िगते है –

    उत्तर सीमा ठकुरानन के, िन्क्खन डाँटे रहे चुड़ड़हार |

    पेड़वन िुकक-तछपप गोिी िागै, गोिी सनन सनन सननाय ||

    िगै तमंचा फट-फट-फट-फट, िुइहर िााँय- िााँय उड़ड़ जाय |

    िठ वाजन का िांव न लमिती, िाठी तातन-तातन रदह जाय ||

    × × × × × × × ×

  • 228

    मार िगावा इन पापपन का , हरिम ठानत है तकरार |

    मनई लमलि-जुिी सुिहा रहतैं, हैवानन का खून सवार |”37

    इस पूरे प्रसंग िोि–मंजीरे का वािन,अलिनय, गीत और ग्रामीण

    ििथकों की प्रततकक्रयाओ ंको ध्वन्त्यात्मक प्रिाव के साथ दृश्य बना दिया गया है |

    ‘अगन पाखी’ एवं ‘ग्िोबि गााँव के िेवता’ में पिात्मक प्रपवचि का िी

    प्रयोग ककया गया है | ‘अगन पाखी’ में िुवन अपने न्जन्िा होने एवं अपने अपने मतृक

    पतत के जायिाि को प्राप्त करने के लिये कचहरी में हिफनामा प्रस्तुत करती है | इसी

    तरह ‘ग्िोबि गााँव के िेवता’ में रुमझुम असुर जातत की समस्या के तनवारण हेतु

    प्रिानमंिी को पि लिखता है | इस प्रपवचि के }kरा पाठक पाि के मन्स्तष्क में प्रवेि कर

    उसके चेतना-प्रवाह का अनुसरण करता है |

    ‘यथाथथता’ आचंलिक उपन्यासों का सवथप्रमुख गुण है | इस समय

    कुछ िेखक आत्मकथा प्रापवचि के माध्यम से अपने जीवन से जुड़े हुये अंचि का यथाथथ

    चचिण कर रहे हैं | पववेच्य आंचलिक उपन्यासों में ‘पानी बीच मीन पपयासी’ ‘िेहरी के

    पार’ एवं ‘बचपन िास्कर का’ में इस प्रपवचि का प्रयोग िेखा जा सकता है ‘पानी बीच

    मीन पपयासी’ में िेखक ने आजािी के बाि के गावंों की बेबाक अन्त: कथा प्रस्तुत की है

    | िेखक ने गांवों में फैिे जाततगत पव}sष, खेती के कदठन एवं जदटि सघंषथ, िैंचगक

    असमानता तथा तनरन्तर पवस्तार पाती अराजक न्स्थततयों का चचिण आत्मकथात्मक

    प्रपवचि के माध्यम से ककया है | ‘िेहरी के पार’ नामक उपन्यास में िेखक ने अपने पुि

    के असामतयक मतृ्यु के बहाने अपने अंचि के रीतत-ररवाज, संस्कार एवं पररवेि का

    यथाथथ चचिण ककया है | इसी तरह ‘बचपन िास्कर का’ में िेखक ने अपने बाि जीवन

    के साथ-साथ ग्राम जीवन के यथाथथ अंकन में इस प्रपवचि का प्रयोग कुििता के साथ

    ककया है |

  • 229

    तनष्कषथत: पववेच्य आचंलिक उपन्यासों में िेखकों }kरा कथा सूिों

    को आगे बढ़ाने में दृश्यात्मक एवं पररदृश्यात्मक प्रपवचियों के अिग-अिग प्रयोग करने

    के साथ-साथ इसके समन्न्वत रूप का िी प्रयोग ककया गया है | कहीं –कहीं िेखक

    पररदृश्यात्मक प्रपवचि का प्रयोग करते हुये नरेटर के साथ पािों को इस प्रकार लमिा िेता

    है कक उससे कथा में नया स्वाि आ जाता है | कथा के प्रस्तुतीकरण में िेखकों ने

    नाटकीय, चचिात्मक पिात्मक एव ंआत्मकथात्मक प्रपवचि का िी प्रयोग सफितापूवथक

    कक्रया है | िोकगीतों एवं िोककथाओ ंके प्रयोग से िी कथा सूि को आगे बढ़ाया गया है|

    6.5 - िापषक समपृद्ध

    आचंलिक उपन्यासों में आचंलिकता के तनिाथरण का एक प्रमुख

    आयाम िाषा है न्जसके आिार पर आचंलिक उपन्यासों का यथाथथ स्वरुप दृन्ष्टगोचर

    होता है | ककसी पवलिष्ट अंचि के चचिण में िेखक का उद्देश्य पपछड़े अंचि के बहुमुखी

    यथाथथ चचिण के साथ-साथ बििती हुई मानलसकता का चचिण करना िी होता है |

    फणीश्वर नाथ रेणु के ‘मैिा अंचि’ का प्रकािन 1954 ई० में हुआ | आज हम 21वीं

    िताब्िी में प्रवेि कर चुके है, लिक्षा रहन-सहन सम्पन्नता आदि का स्तर बढ़ा है,

    न्जसका असर ग्रामीण पररवेि या िारत के पवलिन्न अंचिों पर िी पड़ा है | राजनीततक

    स्तर पर िी िोगों में जागरूकता बढ़ी है | क्षेिीय ििों के उिय से िी पपछड़े अंचि

    मुखर हुये हैं | इन सब पररन्स्थततयों में ककसी िी अंचि में अनेक तरह की मानलसकता

    िेखने को लमि रही है | आचंलिक उपन्यासों की िाषा को िेकर पववाि की न्स्थतत रही

    है, “आंचलिक उपन्यास के उपकरणों में िाषा वह मूि तत्व है न्जसे िेकर िम्बा पववाि

    रहा है”38 इस संबंि में यह कहा जाता है कक, ‘अत्यन्त सीलमत क्षिे की िोकिाषा के

    प्रयोग के कारण इसकी पहुाँच बहुत कम िोगों तक हो पाती है और सम्पे्रषण का िायरा

    बहुत छोटा हो जाता है|”39

  • 230

    21वीं सिी के पववेच्य आचंलिक उपन्यासों में िगिग सिी

    उपन्यासकारों ने अंचि से सम्बन्न्ित कथा संसार तनलमथत करते समय पािों की सोच,

    मानलसकता एवं सांस्कृततक स्तर के अनुसार िाषा में वैपवध्य रखा है | अंचि के िाषा

    के अचिकतम सम्पे्रषण के लिये सामान्य वाक्यों के बीच में प्रयुक्त ठेठ आचंलिक िब्िों

    का अथथ उपन्यासकारों }kरा कोष्ठक में या पाि दटप्पणी के रूप में िे दिया गया है |

    खेत खलिहान, रीतत-ररवाज, प्रकृतत, मौसम, पि-ुपक्षी, हास-पररहास, मनोिाव, गािी-

    गिौज, राजनीतत आदि से सम्बद्ध अंचि की िब्ि सम्पिा वहााँ के अछूते पररवेि को

    यथाथथ स्वर िेती हैं | तछजाना (कमजोर), सुिकारा (पीिी चच् .ठी), ियजा (िहेज), कचारा

    (ब्याह की कािी चूड़डयााँ) , टौररया (पहाड़ी), मदढ़या (मन्न्िर), डुकरा (बूढ़ा) सिी िब्ि

    ‘अगन पाखी’ से रांिना(बनाना) आयो (मााँ) गोमकाइन (मािककन/पत्नी), गोमके (मिथ),

    लसगंवोंगा (सूरज िगवान), पविौती (टमाटर), लसयानी (मदहिा) कचचया (पैसे) िााँड

    (ििुआ, िगिग लसढ़ीनुमा खेतों के ऊपरी पानी से वंचचत िाग) , आजा (िािा) सिी

    िब्ि ‘ग्िोबि गााँव का िेवता’ से | छूि (पिास) कंडी (उपिी) कोयर (चारा), पवसूर (सोच

    में), िंूिी (चावि का िड्डू) कोलिया (गिी) ऐंठी, गूंजी (मैि) सिी िब्ि ‘अाँिेरा जहााँ

    उजािा’ से | पपयरौटी (पीिापन), गाही (एक गाही में पांच वस्तुएाँ होती है) गमकऊ

    (महकने वािा), पवहाऊ (पववाह), खपरी (िीख मााँगने का बरतन), दटरथवाज (िेखी मारने

    वािा), िेरुआ (पिओु ंके बच्चे), मनसेिू (पतत), मुराथ (अच्छे ककस्म के िैंस की नश्ि)

    सिी िब्ि ‘िेफािी के फूि’ से | बरौती (सपना), लिघा (पास), साई (एडवांस), लमिनी

    (पविाई, िक्षणा), िायजा (िहेज), िड़न िे (विू) सिी िब्ि ‘हेमन्न्तया उफथ किेक्टरनी

    बाई’ से) | िगूड़ा (बड़ा िपुट्टा), रोवा-राट(रोना-िोना), िोिन (जीणथ-िीणथ), कंूठन

    (दििाओ)ंपौड़ (झगड़ा) गैत (ईंिन रखने की जगह) पवणजार (सााँड)मेहर (दहमायत)खुसनी

    (ििवार), सरीपे (अध्याय), हुचकड़ (हैंडपम्प)हैजवाि (दहतैषी) पड्डा (िैंसा), िूड़ (बािू),

    िैरे (सुबह), नकीिी (स्वालिमानी), अह्वा (आवंा), चािा (गौना), पांड-ततवाड (बाँटवारा),

  • 231

    नेझू (रस्सी का फंिा), चीिुकिी (गड्िा) कैरू (कौरव), रोज (मातम), इद्.ित (तनन्श्चत

    अवचि)नफके (गुजारा-ित्ता) आिरी (बरतन घड़ने का पाि) सिी िब्ि ‘बाबि तेरा िेि

    में’ से िुगरी (साड़ी), कोरा (गोिी), साइत (मुहूतथ ), िरसाई (िाड़), बरजोरी (बहािरुी),

    बूंक (मु् .�