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गरिमा ससेना की प तक “है छिपा स िज कहा पि” की समीा समीक: मनोज जैन मध ि अनेकातवाद के सिधात पर गौर कर तो कारातर िे कही गयी हर बात िापे टि िे अपने अथ म िही होती है। यही बात यंजना शद शत पर लागू होती है यंजना कवशेषता ही यही है कक वह अपने अनेक नहहता को एक िा ववध अ म असियंजत करती है।लंबी तीा के उपरांत ाय की इछित ात की कामना मन म उि िमय अधीरता का ऱप ले लेती है जब तीा का काल खंड लगिग पूथ होने को हो और ाय अब िी टि िे ओझल हो। गररमा ितिेना की िय कासशत क नत "है निपा िरज कहा पर" के िंदिथ म यह तय एक दम खरा उतरता है देखा जाय तो िही िी है।कवनयी युगीन चंता को गीत म वपरोतीं ह िंह के गीत म अनेक न ह जह कवनयी ने अपने चंतन परक वविेद टि िे युगीन िदि म बुचधजीवी िमाज के िमने खड़े ककए ह जनके उर खोजने ह।

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  • गरिमा सक्सेना की पुस्तक “है छिपा सूिज कहााँ पि” की समीक्षा

    समीक्षक: मनोज जैन मधुि

    अनेकान्तवाद के सिद्धान्त पर गौर करें तो प्रकारान्तर िे कही गयी हर बात िापेक्ष दृष्टि िे अपने अर्थ में िही होती है। यही बात व्यंजना शब्द शष्तत पर लागू होती है व्यंजना की ववशेषता ही यही है कक वह अपने अनेक ननहहतार्ों को एक िार् ववववध अर्ों में असिव्यंष्जत करती है।लंबी प्रतीक्षा के उपरांत प्राप्य की इष्छित प्राष्प्त की कामना मन में उि िमय अधीरता का रूप ले लेती है जब प्रतीक्षा का काल खंड लगिग पूर्थ होने को हो और प्राप्य अब िी दृष्टि िे ओझल हो। गररमा ितिेना की िद्य प्रकासशत कृनत "है निपा िूरज कहााँ पर" के िंदिथ में यह तथ्य एक दम खरा उतरता है देखा जाय तो िही िी है।कवनयत्री युगीन च तंा को गीत में वपरोतीं हैं िंग्रह के गीतों में अनेक प्रश्न हैं ष्जन्हें कवनयत्री ने अपने च तंन परक वविेद दृष्टि िे युगीन िन्दिों में बुद्चधजीवी िमाज के िामने खड़े ककए हैं ष्जनके उत्तर खोजने हैं।

    https://sahityasudha.com

  • िजग र नाकार अपने िमय पर पैनी नजर रखने के िार् िामनयक मुद्दों पर लगातार मनन च तंन करते रहे हैं अल्प वय और न्यूनाचधक अनुिवों के लते गररमा जी के यहााँ िन्दसिथत िन्दिों की अनेक पंष्ततयााँ बहुतायत में देखने को समलतीं हैं। िंग्रह के पूरे 53 गीतों को आद्योपान्त पढ़ने के उपरांत कवनयत्री के वप्रय वर्णयथ ववषयों के र ाव और र ना प्रकिया के आस्वाद का अनुमान स्वतः लगाया जा िकता है।

    िंग्रह के गीत अन्तरववरोध वविंगनत और िामाष्जक करुर्ा और िमरिता के त्रत्रकोर् के इदथ चगदथ घूमते है। गररमा ितिेना के अचधिंख्य गीतों में जो मूल स्वर उिरकर आता है वह जनपक्षधरता वादी है। उनके गीत त्रबना ककिी लाग लपेि के आम जन की पैरवी करते हैं। वह िमरिता की बात करतीं हैं ,िमाज में िहदयों िे व्याप्त िमस्या की ओर इंचगत करते हुए उिके िमाधान ढंूढने के आह्वाहन िी उनके गीतों में बखूबी हदखाई देता है। द्रटिव्य है उनका इिी आशय का एक बहुत प्यारा िा गीत शीषथक िमाधान के गीत िे।----

    हिे -भिे जीवन के पते्त हुये जा िहे पीत। आओ हम सब ममलकि गायें समाधान के गीत। अंधधयािे पि कलम चलाकि सूिज नया उगायें। उम्मीदों के पंखों को ववस्ततृ आकाश थमायें।

    अना ार अनीनत के तमि िे आमजन दखुी है इिी पीड़ा को बड़ ेिलीके िे गीत में बांधा गया है।

    ग्लोबलाइजेशन के लत ेहमें यगु न ेनए िंत्राि हदये हैं स्र्ावपत मानकों की बड़ी क्षनत हुई है,मूल्यों का क्षरर् हुआ है पररवारों का िूिना एकाकीपन और अविाद नई िमस्या बनकर उिरी है।

    इिी आशय के एक बहुत ही मासमथक गीत की ििा यहााँ हमें ि ेत करती है देखें गीत का एक िोिा िा उद्धरर् ---

    क्षरित हुये सम्बन्ध क्षरित हुये सम्बन्ध नेह के जीवन के बदलावों से टीवी, मोबाइल में खोये

  • कैसे समकालीन हुये हैं धचट्ठी खोयी, नुक्कड़ सूना सुववधाओं में लीन हुये हैं नकली मुखड़ ेममत्र हो गये दिू हुये सद्भावों से

    बाजारवाद ने जनमानि को अपनी पेि में सलया इि नए पररवतथन का अिर यहााँ तक हुआ कक आदमी की िो और िमझ िी प्रिाववत हुई बाजार के उत्तर प्रिाव के अिर िे शहर तो शहर गााँव िी अिूते नहीं रहे।

    तिी कवनयत्री को कहना पड़ा--

    गााँवों के भी मन-मन अब उग आये हैं शूल देख चककत हो िहा बबूल जहााँ कभी थीं हिमसगंाि की, टेसू की बातें चंपा, बेली के साँग कटतीं थीं प्यािी िातें वहीं आज बातों में खखलते हैं गूलि के फूल

    िंग्रह के ििी गीत स्वस्फूतथ िरल और बोधगम्य हैं।यद्यवप इि कर्न की स्वीकारोष्तत उनके आत्म कथ्य में िी समलती है। िुव्यवष्स्र्त लय,ननदोष िंद,मनोहारी िाव,बेजोड़ र ना कौशल,िाषा की िरलता अपने आप में ही गीतों का िबल पक्ष है जो पाठक मन को प्रिाववत करता है िार् ही अंत तक अपने िार् बांधे रखता है।उनके गीतों में पीढ़ीगत अंतराल िे उपजी पीड़ा के प्रतीक हैं, क्षररत होत ेिम्बन्धों के िुघड़ त्रबम्ब हैं,राजनीनत की स्वार्थपरता के दांव-पें ,िमाज में व्याप्त लोलुपता के द्वंद ,प्रकृनत प्रेम हो या कफर पयाथवरर् की च तंा के तमाम दृश्य पयाथवरर् अिन्तुलन की कारुणर्क िववयााँ अपनी स्विाववक िहजता के िार् िंग्रह में मौजूद हैं ।

    िुस्पटि त्रबम्ब और प्रतीकों के िुंदर प्रयोग िंग्रह में यत्र-तत्र त्रबखरे पड़े हैं।न्याय व्यवस्र्ा िे आम आदमी का उठता ववश्वाि , और ित्ता के शोषर् और दमन की प्रववृत्त िे आम जन कानून अपने हार् में लेने को तैयार है पररर्ाम स्वरूप मोब सलचं गं जैिी घिनाएं आम होती जा रही है कवनयत्री ने इिी मनोदशा पर एक बहुत अनुपम गीत िषृ्जत ककया है देखते हैं एक िन्दिथ स्वयं उनके एक गीत के अंश के िार्---

  • भीड़ अंधी हैबबकाऊ भी यही है।औि यह जो कह िहीवह ही सही है।

    कुल समलाकर पूरा िंग्रह पठनीय होने के िार् िंग्रहनीय िी है, यद्धवप गररमा ितिेना का यह पहला िंग्रह है बहुत हद तक काव्य की उनकी अपनी शैली बन ुकी है आगे लकर यह और िी पररमाष्जथत होगी जरूरी नहीं की नवगीत के दशकीय कववयों की शैली को ही अनुिररत ककया जाय उनिे आगे बढ़कर िी स्वयं का अपना डडतशन गढ़ा जा िकता है िार् ही बहुत पीिे िूि ुकी िाषा के अपदस्र् शब्दों के मोह को िी िोड़ना होगा जैि ेिीत,नैन,िााँकल,पाहन आहद वैिे तो िंग्रह के ििी गीत पठनीय है पर ववयोग श्ृंगार का एक करुर् गीत जो मन पर असमि िाप िोड़ता है की ंद पंष्ततयााँ यहााँ प्रस्तुत हैं देखें---

    िोड़ दो मुझको अकेलाआज ददल टूटा हुआ हैकााँच से अिमान थे सबटूटकि बबखिे पड़े हैंजख़्म सािे रिस िहे हैंरूठ कि मिहम खड़े हैंसाि संक्षेप में कहें

    गररमा ितिेना का िद्य प्रकाश्य िंग्रह “है निपा िूरज कहााँ” पर िही मायने में "युगीन िन्दिों का नूतन दस्तावेज है"।

    िाहहत्य िमाज में यह िंग्रह अपनी खूत्रबयों के लते िरपूर िमादृत होगा ऐिी मेरी कामना है।

    mailto: [email protected]