वरदान प्रेमचंद - arvind gupta · 2014. 10. 10. · सुवामा...

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ेमचंद हंदीकोश www.hindikosh.in वरदान

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Page 1: वरदान प्रेमचंद - Arvind Gupta · 2014. 10. 10. · सुवामा इसी प्रकार देर तक ववनती करती र ी।

पे्रमचंद

ह दंीकोश

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वरदान

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Vardan

By Premchand

य पुस्तक प्रकाशनाधिकार मुक्त ै क्योंकक इसकी प्रकाशनाधिकार अवधि समाप्त ो चुकी ैं।

This work is in the public domain in India because its term of copyright

has expired.

यूनीकोड संस्करण: संजय खत्री. 2012

Unicode Edition: Sanjay Khatri, 2012

आवरण धचत्र: ववककपीडडया (पे्रमचंद)

Cover image: Wikipedia.org (Premchand).

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Contents 1. वरदान .................................................................................................... 4

2. वैराग्य ..................................................................................................... 7

3. नये पडोससयों से मेल-जोल ..................................................................... 14

4. एकता का सम्बन्ि पुष्ट ोता ै ............................................................. 17

5. सशष्ट-जीवन के दृश्य .............................................................................. 22

6. डडप्टी श्यामाचरण .................................................................................. 28

7. ननठुरता और पे्रम ................................................................................... 36

8. सखखयााँ ................................................................................................. 39

9. ईष्याा ..................................................................................................... 46

10. सुशीला की मतृ्यु .................................................................................. 52

11. ववरजन की ववदाई ................................................................................ 58

12. कमलाचरण के समत्र ............................................................................. 61

13. कायापलट............................................................................................ 66

14. भ्रम .................................................................................................... 73

15. कताव्य और पे्रम का संघर्ा .................................................................... 78

16. स्ने पर कत्ताव्य की ववजय ................................................................. 85

17. कमला के नाम ववरजन के पत्र ............................................................. 91

18. प्रतापचन्र और कमलाचरण ................................................................ 108

19. द:ुख-दशा........................................................................................... 114

20. मन का प्राबल्य ................................................................................. 120

21. ववदरु्ी वजृरानी .................................................................................. 125

22. मािवी .............................................................................................. 130

23. काशी में आगमन............................................................................... 136

24. पे्रम का स्वप्न ................................................................................... 148

25. ववदाई ............................................................................................... 159

26. मतवाली योधगनी ................................................................................ 168

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प्रेमचदं

वरदान

ववन््याचल पवात मध्यरात्रत्र के ननववड अन्िकार में काल देव की भांनत खडा था। उस पर उगे ुए छोटे-छोटे वकृ्ष इस प्रकार दष्ष्टगोचर ोत ेथे, मानो ये उसकी जटाएं ै और अष्टभुजा देवी का मष्न्दर ष्जसके कलश पर श्वेत पताकाएं वायु की मन्द-मन्द तरंगों में ल रा र ी थीं, उस देव का मस्तक ै मंहदर में एक खिलसमलाता ुआ दीपक था, ष्जसे देखकर ककसी िंुिले तारे का मान ो जाता था। अिारात्रत्र व्यतीत ो चुकी थी। चारों और भयाव सन्नाटा छाया ुआ था। गंगाजी की काली तरंगें पवात के नीच ेसुखद प्रवा से ब र ी थीं। उनके ब ाव से एक मनोरंजक राग की ध्वनन ननकल र ी थी। ठौर-ठौर नावों पर और ककनारों के आस-पास मल्ला ों के चूल् ों की आंच हदखायी देती थी। ऐसे समय में एक श्वेत वस्त्रिाररणी स्त्री अष्टभजुा देवी के सम्मुख ाथ बांिे बैठी ुई थी। उसका प्रौढ़ मुखमण्डल पीला था और भावों से कुलीनता प्रकट ोती थी। उसने देर तक ससर िुकाये र ने के पश्चात क ा। ‘माता! आज बीस वर्ा से कोई मंगलवार ऐसा न ीं गया जबकक मैंने तुम् ारे चरणो पर ससर न िुकाया ो। एक हदन भी ऐसा न ीं गया जबकक मैंने तुम् ारे चरणों का ध्यान न ककया ो। तुम जगताररणी म ारानी ो। तुम् ारी इतनी सेवा करने पर भी मेरे मन की असभलार्ा पूरी न ुई। मैं तुम् ें छोडकर क ां जाऊ?’ ‘माता। मैंने सैकडों व्रत रखे, देवताओं की उपासनाएं की’, तीथायाञाएं की, परन्तु मनोरथ पूरा न ुआ। तब तुम् ारी शरण आयी। अब तुम् ें छोडकर क ां जाऊं? तुमने सदा अपने भक्तो की इच्छाएं पूरी की ै। क्या मैं तुम् ारे दरबार से ननराश ो जाऊं?’

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सुवामा इसी प्रकार देर तक ववनती करती र ी। अकस्मात उसके धचत्त पर अचते करने वाले अनुराग का आक्रमण ुआ। उसकी आंखें बन्द ो गयीं और कान में ध्वनन आयी ‘सुवामा! मैं तुिसे ब ुत प्रसन्न ंू। मांग, क्या मांगती ै? सुवामा रोमांधचत ो गयी। उसका हृदय िडकने लगा। आज बीस वर्ा के पश्चात म ारानी ने उसे दशान हदये। व कांपती ुई बोली ‘जो कुछ मांगूंगी, व म ारानी देंगी’ ? ‘ ां, समलेगा।’ ‘मैंने बडी तपस्या की ै अतएव बडा भारी वरदान मांगूगी।’ ‘क्या लेगी कुबेर का िन’? ‘न ीं।’ ‘इन्द का बल।’ ‘न ीं।’ ‘सरस्वती की ववद्या?’ ‘न ीं।’ ‘किर क्या लेगी?’ ‘संसार का सबसे उत्तम पदाथा।’ ‘व क्या ै?’

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‘सपूत बेटा।’ ‘जो कुल का नाम रोशन करे?’ ‘न ीं।’ ‘जो माता-वपता की सेवा करे?’ ‘न ीं।’ ‘जो ववद्वान और बलवान ो?’ ‘न ीं।’ ‘किर सपूत बेटा ककसे क त े ैं?’ ‘जो अपने देश का उपकार करे।’ ‘तरेी बुवि को िन्य ै। जा, तरेी इच्छा पूरी ोगी।’ ***

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2. वैराग्य

मुंशी शासलग्राम बनारस के पुराने रईस थे। जीवन-वनृत वकालत थी और पैतकृ सम्पष्त्त भी अधिक थी। दशाश्वमेि घाट पर उनका वैभवाष्न्वत ग ृ आकाश को स्पशा करता था। उदार ऐसे कक पचीस-तीस जार की वावर्का आय भी व्यय को पूरी न ोती थी। सािु-ब्रा मणों के बड ेश्रद्वावान थे। वे जो कुछ कमात,े व स्वयं ब्रह्रमभोज और सािुओं के भंडारे एवं सत्यकाया में व्यय ो जाता। नगर में कोई सािु-म ात्मा आ जाये, व मुंशी जी का अनतधथ। संस्कृत के ऐसे ववद्वान कक बडे-बड ेपंडडत उनका लो ा मानत ेथे वेदान्तीय ससद्वान्तों के वे अनुयायी थे। उनके धचत्त की प्रवनृत वैराग्य की ओर थी। मुंशीजी को स्वभावत: बच्चों से ब ुत पे्रम था। मु ल्ले-भर के बच्च ेउनके पे्रम-वारर से असभससधंचत ोत ेर ते थे। जब वे घर से ननकलत ेथे तब बालाकों का एक दल उसके साथ ोता था। एक हदन कोई पार्ाण-हृदय माता अपने बच्वे को मार थी। लडका त्रबलख-त्रबलखकर रो र ा था। मुंशी जी से न र ा गया। दौड,े बच्च ेको गोद में उठा सलया और स्त्री के सम्मुख अपना ससर िुक हदया। स्त्री ने उस हदन से अपने लडके को न मारने की शपथ खा ली जो मनुष्य दसूरो के बालकों का ऐसा स्ने ी ो, व अपने बालक को ककतना प्यार करेगा, सो अनुमान से बा र ै। जब से पुत्र पैदा ुआ, मुंशी जी संसार के सब कायो से अलग ो गये। क ीं वे लडके को ह डंोल में िुला र े ैं और प्रसन्न ो र े ैं। क ीं वे उसे एक सुन्दर सैरगाडी में बैठाकर स्वयं खींच र े ैं। एक क्षण के सलए भी उसे अपने पास से दरू न ीं करत ेथे। वे बच्च ेके स्ने में अपने को भूल गये थे। सुवामा ने लडके का नाम प्रतापचन्र रखा था। जैसा नाम था वैसे ी उसमें गुण भी थे। व अत्यन्त प्रनतभाशाली और रुपवान था। जब व बातें करता, सुनने वाले मुग्ि ो जात।े भव्य ललाट दमक-दमक करता था। अंग ऐसे पुष्ट कक द्ववगुण डीलवाले लडकों को भी व कुछ न समिता था। इस अल्प आयु ी में उसका मुख-मण्डल ऐसा हदव्य और ज्ञानमय था कक यहद व अचानक ककसी अपररधचत मनुष्य के सामने आकर खडा ो जाता तो व ववस्मय से ताकने लगता था।

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इस प्रकार ंसते-खेलत ेछ: वर्ा व्यतीत ो गये। आनंद के हदन पवन की भांनत सन्न-से ननकल जात े ैं और पता भी न ीं चलता। वे दभुााग्य के हदन और ववपष्त्त की रातें ैं, जो काटे न ीं कटतीं। प्रताप को पैदा ुए अभी ककतने हदन ुए। बिाई की मनो ाररणी ध्वनन कानों मे गूंज र ी थी छठी वर्ागांठ आ प ंुची। छठे वर्ा का अंत दहुदानों का श्रीगणेश था। मुंशी शासलग्राम का सांसाररक सम्बन्ि केवल हदखावटी था। व ननष्काम और ननस्सम्बद्व जीवन व्यतीत करत ेथे। यद्यवप प्रकट व सामान्य संसारी मनुष्यों की भांनत संसार के क्लेशों से क्लेसशत और सुखों से वर्ात दृष्ष्टगोचर ोत ेथे, तथावप उनका मन सवाथा उस म ान और आनन्दपूवा शांनत का सुख-भोग करता था, ष्जस पर द:ुख के िोंकों और सुख की थपककयों का कोई प्रभाव न ीं पडता ै। माघ का म ीना था। प्रयाग में कुम्भ का मेला लगा ुआ था। रेलगाडडयों में यात्री रुई की भांनत भर-भरकर प्रयाग प ंुचाये जात ेथे। अस्सी-अस्सी बरस के विृ-ष्जनके सलए वर्ो से उठना कहठन ो र ा था- लंगडात,े लाहठयां टेकत ेमंष्जल तै करके प्रयागराज को जा र े थे। बडे-बड ेसािु-म ात्मा, ष्जनके दशानो की इच्छा लोगों को ह मालय की अंिेरी गुिाओं में खींच ले जाती थी, उस समय गंगाजी की पववत्र तरंगों से गले समलने के सलए आये ुए थे। मुंशी शासलग्राम का भी मन ललचाया। सुवाम से बोले-- कल स्नान ै। सुवामा-- सारा मु ल्ला सूना ो गया। कोई मनुष्य न ीं दीखता। मुंशी-- तुम चलना स्वीकार न ीं करती, न ीं तो बडा आनंद ोता। ऐसा मेला तुमने कभी न ीं देखा ोगा। सुवामा- ऐसे मेला से मेरा जी घबराता ै। मुंशी-- मेरा जी तो न ीं मानता। जब से सुना कक स्वामी परमानन्द जी आये ैं तब से उनके दशान के सलए धचत्त उद्ववग्न ो र ा ै। सुवामा प ले तो उनके जाने पर स मत न ुई, पर जब देखा कक य रोके न रुकें गे, तब वववश ोकर मान गयी। उसी हदन मुंशी जी ग्यार बजे रात को

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प्रयागराज चले गये। चलत ेसमय उन् ोंने प्रताप के मुख का चुम्बन ककया और स्त्री को पे्रम से गले लगा सलया। सुवामा ने उस समय देखा कक उनके नेञ सजल ैं। उसका कलेजा िक से ो गया। जैसे चैत्र मास में काली घटाओं को देखकर कृर्क का हृदय क पंने लगता ै, उसी भाती मुंशीजी ने नेत्रों का अशु्रपूणा देखकर सुवामा कष्म्पत ुई। अशु्र की वे बूंदें वैराग्य और त्याग का अगाघ समुर थीं। देखने में वे जैसे नन् े जल के कण थीं, पर थीं वे ककतनी गंभीर और ववस्तीणा। उिर मुंशी जी घर के बा र ननकले और इिर सुवामा ने एक ठंडी श्वास ली। ककसी ने उसके हृदय में य क ा कक अब तुि ेअपने पनत के दशान न ोंगे। एक हदन बीता, दो हदन बीत,े चौथा हदन आया और रात ो गयी, य ा तक कक पूरा सप्ता बीत गया, पर मुशंी जी न आये। तब तो सुवामा को आकुलता ोने लगी। तार हदये, आदमी दौडाये, पर कुछ पता न चला। दसूरा सप्ता भी इसी प्रयत्न में समाप्त ो गया। मुशंी जी के लौटने की जो कुछ आशा शेर् थी, व सब समट्टी में समल गयी। मुंशी जी का अदृश्य ोना उनके कुटुम्ब मात्र के सलए ी न ीं, वरन सारे नगर के सलए एक शोकपूणा घटना थी। ाटों में दकुानों पर, थाइयो में अथाात चारों और य ी वाताालाप ोता था। जो सनुता, व ी शोक करता- क्या िनी, क्या ननिान। य शौक सबको था। उसके कारण चारों और उत्सा िैला र ता था। अब एक उदासी छा गयी। ष्जन गसलयों से वे बालकों का िुण्ड लेकर ननकलत ेथे, व ां अब िूल उड र ी थी। बच्च ेबराबर उनके पास आने के सलए रोत ेऔर ठ करत ेथे। उन बेचारों को य सुि क ां थी कक अब प्रमोद सभा भंग ो गयी ै। उनकी माताएं ऑचंल से मुख ढााँप-ढााँपकर रोतीं मानों उनका सगा पे्रमी मर गया ै। वैसे तो मुंशी जी के गुप्त ो जाने का रोना सभी रोत ेथे। परन्तु सब से गाढे़ आंसू, उन आढनतयों और म ाजनों के नेत्रों से धगरत ेथे, ष्जनके लेने-देने का लेखा अभी न ीं ुआ था। उन् ोंने दस-बार हदन जैसे-जैसे करके काटे, पश्चात एक-एक करके लेखा के पत्र हदखाने लगे। ककसी ब्रह्मभोज मे सौ रुपये का घी आया ै और मूल्य न ीं हदया गया। क ी से दो-सौ का मैदा आया ुआ ै। बजाज का स स्रों का लेखा ै। मष्न्दर बनवात ेसमय एक म ाजन के बीस स स्र ऋण सलया था, व अभी वैसे ी पडा ुआ ै लेखा की तो य दशा थी। सामग्री की य दशा कक एक उत्तम ग ृ और तत्सम्बष्न्िनी सामधग्रयों के अनतररक्त

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कोई वस्त न थी, ष्जससे कोई बडी रकम खडी ो सके। भ-ूसम्पष्त्त बेचने के अनतररक्त अन्य कोई उपाय न था, ष्जससे िन प्राप्त करके ऋण चुकाया जाए। बेचारी सुवामा ससर नीचा ककए ुए चटाई पर बैठी थी और प्रतापचन्र अपने लकडी के घोड ेपर सवार आंगन में टख-टख कर र ा था कक पष्ण्डत मोटेराम शास्त्री - जो कुल के पुरोह त थे - मुस्करात े ुए भीतर आये। उन् ें प्रसन्न देखकर ननराश सुवामा चौंककर उठ बैठी कक शायद य कोई शुभ समाचार लाये ैं। उनके सलए आसन त्रबछा हदया और आशा-भरी दृष्ष्ट से देखने लगी। पष्ण्डतजी आसान पर बैठे और सुंघनी सूंघत े ुए बोले तुमने म ाजनों का लेखा देखा? सुवामा ने ननराशापूणा शब्दों में क ा-- ां, देखा तो। मोटेराम--रकम बडी ग री ै। मुंशीजी ने आगा-पीछा कुछ न सोचा, अपने य ां कुछ ह साब-ककताब न रखा। सुवामा-- ां अब तो य रकम ग री ै, न ीं तो इतने रुपये क्या, एक-एक भोज में उठ गये ैं। मोटेराम--सब हदन समान न ीं बीतत।े सुवामा--अब तो जो ईश्वर करेगा सो ोगा, क्या कर सकती ंू। मोटेराम-- ां ईश्वर की इच्छा तो मूल ी ै, मगर तुमने भी कुछ सोचा ै ? सुवामा-- ां गांव बेच डालूंगी। मोटेराम--राम-राम। य क्या क ती ो ? भूसम त्रबक गयी, तो किर बात क्या र जायेगी? मोटेराम-- भला, पथृ्वी ाथ से ननकल गयी, तो तुम लोगों का जीवन ननवाा कैसे ोगा?

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सुवामा-- मारा ईश्वर मासलक ै। व ी बेडा पार करेगा। मोटेराम-- य तो बड ेअिसोस की बात ोगी कक ऐसे उपकारी पुरुर् के लडके-बाले द:ुख भोगें। सुवामा--ईश्वर की य ी इच्छा ै, तो ककसी का क्या बस? मोटेराम--भला, मैं एक युष्क्त बता दूं कक सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे। सुवामा-- ां, बतलाइए बडा उपकार ोगा। मोटेराम--प ले तो एक दरख्वास्त सलखवाकर कलक्टर साह ब को दे दो कक मालगुलारी माि की जाये। बाकी रुपये का बन्दोबस्त मारे ऊपर छोड दो। म जो चा ेंगे करेंगे, परन्तु इलाके पर आंच ना आने पायेगी। सुवामा--कुछ प्रकट भी तो ो, आप इतने रुपये क ां से लायेंगी? मोटेराम-- तुम् ारे सलए रुपये की क्या कमी ै? मुंशी जी के नाम पर त्रबना सलखा-पढ़ी के पचास जार रुपये का बन्दोस्त ो जाना कोई बडी बात न ीं ै। सच तो य ै कक रुपया रखा ुआ ै, तुम् ारे मुं से ‘ ां’ ननकलने की देरी ै। सुवामा-- नगर के भर-पुरुर्ों ने एकत्र ककया ोगा? मोटेराम-- ां, बात-की-बात में रुपया एकत्र ो गया। सा ब का इशारा ब ुत था। सुवामा--कर-मुष्क्त के सलए प्राथाना-पत्र मुिसे न सलखवाया जाएगा और मैं अपने स्वामी के नाम ऋण ी लेना चा ती ंू। मैं सबका एक-एक पैसा अपने गांवों ी से चुका दूंगी।

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य क कर सुवामा ने रुखाई से मुं िेर सलया और उसके पीले तथा शोकाष्न्वत बदन पर क्रोि-सा िलकने लगा। मोटेराम ने देखा कक बात त्रबगडना चा ती ै, तो संभलकर बोले-- अच्छा, जैसे तुम् ारी इच्छा। इसमें कोई जबरदस्ती न ीं ै। मगर यहद मने तुमको ककसी प्रकार का द:ुख उठात ेदेखा, तो उस हदन प्रलय ो जायेगा। बस, इतना समि लो। सुवामा--तो आप क्या य चा त े ैं कक मैं अपने पनत के नाम पर दसूरों की कृतज्ञता का भार रखंू? मैं इसी घर में जल मरंुगी, अनशन करते-करत ेमर जाऊंगी, पर ककसी की उपकृत न बनंूगी। मोटेराम--छी:छी:। तुम् ारे ऊपर नन ोरा कौन कर सकता ै? कैसी बात मुख से ननकालती ै? ऋण लेने में कोई लाज न ीं ै। कौन रईस ै ष्जस पर लाख दो-लाख का ऋण न ो? सुवामा-- मुि ेववश्वास न ीं ोता कक इस ऋण में नन ोरा ै। मोटेराम-- सुवामा, तुम् ारी बुद्वव क ां गयी? भला, सब प्रकार के द:ुख उठा लोगी पर क्या तुम् ें इस बालक पर दया न ीं आती? मोटेराम की य चोट ब ुत कडी लगी। सुवामा सजलनयना ो गई। उसने पुत्र की ओर करुणा-भरी दृष्ष्ट से देखा। इस बच्च ेके सलए मैंने कौन-कौन सी तपस्या न ीं की? क्या उसके भाग्य में द:ुख ी बदा ै। जो अमोला जलवायु के प्रखर िोंकों से बचाता जाता था, ष्जस पर सूया की प्रचण्ड ककरणें न पडने पाती थीं, जो स्ने -सुिा से अभी ससधंचत र ता था, क्या व आज इस जलती ुई िूप और इस आग की लपट में मरुिायेगा? सुवामा कई समनट तक इसी धचन्ता में बैठी र ी। मोटेराम मन- ी-मन प्रसन्न ो र े थे कक अब सिलीभूत ुआ। इतने में सुवामा ने ससर उठाकर क ा--ष्जसके वपता ने लाखों को ष्जलाया-खखलाया, व दसूरों का आधश्रत न ीं बन सकता। यहद वपता का िमा उसका स ायक ोगा, तो स्वयं दस को खखलाकर खायेगा। लडके को बुलात े ुए ‘बेटा। तननक य ां आओ। कल से तुम् ारी समठाई, दिू, घी सब बन्द ो जायेंगे। रोओगे तो न ीं?’ य क कर उसने बेटे को प्यार से बैठा सलया और उसके गुलाबी गालों का पसीना पोंछकर चुम्बन कर सलया।

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प्रताप-- क्या क ा? कल से समठाई बन्द ोगी? क्यों क्या लवाई की दकुान पर समठाई न ीं ै? सुवामा--समठाई तो ै, पर उसका रुपया कौन देगा? प्रताप-- म बड े ोंगे, तो उसको ब ुत-सा रुपया देंगे। चल, टख। टख। देख मा,ं कैसा तजे घोडा ै। सुवामा की आंखों में किर जल भर आया। ‘ ा न्त। इस सौन्दया और सुकुमारता की मूनता पर अभी से दरररता की आपष्त्तयां आ जायेंगी। न ीं न ीं, मैं स्वयं सब भोग लूंगी। परन्तु अपने प्राण-प्यारे बच्च ेके ऊपर आपष्त्त की परछा ीं तक न आने दूंगी।’ माता तो य सोच र ी थी और प्रताप अपने ठी और मुं जोर घोड ेपर चढ़ने में पूणा शष्क्त से लीन ो र ा था। बच्च ेमन के राजा ोत े ैं। असभप्राय य कक मोटेराम ने ब ुत जाल िैलाया। ववववि प्रकार का वाक्चातुया हदखलाया, परन्तु सुवामा ने एक बार ‘न ीं करके ‘ ां’ न की। उसकी इस आत्मरक्षा का समाचार ष्जसने सुना, िन्य-िन्य क ा। लोगों के मन में उसकी प्रनतष्टा दनूी ो गयी। उसने व ी ककया, जो ऐसे संतोर्पूणा और उदार-हृदय मनुष्य की स्त्री को करना उधचत था। इसके पन्र वें हदन इलाका नीलामा पर चढ़ा। पचास स स्र रुपये प्राप्त ुए कुल ऋण चुका हदया गया। घर का अनावश्यक सामान बेच हदया गया। मकान में भी सुवामा ने भीतर से ऊाँ ची-ऊाँ ची दीवारें खखचंवा कर दो अलग-अलग खण्ड कर हदये। एक में आप र ने लगी और दसूरा भाड ेपर उठा हदया। ***

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3. नये पड़ोसियों िे मेल-ज़ोल

मुंशी संजीवनलाल, ष्जन् ोंने सुवाम का घर भाड ेपर सलया था, बड ेववचारशील मनुष्य थे। प ले एक प्रनतष्ष्ठत पद पर ननयुक्त थे, ककन्तु अपनी स्वतंत्र इच्छा के कारण अिसरों को प्रसन्न न रख सके। य ां तक कक उनकी रुष्टता से वववश ोकर इस्तीिा दे हदया। नौकर के समय में कुछ पूंजी एकत्र कर ली थी, इससलए नौकरी छोडत े ी वे ठेकेदारी की ओर प्रवतृ्त ुए और उन् ोंने पररश्रम द्वारा अल्पकाल में ी अच्छी सम्पष्त्त बना ली। इस समय उनकी आय चार-पांच सौ माससक से कम न थी। उन् ोंने कुछ ऐसी अनुभवशासलनी बुवि पायी थी कक ष्जस काया में ाथ डालते, उसमें लाभ छोड ानन न ोती थी। मुंशी संजीवनलाल का कुटुम्ब बडा न था। सन्तानें तो ईश्वर ने कई दीं, पर इस समय माता-वपता के नयनों की पुतली केवल एक पुञी ी थी। उसका नाम वजृरानी था। व ी दम्पनत का जीवनाश्राम थी। प्रतापचन्र और वजृरानी में प ले ी हदन से मैत्री आरंभ ा गयी। आिे घंटे में दोनों धचडडयों की भांनत च कने लगे। ववरजन ने अपनी गुडडया, खखलौने और बाजे हदखाये, प्रतापचन्र ने अपनी ककताबें, लेखनी और धचत्र हदखाये। ववरजन की माता सुशीला ने प्रतापचन्र को गोद में ले सलया और प्यार ककया। उस हदन से व ननत्य संध्या को आता और दोनों साथ-साथ खेलत।े ऐसा प्रतीत ोता था कक दोनों भाई-बह न ै। सुशीला दोनों बालकों को गोद में बैठाती और प्यार करती। घंटों टकटकी लगाये दोनों बच्चों को देखा करती, ववरजन भी कभी-कभी प्रताप के घर जाती। ववपष्त्त की मारी सुवामा उसे देखकर अपना द:ुख भूल जाती, छाती से लगा लेती और उसकी भोली-भाली बातें सुनकर अपना मन ब लाती। एक हदन मुंशी संजीवनलाल बा र से आये तो क्या देखत े ैं कक प्रताप और ववरजन दोनों दफ्तर में कुससायों पर बैठे ैं। प्रताप कोई पुस्तक पढ़ र ा ै और ववरजन ध्यान लगाये सुन र ी ै। दोनों ने ज्यों ी मुंशीजी को देखा उठ खड े ुए। ववरजन तो दौडकर वपता की गोद में जा बैठी और प्रताप ससर नीचा करके एक ओर खडा ो गया। कैसा गुणवान बालक था। आयु अभी आठ वर्ा से

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अधिक न थी, परन्तु लक्षण से भावी प्रनतभा िलक र ी थी। हदव्य मुखमण्डल, पतले-पतले लाल-लाल अिर, तीव्र धचतवन, काले-काले भ्रमर के समान बाल उस पर स्वच्छ कपड ेमुंशी जी ने क ा-- य ां आओ, प्रताप। प्रताप िीरे-िीरे कुछ ह चककचाता-सकुचाता समीप आया। मुशंी जी ने वपतवृत ्पे्रम से उसे गोद में बैठा सलया और पूछा-- तुम अभी कौन-सी ककताब पढ़ र े थे। प्रताप बोलने ी को था कक ववरजन बोल उठी-- बाबा। अच्छी-अच्छी क ाननयां थीं। क्यों बाबा। क्या प ले धचडडयां भी मारी भांनत बोला करती थीं। मुंशी जी मसु्कराकर बोले-- ां। वे खूब बोलती थीं। अभी उनके मुं से पूरी बात भी न ननकलने पायी थी कक प्रताप ष्जसका संकोच अब गायब ो चला था, बोला- न ीं ववरजन तुम् ें भुलात े ैं ये क ाननया बनायी ुई ैं। मुंशी जी इस ननभीकतापूणा खण्डन पर खूब ंसे। अब तो प्रताप तोत ेकी भांनत च कने लगा--स्कूल इतना बडा ै कक नगर भर के लोग उसमें बैठ जायें। दीवारें इतनी ऊंची ैं, जैसे ताड। बलदेव प्रसाद ने जो गेंद में ह ट लगायी, तो व आकाश में चला गया। बड ेमास्टर सा ब की मेज पर री- री बनात त्रबछी ुई ै। उस पर िूलों से भरे धगलास रखे ैं। गंगाजी का पानी नीला ै। ऐसे जोर से ब ता ै कक बीच में प ाड भी ो तो ब जाये। व ां एक सािु बाबा ै। रेल दौडती ै सन-सन। उसका इंष्जन बोलता ै िक-िक। इंष्जन में भाप ोती ै, उसी के जोर से गाडी चलती ै। गाडी के साथ पेड भी दौडत ेहदखायी देत े ैं। इस भांनत ककतनी ी बातें प्रताप ने अपनी भोली-भाली बोली में क ीं ववरजन धचत्र की भांनत चुपचाप बैठी सुन र ी थी। रेल पर व भी दो-तीन बार सवार ुई थी। परन्तु उसे आज तक य ज्ञात न था कक उसे ककसने बनाया और व क्यों कर चलती ै। दो बार उसने गुरुजी से य प्रश्न ककया भी था परन्तु उन् ोंने

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य ी क कर टाल हदया कक बच्चा, ईश्वर की मह मा कोई बडा भारी और बलवान घोडा ै, जो इतनी गाडडयों को सन-सन खींच ेसलए जाता ै। जब प्रताप चुप ुआ तो ववरजन ने वपता के गले ाथ डालकर क ा--बाबा। म भी प्रताप की ककताब पढ़ेंगे। मुंशी--बेटी, तुम तो संस्कृत पढ़ती ो, य तो भार्ा ै। ववरजन--तो मैं भी भार्ा ी पढंूगी। इसमें कैसी अच्छी-अच्छी क ाननयां ैं। मेरी ककताब में तो भी क ानी न ीं। क्यों बाबा, पढ़ना ककसे क ते ै ? मुंशी जी बंगले िांकने लगे। उन् ोंने आज तक आप ी कभी ध्यान न ी हदया था कक पढ़ना क्या वस्तु ै। अभी वे माथ ी खुजला र े थे कक प्रताप बोल उठा-- मुि ेपढ़त ेदेखा, उसी को पढ़ना क त े ैं। ववरजन-- क्या मैं न ीं पढ़ती? मेरे पढ़ने को पढ़ना न ीं क तें? ववरजन ससद्वान्त कौमुदी पढ़ र ी थी, प्रताप ने क ा--तुम तोत ेकी भांनत रटती ो। ***

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4. एकता का िम्बन्ध पुष्ट ह़ोता है

कुछ काल से सुवामा ने रव्याभाव के कारण म ाराष्जन, क ार और दो म ररयों को जवाब दे हदया था क्योंकक अब न तो उसकी कोई आवश्यकता थी और न उनका व्यय ी संभाले संभलता था। केवल एक बुहढ़या म री शेर् र गयी थी। ऊपर का काम-काज व करती रसोई सुवामा स्वयं बना लेगी। परन्तु उस बेचारी को ऐसे कहठन पररश्रम का अभ्यास तो कभी था न ीं, थोड े ी हदनों में उसे थकान के कारण रात को कुछ ज्वर र ने लगा। िीरे-िीरे य गनत ुई कक जब देखें ज्वर ववद्यमान ै। शरीर भुना जाता ै, न खाने की इच्छा ै न पीने की। ककसी काया में मन न ीं लगता। पर य ै कक सदैव ननयम के अनुसार काम ककये जाती ै। जब तक प्रताप घर र ता ै तब तक व मुखाकृनत को तननक भी मसलन न ीं ोने देती परन्तु ज्यों ी व स्कूल चला जाता ै, त्यों ी व चद्दर ओढ़कर पडी र ती ै और हदन-भर पड-ेपड ेकरा ा करती ै। प्रताप बुद्ववमान लडका था। माता की दशा प्रनतहदन त्रबगडती ुई देखकर ताड गया कक य बीमार ै। एक हदन स्कूल से लौटा तो सीिा अपने घर गया। बेटे को देखत े ी सुवामा ने उठ बठैने का प्रयत्न ककया पर ननबालता के कारण मूछाा आ गयी और ाथ-पांव अकड गये। प्रताप ने उसं संभाला और उसकी और भत्साना की दृष्ष्ट से देखकर क ा--अम्मा तुम आजकल बीमार ो क्या? इतनी दबुली क्यों ो गयी ो? देखो, तुम् ारा शरीर ककतना गमा ै। ाथ न ीं रखा जाता। सुवाम ने ंसने का उद्योग ककया। अपनी बीमारी का पररचय देकर बेटे को कैसे कष्ट दे? य नन:स्प ृ और नन:स्वाथा पे्रम की पराकाष्टा ै। स्वर को लका करके बोली न ीं बेटा बीमार तो न ीं ंू। आज कुछ ज्वर ो आया था, संध्या तक चंगी ो जाऊंगी। आलमारी में लुवा रखा ुआ ै ननकाल लो। न ीं, तुम आओ बैठो, मैं ी ननकाल देती ंू। प्रताप--माता, तुम मुि से ब ाना करती ो। तुम अवश्य बीमार ो। एक हदन में कोई इतना दबुाल ो जाता ै?

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सुवाता-- ( ंसकर) क्या तुम् ारे देखने में मैं दबुली ो गयी ंू। प्रताप-- मैं ड क्टर सा ब के पास जाता ंू। सुवामा-- (प्रताप का ाथ पकडकर) तुम क्या जानों कक वे क ां र त े ैं? प्रताप-- पूछत-ेपूछत ेचला जाऊंगा। सुवामा कुछ और क ना चा ती थी कक उसे किर चक्कर आ गया। उसकी आंखें पथरा गयीं। प्रताप उसकी य दशा देखत े ी डर गया। उससे और कुछ तो न ो सका, व दौडकर ववरजन के द्वार पर आया और खडा ोकर रोने लगा। प्रनतहदन व इस समय तक ववरजन के घर प ंुच जाता था। आज जो देर ुई तो व अकुलायी ुई इिर-उिर देख र ी थी। अकस्मात द्वार पर िांकने आयी, तो प्रताप को दोनों ाथों से मखु ढांके ुए देखा। प ले तो समिी कक इसने ंसी से मुख नछपा रखा ै। जब उसने ाथ टाये तो आंसू दीख पड।े चौंककर बोली-- लल्लू क्यों रोत े ो? बता दो। प्रताप ने कुछ उत्तर न हदया, वरन और सससकने लगा। ववरजन बोली-- न बताओगे! क्या चाची ने कुछ क ा ? जाओ, तुम चुप न ी ोत।े प्रताप ने क ा-- न ीं, ववरजन, मां ब ुत बीमार ै। य सुनत े ी वजृरानी दौडी और एक सांस में सुवामा के ससर ाने जा खडी ुई। देखा तो व सुन्न पडी ुई ै, आंखे मुंद ुई ैं और लम्बी सांसे ले र ी ैं। उनका ाथ थाम कर ववरजन खििंोडने लगी-- चाची, कैसी जी ै, आंखें खोलों, कैसा जी ै?

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परन्तु चाची ने आंखें न खोलीं। तब व ताक पर से तले उतारकर सुवाम के ससर पर िीरे-िीरे मलने लगी। उस बेचारी को ससर में म ीनों से तले डालने का अवसर न समला था, ठण्डक प ंुची तो आंखें खुल गयीं। ववरजन-- चाची, कैसा जी ै? क ीं ददा तो न ीं ै? सुवामा-- न ीं, बेटी ददा क ीं न ीं ै। अब मैं त्रबल्कुल अच्छी ंू। भैया क ां ैं? ववरजन--व तो मेरे घर ै, ब ुत रो र े ैं। सुवामा-- तुम जाओ, उसके साथ खेलों, अब मैं त्रबल्कुल अच्छी ंू। अभी ये बातें ो र ी थीं कक सुशीला का भी शुभागमन ुआ। उसे सुवाम से समलने की तो ब ुत हदनों से उत्कष्ठा थी, परन्तु कोई अवसर न समलता था। इस समय व सात्वना देने के ब ाने आ प ंुची।ववरजन ने अपन माता को देखा तो उछल पडी और ताली बजा-बजाकर क ने लगी-- मां आयी, मां आयी। दोनों स्त्रीयों में सशष्टाचार की बातें ोने लगीं। बातों-बातों में दीपक जल उठा। ककसी को ध्यान भी न ुआकक प्रताप क ां ै। थोड देर तक तो व द्वार पर खडा रोता र ा,किर िटपट आंखें पोंछकर ड क्टर ककचलू के घर की ओर लपकता ुआ चला। ड क्टर सा ब मुंशी शासलग्राम के समञों में से थे। और जब कभी का पडता, तो वे ी बुलाये जात ेथे। प्रताप को केवल इतना ववहदत था कक वे बरना नदी के ककनारे लाल बंगल में र त े ैं। उसे अब तक अपने मु ल्ले से बा र ननकलने का कभी अवसर न पडा था। परन्तु उस समय मात ृभक्ती के वेग से उद्ववग्न ोने के कारण उसे इन रुकावटों का कुछ भी ध्यान न ुआ। घर से ननकलकर बाजार में आया और एक इक्केवान से बोला--लाल बंगल चलोगे? लाल बंगला प्रसाद स्थान था। इक्कावान तैयार ो गया। आठ बजत-ेबजत ेड क्टर सा ब की किटन सुवामा के द्वार पर आ प ंुची। य ां इस समय चारों ओर उसकी खोज ो र ी थी कक अचानक व सवेग पैर बढ़ाता ुआ भीतर गया और बोला--पदाा करो। ड क्टर सा ब आत े ैं।

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सुवामा और सुशीला दोनों चौंक पडी। समि गयीं, य ड क्टर सा ब को बुलाने गया था। सुवामा ने पे्रमाधिक्य से उसे गोदी में बैठा सलया डर न ीं लगा? मको बताया भी न ीं यों ी चले गये? तुम खो जात ेतो मैं क्या करती? ऐसा लाल क ां पाती? य क कर उसने बेटे को बार-बार चूम सलया। प्रताप इतना प्रसन्न था, मानों परीक्षा में उत्तीणा ो गया। थोडी देर में पदाा ुआ और ड क्टर सा ब आये। उन् ोंने सुवामा की नाडी देखी और सांत्वना दी। व ेप्रताप को गोद में बैठाकर बातें करत ेर े। और्धिय साथ ले आये थे। उसे वपलाने की सम्मनत देकर नौ बजे बंगले को लौट गये। परन्तु जीणाज्वर था, अतएव पूरे मास-भर सुवामा को कडवी-कडवी और्धियां खानी पडी। ड क्टर सा ब दोनों वक्त आत ेऔर ऐसी कृपा और ध्यान रखत,े मानो सुवामा उनकी बह न ै। एक बार सुवाम ने डरते-डरत ेिीस के रुपये एक पात्र में रखकर सामने रखे। पर ड क्टर सा ब ने उन् ें ाथ तक न लगाया। केवल इतना क ा--इन् ें मेरी ओर से प्रताप को दे दीष्जएगा, व पैदल स्कूल जाता ै, पैरगाडी मोल ले लेगा। ववरजन और उनकी माता दोनों सुवामा की शुशू्रर्ा के सलए उपष्स्थत र तीं। माता चा े ववलम्ब भी कर जाए, परन्तु ववरजन व ां से एक क्षण के सलए भी न टलती। दवा वपलाती, पान देती जब सुवामा का जी अच्छा ोता तो व भोली-भोली बातों द्वारा उसका मन ब लाती। खेलना-कूदना सब छूट गया। जब सुवाम ब ुत ठ करती तो प्रताप के संग बाग में खेलन ेचली जाती। दीपक जलत े ी किर आ बैठती और जब तक ननरा के मारे िुक-िुक न पडती, व ां से उठने का नाम न लेती वरन प्राय: व ीं सो जाती, रात को नौकर गोद में उठाकर घर ले जाता। न जाने उसे कौन-सी िुन सवार ो गयी थी। एक हदन वजृरानी सुवामा के ससर ाने बैठी पंखा िल र ी थी। न जाने ककस ध्यान में मग्न थी। आंखें दीवार की ओर लगी ुई थीं। और ष्जस प्रकार वकृ्षों पर कौमुदी ल राती ै, उसी भांनत भीनी-भीनी मुस्कान उसके अिरों पर ल रा र ी थी। उसे कुछ भी ध्यान न था कक चाची मेरी और देख र ी ै। अचानक उसके ाथ से पंखा छूट गया। ज्यों ी व उसको उठाने के सलए िुकी कक सुवामा ने उसे गले लगा सलया। और पुचकार कर पूछा--ववरजन, सत्य क ो, तुम अभी क्या सोच र ी थी?

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ववरजन ने माथा िुका सलया और कुछ लष्ज्जत ोकर क ा-- कुछ न ीं, तुमको न बतलाऊंगी। सूवामा-- मेरी अच्छी ववरजन। बता तो क्या सोचती थी? ववरजन--(लजात े ुए) सोचती थी कक.....जाओ ंसो मत......न बतलाऊंगी। सुवामा--अच्छा ले, न सूंगी, बताओ। ले य ी तो अब अच्छा न ी लगता, किर मैं आंखें मूंद लूंगी। ववरजन--ककस से क ोगी तो न ीं? सुवामा-- न ीं, ककसी से न क ंूगी। ववरजन--सोचती थी कक जब प्रताप से मेरा वववा ो जायेगा, तब बड ेआनन्द से र ंूगी। सुवामा ने उसे छाती से लगा सलया और क ा-- बेटी, व तो तरेा भाई े। ववरजन-- ां भाई ै। मैं जान गई। तुम मुि ेब ू न बनाओगी। सुवामा-- आज लल्लू को आने दो, उससे पूछूाँ देखंू क्या क ता ै? ववरजन-- न ीं, न ीं, उनसे न क ना मैं तुम् ारे पैरों पडू।ं सुवामा-- मैं तो क दूंगी। ववरजन-- तुम् े मारी कसम, उनसे न क ना। ***

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5. सिष्ट-जीवन के दृश्य

हदन जात ेदेर न ीं लगती। दो वर्ा व्यतीत ो गये। पष्ण्डत मोटेराम ननत्य प्रात: काल आत और ससिान्त-कोमुदी पढ़ात,े परन्त अब उनका आना केवल ननयम पालने के ेतु ी था, क्योकक इस पुस्तक के पढ़न में अब ववरजन का जी न लगता था। एक हदन मुंशी जी इंजीननयर के दितर से आये। कमरे में बैठे थे। नौकर जूत का िीता खोल र ा था कक रधिया म र मुस्कराती ुई घर में से ननकली और उनके ाथ में मु छाप लगा ुआ सलिािा रख, मुं िेर ंसने लगी। ससरना पर सलखा ुआ था-श्रीमान बाबा सा की सेवा में प्राप्त ो। मुंशी--अरे, तू ककसका सलिािा ले आयी ? य मेरा न ीं ै। म री-- सरकार ी का तो ै, खोले तो आप। मुंशी--ककसने हदया। बोली-- आप खालेंगे तो पता चल जायेगा। मुंशी जी ने ववष्स्मत ोकर सलिािा खोला। उसमें से जो पत्र-ननकला उसमें य सलखा ुआ था-- बाबा को ववरजन का प्रमाण और पालागन प ंुच।े य ां आपकी कृपा से कुशल-मंगल ै आपका कुशल श्री ववश्वनाथजी से सदा मनाया करती ंू। मैंने प्रताप से भार्ा सीख ली। वे स्कूल से आकर संध्या को मुि ेननत्य पढ़ात े ैं। अब आप मारे सलए अच्छी-अच्छी पुस्तकें लाइए, क्योंकक पढ़ना ी जी का सुख ै और ववद्या अमूल्य वस्तु ै। वेद-पुराण में इसका म ात्मय सलखा ै। मनुर्य को चाह ए कक ववद्या-िन तन-मन से एकञ करे। ववद्या से सब दखु ो जात े ैं। मैंने कल बैताल-पचीस की क ानी चाची को सुनायी थी। उन् ोंने मुि ेएक सुन्दर गुडडया पुरस्कार में दी ै। ब ुत अच्छी ै। मैं उसका वववा करंुगी, तब आपसे रुपये लूंगी। मैं अब पष्ण्डतजी से न पढंूगी। मां न ीं जानती कक मैं भार्ा पढ़ती ंू।

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आपकी प्यारी ववरजन प्रशष्स्त देखत े ी मुंशी जी के अन्त: करण में गुदगुद ोने लगी।किर तो उन् ोंने एक ी सांस में भारी धचट्रठी पढ़ डाली। मारे आनन्द के ंसत े ुए नंगे-पांव भीतर दौड।े प्रताप को गोद में उठा सलया और किर दोनों बच्चों का ाथ पकड े ुए सुशीला के पास गये। उसे धचट्रठी हदखाकर क ा--बूिो ककसी धचट्ठी ै? सुशीला--लाओ, ाथ में दो, देखंू। मुंशी जी--न ीं, व ीं से बैठी--बैठी बताओ जल्दी। सुशीला—बूि जाऊं तो क्या दोगे? मुंशी जी--पचास रुपये, दिू के िोये ुए। सुशीला-- पह ले रुपये ननकालकर रख दो, न ीं तो मुकर जाओगे। मुंशी जी-- मुकरने वाले को कुछ क ता ंू, अभी रुपये लो। ऐसा कोई टुटपुाँष्जया समि सलया ै? य क कर दस रुपये का एक नोट जेसे ननकालकर हदखाया। सुशीला-- ककतने का नोट ै? मुंशीजी-- पचास रुपये का, ाथ से लेकर देख लो। सुशीला-- ले लूंगी, क े देती ंू। मुंशीजी-- ााँ- ााँ, ले लेना, प ले बता तो स ी।

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सुशीला-- लल्लू का ै लाइये नोट, अब मैं न मानंूगी। य क कर उठी और मुंशीजी का ाथ थाम सलया। मुंशीजी-- ऐसा क्या डकैती ै? नोट छीने लेती ो। सुशीला-- वचन न ीं हदया था? अभी से ववचलने लगे। मुंशीजी-- तुमने बूिा भी, सवाथा भ्रम में पड गयीं। सुशीला-- चलो-चलो, ब ाना करत े ो, नोट डपन की इच्छा ै। क्यों लल्ल,ू तुम् ारी ी धचट्ठी ै न? प्रताप नीची दृष्ष्ट से मुंशीजी की ओर देखकर िीरे-से बोला--मैंने क ां सलखी? मुंशीजी-- लजाओ, लजाओ। सुशीला-- व िूठ बोलता ै। उसी की धचट्ठी ै, तुम लोग गाँठकर आये ो। प्रताप--मेरी धचट्ठी न ीं ै, सच। ववरजन ने सलखी ै। सुशीला चककत ोकर बोली-- ववजरन की? किर उसने दौडकर पनत के ाथ से धचट्ठी छीन ली और भौंचक्की ोकर उसे देखने लगी, परन्तु अब भी ववश्वास आया।ववरजन से पूछा-- क्यें बेटी, य तुम् ारी सलखी ै? ववरजन ने ससर िुकाकर क ा-- ां। य सुनत े ी माता ने उसे कंठ से लगा सलया। अब आज से ववरजन की य दशा ो गयी कक जब देखखए लेखनी सलए ुए पन्ने काले कर र ी ै। घर के िन्िों से तो उस प ले ी कुछ प्रयोज न था, सलखने का आना सोने में सो ागा ो गया। माता उसकी तल्लीनता देख-देखकर प्रमुहदत ोती वपता र्ा से िूला न समाता, ननत्य नवीन पुस्तकें लाता कक

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ववरजन सयानी ोगी, तो पढे़गी। यहद कभी व अपने पांव िो लेती, या भोजन करके अपने ी ाथ िोने लगती तो माता म ररयों पर ब ुत कुर ोती-आंखें िूट गयी ै। चबी छा गई ै। व अपने ाथ से पानी उंडले र ी ै और तुम खडी मुं ताकती ो। इसी प्रकार काल बीतता चला गया, ववरजन का बार वां वर्ा पूणा ुआ, परन्तु अभी तक उसे चावल उबालना तक न आता था। चूल् े के सामने बैठन का कभी अवसर ी न आया। सुवामा ने एक हदन उसकी माता ने क ा-- बह न ववरजन सयानी ुई, क्या कुछ गुन-ढंग ससखाओगी। सुशीला--क्या क ंू, जी तो चा ता ै कक लग्गा लगाऊं परन्तु कुछ सोचकर रुक जाती ंू। सुवामा--क्या सोचकर रुक जाती ो ? सुशीला--कुछ न ीं आलस आ जाता ै। सुवामा--तो य काम मुि ेसौंप दो। भोजन बनाना ष्स्त्रयों के सलए सबसे आवश्यक बात ै। सुशीला--अभी चूल् े के सामन उससे बैठा न जायेगा। सुवामा--काम करने से ी आता ै। सुशीला--(िेंपत े ुए) िूल-से गाल कुम् ला जायेंगे। सुवामा-- ( ंसकर) त्रबना िूल के मुरिाये क ीं िल लगत े ैं? दसूरे हदन से ववरजन भोजन बनाने लगी। प ले दस-पााँच हदन उसे चूल् े के सामने बैठने में बडा कष्ट ुआ। आग न जलती, िंूकने लगती तो नेञों से जल ब ता। वे बूटी की भांनत लाल ो जात।े धचनगाररयों से कई रेशमी साडडयां सत्यानाथ ो गयीं। ाथों में छाले पड गये। परन्तु क्रमश: सारे क्लेश दरू ो

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गये। सुवामा ऐसी सुशीला स्ञी थी कक कभी रुष्ट न ोती, प्रनतहदन उसे पुचकारकर काम में लगाय र ती। अभी ववरजन को भोजन बनात ेदो मास से अधिक न ुए ोंगे कक एक हदन उसने प्रताप से क ा-- लल्ल,ूमुि ेभोजन बनाना आ गया। प्रताप--सच। ववरजन--कल चाची ने मेरा बनाया भोजन ककया था। ब ुत प्रसन्न ुए। प्रताप--तो भई, एक हदन मुि ेभी नेवता दो। ववरजन ने प्रसन्न ोकर क ा--अच्छा,कल। दसूरे हदन नौ बजे ववरजन ने प्रताप को भोजन करने के सलए बुलाया। उसने जाकर देखा तो चौका लगा ुआ ै। नवीन समट्टी की मीठी-मीठी सुगन्ि आ र ी ै। आसन स्वच्छता से त्रबछा ुआ ै। एक थाली में चावल और चपानतयााँ ैं। दाल और तरकाररय ॉँ अलग-अलग कटोररयों में रखी ुई ैं। लोटा और धगलास पानी से भरे ुए रखे ैं। य स्वच्छता और ढंग देखकर प्रताप सीिा मुंशी संजीवनलाल के पास गया और उन् ें लाकर चौके के सामने खडा कर हदया। मुंशीजी खुशी से उछल पड।े चट कपड ेउतार, ाथ-पैर िो प्रताप के साथ चौके में जा बैठे। बेचारी ववरजन क्या जानती थी कक म ाशय भी त्रबना बुलाये पा ुने ो जायेंगे। उसने केवल प्रताप के सलए भोजन बनाया था। व उस हदन ब ुत लजायी और दबी ऑखंों से माता की ओर देखने लगी। सुशीला ताड गयी। मुस्कराकर मुंशीजी से बोली--तुम् ारे सलए अलग भोजन बना ै। लडकों के बीच में क्या जाके कूद पड?े वजृरानी ने लजात े ुए दो थासलयों में थोडा-थोडा भोजन परोसा। मुंशीजी--ववरजन ने चपानतयााँ अच्छी बनायी ैं। नमा, श्वेत और मीठी। प्रताप--मैंने ऐसी चपानतय ॉँ कभी न ीं खायीं। सालन ब ुत स्वाहदष्ट ै।

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‘ववरजन ! चाचा को शोरवेदार आलू दो,’ य क कर प्रताप ाँसने लगा। ववरजन ने लजाकर ससर नीच ेकर सलया। पतीली शुष्क ो र ी थी। सुशीली--(पनत से) अब उठोगे भी, सारी रसोई चट कर गये, तो भी अड ेबैठे ो! मुंशीजी--क्या तुम् ारी राल टपक र ी ै? ननदान दोनों रसोई की इनतश्री करके उठे। मुंशीजी ने उसी समय एक मो र ननकालकर ववरजन को पुरस्कार में दी। ***

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6. डिप्टी श्यामाचरण

डडप्टी श्यामाचरण की िाक सारे नगर में छायी ई थी। नगर में कोई ऐसा ाककम न था ष्जसकी लोग इतनी प्रनतष्ठा करत े ों। इसका कारण कुछ तो य था कक वे स्वभाव के समलनसार और स नशील थे और कुछ य कक ररश्वत से उन् ें बडी घणृा थी। न्याय-ववचार ऐसी सूक्ष्मता से करत ेथे कक दस-बा र वर्ा के भीतर कदाधचत उनके दो- ी चार िैसलों की अपील ुई ोगी। अंगे्रजी का एक अक्षर न जानत ेथे, परन्तु बैरष्स्टरों और वकीलों को भी उनकी नैनतक प ंुच और सूक्ष्मदसशाता पर आश्चया ोता था। स्वभाव में स्वािीनता कूट-कूट भरी थी। घर और न्यायालय के अनतररक्त ककसी ने उन् ें और क ीं आते-जात ेन ीं देखा। मुशीं शासलग्राम जब तक जीववत थे, या यों कह ए कक वतामान थे, तब तक कभी-कभी धचतववनोदाथा उनके य चले जात ेथे। जब वे लप्त ो गये, डडप्टी सा ब ने घर छोडकर ह लने की शपथ कर ली। कई वर्ा ुए एक बार कलक्टर सा ब को सलाम करने गये थे खानसामा ने क ा-- सा ब स्नान कर र े ैं दो घंटे तक बरामदे में एक मोढे पर बैठे प्रतीक्षा करत ेर े। तदनन्तर सा ब ब ादरु ाथ में एक टेननस बैट सलये ुए ननकले और बोले--बाबू सा ब, मको खेद ै कक आपको ामारी बाट देखनी पडी। मुि ेआज अवकाश न ीं ै। क्लब-घर जाना ै। आप किर कभी आवें। य सुनकर उन् ोंने सा ब ब ादरु को सलाम ककया और इतनी-सी बात पर किर ककसी अंगे्रजी की भेंट को न गये। वंश, प्रनतष्ठा और आत्म-गौरव पर उन् ें बडा असभमान था। वे बड े ी रससक पुरूर् थे। उनकी बातें ास्य से पूणा ोती थीं। संध्या के समय जब वे कनतपय ववसशष्ट समत्रों के साथ द्वारांगण में बैठते, तो उनके उच्च ास्य की गूंजती ुई प्रनतध्वनन वाहटका से सुनायी देती थी। नौकरो-चाकरों से वे ब ुत सरल व्यव ार रखत ेथे, य ां तक कक उनके संग अलाव के बेठने में भी उनको कुछ संकोच न था। परन्तु उनकी िाक ऐसी छाई ुई थी कक उनकी इस सजनता से ककसी को अनूधचत लाभ उठाने का सा स न ोता था। चाल-ढाल सामान्य रखत ेथे। कोट-पतलून से उन् ें घणृा थी। बटनदार ऊाँ ची अचकन, उस पर एक रेशमी काम की अबा, काला ष्श्मला, ढीला पाजामा और हदल्लीवाला नोकदार जूता उनकी मुख्य पोशाक थी। उनके द ुरे शरीर, गुलाबी च ेरे और मध्यम डील पर ष्जतनी य पोशाक शोभा देती थी, उनकी कोट-

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पतलून से सम्भव न थी। यद्यवप उनकी िाक सारे नगर-भर में िैली ई थी, तथावप अपने घर के मण्डलान्तगता उनकी एक न चलती थी। य ां उनकी सुयोग्य अद्वांधगनी का साम्राज्य था। वे अपने अधिकृत प्रान्त में स्वच्छन्दतापूवाक शासन करती थी। कई वर्ा व्यतीत ुए डडप्टी सा ब ने उनकी इच्छा के ववरूद्व एक म राष्जन नौकर रख ली थी। म राष्जन कुछ रंगीली थी। पे्रमवती अपने पनत की इस अनुधचत कृनत पर ऐसी रूष्ट ुई कक कई सप्ता तक कोपभवन में बैठी र ी। ननदान वववश ोकर सा ब ने म राष्जन को ववदा कर हदया। तब से उन् ें किर कभी ग ृस्थी के व्यव ार में स्तक्षेप करने का सा स न ुआ। मुंशीजी के दो बेटे और एक बेटी थी। बडा लडका सािाचरण गत वर्ा डडग्री प्राप्त करके इस समय रूडकी कालेज में पढाता था। उसका वववा ित पुर-सीकरी के एक रईस के य ां आ था। मंिली लडकी का नाम सेवती था। उसका भी वववा प्रयाग के एक िनी घराने में ुआ था। छोटा लडका कमलाचरण अभी तक अवववाह त था। पे्रमवती ने बचपन से ी लाड-प्यार करके उसे ऐसा त्रबगाड हदया था कक उसका मन पढने-सलखने में तननक भी न ीं लगता था। पन्र वर्ा का ो चुका था, पर अभी तक सीिा-सा पत्र भी न सलख सकता था। इससलए व ां से भी व उठा सलया गया। तब एक मास्टर सा ब ननयुक्त ुए और तीन म ीने र े परन्तु इतने हदनों में कमलाचरण ने कहठनता से तीन पाठ पढे ोंगें। ननदान मास्टर सा ब भी ववदा ो गये। तब डडप्टी सा ब ने स्वयं पढाना ननष्श्चत ककया। परन्तु एक ी सप्ता में उन् ें कई बार कमला का ससर ह लाने की आवश्यकता प्रतीत ुई। साक्षक्षयों के बयान और वकीलों की सूक्ष्म आलोचनाओं के तत्व को समिना कहठन न ीं ै, ष्जतना ककसी ननरूत्सा ी लडके के यमन में सशक्षा-रूधचत उत्पन्न करना ै। पे्रमवती ने इस मारिाड पर ऐसा उत्पात मचाया कक अन्त में डडप्टी सा ब ने भी िल्लाकर पढाना छोड हदया। कमला कुछ ऐसा रूपवान, सुकुमार और मिुरभार्ी था कक माता उसे सब लडकों से अधिक चा ती थी। इस अनुधचत लाड-प्यार ने उसे पंतंग, कबूतरबाजी और इसी प्रकार के अन्य कुव्यसनों का पे्रमी बना हदया था। सबरे आ और कबूतर उडाये जाने लगे, बटेरों के जोड छूटने लगे, संध्या ई और पंतग के लम्बे-लम्बे पेच ोने लगे। कुछ हदनों में जुए का भी चस्का पड चला था। दपणा, कंघी और इत्र-तले में तो मानों उसके प्राण ी बसत ेथे।

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पे्रमवती एक हदन सुवामा से समलने गयी ुई थी। व ां उसने वजृरानी को देखा और उसी हदन से उसका जी ललचाया आ था कक व ब ू बनकर मेरे घर में आये, तो घर का भाग्य जाग उठे। उसने सुशीला पर अपना य भाव प्रगट ककया। ववरजन का तरे ॅवा आरम्भ ो चुका था। पनत-पत्नी में वववा के सम्बन्ि में बातचीत ो र ी थी। पे्रमवती की इच्छा पाकर दोनों िूले न समाये। एक तो पररधचत पररवार, दसूरे कलीन लडका, बूद्ववमान और सशक्षक्षत, पैतकृ सम्पनत अधिक। यहद इनमें नाता ो जाए तो क्या पूछना। चटपट रीनत के अनुसार संदेश क ला भेजा। इस प्रकार संयोग ने आज उस ववर्ैले वकृ्ष का बीज बोया, ष्जसने तीन ी वर्ा में कुल का सवानाश कर हदया। भववष्य मारी दृष्ष्ट से कैसा गपु्त र ता ै ? ज्यों ी संदेशा प ंुचा, सास, ननद और ब ू में बातें ोने लगी। ब ू(चन्रा)--- क्यों अम्मा। क्या आप इसी साल ब्या करेंगी ? पे्रमवती-- और क्या, तुम् ारे लालाली के मानने की देर ै। ब ू-- कूछ नतलक-द ेज भी ठ रा पे्रमवती-- नतलक-द ेज ऐसी लडककयों के सलए न ीं ठ राया जाता। जब तुला पर लडकी लडके के बराबर न ीं ठ रती,तभी द ेज का पासंग बनाकर उसे बराबर कर देत े ैं। मारी वजृरानी कमला से ब ुत भारी ै। सेवती-- कुछ हदनों घर में खूब िूमिाम र ेगी। भाभी गीत गायेंगी। म ढोल बजायेंगें। क्यों भाभी ? चन्रा-- मुि ेनाचना गाना न ीं आता।

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चन्रा का स्वर कुछ भद्दा था, जब गाती, स्वर-भंग ो जाता था। इससलए उसे गाने से धचढ थी। सेवती-- य तो तुम आप ी करो। तुम् ारे गाने की तो संसार में िूम ै। चन्रा जल गयी, तीखी ोकर बोली-- ष्जसे नाच-गाकर दसूरों को लुभाना ो, व नाचना-गाना सीखे। सेवती-- तुम तो तननक-सी ंसी में रूठ जाती ो। जरा व गीत गाओं तो—तुम तो श्याम बड ेबेखबर ो’। इस समय सुनने को ब ुत जी चा ता ै। म ीनों से तुम् ारा गाना न ीं सुना। चन्रा-- तुम् ी गाओ, कोयल की तर कूकती ो। सेवती-- लो, अब तुम् ारी य ी चाल अच्छी न ीं लगती। मेरी अच्छी भाभी, तननक गाओं। चन्रा-- मैं इस समय न गाऊंगी। क्यों मुि ेकोई डोमनी समि सलया ै ? सेवती-- मैं तो त्रबन गीत सुने आज तुम् ारा पीछा न छोडूगंी। सेवती का स्वर परम सुरीला और धचताकर्ाक था। रूप और आकृनत भी मनो र, कुन्दन वणा और रसीली आंखें। प्याली रंग की साडी उस पर खूब खखल र ी थी। व आप- ी-आप गुनगुनाने लगी: तुम तो श्याम बड ेबेखबर ो...तुम तो श्याम। आप तो श्याम पीयो दिू के कुल् ड, मेरी तो पानी प ैगुजर-पानी पै गुजर ो। तुम तो श्याम... दिू के कुल् ड पर व ंस पडी। पे्रमवती भी मुस्करायी, परन्तु चन्रा रूष्ट ो गयी। बोली –त्रबना ंसी की ंसी में न ीं आती। इसमें ंसने की क्या बात ै ?

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सेवती-- आओ, म तुम समलकर गायें। चन्रा-- कोयल और कौए का क्या साथ ? सेती-- क्रोि तो तुम् ारी नाक पर र ता ै। चन्रा-- तो में क्यों छेडती ो ? में गाना न ीं आता, तो कोई तुमसे ननन्दा करने तो न ीं जाता। ‘कोई’ का संकेत रािाचरण की ओर था। चन्रा में चा े और गुण न ों, परन्तु पनत की सेवा व तन-मन से करती थी। उसका तननक भी ससर िमका कक इसके प्राण ननकला। उनको घर आने में तननक देर ुई कक व व्याकुल ोने लगी। जब से वे रूडकी चले गये, तब से चन्रा यका ॅसना-बोलना सब छूट गया था। उसका ववनोद उनके संग चला गया था। इन् ीं कारणों से रािाचरण को स्त्री का वशीभूत बना हदया था। पे्रम, रूप-गुण, आहद सब त्रुहटयों का पूरक ै। सेवती-- ननन्दा क्यों करेगा, ‘कोई’ तो तन-मन से तुम पर रीिा ुआ ै। चन्रा-- इिर कई हदनों से धचट्ठी न ीं आयी। सेवती-- तीन-चार हदन ुए ोंगे। चन्रा-- तुमसे तो ाथ-पैर जोड कर ार गयी। तुम सलखती ी न ीं। सेवती-- अब वे ी बातें प्रनतहदन कौन सलखे, कोई नयी बात ो तो सलखने को जी भी चा े। चन्रा-- आज वववा के समाचार सलख देना। लाऊं कलम-दवात ? सेवती-- परन्तु एक शता पर सलखंूगी।

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चन्रा-- बताओं। सेवती-- तुम् ें श्यामवाला गीत गाना पडगेा। चन्रा-- अच्छा गा दूंगी। ॅसने को जी चा ता ै न? ॅस लेना। सेवती-- प ले गा दो तो सलखंू। चन्रा-- न सलखोगी। किर बातें बनाने लगोगी। सेवती-- तुम् ारी शपथ, सलख दूंगी, गाओ। चन्रा गाने लगी-- तुम तो श्याम बड ेबेखबर ो। तुम तो श्याम पीयो दिू के कूल् ड, मेरी तो पानी प ैगुजर पानी पे गुजर ो। तुम तो श्याम बड ेबेखबर ो। अष्न्तम शब्द कुछ ऐसे बेसुरे ननकले कक ॅसी को रोकना कहठन ो गया। सेवती ने ब ुत रोका पर न रुक सकी। ॅसत-े ॅसत ेपेट में बल पड गया। चन्रा ने दसूरा पद गाया: आप तो श्याम रक्खो दो-दो लगुइयााँ, मेरी तो आपी पै नजर आपी पै नजर ो। तुम तो श्याम.... ‘लुगइयााँ’ पर सेवती ाँसत-े ाँसत ेलोट गयी। चन्रा ने सजल नेत्र ोकर क ा-अब तो ब ुत ॅस चुकीं। लाऊाँ कागज? सेवती-न ीं, न ीं, अभी तननक ाँस लेने दो।

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सेवती ॅस र ी थी कक बाबू कमलाचरण का बा र से शुभागमन ुआ, पन्र सोल वर्ा की आयु थी। गोरा-गोरा गे ंुआ रंग। छर रा शरीर, ॅसमुख, भडकीले वस्त्रों से शरीर को अलंकृत ककये, इत्र में बसे, नेत्रो में सुरमा, अिर पर मुस्कान और ाथ में बुलबुल सलये आकर चारपाई पर बैठ गये। सेवती बोली-- कमलू। मुं मीठा कराओं, तो तुम् ें ऐसे शुभ समाचार सुनायें कक सुनत े ी िडक उठो। कमला-- मुं तो तुम् ारा आज अवश्य ी मीठा ोगा। चा े शुभ समाचार सुनाओं, चा े न सुनाओं। आज इस पठे ने य ववजय प्राप्त की ै कक लोग दंग र गये। य क कर कमलाचरण ने बुलबुल को अंगूठे पर त्रबठा सलया। सेवती-मेरी खबर सुनत े ी नाचने लगोगे। कमला-तो अच्छा ै कक आप न सुनाइए। मैं तो आज यों ी नाच र ा ंू। इस पठे ने आज नाक रख ली। सारा नगर दंग र गया। नवाब मुन्नेखां ब ुत हदनों से मेरी आंखों में चढे़ ुए थे। एक पास ोता ै, मैं उिर से ननकला, तो आप क ने लगे-समय , कोई पठा तैयार ो तो लाओं, दो-दो चौंच ो जायें। य क कर आपने अपना पुराना बुलबुल हदखाया। मैने क ा- कृपाननिान। अभी तो न ीं। परन्तु एक मास में यहद ईश्वर चा ेगा तो आपसे अवश्य एक जोड ोगी, और बद-बद कर आज। आगा शेरअली के अखाड ेमें बदान ी ठ री। पचाय-पचास रूपये की बाजी थी। लाखों मनुष्य जमा थे। उनका पुराना बलुबुल, ववश्वास मानों सेवती, कबूतर के बराबर था। परन्तु व भी केवल िूला ुआ न था। सारे नगर के बुलबुलो को पराष्जत ककये बैठा था। बलपूवका लात चलायी। इसने बार-बार नचाया और किर िपटकर उसकी चोटी दबायी। उसने किर चोट की। य नीच ेआया। चतुहदाक कोला ल मच गया- मार सलया मार सलया। तब तो मुि ेभी क्रोि आया डपटकर जो ललकारता ंू तो य ऊपर और व नीच ेदबा आ ै। किर तो उसने ककतना ी ससर पटका कक ऊपर आ जाए, परन्तु इस शेयर ने ऐसा दाबा कक ससर न उठाने हदया। नबाब सा ब स्वयं उपष्स्थत थे। ब ुत धचल्लाये, पर क्या ो सकता ै ? इसने उसे ऐसा दबोचा था जैसे बाज धचडडया

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को। आखखर बगटुट भागा। इसने पानी के उस पार तक पीछा ककया, पर न पा सका। लोग ववस्मय से दंग ो गये। नवाब सा ब का तो मखु मसलन ो गया। वाइय उडने लगीं। रूपये ारने की तो उन् ें कुछ धचनं्ता न ीं, क्योंकक लाखों की आय ै। परन्तु नगर में जो उनकी िाक जमी ुई थी, व जाती र ी। रोत े ुए घर को ससिारे। सुनता ंू, य ां से जात े ी उन् ोंने अपने बुलबुल को जीववत ी गाड हदया। य क कर कमलाचरण ने जेब खनखनायी। सेवती--तो किर खड ेक्या कर र े ो ? आगरे वाले की दकुान पर आदमी भेजो। कमला--तुम् ारे सलए क्या लाऊं, भाभी ? सेवती--दिू के कुल् ड। कमला--और भैया के सलए ? सेवती--दो-दो लुगइय । य क कर दोनों ठ का मारकर ॅसने लगे। ***

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7. ननठुरता और पे्रम

सुवामा तन-मन से वववा की तैयाररयां करने लगीं। भोर से संध्या तक वववा के ी िन्िों में उलिी र ती। सुशीला चरेी की भांनत उसकी आज्ञा का पालन ककया करती। मुंशी संजीवनलाल प्रात:काल से सांि तक ाट की िूल छानत ेर त।े और ववरजन ष्जसके सलए य सब तैयाररयां ो र ी थी, अपने कमरे में बैठी ुई रात-हदन रोया करती। ककसी को इतना अवकाश न था कक क्षण-भर के सलए उसका मन ब लाये। य तक कक प्रताप भी अब उसे ननठुर जान पडता था। प्रताप कामन भी इन हदनों ब ुत ी मसलन ो गया था। सबेरे का ननकला ुआ स ि को घर आता और अपनी मुंडरे पर चुपचाप जा बैठता। ववरजन के घर जाने की तो उसने शपथ-सी कर ली थी। वरन जब कभी व आती ुई हदखई देती, तो चुपके से सरक जाता। यहद क ने-सुनने से बैठता भी तो इस भांनत मुख िेर लेता और रूखाई का व्यव ार करता कक ववरजन रोने लगती और सुवामा से क ती-- चाची, लल्लू मुिसे रूष्ट ै, मैं बुलाती ंू, तो न ीं बोलत।े तुम चलकर मना दो। य क कर व मचल जाती और सुवामा का ऑचल पकडकर खींचती ुई प्रताप के घर लाती। परन्तु प्रताप दोनों को देखत े ी ननकल भाग्ता। वजृरानी द्वार तक य क ती ुई आती कक-- लल्लू तननक सुन लो, तननक सुन लो, तुम् ें मारी शपथ, तननक सुन लो। पर जब व न सुनता और न मुं िेरकर देखता ी तो बेचारी लडकी पथृ्वी पर बठै जाती और भली-भ ती िूट-िूटकर रोती और क ती--य मुिसे क्यों रूठे ुए ै ? मैने तो इन् ें कभी कुछ न ीं क ा। सुवामा उसे छाती से लगा लेती और समिाती-बेटा। जाने दो, लल्लू पागल ो गया ै। उसे अपने पुत्र की ननठुरता का भेद कुछ-कुछ ज्ञात ो चला था। ननदान वववा को केवल पांच हदन र गये। नातदेार और सम्बन्िी लोग दरू तथा समीप से आने लगे। ऑगन में सुन्दर मण्डप छा गया। ाथ में कंगन बॅि गये। य कच्च ेघागे का कंगन पववत्र िमा की थकडी ै, जो कभी ाथ से न ननकलेगी और मंण्डप उस पे्रम और कृपा की छाया का स्मारक ै, जो जीवनपयान्त ससर से न उठेगी। आज संध्या को सुवामा, सुशीला, म ाराष्जनें सब-की-सब समलकर देवी की पूजा करने को गयीं। म ररयां अपने िंिों में लगी ुई थी। ववरजन व्याकुल ोकर अपने घर में से ननकली और प्रताप के घर आ

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प ंुची। चतुहदाक सन्नाटा छाया ुआ था। केवल प्रताप के कमरे में िंुिला प्रकाश िलक र ा था। ववरजन कमरे में आयी, तो क्या देखती ै कक मेज पर लालटेन जल र ी ै और प्रताप एक चारपाई पर सो र ा ै। िंुिले उजाले में उसका बदन कुम् लाया और मसलन नजर आता ै। वस्तुऍ सब इिर-उिर बेढंग पडी ुई ै। जमीन पर मानों िूल चढ़ी ुई ै। पुस्तकें िैली ुई ै। ऐसा जान पडता ै मानों इस कमरे को ककसी ने म ीनों से न ीं खोला। व ी प्रताप ै, जो स्वच्छता को प्राण-वप्रय समिता था। ववरजन ने चा ा उसे जगा दूं। पर कुछ सोचकर भूसम से पुस्तकें उठा-उठा कर आल्मारी में रखने लगी। मेज पर से िूल िाडी, धचत्रों पर से गदा का परदा उठा सलया। अचानक प्रतान ने करवट ली और उनके मुख से य वाक्य ननकला-- ‘ववरजन। मैं तुम् ें भूल न ीं सकता’’। किर थोडी देर पश्चात-‘ववरजन’। क ां जाती ो, य ी बैठो ? किर करवट बदलकर-‘न बैठोगी’’? अच्छा जाओं मैं भी तुमसे न बोलूंगा। किर कुछ ठ रकर-अच्छा जाओं, देखें क ां जाती ै। य क कर व लपका, जैसे ककसी भागत े ुए मनुष्य को पकडता ो। ववरजन का ाथ उसके ाथ में आ गया। उसके साथ ी ऑखें खुल गयीं। एक समनट तक उसकी भाव-शून्य दृवर्ट ववरजन के मुख की ओर गडी र ी। किर अचानक उठ बैठा और ववरजन का ाथ छोडकर बोला-तुम कब आयीं, ववरजन ? मैं अभी तुम् ारा ी स्वप्न देख र ा था। ववरजन ने बोलना चा ा, परन्तु कण्ठ रंूि गया और आंखें भर आयीं। प्रताप ने इिर-उिर देखकर किर क ा--क्या य सब तुमने साि ककया ?तुम् ें बडा कष्ट ुआ। ववरजन ने इसका भी उतर न हदया। प्रताप--ववरजन, तुम मुि ेभूल क्यों न ीं जातीं ? ववरजन ने आर नेत्रों से देखकर क ा--क्या तुम मुि ेभूल गये ? प्रतान ने लष्ज्जत ोकर मस्तक नीचा कर सलया। थोडी देर तक दोनों भावों से भरे भूसम की ओर ताकत ेर े। किर ववरजन ने पूछा--तुम मिुसे क्यों रूष्ट ो? मैने कोई अपराि ककया ै? प्रताप--न जाने क्यों अब तुम् ें देखता ंू, तो जी चा ता ै कक क ीं चला जाऊं।

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ववरजन--क्या तुमको मेरी तननक भी मो न ीं लगती ? मैं हदन-भर रोया करती ंू। तुम् ें मुि पर दया न ीं आती ? तुम मुिसे बोलत ेतक न ीं। बतलाओं मैने तुम् ें क्या क ा जो तुम रूठ गये ? प्रताप--मैं तुमसे रूठा थोड े ी ंू। ववरजन--तो मुिसे बोलत ेक्यों न ीं। प्रताप--मैं चा ता ंू कक तुम् ें भूल जाऊं। तुम िनवान ो, तुम् ारे माता-वपता िनी ैं, मैं अनाथ ंू। मेरा तुम् ारा क्या साथ ? ववरजन--अब तक तो तुमने कभी य ब ाना न ननकाला था, क्या अब मैं अधिक िनवान ो गयी ? य क कर ववरजन रोने लगी। प्रताप भी रववत ुआ, बोला--ववरजन। मारा तुम् ारा ब ुत हदनों तक साथ र ा। अब ववयोग के हदन आ गये। थोड ेहदनों में तुम य वालों को छोडकर अपने सुसुराल चली जाओगी। इससलए मैं भी ब ुत चा ता ंू कक तुम् ें भूल जाऊं। परन्तु ककतना ी चा ता ंू कक तुम् ारी बातें स्मरण में न आये, वे न ीं मानतीं। अभी सोते-सोत ेतुम् ारा ी स्वस्पन देख र ा था। ***

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8. िखियााँ डडप्टी श्यामाचरण का भवन आज सुन्दररयों के जमघट से इन्र का अखाडा बना ुआ था। सेवती की चार स ेसलय -रूष्क्मणी, सीता, रामदैई और चन्रकंुवर-सोल ों ससगंार ककये इठलाती किरती थी। डडप्टी सा ब की बह न जानकी कंुवर भी अपनी दो लडककयों के साथ इटावे से आ गयी थीं। इन दोनों का नाम कमला और उमादेवी था। कमला का वववा ो चुका था। उमादेवी अभी कंुवारी ी थी। दोनों सूया और चन्र थी। मंडप के तले डौमननयां और गवनन ाररने सो र और सो ाग, अलाप र ी थी। गुलत्रबया नाइन और जमनी क ाररन दोनों चटकीली साडडय पह ने, मांग ससदंरू से भरवाये, धगलट के कड ेपह ने छम-छम करती किरती थीं। गुलत्रबया चपला नवयौवना थी। जमुना की अवस्था ढल चुकी थी। सेवती का क्या पूछना? आज उसकी अनोखी छटा थी। रसीली आंखें आमोदाधिक्य से मतवाली ो र ी थीं और गुलाबी साडी की िलक से चम्पई रंग गुलाबी जान पडता था। िानी मखमल की कुरती उस पर खूब खखलती थी। अभी स्नान करके आयी थी, इससलए नाधगन-सी लट कंिों पर ल रा र ी थी। छेडछाड और चु ल से इतना अवकाश न समलता था कक बाल गुंथवा ले। म राष्जन की बेटी मािवी छींट का लॅ गा प ने, ऑखों में काजल लगाये, भीतर-बा र ककये ुए थी। रूष्क्मणी ने सेवती से क ा--ससतो। तुम् ारी भावज क ै ? हदखायी न ीं देती। क्या म लोगों से भी पदाा ै ? रामदेई--(मुस्कराकर)परदा क्यों न ीं ै ? मारी नजर न लग जायगी? सेवती--कमरे में पडी सो र ी ोंगी। देखों अभी खींच ेलाती ंू। य क कर व चन्रमा से कमरे में प ंुची। व एक सािारण साडी प ने चारपाई पर पडी द्वार की ओर टकटकी लगाये ुए थी। इसे देखत े ी उठ बैठी। सेवती ने क ा--य क्या पडी ो, अकेले तुम् ारा जी न ीं घबराता?

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चन्रा--उं , कौन जाए, अभी कपड ेन ीं बदले। सेवती--बदलती क्यों न ीं ? सखखय तुम् ारी बाट देख र ी ैं। चन्रा--अभी मैं न बदलूंगी। सेवती--य ी ठ तुम् ारा अच्छा न ीं लगता। सब अपने मन में क्या क ती ोंगी ? चन्रा--तुमने तो धचटठी पढी थी, आज ी आने को सलखा था न ? सेवती--अच्छा,तो य उनकी प्रतीक्षा ो र ी ै, य कह ये तभी योग सािा ै। चन्रा--दोप र तो ुई, स्यात ्अब न आयेंगे। इतने में कमला और उपादेवी दोनों आ प ंुची। चन्रा ने घंूघट ननकाल सलया और िशा पर आ बैठी। कमला उसकी बडी ननद ोती थी। कमला--अरे, अभी तो इन् ोंने कपड ेभी न ीं बदले। सेवती--भैया की बाट जो र ी ै। इससलए य भेर् रचा ै। कमला--मूखा ैं। उन् ें गरज ोगी, आप आयेंगे। सेवती--इनकी बात ननराली ै। कमला--पुरूर्ों से पे्रम चा े ककतना ी करे, पर मुख से एक शब्द भी न ननकाले, न ीं तो व्यथा सताने और जलाने लगत े ैं। यहद तुम उनकी उपेक्षा करो, उनसे सीिे बात न करों, तो वे तुम् ारा सब प्रकार आदर करेगें। तुम पर प्राण समपाण करेंगें, परन्तु ज्यो ी उन् ें ज्ञात ुआ कक इसके हृदय में मेरा पे्रम ो गया, बस उसी हदन से दृष्ष्ट किर जायेगी। सैर को जायेंगें, तो अवश्य देर करके आयेगें।

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भोजन करने बैठेगें तो मु ं जूठा करके उठ जायेगें, बात-बात पर रूठेंगें। तुम रोओगी तो मनायेगें, मन में प्रसन्न ोंगे कक कैसा िंदा डाला ै। तुम् ारे सम्मुख अन्य ष्स्त्रयों की प्रशंसा करेंगें। भावाथा य ै कक तुम् ारे जलाने में उन् ें आनन्द आने लगेगा। अब मेरे ी घर में देखों पह ले इतना आदर करत ेथे कक क्या बताऊं। प्रनतक्षण नौकरो की भांनत ाथ बांिे खड ेर त ेथे। पंखा िलेने को तैयार, ाथ से कौर खखलाने को तैयार य तक कक (मुस्कराकर) प व दबाने में भी संकोच न था। बात मेरे मखु से ननकली न ीं कक पूरी ुई। मैं उस समय अबोि थी। पुरुर्ों के कपट व्यव ार क्या जानंू। पटी में आ गयी। जानत ेथे कक आज ाथ बांि कर खडी ोगीं। मैने लम्बी तानी तो रात-भर करवट न ली। दसूरे हदन भी न बोली। अंत में म ाशय सीिे ुए, पैरों पर धगरे, धगडधगडाये, तब से मन में इस बात की गांठ ब ि ली ै कक पुरूर्ों को पे्रम कभी न जताओं। सेवती--जीजा को मैने देखा ै। भैया के वववा में आये थे। बड ं ॅसमुख मनुष्य ैं। कमला--पावाती उन हदनों पेट में थी, इसी से मैं न आ सकी थी। य से गये तो लगे तुम् ारी प्रशंसा करने। तुम कभी पान देने गयी थी ? क त ेथे कक मैने ाथ थामकर बैठा सलया, खूब बातें ुई। सेवती--िूठे ैं, लबाररये ैं। बात य ुई कक गुलत्रबया और जमुनी दोनों ककसी काया से बा र गयी थीं। म ने क ा, वे खाकर गये ैं, पान बना के दे आ। मैं पान लेकर गयी, चारपाई पर लेटे थे, मुि ेदेखत े ी उठ बैठे। मैने पान देने को ाथ बढाया तो आप कलाई पकडकर क ने लगे कक एक बात सुन लो, पर मैं ाथ छुडाकर भागी। कमला--ननकली न िूठी बात। व ी तो मैं भी क ती ंू कक अभी ग्यार -बार वर्ा की छोकरी, उसने इनसे क्या बातें की ोगी ? परन्तु न ीं, अपना ी ठ ककये जाये। पुरूर् बड ेप्रलापी ोत े ै। मैने य क ा, मैने व क ा। मेरा तो इन बातों से हृदय सुलगता ै। न जाने उन् ें अपने ऊपर िूठा दोर् लगाने में क्या स्वाद समलता ै? मनुष्य जो बुरा-भला करता ै, उस पर परदा डालता ै। य लोग करेंगें तो थोडा, समथ्या प्रलाप का आल् ा गात ेकिरेगें ज्यादा। मैं तो तभी से उनकी एक बात भी सत्य न ीं मानती।

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इतने में गुलत्रबया ने आकर क ा--तुमतो य ठाढी बतलात ो। और तुम् ार सखी तुमका आंगन में बुलौती ै। सेवती--देखों भाभी, अब देर न करो। गुलत्रबया, तननक इनकी वपटारी से कपड ेतो ननकाल ले। कमला चन्रा का श्रगृांर करने लगी। सेवती स ेसलयों के पास आयी। रूष्क्मणी बोली--वा बह , खूब। व जाकर बैठ र ी। तुम् ारी दीवारों से बोले क्या ? सेवती--कमला बह न चली गयी। उनसे बातचीत ोने लगीं। दोनों आ र ी ैं। रूष्क्मणी--लडकोरी ै न ? सेवती-- , तीन लडके ैं। रामदेई--मगर काठी ब ुत अच्छी ै। चन्रकंुवर--मुि ेउनकी नाक ब ुत सुन्दर लगती ै, जी चा ता ै छीन लूं। सीता--दोनों बह ने एक-से-एक बढ़ कर ै। सेवती--सीता को ईश्वर ने वर अच्छा हदया ै, इसने सोने की गौ पूजी थी। रूष्क्मणी--(जलकर)गोरे चमड ेसे कुछ न ीं ोता। सीता--तुम् ें काला ी भाता ोगा। सेवती--मुि ेकाला वर समलता तो ववर् खा लेती। रूष्क्मणी--यो क ने को जो चा े क लों, परन्तु वास्तव में सुख काले ी वर से समलता ै।

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सेवती--सुख न ीं िूल समलती ै। ग्र ण-सा आकर सलपट जाता ोगा। रूष्क्मणी--य ी तो तुम् ारा लडकपन ै। तुम जानती न ीं सुन्दर पुरुर् अपने ी बनाव-ससगंार में लगा र ता ै। उसे अपने आगे स्त्री का कुछ ध्यान न ीं र ता। यहद स्त्री परम-रूपवती ो तो कुशल ै। न ीं तो थोड े ी हदनों व समिता ै कक मैं ऐसी दसूरी ष्स्त्रयों के हृदय पर सुगमता से अधिकार पा सकता ंू। उससे भागने लगता ै। और कुरूप पुरूर् सुन्दर स्त्री पा जाता ै तो समिता ै कक मुि े ीरे की खान समल गयी। बेचारा काला अपने रूप की कमी को प्यार और आदर से पूरा करता ै। उसके हृदय में ऐसी िुकिुकी लगी र ती ै कक मैं तननक भी इससे खटा पडा तो य मुिसे घणृा करने लगेगी। चन्रकंुव--दलू् ा सबसे अच्छा व , जो मुं से बात ननकलत े ी पूरा करे। रामदेई--तुम अपनी बात न चलाओं। तुम् ें तो अच्छे-अच्छे ग नों से प्रयोजन ै, दलू् ा कैसा ी ो। सीता--न जाने कोई पुरूर् से ककसी वस्तु की आज्ञा कैसे करता ै। क्या संकोच न ीं ोता ? रूष्क्मणी-तुम बपुरी क्या आज्ञा करोगी, कोई बात भी तो पूछे ? सीता--मेरी तो उन् ें देखने से ी तषृ्प्त ो जाती ै। वस्त्राभूर्णों पर जी न ीं चलता। इतने में एक और सुन्दरी आ प ंुची, ग ने से गोंदनी की भानंत लदी ुई। बहढ़या जूती प ने, सुगंि में बसी। ऑखों से चपलता बरस र ी थी। रामदेई--आओ रानी, आओ, तुम् ारी ी कमी थी। रानी--क्या करंू, ननगोडी नाइन से ककसी प्रकार पीछा न ीं छूटता था। कुसुम की म आयी तब जाके जूडा ब िा।

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सीता--तुम् ारी जाककट पर बसल ारी ै। रानी--इसकी कथा मत पूछो। कपडा हदये एक मास ुआ। दस-बार बार दजी सीकर लाया। पर कभी आस्तीन ढीली कर दी, कभी सीअन त्रबगाड दी, कभी चुनाव त्रबगाड हदया। अभी चलत-ेचलत ेदे गया ै। य ी बातें ो र ी थी कक मािवी धचल्लाई ुई आयी--‘भैया आये, भैया आये। उनके संग जीजा भी आये ैं, ओ ो। ओ ो। रानी--रािाचरण आये क्या ? सेवती-- । चलू तननक भाभी को सन्देश दे आंऊ। क्या रे। क ां बैठे ै ? मािवी--उसी बड ेकमरे में। जीजा पगडी ब िे ै, भैया कोट पह ने ैं, मुि ेजीजा ने रूपया हदया। य क कर उसने मुठी खोलकर हदखायी। रानी--ससतो। अब मुं मीठा कराओ। सेवती--क्या मैने कोई मनौती की थी ? य क ती ुई सेवती चन्रा के कमरे में जाकर बोली--लो भाभी। तुम् ारा सगुन ठीक ुआ। चन्रा--क्या आ गये? तननक जाकर भीतर बुला लो। सेवती-- मदाने में चली जाउं। तुम् ारे ब नाई जी भी तो पिारे ै। चन्रा--बा र बैठे क्या यकर र े ैं ? ककसी को भेजकर बुला लेती, न ीं तो दसूरों से बातें करने लगेंगे।

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अचानक खडाऊं का शब्द सुनायी हदया और रािाचरण आत ेहदखायी हदये। आयु चौबीस-पच्चीस बरस से अधिक न थी। बड े ी ॅसमुख, गौर वणा, अंगे्रजी काट के बाल, फ्रें च काट की दाढी, खडी मूंछे, लवंडर की लपटें आ र ी थी। एक पतला रेशमी कुताा प ने ुए थे। आकर पंलंग पर बैठ गए और सेवती से बोले--क्या ससतो। एक सप्ता से धचठी न ीं भेजी ? सेवती--मैनें सोचा, अब तो आ र ें ो, क्यों धचठी भेजू ? य क कर व ां से ट गयी। चन्रा ने घूघंट उठाकर क ा--व जाकर भूल जात े ो ? रािाचरण--(हृदय से लगाकर) तभी तो सैकंडों कोस से चला आ र ा ूाँ। ***

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9. ईष्याा प्रतापचन्र ने ववरजन के घर आना-जाना वववा के कुछ हदन पूवा से ी त्याग हदया था। व वववा के ककसी भी काया में सष्म्मसलत न ीं ुआ। य तक कक म किल में भी न गया। मसलन मन ककये, मु ॅ लटकाये, अपने घर बैठा र ा, मुंशी संजीवनलाला, सुशीला, सुवामा सब त्रबनती करके ार गये, पर उसने बारात की ओर दृष्ष्ट न िेरी। अंत में मुंशीजी का मन टूट गया और किर कुछ न बोले। य दशा वववा के ोने तक थी। वववा के पश्चात तो उसने इिर का मागा ी त्याग हदया। स्कूल जाता तो इस प्रकार एक ओर से ननकल जाता, मानों आगे कोई बाघ बैठा ुआ ै, या जैसे म ाजन से कोई ऋणी मनुष्य ऑख बचाकर ननकल जाता ै। ववरजन की तो परछाई से भागता। यहद कभी उसे अपने घर में देख पाता तो भीतर पग न देता। माता समिाती--बेटा। ववरजन से बोलत-ेचालत क्यों न ीं ? क्यों उससे यसमन मोटा ककये ुए ो ? व आ-आकर घण्टों रोती ै कक मैने क्या ककया ै ष्जससे व रूष्ट ो गया ै। देखों, तुम और व ककतने हदनों तक एक संग र े ो। तुम उसे ककतना प्यार करत ेथे। अकस्मात ्तुमको क्या ो गया? यहद तुम ऐसे ी रूठे र ोगे तो बेचारी लडकी की जान पर बन जायेगी। सूखकर क टा ो गया ै। ईश्वर ी जानता ै, मुि ेउसे देखकर करूणा उत्पन्न ोती ै। तुम् ारी चाचा के अनतररक्त उसे कोई बात ी न ीं भाती। प्रताप ऑखें नीची ककये ुए सब सुनता और चुपचाप सरक जाता। प्रताप अब भोला बालक न ीं था। उसके जीवनरूपी वकृ्ष में यौवनरूपी कोपलें िूट र ी थी। उसने ब ुत हदनों से-उसी समय से जब से उसने ोश सभंाला-ववरजन के जीवन को अपने जीवन में शाकरा क्षीर की भ नत समला सलया था। उन मनो र और सु ावने स्वप्नों का इस कठोरता और ननदायता से िूल में समलाया जाना उसके कोमल हृदय को ववदीणा करने के सलए कािी था, व जो अपने ववचारों में ववरजन को अपना सवास्व समिता था, क ीं का न र ा, और अपने ववचारों में ववरजन को अपना सवास्व समिता था, क ीं का न र ा, और व , ष्जसने ववरजन को एक पल के सलए भी अपने ध्यान में स्थान न हदया था, उसका सवास्व ो गया। इस ववताक से उसके हृदय में व्याकुलता उत्पन्न ोती थी और जी चा ता था कक ष्जन लोगों ने मेरी स्वप्नवत भावनाओं का नाश ककया ै और

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मेरे जीवन की आशाओं को समटटी में समलाया ै, उन् ें मैं भी जलाउं। सबसे अधिक क्रोि उसे ष्जस पर आता था व बेचारी सुशीला थी। शनै:-शनै: उसकी य दशा ो गई कक जब स्कूल से आता तो कमलाचरण के सम्बन्ि की कोई घटना अवश्य वणान करता। ववशेर् कर उस समय जब सुशीला भी बैठी र ती। उस बेचारी का मन दखुाने में इसे बडा ी आनन्द आता। यद्यवप अव्यक्त रीनत से उसका कथन और वाक्य-गनत ऐसी हृदय-भेहदनी ोती थी कक सुशीला के कलेज ेमें तीर की भांनत लगती थी। आज म ाशय कमलाचरण नतपाई के ऊपर खड ेथे, मस्तक गगन का स्पशा करता था। परन्तु ननलाज्ज इतने बड ेकक जब मैंने उनकी ओर संकेत ककया तो खडे-खड े ॅसने लगे। आज बडा तमाशा ुआ। कमला ने एक लडके की घडी उडा दी। उसने मास्टर से सशकायत की। उसके समीप वे ी म ाशय बैठे ुए थे। मास्टर ने खोज की तो आप ी िेटें से घडी समली। किर क्या था ? बड ेमास्टर के य ररपोटा ुई। व सुनत े ी झ्लल्ला गये और कोई तीन दजान बेंतें लगायीं, सडासड। सारा स्कूल य कौतू ल देख र ा था। जब तक बेंतें पडा की, म ाश्य धचल्लाया ककये, परन्तु बा र ननकलत े ी खखलखखलानें लगे और मूंछों पर ताव देने लगे। चाची। न ीं सुना ? आज लडको ने ठीक सकूल के िाटक पर कमलाचरण को पीटा। मारत-ेमारत ेबेसुि कर हदया। सुशीला ये बातें सुनती और सुन-सनुकर कुढती। । प्रताप ऐसी कोई बात ववरजन के सामने न करता। यसहद व घर में बैठी भी ोती तो जब तक चली न जाती, य चचाा न छेडता। व चा ता था कक मेरी बात से इसे कुछ दखु: न ो। समय-समय पर मुंशी संजीवनलाल ने भी कई बार प्रताप की कथाओं की पुष्ष्ट की। कभी कमला ाट में बलुबलु लडात ेसमल जाता, कभी गुण्डों के संग ससगरेट पीत,े पान चबात,े बेढंगेपन से घूमता ुआ हदखायी देता। मुंशीजी जब जामाता की य दशा देखते तो घर आत े ी स्त्री पर क्रोिननकालत-े य सब तुम् ारी ी करतूत ै। तुम् ी ने क ा था घर-वर दोनों अच्छे ैं, तुम् ीं रीिी ुई थीं। उन् ें उस क्षण य ववचार न ोता कक जो दोर्ारोपण सुशील पर ै, कम-से-कम मुि पर ी उतना ी ै। व बेचारी तो घर में बन्द र ती थी, उसे क्या ज्ञात था कक लडका कैसा ै। व सामुहरक ववद्या थोड ी पढी थी ? उसके माता-वपता को सभ्य देखा, उनकी कुलीनता और वैभव पर स मत ो गयी। पर मुंशीजी ने तो अकमाण्यता और आलस्य के कारण छान-बीन न की, यद्यवप उन् ें इसके अनेक

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अवसर प्राप्त थे, और आलस्य के कारण छान-बीन न की, यद्यवप उन् ें इसके अनेक अवसर प्राप्त थे, और मुंशीजी के अगखणत बान्िव इसी भारतवर्ा में अब भी ववद्यमान ै जो अपनी प्यारी कन्याओं को इसी प्रकार नेत्र बन्द करकेक कुए में ढकेल हदया करत े ैं। सुशीला के सलए ववरजन से वप्रय जगत में अन्य वस्तु न थी। ववरजन उसका प्राण थी, ववरजन उसका िमा थी और ववरजन ी उसका सत्य थी। व ी उसकी प्राणािार थी, व ी उसके नयनों को ज्योनत और हृदय का उत्सा थी, उसकी सवौच्च सांसाररक असभलार्ा य थी कक मेरी प्यारी ववरजन अच्छे घर जाय। उसके सास-ससुर, देवी-देवता ों। उसके पनत सशष्टता की मनूता और श्रीरामचंर की भांनत सुशील ो। उस पर कष्ट की छाया भी न पड।े उसने मर-मरकर बडी समन्नतों से य पुत्री पायी थी और उसकी इच्छा थी कक इन रसीले नयनों वाली, अपनी भोली-भाली बाला को अपने मरण-पयान्त आंखों से अदृश्य न ोने दूंगी। अपने जामाता को भी य ी बलुाकर अपने घर रखंूगी। जामाता मुि ेमाता क ेगा, मैं उसे लडका समिूगी। ष्जस हृदय में ऐसे मनोरथ ों, उस पर ऐसी दारूण और हृदयववदारणी बातों का जो कुछ प्रभाव पडगेा, प्रकट ै। ां। न्त। दीना सुशीला के सारे मनोरथ समट्टी में समल गये। उसकी सारी आशाओं पर ओस पड गयी। क्या सोचती थी और क्या ो गया। अपने मन को बार-बार समिाती कक अभी क्या ै, जब कमला सयाना ो जाएगी तो सब बुराइयां स्वयं त्याग देना। पर एक ननन्दा का घाव भरने न ीं पाता था कक किर कोई नवीन घटना सूनने में आ जाती। इसी प्रकार आघात-पर-आघात पडत ेगये। ाय। न ीं मालूम ववरजन के भाग्य में क्या बदा ै? क्या य गुन की मूनता, मेरे घर की दीष्प्त, मेरे शरीर का प्राण इसी दषु्कृत मनुष्य के संग जीवन व्यतीत करेगी ? क्या मेरी श्यामा इसी धगद्व के पाले पडगेी? य सोचकर सुशीला रोने लगती और घंटों रोती र ती ै। पह ले ववरजन को कभी-कभी डांट-डपट भी हदया करती थी, अब भूलकर भी कोई बात न क ती। उसका मं देखत े ी उसे याद आ जाती। एक क्षण के सलए भा उसे सामने से अदृश्य न ोने देगी। यहद जरा देर के सलए व सुवामा के घर चली जाती, तो स्वयं प ंुच यजाती। उसे ऐसा प्रतीत ोता मानों कोई उसे छीनकर ले भागता ै। ष्जस प्रकार वाधिक की छुरी के तले अपने बछड ेको देखकर गाय का रोम-रोम कांपने लगता ै, उसी प्रकार ववरजन के दखु का ध्यान करके सुशीला की आंखों में संसार सूना जाना पडता

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था। इन हदनों ववरजन को पल-भर के सलए नेत्रों से दरू करत ेउसे व कष्ट और व्याकुलता ोती,जो धचडडया को घोंसले से बच्च ेके खो जाने पर ोती ै। सुशीला एक तो यो ी जीणा रोधगणी थी। उस पर भावष्ष्य की असाध्य धचन्ता और जलन ने उसे और भी िुला डाला। ननन्दाओं ने कलेजा चली कर हदया। छ: मास भी बीतने न पाये थे कक क्षयरोग के धचहृन हदखायी हदए। प्रथम तो कुछ हदनों तक सा स करके अपने द:ुख को नछपाती र ी, परन्तु कब तक ? रोग बढने लगा और व शष्क्त ीन ो गयी। चारपाई से उठना कहठन ो गया। वैद्य और डाक्टर और्नघ करने लगे। ववरयजन और सुवामा दोनों रात-हदन उसके पांस बैठी र ती। ववरजन एक पल के सलए उसकी दृष्ष्ट से ओिल न ोती। उसे अपने ननकट न देखकर सुशीला बेसुि-सी ो जाती और िूट-िूटकर रोने लगती। मुंशी संजीवनलाल पह ले तो िैया के साथ दवा करत ेर े, पर जब देखा कक ककसी उपाय से कुछ लाभ न ीं ोता और बीमारी की दशा हदन-हदन ननकृष्ट ोती जाती ै तो अंत में उन् ोंने भी ननराश ो उद्योग और सा स कम कर हदया। आज से कई साल प ले जब सुवामा बीमार पडी थी तब सुशीला ने उसकी सेवा-शुशू्रर्ा में पूणा पररश्रम ककया था, अब सुवामा बीमार पडी थी तब सुशीला ने उसकी सेवा-सुशू्रर्ा में पूणा पररश्रम ककया था,अब सुवामा की बारी आयी। उसने पडोसी और भधगनी के िमा का पालन भली-भांनत ककया। रूगण-सेवा में अपने ग ृकाया को भूल-सी गई। दो-दों तीन-तीन हदन तक प्रताप से बोलने की नौबत न आयी। ब ुिा व त्रबना भोजन ककये ी स्कूल चला जाता। परन्तु कभी कोई अवप्रय शब्द मुख से न ननकालता। सुशीला की रूग्णावस्थ ने अब उसकी द्वेर्ाराधगन को ब ुत कम कर हदया था। द्वेर् की अष्ग्न द्वेष्टा की उन्ननत और ददुाशा के साथ-साथ तीव्र और प्रज्जवसलत ो जाती ै और उसी समय शान्त ोती ै जब द्वेष्टा के जीवन का दीपक बुि जाता ै। ष्जस हदन वजृरानी को ज्ञात ो जाता कक आज प्रताप त्रबना भोजन ककये स्कूल जा र ा ै, उस हदन व काम छोडकर उसके घर दौड जाती और भोजन करने के सलए आग्र करती, पर प्रताप उससे बात न करता, उसे रोता छोड बा र चला जाता। ननस्संसदे व ववरजन को पूणात:ननदोर् समिता था, परन्तु एक ऐसे संबि को, जो वर्ा छ: मास में टूट जाने वाला ो, व प ले ी से तोड देना चा ता था। एकान्त में बैठकर व आप- ी-आप िूट-िूटकर रोता, परन्तु पे्रम के उद्वेग को अधिकार से बा र न ोने देता।

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एक हदन व स्कूल से आकर अपने कमरे में बैठा ुआ था कक ववरजन आयी। उसके कपोल अशु्र से भीगे ुए थे और व लंबी-लंबी सससककयां ले र ी थी। उसके मुख पर इस समय कुछ ऐसी ननराशा छाई ुई थी और उसकी दृष्ष्ट कुछ ऐसी करूणोंत्पादक थी कक प्रताप से न र ा गया। सजल नयन ोकर बोला--‘क्यों ववरजन। रो क्यों र ी ो ? ववरजन ने कुछ उतर न हदया, वरन और त्रबलख-त्रबलखकर रोने लगी। प्रताप का गाम्भीया जाता र ा। व ननस्संकोच ोकर उठा और ववरजन की आंखों से आंसू पोंछने लगा। ववरजन ने स्वर संभालकर क ा--लल्लू अब माताजी न जीयेंगी, मैं क्या करंू ? य क ते-क त ेकिर सससककयां उभरने लगी। प्रताप य समाचार सुनकर स्तब्ि ो गया। दौडा ुआ ववरजन के घर गया और सुशीला की चारपाई के समीप खडा ोकर रोने लगा। मारा अन्त समय कैसा िन्य ोता ै। व मारे पास ऐसे-ऐसे अह तकाररयों को खींच लाता ै, जो कुछ हदन पूवा मारा मुख न ीं देखना चा त ेथे, और ष्जन् ें इस शष्क्त के अनतररकत संसार की कोई अन्य शष्क्त पराष्जत न कर सकती थी। ां य समय ऐसा ी बलवान ै और बडे-बड ेबलवान शत्रुओं को मारे अिीन कर देता ै। ष्जन पर म कभी ववजय न प्राप्त कर सकत ेथे, उन पर मको य समय ववजयी बना देता ै। ष्जन पर म ककसी शत्रु से अधिकार न पा सकत ेथे उन पर समय और शरीर के ष्श्क्त ीन ो जाने पर भी मको ववजयी बना देता ै। आज पूरे वर्ा भर पश्चात प्रताप ने इस घर में पदाापण ककया। सुशीला की आंखें बन्द थी, पर मुखमण्डल ऐसा ववकससत था, जैसे प्रभातकाल का कमल। आज भोर ी से व रट लगाये ुए थी कक लल्लू को हदखा दो। सुवामा ने इसीसलए ववरजन को भेजा था। सुवामा ने क ा--बह न। आंखें खोलों। लल्लू खडा ै। सुशीला ने आंखें खोल दी ंऔर दोनों ाथ पे्रम-बा ुल्य से िैला हदये। प्रताप के हृदय से ववरोि का अष्न्तम धचह्न भी ववलीन ो गया। यहद ऐसे काल में भी कोई मत्सर का मैल र ने दे, तो व मनुष्य क लाने का कदार न ीं ै। प्रताप सच्च ेपुत्रत्व-भाव से आगे बढ़ा और सुशीला के पे्रमांक में जा सलपटा। दोनों आिे घंण्टे तक रोत ेर े। सुशीला उसे अपने दोनों बां ों में इस प्रकार दबाये ुए थी

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मानों व क ीं भागा जा र ा ै। व इस समय अपने को सैंकडों नघक्कार दे र ा था कक मैं ी इस दखुखया का प्राण ारी ंू। मैने ी द्वेर्-दरुावेग के वशीभूत ोकर इसे इस गनत को प ंुचाया ै। मैं ी इस पे्रम की मूनता का नाशक ंू। ज्यों-ज्यों य भावना उसके मन में उठती, उसकी आंखों से आंसू ब त।े ननदान सुशीला बोली--लल्लू। अब मैं दो-एक हदन की ओर मे मान ंू। मेरा जो कुछ क ा-सुना ो, क्षमा करो। प्रताप का स्वर उसके वश में न था, इससलए उसने कुछ उतर न हदया। सुशीला किर बोली--न जाने क्यों तुम मुिसे रूष्ट ो। तुम मारे घर न ी आत।े मसे बोलत ेन ीं। जी तुम् ें प्यार करने को तरस-तरसकर र जाता ै। पर तुम मेरी तननक भी सुधि न ीं लेते। बताओं, अपनी दखुखया चाची से क्यों रूष्ट ो ? ईश्वर जानता ै, मैं तुमको सदा अपना लडका समिती र ी। तुम् ें देखकर मेरी छाती िूल उठती थी। य क त-ेक त ेननबालता के कारण उसकी बोली िीमी ो गयी, जैसे क्षक्षनतज के अथा ववस्तार में उडनेवाले पक्षी की बोली प्रनतक्षण मध्यम ोती जाती ै-य ां तक कक उसके शब्द का ध्यानमात्र शेर् र जाता ै। इसी प्रकार सुशीला की बोली िीमी ोत-े ोत ेकेवल सांय-सांय र गयी। ***

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10. िुिीला की मतृ्यु

तीन हदन और बीते, सुशीला के जीने की अब कोई संभावना न र ी। तीनों हदन मुंशी संजीवनलाल उसके पास बैठे उसको सान्त्वना देत ेर े। व तननक देर के सलए भी व ां से ककसी काम के सलए चले जात,े तो व व्याकुल ोने लगती और रो-रोकर क ने लगती-मुि ेछोडकर क ीं चले गये। उनको नेत्रों के सम्मुख देखकर भी उसे संतोर् न ोता। र -र कर उतावलेपन से उनका ाथ पकड लेतीऔर ननराश भाव से क ती--मुि ेछोडकर क ीं चले तो न ीं जाओगे ? मुंशीजी यद्यवप बड ेदृढ-धचत मनुष्य थे, तथावप ऐसी बातें सुनकयर आरानेत्र ो जात।े थोडी-थोडी देर में सुशीला को मूछाा-सी आ जाती। किर चौंकती तो इिर-उिर भौंजक्की-सी देखने लगती। वे क ां गये? क्या छोडकर चले गयें ? ककसी-ककसी बार मूछाा का इतना प्रकोप ोता कक मुंशीजी बार-बार क ते--मैं य ी ंू, घबराओं न ीं। पर उसे ववश्वास न आता। उन् ीं की ओर ताकती और पूछती कक –क ां ै ? य ां तो न ीं ै। क ां चले गये ? थोडी देर में जब चते ो जाता तो चुप र जाती और रोने लगती। तीनों हदन उसने ववरजन, सुवामा, प्रताप एक की भी सुधि न की। व ेसब-के-सब र घडी उसी के पास खड ेर ते, पर ऐसा जान पडता था, मानों व मुशींजी के अनतररक्त और ककसी को प चानती ी न ीं ै। जब ववरजन बैचैन ो जाती और गले में ाथ डालकर रोने लगती, तो व तननक आंख खोल देती और पूछती--‘कौन ै, ववरजन ? बस और कुछ न पूछती। जैसे, सूम के हृदय में मरत ेसमय अपने गड े ुए िन के ससवाय और ककसी बात का ध्यान न ीं र यता उसी प्रकार ह न्द-ूस्त्री अन्त समय में पनत के अनतररक्त और ककसी का ध्यान न ीं कर सकती। कभी-कभी सुशीला चौंक पडती और ववष्स्मत ोकर पूछती--‘अरे। य कौन खडा ै ? य कौन भागा जा र ा ै ? उन् ें क्यों ले जात े ै ? ना मैं न जाने दूंगी। य क कर मुंशीजी के दोनों ाथ पकड लेती। एक पल में जब ोश आ जाता, तो लष्जजत ोकर क ती....’मैं सपना देख र ी थी, जैसे कोई तुम् ें सलये जा र ा था। देखो, तुम् ें मारी सौ ं ै, क ीं जाना न ीं। न जाने क ां ले जायेगा, किर तुम् ें कैसे देखंूगी?

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मुंशीजी का कलेजा मसोसने लगता। उसकी ओर पनत करूणा-भरी स्ने -दृष्ष्ट डालकर बोलत-े‘न ीं, मैं न जाउंगा। तुम् ें छोडकर क ां जाउंगा? सुवामा उसकी दशा देखती और रोती कक अब य दीपक बिुा ी चा ता ै। अवस्था ने उसकी लज्जा दरू कर दी थी। मुंशीजी के सम्मखु घंटों मुं खोले खडी र ती। चौथे हदन सुशीला की दशा सभंल गयी। मुंशीजी को ववश्वास ो गया, बस य अष्न्तम समय ै। दीपक बुिने के प ले भभक उठता ै। प्रात:काल जब मुं िोकर वे घर में आये, तो सुशीला ने संकेत द्वारा उन् ें अपने पास बुलाया और क ा-‘मुि ेअपने ाथ से थोडा-सा पानी वपला दो’’। आज व सचते थी। उसने ववरजन, प्रताप, सुवामा सबको भली-भांनत पह चाना। व ववरजन को बडी देर तक छाती से लगाये रोती र ी। जब पानी पी चुकी तो सुवामा से बोली--‘बह न। तननक मको उठाकर त्रबठा दो, स्वामी जी के चरण छंू लूं। किर न जाने कब इन चरणों के दशान ोंगे। सुवामा ने रोत े ुए अपने ाथों से स ारा देकर उसे तननक उठा हदया। प्रताप और ववरजन सामने खड ेथे। सुशीला ने मुंशीजी से क ा--‘मेरे समीप आ जाओ’। मुंशीजी पे्रम और करूणा से ववहृल ोकर उसके गले से सलपट गये और गदगद स्वर में बोले--‘घबराओ न ीं, ईश्वर चा ेगा तो तुम अच्छी ो जाओगी’। सुशीला ने ननराश भाव से क ा--‘ ’ आज अच्छी ो जाउंगी। जरा अपना पैर बढ़ा दो। मैं माथे लगा लूं। मुंशीजी ह चककचात ेर े। सुवामा रोत े ुए बोली--‘पैर बढ़ा दीष्जए, इनकी इच्छा पूरी ो जाये। तब मुंशीजी ने चरण बढा हदये। सुशीला ने उन् ें दोनों ाथों में पकड कर कई बार चूमा। किर उन पर ाथ रखकर रोने लगी। थोड े ी देर में दोनों चरण उष्ण जल-कणों से भीग गये। पनतव्रता स्त्री ने पे्रम के मोती पनत के चरणों पर ननछोवर कर हदये। जब आवाज संभली तो उसने ववरजन का एक ाथ थाम कर

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मुंशीजी के ाथ में हदया और अनत मन्द स्वर में क ा-स्वामीजी। आपके संग ब ुत हदन र ी और जीवन का परम सुख भोगा। अब पे्रम का नाता टूटता ै। अब मैं पल-भर की और अनतधथ ंू। प्यारी ववरजन को तुम् ें सौंप जाती ंू। मेरा य ी धचहृन ै। इस पर सदा दया-दृष्ष्ट रखना। मेरे भाग्य में प्यारी पुत्री का सुख देखना न ीं बदा था। इसे मैने कभी कोई कटु वचन न ीं क ा, कभी कठोर दृष्ष्ट से न ीं देखा। य मरे जीवन का िल ै। ईश्वर के सलए तुम इसकी ओर से बेसुि न ो जाना। य क ते-क त ेह चककयां बंि गयीं और मूछाा-सी आ गयी। जब कुछ अवकाश आ तो उसने सुवामा के सम्मुख ाथ जोड ेऔर रोकर क ा-- ‘बह न’। ववरजन तुम् ारे समपाण ै। तुम् ीं उसकी मता ो। लल्लू। प्यारे। ईश्वर करे तुम जुग-जुग जीओ। अपनी ववरजन को भूलना मत। य तुम् ारी दीना और मात ृीना बह न ै। तुममें उसके प्राण बसत े ै। उसे रूलाना मत, उसे कुढाना मत, उसे कभी कठोर वचन मत क ना। उससे कभी न रूठना। उसकी ओर से बेसुि न ोना, न ीं तो व रो-रो कर प्राण दे देगी। उसके भाग्य में न जाने क्या बदा ै, पर तुम उसे अपनी सगी बह न समिकर सदा ढाढस देत ेर ना। मैं थोडी देर में तुम लोगों को छोडकर चली जाऊंगी, पर तुम् ें मेरी सो , उसकी ओर से मन मोटा न करना तुम् ीं उसका बेडा पार लगाओगे। मेरे मन में बडी-बडी असभलार्ाएं थीं, मेरी लालसा थी कक तुम् ारा ब्या करंूगी, तुम् ारे बच्च ेको खखलाउंगी। पर भाग्य में कुछ और ी बदा था। य क ते-क त ेव किर अचेत ो गयी। सारा घर रो र ा था। म ररयां, म राष्जनें सब उसकी प्रशंसा कर र ी थी कक स्त्री न ीं, देवी थी। रधिया--इतने हदन ट ल करते ुए, पर कभी कठोर वचन न क ा। म राष्जन-- मको बेटी की भांनत मानती थीं। भोजन कैसा ी बना दूं पर कभी नाराज न ीं ुई। जब बातें करतीं, मुस्करा के। म राज जब आत ेतो उन् ें जरूर सीिा हदलवाती थी। सब इसी प्रकार की बातें कर र े थे। दोप र का समय ुआ। म राष्जन ने भोजन बनाया, परन्तु खाता कौन? ब ुत ठ करने पर मुंशीजी गये और नाम करके चले आये। प्रताप चौके पर गया भी न ीं। ववरजन और सुवामा को गले

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लगाती, कभी प्रताप को चूमती और कभी अपनी बीती क -क कर रोती। तीसरे प र उसने सब नौकरों को बुलाया और उनसे अपराि क्षमा कराया। जब वे सब चले गये तब सुशीला ने सुवामा से क ा-- बह न प्यास ब ुत लगती ै। उनसे क दो अपने ाथ से थोडा-सा पानी वपला दें। मुशंीजी पानी लाये। सुशीला ने कहठनता से एक घंूट पानी कण्ठ से नीच ेउतारा और ऐसा प्रतीत ुआ, मानो ककसी ने उसे अमतृ वपला हदया ो। उसका मुख उज्जवल ो गया आंखों में जल भर आया। पनत के गले में ाथ डालकर बोली—मै ऐसी भाग्यशासलनी ंू कक तुम् ारी गोद में मरती ंू। य क कर व चुप ो गयी, मानों कोई बात क ना ी चा ती ै, पर संकोच से न ीं क ती। थोडी देर पश्चात ्उसने किर मुंशीजी का ाथ पकड सलया और क ा--‘यहद तुमसे कुछ मांग,ूतो दोगे ? मुंशीजी ने ववष्स्मत ोकर क ा--तुम् ारे सलए मांगने की आवश्यकता ै? नन:संकोच क ो। सुशीला--तुम मेरी बात कभी न ीं टालत ेथे। मुंशीजी--मरत ेदम तक कभी न टालूंगा। सुशीला--डर लगता ै, क ीं न मानो तो... मुंशीजी--तुम् ारी बात और मैं न मानंू ? सुशीला--मैं तुमको न छोडूगंी। एक बात बतला दो-ससल्ली(सशुीला)मर जायेगी, तो उसे भूल जाओगे ? मुंशीजी--ऐसी बात न क ो, देखो ववरजन रोती ै। सुशीला--बतलाओं, मुि ेभूलोगे तो न ीं ? मुंशीजी--कभी न ीं।

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सुशीला ने अपने सूखे कपोल मुशींजी के अिरों पर रख हदये और दोनों बां ें उनके गले में डाल दीं। किर ववरजन को ननकट बुलाकर िीरे-िीरे समिाने लगी-देखो बेटी। लालाजी का क ना र घडी मानना, उनकी सेवा मन लगाकर करना। ग ृ का सारा भर अब तुम् ारे ी माथे ै। अब तुम् ें कौन सभांलेगा ? य क कर उसने स्वामी की ओर करूणापूणा नेत्रों से देखा और क ा-- मैं अपने मन की बात न ीं क ने पायी, जी डूबा जाता ै। मुंशीजी--तुम व्यथा असमंजस में पडी ो। सुशीला--तुम मरे ो कक न ीं ? मुंशीजी--तुम् ारा और आमरण तुम् ारा। सुशीला-- ऐसा न ो कक तुम मुि ेभूल जाओं और जो वस्तु मेरी थी व अन्य के ाथ में चली जाए। सुशीला ने ववरजन को किर बलुाया और उसे व छाती से लगाना ी चा ती थी कक मूनछात ो गई। ववरजन और प्रताप रोने लगे। मुंशीजी ने कांपत े ुए सुशीला के हृदय पर ाथ रखा। सांस िीरे-िीरे चल र ी थी। म राष्जन को बुलाकर क ा--अब इन् ें भूसम पर सलटा दो। य क कर रोने लगे। म राष्जन और सुवामा ने समलकर सुशीला को पथृ्वी पर सलटा हदया। तपेहदक ने डडडयां तक सुखा डाली थी। अंिेरा ो चला था। सारे ग ृ में शोकमय और भयाव सन्नाटा छाया ुआ था। रोनेवाले रोत ेथे, पर कण्ठ बांि-बांिकर। बातें ोती थी, पर दबे स्वरों से। सुशीला भूसम पर पडी ुई थी। व सुकुमार अंग जो कभी माता के अंग में पला, कभी पे्रमांक में प्रौढा, कभी िूलों की सेज पर सोया, इस समय भूसम पर पडा ुआ था। अभी तक नाडी मन्द-मन्द गनत से चल र ी थी। मुंशीजी शोक और ननराशानद में मग्न उसके ससर की ओर बैठे ुए थे। अकस्समात ्उसने ससर उठाया और दोनों ाथों से मुंशीजी का चरण पकड सलया। प्राण उड गये। दोनों कर उनके चरण का मण्डल बांिे ी र े। य उसके जीवन की अंनतम कक्रया थी।

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रोनेवालो, रोओ। क्योंकक तुम रोने के अनतररक्त कर ी क्या सकत े ो? तुम् ें इस समय कोई ककतनी ी सान्त्वना दे, पर तुम् ारे नेत्र अशु्र-प्रवा को न रोक सकें गे। रोना तुम् ारा कताव्य ै। जीवन में रोने के अवसर कदाधचत समलत े ैं। क्या इस समय तुम् ारे नेत्र शुष्क ो जायेगें? आंसुओं के तार बंिे ुए थे, सससककयों के शब्द आ र े थे कक म राष्जन दीपक जलाकर घर में लायी। थोडी देर पह ले सुशीला के जीवन का दीपक बुि चुका था। ***

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11. ववरजन की ववदाई

रािाचरण रूडकी कालेज से ननकलत े ी मुरादाबाद के इंजीननयर ननयुक्त ुए और चन्रा उनके संग मुरादाबाद को चली। पे्रमवती ने ब ुत रोकना चा ा, पर जानेवाले को कौन रोक सकता ै। सेवती कब की ससुराल आ चुकी थी। य ां घर में अकेली पे्रमवती र गई। उसके ससर घर का काम-काज पडा। ननदान य राय ुई कक ववरजन के गौने का संदेशा भेजा जाए। डडप्टी सा ब स मत न थे, परन्तु घर के कामों में पे्रमवती ी की बात चलती थी। संजीवनलाल ने संदेशा स्वीकार कर सलया। कुछ हदनों से व ेतीथायात्रा का ववचार कर र े थे। उन् ोंने क्रम-क्रम से सांसाररक संबंि त्याग कर हदये थे। हदन-भर घर में आसन मारे भगवदगीता और योगवासशष्ठ आहद ज्ञान-संबष्न्िनी पुस्तकों का अध्ययन ककया करत ेथे। संध्या ोत े ी गंगा-स्नान को चले जात ेथे। व ां से रात्रत्र गये लौटत ेऔर थोडा-सा भोजन करके सो जात।े प्राय: प्रतापचन्र भी उनके संग गंगा-स्नान को जाता। यद्यवप उसकी आयु सोल वर्ा की भी न थी, पर कुछ तो यननज स्वभाव, कुछ पैतकृ संस्कार और कुछ संगनत के प्रभाव से उसे अभी से वैज्ञाननक ववर्यों पर मनन और ववचार करने में बडा आनन्द प्राप्त ोता था। ज्ञान तथा ईश्वर संबष्न्िनी बातें सुनते-सुनत ेउसकी प्रवनृत भी भष्क्त की ओर चली थी, और ककसी-ककसी समय मुन्शीजी से ऐसे सूक्ष्म ववर्यों पर वववाद करता कक वे ववष्स्मत ो जात।े वजृरानी पर सुवामा की सशक्षा का उससे भी ग रा प्रभाव पडा था ष्जतना कक प्रतापचन्र पर मुन्शीजी की संगनत और सशक्षा का। उसका पन्र वा वर्ा था। इस आयु में नयी उमंगें तरंधगत ोती ै और धचतवन में सरलता चंचलता की तर मनो र रसीलापन बरसने लगता ै। परन्तु वजृरानी अभी व ी भोली-भाली बासलका थी। उसके मखु पर हृदय के पववत्र भाव िलकत ेथे और वाताालाप में मनो ाररणी मिुरता उत्पन्न ो गयी थी। प्रात:काल उठती और सबसे प्रथम मुन्शीजी का कमरा साि करके, उनके पूजा-पाठ की सामग्री यथोधचत रीनत से रख देती। किर रसोई घर के िन्िे में लग जाती। दोप र का समय उसके सलखने-पढने का था। सवुामा पर उसका ष्जतना पे्रम और ष्जतनी श्रद्वा थी, उतनी अपनी माता पर भी न र ी ोगी। उसकी इच्छा ववरजन के सलए आज्ञा से कम न थी।

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सुवामा की तो सम्मनत थी कक अभी ववदाई न की जाए। पर मुन्शीजी के ठ से ववदाई की तैयाररयां ोने लगीं। ज्यों-ज्यों व ववपनत की घडी ननकट आती, ववरजन की व्याकुलता बढ़ती जाती थी। रात-हदन रोया करती। कभी वपता के चरणों में पडती और कभी सुवामा के पदों में सलपट जाती। पार वववाह ता कन्या पराये घर की ो जाती ै, उस पर ककसी का क्या अधिकार। प्रतापचन्र और ववरजन ककतने ी हदनों तक भाई-ब न की भांनत एक साथ र ें। पर जब ववरजन की आंखे उसे देखत े ी नीच ेको िुक जाती थीं। प्रताप की भी य ी दशा थी। घर में ब ुत कम आता था। आवश्यकतावश आया, तो इस प्रकार दृष्ष्ट नीच ेककए ुए और ससमटे ुए, मानों दलुह न ै। उसकी दृष्ष्ट में व पे्रम-र स्य नछपा ुआ था, ष्जसे व ककसी मनुष्य-य ां तक कक ववरजन पर भी प्रकट न ीं करना चा ता था। एक हदन सन्ध्या का समय था। ववदाई को केवल तीन हदन र गये थे। प्रताप ककसी काम से भीतर गया और अपने घर में लैम्प जलाने लगा कक ववरजन आयी। उसका अंचल आंसुओं से भीगा ुआ था। उसने आज दो वर्ा के अनन्तर प्रताप की ओर सजल-नेत्र से देखा और क ा--लल्लू। मुिसे कैसे स ा जाएगा ? प्रताप के नेत्रों में आंसू न आये। उसका स्वर भारी न ुआ। उसने सुदृढ भाव से क ा--ईश्वर तुम् ें िैया िारण करने की शष्क्त देंगे। ववरजन का ससर िुक गया। आंखें पथृ्वी में पड गयीं और एक सससकी ने हृदय-वेदना की य अगाि कथा वणान की, ष्जसका ोना वाणी द्वारा असंभव था। ववदाई का हदन लडककयों के सलए ककतना शोकमय ोता ै। बचपन की सब सखखयों-स ेसलयों, माता-वपता, भाई-बन्िु से नाता टूट जाता ै। य ववचार कक मैं किर भी इस घर में आ सकंूगी, उसे तननक भी संतोर् न ीं देता। क्यों अब व आयेगी तो अनतधथभाव से आयेगी। उन लोगों से ववलग ोना, ष्जनके साथ जीवनोद्यान में खेलना और स्वातंद्त्रय-वाहटका में भ्रमण करना उपलब्ि ुआ ो, उसके हृदय को ववदीणा कर देता ै। आज से उसके ससर पर ऐसा भार पडता ै, जो आमरण उठाना पडगेा।

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ववरजन का श्रगृांर ककया जा र ा था। नाइन उसके ाथों व पैरों में में दी रचा र ी थी। कोई उसके बाल गूंथ र ी थी। कोई जुड ेमें सुगन्ि बसा र ी थी। पर ष्जसके सलये ये तैयाररयां ो र ी थी, व भूसम पर मोती के दाने त्रबखेर र ी थी। इतने में बार से संदेशा आया कक मु ूात टला जाता ै, जल्दी करों। सुवामा पास खडी थी। ववरजन, उसके गले सलपट गयी और अशु्र-प्रवा का आंतक, जो अब तक दबी ुई अधगन की नाई सुलग र ा था, अकस्मात ्ऐसा भडक उठा मानों ककसी ने आग में तले डाल हदया ै। थोडी देर में पालकी द्वार पर आयी। ववरजन पडोस की ससत्र्यों से गले समली। सुवामा के चरण छुए, तब दो-तीन ष्स्त्रयों ने उसे पालकी के भीतर त्रबठा हदया। उिर पालकी उठी, इिर सुवामा मूष्च्छात ो भूसम पर धगर पडी, मानों उसके जीत े ी कोई उसका प्राण ननकालकर सलये जाता था। घर सूना ो गया। सैकंडों ष्स्त्रयों का जमघट था, परन्तु एक ववरजन के त्रबना घर िाडे खाता था। ***

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12. कमलाचरण के समत्र

जैसे ससन्दरू की लासलमा से मांग रच जाती ै, जैसे ी ववरजन के आने से पे्रमवती के घर की रौनक बढ गयी। सुवामा ने उसे ऐसे गुण ससखाये थे कक ष्जसने उसे देखा, मो गया। य ां तक कक सेवती की स ेली रानी को भी पे्रमवती के सम्मुख स्वीकार करना पडा कक तुम् ारी छोटी ब ू ने म सबों का रंग िीका कर हदया। सेवती उससे हदन-हदन भर बातें करती और उसका जी न ऊबता। उसे अपने गाने पर असभमान था, पर इस क्षेत्र में भी ववरजन बाजी ले गयी। अब कमलाचरण के समत्रो ने आग्र करना शुरू ककया कक भाई, नई दलुह न घर में लाये ो, कुछ समत्रों की भी किक्र करों। सुनत े ै परम सनु्दरी पाये ो। कमलाचरण को रूपये तो ससुराल से समले ी थे, जेब खनखनाकर बोले--अजी, दावत लो। शराबें उडाओ। , ब ुत शोरगुल न मचाना, न ीं तो क ीं भीतर खबर ोगी तो समिगेें कक ये गुण्ड े ै। जब से व घर में आयी ै, मेरे तो ोश उड े ुए ै। क ता ंू, अंगे्रजी, िारसी, संस्कृत, अलम-गलम सभी घोटे बैठी ै। डरता ंू क ीं अंगे्रजी में कुछ पूछ बैठी, या िारसी में बातें करने लगे, मु ॅ ताकने के ससवाय और क्या करंूगा ? इससलए अभी जी बचाता किरता ंू। यों तो कमलाचरण के समत्रों की संख्या अपररसमत थी। नगर के ष्जतने कबूतर-बाज, कनकौएबाजा गुण्ड ेथे सब उनके समत्र परन्तु सच्च ेसमत्रों में केवल पांच म ाशय थे और सभी-के-सभी िाकेमस्त नछछोरे थे। उनमें सबसे अधिक सशक्षक्षत समया मजीद थे। ये कच री में अरायज ककया करत ेथे। जो कुछ समलता, व सब शराब में भेट करत।े दसूरा नम्बर मीदंखा का था। इन म ाशय ने ब ुत पैतकृ संपनत पायी थी, परन्तु तीन वर्ा में सब कुछ ववलास में लुटा दी। अब य ढंग था कक सांय को सज-िजकर गासलयों में िूल ि कत ेकिरत ेथे। तीसरे जरत सैयद ुसैन थे-पक्के जुआरी, नाल के परम भक्त, सैकंडों के दांव लगाने वाले, स्त्री ग नों पर ाथ म जना तो ननत्य का इनका काम था। शेर् दो म ाशय रामसेवकलालल और चन् दलूाल कच री में नौकर थे। वेतन कम, पर ऊपरी

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आमदनी ब ुत थी। आिी सुरापान की भेट करत,े आिी भोग-ववलास में उडात।े घर में लोग भूखे मरे या सभक्षा म गें, इन् ें केवल अपने सुख से काम था। सला तो ो चुकी थी। आठ बजे जब डडप्टी सा ब लेटे तो ये प चों जन ेएकत्र ुए और शराब के दौर चलने लगे। प चों पीने में अभ्यस्त थे। अब नशे का रंग जमा,ब क-ब ककर बातें करने लगे। मजीद--क्यों भाई कमलाचरण, सच क ना, स्त्री को देखकर जी खुश ो गया कक न ीं ? कमला--अब आप ब कने लगे क्यों ? रामसेवक--बतला क्यों न ीं देत,े इसमें िेंपने की कौन-सी बात ै ? कमला--बतला क्या अपना ससर दूं, कभी सामने जाने का सयंोग भी तो ुआ ो। कल ककवाड की दरार से एक बार देख सलया था, अभी तक धचत्र ऑखों पर किर र ा ै। चन्दलूाल--समत्र, तुम बड ेभाग्यवान ो। कमला--ऐसा व्याकुल ुआ कक धगरत-ेधगरत ेबचा। बस, परी समि लो। मजीद--तो भई, य दोस्ती ककस हदन काम आयेगी। एक नजर में भी हदखाओं। सैयद--बेशक दोस्ती के य ी मानी ै कक आपस में कोई पदाा न र े। चन्दलूाल--दोस्ती में क्या पदाा ? अंगे्रजो को देखों,बीबी डोली से उतरी न ीं कक यार दोस्त ाथ समलाने लगे। रामसेवक--मुि ेतो त्रबना देखे चैन न आयेगा ? कमला--(एक िप लगा कर) जीभ काट ली जायेगी, समि े?

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रामसेवक--कोई धचन्ता न ीं, ऑखें तो देखने को र ेंगी। मजीद--भई कमलाचरण, बुरा मानने की बात न ीं, अब इस वक्त तुम् ारा िजा ै कक दोस्तों की िरमाइश पूरी करो। कमला--अरे। तो मैं न ीं कब करता ंू ? चन्दलूाल--वा मेरे शेर। ये ी मदों की सी बातें ै। तो म लोग बन-ठनकर आ जाय,ॅ क्यों? कमला--जी, जरा मुं में कासलख लगा लीष्जयेगा। बस इतना ब ुत ै। सैयद--तो आज ी ठ री न। इिर तो शराब उड र ी थी, उिर ववरजन पलंग पर लेटी ुई ववचार में मग्न ो र ी थी। बचपन के हदन भी कैसे अच्छे ोत े ैं। यहद वे हदन एक बार किर आ जात।े ओ । कैसा मनौ र जीवन था। संसार पे्रम और प्रीनत की खान थी। क्या व कोई अन्य संसार था ? क्या उन हदनों संसार की वस्तुए ब ुत सुन्दर ोती थी? इन् ीं ववचारों में ऑख िपक गयी और बचपन की एक घटना आंखों के सामने आ गयी। लल्लू ने उसकी गुडडया मरोड दी। उसने उसकी ककताब के दो पन्ने िाड हदये। तब लल्लू ने उसकी पीठ मं जोर से चुटकी ली, बा र भागा। व रोने लगी और लल्लू को कोस र ी थी कक सवामा उसका ाथ पकड ेआयी और बोली--क्यों बेटी इसने तुम् ें मारा ै न ? य ब ुत मार-मार कर भागता ै। आज इसकी खबर लेती ं, देखंू क ां मारा ै। लल्ल ूने डबडबायी ऑखों से ववरजन की ओर देखा। तब ववरजन ने मुस्करा कर क ा--मुि ेउन् ांने क मारा ै। ये मुि ेकभी न ीं मारत।े य क कर उसका ाथ पकड सलया। अपने ह स्से की समठाई खखलाई और किर दोनों समलकर खेलने लगे। व समय अब क ां। रात्रत्र अधिक बीत गयी थी, अचानक ववरजन को जान पडा कक कोई सामने वाली दीवार िमिमा र ा ै। उसने कान लगाकर सुना। बराबर शब्द आ र े थे। कभी रूक जात ेकिर सुनायी देत।े थोडी देर में समट्टी धगरन लगी। डर के मारे ववरजन

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के ाथ-पांव िूलने लगे। कलेजा िक-िक करने लगा। जी कडा करके उठी और म राष्जन चतर स्त्री थी। समिी कक धचल्लाऊंगी तो जाग ो जायेगी। उसने सुन रखा था कक चोर पह ले सेि में पांव डालकर देखत े ै तब आप घुसत े ै। उसने एक डडंा उठा सलया कक जब परै डालेगा तो ऐसा तानकर मारंूगी कक ट ग टूट जाएगी। पर चोर न पांव के स्थन पर ससर रख हदया। म राष्जन घात में थी ी डडंा चला हदया। खटक की आवाज आयी। चोर ने िट ससरं खीच सलया और क ता ुआ सुनायी हदया--‘उि मार डाला, खोपडी िन्ना गयी’। किर कई मनुष्यों के ॅसने की ध्वनन आयी और तत्पश्चात सन्नाटा ो गया। इतने में और लोग भी जाग पड ेऔर शेर् रात्रत्र बातचीत में व्यतीत ुई। प्रात:काल जब कमलाचरण घर मं आये, तो नेत्र लाल थे और ससर में सूजन थी। म राष्जम ने ननकट जाकर देखा, किर आकर ववरजन से क ा--ब ू एक बात क ंू। बुरा तो न मानोगी ? ववरजन -– बुरा क्यों मानूगीं, क ो क्या क ती ो? म राष्जन -– रात को सेंि पडी थी व चोरों ने न ीं लगायी थी। ववरजन -–किर कौन था? म राष्जन –- घर ी के भेदी थे। बा री कोई न था। ववरजन –- क्या ककसी क ारन की शरारत थी? म राष्जन –- न ीं, क ारों में कोई ऐसा न ीं ै। ववरजन -– किर कौन था, स्पष्ट क्यों न ीं क ती? म ाराष्जन –- मेरी जान में तो छोटे बाब ूथे। मैंने जो लकडी मारी थी, व उनके ससर में लगी। ससर िूला ुआ ै।

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इतना सुनत े ी ववरजन की भकुृटी चढ़ गयी। मुखमंडल अरुण ो आया। कु्रद्व ोकर बोली –- म राष्जन, ोश संभालकर बातें करो। तुम् ें य क त े ुए लाज न ीं आती? तम् ें मेरे सम्मुख ऐसी बात क ने का सा स कैसे ुआ? साक्षात ्मेरे ऊपर कलंक का टीका लगा र ी ो। तुम् ारे बुढ़ापे पर दया आती ै, न ीं तो अभी तुम् ें य ां से खडे-खड ेननकलवा देती। तब तुम् ें ववहदत ोता कक जीभ को वश में न रखने का क्या िल ोता ै! य ां से उठ जाओ, मुि ेतुम् ारा मुं देखकर ज्वर-सा चढ़ र ा ै। तुम् ें इतना न समि ्पडा कक मैं कैसा वाक्य मुं से ननकाल र ी ंू। उन् ें ईश्वर ने क्या न ीं हदया ै? सारा घर उनका ै। मेरा जो कुछ ै, उनका ै। मैं स्वयं उनकी चरेी ंू। उनके संबंि में तुम ऐसी बात क बैठीं। परन्तु ष्जस बात पर ववरजन इतनी कु्रद्व ुई, उसी बात पर घर के और लोगों को ववशवास ो गया। डडप्टी सा ब के कान में भी बात प ंुची। वे कमलाचरण को उससे अधिक दषु्ट-प्रकृनत समित ेथे, ष्जतना व था। भय ुआ कक क ीं य म ाशय ब ू के ग नों पर न ाथ बढ़ायें: अच्छा ो कक इन् ें छात्रालय में भेज दूं। कमलाचरण ने य उपाय सुना तो ब ुत छटपटाया, पर कुछ सोच कर छात्रालय चला गया। ववरजन के आगमन से पूवा कई बार य सला ुई थी, पर कमला के ठ के आगे एक भी न चलती थी। य स्त्री की दृष्ष्ट में धगर जाने का भय था, जो अब की बार उसे छात्रालय ले गया। ***

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13. कायापलट

प ला हदन तो कमलाचरण ने ककसी प्रकार छात्रालय में काटा। प्रात: से सायंकाल तक सोया ककये। दसूरे हदन ध्यान आया कक आज नवाब सा ब और तोखे समजाा के बटेरों में बढ़ाऊ जोड ैं। कैसे-कैसे मस्त पटे्ठ ैं! आज उनकी पकड देखने के योग्य ोगी। सारा नगर िट पड ेतो आश्चया न ीं। क्या हदल्लगी ै कक नगर के लोग तो आनंद उडायें और मैं पडा रोऊं। य सोचते-सोचत ेउठा और बात-की-बात में अखाड ेमें था। य ां आज बडी भीड थी। एक मेला-सा लगा ुआ था। सभश्ती नछडकाव कर र े थे, ससगरेट, खोमच ेवाले और तम्बोली सब अपनी-अपनी दकुान लगाये बैठे थे। नगर के मनचले युवक अपने ाथों में बटेर सलये या मखमली अड्डों पर बुलबुलों को बैठाये मटरगश्ती कर र े थे कमलाचरण के समत्रों की य ां क्या कमी थी? लोग उन् ें खाली ाथ देखत ेतो पूछत े-– अरे राजा सा ब! आज खाली ाथ कैसे? इतने में समयां, सैयद मजीद, मीद आहद नशे में चूर, ससगरेट के िुऐं भकाभक उडात ेदीख पड।े कमलाचरण को देखत े ी सब-के-सब सरपट दौड ेऔर उससे सलपट गये। मजीद -– अब तुम क ां गायब ो गये थे यार, कुरान की कसम मकान के सैंकडो चक्कर लगाये ोंगे। रामसेवक -– आजकल आनंद की रातें ैं, भाई! आंखें न ीं देखत े ो, नशा-सा चढ़ा ुआ ै। चन्दलुाल –- चैन कर र ा ै पट्ठा। जब से सुन्दरी घर में आयी, उसने बाजार की सूरत तक न ीं देखी। जब देखीये, घर में घुसा र ता ै। खूब चैन कर ले यार! कमला -– चैन क्या खाक करंु? य ां तो कैद में िंस गया। तीन हदन से बोडडिंग में पडा ुआ ंू।

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मजीद -- अरे! खुदा की कसम? कमला --लसच क ता ंू, परसों से समट्टी पलीद ो र ी ै। आज सबकी आंख बचाकर ननकल भागा। रामसेवक –- खूब उड।े व मुछंदर सुपररण्टेण्डण्ट िल्ला र ा ोगा। कमला –- य माके का जोड छोडकर ककताबों में ससर कौन मारता। सैयद –- यार, आज उड आये तो क्या? सच तो य ै कक तुम् ारा व ां र ना आित ै। रोज तो न आ सकोगे? और य ां आये हदन नयी सैर, नयी-नयी ब ारें, कल लाला डडग्गी पर, परसों पे्रट पर, नरसों बेडों का मेला-क ां तक धगनाऊं, तुम् ारा जाना बुरा ुआ। कमला –- कल की कटाव तो मैं जरुर देखंूगा, चा े इिर की दनुनया उिर ो जाय। सैयद -– और बेडों का मेला न देखा तो कुछ न देखा। तीसरे प र कमलाचरण समत्रों से त्रबदा ोकर उदास मन छात्रालय की ओर चला। मन में एक चोर-सा बैठा ुआ था। द्वार पर प ंुचकर िांकने लगाकक सुपररण्टेण्डेण्ट सा ब न ों तो लतपककर कमरे में ो र ंू। तो य देखता ै कक व भी बा र ी की ओर आ र े ैं। धचत्त को भली-भांनत दृढ़ करके भीतर पैठा। सुररण्टेण्डेण्ट सा ब ने पूछा –- अब तक ां थे? ‘एक काम से बाजार गया था’। ‘य बाजार जाने का समय न ीं ै’। ‘मुि ेज्ञात न ीं था, अब ध्यान रखंूग को जब कमला चारपाई पर लेटा तो सोचने लगा –- यार, आज तो बच गया, पर उत्तम तभी ो कक कल बचंू। और

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परसों भी म ाशय की आंख में िूल डालूं। कल का दृश्य वस्तुत:दशानीय ोगा। पतंग आकाश में बातें करेंगे और लम्बे-लम्बे पेंच ोंगे। य ध्यान करते-करत ेसो गया। दसूरे हदन प्रात: काल छात्रालय से ननकल भागा। सुहृदगण लाल डडग्गी पर उसकी प्रतीक्षा कर र े थे। देखत े ी गदगद् ो गये और पीठ ठोंकी। कमलाचरण कुछ देर तक तो कटाव देखता र ा। किर शौक चरााया कक क्यों न मैं भी अपने कनकौए मंगाऊं और अपने ाथों की सिाई हदखलाऊं। सैयद ने भडकाया, बद-बदकर लडाओ। रुपये म देंगे। चट घर पर आदमी दौडा हदया। पूरा ववश्वास था कक अपने मािं ेसे सबको परास्त कर दूंगा। परन्तु जब आदमी घर से खाली ाथ आया, तब तो उसकी दे में आग-सी-लग गयी। ण्टर लेकर दौडा और घर प ंुचत े ी क ारों को एक ओर से सटर-सटर पीटना आरंभ ककया। बेचारे बैठे ुक्का: तमाखू कर र े थे। ननरपराि अचानक ण्टर पड ेतो धचल्ला-धचल्लाकर रोने लेगे। सारे मु ल्ले में एक कोला ल मच गया। ककसी को समि ी में न आया कक मारा क्या दोर् ै? व ां क ारों का भली-भांनत सत्कार करके कमलाचरण अपने कमरे में प ंुचा। परन्तु व ां की ददुाशा देखकर क्रोि और भी प्रज्ज्वसलत ो गया। पतंग िटे ुए थे, चखखायां टूटी ुई थीं, मांि ेलष्च्छयां उलि ्पडीं थीं, मानो ककसी आपनत ने इन यवन योद्वाओं का सत्यानाश कर हदया था। समि गया कक अवश्य य माताजी की करतूत ै। क्रोि से लाल माता के पास गया और उच्च स्वर से बोला – क्या मां! तुम सचमुच मेरे प्राण ी लेने पर आ गयी ो? तीन हदन ुए कारागार में सभजवाया पर इतने पर भी धचत्त को संतोर् न ुआ। मेरे ववनोद की सामधग्रयों को नष्ट कर डाला क्यों? पे्रमवती -– (ववस्मय से) मैंने तुम् ारी कोई चीज़ न ीं छुई! क्या ुआ? कमला –- (त्रबगडकर) िूठों के मुख में कीड ेपडत े ैं। तुमने मेरी वस्तुएं न ीं छुई तो ककसको सा स ै जो मेरे कमरे में जाकर मेरे कनकौए और चखखायां सब तोड-िोड डाले, क्या इतना भी न ीं देखा जाता। पे्रमवती -– ईश्वर साक्षी ै। मैंने तुम् ारे कमरे में पांव भी न ीं रखा। चलो, देखंू कौन-कौन चीज़ें टूटी ैं। य क कर पे्रमवती तो इस कमरे की ओर चली और कमला क्रोि से भरा आंगन में खडा र ा कक इतने में मािवी ववरजन के कमरे से ननकली और उसके ाथ में एक धचट्टी देकर चली गयी। सलखा ुआ था--

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‘अपराि मैंने ककया ै। अपराधिन मैं ंू। जो दण्ड चा े दीष्जए’। य पत्र देखत े ी कमला भीगी त्रबल्ली बन गया और दबे पावं बैठक की ओर चला। पे्रमवती पदे की आड से सससकत े ुए नौकरों को डांट र ी थी, कमलाचरण ने उसे मना ककया और उसी क्षण कुछ और कनकौए जो बच े ुए थे, स्वंय िाड डाले, चखखायां टुकडे-टुकड ेकर डालीं और डोर मेंहदयासलाई लगा दी। माता के ध्यान ी में न ीं आता था कक क्या बात ै? क ां तो अभी-अभी इन् ीं वस्तुओं के सलए संसार ससर पर उठा सलया था, और क ा आप ी उसका शत्र ु ो गया। समिी, शायद क्रोि से ऐसा कर र ा ों मानाने लगीं, पर कमला की आकृनत से क्रोि तननक भी प्रकट न ोता था। ससथरता से बोला – क्रोि में न ीं ंू। आज से दृढ़ प्रनतज्ञा करता ंू कक पतंग कभी न उडाऊाँ गां मेरी मखूाता थी, इन वस्तुओं के सलए आपसे िगड बैठा। जब कमलाचरण कमरे में अकेला र गया तो सोचने लगा-ननस्सन्दे मेरा पतंग उडाना उन् े नापसन्द ै, इससे ाहदाक घणृा ै; न ीं तो मुि पर य अत्याचार कदावप न करतीं। यहद एक बार उनसे भेंट ो जाती तो पूछता कक तुम् ारी क्या इच्छा ै; पर कैसे मुाँ हदखाऊाँ । एक तो म ामूशा, नतस पर कई बार अपनी मूखाता का पररचय दे चुका। सेंिवाली घटना की सूचना उन् ें अवश्य समली ोगी। उन् ें मुख हदखाने के योग्य न ीं र ा। अब तो य ी उपाय ै कक न तो उनका मुख देखूाँ न अपना हदखाऊाँ , या ककसी प्रकार कुछ ववद्या सीखूाँ। ाय ! इस सुन्दरी ने कैसार स्वरुप पाया ै! स्त्री नी अप्सरा जान पडती ै। क्या अभी व हदन भी ोगा जब कक व मिुसे पे्रम करेगी? क्या लाल-लाल रसीले अिर ै! पर ै कठोर हृदय। दया तो उसे छू न ी गयी। क ती ै जो दण्ड दूाँ? यहद पा जाऊाँ हृदय से लगा लू। अच्छा, तो अब आज से पढ़ना चाह ये। य सोचते-सोचत ेउठा और दरबा खोलकर कबूतरों का उडाने लगा। सकैडो जोड ेथे ओर एक-से-एक बढ़-चढ़कर। आकाश मे तारे बन जाएाँ, ड ेतो हदन-भर उतरने का नाम न लें। जगर क बूतरबाज एक-एक जोड पर गुलामी करने को तैयार थे। परन्तु क्षण-मात्र में सब-के-सब उडा हदय। जब दरबा खाली ो गया, तो क ाररों को आज्ञा दी कक इसे उठा ले जाओ और आग में जला दो। छत्ता भी धगरा दो, न ीं तो सब कबूतर जाकर उसकी पर बैठेंगें। कबूतरों का काम समाप्त करके

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बटेरों और बुलबुलों की ओर चले और उनकी भी कारागार से मुक्त कर हदया। बा र तो य चररत्र ो र ा था, भीतर पे्रमवती छाती पीट र ी थी कक ल़का न जाने क्या करने तर तत्पर ुआ ै? ववरजन को बुलाकर क ा-बेटी? बच्च ेको ककसी प्रकार रोको। न-जाने उसने मन मे क्या ठानी ै? य क क रोने लगी! ववरजन को भी सन्दे ो र ा था कक अवश्य इनकी कुछ और नयीत ै न ीं तो य क्रोि क्यों? यद्यवप कमला दवु्यासनी था, दरुाचारी था, कुचररत्र था, परन्तु इन सब दोर्ों के ोत े ुए भी उसमें एक बडा गुण भी था, ष्जसका कोई स्त्री अव ेलना न ीं कर सकती। उसे वजृरानी से स्ववी प्रीनत थी। और इसका गुप ्रीनत से कई बार पररचय भी समल गया था। य ी कारण था ष्जसेन ववरजन को इतना गवाशील बना हदया था। उसने कागेज ननकाला और य पत्र बा र भेजा। “वप्रयतम, य कोप ककस पर ै? केवल इसीसलए कक मैंने दो-तीन कनकौए िाडृ डाले? यहद मुि ेज्ञात ोता कक आप इतनी-सी बात पर ऐसे कु्रद्व ो जायेंगे, तो कदावप उन पर ाथ न लगाती। पर अब तो अपराि ो गया, क्षमा कीष्जये। य प ला कसूर ै आपकी वजृरानी।” कमलाचरण य पत्र पाकर ऐसा प्रमुहदत ुआ, माने सारे जगत की संपष्त्त प्राप्त ो गयी। उत्तर देने की इच्छा ुई, पर लेखनी ी न ीं उठती थी। न प्रशष्स्त समलती ै, न प्रनतष्ठा, न आरंभ का ववचार आता, न समाष्प्त का। ब ुत चा त े ैं कक भावपूणा ल ल ाता ुआ पत्र सलखंू, पर बुद्वव तननक भी न ीं दौडती। आज प्रथम बार कमलाचरण को अपनी मुखाता और ननरक्षरता पर रोना आया। शोक ! मैं एक सीिा-सा पत्र भी न ीं सलख सकता। इस ववचार से व रोने लगा और घर के द्वार सब बन्द कर सलये कक कोई देख न ले।

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तीसरे प र जब मुंशी श्यामाचरण घर आये, तो सबसे प ली वस्तु जो उनकी दृष्ष्ट में पडी, व आग का अलावा था। ववष्स्मत ोकर नौकरों से पूडा-य अलाव कैसा? नौकरों ने उत्तर हदया--सरकार! दरबा जल र ा ै। मुंशीजी-- (घुडककर) इसे क्यों जलात े ो? अब कबूतर क ााँ र ेंगे? क ार--छोटे बाबू की आज्ञा ै कक सब दरबे जला दो मुंशीजी-- कबूतर क ााँ गये? क ार--सब उडा हदये, एक भी न ीं रखा। कनकौए सब िाड डाले, डोर जला दी, बडा नुकसान ककया। क रों ने अपनी समि में मार-पीट का बउला सलया। बेचारे समि ेकक मुंशीजी इस नुकासन के सलये कमलाचरण को बुरा-भला क ेंगे, परन्तु मंशीजी ने य समाचार सुना तो भैंचक्के-से र गये। उन् ी जानवरों पर कमलाचरण प्राण देता था, आज अकस्मात ्क्या कायापलट ो गयी? अवश्य कुछ भेद ै। क ार से क ा- बच्च ेको भेज दो। एक समनट में क ार ने आकर क ा-- जुर, दरवाजा भीतर से बन्द ै। ब ुत खटखटाया, बोलत े ी न ीं। इतना सुनना था कक मुंशीजी का रुधिर शुष्क ो गया। िट सन्दे ुआ कक बच्च ेने ववर् खा सलया। आज एक ज र खखलाने के मुकदमें का िैसला ककया था। नंगे, पााँव दौड ेऔर बन्द कमरे के ककवाड पर बजपूवाक लात मारी और क ा- बच्चा! बच्चा! य क ते-क त ेगला रुाँ ि गया। कमलाचरण वपता की वाणी पह चान कर िट उठा और अपने आाँसूं पोंछकर ककवाड खोल हदया। परन्तु उसे ककतना आश्चया ुआ, जब मुशंीजी ने धिक्कार, िटकार के बदले उसे हृदय से लगा सलया और व्याकुल ोकर पूछा-बच्चा, तुम् े मेरे ससर की कसम, बता दो तुमने कुछ खा तो न ीं सलया? कमलाचरण ने इस प्रश्न का अथा समिने के

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सलये मुंशीजी की ओर आाँखें उठायी तो उनमें जल भरा था, मुंशीजी को पूरा ववश्वास ो गया कक अवश्यश ्ववपष्त्त का सामना ुआ। एक क ार से क ा-डाक्टर सा ब को बुला ला। क ना, अभी चसलये। अब जाकर दबुुावि कमलाचरण ने वपता की इस घबरा ट का अथा समिा। दौडकर उनसे सलपट गया और बोला-- आपको भ्रम ुआ ै। आपके ससर की कसम, मैं ब ुत अच्छी तर ूाँ। परन्तु डडप्टी सा ब की बुवि ष्स्थर न थी; समिे, य मुि ेरोककर ववलम्ब करना चा ता ै। ववनीत भाव से बोले--बच्चा? ईश्वर के सलए मुि ेछोड दो, मैं सन्दकू से एक और्धि ले आऊाँ । मैं क्या जानता था कक तुम इस नीयत से छात्रालय में जा र े ो। कमलाचरण-- इश्वार-साक्षी से क ता ूाँ, मैं त्रबलकुल अच्छा ूाँ। मैं ऐसा लज्जावान ोता, तो इतना मूखा क्यों बना र ता? आप व्यथा ी डाक्टर सा ब को बुला र े ैं। मुंशीजी-- (कुछ-कुछ ववश्वास करके) तो ककवाड बन्द कर क्या करत ेथे? कमलाचरण-- भीतर से एक पत्र आया था, उत्तर सलख र ा था। मुंशीजी-- और य कबूतर वगैर क्यों उडा हदये? कमला-- इसीसलए कक ननष्श्चंतापूवाक पढूाँ । इन् ीं बखेडों में समय नष्ट ोता था। आज मैनें इनका अन्त कर हदया। अबा आप देखेंगे कक मैं पढ़ने में कैसा जी लगाता ूाँ। अब जाके डडप्टी सा ब की बुवि हठकाने आयी। भीतर जाकर पे्रमवती से समाचार पूछा तो उसने सारी रामायण क सुनायी। उन् ोंने जब सुना कक ववरजन ने क्रोि में आकर कमला के कनकौए िाड डाले और चखराया तोड डाली तो ंस पड ेऔर कमलाचरण के ववनोद के सवानाश का भेद समि में आ गया। बोले-जान पडता ै कक ब ू इन लालजी को सीिा करके छोडगेी।

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14. भ्रम

वजृरानी की ववदाई के पश्चात सुवामा का घर ऐसा सूना ो गया, मानो वपजंरे से सुआ उड गया। व इस घर का दीपक और शरीर की प्राण थी। घर व ी ै, पर चारों ओर उदासी छायी ुई ै। र नेचाला वे ी ै। पर सबके मुख मसलन और नेत्र ज्योनत ीन ो र े ै। वाहटका व ी ै, पर ऋतु पतिड की ै। ववदाई के एक मास पश्चात्र मुशंी संजीवनलाल भी तीथायात्र करने चले गये। िन-संपष्त्त सब प्रताप को ससमापत कर दी। अपने सग मगृछाला, भगवद् गीता और कुछ पुस्तकों के अनतररक्त कुछ न ले गये। प्रताचन्र की पे्रमाकांक्षा बडी प्रबल थीं पर इसके साथ ी उसे दमन की असीम शष्क्त भी प्राप्त थी। घर की एक-एक वस्तु उसे ववरजन का स्मरण कराती र ती थी। य ववचार एक क्षण के सलए भी दरू न ोता था यहद ववरजन मेरी ोती, तो ऐसे सुख से जीवन व्यतीत ोता। परन्तु ववचार को व टाता र ता था। पढ़ने बैठता तो पुस्तक खुली र ती और ध्यान अन्यत्र जा प ंुचता। भोजन करने बैठता तो ववरजन का धचत्र नेत्रों में किरने लगता। पे्रमाष्ग्न को दमन की शष्क्त से दबात-ेदबात ेउसकी अवस्था ऐसी ो गयी, मानो वर्ों का रोगी ै पे्रसमयों को अपनी असभलार्ा परूी ोने की आशा ो यान ो, परन्तु वे मन- ी-मन अपनी पे्रसमकाओं से समलने का आनन्द उठात ेर त े ै। वे भाव-संसार मे अपने पे्रम-पात्र से वाताालाप करत े ैं, उसे छोडत े ैं, उससे रुठत े ैं, उसे मनात े ै और इन भावों में उन् ें तषृ्प्त ोती ै और मन को एक सुखद और रसमय काया समल जाता ै। परन्तु यहद कोई शष्क्त उन् ें इस भावोद्यान की सैर करने से रोके, यहद कोई शष्क्त ध्यान में भी उस वप्रयतम का धचत्र ्न देखने दे, तो उन अभागों पे्रसमयों को क्या दशा ोगा? प्रताप इन् ी अभागों में था। इसमें संदे न ीं कक यहद व चा ता तो सुखद भावों का आनन्द भोग सकता था। भाव-संसार का भ्रमणअतीव सुखमय ोता ै, पर कहठनता तो य थी कक व ववरजन का ध्यान भी कुष्त्सत वासनाओं से पववत्र रखना चा ता था। उसकी सशक्षा ऐसे पववत्र ननयमों से ुई थी और उसे ऐसे पववत्रत्माओं और नीनतपरायण मनुष्यों की संगनत से लाभ उठाने क अवसर समले थे कक उसकी दृष्ष्ट में ववचार की पववत्र्ता की भी उतनी ी प्रनतष्ठा थी ष्जतनी आचार की पववत्रता की। य कब संभव था कक व ववरजन को-ष्जसे कई बार बह न क चुका था और ष्जसे

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अब भी बह न समिने का प्रयत्न करता र ता था- ध्यानावस्था में भी ऐसे भावों का कें र बनाता, जो कुवासनाओं से भले ी शुद्व ो, पर मन की दवूर्त आवेगों से मुक्त न ीं ो सकत ेथे जब तक मुन्शीजी संजीवनलाल ववद्यमान थे, उनका कुछ-न-कुछ समय उनके संग ज्ञान और िमा-चचाा में कट जाता था, ष्जससे आत्मा को संतोर् ोता था ! परन्तु उनके चले जाने के पश्चात आत्म-सुिार का य अवसर भी जाता र ा। सुवामा उसे यों मसलन-मन पाती तो उसे ब ुत द:ुख ोता। एक हदन उसने क ा- यहद तुम् ारा धचत्त न लगता ो, प्रयाग चले जाओ व ााँ शायद तुम् ारा जी लग जाए। य ववचार प्रताप के मन में भी कई बार उत्पन्न ुआ था, परन्तु इस भय से कक माता को य ां अकेले र ने में कष्ट ोगा, उसने इस पर कुछ ध्यान न ीं हदया था। माता का आदेश पाकर इरादा पक्का ो गया। यात्रा की तैयाररयां करने लगा, प्रस्थान का हदन ननष्श्चत ो गया। अब सुवामा की य दशा ै कक जब देखखए, प्रताप को परदेश में र ने-स ने की सशक्षाएं दे र ी ै-बेटा, देखों ककसी से िगडा मत मोल लेना।िगडने की तुम् ारी वैसे भी आदत न ीं ै, परन्तु समिा देती ूाँ। परदेश की बात ै िंूक-िंूककर पग िरना। खाने-पीने में असंयम न करना। तुम् ारी य बुरी आदत ै कक जाडों में सांयकाल ी सो जात े ो, किर कोई ककतना ी बुलाये पर जागत े ी न ीं। य स्वभाव परदेश में भी बना र े तो तुम् ें सांि का भोजन का े को समलेगा? हदन को थोडी देर के सलए सो सलया करना। तुम् ारी आंखों में तो हदन को जैसे नींद न ीं आती। उसे जब अवकाश समला, बेटे को ऐसी समयोधचत सशक्षाएं हदया करती। ननदान प्रस्थान का हदन आ ी गया। गाडी दस बजे हदन को छूटती थी। प्रताप ने सोचा- ववरजन से भेंट कर लू।ं परदेश जा र ा ूाँ। किर न जाने कब भेंट ो। धचत को उत्सुक ककया। माता से क बैठा। सुवामा ब ुत प्रसन्न ुई। सुवामा ब ुत प्रसन्न ुई। एक थाल में मोदक समोसे और दो-तीन प्रकार के मुरब्बे रखकर रधियाको हदये कक लल्लू के संग जा। प्रताप ने बाल बनवाये, कपड ेबदले। चलने को तो चला, पर ज्यों-ज्यों पग आगे उठाता ै, हदल बैठा जाता ै। भांनत-भांनत के ववचार आ र े ै। ववरजन न जाने क्या मन में समिे, क्या सन समि।े चार म ीने बीत गये, उसने एक धचट्ठी भी तो मुिें अलग से न ीं सलखी। किर क्योंकर क ंू कक मेरे समलने से उसे प्रसन्नता ोगी। अजी, अब उसे तुम् ारी धचन्ता ी क्या ै? तुम मर भी जाओ तो व आंसू न ब ाये। य ां की बात और

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थी। व अवश्य उसकी आाँखों में खटकेगा। क ीं य न समि ेकक लालाजी बन-ठनकर मुि ेररिाने आये ैं। इसी सोच-ववचार में गढ़ता चला जाता था। य ााँ तक कक श्यामाचरण का मकान हदखाई देने लगा। कमला मैदान ट ल र ा था उसे देखत े ी प्रताप की व दशा ो गई कक जो ककसी चोर की दशा ससपा ी को देखकर ोती ै िट एक घर कर आड में नछप गया और रधिया से बोला- तू जा, ये वस्तुएाँ दे आ। मैं कुछ काम से बाजार जा र ा ूाँ। लौटता ुआ जाऊाँ गा। य क कर बाजार की ओर चला, परन्तु केवल दस ी डग चला ोेेगा कक वपर म री को बुलाया और बोला- मुि ेशायद देर ो जाय, इससलए न आ सकूाँ गा। कुछ पूछे तो य धचट्ठी दे देना, क कर जेब से पेष्न्सल ननकाली और कुछ पंष्क्तयां सलखकर दे दी, ष्जससे उसके हृदय की दशा का भली-भंनत पररचय समलता ै। “मैं आज प्रयाग जा र ा ूाँ, अब व ीं पढंूगा। जल्दी के कारण तुमसे न ीं समल सका। जीववत र ूाँगा तो किर आऊाँ गा। कभी-कभी अपने कुशल-क्षेम की सूचना देती र ना। तुम् ारा प्रताप” प्रताप तो य पत्र देकर चलता ुआ, रधिया िीरे-िीरे ववरजन के घर प ुाँची। व इसे देखत े ी दौडी और कुशल-क्षेम पूछने लगी-लाला की कोई धचट्ठी आयी थी? रधिया-- जब से गये, धचट्ठी-पत्री कुछ भी न ीं आयी। ववरजन-- चाची तो सूख से ै? रधिया–- लल्लू बाब ूप्रयागराज जात ै तीन तननक उदास र त ै। ववरजन –- (चौंककर) लल्लू प्रयाग जा र े ैं। रधिया –- ां, म सब ब ुत समिाया कक परदेश मा ंक ां जै ो। मुदा कोऊ की सनुत ै?

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रधिया –- कब जायेंगे? रधिया –- आज दस बजे की टे से जवय्या ै। तुसे भेंट करन आवत र ेन, तवन दवुारर पर आइ के लवट गयेन। ववरजन –- य ं तक आकर लौट गये। द्वार पर कोई था कक न ीं? रिीया -– द्वार पर क ां आये, सडक पर से चले गये। ववरजन –- कुछ क ा न ीं, क्यां लौटा जाता ंू? रधिया -– कुछ क ा न ीं, इतना बोले कक ‘ मार टेम छह ट ज ै, तौन म जाइत ैं।’ ववरजन ने घडी पर दृष्ष्ट डाली, आठ बजने वाले थे। पे्रमवती के पास जाकर बोली -– माता! लल्ल ूआज प्रयाग जा र े ैं, हद आप क ें तो उनसे समलती आऊं। किर न जाने कब समलना ो, कब न ो। म री क ती ै कक बस मुिसेसमलने आत ेथे, पर सडक के उसी पार से लौट गये। पे्रमवती -– अभी न बाल गुंथवाये, न मांग भरवायी, न कपडे बदले बस जाने को तैयार ो गयी। ववरजन –- मेरी अम्मां! आज जाने दीष्जए। बाल गुंथवाने बठंूैगी तो दस य ीं बज जायेंगे। पे्रमवती -– अच्छा, तो जाओ, पर संध्या तक लौट आना। गाडी तैयार करवा लो, मेरी ओर से सुवामा को पालगन क देना। ववरजन ने कपड ेबदले, मािवी को बा र दौडाया कक गाडी तयैार करने के सलए क ो और तब तक कुछ ध्यान न आया। रधिया से पूछा -– कुछ धचट्टी-पत्री न ीं दी?

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रधिया ने पत्र ननकालकर दे हदया। ववरजन ने उसे र्ा सेसलया, परन्तु उसे पढ़त े ी उसका मुख कुम् ला गया। सोचने लगीकक व द्वार तक आकर क्यों लौट गये और पत्र भी सलखा तो ऐसा उखडा और अस्पष्ट। ऐसी कौन जल्दी थी? क्या गाडी के नौकर थे, हदनभर में अधिक न ीं तो पांच – छ: गाडडयां जाती ोंगी। क्या मुिसे समलने के सलए उन् े दो घंटों का ववलम्ब भी अस य ो गया? अवश्य इसमें कुछ-न-कुछ भेद ै। मुिसे क्या अपराि ुआ? अचानक उसे उस सय का ध्यान आया, जब व अनत व्याकुल ो प्रताप के पास गयी थी और उसके मुख से ननकला था, ‘लल्लू मुिसे कैसे स ा जायेगा!’ ववरजन को अब से पह ले कई बार ध्यान आ चुका कक मेरा उस समय उस दशा में जाना ब ुत अनुधचत था। परन्तु ववश्वास ो गया कक मैं अवश्य लल्लू की दृष्ष्ट से धगर गयी। मेरा पे्रम और मन अब उनके धचत्तमें न ीं ै। एक ठण्डी सांस लेकर बैठ गयी और मािवी से बोली -– कोचवान से क दो, अब गाडी न तैयार करें। मैं न जाऊंगी। ***

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15. कताव्य और पे्रम का िंघर्ा जब तक ववरजन ससुराल से न आयी थी तब तक उसकी दृष्ष्ट में एक ह न्द-ुपनतव्रता के कताव्य और आदशा का कोई ननयम ष्स्थर न ुआ था। घर में कभी पनत-सम्बंिी चचाा भी न ोती थी। उसने स्त्री-िमा की पुस्तकें अवश्य पढ़ी थीं, परन्तु उनका कोई धचरस्थायी प्रभाव उस पर न ुआ था। कभी उसे य ध्यान ी न आता था कक य घर मेरा न ं ै और मुि ेब ुत शीघ्र ी य ां से जाना पडगेा। परन्तु जब व ससुराल में आयी और अपने प्राणनाथ पनत को प्रनतक्षण आंखों के सामने देखने लगी तो शनै: शनै: धचत-्वनृतयों में पररवतान ोने लगा। ज्ञात ुआकक मैं कौन ंू, मेरा क्या कताव्य ै, मेरा क्या िाम और क्या उसके ननवाा की रीनत ै? अगली बातें स्वप्नवत ्जान पडने लगीं। ां ष्जस समय स्मरण ो आता कक अपराि मुिसे ऐसा ुआ ै, ष्जसकी कासलमा को मैं समटा न ीं सकती, तो स्वंय लज्जा से मस्तक िुका लेती और अपने को उसे आश्चया ोता कक मुि ेलल्लू के सम्मुख जाने का सा स कैसे ुआ! कदाधचत ्इस घटना को व स्वप्न समिने की चषे्टा करती, तब लल्लू का सौजन्यपूणा धचत्र उसे सामने आ जाता और व हृदय से उसे आशीवाद देती, परन्तु आज जब प्रतापचंर की क्षुर-हृदयता से उसे य ववचार करने का अवसर समला कक लल्लू उस घटना को अभी भुला न ीं ै, उसकी दृष्ष्ट में अब मेरी प्रनतष्टा न ीं र ी, य ां तककक व मेरा मुख भी न ीं देखना चा ता, तो उसे ग्लननपूणा क्रोि उत्पन्न ुआ। प्रताप की ओर से धचत्त सलन ो गया और उसकी जो पे्रम और प्रनतष्टा उसके हृदय में थी व पल-भर में जल-कण की भांनत उडने लगी। ष्स्त्रयों का धचत्त ब ुत शीघ्र प्रभावग्रा ी ोता ै,ष्जस प्रताप के सलए व अपना असनतत्व िूल में समला देने को तत्पर थी, व ी उसके एक बाल-व्यव ार को भी क्षमा न ीं कर सकता, क्या उसका हृदय ऐसा संकीण ै? य ववचार ववरजन के हृदय में कांटें की भांनत खटकने लगा। आज से ववरजन की सजीवता लुप्त ो गयी। धचत्त पर एक बोि-सा र ने लगा। सोचती कक जब प्रताप मुि ेभलू गये और मेरी रत्ती-भर भी प्रनतष्टा न ीं करत ेतो इस शोक से मै। क्यों अपना प्राण घुलाऊं? जैसे ‘राम तुलसी से, वैसे तुलसी

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राम से’। यहद उन् ें मिसे घणृा ै, यहद व मेरा मुखन ीं देखना चा त े ैं, तो मैं भी उनका मुख देखने से घ्रणा करती ंू और मुि ेउनसे समलने की इच्छा न ीं। अब व अपने ी ऊपर िल्ला उठतीकक मैं प्रनतक्षण उन् ीं की बातें क्यों सोचती ंू और संकल्प करती कक अब उनका ध्यान भी मन में न आने दूंगी, पर तननक देर में ध्यान किर उन् ीं की ओर जा प ंुचता और वे ी ववचार उसे बेचैन करने लगत।े हृदय केइस संताप को शांत करने केसलए व कमलाचरण को सच्च ेपे्रम का पररचय देने लगी। व थोडी देर के सलए क ीं चला जाता, तो उसे उला ना देती। ष्जतने रुपये जमा कर रखे थे, वे सब दे हदये कक अपने सलए सोने की घडी और चने मोल ले लो। कमला ने इंकारककया तो उदास ो गयी। कमला यों ी उसका दास बना ुआ था, उसके पे्रम का बा ुल्य देखकर और भी जान देने लगा। समत्रों ने सुना तो िन्यवाद देने लगे। समयां मीद और सैयद अपने भाग्य को धिकारने लगे कक ऐसी स्ने ी स्त्री मको न समली। तुम् ें व त्रबन मांगे ी रुपये देती ै और य ां स्त्रीयों की खींचतान से नाक में दम ै। चा े अपने पास कानी कौडी न ो, पर उनकी इच्छा अवश्य पूरी ोनी चाह ये, न ीं तो प्रलय मच जाय। अजी और क्या क ें, कभी घर में एक बीड ेपान के सलए भी चले जात े ैं, तो व ां भी दस-पांच उल्टी-सीिी सुने त्रबना न ीं चलता। ईश्वर मको भी तुम् ारी-सी बीवी दे। य सब था, कमलाचरण भी पे्रम करता था और वजृरानी भी पे्रम करती थी परन्तु पे्रसमयों को संयोग से जो र्ा प्राप्त ोता ै, उसका ववरजन के मुख पर कोई धचह्न हदखायी न ीं देता था। व हदन-हदन दबुली और पतली ोती जाती थी। कमलाचरण शपथ दे-देकर पूछताकक तुम दबुली क्यों ोती जाती ो? उसे प्रसन्न ्करने के जो-जो उपाय ो सकत ेकरता, समत्रों से भी इस ववर्य में सम्मनत लेता, पर कुछ लाभ न ोता था। वजृरानी ंसकर क हदया करतीकक तुम कुछ धचन्ता न करो, मैं ब ुत अच्छी तर ंू। य क ते-क त ेउठकर उसके बालों में कंघी लगाने लगती या पंखा िलने लगती। इन सेवा और सत्कारों से कमलाचरण िूलर न समाता। परन्तु लकडी के ऊपर रंग और रोगन लगाने से व कीडा न ीं मरता, जो उसके भीतर बैठा ुआ उसका कलेजा खाये जाता ै। य ववचार कक प्रतापचंर मुि ेभूल गये और मैं उनकी में धगर गयी, शूल की भांनत उसके हृदय को व्यधथत ककया करता था। उसकी दशा हदनों – हदनों त्रबगडती गयी – य ां तक कक त्रबस्तर पर से उठना तक कहठन ो गया। डाक्टरों की दवाएं ोने लगीं।

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उिर प्रतापचंर का प्रयाग में जी लगने लगा था। व्यायाम का तो उसे व्यसन था ी। व ां इसका बडा प्रचार था। मानससक बोि लका करने के सलए शारीररक श्रम से बढ़कर और कोई उपाय न ीं ै। प्रात: कसरत करता, सांयकाल और िुटबाल खलता, आठ-नौ बजे रात तक वाहटका की सैर करता। इतने पररश्रम के पश्चात ्चारपाई पर धगरता तो प्रभात ोने ी पर आंख खुलती। छ: ी मास में कक्रकेट और िुटबाल का कप्तान बन बैठा और दो-तीन मैच ऐसे खेले कक सारे नगर में िूम ो गयी। आज कक्रकेट में अलीगढ़ के ननपुण खखलाडडयों से उनका सामना था। ये लोग ह न्दसु्तान के प्रससद्व खखलाडडयों को परास्त करववजय का डकंा बजात ेय ां आये थे। उन् ें अपनी ववजय में तननक भी संदे न था। पर प्रयागवाले भी ननराश न थे। उनकी आशा प्रतापचंर पर ननभार थी। यहद व आि घण्टे भी जम गया, तो रनों के ढेर लगा देगा। और यहद इतनी ी देर तक उसका गेंद चल गया, तो किर उिर का वार-न्यारा ै। प्रताप को कभी इतना बडा मैच खेलने का संयोग नसमला था। कलेजा िडक र ा था कक न जाने क्या ो। दस बज ेखेल प्रारंभ ुआ। प ले अलीगढ़वालों के खेलने की बारी आयी। दो-ढाई घंटे तक उन् ोंने खूब करामात हदखलाई। एक बजत-ेबजत ेखेल का पह ला भाग समाप्त ुआ। अलीगढ़ ने चार सौ रन ककये। अब प्रयागवालों की बारी आयी पर खखलाडडयों के ाथ-पांव िूले ुए थे। ववश्वास ो गया कक म न जीत सकें गे। अब खेल का बराबर ोना कहठन ै। इतने रन कौन करेगा। अकेला प्रताप क्या बना लेगा ? पह ला खखलाडी आया और तीसरे गेंद मे ववदा ो गया। दसूरा खखलाडी आया और कहठनता से प ॉँच गेंद खेल सका। तीसरा आया और पह ले ी गेंद में उड गया। चौथे ने आकर दो-तीन ह ट लगाये, पर जम न सका। प ॉँचवे सा ब कालेज मे एक थे, पर यां उनकी भी एक न चली। थापी रखते- ी-रखत ेचल हदये। अब प्रतापचन्र दृढ़ता से पैर उठाता, बैट घुमाता मैदान में आयां दोनों पक्षवालों ने करतल ध्वनन की। प्रयोगवालों की श अकथनीय थी। प्रत्येक मनुष्य की दृष्ष्ट प्रतापचन्र की ओर लगी ुई थी। सबके हृदय िडक र े थे। चतुहदाक सन्नाटा छाया ुआ था। कुछ लोग दरू बैठकर दाश्वर से प्राथाना कर र े थे कक प्रताप की ववजय ो। देवी-देवता स्मरण ककये जो र े थे। पह ला गेंद आया, प्रताप नेखली हदया। प्रयोगवालों का सा स घट गया। दसूरा आया, व भी खाली गया। प्रयागवालों का, कलेजा नासभ तक बैठ गया। ब ुत से लोग छतरी

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संभाल घर की ओर चले। तीसरा गेंद आया। एक पडाके की ध्वनन ुई ओर गेंद लू (गमा वा) की भ ॉँनत गगन भेदन करता ुआ ह ट पर खड े ोनेवाले खखलाडी से ससौ गज ओग धगरा। लोगों ने तासलय ॉँ बजायीयं। सूखे िान में पानी पडा। जानेवाले हठठक गये। ननरशे को आशा बाँिी। चौथा गेंद आया और प ले गेंद से दस गज आगे धगरा। िील्डर चौंके, ह ट पर मदद प ाँचायी! पााँचवााँ गेंद आया और कट पर गया। इतने में ओवर ुआ। बालर बदले, नये बालर पूरे बधिक थे। घातक गेंद िें कत ेथे। पर उनके पह ले ी गेंद को प्रताप के आकाश में भेजकर सूया से स्पाश करा हदया। किर तो गेंद और उसकी थापी में मैत्री-सी ो गयी। गेंद आता और थापी से पाश्वा ग्र ण करके कभी पूवा का मागा लेता, कभी पष्श्चम का , कभी उत्तर का और कभी दक्षक्षण का, दौडते-दौडत ेिील्डरों की स ॉँसें िूल गयी,ं प्रयागवाले उछलत ेथे और तासलय ॉँ बजात ेथे। टोवपय ॉँ वायु में उछल र ी थीं। ककसी न रुपये लुटा हदये और ककसी ने अपनी सोने की जंजीर लुटा दी। ववपक्षी सब मन मे कुढ़त,े िल्लात,े कभी क्षेत्र का क्रम पररवतान करते, कभी बालर पररवतान करत।े पर चातुरी और क्रीडा-कौशल ननरथाक ो र ा था। गेंद की थापी से समत्रता दृढ़ ो गयी थी। पूरे दो घन्टे तक प्रताप पडाके, बम-गोले और वाइय ॉँ छोडतमा र ा और िील्डर गंद की ओर इस प्रकार लपकत ेजैसे बच्च ेचन्रमा की ओर लपकत े ैं। रनों की संख्या तीन सौ तक प ुाँच गई। ववपक्षक्षयों के छक्के छूटे। हृदय ऐसा भराा गया कक एक गेंद भी सीिा था। य ां तक कक प्रताप ने पचास रन और ककये और अब उसने अम्पायर से तननक ववश्राम करने के सलए अवकाश म ॉँगा। उसे आता देखकर स स्रों मनुष्य उसी ओर दौड ेऔर उसे बारी-बारी से गोद में उठाने लगे। चारों ओर भगदड मच गयी। सैकडो छात,े छडडय ॉँ टोवपय ॉँ और जूत ेऊध्वागामी ो गये मानो वे भी उमंग में उछल र े थे। ठीक उसी समय तारघर का चपरासी बाइससकल पर आता ुआ हदखायी हदया। ननकट आकर बोला- ‘प्रतापचंर ककसका नाम ै!’ प्रताप ने चौंककर उसकी ओर देखा और चपरासी ने तार का सलिािा उसके ाथ में रख हदया। उसे पढ़त े ी प्रताप का बदन पीला ो गया। दीघा श्वास लेकर कुसी पर बैठ गया और बोरला-यारो ! अब मैच का ननबटारा तुम् ारे ाथ में ै। मेंने अपना कताव्य-पालन कर हदया, इसी डाक से घर चला जााँऊगा। य क कर व बोडडिंग ाउस की ओर चला। सैकडों मनुष्य पूछने लगे-क्या ै ? क्या ै? लोगों के मुख पर उदासी छा गयी पर उसे बात करने का क ॉँ अवकाश ! उसी समय त ॉँगे पर चढ़ा और स्टेशन की ओर चला। रास्ते-भर उसके मन में

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तका -ववतका ोत ेर े। बार-बार अपने को धिक्कार देता कक क्यों न चलत ेसमय उससे समल सलया ? न जाने अब भेंट ो कक न ो। ईश्वर न करे क ीं उसके दशान से वंधचत र ूाँ; यहद र ा तो मैं भी मुाँ मे कासलख पोत क ीं मर र ूाँगा। य सोच कर कई बार रोया। नौ बजे रात को गाडी बनारस प ुाँची। उस पर से उतरत े ी सीिा श्यामाचरण के घर की ओर चला। धचन्ता के मारे ऑखंें डबडबायी ुईं थी और कलेजा िडक र ा था। डडप्टी सा ब ससर िुकाये कुसी पर बैठे थे और कमला डाक्टर सा ब के य ॉँ जाने को उद्यत था। प्रतापचन्र को देखत े ी दौडकर सलपट गया। श्यामाचरण ने भी गले लगाया और बोले--क्या अभी सीिे इला ाबाद से चले आ र े ो? प्रताप--जी ॉँ ! आज माताजी का तार प ुाँचा कक ववरजन की ब ुत बुरी दशा ै। क्या अभी व ी दशा ै ? श्यामाचर--क्या क ूाँ इिर दो-तीन मास से हदनोंहदन उसका शरीर क्षीण ोता जाता ै, और्धियों का कुछ भी असर न ीं ोता। देखें, ईश्वर की क्या इच्छा ै! डाक्टर सा ब तो क त ेथे, क्षयरोग ै। पर वैद्यराज जी हृदय-दौबाल्य बतलात े ैं। ववरजन को जब से सूचना समली कक प्रतापचन्र आये ैं, तब से उसक हृदय में आशा और भय घुडदौड मची ुई थी। कभी सोचती कक घर आये ोंगे, चाची ने बरबस ठेल-ठालकर य ॉँ भेज हदया ोगा। किर ध्यान ुआ, ो न ो, मेरी बीमारी का समाचार पा, घबडाकर चले आये ों, परन्तु न ीं। उन् ें मेरी ऐसी क्या धचन्ता पडी ै? सोचा ोगा-न ीं मर न जाए, चलूाँ सांसाररक व्यव ार पूरा करता आऊं। उन् ें मेरे मरने-जीने का क्या सोच ? आज मैं भी म ाशय से जी खोलकर बातें करंुगी? पर न ीं बातों की आवश्यकता ी क्या ै? उन् ोंने चुप सािी ै, तो मैं क्या बोलूाँ? बस इतना क दूाँगी कक ब ुत अच्छी ूाँ और आपके कुशल की कामना रखती ूाँ! किर मुख न खोलूाँगी! और मैं य मैली-कुचैली साडी क्यों पह ने ूाँ? जो अपना स वेदी न ो उसके आगे य वेश बनाये रखने से लाभ? व अनतधथ की भ ॉँनत आये ैं। मैं भी पा ुनी की भ ॉँनत उनसे समलूाँगी। मनुष्य का धचत्त कैसा चचंल ै? ष्जस मनुष्य की अकृपा ने ववरजन की य गनत बना दी थी, उसी को जलाने के सलए ऐसे-ऐसे उपाय सोच र ी ै।

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दस बजे का समय था। मािवी बैठी पख िल र ी थी। और्धियों की शीसशयााँ इिर-उिर पडी ुई थीं और ववरजन चारपाई पर पडी ुई ये ी सब बातें सोच र ी थी कक प्रताप घर में आया। मािवी चौंककर बोली-बह न, उठो आ गये। ववरजन िपटकर उठी और चारपाई से उतरना चा ती थी कक ननबालता के कारण पथृ्वी पर धगर पडी। प्रताप ने उसे साँभाला और चारपाई पर लेटा हदया। ा! य व ी ववरजन ै जो आज से कई मास पूवा रुप एव ंलावाण्य की मूनता थी, ष्जसके मुखड ेपर चमक और ऑखों में ाँसी का वपास था, ष्जसका भार्ण श्यामा का गाना और ाँसना मन का लुभानाथ। व रसीली ऑखोंवाली, मीठी बातों वाली ववरजन आज केवल अष्स्थचमाावशेर् ै। प चानी न ीं जाती। प्रताप की ऑखों में ऑसंूं भर आये। कुशल पूछना चा ता था, पर मुख से केवल इतना ननकला-ववरजन! और नेत्रों से जल-त्रबन्द ुबरसने लगे। पे्रम की ऑखंे मनभावों के परखने की कसौटी ै। ववरजन ने ऑखं उठाकर देखा और उन अशु्र-त्रबन्दओंु ने उसके मन का सारा मलै िो हदया। जैसे कोई सेनापनत आनेवाले युद्व का धचत्र मन में सोचता ै और शत्रु को अपनी पीठ पर देखकर बद वास ो जाता ै और उसे ननिाररत धचत्र का कुछ ध्यान भी न ीं र ता, उसी प्रकार ववरजन प्रतापचन्र को अपने सम्मुख देखकर सब बातें भूल गयी, जो अभी पडी-पडी सोच र ी थी ! व प्रताप को रोत ेदेखकर अपना सब द:ुख भूल गयी और चारपाई से उठाकर ऑचंल से ऑसू ंपोंछनेलगी। प्रताप, ष्जसे अपरािी क सकत े ैं, इस समय दीन बना ुआ था और ववरजन –ष्जसने अपने को सखकर इस श तक प ुाँचाया था-रो-रोकर उसे क र ी थी- लल्लू चुप र ो, ईश्वर जानता ै, मैं भली-भ ॉँनत अच्छी ूाँ। मानो अच्छा न ोना उसका अपराि था। स्त्रीयों की संवेदनशीलता कैसी कोमल ोती ै! प्रतापचन्र के एक सिारण संकोच ने ववरजन को इस जीवन से उपेक्षक्षत बना हदया था। आज ऑसंू कुछ बूाँदों की उसके हृदय के उस सन्ताप, उस जलन और उस अष्ग्न कोशन्त कर हदया, जो कई म ीनों से उसके रुधिर और हृदय को जला र ी थी। ष्जस रेग को बड-ेबड ेवैद्य और डाक्टर अपनी और्धि तथा उपाय से अच्छा न कर सके थे, उसे अशु्र-त्रबन्दओंु ने क्षण-भर में चंगा कर हदया। क्या व पानी के त्रबन्द ुअमतृ के त्रबन्द ुथे? प्रताप ने िीरज िरकर पूछा-- ववरजन! तुमने अपनी क्या गनत बना रखी ै ?

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ववरजन ( ाँसकर)-- य गनत मैंने न ीं बनायी, तुमने बनायी ै। प्रताप--माताजी का तार न प ुाँचा तो मुि ेसूचना भी न ोती। ववरजन--आवश्यकता ी क्या थी ? ष्जसे भुलाने के सलए तो तुम प्रयाग चले गए, उसके मरन-ेजीने की तुम् ें क्या धचन्ता ? प्रताप--बातें बना र ी ो। पराये को क्यों पत्र सलखतीं ? ववरजन-ककसे आशा थी कक तुम इतनी दरू से आने का या पत्र सलखने का कष्ट उठाओगे ? जो द्वार से आकर किर जाए और मुख देखने से घण करे उसे पत्र भेजकर क्या करती? प्रताप-- उस समय लौट जाने का ष्जतना द:ुख मुि े ुआ, मेरा धचत्त ी जानता ै। तुमने उस समय तक मेरे पास कोई पत्र न भेजा था। मैंने सि, अब सुि भूल गयी। ववरजन--यहद मैं तुम् ारी बातों को सच न समिती ोती ो क देती कक ये सब सोची ुई बातें ैं। प्रताप--भला जो समिो, अब य बताओ कक कैसा जी ै? मैंने तुम् ें पह चाना न ीं, ऐसा मुख िीका पड गया ै। ववरजन-- अब अच्छी ो जााँऊगी, और्धि समल गयी। प्रताप सकेत समि गया। ा, शोक! मेरी तननक-सी चूक ने य प्रलय कर हदया। देर तक उसे सिता र ा और प्रात:काल जब व अपने घर तो चला तो ववरजन का बदन ववकससत था। उसे ववश्वास ो गया कक लल्लू मुि ेभूले न ीं ै और मेरी सुि और प्रनतष्ठा उनके हृदय में ववद्यामन ै। प्रताप ने उसके मन से व क ॉँटा ननकाल हदया, जो कई मास से खटक र ा था और ष्जसने उसकी य गनत कर रखी थी। एक ी सप्ता में उसका मुखडा स्वणा ो गया, मानो कभी बीमार ी न थी।

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16. स्नेह पर कत्ताव्य की ववजय

रोगी जब तक बीमार र ता ै उसे सुि न ीं र ती कक कौन मेरी और्धि करता ै, कौन मुि ेदेखने के सलए आता ै। व अपने ी कष्ट में इतना ग्रस्त र ता ै कक ककसी दसूरे के बात का ध्यान ी उसके हृदय मं उत्पन्न न ीं ोता; पर जब व आरोग्य ो जाता ै, तब उसे अपनी शुश्रर्ा करनेवालों का ध्यान और उनके उद्योग तथा पररश्रम का अनुमान ोने लगता ै और उसके हृदय में उनका पे्रम तथा आदर बढ़ जाता ै। ठीक य ी दशा वजृरानी की थी। जब तक व स्वयं अपने कष्ट में मग्न थी, कमलाचरण की व्याकुलता और कष्टों का अनुभव न कर सकती थी। ननस्सन्दे व उसकी खानतरदारी में कोई अंश शेर् न रखती थी, परन्तु य व्यव ार-पालन के ववचार से ोती थी, न कक सच्च ेपे्रम से। परन्तु जब उसके हृदय से व व्यथा समट गयी तो उसे कमला का पररश्रम और उद्योग स्मरण ुआ, और य धचतंा ुई कक इस अपार उपकार का प्रनत-उत्तर क्या दूाँ ? मेरा िमा था सेवा-सत्कार से उन् ें सुख देती, पर सुख देना कैसा उलटे उनके प्राण ी की गा क ुई ंू! वे तो ऐसे सच्चे हदल से मेरा पे्रम करें और मैं अपना कत्ताव्य ी न पालन कर सकूाँ ! ईश्वर को क्या मुाँ हदखााँऊगी ? सच्च ेपे्रम का कमल ब ुिा कृपा के भाव से खखल जाया करता ै। ज ााँ रुप यौवन, सम्पष्त्त और प्रभुता तथा स्वाभाववक सौजन्य पे्रम के बीच बोने में अकृतकाया र त े ैं, व ॉँ, प्राय: उपकार का जाद ूचल जाता ै। कोई हृदय ऐसा वज्र और कठोर न ीं ो सकता, जो सत्य सेवा से रवीभूत न ो जाय। कमला और वजृरानी में हदनोंहदन प्रीनत बढ़ने लगी। एक पे्रम का दास था, दसूरी कत्ताव्य की दासी। सम्भव न था कक वजृरानी के मुख से कोई बात ननकले और कमलाचरण उसको पूरा न करे। अब उसकी तत्परता और योग्यता उन् ीं प्रयत्नों में व्यय ोती थी । पढ़ना केवल माता-वपता को िोखा देना था। व सदा रुख देख करता और इस आशा पर कक य काम उसकी प्रसन्न्त का कारण ोगा, सब कुछ करने पर कहटबद्व र ता। एक हदन उसने मािवी को िुलवाडी से िूल चुनत ेदेखा। य छोटा-सा उद्यान घर के पीछे था। पर कुटुम्ब के ककसी व्यष्क्त को उसे पे्रम न था, अतएव बार ों मास उस पर उदासी छायी र ती थी। वजृरानी को िूलों से ाहदाक पे्रम था। िुलवाडी की य दगुानत देखी तो मािवी से क ा कक कभी-कभी इसमं पानी दे हदया कर। िीरे-िीरे वाहटका की दशा कुछ सुिर

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चली और पौिों में िूल लगने लगे। कमलाचरण के सलए इशारा ब ुत था। तन-मन से वाहटका को सुसष्ज्जत करने पर उतारु ो गया। दो चतुर माली नौकर रख सलये। ववववि प्रकार के सुन्दर-सुन्दर पुष्प और पौिे लगाये जाने लगे। भ ॉँनत-भ ॉँनतकी घासें और पष्त्तय ॉँ गमलों में सजायी जाने लगी, क्याररय ॉँ और रववशे ठीक की जाने लगी।ं ठौर-ठौर पर लताऍ ंचढ़ायी गयीं। कमलाचरण सारे हदन ाथ में पुस्तक सलये िुलवाडी में ट लता र ता था और मासलयों को वाहटका की सजावट और बनावट की ताकीद ककया करता था, केवल इसीसलए कक ववरजन प्रसन्न ोगी। ऐसे स्ने -भक्त का जाद ूककस पर न चल जायगा। एक हदन कमला ने क ा-आओ, तुम् ें वाहटका की सैर करााँऊ। वजृरानी उसके साथ चली। च ॉँद ननकल आया था। उसके उज्ज्वल प्रकाश में पषु्प और पत्त ेपरम शोभायमान थे। मन्द-मन्द वायु चल र ा था। मोनतयों और बेले की सुगष्न्ि मष्स्तर्क को सुरसभत कर र ी थीं। ऐसे समय में ववरजन एक रेशमी साडी और एक सुन्दर स्लीपर पह ने रववशों में ट लती दीख पडी। उसके बदन का ववकास िूलों को लष्ज्जत करता था, जान पडता था कक िूलों की देवी ै। कमलाचरण बोला--आज पररश्रम सिल ो गया। जैसे कुमकुमे में गुलाब भरा ोता ै, उसी प्रकार वजृरानी के नयनों में पे्रम रस भरा ुआ था। व मुसकायी, परन्तु कुछ न बोली। कमला--मुि जैसा भाग्यवान मुनष्य संसार में न ोगा। ववरजन--क्या मुिसे भी अधिक? कमला मतवाला ो र ा था। ववरजन को प्यार से गले लगा हदया। कुछ हदनों तक प्रनतहदन का य ी ननयम र ा। इसी बीच में मनोरंजन की नयी सामग्री उपष्स्थत ो गयी। रािाचरण ने धचत्रों का एक सुन्दर अलबम ववरजन के पास भेजा। इसमं कई धचत्र चंरा के भी थे। क ीं व बैठी श्यामा को पढ़ा र ी ै क ीं बैठी पत्र सलख र ी ै। उसका एक धचत्र पुरुर् वेर् में था। रािाचरण िोटोग्रािी की कला में कुशल थे। ववरजन को य अलबम ब ुत भाया। किर

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क्या था ? किर क्या था? कमला को िुन लगी कक मैं भी धचत्र खीचूाँ। भाई के पास पत्र सलख भेजा कक केमरा और अन्य आवश्यक सामान मेरे पास भेज दीष्जये और अभ्यास आरंभ कर हदया। घर से चलत ेकक स्कूल जा र ा ूाँ पर बीच ी में एक पारसी िोटोग्रािर की दकूान पर आ बैठत।े तीन-चार मास के पररश्रम और उद्योग से इस कला में प्रवीण ो गये। पर अभी घर में ककसी को य बात मालूम न थी। कई बार ववरजन ने पूछा भी; आजकल हदनभर क ााँ र त े ो। छुट्टी के हदन भी न ीं हदख पडत।े पर कमलाचरण ने ूाँ- ां करके टाल हदया। एक हदन कमलाचरण क ीं बा र गये ुए थे। ववरजन के जी में आया कक लाओ प्रतापचन्र को एक पत्र सलख डालूाँ; पर बक्सखेला तो धचट्ठी का कागज न था मािवी से क ा कक जाकर अपने भैया के डसे्क में से कागज ननकाल ला। मािवी दौडी ुई गयी तो उसे डसे्क पर धचत्रों का अलबम खुला ुआ समला। उसने आलबम उठा सलया और भीतर लाकर ववरजन से क ा-बह न! दखों, य धचत्र समला। ववरजन ने उसे चाव से ाथ में ले सलया और पह ला ी पन्ना उलटा था कक अचम्भा-सा ो गया। व उसी का धचत्र था। व अपने पलंग पर चाउर ओढे़ ननरा में पडी ुई थी, बाल ललाट पर त्रबखरे ुए थे, अिरों पर एक मो नी मुस्कान की िलक थी मानों कोई मन-भावना स्वप्न देख र ी ै। धचत्र के नीच ेलख ुआ था- ‘पे्रम-स्वप्न’। ववरजन चककत थी, मेरा धचत्र उन् ोंने कैसे खखचवाया और ककससे खखचवाया। क्या ककसी िोटोग्रािर को भीतर लाये ोंगे ? न ीं ऐसा वे क्या करेंगे। क्या आश्चय्र ै, स्वयं ी खींच सलया ो। इिर म ीनों से ब ुत पररश्रम भी तो करत े ैं। यहद स्वयं ऐसा धचत्र खींचा ै तो वस्तुत: प्रशंसनीय काया ककया ै। दसूरा पन्ना उलटा तो उसमें भी अपना धचत्र पाया। व एक साडी प ने, आिे ससर पर आाँचल डाले वाहटका में भ्रमण कर र ी थी। इस धचत्र के नीच ेलख ुआ था- ‘वाहटका-भ्रमण। तीसरा पन्ना उलटा तो व भी अपना ी धचत्र था। व वाहटका में पथृ्वी पर बैठी ार गूाँथ र ी थी। य धचत्र तीनों में सबसे सुन्दर था, क्योंकक धचत्रकार ने इसमें बडी कुशलता से प्राकृनतक रंग भरे थे। इस धचत्र के नीच ेसलखा ुआ था- ‘अलबेली मासलन’। अब ववरजन को ध्याना आया कक एक हदन जब मैं ार गूाँथ र ी थी तो कमलाचरण नील के कााँटे की िाडी मुस्करात े ुए ननकले थे। अवश्य उसी हदन का य धचत्र ोगा। चौथा पन्ना

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उलटा तो एक परम मनो र और सु ावना दृश्य हदखयी हदया। ननमाल जल से ल राता ुआ एक सरोवर था और उसके दोंनों तीरों पर ज ााँ तक दृष्ष्ट प ुाँचती थी, गुलाबों की छटा हदखयी देती थी। उनके कोमल पुष्प वायु के िोकां से लचके जात थे। एसका ज्ञात ोता था, मानों प्रकृनत ने रे आकाश में लाल तारे टााँक हदये ैं। ककसी अंगे्रजी धचत्र का अनुकरण प्रतीत ोता था। अलबम के और पन्ने अभी कोरे थे। ववरजन ने अपने धचत्रों को किर देखा और सासभमान आनन्द से, जो प्रत्येक रमणी को अपनी सुन्दरता पर ोता ै, अलबम को नछपा कर रख हदया। संध्या को कमलाचरण ने आकर देखा, तो अलबम का पता न ीं। ाथों तो तोत ेउड गये। धचत्र उसके कई मास के कहठन पररश्रम के िल थे और उसे आशा थी कक य ी अलबम उ ार देकर ववरजन के हृदय में और भी घर कर लूाँगा। ब ुत व्याकुल ुआ। भीतर जाकर ववरजन से पूछा तो उसने साि इन्कार ककया। बेचारा घबराया ुआ अपने समत्रों के घर गया कक कोई उनमं से उठा ले गया ो। प व ां भी िबनतयों के अनतररक्त और कुछ ाथ न लगा। ननदान जब म ाशय पूरे ननराश ो गये तोशम को ववरजन ने अलबम का पता बतलाया। इसी प्रकार हदवस सानन्द व्यतीत ो र े थे। दोनों य ी चा त ेथे कक पे्रम-क्षेत्र मे मैं आगे ननकल जााँऊ! पर दोनों के पे्रम में अन्तर था। कमलाचरण पे्रमोन्माद में अपने को भूल गया। पर इसके ववरुद्व ववरजन का पे्रम कत्ताव्य की नींव पर ष्स्थत था। ााँ, य आनन्दमय कत्ताव्य था। तीन वर्ा व्यतीत ो गये। व उनके जीवन के तीन शुभ वर्ा थे। चौथे वर्ा का आरम्भ आपष्त्तयों का आरम्भ था। ककतने ी प्राखणयों को सांसार की सुख-सामधग्रय ॉँ इस पररमाण से समलती ै कक उनके सलए हदन सदा ोली और रात्रत्र सदा हदवाली र ती ै। पर ककतने ी ऐसे तभाग्य जीव ैं, ष्जनके आनन्द के हदन एक बार त्रबजली की भााँनत चमककर सदा के सलए लुप्त ो जात े ै। वजृरानी उन् ीं अभागें में थी। वसन्त की ऋतु थी। सीरी-सीरी वायु चल र ी थी। सरदी ऐसे कडाके की पडती थी कक कुओं का पानी जम जाता था। उस समय नगरों में प्लेग का प्रकोप ुआ। स स्रों मनुष्य उसकी भेंट ोने लगे। एक हदन ब ुत कडा ज्वर आया, एक धगल्टी ननकली और चल बसा। धगल्टी का ननकलना मानो मतृ्यु का संदश था। क्या वैद्य, क्या डाक्टर ककसी की कुछ न चलती थी। सैकडो घरों के दीपक बुि गये। स स्रों बालक अनाथ और स स्रों वविवा ो

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गयी। ष्जसको ष्जिर गली समली भाग ननकला। प्रत्येक मनुष्य को अपनी-अपनी पडी ुई थी। कोई ककसी का स ायक और ह तैर्ी न था। माता-वपता बच्चों को छोडकर भागे। स्त्रीयों ने पुरर्ों से सम्बन्ि पररत्याग ककया। गसलयों में, सडको पर, घरों में ष्जिर देखखये मतृकों को ढेर लगे ुए थे। दकुाने बन्द ो गयी। द्वारों पर ताले बन्द ो गया। चुतुहदाक िूल उडती थी। कहठनता से कोई जीविारी चलता-किरता हदखायी देता था और यहद कोई कायावश घर से ननकला पडता तो ऐसे शीघ्रता से प व उठाता मानों मतृ्यु का दतू उसका पीछा करता आ र ा ै। सारी बस्ती उजड गयी। यहद आबाद थे तो कत्रब्रस्तान या श्मशान। चोरों और डाकुओं की बन आयी। हदन–दोप र तोल टूटत ेथे और सूया के प्रकाश में सेंिें पडती थीं। उस दारुण द:ुख का वणान न ीं ो सकता। बाबू श्यामचरण परम दृढ़धचत्त मनुष्य थे। ग ृ के चारों ओर म ल्ले-के म ल्ले शून्य ो गये थे पर वे अभी तक अपने घर में ननभाय जमे ुए थे लेककन जब उनका सा स मर गया तो सारे घर में खलबली मच गयी। ग ॉँव में जाने की तैयाररय ॉँ ोने लगी। मुंशीजी ने उस ष्जले के कुछ ग ॉँव मोल ले सलये थे और मिग ॉँव नामी ग्राम में एक अच्छा-सा घर भी बनवा रख था। उनकी इच्छा थी कक पेंशन पाने पर य ीं र ूाँगा काशी छोडकर आगरे में कौन मरने जाय! ववरजन ने य सुना तो ब ुत प्रसन्न ुई। ग्राम्य-जीवन के मनो र दृश्य उसके नेत्रों में किर र े थे रे-भरे वकृ्ष और ल ल ात े ुए खेत ररणों की क्रीडा और पक्षक्षयों का कलरव। य छटा देखने के सलए उसका धचत्त लालानयत ो र ा था। कमलाचरण सशकार खेलने के सलए अस्त्र-शस्त्र ठीक करने लगे। पर अचनाक मुन्शीजी ने उसे बुलाकर क ा कक तम प्रयाग जाने के सलए तैयार ो जाओ। प्रताप चन्र व ां तुम् ारी स ायता करेगा। ग वों में व्यथा समय त्रबताने से क्या लाभ? इतना सुनना था कक कमलाचरण की नानी मर गयी। प्रयाग जाने से इन्कार कर हदया। ब ुत देर तक मुंशीजी उसे समिात ेर े पर व जाने के सलए राजी न ुआ। ननदान उनके इन अंनतम शब्दों ने य ननपटारा कर हदया-तुम् ारे भाग्य में ववद्या सलखी ी न ीं ै। मेरा मूखाता ै कक उससे लडता ूाँ! वजृरानी ने जब य बात सुनी तो उसे ब ुत द:ुख ुआ। वजृरानी यद्यवप समिती थी कक कमला का ध्यान पढ़ने में न ीं लगता; पर जब-तब य अरुधच उसे बुरी न लगती थी, बष्ल्क कभी-कभी उसका जी चा ता कक आज कमला का स्कूल न जाना अच्छा था। उनकी पे्रममय वाणी उसके कानों का ब ुत प्यारी

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मालूम ोती थी। जब उसे य ज्ञात ुआ कक कमला ने प्रयाग जाना अस्वीकार ककया ै और लालाजी ब ुत समि र े ैं, तो उसे और भी द:ुख ुआ क्योंकक उसे कुछ हदनों अकेले र ना स य था, कमला वपता को आज्ञजे्ञल्लघंन करे, य सह्रय न था। मािवी को भेजा कक अपने भैया को बुला ला। पर कमला ने जग से ह लने की शपथ खा ली थी। सोचता कक भीतर जााँऊगा, तो व अवश्य प्रयाग जाने के सलए क ेगी। व क्या जाने कक य ााँ हृदय पर क्या बीत र ी ै। बातें तो ऐसी मीठी-मीठी करती ै, पर जब कभी पे्रम-परीक्षा का समय आ जाता ै तो कत्ताव्य और नीनत की ओट में मुख नछपाने लगती ै। सत्य ै कक स्त्रीयों में पे्रम की गंि ी न ीं ोती। जब ब ुत देर ो गयी और कमला कमरे से न ननकला तब वजृरानी स्वयं आयी और बोली-क्या आज घर में आने की शपथ खा ली ै। रा देखते-देखत ेऑखंें पथरा गयीं। कमला-- भीतर जात ेभय लगता ै। ववरजन-- अच्छा चलो मैं संग-संग चलती ूाँ, अब तो न ीं डरोगे? कमला-- मुि ेप्रयाग जाने की आज्ञा समली ै। ववरजन-- मैं भी तुम् ारे सग चलूाँगी! य क कर ववरजन ने कमलाचरण की ओर आंखे उठायीं उनमें अंगूर के दोन लगे ुए थे। कमला ार गया। इन मो नी ऑखों में ऑसंू देखकर ककसका हृदय था, कक अपने ठ पर दृढ़ र ता? कमेला ने उसे अपने कंठ से लगा सलया और क ा-मैं जानता था कक तुम जीत जाओगी। इसीसलए भीतर न जाता था। रात-भर पे्रम-ववयोग की बातें ोती र ीं! बार-बार ऑखंे परस्पर समलती मानो वे किर कभी न समलेगी! शोक ककसे मालूम था कक य अंनतम भेंट ै। ववरजन को किर कमला से समलना नसीब न ुआ। ***

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17. कमला के नाम ववरजन के पत्र

मिगााँव ‘वप्रयतम, पे्रम पत्र आया। ससर पर चढ़ाकर नेत्रों से लगाया। ऐसे पत्र तुम न लख करो ! हृदय ववदीणा ो जाता ै। मैं सलखंू तो असंगत न ीं। य ॉँ धचत्त अनत व्याकुल ो र ा ै। क्या सुनती थी और क्या देखती ैं ? टूटे-िूटे िूस के िोंपड,े समट्टी की दीवारें, घरों के सामने कूड-ेकरकट के बड-ेबड ेढेर, कीचड में सलपटी ुई भैंसे, दबुाल गायें, ये सब दृश्य देखकर जी चा ता ै कक क ीं चली जाऊं। मनुष्यों को देखों, तो उनकी सोचनीय दशा ै। ड्डडय ॉँ ननकली ुई ै। वे ववपष्त्त की मूनताय ॉँ और दरररता के जीववत्र धचत्र ैं। ककसी के शरीर पर एक बेिटा वस्त्र न ीं ै और कैसे भाग्य ीन कक रात-हदन पसीना ब ाने पर भी कभी भरपेट रोहटय ॉँ न ीं समलतीं। मारे घर के वपछवाड ेएक गड्ढा ै। मािवी खेलती थी। प ॉँव किसला तो पानी में धगर पडी। य ॉँ ककम्वदन्ती ै कक गड्ढे में चुडलै न ाने आया करती ै और वे अकारण य चलनेवालों से छेड-छाड ककया करती ै। इसी प्रकार द्वार पर एक पीपल का पेड ै। व भूतों का आवास ै। गड्ढे का तो भय न ीं ै, परन्तु इस पीपल का वास सारे-सारे ग ॉँव के हृदय पर ऐसा छाया ुआ ै। कक सूयाास्त ी से मागा बन्द ो जाता ै। बालक और स्त्रीयााँ तो उिर पैर ी न ीं रखत!े ॉँ, अकेले-दकेुले पुरुर् कभी-कभी चले जात े ैं, पर पे भी घबराये ुए। ये दो स्थान मानो उस ननकृष्ट जीवों के केन्र ैं। इनके अनतररक्त सैकडों भूत-चुडलै सभन्न-सभन्न स्थानों के ननवासी पाये जात े ैं। इन लोगों को चुडलैें दीख पडती ैं। लोगों ने इनके स्वभाव प चान ककये ै। ककसी भूत के ववर्य में क ा जाता ै कक व ससर पर चढ़ता ै तो म ीनों न ीं उतरता और कोई दो-एक पूजा लेकर अलग ो जाता ै। गााँव वालों में इन ववर्यों पर इस प्रकार वाताालाप ोता ै, मानों ये प्रत्यक्ष घटनााँ ै। य ााँ तक सुना गया ैं कक चुडलै भोजन-पानी म ॉँगने भी आया करती ैं। उनकी साडडय ॉँ प्राय: बगुले के पंख की भााँनत उज्ज्वल ोती ैं और वे बातें कुछ-कुछ नाक से करती ै। ॉँ, ग नों को प्रचार उनकी जानत में कम ै। उन् ी स्त्रीयों पर उनके आक्रमणका भय र ता ै, जो बनाव श्रृंगार ककये रंगीन वस्त्र पह ने, अकेली उनकी दृष्ष्ट मे पड जायें।

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िूलों की बास उनको ब ुत भाती ै। सम्भव न ीं कक कोई स्त्री या बालक रात को अपने पास िूल रखकर सोये। भूतों के मान और प्रनतष्ठा का अनुमान बडी चतुराई से ककया गया ै। जोगी बाबा आिीरात को काली कमररया ओढे़, खडााँऊ पर सवार, ग ॉँव के चारों आर भ्रमण करत े ैं और भूले-भटके पधथकों को मागा बतात े ै। साल-भर में एक बार उनकी पूजा ोती ैं। व अब भूतों में न ीं वरन ्देवताओं में धगने जात े ै। व ककसी भी आपष्त्त को यथाशष्क्त ग ॉँव के भीतर पग न ीं रखने देत।े इनके ववरुद्व िोबी बाबा से ग ॉँव-भर थरााता ै। ष्जस वुक्ष पर उसका वास ै, उिर से यहद कोई दीपक जलने के पश्चात ्ननकल जाए, तो उसके प्राणों की कुशलता न ीं। उन् ें भगाने के सलए दो बोतल महदरा कािी ै। उनका पुजारी मंगल के हदन उस वकृ्षतले गााँजा और चरस रख आता ै। लाला सा ब भी भूत बन बैठे ैं। य म ाशय मटवारी थे। उन् ं कई पंडडत अससमयों ने मार डाला था। उनकी पकड ऐसी ग री ै कक प्राण सलये त्रबना न ीं छोडती। कोई पटवारी य ााँ एक वर्ा से अधिक न ीं जीता। ग ॉँव से थोडी दरू पर एक पेड ै। उस पर मौलवी सा ब ननवास करत े ै। व बेचारे ककसी को न ीं छेडत।े ॉँ, व ृस्पनत के हदन पूजा न प ुाँचायी जाए, तो बच्चों को छेडत े ैं। कैसी मूखाता ै! कैसी समथ्या भष्क्त ै! ये भावनाऍ ंहृदय पर वज्रलीक ो गयी ै। बालक बीमार ुआ कक भूत की पूजा ोने लगी। खेत-खसल ान में भूत का भोग ज ााँ देखखये, भूत- ी-भूत दीखत े ैं। य ॉँ न देवी ै, न देवता। भूतों का ी साम्राज्य ैं। यमराज य ॉँ चरण न ीं रखते, भूत ी जीव- रण करत े ैं। इन भावों का ककस प्रकार सुिार ो ? ककमधिकम तुम् ारी ववरजन (2) मिगााँव प्यारे,

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ब ुत हदनों को पश्चात ्आपकी पेरम-पत्री प्राप्त ुई। क्या सचमुच पत्र सलखने का अवकाश न ीं ? पत्र क्या सलखा ै, मानो बेगार टाली ै। तुम् ारी तो य आदत न थी। क्या व ॉँ जाकर कुछ और ो गये ? तुम् ें य ॉँ से गये दो मास से अधिक ोत े ै। इस बीच मं कई छोटी-बडी छुहट्टय ॉँ पडी, पर तुम न आये। तुमसे कर बााँिकर क ती ूाँ- ोली की छुट्टी में अवश्य आना। यहद अब की बार तरसाया तो मुि ेसदा उला ना र ेगा। य ॉँ आकर ऐसी प्रतीत ोता ै, मानो ककसी दसूरे संसार में आ गयी ूाँ। रात को शयन कर र ी थी कक अचानक ा- ा, ू- ू का कोला ल सुनायी हदया। चौंककर उठा बैठी! पूछा तो ज्ञात ुआ कक लडके घर-घर से उपले और लकडी जमा कर र े थे। ोली माता का य ी आ ार था। य बेढंगा उपरव ज ााँ प ुाँच गया, ईंिन का हदवाला ो गया। ककसी की शष्क्त न ी जो इस सेना को रोक सके। एक नम्बरदार की मडडया लोप ो गयी। उसमं दस-बार बैल सुगमतापूवाक बााँिे जा सकत ेथे। ोली वाले कई हदन घात में थे। अवसर पाकर उडा ले गये। एक कुरमी का िोंपडा उड गया। ककतने उपले बेपता ो गये। लोग अपनी लकडडयााँ घरों में भर लेत े ैं। लालाजी ने एक पेड ईंिन के सलए मोल सलया था। आज रात को व भी ोली माता के पेट में चला गया। दो-तील घरों को ककवाड उतर गये। पटवारी सा ब द्वार पर सो र े थे। उन् ें भूसम पर ढकेलकर लोगे चारपाई ले भागे। चतुहदाक ईंिन की लूट मची ै। जो वस्तु एक बार ोली माता के मुख में चली गयी, उसे लाना बडा भारी पाप ै। पटवारी सा ब ने बडी िमककयां दी। मैं जमाबन्दी त्रबगाड दूाँगा, खसरा िूठाकर दूाँगा, पर कुछ प्रभाव न ुआ! य ााँ की प्रथा ी ै कक इन हदनों वाले जो वस्तु पा जायें, ननववा् न उठा ले जायें। कौन ककसकी पुकार करे ? नवयुवक पुत्र अपने वपता की आंख बाकर अपनी ी वस्तु उठवा देता ै। यहद व ऐसा न करे, तो अपने समाज मे अपमाननत समिाजा जाए। खेत पक गये ै।, पर काटने में दो सप्ता का ववलम्ब ै। मेरे द्वार पर से मीलों का दृश्य हदखाई देता ै। गे ूाँ और जौ के सुथरे खेतों के ककनारे-ककनारे कुसुम के अरुण और केसर-वणा पुष्पों की पंष्क्त परम सु ावनी लगती ै। तोत ेचतुहदाक माँडलाया करत े ैं।

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मािवी ने य ााँ कई सखखयााँ बना रखी ैं। पडोस में एक अ ीर र ता ै। रािा नाम ै। गत वर्ा माता-वपता प्लेगे के ग्रास ो गये थे। ग ृस्थी का कुल भार उसी के ससर पर ै। उसकी स्त्री तुलसा प्राय: मारे य ााँ आती ैं। नख से सशख तक सुन्दरता भरी ुई ै। इतनी भोली ैकक जो चा ता ै कक घण्टों बात ेसुना करुाँ । मािवी ने इससे बह नापा कर रखा ै। कल उसकी गुडडयों का वववा ैं। तुलसी की गुडडया ै और मािवी का गुड्डा। सुनती ूाँ, बेचारी ब ुत ननिना ै। पर मैंने उसके मुख पर कभी उदासीनता न ीं देखी। क ती थी कक उपले बेचकर दो रुपये जमा कर सलये ैं। एक रुपया दायज दूाँगी और एक रुपये में बरानतयों का खाना-पीना ोगा। गुडडयों के वस्त्राभूर्ण का भार रािा के ससर ैं! कैसा सरल संतोर्मय जीवल ै! लो, अब ववदा ोती ूाँ। तुम् ारा समय ननरथाक बातो में नष्ट ुआ। क्षमा करना। तुम् ें पत्र सलखने बैठती ूाँ, तो लेखनी रुकती ी न ीं। अभी ब ुतरेी बातें सलखने को पडी ैं। प्रतापचन्र से मेरी पालागन क देना। तुम् ारी ववरजन (3) मिगााँव प्यारे, तुम् ारी, पे्रम पत्रत्रका समली। छाती से लगायी। वा ! चोरी और मुाँ जोरी। अपने न आने का दोर् मेरे ससर िरत े ो ? मेरे मन से कोई पूछे कक तुम् ारे दशना की उसे ककतनी असभलार्ा प्रनतहदन व्याकुलता के रुप में पररणत ोती ै। कभी-कभी बेसुि ो जाती ूाँ। मेरी य दशा थोडी ी हदनों से ोने लगी ै। ष्जस समय य ााँ से गये ो, मुि ेज्ञान न था कक व ााँ जाकर मेरी दलेल करोगे। खैर, तुम् ीं सच और मैं ी िूठ। मुि ेबडी प्रसन्नता ुई कक तुमने मरे दोनों पत्र पसन्द ककये। पर प्रतापचन्र को व्यथा हदखाये। वे पत्र बडी असाविानी से सलखे गये ै। सम्भव ै कक अशुद्ववयााँ र गयी ों। मि ेववश्वास न ीं आता कक प्रताप ने उन् ें मूल्यवान समिा ो। यहद वे मेरे पत्रों का इतना आदर करत े ैं कक उनके

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स ार से मारे ग्राम्य-जीवन पर कोई रोचक ननबन्ि सलख सकें , तो मैं अपने को परम भाग्यवान ्समिती ूाँ। कल य ााँ देवीजी की पूजा थी। ल, चक्की, पुर चूल् े सब बन्द थे। देवीजी की ऐसी ी आज्ञा ै। उनकी आज्ञा का उल्लघंन कौन करे ? ुक्का-पानी बन्द ो जाए। साल-भर म ंय ी एक हदन ै, ष्जस गााँवाले भी छुट्टी का समित े ैं। अन्यथा ोली-हदवाली भी प्रनत हदन के आवश्यक कामों को न ीं रोक सकती। बकरा चढा। वन ुआ। सत्तू खखलाया गया। अब गााँव के बच्चे-बच्च ेको पूणा ववश्वास ै कक प्लेग का आगमन य ााँ न ो सकेगा। ये सब कौतुक देखकर सोयी थी। लगभग बार बजे ोंगे कक सैंकडों मनुष्य ाथ में मशालें सलये कोला ल मचात ेननकले और सारे गााँव का िेरा ककया। इसका य अथा था कक इस सीमा के भीतर बीमारी परै न रख सकेगी। िेरे के सप्ता ोने पर कई मनुष्य अन्य ग्राम की सीमा में घुस गये और थोड ेिूल,पान, चावल, लौंग आहद पदाथा पथृ्वी पर रख आये। अथाात ्अपने ग्राम की बला दसूरे गााँव के ससर डाल आये। जब ये लोग अपना काया समाप्त करके व ााँ से चलने लगे तो उस गााँववालों को सुनगुन समल गयी। सैकडों मनुष्य लाहठयााँ लेकर चढ़ दौड।े दोनों पक्षवालों में खूब मारपीट ुई। इस समय गााँव के कई मनुष्य ल्दी पी र े ैं। आज प्रात:काल बची-बचायी रस्में पूरी ुई, ष्जनको य ााँ कढ़ाई देना क ते ैं। मेरे द्वार पर एक भट्टा खोदा गया और उस पर एक कडा दिू से भरा ुआ रखा गया। काशी नाम का एक भर ै। व शरीर में भभूत रमाये आया। गााँव के आदमी टाट पर बैठे। शंख बजने लगा। कडा के चतुहदाक माला-िूल त्रबखेर हदये गये। जब क ाड में खूब उबाल आया तो काशी िट उठा और जय कालीजी की क कर कडा में कूद पडा। मैं तो समिी अब य जीववत न ननकलेगा। पर पााँच समनट पश्चात ्काशीने किर छलााँग मारी और कडा के बा र था। उसका बाल भी बााँका न ुआ। लोगों ने उसे माला प नायी। वे कर बााँिकर पूछने लगे-म राज! अबके वर्ा खेती की उपज कैसी ोगी ? बीमारी अवेगी या न ीं ? गााँव के लोग कुशल से र ेंगे ? गुड का भाव कैसा र ेगा ? आहद। काशी ने इन सब प्रश्नों के उत्तर स्पष्ट पर ककंधचत ्र स्यपूणा शब्दों में हदये। इसके पश्चात ्सभा ववसष्जात ुई। सुनती ूाँ ऐसी कक्रया प्रनतवर्ा ोती ै। काशी की भववष्यवाखणयााँ यब सत्य ससद्व ोती ैं। और कभी एकाि असत्य भी ननकल जाय तो काशी उना समािान भी बडी योग्यता से कर देता ै। काशी बडी प ुाँच का आदमी ै।

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गााँव में क ीं चोरी ो, काशी उसका पता देता ै। जो काम पसुलस के भेहदयों से पूरा न ो, उसे व पूरा कर देता ै। यद्यवप व जानत का भर ै तथावप गााँव में उसका बडा आदर ै। इन सब भष्क्तयों का पुरस्कार व महदरा के अनतररक्त और कुछ न ीं लेता। नाम ननकलवाइये, पर एक बोतल उसको भेंट कीष्जये। आपका असभयोग न्यायालय में ैं; काशी उसके ववजय का अनुष्ठान कर र ा ै। बस, आप उसे एक बोतल लाल जल दीष्जये। ोली का समय अनत ननकट ै ! एक सप्ता से अधिक न ीं। अ ा! मेरा हृदय इस समय कैसा खखल र ा ै ? मन में आनन्दप्रद गुदगुदी ो र ी ै। आाँखें तुम् ें देखने के सलए अकुला र ी ै। य सप्ता बडी कहठनाई से कटेगा। तब मैं अपने वपया के दशान पााँऊगी। तुम् ारी ववरजन (4) मिगााँव प्यारे तुम पार्ाणहृदय ो, कट्टर ो, स्ने - ीन ो, ननदाय ो, अकरुण ो िूठो ो! मैं तुम् ें और क्या गासलयााँ दूाँ और क्या कोसूाँ ? यहद तुम इस क्षण मेरे सम्मुख ोते, तो इस वज्रहृदयता का उत्तर देती। मैं क र ी ूाँ, तुतम दगाबाज ो। मेरा क्या कर लोगे ? न ीं आत ेतो मत आओ। मेरा प्रण लेना चा त े ो, ले लो। रुलाने की इच्छा ै, रुलाओ। पर मैं क्यों रोँऊ ! मेरी बला रोवे। जब आपको इतना ध्यान न ीं कक दो घण्टे की यात्रा ै, तननक उसकी सुधि लेता आाँऊ, तो मुि ेक्या पडी ै कक रोँऊ और प्राण खोँऊ ? ऐसा क्रोि आ र ा ै कक पत्र िाडकर िें क दूाँ और किर तुमसे बात न करंु। ााँ ! तुमने मेरी सारी असभलार्ाएं, कैसे घूल में समलायी ैं ? ोली! ोली ! ककसी के मुख से य शब्द ननकला और मेरे हृदय में गुदगुदी ोने लगी, पर शोक ! ोली

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बीत गयी और मैं ननराश र गयी। पह ले य शब्द सुनकर आनन्द ोता था। अब द:ुख ोता ै। अपना-अपना भाग्य ै। गााँव के भूखे-नंगे लाँगोटी में िाग खेलें, आनन्द मनावें, रंग उडावें और मैं अभाधगनी अपनी चारपाइर पर सिेद साडी पह ने पडी र ूाँ। शपथ लो जो उस पर एक लाल िब्बा भी पडा ो। शपथ लें लो जो मैंने अबीर और गुलाल ाथ से छुई भी ो। मेरी इत्र से बनी ुई अबीर, केवड ेमें घोली गुलाल, रचकर बनाये ुए पान सब तुम् ारी अकृपा का रोना रो र े ैं। मािवी ने जब ब ुत ठ की, तो मैंने एक लाल टीका लगवा सलया। पर आज से इन दोर्ारोपणों का अन्त ोता ै। यहद किर कोई शब्द दोर्ारोपण का मुख से ननकला तो जबान काट लूाँगी। परसों सायंकाल ी से गााँव में च ल-प ल मचने लगी। नवयुवकों का एक दल ाथ में डि सलये, अश्लील शब्द बकत ेद्वार-द्वार िेरी लगाने लगा। मुि ेज्ञान न था कक आज य ााँ इतनी गासलयााँ खानी पडेंगी। लज्जा ीन शब्द उनके मुख से इस प्रकार बेिडक ननकलत ेथे जैसे िूल िडत े ों। लज्जा और संकोच का नाम न था। वपता, पुत्र के सम्मुख और पुत्र, वपता के सम्ख गासलयााँ बक र े थे। वपता ललकार कर पुत्र-विू से क ता ै- आज ोली ै! विू घर में ससर नीचा ककये ुए सुनती ै और मुस्करा देती ै। मारे पटवारी सा ब तो एक ी म ात्म ननकले। आप महदरा में मस्त, एक मैली-सी टोपी ससर पर रखे इस दल के नायक थे। उनकी ब ू-बेहटयााँ उनकी अश्लीलता के वेग से न बच सकीं। गासलयााँ खाओ और ाँसो। यहद बदन पर तननक भी मैल आये, तो लोग समिेंग कक इसका मु राम का जन्म ैं भली प्रथा ै। लगभग तीन बजे रात्रत्र के िुण्ड ोली माता के पास प ुाँचा। लडके अष्ग्न-क्रीडाहद में तत्पर थे। मैं भी कई ष्स्त्रयों के पास गयी, व ााँ ष्स्त्रयााँ एक ओर ोसलयााँ गा र ी थीं। ननदान ोली म आग लगाने का समय आया। अष्ग्न लगत े ी ज्वाल भडकी और सारा आकाश स्वणा-वणा ो गया। दरू-दरू तक के पेड-पत्त ेप्रकासशत ो गय। अब इस अष्ग्न-रासश के चारों ओर ‘ ोली माता की जय!’ धचल्ला कर दौडने लगे। सबे ाथों में गे ूाँ और जौ कक बासलयााँ थीं, ष्जसको वे इस अष्ग्न में िें कत ेजात ेथे। जब ज्वाला ब ुत उत्तषे्जत ुई, तो लेग एक ककनारे खड े ोकर ‘कबीर’ क ने लगे। छ: घण्टे तक य ी दशा र ी। लकडी के कुन्दों से चटाकपटाक के शब्द

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ननकल र े थे। पशुगण अपने-अपने खूाँटों पर भय से धचल्ला र े थे। तुलसा ने मुिसे क ा- अब की ोली की ज्वाला टेढ़ी जा र ी ै। कुशल न ीं। जब ज्वाला सीिी जाती ै, गााँव में साल-भर आनन्द की बिाई बजती ै। परन्तु ज्वाला का टेढ़ी ोना अशुभ ै ननदान लपट कम ोने लगी। आाँच की प्रखरता मन्द ुई। तब कुछ लोग ोली के ननकट आकर ध्यानपूवाक देखने लगे। जैसे कोइ वस्तु ढूाँढ़ र े ों। तुलसा ने बतलाया कक जब बसन्त के हदन ोली नीवं पडती ै, तो पह ले एक एरण्ड गाड देत े ैं। उसी पर लकडी और उपलों का ढेर लगाया जाता ै। इस समय लोग उस एरण्ड के पौिे का ढूाँढ र े ैं। उस मनुष्य की गणना वीरों में ोती ै जो सबसे प ले उस पौिे पर ऐसा लक्ष्य करे कक व टूट कर दजू जा धगर। प्रथम पटवारी सा ब पैंतरे बदलत ेआये, पर दस गज की दसूी से िााँककर चल हदये। तब रािा ाथ में एक छोटा-सा सोंटा सलये सा स और दृढ़तापूवाक आगे बढ़ा और आग में घुस कर व भरपूर ाथ लगाया कक पौिा अलग जा धगरा। लोग उन टुकडों को लूटन लगे। माथे पर उसका टीका लगात े ैं और उसे शुभ समित े ैं। य ााँ से अवकाश पाकर पुरुर्-मण्डली देवीजी के चबूतरे की ओर बढ़ी। पर य न समिना, य ााँ देवीजी की प्रनतष्ठा की गई ोगी। आज वे भी गष्जयााँ सुनना पसन्द करती ै। छोटे-बड ेसब उन् ें अश्लील गासलयााँ सुना र े थे। अभी थोड ेहदन ुए उन् ीं देवीजी की पूजा ुई थी। सच तो य ै कक गााँवों में आजकल ईश्वर को गाली देना भी क्षम्य ै। माता-बह नों की तो कोई गणना न ीं। प्रभात ोत े ी लाला ने म ाराज से क ा- आज कोई दो सेर भंग वपसवा लो। दो प्रकारी की अलग-अलग बनवा लो। सलोनी आ मीठी। म ारा ज ननकले और कई मनुष्यों को पकड लाये। भांग पीसी जाने लगी। ब ुत से कुल् ड माँगाकर क्रमपूवाक रखे गये। दो घडों मं दोनो प्रकार की भांग रखी गयी। किर क्या था, तीन-चार घण्टों तक वपयक्कडों का तााँता लगा र ा। लोग खूब बखान करत ेथे और गदान ह ला- ह लाकर म ाराज की कुशलता की प्रशंसा करत ेथे। ज ााँ ककसी ने बखान ककया कक म ाराज ने दसूरा कुल् ड भरा बोले-ये सलोनी ै। इसका भी स्वाद चखलो। अजी पी भी लो। क्या हदन-हदन ोली आयेगी कक सब हदन मारे ाथ की बूटी समलेगी ? इसके उत्तर में ककसान ऐसी दृष्ष्ट से ताकता था, मानो ककसी ने उसे संजीवन रस दे हदया और एक की जग तीन-तीन कुल् ड चट कर जाता। पटवारी कक जामाता मुन्शी जगदम्बा प्रसाद सा ब का शुभागमन ुआ

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ै। आप कच री में अरायजनवीस ैं। उन् ें म ाराज ने इतनी वपला दी कक आपे से बा र ो गये और नाचने-कूदने लगे। सारा गााँव उनसे पोदरी करता था। एक ककसान आता ै और उनकी ओर मुस्कराकर क ता ै- तुम य ााँ ठाढ़ी ो, घर जाके भोजन बनाओ, म आवत ैं। इस पर बड ेजोर की ाँसी ोती ै, काशी भर मद में माता लट्ठा कन्िे पर रखे आता और सभाष्स्थत जनों की ओर बनावटी क्रोि से देखकर गरजता ै- म ाराज, अच्छी बात न ीं ै कक तुम मारी नयी ब ुररया से मजा लूटत े ो। य क कर मुन्शीजी को छाती से लगा लेता ै। मुंशीजी बेचारे छोटे कद के मनुष्य, इिर-उिर िडिडात े ैं, पर नक्कारखाने मे तूती की आवाज कौन सुनता ै ? कोई उन् ें प्यार करता ै और ग़ले लगाता ै। दोप र तक य ी छेड-छाड ुआ की। तुलसा अभी तक बैठी ुई थी। मैंने उससे क ा- आज मारे य ााँ तुम् ारा न्योता ै। म तुम संग खायेंगी। य सुनत े ी म राष्जन दो थासलयों में भोजन परोसकर लायी। तुलसा इस समय खखडकी की ओर मुाँ करके खडी थी। मैंने जो उसको ाथ पकडकर अपनी और खींचा तो उसे अपनी प्यारी-प्यारी ऑखंों से मोती के सोने त्रबखेरत े ुए पाया। मैं उसे गले लगाकर बोली- सखी सच-सच बतला दो, क्यों रोती ो? मसे कोइर दरुाव मत रखो। इस पर व और भी सससकने लगी। जब मैंने ब ुत ठ की, उसने ससर घुमाकर क ा-बह न! आज प्रात:काल उन पर ननशान पड गया। न जाने उन पर क्या बीत र ी ोगी। य क कर व िूट-िूटकर रोने लगी। ज्ञात ुआ कक रािा के वपता ने कुछ ऋण सलया था। व अभी तक चुका न सका था। म ाजन ने सोचा कक इसे वालात ले चलूाँ तो रुपये वसूल ो जायें। रािा कन्नी काटता किरता था। आज द्वेवर्यों को अवसर समल गया और वे अपना काम कर गये। शोक ! मूल िन रुपये से अधिक न था। प्रथम मुि ज्ञात ोता तो बेचारे पर त्यो ार के हदन य आपष्त्त न आने पाती। मैंने चुपके से म ाराज को बुलाया और उन् ें बीस रुपये देकर रािा को छुडाने के सलये भेजा। उस समय मेरे द्वार पर एक टाट त्रबछा हदया गया था। लालाजी मध्य में कालीन पर बैठे थे। ककसान लोग घुटने तक िोनतयााँ बााँिे, कोई कुती पह ने कोई नग्न दे , कोई ससर पर पगडी बााँिे और नंगे ससर, मुख पर अबीर लगाये- जो उनके काले वणा पर ववशेर् छटा हदखा र ी थी- आने लगे। जो आता, लालाजी के पैंरों पर थोडी-सी अबीर रख देत। लालाली भी अपने तश्तरी में से थोडी-सी अबीर

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ननकालकर उसके माथे पर लगा देत ेऔर मुस्कुराकर कोई हदल्लगी की बात कर देत ेथे। व नन ाल ो जाता, सादर प्रणाम करता और ऐसा प्रसन्न ोकर आ बैठता, मानो ककसी रंक ने रत्न- रासश पायी ै। मुि ेस्पप्न में भी ध्यान न था कक लालाजी इन उजड्ड दे ानतयों के साथ बैठकर ऐसे आनन्द से वताालाप कर सकत े ैं। इसी बीच में काशी भर आया। उसके ाथ में एक छोटी-सी कटोरी थी। व उसमें अबीर सलए ुए था। उसने अन्य लोगों की भााँनत लालाजी के चरणों पर अबीर न ीं रखी, ककंतु बडी िषृ्टता से मुट्ठी-भर लेकर उनके मुख पर भली-भााँनत मल दी। मैं तो डरी, क ीं लालाजी रुष्ट न ो जायाँ। पर व ब ुत प्रसन्न ुए और स्वयं उन् ोंने भी एक टीका लगाने के स्थान पर दोनों ाथों से उसके मुख पर अबीर मली। उसके सी उसकी ओर इस दृष्ष्ट से देखत ेथे कक ननस्संदे तू वीर ै और इस योग्य ै कक मारा नायक बने। इसी प्रकार एक-एक करके दो-ढाई सौ मनुष्य एकत्र ुए ! अचानक उन् ोंने क ा-आज क ीं रािा न ीं दीख पडता, क्या बात ै? कोई उसके घर जाके देखा तो। मुंशी जगदम्बा प्रसाद अपनी योग्यता प्रकासशत करने का अच्छाअवसी देखकर बोले उठे- जूर व दिा 13 नं. असलि ऐक्ट (अ) में धगरफ्तार ो गया। रामदीन पाडं ेने वारण्ट जारी करा हदया। रीच्छा से रामदीन पांड ेभी व ााँ बैठे ुए थे। लाला सने उनकी ओर परम नतरस्कार दृष्ष्ट से देखा और क ा- क्यों पांडजेी, इस दीन को बन्दीग ृ में बन्द करन ेसे तुम् ारा घर भर जायगा ? य ी मनुष्यता और सशष्टता अब र गयी ै। तुम् ें तननक भी दया न आयी कक आज ोली के हदन उसे स्त्री और बच्चों से अलग ककया। मैं तो सत्य क ता ूाँ कक यहद मैं रािा ोता, तो बन्दीग ृ से लौटकर मेरा प्रथम उद्योग य ी ोता कक ष्जसने मुि ेय हदन हदखाया ै, उसे मैं भी कुछ हदनों लदी वपलवा दूाँ। तुम् ें लाज न ीं आती कक इतने बड ेम ाजन ोकर तुमने बीस रुपये के सलए एक दीन मनुष्य को इस प्रकार कष्ट में डाला। डूब मरना था ऐसे लोभ पर! लालाजी को वस्तुत: क्रोि आ गया था। रामदीन ऐसा लष्ज्जत ुआकक सब ससट्टी-वपट्टी भूल गयी। मुख से बात न ननकली। चुपके से न्यायालय की ओर चला। सब-के-सब कृर्क उसकी ओर क्रोि-पूणा दृष्ष्ट से देख र े थे। यहद लालाजी का भय न ोता तो पांडजेी की ड्डी-पसली व ीं चूर ो जाती। इसके पश्चात लोगों ने गाना आरम्भ ककया। मद में तो सब-के-सब गात े ी थे, इस पर लालजी के भ्रात-ृभाव के सम्मान से उनके मन और भी उत्साह त ो गये। खूब जी तोडकर गाया। डिें तो इतने जोर से बजती थीं कक अब िटी और

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तब िटीं। जगदम्बाप्रसाद ने द ुरा नशा चढ़ाया था। कुछ तो उनकें मन में स्वत: उमंग उत्पन्न ुई, कुछ दसूरों ने उत्तजेना दी। आप मध्य सभा में खडा ोकर नाचने लगे; ववश्वास मानो, नाचने लग। मैंनें अचकन, टोपी, िोती और मूाँछोंवाले पुरुर् को नाचत ेन देखा था। आि घण्टे तक वे बन्दरों की भााँनत उछलते-कूदत ेर े। ननदान मद ने उन् ें पथृ्वी पर सलटा हदया। तत्पश्चात ्एक और अ ीर उठा एक अ ीररन भी मण्डली से ननकली और दोनों चौक में जाकर नाचने लगे। दोनों नवयुवक िुतीले थे। उनकी कमर और पीठ की लचक ववलक्षण थी। उनके ाव-भाव, कमर का लचकना, रोम-रोम का िडकना, गदान का मोड, अंगों का मरोड देखकर ववस्मय ोता थां ब ुत अभ्यास और पररश्रम का काया ै। अभी य ााँ नाच ो ी र ा था कक सामने ब ुत-से मनुष्य लंबी-लंबी लाहठयााँ कन्िों पर रखे आत ेहदखायी हदये। उनके संग डि भी था। कई मनुष्य ाथों से िााँि और मजीरे सलये ुए थे। वे गात-ेबजात ेआये और मारे द्वार पर रुके। अकस्मात तीन- चार मुनष्यों ने समलकर ऐसे आकाशभेदी शब्दों में ‘अररर...कबीर’ की ध्वनन लगायी कक घर कााँप उठा। लालाजी ननकले। ये लोग उसी गााँव के थे, ज ााँ ननकासी के हदन लाहठयााँ चली थीं। लालजी को देखत े ी कई पुरुर्ों ने उनके मुख पर अबीर मला। लालाजी ने भी प्रत्युत्तर हदया। किर लोग िशा पर बैठा। इलायची और पान से उनका सम्मान ककया। किर गाना ुआ। इस गााँववालों ने भी अबीर मलीं और मलवायी। जब ये लोग त्रबदा ोने लगे, तो य ोली गायी: ‘सदा आनन्द र े ह द्वारे मो न खेलें ोरी।’ ककतना सु ावना गीत ै! मुिे तो इसमें रस और भाव कूट-कूटकर भारा ुआ प्रतीत ोता ै। ोली का भाव कैसे सािारण और संक्षक्षपत शब्दों में प्रकट कर हदया गया ै। मैं बारम्बार य प्यारा गीत गाती ूाँ, आनन्द लूटती ूाँ। ोली का त्यो ार परस्पर पे्रम और मेल बढ़ाने के सलए ै। सम्भव सन था कक वे लोग, ष्जनसे कुछ हदन प ले लाहठयााँ चली थीं, इस गााँव में इस प्रकार बेिडक चले आत।े पर य ोली का हदन ै। आज ककसी को ककसी से द्वेर् न ीं ै। आज पे्रम और आनन्द का स्वराज्य ै। आज के हदन यहद दखुी ो तो परदेशी बालम की अबला। रोवे तो युवती वविवा! इनके अनतररक्त और सबके सलए आनन्द की बिाई ै।

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सन्ध्या-समय गााँव की सब ष्स्त्रयााँ मारे य ााँ खेलने आयीं। मातजी ने उन् ें बड ेआदर से बैठाया। रंग खेला, पान बााँटा। मैं मारे भय के बा र न ननकली। इस प्रकार छुट्टी समली। अब मुि ेध्यान आया कक मािवी दोप र से गायब ै। मैंने सोचा था शायद गााँव में ोली खेलन ेगयी ो। परन्तु इन स्त्रीयों के संग न थी। तुलसा अभी तक चुपचाप खखडकी की ओर मुाँ ककये बैठी थी। दीपक में बत्ती पडी र ी थी कक व अकस्मात ्उठी, मेरे चरणों पर धगर पडी और िूट-िूटकर रोने लगी। मैंने खखडकी की ओर िााँका तो देखती ूाँ कक आगे-आगे म ाराज, उसके पीछे रािा और सबसे पीछे रामदीन पांड ेचल र े ैं। गााँव के ब त से आदमी उनकेस संग ै। रािा का बदन कुम् लाया ुआ ै। लालाजी ने ज्यों ी सुना कक रािा आ गया, चट बा र ननकल आये और बड ेस्ने से उसको कण्ठ से लगा सलया, जैसे कोई अपने पुत्र का गले से लगाता ै। रािा धचल्ला-धचल्लाकर के चरणों में धगर पडी। लालाजी ने उसे भी बड ेपे्रम से उठाया। मेरी ऑखंों में भी उस समय ऑसंू न रुक सके। गााँव के ब ुत से मनुष्य रो र े थे। बडा करुणापूणा दृश्य था। लालाजी के नेत्रों में मैंने कभी ऑसंू ने देखे थे। वे इस समय देखे। रामदीन पाण्डये मस्तक िुकाये ऐसा खडा था, माना गौ- त्या की ो। उसने क ा-मरे रुपये समल गये, पर इच्छा ै, इनसे तुलसा के सलए एक गाय ले दूाँ। रािा और तुलसा दोनों अपने घर गये। परन्तु थोडी देर में तुलसा मािवी का ाथ पकड े ाँसती ुई मरे घर आयी बोली- इनसे पूछो, ये अब तक क ााँ थीं? मैं-- क ााँ थी? दोप र से गायब ो ? मािवी--य ीं तो थी। मैं-- य ााँ क ााँ थीं? मैंने तो दोप र से न ीं देखा। सच-सच बता दो मैं रुष्ट न ोँऊगी। मािवी-- तुलसा के घर तो चली गयी थी। मैं-- तुलसा तो य ााँ बैठी ै, व ााँ अकेली क्या सोती र ीं?

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तुलसा-- ( ाँसकर) सोती का े को जागती र । भोजन बनाती र ी, बरतन चौका करती र ी। मािवी-- ााँ, चौका-बरतर करती र ी। कोई तुम् ार नौकर लगा ुआ ै न! ज्ञात ुअ कक जब मैंने म ाराज को रािा को छुडाने के सलए भेजा था, तब से मािवी तुलसाके घर भोजन बनाने में लीन र ी। उसके ककवाड खोले। य ााँ से आटा, घी, शक्कर सब ले गयी। आग जलायी और पूडडयााँ, कचौडडयााँ, गुलगुले और मीठे समोसे सब बनाये। उसने सोचा थाकक मैं य सब बताकर चुपके से चली जााँऊगी। जब रािा और तुलसा जायेंगे, तो ववष्स्मत ोंगे कक कौन बना गया! पर स्यात ्ववलम्ब अधिक ो गया और अपरािी पकड सलया गया। देखा, कैसी सुशीला बाला ै। अब ववदा ोती ूाँ। अपराि क्षमा करना। तुम् ारी चरेी ूाँ जैसे रखोगे वैसे र ूाँगी। य अबीर और गुलाल भेजती ूाँ। य तुम् ारी दासी का उप ार ै। तुम् ें मारी शपथ समथ्या सभ्यता के उमंग में आकर इसे िें क न देना, न ीं तो मेरा हृदय दखुी ोगा। तुम् ारी, ववरजन (5) मिगााँव ‘प्यारे! तुम् ारे पत्र ने ब ुत रुलाया। अब न ीं र ा जाता। मुि ेबुला लो। एक बार देखकर चलीआाँऊगी। सच बताओं, यहद में तुम् ारे य ााँ आ जाऊं, तो ाँसी तो न उडाओगे? न जाने मन मे क्या समिोगे? पर कैस आऊं? तुम लालाजी को सलखो खूब! क ेंगे य नयी िुन समायी ै।

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कल चारपाई पर पडी थी। भोर ो गया था, शीतल मन्द पवन चल र ा था कक ष्स्त्रयााँ गाने का शब्द सुनायी पडा। स्त्रीयााँ अनाज का खेत काटने जा र ी थीं। िााँककर देखा तो दस-दस बार -बार ष्स्त्रयों का एक-एक गोल था। सबके ाथों में ंससया, कन्िों पर गाहठयााँ बााँिने की रस्स ओर ससर पर भुने ुए मटर की छबडी थी। ये इस समय जाती ैं, क ीं बार बजे लौंटेगी। आपस में गाती, चु लें करती चली जाती थीं। दोप र तक बडी कुशलता र ी। अचानक आकश मेघाच्छन्न ो गया। ऑिंी आ गयी और ओले धगरने लगे। मैंने इतने बड ेओले धगरत ेन देखे थे। आलू से बड ेऔर ऐसी तजेी से धगरे जैसे बन्दकू से गोली। क्षण-भर में पथृ्वी पर एक िुट ऊंचा त्रबछावन त्रबछ गया। चारों तरि से कृर्क भागने लगे। गायें, बककरयााँ, भेडें सब धचल्लाती ुई पेडों की छाया ढूाँढ़ती, किरती थीं। मैं डरी कक न-जाने तुलसा पर क्या बीती। आंखे िैलाकर देखा तो खुले मैदान में तुलसा, रािा और मोह नी गाय दीख पडीं। तीनों घमासान ओले की मार में पड ेथे! तुलसा के ससर पर एक छोटी-सी टोकरी थी और रािा के ससर पर एक बडा-सा गट्ठा। मेरे नेत्रों में आंसू भर आये कक न जाने इन बेचारों की क्या गनत ोगी। अकस्मात एक प्रखर िोंके ने रािा के ससर से गट्ठा धगरा हदया। गट्ठा का धगरना था कक चट तुलसा ने अपनी टोकरी उसके ससर पर औिंा दी। न-जाने उस पुष्प ऐसे ससर पर ककतने ओले पड।े उसके ाथ कभी पीठ पर जाते, कभी ससर सु लात।े अभी एक सेकेण्ड से अधिक य दशा न र ी ोगी कक रािा ने त्रबजली की भााँनत जपककर गट्ठा उठा सलया और टोकरी तुलसा को दे दी। कैसा घना पे्रम ै! अनथाकारी ददेुव ने सारा खेल त्रबगाड हदया ! प्रात:काल स्त्रीयााँ गाती ुई जा र ी थीं। सन्ध्या को घर-घर शोक छाया ुआ था। ककतना के ससर ल ू-लु ान ो गये, ककतने ल्दी पी र े ैं। खेती सत्यानाश ो गयी। अनाज बिा के तले दब गया। ज्वर का प्रकोप ैं सारा गााँव अस्पताल बना ुआ ै। काशी भर का भववष्य प्रवचन प्रमाखणत ुआ। ोली की ज्वाला का भेद प्रकट ो गया। खेती की य दशा और लगान उगा ा जा र ा ै। बडी ववपष्त्त का सामना ै। मार-पीट, गाली, अपशब्द सभी सािनों से काम सलया जा र ा ै। दोंनों पर य दैवी कोप! तुम् ारी ववरजन

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(6) मिगााँव मेरे प्राणधिक वप्रयतम, पूरे पन्र हदन के पश्चात ्तुमने ववरजन की सुधि ली। पत्र को बारम्बार पढ़ा। तुम् ारा पत्र रुलाये त्रबना न ीं मानता। मैं यों भी ब ुत रोया करती ूाँ। तुमको ककन-ककन बातों की सुधि हदलाऊाँ ? मेरा हृदय ननबाल ै कक जब कभी इन बातों की ओर ध्यान जाता ै तो ववधचत्र दशा ो जाती ै। गमी-सी लगती ै। एक बडी व्यग्र करने वाली, बडी स्वाहदष्ट, ब ुत रुलानेवाली, ब ुत दरुाशापूणा वेदना उत्पन्न ोती ै। जानती ूाँ कक तुम न ीं आ र े और न ीं आओगे; पर बार-बार जाकर खडी ो जाती ूाँ कक आ तो न ीं गये। कल सायंकाल य ााँ एक धचत्ताकर्ाक प्र सन देखने में आया। य िोत्रबयों का नाच था। पन्र -बीस मनुष्यों का एक समुदाय था। उसमे एक नवयुवक श्वेत पेशवाज पह ने, कमर में असंख्य घंहटयााँ बााँिे, पााँव में घुघाँरु पह ने, ससर पर लाल टोपी रखे नाच र ा था। जब पुरुर् नाचता था तो मअृंग बजने लगती थी। ज्ञात ुआ कक ये लोग ोली का पुरस्कार मााँगने आये ैं। य जानत पुरस्कार खूब लेती ै। आपके य ााँ कोई काम-काज पड ेउन् ें पुरस्कार दीष्जये; और उनके य ााँ कोई काम-काज पडे, तो भी उन् ें पाररतोवर्क समलना चाह ए। ये लोग नाचत ेसमय गीत न ीं गात।े इनका गाना इनकी कववता ै। पेशवाजवाला पुरुर् मदंृग पर ाथ रखकर एक ववर ा क ता ै। दसूरा पुरुर् सामने से आकर उसका प्रत्युत्तर देता ै और दोनों तत्क्षण व ववर ा रचत े ैं। इस जानत में कववत्व-शष्क्त अत्यधिक ै। इन ववर ों को ध्यान से सुनो तो उनमे ब ुिा उत्तम कववत्व भाव प्रकट ककये जाते ैं। पेशवाजवाले पुरुर्ों ने प्रथम जो ववर ा क ा था, उसका य अथा कक ऐ िोबी के बच्चों! तुम ककसके द्वार पर आकर खड े ो? दसूरे ने उत्तर हदया-अब न अकबर शा ै न राजा भोज, अब जो ैं मारे मासलक ैं उन् ीं से मााँगो। तीसरे ववर ा का अथा य ै कक याचकों की प्रनतष्ठा कम ोती ै अतएव कुछ मत मााँगों, गा-बाजकर चले चलो, देनेवाला त्रबन मााँगे ी देगा। घण्टे-भर से ये लोग ववर े क त ेर े। तुम् ें प्रतनत न ोगी, उनके मुख से ववर े इस प्रकार बेिडक ननकलत ेथे कक आश्चया प्रकट ोता था। स्यात इतनी सुगमता से वे बातें भी न कर सकत े ों। य जानत बडी वपयक्कड ै।

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महदरा पानी की भााँनत पीती ै। वववा में महदरा गौने में महदरा, पूजा-पाठ में महदरा। पुरस्कार मााँगेंगे तो पीने के सलए। िुलाई मााँगेंगे तो य क कर कक आज पीने के सलए पैसे न ीं ैं। ववदा ोत ेसमय बेचू िोबी ने जो ववर ा क ा था, व काव्यालंकार से भरा ुआ ै। तुम् ारा पररवार इस प्रकार बढे़ जैसे गंगा जी का जल। लडके िूले-िलें, जैसे आम का बौर। मालककन को सो ाग सदा बना र े, जैसे दबू की ररयाली। कैसी अनोखी कववता ै। तुम् ारी ववरजन (7) मिगााँव प्यारे, एक सप्ता तक चुप र ने की क्षमा चा ती ूाँ। मुि ेइस सप्ता में तननक भी अवकाश न समला। मािवी बीमार ो गयी थी। प ले तो कुनैन को कई पुडडयााँ खखलायी गयीं पर जब लाभ न ुआ और उसकी दशा और भी बुरी ोने लगी तो, हद लूराय वैद्य बुलाये गये। कोई पचास वर्ा की आयू ोगी। नंगे पााँव ससर पर एक पगडो बााँिे, कन्िे पर अंगोछा रखे, ाथ में मोटा-सा सोटा सलये द्वार पर आकर बैठ गये। घर के जमींदार ैं, पर ककसी ने उनके शरीर मे समजई तक न ीं देखी। उन् ें इतना अवकाश ी न ीं कक अपने शरीर-पालन की ओर ध्यान दे। इस मंडल में आठ-दस कोस तक के लोग उन पर ववश्वास करत े ैं। न वे कीम को लाने, न डाक्टर को। उनके कीम-डाक्टर जो कुछ ैं वे हद लूराय ै। सन्देशा सुनत े ी आकर द्वार पर बैठ गये। डाक्टरों की भााँनत न ीं की प्रथम सवारी मााँगेंगे- व भी तजे ष्जसमें उनका समय नष्ट न ो। आपके घर ऐसे बैठे र ेंगे, मानों गूाँगें का गुड खा गये ैं। रोगी को देखने जायेंगे तो इस प्रकार भागेंगे मानो कमरे की वायु में ववर् भरा ुआ ै। रोग पररचय और और्धि का उपचार केवल दो समनट में समाप्त। हद लूराय डाक्टर न ीं ैं- पर ष्जतने मनुष्यों को उनसे लाभ प ुाँचता ैं, उनकी संख्या का अनुमान करना कहठन ै। व स ानुभूनत की मूनता ै। उन् ें देखत े ी रेगी का आिा रोग दरू ो जाता ै। उनकी और्धियााँ ऐसी सुगम और सािारण ोती ैं कक त्रबना पैसा-कौडी मनों

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बटोर लाइए। तीन ी हदन में मािवी चलने-किरने लगी। वस्तुत: उस वैद्य की और्धि में चमत्कार ै। य ााँ इन हदनों मुगसलये ऊिम मचा र े ैं। ये लोग जाड ेमें कपड ेउिार दे देत े ैं और चैत में दाम वसूल करत े ैं। उस समय कोई ब ाना न ीं सुनत।े गाली-गलौज मार-पीट सभी बातों पर उतरा आत े ैं। दो-तीन मनुष्यों को ब ुत मारा। रािा ने भी कुछ कपड ेसलये थे। उनके द्वार पर जाक सब-के-सब गासलयााँ देने लगे। तुलसा ने भीतर से ककवाड बन्द कर हदये। जब इस प्रकार बस न चला, तो एक मो नी गाय को खूाँटे से खोलकर खींचत े ुए ले चला। इतने मं रािा दरू से आता हदखाई हदया। आत े ी आत ेउसने लाठी का व ाथ मारा कक एक मुगसलये की कलाई लटक पडी। तब तो मुगसलये कुवपत ुए, पैंतरे बदलने लगे। रािा भी जान पर खेन गया और तीन दषु्टों को बेकार कर हदया। इतने काशी भर ने आकर एक मुगसलये की खबर ली। हद लूराय को मुगासलयों से धचढ़ ै। सासभमान क ा करत े ैं कक मैंने इनके इतने रुपये डुबा हदये इतनों को वपटवा हदया कक ष्जसका ह साब न ीं। य कोला ल सुनत े ी वे भी प ुाँच गये। किर तो सैकडो मनुष्य लाहठयााँ ले-लेकर दौड पड।े उन् ोंने मुगसलयों की भली-भााँनत सेवा की। आशा ै कक इिर आने का अब सा स न ोगा। अब तो मई का मास भी बीत गया। क्यों अभी छुट्टी न ीं ुई ? रात-हदन तम् ारे आने की प्रतीक्षा ै। नगर में बीमारी कम ो गई ै। म लोग बु त शीघ्र य ाँ से चले जायगे। शोक ! तुम इस गााँव की सैर न कर सकोगे। तुम् ारी ववरजन ***

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18. प्रतापचन्र और कमलाचरण

प्रतापचन्र को प्रयाग कालेज में पढ़त ेतीन साल ो चुके थे। इतने काल में उसने अपने स पाहठयों और गुरुजनों की दृष्ष्ट में ववशेर् प्रनतष्ठा प्राप्त कर ली थी। कालेज के जीवन का कोई ऐसा अंग न था ज ााँ उनकी प्रनतभा न प्रदसशात ुई ो। प्रोिेसर उस पर असभमान करत ेऔर छात्रगण उसे अपना नेता समित े ैं। ष्जस प्रकार क्रीडा-क्षेत्र में उसका स्तलाघव प्रशंसनीय था, उसी प्रकार व्याख्यान-भवन में उसकी योग्यता और सूक्ष्मदसशाता प्रमाखणत थी। कालेज से सम्बद्व एक समत्र-सभा स्थावपत की गयी थी। नगर के सािारण सभ्य जन, कालेज के प्रोिेसर और छात्रगण सब उसके सभासद थे। प्रताप इस सभा का उज्ज्वल चन्र था। य ां देसशक और सामाष्जक ववर्यों पर ववचार ुआ करत ेथे। प्रताप की वक्ततृाऍ ंऐसी ओजष्स्वनी और तका -पूणा ोती थीं की प्रोिेसरों को भी उसके ववचार और ववर्यान्वेर्ण पर आश्चया ोता था। उसकी वक्ततृा और उसके खेल दोनों ी प्रभाव-पूणा ोत ेथे। ष्जस समय व अपने सािारण वस्त्र पह ने ुए प्लेटिामा पर जाता, उस समय सभाष्स्थत लोगों की आाँखे उसकी ओर एकटक देखने लगती और धचत्त में उत्सुकता और उत्सा की तरंगें उठने लगती। उसका वाक्चातुया उसक संकेत और मदृलु उच्चारण, उसके अंगों-पांग की गनत, सभी ऐसे प्रभाव-पूररत ोत ेथे मानो शारदा स्वयं उसकी स ायता करती ै। जब तक व प्लेटिामा पर र ता सभासदों पर एक मोह नी-सी छायी र ती। उसका एक-एक वाक्य हृदय में सभद जाता और मुख से स सा ‘वा -वा !’ के शब्द ननकल जात।े इसी ववचार से उसकी वक्ततृाऍ ंप्राय: अन्त में ुआ करती थी क्योंकक ब ुतिा श्रोतागण उसी की वाक्तीक्ष्णता का आस्वादन करने के सलए आया करत ेथे। उनके शब्दों और उच्चारणों में स्वाभाववक प्रभाव था। साह त्य और इनत ास उसक अन्वेर्ण और अध्ययन के ववशेर् थे। जानतयों की उन्ननत और अवननत तथा उसके कारण और गनत पर व प्राय: ववचार ककया करता था। इस समय उसके इस पररश्रम और उद्योग के प्ररेक तथा वद्ावक ववशेर्कर श्रोताओं के सािुवाद ी ोत ेथे और उन् ीं को व अपने कहठन पररश्रम का पुरस्कार समिता था। ााँ, उसके उत्सा की य गनत देखकर य अनुमान ककया जा सकता था कक व ोन ार त्रबरवा आगे चलकर कैसे िूल-िूल लायेगा और कैसे रंग-रुप ननकालेगा। अभी तक उसने क्षण भी के सलए भी इस पर ध्यान न ीं हदया था कक मेरे अगामी जीवन का क्या स्वरुप ोगा। कभी सोचता

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कक प्रोिेसर ो जााँऊगा और खूब पुस्तकें सलखूाँगा। कभी वकील बनने की भावना करता। कभी सोचता, यहद छात्रवषृ्त्त प्राप्त ोगी तो ससववल सववसा का उद्योग करंुगा। ककसी एक ओर मन न ीं हटकता था। परन्तु प्रतापचन्र उन ववद्याधथयों में से न था, ष्जनका सारा उद्योग वक्ततृा और पुस्तकों ी तक पररसमत र ता ै। उसके संयम और योग्यता का एक छोटा भाग जनता के लाभाथा भी व्यय ोता था। उसने प्रकृनत से उदार और दयालु हृदय पाया था और सवासािरण से समलन-जुलने और काम करने की योग्यता उसे वपता से समली थी। इन् ीं कायों में उसका सदतु्सा पूणा रीनत से प्रमाखणत ोता था। ब ुिा सन्ध्या समय व कीटगंज और कटरा की दगुान्िपूणा गसलयों में घूमता हदखायी देता ज ााँ ववशेर्कर नीची जानत के लोग बसत े ैं। ष्जन लोगों की परछाई से उच्चवणा का ह न्द ूभागता ै, उनके साथ प्रताप टूटी खाट पर बैठ कर घंटों बातें करता और य ी कारण था कक इन मु ल्लों के ननवासी उस पर प्राण देत ेथे। पे्रमाद और शारीररक सुख-प्रलोभ ये दो अवगुण प्रतापचन्र में नाममात्र को भी न थे। कोई अनाथ मनुष्य ो प्रताप उसकी स ायता के सलए तैयार था। ककतनी रातें उसने िोपडों में करा त े ुए रोधगयों के ससर ाने खड ेर कर काटी थीं। इसी असभप्राय से उसने जनता का लाभाथा एक सभा भी स्थावपत कर रखी थी और ढाई वर्ा के अल्प समय में ी इस सभा ने जनता की सेवा में इतनी सिलता प्राप्त की थी कक प्रयागवाससयों को उससे पे्रम ो गया था। कमलाचरण ष्जस समय प्रयाग प ुाँचा, प्रतापचन्र ने उसका बडा आदर ककया। समय ने उसके धचत्त के द्वेर् की ज्वाला शांत कर दी थी। ष्जस समय व ववरजन की बीमारी का समाचार पाकर बनारस प ुाँचा था और उससे भेंट ोत े ी ववरजन की दशा सुिर चली थी, उसी समय प्रताप चन्र को ववश्वास ो गया था कक कमलाचरण ने उसके हृदय में व स्थान न ीं पाया ै जो मेरे सलए सुरक्षक्षत ै। य ववचार द्वेर्ाष्ग्न को शान्त करने के सलए कािी था। इससे अनतररक्त उसे प्राय: य ववचार भी उद्ववगन ककया करता था कक मैं ी सुशीला का प्राणघातक ूाँ। मेरी ी कठोर वाखणयों ने उस बेचारी का प्राणघात ककया और उसी समय से जब कक सुशील ने मरत ेसमय रो-रोकर उससे अपने अपरािों की क्षमा मााँगी थी, प्रताप ने मन में ठान सलया था। कक अवसर समलेगा तो मैं इस पाप का प्रायष्श्चत अवश्य करंुगा। कमलाचरण का आदर-सत्कार तथा सशक्षा-

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सुिार में उसे ककसी अंश में प्रायष्श्चत को पूणा करने का अपूवा अवसर प्राप्त ुआ। व उससे इस प्रकार व्यव ार रखता, जैसे छोटा भाई के साथ अपने समय का कुछ भाग उसकी स ायता करने में व्यय करता और ऐसी सुगमता से सशक्षक का कत्तावय पालन करता कक सशक्षा एक रोचक कथा का रुप िारण कर लेती। परन्तु प्रतापचन्र के इन प्रयत्नों के ोत े ुए भी कमलाचरण का जी य ााँ ब ुत घबराता। सारे छात्रवास में उसके स्वाभावनुकूल एक मनुष्य भी न था, ष्जससे व अपने मन का द:ुख क ता। व प्रताप से ननस्संकोच र त े ुए भी धचत्त की ब ुत-सी बातें न क ता था। जब ननजानता से जी अधिक घबराता तो ववरजन को कोसने लगता कक मेरे ससर पर य सब आपष्त्तयााँ उसी की लादी ुई ैं। उसे मुिसे पे्रम न ीं। मुख और लेखनी का पे्रम भी कोई पे्रम ै ? मैं चा े उस पर प्राण ी क्यों न वारंु, पर उसका पे्रम वाणी और लेखनी से बा र न ननकलेगा। ऐसी मूनता के आगे, जो पसीजना जानती ी न ीं, ससर पटकने से क्या लाभ। इन ववचारों ने य ााँ तक जोर पकडा कक उसने ववरजन को पत्र सलखना भी त्याग हदया। व बेचारी अपने पत्रों में कलेजा ननकलाकर रख देती, पर कमला उत्तर तक न देता। यहद देता भी तो रुखा और हृदयववदारक। इस समय ववरजन की एक-एक बात, उसकी एक-एक चाल उसके पे्रम की सशधथलता का पररचय देती ुई प्रतीत ोती थी। ााँ, यहद ववस्मरण ो गयी थी तो ववरजन की स्ने मयी बातें, वे मतवाली ऑखंे जो ववयोग के समय डबडबा गयी थीं और कोमल ाथ ष्जन् ोंने उससे ववनती की थी कक पत्र बराबर भेजत ेर ना। यहद वे उसे स्मरण ो आते, तो सम्भव था कक उसे कुछ संतोर् ोता। परन्तु ऐसे अवसरों पर मनुष्य की स्मरणशष्क्त िोखा दे हदया करती ै। ननदान, कमलाचरण ने अपने मन-ब लाव का एक ढंग सोच ी ननकाला। ष्जस समय से उसे कुछ ज्ञान ुआ, तभी से उसे सौन्दया-वाहटका में भ्रमण करने की चाट पडी थी, सौन्दयोपासना उसका स्वभाव ो गया था। व उसके सलए ऐसी ी अननवाया थी, जैसे शरीर रक्षा के सलए भोजन। बोडडिंग ाउस से समली ुई एक सेठ की वाहटका थी और उसकी देखभाल के सलए माली नौकर था। उस माली के सरयूदेवी नाम की एक कुाँ वारी लडकी थी। यद्यवप व परम सुन्दरी न थी, तथावप कमला सौन्दया का इतना इच्छुक न था, ष्जतना ककसी ववनोद की सामग्री का। कोई भी स्त्री, ष्जसके शरीर पर यौवन की िलक ो, उसका मन

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ब लाने के सलए समुधचत थी। कमला इस लडकी पर डोरे डालने लगा। सन्ध्या समय ननरन्तर वाहटका की पटररयों पर ट लता ुआ हदखायी देता। और लडके तो मैदान में कसरत करते, पर कमलाचरण वाहटका में आकर ताक-िााँक ककया करता। िीरे-िीरे सरयूदेवी से पररचय ो गया। व उससे गजरे मोल लेता और चौगुना मूल्य देता। माली को त्यो ार के समय सबसे अधिक त्यो री कमलाचरण ी से समलती। य ााँ तक कक सरयूदेवी उसके प्रीनत-रुपी जाल का आखेट ो गयी और एक-दो बार अन्िकार के पदे में परस्पर सभंोग भी ो गया। एक हदन सन्ध्या का समय था, सब ववद्याथी सैर को गये ुए थे, कमला अकेला वाहटका में ट लता था और र -र कर माली के िोपडों की ओर िााँकता था। अचानक िोपड ेमें से सरयूदेवी ने उसे संकेत द्वारा बुलाया। कमला बडी शीघ्रता से भीतर घुस गया। आज सरयूदेवी ने मलमल की साडी प नी थी, जो कमलाबाबू का उप ार थी। ससर में सुगंधित तले डाला था, जो कमला बाब ूबनारस से लाये थे और एक छींट का सलूका प ने ुई थी, जो बाब ूसा ब ने उसके सलए बनवा हदया था। आज व अपनी दृष्ष्ट में परम सुन्दरी प्रतीत ोती थी, न ीं तो कमला जैसा िनी मनुष्य उस पर क्यों पाण देता ? कमला खटोले पर बैठा ुआ सरयूदेवी के ाव-भाव को मतवाली दृष्ष्ट से देख र ा था। उसे उस समय सरयूदेवी वजृरानी से ककसी प्रकार कम सुन्दरी न ीं दीख पडती थी। वणा में तननक सा अन्तर था, पर य ऐसा कोई बडा अंतर न ीं। उसे सरयूदेवी का पे्रम सच्चा और उत्सा पूणा जान पडता था, क्योंकक व जब कभी बनारस जाने की चचाा करता, तो सरयूदेवी िूट-िूटकर रोने लगती और क ती कक मुि ेभी लेत ेचलना। मैं तुम् ारा संग न छोडूाँगी। क ााँ य पे्रम की तीव्रता व उत्सा का बा ुल्य और क ााँ ववरजन की उदासीन सेवा और ननदायतापूणा अभ्यथाना ! कमला अभी भलीभााँनत ऑखंों को सेंकने भी न पाया था कक अकस्मात ्माली ने आकर द्वार खटखटाया। अब काटो तो शरीर में रुधिर न ीं। च ेरे का रंग उड गया। सरयूदेवी से धगडधगडाकर बोला- मैं क ााँ जाऊं? सरयूदेवी का ज्ञान आप ी शून्य ो गया, घबरा ट में मुख से शब्द तक न ननकला। इतने में माली ने किर ककवाड खटखटाया। बेचारी सरयूदेवी वववश थी। उसने डरत-ेडरत ेककवाड खोल हदया। कमलाचरण एक कोनें में श्वास रोककर खडा ो गया।

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ष्जस प्रकार बसलदान का बकरा कटार के तले तडपता ै उसी प्रकार कोने में खड े ुए कमला का कलेजा िज्ञडक र ा था। व अपने जीवन से ननराश था और ईश्वर को सच्च ेहृदय से स्मरण कर र ा था और क र ा था कक इस बार इस आपष्त्त से मुक्त ो जाऊंगा तो किर कभी ऐसा काम न करंुगा। इतने में माली की दृष्ष्ट उस पर पडी, पह ले तो घबराया, किर ननकट आकर बोला- य कौन खडा ै? य कौन ै? इतना सुनना था कक कमलाचरण िपटकर बा र ननकला और िाटक की ओर जी छोडकर भागा। माली एक डडंा ाथ में सलये ‘लेना-लेना, भागने न पाये?’ क ता ुआ पीछे-पीछे दौडा। य व कमला ै जो माली को पुरस्कार व पाररतोवर्क हदया करता था, ष्जससे माली सरकार और ुजूर क कर बातें करता था। व ी कमला आज उसी माली सम्मुख इस प्रकार जान लेकर भागा जाता ै। पाप अष्ग्न का व कुण्ड ै जो आदर और मान, सा स और िैया को क्षण-भर में जलाकर भस्म कर देता ै। कमलाचरण वकृ्षों और लताओं की ओट में दौडता ुआ िाटक से बा र ननकला। सडक पर तााँगा जा र ा था, जो बैठा और ााँित-े ााँित ेअशक्त ोकर गाडी के पटरे पर धगर पडा। यद्यवप माली ने िाटक भी पीछा न ककया था, तथावप कमला प्रत्येक आने-जाने वाले पर चौंक-चौंककर दृष्ष्ट डालता थ, मानों सारा संसार शत्र ु ो गया ै। दभुााग्य ने एक और गुल खखलाया। स्टेशन पर प ुाँचत े ी घबरा ट का मारा गाडी में जाकर बैठ गय, परन्तु उसे हटकट लेने की सुधि ी न र ी और न उसे य खबर थी कक मैं ककिर जा र ा ूाँ। व इस समय इस नगर से भागना चा ता था, चा े क ीं ो। कुछ दरू चला था कक अंगे्रज अिसर लालटेन सलये आता हदखाई हदया। उसके संग एक ससपा ी भी था। व यात्रत्रयों का हटकट देखता चला आता था; परन्तु कमला ने जान कक कोई पुसलस अिसर ै। भय के मारे ाथ-पााँव सनसनाने लगे, कलेजा िडकने लगा। जब अंगे्रज दसूरी गडडयों में जााँच करता र ा, तब तक तो व कलेजा कडा ककये पे्रकार बैठा र ा, परन्तु ज्यों उसके डडब्बेका िाटक खुला कमला के ाथ-पााँव िूल गये, नेत्रों के सामने अंिेरा छा गया। उतावलेपन से दसूरी ओर का ककवाड खोलकर चलती ुई रेलगाडी पर से नीच ेकूद पडा। ससपा ी और रेलवाले सा ब ने उसे इस प्रकार कूदत ेदेखा तो समिा कक कोई अभ्यस्त डाकू ै, मारे र्ा के िूले न समाये कक

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पाररतोवर्क अलग समलेगा और वेतनोन्ननत अलग ोगी, िट लाल बत्ती हदखायी। तननक देर में गाडी रुक गयी। अब गाडा, ससपा ी और हटकट वाले सा ब कुछ अन्य मनुष्यों के सह त गाडी उतर गयी। अब गाडा, ससपा ी और हटकट वाले सा ब कुछ अन्य मुनष्यों के सह त गाडी से उत्तर पड ेऔर लालटेन ले-लेकर इिर-उिर देखने लगे। ककसी ने क ा-अब उसकी िून भी न समलेगी, पक्का डकैत था। कोई बोला- इन लोगों को कालीजी का इष्ट र ता ै, जो कुछ न कर हदखायें, थोडा ैं परन्तु गाडा आगे ी बढ़ता गया। वतेन वुद्वव की आशा उसे आगे ी सलये जाती थी। य ााँ तक कक व उस स्थान पर जा प ुाँचा, ज ााँ कमेला गाडी से कूदा था। इतने में ससपा ी ने खड्ड ेकी ओर सकंकेत करके क ा- देखो, व श्वेत रंग की क्या वस्तु ै ? मुि ेतो कोई मनुष्य-सा प्रतीत ोता ै और लोगों ने देखा और ववश्वास ो गया कक अवश्य ी दषु्ट डाकू य ााँ नछपा ुआ ै, चलकर उसको घेर लो ताकक क ीं ननकलने न पावे, तननक साविान र ना डाकू प्राणपर खेल जात े ैं। गाडा सा ब ने वपस्तौल साँभाली, समयााँ ससपा ी ने लाठी तानी। कई स्त्रीयों ने जूत ेउतार कर ाथ में ले सलये कक क ीं आक्रमण कर बैठा तो भागने में सुभीता ोगा। दो मनुष्यों ने ढेले उठा सलये कक दरू ी से लक्ष्य करेंगे। डाकू के ननकट कौन जाय, ककसे जी भारी ै? परन्तु जब लोगों ने समीप जाकर देखा तो न डाकू था, न डाकू भाई; ककन्तु एक सभ्य-स्वरुप, सुन्दर वणा, छर रे शरीर का नवयुवक पथृ्वी पर औिें मुख पडा ै और उसके नाक और कान से िीरे-िीरे रुधिर ब र ा ै। कमला ने इिर सााँस तोडी और ववरजन एक भयानक स्वप्न देखकर चौंक पडी। सरयूदेवी ने ववरजन का सो ाग लूट सलया। ***

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19. द:ुि-दिा सौभाग्यवती स्त्री के सलए उसक पनत संसार की सबसे प्यारी वस्तु ोती ै। व उसी के सलए जीती और मारती ै। उसका ाँसना-बोलना उसी के प्रसन्न करने के सलए और उसका बनाव-श्रृंगार उसी को लभुाने के सलए ोता ै। उसका सो ाग जीवन ै और सो ाग का उठ जाना उसके जीवन का अन्त ै। कमलाचरण की अकाल-मतृ्यु वजृरानी के सलए मतृ्यु से कम न थी। उसके जीवन की आशाएाँ और उमंगे सब समट्टी मे समल गयीं। क्या-क्या असभलार्ाएाँ थीं और क्या ो गय? प्रनत-क्षण मतृ कमलाचरण का धचत्र उसके नेत्रों में भ्रमण करता र ता। यहद थोडी देर के सलए उसकी ऑखें िपक जातीं, तो उसका स्वरुप साक्षात नेत्रों कें सम्मुख आ जाता। ककसी-ककसी समय में भौनतक त्रय-तापों को ककसी ववशेर् व्यष्क्त या कुटुम्ब से पे्रम-सा ो जाता ै। कमला का शोक शान्त भी न ुआ था बाबू श्यामाचरण की बारी आयी। शाखा-भेदन से वकृ्ष को मुरिाया ुआ न देखकर इस बार ददेुव ने मूल ी काट डाला। रामदीन पााँड ेबडा दंभी मनुष्य था। जब तक डडप्टी सा ब मिगााँव में थे, दबका बैठा र ा, परन्तु ज्यों ी वे नगर को लौटे, उसी हदन से उसने उल्पात करना आरम्भ ककया। सारा गााँव–का-गााँव उसका शत्रु था। ष्जस दृष्ष्ट से मिगााँव वालों ने ोली के हदन उसे देखा, व दृष्ष्ट उसके हृदय में कााँटे की भााँनत खटक र ी थी। ष्जस मण्डल में मािगााँव ष्स्थत था, उसके थानेदार सा ब एक बड ेघाघ और कुशल ररश्वती थे। स स्रों की रकम पचा जायें, पर डकार तक न लें। असभयोग बनाने और प्रमाण गढ़ने में ऐसे अभ्यस्त थे कक बाट चलत ेमनुष्य को िााँस लें और व किर ककसी के छुडाये न छूटे। अधिकार वगा उसक थकण्डों से ववज्ञ था, पर उनकी चतुराई और कायादक्षता के आगे ककसी का कुछ बस न चलता था। रामदीन थानेदार सा ब से समला और अपने हृरोग की और्धि मााँगी। उसक एक सप्ता पश्चात ्मिगााँव में डाका पड गया। एक म ाजन नगर से आ र ा था। रात को नम्बरदार के य ााँ ठ रा। डाकुओं ने उसे लौटकर घर न जाने हदया। प्रात:काल थानेदार सा ब त कीकात करने आये और एक ी रस्सी में सारे गााँव को बााँिकर ले गये।

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दैवात ्मुकदमा बाब ूश्यामाचारण की इजलास में पेश ुआ। उन् ें प ले से सारा कच्चा-धचट्ठा ववहदत था और ये थानेदार सा ब ब ुत हदनों से उनकी आंखों पर चढे़ ुए थे। उन् ोंने ऐसी बाल की खाल ननकाली की थानेदार सा ब की पोल खुल गयी। छ: मास तक असभयोग चला और िूम से चला। सरकारी वकीलों ने बडे-बड ेउपाय ककये परन्तु घर के भेदी से क्या नछप सकता था? िल य ुआ कक डडप्टी सा ब ने सब असभयुक्तों को बेदाग छोड हदया और उसी हदन सायंकाल को थानेदार सा ब मुअत्तल कर हदये गये। जब डडप्टी सा ब िैसला सुनाकर लौटे, एक ह तधचन्तक कमाचारी ने क ा- ुजूर, थानेदार सा ब से साविान रह येगा। आज ब ुत िल्लाया ुआ था। प ले भी दो-तीन अिसरों को िोखा दे चुका ै। आप पर अवश्य वार करेगा। डडप्टी सा ब ने सुना और मुस्कराकर उस मुनष्य को िन्यवाद हदया; परन्तु अपनी रक्षा के सलए कोई ववशेर् यत्न न ककया। उन् ें इसमें अपनी भीरुता जान पडती थी। रािा अ ीर बडा अनुरोि करता र ा कक मै। आपके संग र ूाँगा, काशी भर भी ब ुत पीछे पडा र ा ; परन्तु उन् ोंने ककसी को संग न रखा। पह ले ी की तर अपना काम करत ेर े। जासलम खााँ बात का िनी था, व जीवन से ाथ िोकर बाबू श्यामाचरण के पीछे पड गया। एक हदन वे सरै करके सशवपुर से कुछ रात गये लौट र े थे पागलखाने के ननकट कुछ किहटन का घोडा त्रबदकां गाडी रुक गयी और पलभर में जासलम खााँ ने एक वकृ्ष की आड से वपस्तौल चलायी। पडाके का शब्द ुआ और बाबू श्यामाचरण के वक्षस्थल से गोली पार ो गयी। पागलखान ेके ससपा ी दौड।े जासलम खााँ पकड सलय गया, साइस ने उसे भागने न हदया था। इस दघुाटनाओं ने उसके स्वभाव और व्यव ार में अकस्मात्र बडा भारी पररवतान कर हदया।बात-बात पर ववरजन से धचढ़ जाती और कटूष्क्त्तयों से उसे जलाती। उसे य भ्रम ो गया कक ये सब आपाष्त्तयााँ इसी ब ू की लायी ई ै। य ी अभाधगन जब से घर आयी, घर का सत्यानाश ो गया। इसका पौरा ब ुत ननकृष्ट ै। कई बार उसने खुलकर ववरजन से क भी हदया कक-तुम् ारे धचकने रुप ने मुि ेठग सलया। मैं क्या जानती थी कक तुम् ारे चरण ऐसे अशुभ ैं ! ववरजन ये बातें सुनती और कलेजा थामकर र जाती। जब हदन ी बुरे आ गये,

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तो भली बातें क्योंकर सुनने में आयें। य आठों प र का ताप उसे द:ुख के आंसू भी न ब ाने देता। आाँसूं तब ननकलत े ै। जब कोई ह तैर्ी ो और दखु को सुने। ताने और व्यंग्य की अष्ग्न से ऑसंू जल जात े ैं। एक हदन ववरजन का धचत्त बैठे-बैठे घर में ऐसा घबराया कक व तननक देर के सलए वाहटका में चली आयी। आ ! इस वाहटका में कैसे-कैसे आनन्द के हदन बीत ेथे ! इसका एक-एक पि मरन ेवाले के असीम पे्रम का स्मारक था। कभी वे हदन भी थे कक इन िूलों और पष्त्तयों को देखकर धचत्त प्रिुष्ल्लत ोता था और सुरसभत वायु धचत्त को प्रमोहदत कर देती थी। य ी व स्थल ै, ज ााँ अनेक सन्ध्याऍ ंपे्रमालाप में व्यतीत ुई थीं। उस समय पुष्पों की कसलयााँ अपने कोमल अिरों से उसका स्वागत करती थीं। पर शोक! आज उनके मस्तक िुके ुए और अिर बन्द थे। क्या य व ी स्थान न था ज ााँ ‘अलबेली मासलन’ िूलों के ार गूंथती थी? पर भोली मासलन को क्या मालूम था कक इसी स्थान पर उसे अपने नेतरें से ननकले ुए मोनतयों को ााँर गूाँथने पडगेें। इन् ीं ववचारों में ववरजन की दृष्ष्ट उस कंुज की ओर उठ गयी ज ााँ से एक बार कमलाचरण मुस्कराता ुआ ननकला था, मानो व पष्त्तयों का ह लना और उसके वस्तरें की िलक देख र ी ै। उससे मुख पर उसे समय मन्द-मन्द मसु्कान-सी प्रकट ोती थी, जैसे गंगा में डूबत े ुर्श्रया की पीली और मसलन ककणें का प्रनतत्रबम्ब पडता ै। आचानक पे्रमवती ने आकर कणाकटु शब्दों में क ा-- अब आपका सैर करने का शौक ुआ ै ! ववरजन खडी ो गई और रोती ुई बोली--माता ! ष्जसे नारायण ने कुचला, उसे आप क्यों कुचलती ैं ! ननदान पे्रमवती का धचत्त व ााँ से ऐसा उचाट ुआ कक एक मास के भीतर सब सामान औने-पौने बेचकर मिगााँव चली गयी। वजृरानी को संग न सलया। उसका मुख देखने से उसे घणृा ो गयी थी। ववरजन इस ववस्ततृ भवन में अकेली र गयी। मािवी के अनतररक्त अब उसका कोई ह तैर्ी न र ा। सुवामा को अपनी मुाँ बोली बेटी की ववपष्त्तयों का ऐसा ीशेक ुआ, ष्जतना अपनी बेटी का ोता। कई हदन तक रोती र ी और कई हदन बराबर उसे सिाने के सलए आती र ी। जब ववरजन अकेली र गयी तो सुवमा ने चा ा क य मेरे य ााँ उठ आये और सुख से र े। स्वयं कई बार बुलाने गयी, पर ववररजन ककसी प्रकार जाने को

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राजी न ुई। व सोचती थी कक ससुर को संसार से ससिारे भी तीन मास भी न ीं ुए, इतनी जल्दी य घर सूना ो जायेगा, तो लोग क ेंगे कक उनके मरत े ी सास और ब ू लड मरीं। य ााँ तक कक उसके इस ठ से सुवामा का मन मोटा ो गया। मिगााँव में पे्रमवती ने एक अिेंर मचा रखी थी। असासमयों को कटु वजन क ती। काररन्दा के ससर पर जूती पटक दी। पटवारी को कोसा। रािा अ ीर की गाय बलात ्छीन ली। य ााँ कक गााँव वाले घबरा गये ! उन् ोंने बाबू रािाचरण से सशकायत की। रािाचण ने य समाचार सुना तो ववश्वास ो गया कक अवश्य इन दघुाटनाओं ने अम्मााँ की बवुि भ्रष्ट कर दी ै। इस समय ककसी प्रकार इनका मन ब लाना चाह ए। सेवती को सलखा कक तुम माताजी के पास चली जाओ और उनके संग कुछ हदन र ो। सेवती की गोद में उन हदनों एक चााँद-सा बालक खेल र ा था और प्राणनाथ दो मास की छुट्टी लेकर दरभंगा से आये थे। राजा सा ब के प्राइवेट सेक्रटेरी ो गये थे। ऐसे अवसर पर सेवती कैस आ सकती थी? तैयाररयााँ करते-करत ेम ीनों गुजर गये। कभी बच्चा बीमार पड गया, कभी सास रुष्ट ो गयी कभी साइत न बनी। ननदान छठे म ीने उसे अवकाश समला। व भी बड ेववपष्त्तयों से। परन्तु पे्रमवती पर उसक आने का कुछ भी प्रभाव न पडा। व उसके गले समलकर रोयी भी न ीं, उसके बच्च ेकी ओर ऑखं उठाकर भी न देखा। उसक हृदय में अब ममता और पे्रम नाम-मात्र को भी न र गयाञ। जैसे ईख से रस ननकाल लेने पर केवल सीठी र जाती ै, उसकी प्रकार ष्जस मनुष्य के हृदय से पे्रम ननकल गया, व अष्स्थ-चमा का एक ढेर र जाता ै। देवी-देवता का नाम मुख पर आत े ी उसके तवेर बदल जात ेथे। मिागााँव में जन्माष्टमी ुई। लोगों ने ठाकुरजी का व्रत रख और चन्दे से नाम कराने की तैयाररयााँ करने लगे। परन्तु पे्रमवती ने ठीक जन्म के अवसर पर अपने घर की मूनता खेत से किकवा दी। एकादशी ब्रत टूटा, देवताओं की पूजा छूटी। व पे्रमवती अब पे्रमवती ी न थी। सेवती ने ज्यों-त्यों करके य ााँ दो म ीने काटे। उसका धचत्त ब ुत घबराता। कोई सखी-स ेली भी न थी, ष्जसके संग बैठकर हदन काटती। ववरजन ने तुलसा को अपनी सखी बना सलया था। परन्तु सेवती का स्भव सरल न था। ऐसी स्त्रीयों से

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मेल-जोल करने में व अपनी मान ानन समिती थी। तुलसा बेचारी कई बार आयी, परन्तु जब दख कक य मन खोलकर न ीं समलती तो आना-जाना छोड हदया। तीन मास व्यतीत ो चुके थे। एक हदन सेवती हदन चढे़ तक सोती र ी। प्राणनाथ ने रात को ब ुत रुलाया था। जब नींद उचटी तो क्या देखती ै कक पे्रमवती उसके बच्चे को गोद में सलय चूम र ी ै। कभी आखें से लगाती ै , कभी छाती से धचपटाती ै। सामने अंगीठी पर लुवा पक र ा ै। बच्चा उसकी ओर उंगली से संकेत करके उछलता ै कक कटोरे में जा बैठूाँ और गरम-गरम लुवा चखूाँ। आज उसक मुखमण्डल कमल की भााँनत खखला ुआ ै। शायद उसकी तीव्र दृष्ष्ट ने य जान सलया ै कक पे्रमवती के शुष्क हृदय में पे्रमे ने आज किर से ननवास ककया ै। सेवती को ववश्वास न ुआ। व चारपाई पर पुलककत लोचनों से ताक र ी थी मानों स्वप्न देख र ी थी। इतने में पे्रमवती प्यार से बोली- उठो बेटी ! उठो ! हदन ब ुत चढ़ आया ै। सेवती के रोंगटे खड े ो गओ और आंखें भर आयी। आज ब ुत हदनों के पश्चात माता के मुख से पे्रममय बचन सुने। िट उठ बैठी और माता के गले सलपट कर रोने लगी। पे्रमवती की खें से भी आंसू की िडी लग गयीय, सूखा वकृ्ष रा ुआ। जब दोनों के ऑसंू थमे तो पे्रमवती बोली-ससत्तो ! तुम् ें आज य बातें अचरज प्रतीत ोती ै; ााँ बेटी, अचरज ी न। मैं कैसे रोऊं, जब आंखों में आंस ू ी र े? प्यार क ााँ से लाऊं जब कलेजा सूखकर पत्थर ो गया? ये सब हदनों के िेर ैं। ऑसू उनके साथ गये और कमला के साथ। अज न जाने ये दो बूाँद क ााँ से ननकल आये? बेटी! मेरे सब अपराि क्षमा करना। य क ते-क त ेउसकी ऑखें िपकने लगीं। सेवती घबरा गयी। माता ो त्रबस्तर पर लेटा हदया और पख िलने लगी। उस हदन से पे्रमवती की य दशा ो गयी कक जब देखों रो र ी ै। बच्च ेको एक क्षण सलए भी पास से दरू न ीं करती। म ररयों से बोलती तो मुख से िूल िडत।े किर व ी पह ले की सुशील पे्रमवती ो गयी। ऐसा प्रतीत ोता था, मानो उसक हृदय पर से एक पदाा-सा उठ गया ै ! जब कडाके का जाडा पडता ै, तो प्राय: नहदयााँ बिा से ढाँक जाती ै। उसमें बसनेवाले जलचर बिा मे पदे के पीछे नछप जात े ैं, नौकाऍ ंिाँ स जाती ै और मंदगनत, रजतवणा प्राण-संजीवन जल-स्रोत का स्वरुप कुछ भी हदखायी न ीं देता

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ै। यद्यवप बिा की चद्दर की ओट में व मिुर ननरा में अलससत पडा र ता था, तथावप जब गरमी का साम्राज्य ोता ै, तो बिा वपघल जाती ै और रजतवणा नदी अपनी बिा का चद्दर उठा लेती ै, किर मछसलयााँ और जलजन्तु आ ब त े ैं, नौकाओं के पाल ल राने लगत े ैं और तट पर मनुष्यों और पक्षक्षयों का जमघट ो जाता ै। परन्तु पे्रमवती की य दशा ब ुत हदनों तक ष्स्थर न र ी। य चेतनता मानो मतृ्यु का सन्देश थी। इस धचत्तोद्ववग्नता ने उसे अब तक जीवन-कारावास में रखा था, अन्था पे्रमवती जैसी कोमल-हृदय स्त्री ववपष्त्तयों के ऐसे िोंके कदावप न स सकती। सेवती ने चारों ओर तार हदलवाये कक आकर माताजी को देख जाओ पर क ीं से कोई न आया। प्राणनाथ को छुट्टी न समली, ववरजन बीमार थी, र े रािाचरण। व नैनीताल वायु-पररवतान करने गये ुए थे। पे्रमवती को पुत्र ी को देखने की लालसा थी, पर जब उनका पत्र आ गया कक इस समय मैं न ीं आ सकता, तो उसने एक लम्बी सााँस लेकर ऑखें मूाँद ली, और ऐसी सोयी कक किर उठना नसीब न ुआ ! ***

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20. मन का प्राबल्य

मानव हृदय एक र स्यमय वस्तु ै। कभी तो व लाखों की ओर ऑख उठाकर न ीं देखता और कभी कौडडयों पर किसल पडता ै। कभी सकैडों ननदार्ों की त्या पर आ ‘तक’ न ीं करता और कभी एक बच्च ेको देखकर रो देता ै। प्रतापचन्र और कमलाचरण में यद्यवप स ोदर भाइयों का-सा पे्रम था, तथावप कमला की आकष्स्मक मतृ्यु का जो शोक चाह ये व न ुआ। सुनकर व चौंक अवश्य पडा और थोडी देर के सलए उदास भी ुआ, पर शोक जो ककसी सच्च ेसमत्र की मतृ्यु से ोता ै उसे न ुआ। ननस्संदे व वववा के पूवा ी से ववरजन को अपनी समिता था तथावप इस ववचार में उसे पणूा सिलता कभी प्राप्त न ुई। समय-समय पर उसका ववचार इस पववत्र सम्बन्ि की सीमा का उल्लंघन कर जाता था। कमलाचरण से उसे स्वत: कोई पे्रम न था। उसका जो कुछ आदर, मान और पे्रम व करता था, कुछ तो इस ववचार से कक ववरजन सुनकर प्रसन्न ोगी और इस ववचार से कक सुशील की मतृ्यु का प्रायष्श्चत इसी प्रकार ो सकता ै। जब ववरजन ससुराल चली आयी, तो अवश्य कुछ हदनों प्रताप ने उसे अपने ध्यान में न आने हदया, परन्तु जब से व उसकी बीमारी का समाचार पाकर बनारस गया था और उसकी भेंट ने ववरजन पर संजीवनी बूटी का काम ककया था, उसी हदन से प्रताप को ववश्वास ो गया था कक ववरजन के हृदय में कमला ने व स्थान न ीं पाया जो मेरे सलए ननयत था। प्रताप ने ववरजन को परम करणापूणा शोक-पत्र सलखा पर पत्र सलख्ता जाता था और सोचता जाता था कक इसका उस पर क्या प्रभाव ोगा? सामान्यत: समवेदना पे्रम को प्रौढ़ करती ै। क्या आश्चया ै जो य पत्र कुछ काम कर जाय? इसके अनतररक्त उसकी िासमाक प्रवनृत ने ववकृत रुप िारण करके उसके मन में य समथ्या ववचार उत्पन्न ककया कक ईश्वर ने मेरे पे्रम की प्रनतष्ठा की और कमलाचरण को मेरे मागा से टा हदया, मानो य आकाश से आदेश समला ै कक अब मैं ववरजन से अपने पे्रम का पुरस्कार लूाँ। प्रताप य जो जानता था कक ववरजन से ककसी ऐसी बात की आशा करना, जो सदाचार और सभ्यता से बाल बराबर भी टी ुई ो, मूखाता ै। परन्तु उसे ववश्वास था कक सदाचार और सतीत्व के सीमान्तगात यहद मेरी कामनाएाँ पूरी ो सकें , तो ववरजन अधिक समय तक मेरे साथ ननदायता न ीं कर सकती।

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एक मास तक ये ववचार उसे उद्ववग्न करत ेर े। य ााँ तक कक उसके मन में ववरजन से एक बार गुप्त भेंट करने की प्रबल इच्छा भी उत्पन्न ुई। व य जानता था कक अभी ववरजन के हृदय पर तात्कासलकघव ै और यहद मेरी ककसी बात या ककसी व्यव ार से मेरे मन की दशु्चषे्टा की गन्ि ननकली, तो मैं ववरजन की दृष्ष्ट से मश के सलए धगर जााँऊगा। परन्तु ष्जस प्रकार कोई चोर रुपयों की रासश देखकर िैया न ीं रख सकता ै, उसकी प्रकार प्रताप अपने मन को न रोक सका। मनुष्य का प्रारब्ि ब ुत कुछ अवसर के ाथ से र ता ै। अवसर उसे भला न ीं मानता ै और बुरा भी। जब तक कमलाचरण जीववत था, प्रताप के मन में कभी इतना ससर उठाने को सा स न ुआ था। उसकी मतृ्यु ने मानो उसे य अवसर दे हदया। य स्वाथापता का मद य ााँ तक बढ़ा कक एक हदन उसे ऐसाभस ोने लगा, मानों ववरजन मुि ेस्मरण कर र ी ै। अपनी व्यग्रता से व ववरजन का अनुमान करेन लगा। बनारस जाने का इरादा पक्का ो गया। दो बजे थे। रात्रत्र का समय था। भयाव सन्नाटा छाया ुआ था। ननरा ने सारे नगर पर एक घटाटोप चादर िैला रखी थी। कभी-कभी वकृ्षों की सनसना ट सुनायी दे जाती थी। िुआं और वकृ्षों पर एक काली चद्दर की भााँनत सलपटा ुआ था और सडक पर लालटेनें िुऍ ंकी कासलमा में ऐसी दृष्ष्ट गत ोती थीं जैसे बादल में नछपे ुए तारे। प्रतापचन्र रेलगाडी पर से उतरा। उसका कलेजा बांसों उछल र ा था और ाथ-पााँव कााँप र े थे। व जीवन में प ला ी अवसर था कक उसे पाप का अनुभव ुआ! शोक ै कक हृदय की य दशा अधिक समय तक ष्स्थर न ीं र ती। व दगुान्ि-मागा को पूरा कर लेती ै। ष्जस मनुष्य ने कभी महदरा न ीं पी, उसे उसकी दगुान्ि से घणृा ोती ै। जब प्रथम बार पीता ै, तो घण्टें उसका मुख कडवा र ता ै और व आश्चया करता ै कक क्यों लोग ऐसी ववर्ैली और कडवी वस्तु पर आसक्त ैं। पर थोड े ी हदनों में उसकी घणृा दरू ो जाती ै और व भी लाल रस का दास बन जाता ै। पाप का स्वाद महदरा से क ीं अधिक भंयकर ोता ै। प्रतापचन्र अंिेरे में िीरे-िीरे जा र ा था। उसके पााँव पेग से न ीं उठत ेथे क्योंकक पाप ने उनमें बेडडयााँ डाल दी थी। उस आ लाद का, जो ऐसे अवसर पर गनत को तीव्र कर देता ै, उसके मुख पर कोई लक्षण न था। व चलते-चलत े

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रुक जाता और कुछ सोचकर आगे बढ़ता था। पे्रत उसे पास के खड्ड ेमें कैसा सलये जाता ै? प्रताप का ससर िम-िम कर र ा था और भय से उसकी वपडंसलयााँ कााँप र ी थीं। सोचता-ववचारता घण्टे भर में मुन्शी श्यामाचरण के ववशाल भवन के सामने जा प ुाँचा। आज अन्िकार में य भवन ब ुत ी भयाव प्रतीत ोता था, मानो पाप का वपशाच सामने खडा ै। प्रताप दीवार की ओट में खडा ो गया, मानो ककसी ने उसक पााँव बााँि हदये ैं। आि घण्टे तक व य ी सोचता र ा कक लौट चलूाँ या भीतर जााँऊ? यहद ककसी ने देख सलया बडा ी अनथा ोगा। ववरजन मुि ेदेखकर मन में क्या सोचगेी? क ीं ऐसा न ो कक मेरा य व्यव ार मुि ेसदा के सलए उसकी दृष्ष्ट से धगरा दे। परन्तु इन सब सन्दे ों पर वपशाच का आकर्ाण प्रबल ुआ। इष्न्रयों के वश में ोकर मनुष्य को भले-बुरे का ध्यान न ीं र जाता। उसने धचत्त को दृढ़ ककया। व इस कायरता पर अपने को धिक्कार देने लगा, तदन्तर घर में पीछे की ओर जाकर वाहटका की च ारदीवारी से िााँद गया। वाहटका से घर जाने के सलए एक छोटा-सा द्वार था। दैवयेग से व इस समय खुला ुआ था। प्रताप को य शकुन-सा प्रतीत ुआ। परन्तु वस्तुत: य अिमा का द्वार था। भीतर जात े ुए प्रताप के ाथ थरााने लगे। हृदय इस वेग से िडकता था; मानो व छाती से बा र ननकल पडगेा। सका दम घुट र ा था। िमा ने अपना सारा बल लगा हदया। पर मन का प्रबल वेग न रुक सका। प्रताप द्वार के भीतर प्रववष्ट ुआ। आंगन में तुलसी के चबूतरे के पास चोरों की भानत खडा सोचने लगा कक ववरजन से क्योंकर भेंट ोगी? घर के सब ककवाड बन्द ै? क्या ववरजन भी य ााँ से चली गयी? अचानक उसे एक बन्द दरवाजे की दरारों से पे्रकाश की िलक हदखाई दी। दबे पााँव उसी दरार में ऑखंें लगाकर भीतर का दृश्य देखने लगा। ववरजन एक सिेद साडी प ले, बाल खोले, ाथ में लेखनी सलये भूसम पर बैठी थी और दीवार की ओर देख-देखकर कागेज पर सलखती जाती थी, मानो कोई कवव ववचार के समुर से मोती ननकाल र ा ै। लखनी दााँतों तले दबाती, कुछ सोचती और सलखती किर थोडी देर के पश्चात ्दीवार की ओर ताकने लगती। प्रताप ब ुत देर तक श्वास रोके ुए य ववधचत्र दृश्य देखता र ा। मन उसे बार-बार ठोकर देता, पर य िाम का अष्न्तम गढ़ था। इस बार िमा का पराष्जत ोना मानो हृदाममें वपशाच का स्थान पाना था। िमा ने इस समय प्रताप को

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उस खड्ड ेमें धगरने से बचा सलया, ज ााँ से आमरण उसे ननकलने का सौभाग्य न ोता। वरन ्य क ना उधचत ोगा कक पाप के खड्ड ेसेबचानेवाला इस समय िमा न था, वरन ्दषु्पररणाम और लज्जा का भय ी था। ककसी-ककसी समय जब मारे सदभाव पराष्जत ो जात े ैं, तब दषु्पररणाम का भय ी में कत्ताव्यच्युत ोने से बचा लेता ै। ववरजन को पीले बदन पर एक ऐसा तजे था, जो उसके हृदय की स्वच्छता और ववचार की उच्चता का पररचय दे र ा था। उसके मुखमण्डल की उज्ज्वलता और दृष्ष्ट की पववत्रता में व अष्ग्न थी ; ष्जसने प्रताप की दशु्चषे्टाओं को क्षणमात्र में भस्म कर हदया ! उसे ज्ञान ो गया और अपने आष्त्मक पतन पर ऐसी लज्जा उत्पन्न ुई कक व ीं खडा रोने लगा। इष्न्रयों ने ष्जतने ननकृष्ट ववकार उसके हृदय में उत्पन्न कर हदये थे, वे सब इस दृश्य ने इस प्रकार लोप कर हदये, जैसे उजाला अंिेरे को दरू कर देता ै। इस समय उसे य इच्छा ुई कक ववरजन के चरणों पर धगरकर अपने अपरािों की क्षमा मााँगे। जैसे ककसी म ात्मा संन्यासी के सम्मुख जाकर मारे धचत्त की दशा ो जाती ै, उसकी प्रकार प्रताप के हृदय में स्वत: प्रायष्श्चत के ववचार उत्पन्न ुए। वपशाच य ााँ तक लाया, पर आगे न ले जा सका। व उलटे पााँवों किरा और ऐसी तीव्रता से वाहटका में आया और चा रदीवारी से कूछा, मानो उसका कोई पीछा करता ै। अरूणोदय का समय ो गया था, आकाश मे तारे खिलसमला र े थे और चक्की का घुर-घुर शब्द कणागोचर ो र ा था। प्रताप पााँव दबाता, मनुष्यों की ऑखंें बचाता गंगाजी की ओर चला। अचानक उसने ससर पर ाथ रखा तो टोपी का पता न था और जेब जेब में घडी ी हदखाई दी। उसका कलेजा सन्न-से ो गया। मु ॅ से एक हृदय-वेिक आ ननकल पडी। कभी-कभी जीवन में ऐसी घटनााँए ो जाती ै, जो क्षणमात्र में मनुष्य का रुप पलट देती ै। कभी माता-वपता की एक नतरछी धचतवन पुत्र को सुयश के उच्च सशखर पर प ुाँचा देती ै और कभी स्त्री की एक सशक्षा पनत के ज्ञान-चक्षुओं को खोल देती ै। गवाशील पुरुर् अपने सगों की दृष्ष्टयों में अपमाननत ोकर संसार का भार बनना न ीं चा त।े मनुष्य जीवन में ऐसे अवसर ईश्वरदत्त ोत े ैं। प्रतापचन्र के जीवन में भी व शुभ अवसर था, जब व संकीणा गसलयों में ोता ुआ गंगा ककनारे आकर बैठा और शोक तथा लज्जा के अशु्र प्रवाह त करने

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लगा। मनोववकार की पे्ररणाओं ने उसकी अिोगनत में कोई कसर उठा न रखी थी परन्तु उसके सलए य कठोर कृपालु गुरु की ताडना प्रमाखणत ुई। क्या य अनुभवससद्व न ीं ै कक ववर् भी समयानुसार अमतृ का काम करता ै ? ष्जस प्रकार वायु का िोंका सलुगती ुई अष्ग्न को द का देता ै, उसी प्रकार ब ुिा हृदय में दबे ुए उत्सा को भडकाने के सलए ककसी बाह्य उद्योग की आवश्यकता ोती ै। अपने दखुों का अनुभव और दसूरों की आपष्त्त का दृश्य ब ुिा व वैराग्य उत्पन्न करता ै जो सत्संग, अध्ययन और मन की प्रवनृत से भी संभव न ीं। यद्यवप प्रतापचन्र के मन में उत्तम और ननस्वाथा जीवन व्यतीत करने का ववचार पूवा ी से था, तथावप मनोववकार के िक्के ने व काम एक ी क्षण में पूरा कर हदया, ष्जसके पूरा ोने में वर्ा लगत।े सािारण दशाओं में जानत-सेवा उसके जीवन का एक गौण काया ोता, परन्तु इस चतेावनी ने सेवा को उसके जीवन का प्रिान उद्देश्य बना हदया। सुवामा की ाहदाक असभलार्ा पूणा ोने के सामान पैदा ो गये। क्या इन घटनाओं के अन्तगात कोई अज्ञात पे्ररक शाष्क्त थी? कौन क सकता ै? ***

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21. ववदरु्ी वजृरानी जब से मुंशी संजीवनलाल तीथा यात्रा को ननकले और प्रतापचन्र प्रयाग चला गया उस समय से सुवामा के जीवन में बडा अन्तर ो गया था। व ठेके के काया को उन्नत करने लगी। मुंशी संजीवनलाल के समय में भी व्यापार में इतनी उन्ननत न ीं ुई थी। सुवामा रात-रात भर बैठी ईंट-पत्थरों से माथा लडाया करती और गारे-चूने की धचतंा में व्याकुल र ती। पाई-पाई का ह साब समिती और कभी-कभी स्वयं कुसलयों के काया की देखभाल करती। इन कायो में उसकी ऐसी प्रवनृत ुई कक दान और व्रत से भी व प ले का-सा पे्रम न र ा। प्रनतहदन आय वदृ्वव ोने पर भी सुवामा ने व्यय ककसी प्रकार का न बढ़ाया। कौडी-कौडी दााँतो से पकडती और य सब इससलए कक प्रतापचन्र िनवान ो जाए और अपने जीवन-पयान्त सान्नद र े। सुवामा को अपने ोन ार पुत्र पर असभमान था। उसके जीवन की गनत देखकर उसे ववश्वास ो गया था कक मन में जो असभलार्ा रखकर मैंने पुत्र मााँगा था, व अवश्य पूणा ोगी। व कालेज के वप्रसंसपल और प्रोिेसरों से प्रताप का समाचार गुप्त रीनत से सलया करती थी ओर उनकी सूचनाओं का अध्ययन उसके सलए एक रसेचक क ानी के तुल्य था। ऐसी दशा में प्रयाग से प्रतापचन्र को लोप ो जाने का तार प ुाँचा मानों उसके ुदय पर वज्र का धगरना था। सुवामा एक ठण्डी सााँसे ले, मस्तक पर ाथ रख बैठ गयी। तीसरे हदन प्रतापचन्र की पुस्त, कपड ेऔर सामधग्रयााँ भी आ प ुाँची, य घाव पर नमक का नछडकाव था। पे्रमवती के मरे का समाचार पात े ी प्राणनाथ पटना से और रािाचरण नैनीताल से चले। उसके जीत-ेजी आत ेतो भेंट ो जाती, मरने पर आये तो उसके शव को भी देखने को सौभाग्य न ुआ। मतृक-संस्कार बडी िूम से ककया गया। दो सप्ता गााँव में बडी िूम-िाम र ी। तत्पश्चात ्मुरादाबाद चले गये और प्राणनाथ ने पटना जाने की तैयारी प्रारम्भ कर दी। उनकी इच्छा थी कक स्त्रीको प्रयाग प ुाँचात े ुए पटना जायाँ। पर सेवती ने ठ ककया कक जब य ााँ तक आये ैं, तो ववरजन के पास भी अवश्य चलना चाह ए न ीं तो उसे बडा द:ुख ोगा। समिगेी कक मुि ेअस ाय जानकर इन लोगों ने भी त्याग हदया।

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सेवती का इस उचाट भवन मे आना मानो पुष्पों में सुगन्ि में आना था। सप्ता भर के सलए सुहदन का शुभागमन ो गया। ववरजन ब ुत प्रसन्न ुई और खूब रोयी। मािवी ने मुन्नू को अंक में लेकर ब ुत प्यार ककया। पे्रमवती के चले जाने पर ववरजन उस ग ृ में अकेली र गई थी। केवल मािवी उसके पास थी। हृदय-ताप और मानससक द:ुख ने उसका व गुण प्रकट कर हदया, जा अब तक गुप्त था। व काव्य और पद्य-रचना का अभ्यास करने लगी। कववता सच्ची भावनाओं का धचत्र ै और सच्ची भावनाएाँ चा े वे द:ुख ों या सुख की, उसी समय सम्पन्न ोती ैं जब म द:ुख या सुख का अनुभव करत े ैं। ववरजन इन हदनों रात-रात बैठी भार् में अपने मनोभावों के मोनतयों की माला गूाँथा करती। उसका एक-एक शब्द करुणा और वैराग्य से पररवूणा ोता थां अन्य कववयों के मनों में समत्रों की व ा-वा और काव्य-पे्रनतयों के सािुवाद से उत्सा पैदा ोता ै, पर ववरजन अपनी द:ुख कथा अपने ी मन को सुनाती थी। सेवती को आये दो- तीन हदन बीत ेथे। एक हदन ववरजन से क ा- मैं तुम् ें ब ुिा ककसी ध्यान में मग्न देखती ूाँ और कुछ सलखत ेभी पाती ूाँ। मुि ेन बताओगी? ववरजन लष्ज्जत ो गयी। ब ाना करने लगी कक कुछ न ीं, यों ी जी कुछ उदास र ता ै। सेवती ने क ा-मैंन मानूाँगी। किर व ववरजनका बाक्स उठा लायी, ष्जसमें कववता के हदव्य मोती रखे ुए थे। वववश ोकर ववरजन ने अपने नय पद्य सुनाने शुरु ककये। मुख से प्रथम पद्य का ननकलना था कक सेवती के रोएाँ खड े ो गये और जब तक सारा पद्य समाप्त न ुआ, व तन्मय ोकर सुनती र ी। प्राणनाथ की संगनत ने उसे काव्य का रससक बना हदया था। बार-बार उसके नेत्र भर आत।े जब ववरजन चुप ो गयी तो एक समााँ बाँिा ुआ था मानों को कोई मनो र राग अभी थम गया ै। सेवती ने ववरजन को कण्ठ से सलपटा सलया, किर उसे छोडकर दौडी ुई प्राणनाथ के पास गयी, जैसे कोई नया बच्चा नया खखलोना पाकर र्ा से दौडता ुआ अपने साधथयों को हदखाने जाता ै। प्राणनाथ अपने अिसर को प्राथाना-पत्र सलख र े थे कक मेरी माता अनत पीडडता ो गयी ै, अतएव सेवा में प्रस्तुत ोने में ववलम्ब ुआ। आशा करता ूाँ कक एक सप्ता का आकष्स्मक अवकाश प्रदान ककया जायगा। सेवती को देखकर चट आपना प्राथाना-पत्र नछपा सलया और मुस्कराये। मनुष्य कैसा िूता ै! व अपने आपको भी िोख देने से न ीं चूकता।

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सेवती-- तननक भीतर चलो, तुम् ें ववरजन की कववता सुनवाऊं, िडक उठोगे। प्राणनाथ-- अच्छा, अब उन् ें कववता की चाट ुई ै? उनकी भाभी तो गाया करती थी – तुम तो श्याम बड ेबेखबर ो। सेवती-- तननक चलकर सुनो, तो पीछे ॅंसना। मुि ेतो उसकी कववता पर आश्चया ो र ा ै। प्राणनाथ-- चलो, एक पत्र सलखकर अभी आता ंू। सेवती-- अब य ी मुि ेअच्छा न ीं लगता। मैं आपके पत्र नोच डालूंगी। सेवती प्राणनाथ को घसीट ले आयी। वे अभी तक य ी जानत ेथे कक ववरजन ने कोई सामान्य भजन बनाया ोगा। उसी को सुनाने के सलए व्याकुल ो र ी ोगी। पर जब भीतर आकर बठेै और ववरजन ने लजात े ुए अपनी भावपूणा कववता ‘पे्रम की मतवाली’ पढ़नी आरम्भ की तो म ाशय के नेत्र खुल गये। पद्य क्या था, हृदय के दखु की एक िारा और पे्रम –र स्य की एक कथा थी। व सुनत ेथे और मुग्ि ोकर िुमत ेथे। शब्दों की एक-एक योजना पर, भावों के एक-एक उदगार पर ल ालोट ुए जात ेथे। उन् ोंने ब ुतरेे कववयां के काव्य देखे थे, पर य उच्च ववचार, य नूतनता, य भावोत्कर्ा क ीं दीख न पडा था। व समय धचत्रत्रत ो र ा था जब अरुणोदय के पूवा मलयाननल ल राता ुआ चलता ै, कसलयां ववकससत ोती ैं, िूल म कत े ैं और आकाश पर ल्की लासलमा छा जाती ै। एक –एक शब्द में नवववकससत पुष्पों की शोभा और ह मककरणों की शीतलता ववद्यमान थी। उस पर ववरजन का सुरीलापन और ध्वनन की मिुरता सोने में सुगन्ि थी। ये छन्द थे, ष्जन पर ववरजन ने हृदय को दीपक की भ ॉँनत जलाया था। प्राणनाथ प्र सन के उद्देश्य से आये थे। पर जब वे उठे तो वस्तुत: ऐसा प्रतीत ोता था, मानो छाती से हृदय ननकल गया ै। एक हदन उन् ोंने ववरजन से क ा-- यहद तुम् ारी कववताऍ ंछपे, तो उनका ब ुत आदर ो। ववरजन ने ससर नीचा करके क ा-- मुि ेववश्वास न ीं कक कोई इनको पसन्द करेगा।

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प्राणनाथ-- ऐसा सभंव ी न ीं। यहद हृदयों में कुछ भी रससकता ै तो तुम् ारे काव्य की अवश्य प्रनतष्ठा ोगी। यहद ऐसे लोग ववद्यमान ैं, जो पुष्पों की सुगन्ि से आनष्न्दत ो जात े ैं, जो पक्षक्षयों के कलरव और चााँदनी की मनो ाररणी छटा का आनन्द उठा सकत े ैं, तो वे तुम् ारी कववता को अवश्य हृदय में स्थान देंगे। ववरजन के ह्दय मे व गुदगुदी उत्पन्न ुई जो प्रत्येक कवव को अपने काव्यधचन्तन की प्रशंसा समलने पर, कववता के मुहरत ोने के ववचार से ोती ै। यद्यवप व न ीं–न ीं करती र ी, पर व , ‘न ीं’, ‘ ााँ’ के समान थी। प्रयाग से उन हदनों ‘कमला’ नाम की अच्छी पत्रत्रका ननकलती थी। प्राणनाथ ने ‘पे्रम की मतवाली’ को व ां भेज हदया। सम्पादक एक काव्य–रससक म ानुभाव थे कववता पर ाहदाक िन्यवाद हदया ओर जब य कववता प्रकासशत ुई, तो साह त्य–संसार में िूम मच गयी। कदाधचत ी ककसी कवव को प्रथम ी बार ऐसी ख्यानत समली ो। लोग पढत ेऔर ववस्मय से एक-दसूरे का मुं ताकत ेथे। काव्य–पे्रसमयों मे कई सप्ता तक मतवाली बाला के चचे र े। ककसी को ववश्वास ी न आता था कक य एक नवजात कवव की रचना ै। अब प्रनत मास ‘कमला’ के पषृ्ठ ववरजन की कववता से सुशोसभत ोने लगे और ‘भारत मह ला’ को लोकमत ने कववयों के सम्माननत पद पर प ंुचा हदया। ‘भारत मह ला’ का नाम बच्चे-बच्च ेकी ष्ज वा पर चढ गया। को इस समाचार-पत्र या पत्रत्रका ‘भारत मह ला’ को ढूढने लगत।े ां, उसकी हदव्य शष्क्तया अब ककसी को ववस्मय में न डालती उसने स्वय ंकववता का आदशा उच्च कर हदया था। तीन वर्ा तक ककसी को कुछ भी पता न लगा कक ‘भारत मह ला’ कौन ै। ननदान प्राण नाथ से न र ा गया। उन् ें ववरजन पर भष्क्त ो गयी थी। वे कई मांस से उसका जीवन–चररत्र सलखने की िुन में थे। सेवती के द्वारा िीरे-िीरे उन् ोनें उसका सब जीवन चररत्र ज्ञात कर हदया और ‘भारत मह ला’ के शीर्ाक से एक प्रभाव–पूररत लेख सलया। प्राणनाथ ने पह ले लेख न सलखा था, परन्तु श्रद्वा ने अभ्यास की कमी पूरी कर दी थी। लेख अतयन्त रोचक, समालोचनात्मक और भावपूणा था। इस लेख का मुहदत ोना था कक ववरजन को चारों तरि से प्रनतष्ठा के उप ार समलने लगे। रािाचरण मुरादाबाद से उसकी भेंट को आये। कमला, उमादेवी, चन्रकुवंर और सखखया ष्जन् ोनें उसे ववस्मरण कर हदया था प्रनतहदन ववरजन के

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दशनों को आने लगी। बड ेबड ेगणमान्य सज्ज्न जो ममता के अभीमान से ककमों के सम्मुख ससर न िुकात,े ववरजन के द्वार पर दशना को आत ेथे। चन्रा स्वयं तो न आ सकी, परन्तु पत्र में सलखा – जो चा ता ै कक तुम् ारे चरणें पर ससर रखकर घंटों रोऊाँ । ***

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22. माधवी कभी–कभी वन के िूलों में व सुगष्न्ित और रंग-रुप समल जाता ै जो सजी ुई वाहटकाओं को कभी प्राप्त न ीं ो सकता। मािवी थी तो एक मूखा और दररर मनुष्य की लडकी, परन्तु वविाता ने उसे नाररयों के सभी उत्तम गुणों से सुशोसभत कर हदया था। उसमें सशक्षा सुिार को ग्र ण करने की ववशेर् योग्यता थी। मािवी और ववरजन का समलाप उस समय ुआ जब ववरजन ससुराल आयी। इस भोली–भाली कन्या ने उसी समय से ववरजन के संग असिारण प्रीनत प्रकट करनी आरम्भ की। ज्ञात न ीं, व उसे देवी समिती थी या क्या? परन्तु कभी उसने ववरजन के ववरुद्व एक शब्द भी मुख से न ननकाला। ववरजन भी उसे अपने संग सुलाती और अच्छी–अच्छी रेशमी वस्त्र पह नाती इससे अधिक प्रीनत व अपनी छोटी भधगनी से भी न ीं कर सकती थी। धचत्त का धचत्त से सम्बन्ि ोता ै। यहद प्रताप को वजृरानी से ाहदाक समबन्ि था तो वजृरानी भी प्रताप केपे्रम में पगी ुई थी। जब कमलाचरण से उसके वववा की बात पक्की ुई जो व प्रतापचन्र से कम दखुी न ुई। ां लज्जावश उसके हृदय के भाव कभी प्रकट न ोत ेथे। वववा ो जाने के पश्चात उसे ननत्य धचन्ता र ती थी कक प्रतापचन्र के पीडडत हृदय को कैसे तसल्ली दूं? मेरा जीवन तो इस भांनत आनन्द से बीतता ै। बेचारे प्रताप के ऊपर न जाने कैसी बीतती ोगी। मािवी उन हदनों ग्यार वें वर्ा में थी। उसके रंग–रुप की सुन्दरता, स्वभाव और गुण देख–देखकर आश्चया ोता था। ववरजन को अचानक य ध्यान आया कक क्या मेरी मािवी इस योगय न ीं कक प्रताप उसे अपने कण्ठ का ार बनाये? उस हदन से व मािवी के सिुार और प्यार में और भी अधिक प्रवतृ ो गयी थी व सोच-सोचकर मन– ी-मन िूली न समाती कक जब मािवी सोल –सत्र वर्ा की ो जायेगी, तब मैं प्रताप के पास जाऊंगी और उससे ाथ जोडकर क ंूगी कक मािवी मेरी बह न ै। उसे आज से तुम अपनी चरेी समिो क्या प्रताप मेरी बात टाल देगें? न ीं– वे ऐसा न ीं कर सकत।े आनन्द तो तब ै जब कक चाची स्वयं मािवी को अपनी ब ू बनाने की मुिसे इच्छा करें। इसी ववचार से ववरजन ने प्रतापचन्र के प्रशसनीय गुणों का धचत्र मािवी के हृदय में खींचना आरम्भ कर हदया था, ष्जससे कक उसका रोम-रोम प्रताप के पे्रम में पग जाय। व जब प्रतापचन्र का वणान करने लगती तो स्वत: उसके शब्द असामान्य

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रीनत से मिुर और सरस ो जात।े शनै:-शनै: मािवी का कामल हृदय पे्रम–रस का आस्वादन करने लगा। दपाण में बाल पड गया। भोली मािवी सोचने लगी, मैं कैसी भाग्यवती ंू। मुि ेऐसे स्वामी समलेंगें ष्जनके चरण िोने के योग्य भी मैं न ीं ंू, परन्तु क्या वें मुि ेअपनी चरेी बनायेगें? कुछ तो, मैं अवश्य उनकी दासी बनंूगी और यहद पे्रम में कुछ आकर्णा ै, तो मैं उन् ें अवश्य अपना बना लूंगी। परन्तु उस बेचारी को क्या मालूम था कक ये आशाएं शोक बनकर नेत्रों के मागा से ब जायेगी ? उसको पन्र वां पूरा भी न ुआ था कक ववरजन पर ग ृ-ववनाश की आपष्त्तयां आ पडी। उस आंिी के िोंकें ने मािवी की इस कष्ल्पत पुष्प वाहठका का सत्यानाश कर हदया। इसी बीच में प्रताप चन्र के लोप ोने का समाचार समला। आंिी ने जो कुछ अवसशष्ठ रखा था व भी इस अष्ग्न ने जलाकर भस्म कर हदया। परन्तु मानस कोई वस्तु ै, तो मािवी प्रतापचन्र की स्त्री बन चुकी थी। उसने अपना तन और मन उन् ें समपाण कर हदया। प्रताप को ज्ञान न ीं। परन्तु उन् ें ऐसी अमूल्य वस्तु समली, ष्जसके बराबर संसार में कोई वस्तु न ीं तुल सकती। मािवी ने केवल एक बार प्रताप को देखा था और केवल एक ी बार उनके अमतृ–वचन सुने थे। पर इसने उस धचत्र को और भी उज्जवल कर हदया था, जो उसके हृदय पर प ले ी ववरजन ने खींच रखा था। प्रताप को पता न ीं था, पर मािवी उसकी पे्रमाष्ग्न में हदन-प्रनतहदन घुलती जाती ै। उस हदन से कोई ऐसा व्रत न ीं था, जो मािवी न रखती ो , कोई ऐसा देवता न ीं था, ष्जसकी व पूजा न करती ो और व सब इससलए कक ईश्वर प्रताप को ज ां क ीं वे ों कुशल से रखें। इन पे्रम–कल्पनाओं ने उस बासलका को और अधिक दृढ सुशील और कोमल बना हदया। शायद उसके धचत ने य ननणया कर सलया था कक मेरा वववा प्रतापचन्र से ो चुका। ववरजन उसकी य दशा देखती और रोती कक य आग मेरी ी लगाई ुई ै। य नवकुसुम ककसके कण्ठ का ार बनेगा? य ककसकी ोकर र ेगी? ाय रे ष्जस चीज को मैंने इतने पररश्रम से अंकुररत ककया और मिुक्षीर से सींचा, उसका िूल इस प्रकार शाखा पर ी कुम् लाया जाता ै। ववरजन तो भला कववता करने में उलिी र ती, ककन्तु मािवी को य सन्तोर् भी न था उसके पे्रमी और साथी उसके वप्रयतम का ध्यान मात्र था–उस वप्रयतम का जो उसके सलए सवाथा अपररधचत था पर प्रताप के चले जाने के कई मास पीछे एक हदन मािवी ने स्वप्न देखा कक वे सतयासी ो गये ै। आज

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मािवी का अपार पे्रम प्रकट ंआ ै। आकाशवाणी सी ो गयी कक प्रताप ने अवश्य संन्यास त ेसलया। आज से व भी तपस्वनी बन गयी उसने सुख और ववलास की लालसा हृदय से ननकाल दी। जब कभी बैठे–बैठे मािवी का जी ब ुत आकुल ोता तो व प्रतापचनर के घर चली जाती। व ां उसके धचत की थोडी देर के सलए शांनत समल जाती थी। परन्तु जब अन्त में ववरजन के पववत्र और आदशो जीवन ने य गाठ खोल दी वे गंगा यमुना की भांनत परस्पर गले समल गयीं , तो मािवी का आवागमन भी बढ गया। सुवामा के पास हदन –हदन भर बैठी र जाती, इस भवन की, एक-एक अंगुल पथृ्वी प्रताप का स्मारक थी। इसी आाँगन में प्रताप ने काठ के घोड ेदौडाये और इसी कुण्ड में कागज की नावें चलायी थीं। नौकरी तो स्यात काल के भंवर में पडकर डूब गयीं, परन्तु घोडा अब भी ववद्वमान थी। मािवी ने उसकी जजीरत अससथ्यों में प्राण डाल हदया और उसे वाहटका में कुण्ड के ककनारे एक पाटलवकृ्ष की छायों में बांि हदया। य ीं भवन प्रतापचन्र का शयनागार था।मािवी अब उसे अपने देवता का मष्न्दर समिती ै। इस पलंग ने पंताप को ब ुत हदनों तक अपने अंक में थपक–थपककर सुलाया था। मािवी अब उसे पुष्पों से सुसष्ज्ज्त करती ै। मािवी ने इस कमरे को ऐसा ससुष्ज्जत कर हदया, जैसे व कभी न था। धचत्रों के मुख पर से िूल का यवननका उठ गयी। लैम्प का भाग्य पुन: चमक उठा। मािवी की इस अननत पे्रम-भाष्क्त से सुवामा का द:ुख भी दरू ो गया। धचरकाल से उसके मुख पर प्रतापचन्र का नाम अभी न आया था। ववरजन से मेल-समलाप ो गया, परन्तु दोनों ष्स्त्रयों में कभी प्रतापचन्र की चचाा भी न ोती थी। ववरजन लज्जा की संकुधचत थी और सुवामा क्रोि से। ककन्तु मािवी के पे्रमानल से पत्थर भी वपघल गया। अब व पे्रमववह्रवल ोकर प्रताप के बालपन की बातें पूछने लगती तो सुवामा से न र ा जाता। उसकी आाँखों से जल भर आता। तब दोनों रोती और हदन-हदन भर प्रताप की बातें समाप्त न ोती। क्या अब मािवी के धचत्त की दशा सुवामा से नछप सकती थी? व ब ुिा सोचती कक क्या तपष्स्वनी इसी प्रकार पे्रमष्ग्न मे जलती र ेगी और व भी त्रबना ककसी आशा के? एक हदन वजृरानी ने ‘कमला’ का पैकेट खोला, तो प ले ी पषृ्ठ पर एक परम प्रनतभा-पूणा धचत्र ववववि रंगों में हदखायी पडा। य ककसी म ात्म का धचत्र था। उसे ध्यान आया कक मैंने इन म ात्मा को क ीं अवश्य देखा ै। सोचते-सोचत ेअकस्मात उसका ्यान प्रतापचन्र तक जा प ंुचा। आनन्द के उमंग में उछल पडी और बोली – मािवी, तननक य ां आना।

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मािवी िूलों की क्याररयां सीचं र ीं थी। उसके धचत्त–ववनोद का आजकल व ीं काया था। व साडी पानी में लथपथ, ससर के बाल त्रबखरे माथे पर पसीने के त्रबन्द ुऔर नत्रों में पे्रम का रस भरे ुए आकर खडी ो गयी। ववरजन ने क ा – आ तूि ेएक धचत्र हदखाऊं। मािवी ने क ा –- ककसका धचत्र ै , देखंू। मािवी ने धचत्र को ्यानपूवाक देखा। उसकी आंखों में आंसू आ गये। ववरजन -– प चान गयी ? मािवी -- क्यों? य स्वरुप तो कई बार स्वप्न में देख चुकी ंू? बदन से कांनत बरस र ी ै। ववरजन –- देखो वतृान्त भी सलखा ै। मािवी ने दसूरा पन्ना उल्टा तो ‘स्वामी बालाजी’ शीर्ाक लेख समला थोडी देर तक दोंनों तन्मय ोकर य लेख पढती र ीं, तब बातचीत ोने लगी। ववरजन -– मैं तो प्रथम ी जान गयी थी कक उन् ोनें अवश्य सन्यास ले सलया ोगा। मािवी पथृ्वी की ओर देख र ी थी, मुख से कुछ न बोली। ववरजन –तब में और अब में ककतना अन्तर ै। मुखमण्डल से कांनत िलक र ी ै। तब ऐसे सुन्दर न थे। मािवी -– ंू। ववरजन –- इश्वार उनकी स ायता करे। बडी तपस्या की ै।(नेत्रो में जल भरकर) कैसा संयोग ै। म और वे सगं–संग खेले, संग–संग र े, आज वे सन्यासी ैं

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और मैं ववयोधगनी। न जाने उन् ें म लोंगों की कुछ सुि भी ैं या न ीं। ष्जसने सन्यास ले सलया, उसे ककसी से क्या मतलब? जब चाची के पास पत्र न सलखा तो भला मारी सुधि क्या ोगी? मािवी बालकपन में वे कभी योगी–योगी खेलत ेतो मैं समठाइयों कक सभक्षा हदया करती थी। मािवी ने रोत े ुए ‘न जाने कब दशान ोंगें ’ क कर लज्जा से ससर िुका सलया। ववरजन–- शीघ्र ी आयंगें। प्राणनाथ ने य लेख ब ुत सुन्दर सलखा ै। मािवी–- एक-एक शब्द से भष्क्त टपकती ै। ववरजन --वक्ततृता की कैसी प्रशंसा की ै! उनकी वाणी में तो प ले ी जाद ूथा, अब क्या पूछना! प्राण्नाथ केधचत पर ष्जसकी वाणी का ऐसा प्रभाव ुआ, व समस्त पथृ्वी पर अपना जाद ूिैला सकता ै। मािवी -– चलो चाची के य ााँ चलें। ववरजन-- ााँ उनको तो ध्यान ी न ीं र ां देखें, क्या क ती ै। प्रसन्न तो क्या ोगी। मािवी-- उनको तो असभलार्ा ी य थी, प्रसन्न क्यों न ोगीं? उनकी तो असभलार्ा ी य थी, प्रसन्न क्यों न ोंगी? ववरजन-- चल? माता ऐसा समाचार सुनकर कभी प्रसन्न न ीं ो सकती। दोंनो स्त्रीयााँ घर से बा र ननकलीं। ववरजन का मुखकमल मुरिाया ुआ था, पर मािवी का अंग–अंग र्ा ससला जाता था। कोई उससे पूछे –तरेे चरण अब पथृ्वी पर क्यों न ीं प ले? तरेे पीले बदन पर क्यों प्रसन्नता की लाली िलक र ी ै? तुि ेकौन-सी सम्पष्त्त समल गयी? तू अब शोकाष्न्वत और उदास क्यों न हदखायी पडती? तुि ेअपने वप्रयतम से समलने की अब कोई आशा न ीं, तुि पर पे्रम की दृष्ष्ट कभी न ीं प ुची किर तू क्यों िूली न ीं समाती? इसका उत्तर मािवी देगी? कुछ न ीं। व ससर िुका लेगी, उसकी आंखें नीच ेिुक जायेंगी,

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जैसे डसलयां िूलों के भार से िुक जाती ै। कदाधचत ्उनसे कुछ अशु्रत्रबन्द ुभी टपक पड;े ककन्तु उसकी ष्जह्वा से एक शब्द भी न ननकलेगा। मािवी पे्रम के मद से मतवाली ै। उसका हृदय पे्रम से उन्मत ैं। उसका पे्रम, ाट का सौदा न ीं। उसका पे्रमककसी वस्तु का भूखा सन ीं ै। व पे्रम के बदले पे्रम न ीं चा ती। उसे अभीमान ै कक ऐसे पवीत्रता पुरुर् की मूनता मेरे हृदय में प्रकाशमान ै। य अभीमान उसकी उन्मता का कारण ै, उसके पे्रम का पुरस्कार ै। दसूरे मास में वजृरानी ने, बालाजी के स्वागत में एक प्रभावशाली कववता सलखी य एक ववलक्षण रचना थी। जब व मुहरत ुई तो ववद्या जगत ्ववरजन की काव्य–प्रनतभा से पररधचत ोते ुए भी चमत्कृत ो गया। व कल्पना-रुपी पक्षी, जो काव्य–गगन मे वायुमण्डल से भी आगे ननकल जाता था, अबकी तारा बनकर चमका। एक–एक शब्द आकाशवाणी की ज्योनत से प्रकासशत था ष्जन लोगों ने य कववता पढी वे बालाजी के भक्त ो गये। कवव व संपेरा ै ष्जसकी वपटारी में स पों के स्थान में हृदय बन्द ोत े ैं। ***

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23. कािी में आगमन

जब से वजृरानी का काव्य–चन्र उदय ुआ, तभी से उसके य ां सदैव मह लाओं का जमघट लगा र ता था। नगर मे स्त्रीयों की कई सभाएं थी उनके प्रबंि का सारा भार उसी को उठाना पडता था। उसके अनतररक्त अन्य नगरों से भी ब ुिा स्त्रीयों उससे भेंट करने को आती र ती थी जो तीथायात्रा करने के सलए काशी आता, व ववरजन से अवरश्य समलता। राज िमासस ं ने उसकी कववताओं का सवािंग–सुन्दर संग्र प्रकासशत ककया था। उस संग्र ने उसके काव्य–चमत्कार का डकंा, बजा हदया था। भारतवर्ा की कौन क े, यूरोप और अमेररका के प्रनतष्ष्ठत कववयों ने उसे उनकी काव्य मनो रता पर िन्यवाद हदया था। भारतवर्ा में एकाि ी कोई रससक मनुष्य र ा ोगा ष्जसका पुस्तकालय उसकी पुस्तक से सुशोसभत न ोगा। ववरजन की कववताओं को प्रनतष्ठा करने वालों मे बालाजी का पद सबसे ऊंचा था। व ेअपनी प्रभावशासलनी वक्ततृाओं और लेखों में ब ुिा उसी के वाक्यों का प्रमाण हदया करत ेथे। उन् ोंने ‘सरस्वती’ में एक बार उसके संग्र की सववस्तार समालोचना भी सलखी थी। एक हदन प्रात: काल ी सीता, चन्रकंुवरी ,रुकमणी और रानी ववरजन के घर आयीं।चन्रा ने इन ससत्र्यों को िंशा पर त्रबठाया और आदर सत्कार ककया। ववरजन व ां न ीं थी क्योंकक उसने प्रभात का समय काव्य धचन्तन के सलए ननयत कर सलया था। उस समय य ककसी आवश्यक काया के अनतररक्त ्सखखयों से समलती–जुलती न ीं थी। वाहटका में एक रमणीक कंुज था। गुलाब की सगष्न्ित से सुरसभत वायु चलती थी। व ीं ववरजन एक सशलायन पर बैठी ुई काव्य–रचना ककया करती थी। व काव्य रुपी समुर से ष्जन मोनतयों को ननकालती, उन् ें मािवी लेखनी की माला में वपरों सलया करती थी। आज ब ुत हदनों के बाद नगरवाससयों के अनुरोि करने पर ववरजन ने बालाजी की काशी आने का ननमंत्रण देने के सलए लेखनी को उठाया था। बनारस ी व नगर था, ष्जसका स्मरण कभी–कभी बालाजी को व्यग्र कर हदया करता था। ककन्तु काशी वालों के ननरंतर आग्र करने पर भी उन ें काशी आने का अवकाश न समलता था। वे सस ंल और रंगून तक गये, परन्तु उन् ोनें काशी की ओर मुख न िेरा इस नगर को वे अपना परीक्षा भवन समित ेथे। इससलए आज ववरजन उन् ें काशी आने का ननमंत्रण दे र ी ैं। लोगें का ववचार आ जाता ै, तो ववरजन का

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चन्रानन चमक उठता ै, परन्तु इस समय जो ववकास और छटा इन दोनों पुष्पों पर ै, उसे देख-देखकर दरू से िूल लष्ज्जत ुए जात े ैं। नौ बजत े–बजत ेववरजन घर में आयी। सेवती ने क ा-– आज बडी देर लगायी। ववरजन –- कुन्ती ने सूया को बुलाने के सलए ककतनी तपस्या की थी। सीता –- बाला जी बड ेननष्ठूर ैं। मैं तो ऐसे मनुष्य से कभी न बोलूं। रुकसमणी-- ष्जसने संन्यास ले सलया, उसे घर–बार से क्या नाता? चन्रकुाँ वरर–- य ां आयेगें तो मैं मुख पर क दूंगी कक म ाशय, य नखरे क ां सीखें ? रुकमणी –- म ारानी। ऋवर्-म ात्माओं का तो सशष्टाचार ककया करों ष्जह्रवा क्या ै कतरनी ै। चन्रकुाँ वरर-– और क्या, कब तक सन्तोर् करें जी। सब जग जात े ैं, य ीं आत ेपैर थकत े ैं। ववरजन–- (मुस्कराकर) अब ब ुत शीघ्र दशान पाओगें। मुि ेववश्वास ै कक इस मास में व ेअवश्य आयेगें। सीता–- िन्य भाग्य कक दशान समलेगें। मैं तो जब उनका वतृांत पढती ंू य ी जी चा ता ैं कक पाऊं तो चरण पकडकर घण्टों रोऊाँ । रुकमणी –- ईश्वर ने उनके ाथों में बडा यश हदया। दारानगर की रानी साह बा मर चुकी थी सांस टूट र ी थी कक बालाजी को सूचना ुई। िट आ प ंुच ेऔर क्षण–मात्र में उठाकर बैठा हदया। मारे मुंशीजी (पनत) उन हदनों व ीं थें। क त ेथे कक रानीजी ने कोश की कंुजी बालाजी के चरणों पर रख दी ओर क ा–‘आप इसके स्वामी ैं’। बालाजी ने क ा–‘मुि ेिन की आवश्यक्ता न ीं अपने राज्य में

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तीन सौ गौशलाएं खुलवा दीष्जयें’। मुख से ननकलने की देर थी। आज दारानगर में दिू की नदी ब ती ैं। ऐसा म ात्मा कौन ोगा। चन्रकुवंरर –- राजा नवलखा का तपेहदक उन् ी की बूहटयों से छूटा। सारे वैद्य डाक्टरजवाब दे चुके थे। जब बालाजी चलने लगें, तो म ारानी जी ने नौ लाख का मोनतयों का ार उनके चरणों पर रख हदया। बालाजी ने उसकी ओर देखा तक न ीं। रानी –- कैसे रुखे मनुष्य ैं। रुकमणी -- , और क्या, उन् ें उधचत था कक ार ले लेते– न ीं –न ीं कण्ठ में डाल लेत।े ववरजन –- न ीं, लेकर रानी को पह ना देत।े क्यों सखी? रानी –- ां मैं उस ार के सलए गुलामी सलख देती। चन्रकंुवरर –- मारे य (पनत) तो भारत–सभा के सभ्य बैठे ैं ढाई सौ रुपये लाख यत्न करके रख छोड ेथे, उन् ें य क कर उठा ले गये कक घोडा लेंगें। क्या भारत–सभावाले त्रबना घोड ेके न ीं चलते? रानी–-कल ये लोग शे्रणी बांिकर मेरे घर के सामने से जा र े थे,बड ेभले मालूम ोत ेथे। इतने ी में सेवती नवीन समाचार–पत्र ले आयी। ववरजन ने पूछा –- कोई ताजा समाचार ै? सेवती-– ां, बालाजी माननकपुर आये ैं। एक अ ीर ने अपनी पुत्र ्के वववा का ननमंत्रण भेजा था। उस पर प्रयाग से भारतसभा के सभ्यों ह त रात को चलकर माननकपुर प ंुच।े अ ीरों ने बडे उत्सा और समारो के साथ उनका स्वागत ककया ै और सबने समलकर पांच सौ गाएं भेंट दी ैं बालाजी ने विू को

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आशीवााद हदया ओर दलु् े को हृदय से लगाया। पांच अ ीर भारत सभा के सदस्य ननयत ुए। ववरजन--बड ेअच्छे समाचार ैं। मािवी, इसे काट के रख लेना। और कुछ? सेवती-- पटना के पाससयों ने एक ठाकुरद्वारा बनवाया ैं व ााँ की भारतसभा ने बडी िूमिाम से उत्स्व ककया। ववरजन – पटना के लोग बड ेउत्सा से काया कर र ें ैं। चन्रकुाँ वरर-– गडूररयां भी अब ससन्दरू लगायेंगी। पासी लोग ठाकुर द्वारे बनवायंगें ? रुकमणी--क्यों, वे मनुष्य न ीं ैं ? ईश्वर ने उन् ें न ीं बनाया। आप ीं अपने स्वामी की पूजा करना जानती ैं ? चन्रकुाँ वरर-- चलो, टो, मुिें पाससयों से समलाती ो। य मुि ेअच्छा न ीं लगता। रुकसमणी –- ााँ, तुम् ारा रंग गोरा ै न? और वस्त्र-आभूर्णों से सजी ब ुत ो। बस इतना ी अन्तर ै कक और कुछ? चन्रकुाँ वरर-- इतना ी अन्तर क्यों ैं? पथृ्वी आकाश से समलाती ो? य मुि ेअच्छा न ीं लगता। मुि ेकछवा ों वंश में ूाँ, कुछ खबर ै? रुष्क्मणी-- ााँ, जानती ूाँ और न ीं जानती थी तो अब जान गयी। तुम् ारे ठाकुर सा ब (पनत) ककसी पासी से बढकर मल्ल –युद्व करेंगें? य ससिा टेढी पाग रखना जानत े ैं? मैं जानती ंू कक कोई छोटा –सा पासी भी उन् ें कााँख –तले दबा लेगा। ववरजन -- अच्छा अब इस वववाद को जाने तो। तुम दोनों जब आती ो, लडती ो आती ो।

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सेवती- वपता और पुत्र का कैसा संयोग ुआ ै? ऐसा मालुम ोता ैं कक मुंशी शसलग्राम ने प्रतापचन्र ी के सलए संन्यास सलया था। य सब उन् ीं कर सशक्षा का िल ैं। रष्क्मणी -– ां और क्या? मुन्शी शसलग्राम तो अब स्वामी ब्रह्रमानन्द क लात े ैं। प्रताप को देखकर प चान गये ोगें । सेवती –- आनन्द से िूले न समाये ोगें। रुष्क्मणी--य भी ईश्वर की पे्ररणा थी, न ीं तो प्रतापचन्र मानसरोवर क्या करने जात?े सेवती–-ईश्वर की इच्छा के त्रबना कोई बात ोती ै? ववरजन–-तुम लोग मेरे लालाजी को तो भूल ी गयी। ऋर्ीकेश में प ले लालाजी ी से प्रतापचनर की भेंट ुई थी। प्रताप उनके साथ साल-भर तक र े। तब दोनों आदमी मानसरोवर की ओर चले। रुष्क्मणी–- ां, प्राणनाथ के लेख में तो य वतृान्त था। बालाजी तो य ी क त े ैं कक मुंशी संजीवनलाल से समलने का सौभाग्य मुि ेप्राप्त न ोता तो मैं भी मांगने–खानेवाले सािुओं में ी ोता। चन्रकंुवरर--इतनी आत्मोन्ननत के सलए वविाता ने प ले ी से सब सामान कर हदये थे। सेवती–तभी इतनी–सी अवस्था में भारत के सुया बने ुए ैं। अभी पचीसवें वर्ा में ोगें? ववरजन –- न ीं, तीसवां वर्ा ै। मुिसे साल भर के जेठे ैं। रुष्क्मणी –-मैंने तो उन् ें जब देखा, उदास ी देखा।

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चन्रकंुवरर –- उनके सारे जीवन की असभलार्ाओं पर ओंस पड गयी। उदास क्यों न ोंगी? रुष्क्मणी –- उन् ोने तो देवीजी से य ी वरदान मांगा था। चन्रकंुवरर -– तो क्या जानत की सेवा ग ृस्थ बनकर न ीं ो सकती? रुष्क्मणी –- जानत ी क्या, कोई भी सेवा ग ृस्थ बनकर न ीं ो सकती। ग ृस्थ केवल अपने बाल-बच्चों की सेवा कर सकता ै। चन्रकंुवरर -– करनेवाले सब कुछ कर सकत े ैं, न करनेवालों के सलए सौ ब ाने ैं। एक मास और बीता। ववरजन की नई कववता स्वागत का सन्देशा लेकर बालाजी के पास प ुची परन्तु य न प्रकट ुआ कक उन् ोंने ननमंत्रण स्वीकार ककया या न ीं। काशीवासी प्रतीक्षा करते–करत ेथक गये। बालाजी प्रनतहदन दक्षक्षण की ओर बढत ेचले जात ेथे। ननदान लोग ननराश ो गये और सबसे अिीक ननराशा ववरजन को ुई। एक हदन जब ककसी को ध्यान भी न था कक बालाजी आयेंगे, प्राणनाथ ने आकर क ा–-बह न। लो प्रसन्न ो जाओ, आज बालाजी आ र े ैं। ववरजन कुछ सलख र ी थी, ाथों से लेखनी छूट पडी। मािवी उठकर द्वार की ओर लपकी। प्राणनाथ ने ंसकर क ा –- क्या अभी आ थोड े ी गये ैं कक इतनी उद्ववग्न ुई जाती ो। मािवी -– कब आएाँगें इिर से ी ोकर जायाँगें नए?

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प्राणनाथ – य तो न ीं ज्ञात ै कक ककिर से आयेंगें – उन् ें आडम्बर और िूमिाम से बडी घणृा ै। इससलए प ले से आने की नतधथ न ीं ननयत की। राजा सा ब के पास आज प्रात:काल एक मनुष्य ने आकर सूचना दी कक बालाजी आ र े ैं और क ा ै कक मेरी आगवानी के सलए िूमिाम न ो, ककन्तु य ां के लोग कब मानत े ैं? अगवानी ोगी, समारो के साथ सवारी ननकलेगी, और ऐसी कक इस नगर के इनत ास में स्मरणीय ो। चारों ओर आदमी छूटे ुए ैं। ज्यों ी उन् ें आत ेदेखेंगे, लोग प्रत्येक मु ल्ले में टेलीिोन द्वारा सूचना दे देंगे। कालेज और सकूलों के ववद्याथी वहदायां प ने और िष्ण्डयां सलये इन्तजार में खड े ैं घर–घर पुष्प–वर्ाा की तैयाररयां ो र ी ैं बाजार में दकुानें सजायी जा र ीं ैं। नगर में एक िूम सी मची ुई ै। मािवी -- इिर से जायेगें तो म रोक लेंगी। प्राणनाथ -– मने कोई तैयारी तो की न ीं, रोक क्या लेंगे? और य भी तो न ीं ज्ञात ैं कक ककिर से जायेंगें। ववरजन –- (सोचकर) आरती उतारने का प्रबन्ि तो करना ी ोगा। प्राणनाथ -– अब इतना भी न ोगा? मैं बा र त्रबछावन आहद त्रबछावाता ंू। प्राणनाथ बा र की तैयाररयों में लगे, मािवी िूल चुनने लगी, ववरजन ने चांदी का थाल भी िोकर स्वच्छ ककया। सेवती और चन्रा भीतर सारी वस्तुएं क्रमानुसार सजाने लगीं। मािवी र्ा के मारे िूली न समाती थी। बारम्बार चौक–चौंककर द्वार की ओर देखती कक क ीं आ तो न ीं गये। बारम्बार कान लगाकर सनुती कक क ीं बाजे की ध्वनन तो न ीं आ र ी ै। हृदय र्ा के मारे िडक र ा था। िूल चुनती थी, ककन्तु ध्यान दसूरी ओर था। ाथों में ककतने ी कांटे चुभा सलए। िूलों के साथ कई शाखाऍ ंमरोड डालीं। कई बार शाखाओं में उलिकर धगरी। कई बार साडी कांटों में िंसा दी ंउसस समय उसकी दशा त्रबलकुल बच्चों की-सी थी।

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ककन्तु ववरजन का बदन ब ुत सी मसलन था। जैसे जलपणूा पात्र तननक ह लने से भी छलक जाता ै, उसी प्रकार ज्यों-ज्यों प्राचीन घटनाएाँ स्मरण आती थी, त्यों-त्यों उसके नेत्रों से अशु्र छलक पडत ेथे। आ ! कभी वे हदन थे कक म और व भाई-बह न थे। साथ खेलते, साथ र त ेथे। आज चौद वर्ा व्यतीत ुए, उनकास मुख देखने का सौभग्य भी न ुआ। तब मैं तननक भी रोती व मेरे ऑसंू पोछतें और मेरा जी ब लात।े अब उन् ें क्या सुधि कक ये ऑखें ककतनी रोयी ैं और इस हृदय ने कैसे-कैसे कष्ट उठाये ैं। क्या खबर थी की मारे भाग्य ऐसे दृश्य हदखायेंगे? एक ववयोधगन ो जायेगी और दसूरा सन्यासी। अकस्मात ्मािवी को ध्यान आया कक सुवमस को कदाधचत बाजाजी के आने की सुचना न ुई ो। व ववरजन के पास आक बोली- मैं तननक चची के य ॉँ जाती ूाँ। न जाने ककसी ने उनसे क ा या न ीं? प्राणनाथ बा र से आ र े थे, य सुनकर बोले-- व ॉँ सबसे प ले सूचना दी गयीं भली-भ ॉँनत तैयाररय ॉँ ो र ी ै। बालाजी भी सीिे घर ी की ओर पिारेंगे। इिर से अब न आयेंगे। ववरजन-- तो म लोगों का चलना चाह ए। क ीं देर न ो जाए। मािवी- आरती का थाल लाऊाँ ? ववरजन-- कौन ले चलेगा ? म री को बुला लो (चौंककर) अरे! तरेे ाथों में रुधिर क ॉँ से आया? मािवी-- ऊाँ ! िूल चुनती थी, क ॉँटे लग गये ोंगे। चन्रा-- अभी नयी साडी आयी ै। आज ी िाड के रख दी। मािवी-- तुम् ारी बला से! मािवी ने क तो हदया, ककन्तु ऑखें अशु्रपूणा ो गयीं। चन्रा सािारणत: ब ुत भली स्त्री थी। ककन्तु जब से बाबू रािाचरण ने जानत-सेवा के सलए नौकरी से इस्तीिा दे हदया था व बालाजी के नाम से धचढ़ती थी। ववरजन से तो कुछ न

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क सकती थी, परन्तु मािवी को छेडती र ती थी। ववरजन ने चन्रा की ओर घूरकर मािवी से क ा-- जाओ, सन्दकू से दसूरी साडी ननकाल लो। इसे रख आओ। राम-राम, मार ाथ छलनी कर डाले! मािवी-- देर ो जायेगी, मैं इसी भ ॉँनत चलूाँगी। ववरजन-- न ी, अभी घण्टा भर से अधिक अवकाश ै। य क कर ववरजन ने प्यार से मािवी के ाथ िोये। उसके बाल गूंथे, एक सुन्दर साडी पह नायी, चादर ओढ़ायी और उसे हृदय से लगाकर सजल नेत्रों से देखत े ुए क ा- बह न! देखो, िीरज ाथ से न जाय। माध्वी मुस्कराकर बोली-- तुम मेरे ी संग र ना, मुि ेसभलती र ना। मुि ेअपने हृदय पर भरोसा न ीं ै। ववरजन ताड गई कक आज पे्रम ने उन्मत्ततास का पद ग्र ण ककया ै और कदाधचत ्य ी उसकी पराकाष्ठा ै। ॉँ ! य बावली बाल ूकी भीत उठा र ी ै। मािवी थोडी देर के बाद ववरजन, सेवती, चन्रा आहद कई स्त्रीयों के संग सुवाम के घर चली। वे व ॉँ की तैयाररय ॉँ देखकर चककत ो गयीं। द्वार पर एक ब ुत बडा चाँदोवा त्रबछावन, शीशे और भ ॉँनत-भााँनत की सामधग्रयों से सुसष्ज्जत खडा था। बिाई बज र ी थी! बडे-बड ेटोकरों में समठाइय ॉँ और मेवे रखे ुए थे। नगर के प्रनतष्ष्ठत सभ्य उत्तमोत्तम वस्त्र पह ने ुए स्वागत करने को खड ेथे। एक भी किटन या गाडी न ीं हदखायी देती थी, क्योंकक बालाजी सवादा पैदल चला करत ेथे। ब ुत से लोग गले में िोसलय ॉँ डालें ुए हदखाई देत ेथे, ष्जनमें बालाजी पर समपाण करन ेके सलये रुपये-पैसे भरे ुए थे। राजा िमासस ं के प ॉँचों लडके रंगीन वस्त्र पह ने, केसररया पगडी बांिे, रेशमी िष्ण्डयां कमरे से खोसें त्रबगुल बजा र े थे। ज्योंह लोगों की दृष्ष्ट ववरजन पर पडी, स स्रों मस्तक सशष्टाचार के सलए िुक गये। जब ये देववयां भीतर गयीं तो व ां भी आंगन और दालान नवागत विू की भांनत सुसष्ज्जत हदखे! सैकडो स्त्रीयां मंगल गाने के सलए बैठी थीं। पुष्पों की रासशयााँ ठौर-ठौर पडी थी। सुवामा एक श्वेत साडी पह ने सन्तोर् और शाष्न्त की मूनता बनी ुई द्वार पर खडी थी। ववरजन और मािवी को

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देखत े ी सजल नयन ो गयी। ववरजन बोली-- चची! आज इस घर के भाग्य जग गये। सुवामा ने रोकर क ा-- तुम् ारे कारण मुि ेआज य हदन देखने का सौभाग्य ुआ। ईश्वर तुम् ें इसका िल दे। दखुखया माता के अन्त:करण से य आशीवााद ननकला। एक माता के शाप ने राजा दशरथ को पुत्रशोक में मतृ्यु का स्वाद चखाया था। क्या सुवामा का य आशीवााद प्रभाव ीन ोगा? दोनों अभी इसी प्रकार बातें कर र ी थीं कक घण्टे और शंख की ध्वनन आने लगी। िूम मची की बालाजी आ प ंुच।े स्त्रीयों ने मंगलगान आरम्भ ककया। मािवी ने आरती का थाल ले सलया मागा की ओर टकटकी बांिकर देखने लगी। कुछ ी काल मे अद्वैताम्बरिारी नवयुवकों का समुदाय दखयी पडा। भारत सभा के सौ सभ्य घोडों पर सवार चले आत ेथे। उनके पीछे अगखणत मनुष्यों का िुण्ड था। सारा नगर टूट पडा। कन्िे से कन्िा नछला जाता था मानो समुर की तरंगें बढ़ती चली आती ैं। इस भीड में बालाजी का मुखचन्र ऐसा हदखायी पडताथ मानो मेघाच्छहदत चन्र उदय ुआ ै। ललाट पर अरुण चन्दन का नतलक था और कण्ठ में एक गेरुए रंग की चादर पडी ुई थी। सुवामा द्वार पर खडी थी, ज्यों ी बालाजी का स्वरुप उसे हदखायी हदया िीरज ाथ से जाता र ा। द्वार से बा र ननकल आयी और ससर िुकाये, नेत्रों से मुक्त ार गूंथती बालाजी के ओर चली। आज उसने अपना खोया ुआ लाल पाया ै। व उसे हृदय से लगाने के सलए उद्ववग्न ै। सुवामा को इस प्रकार आत ेदेखकर सब लोग रुक गये। ववहदत ोता था कक आकाश से कोई देवी उतर आयी ै। चतुहदाक सन्नाटा छा गया। बालाजी ने कई डग आगे बढ़कर मातीजी को प्रमाण ककया और उनके चरणों पर धगर पड।े सुवामा ने उनका मस्तक अपने अंक में सलया। आज उसने अपना खोया ुआ लाल पाया ै। उस पर आंखों से मोनतयों की वषृ्ष्ट कर र ीं ै।

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इस उत्सा वद्ावक दृश्य को देखकर लोगों के हृदय जातीयता के मद में मतवाले ो गये! पचास स स्र स्वर से ध्वनन आयी-‘बालाजी की जय।’ मेघ गजाा और चतुहदाक से पुष्पवषृ्ष्ट ोने लगी। किर उसी प्रकार दसूरी बार मेघ की गजाना ुई। ‘मुंशी शासलग्राम की जय’ और स स्रों मनुष्ये स्वदेश-पे्रम के मद से मतवाले ोकर दौड ेऔर सुवामा के चरणों की रज माथे पर मलने लगे। इन ध्वननयों से सुवामा ऐसी प्रमुहदत ो र ीं थी जैसे म ुअर के सुनने से नाधगन मतवाली ो जाती ै। आज उसने अपना खोया ुआ लाल पाया ै। अमूल्य रत्न पाने से व रानी ो गयी ै। इस रत्न के कारण आज उसके चरणों की रज लोगो के नेत्रों का अंजन और माथे का चन्दन बन र ी ै। अपूवा दृश्य था। बारम्बार जय-जयकार की ध्वनन उठती थी और स्वगा के ननवाससयों को भातर की जागनृत का शुभ-संवाद सुनाती थी। माता अपने पुत्र को कलेजे से लगाये ुए ै। ब ुत हदन के अनन्तर उसने अपना खोया ुआ लाल ै, व लाल जो उसकी जन्म-भर की कमाई था। िूल चारों और से ननछावर ो र े ै। स्वणा और रत्नों की वर्ाा ो र ी ै। माता और पुत्र कमर तक पुष्पों के समुर में डूबे ुए ै। ऐसा प्रभावशाली दृश्य ककसके नेत्रों ने देखा ोगा। सुवामा बालाजी का ाथ पकडे ुए घरकी ओर चली। द्वार पर प ुाँचत े ी स्त्रीय ॉँ मंगल-गीत गाने लगीं और मािवी स्वणा रधचत थाल दीप और पुष्पों से आरती करने लगी। ववरजन ने िूलों की माला-ष्जसे मािवी ने अपने रक्त से रंष्जत ककया था- उनके गले में डाल दी। बालाजी ने सजल नेत्रों से ववरजन की ओर देखकर प्रणाम ककया। मािवी को बालाजी के दशना की ककतनी असभलार्ा थी। ककन्तु इस समय उसके नेत्र पथृ्वी की ओर िुके ुए ै। व बालाजी की ओर न ीं देख सकती। उसे भय ै कक मेरे नेत्र पथृ्वी हृदय के भेद को खोल देंगे। उनमे पे्रम रस भरा ुआ ै। अब तक उसकी सबसे बडी असभलार्ा य थी कक बालाजी का दशना पाऊाँ । आज प्रथम बार मािवी के हृदय में नयी असभलार्ाएं उत्पन्न ुई, आज असभलार्ाओं ने ससर उठाया ै, मगर पूणा ोने के सलए न ीं, आज असभलार्ा-वाहटका में एक नवीन कली लगी ै, मगर खखलने के सलए न ीं, वरन मुरिाने समट्टी में समल जाने के सलए। मािवी को कौन समिाये कक तू इन असभलार्ाओं को हृदय में

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उत्पन्न ोने दे। ये असभलार्ाएं तुि ेब ुत रुलायेंगी। तरेा पे्रम काल्पननक ै। तू उसके स्वाद से पररधचत ै। क्या अब वास्तववक पे्रम का स्वाद सलया चा ती ै? ***

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24. पे्रम का स्वप्न

मनुष्य का हृदय असभलार्ाओं का क्रीडास्थल और कामनाओं का आवास ै। कोई समय व थां जब कक मािवी माता के अंक में खेलती थी। उस समय हृदय असभलार्ा और चषे्टा ीन था। ककन्तु जब समट्टी के घरौंदे बनाने लगी उस समय मन में य इच्छा उत्पन्न ुई कक मैं भी अपनी गुडडया का वववा करुाँ गी। सब लडककयां अपनी गुडडयां ब्या र ी ैं, क्या मेरी गुडडयााँ कुाँ वारी र ेंगी? मैं अपनी गुडडयााँ के सलए ग ने बनवाऊाँ गी, उसे वस्त्र प नाऊाँ गी, उसका वववा रचाऊाँ गी। इस इच्छा ने उसे कई मास तक रुलाया। पर गुडडयों के भाग्य में वववा न बदा था। एक हदन मेघ नघर आये और मूसलािार पानी बरसा। घरौंदा वषृ्ष्ट में ब गया और गुडडयों के वववा की असभलार्ा अपूणा ो र गयी। कुछ काल और बीता। व माता के संग ववरजन के य ॉँ आने-जाने लगी। उसकी मीठी-मीठी बातें सुनती और प्रसन्न ोती, उसके थाल में खाती और उसकी गोद में सोती। उस समय भी उसके हृदय में य इच्छा थी कक मेरा भवन परम सुन्दर ोता, उसमें चांदी के ककवाड लगे ोते, भूसम ऐसी स्वच्छ ोती कक मक्खी बैठे और किसल जाए ! मैं ववरजन को अपने घर ले जाती, व ां अच्छे-अच्छे पकवान बनाती और खखलाती, उत्तम पलंग पर सुलाती और भली-भ ॉँनत उसकी सेवा करती। य इच्छा वर्ों तक हृदय में चुटककयााँ लेती र ी। ककन्तु उसी घरौंदे की भााँनत य घर भी ढ गया और आशाएाँ ननराशा में पररवनतात ो गयी। कुछ काल और बीता, जीवन-काल का उदय ुआ। ववरजन ने उसके धचत्त पर प्रतापचन्र का धचत्त खींचना आरम्भ ककया। उन हदनों इस चचाा के अनतररक्त उसे कोई बात अच्छी न लगती थी। ननदान उसके हृदय में प्रतापचन्र की चरेी बनने की इच्छा उत्पन्न ुई। पडे-पड ेहृदय से बातें ककया करती। रात्र में जागरण करके मन का मोदक खाती। इन ववचारों से धचत्त पर एक उन्माद-सा छा जाता, ककन्तु प्रतापचन्र इसी बीच में गुप्त ो गये और उसी समट्टी के घरौंदे की भााँनत ये वाई ककले ढ गये। आशा के स्थान पर हृदय में शोक र गया। अब ननराशा ने उसक हृदय में आशा ी शेर् न रखा। व देवताओं की उपासना करने लगी, व्रत रखने लगी कक प्रतापचन्र पर समय की कुदृष्ष्ट न पडने पाये।

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इस प्रकार अपने जीवन के कई वर्ा उसने तपष्स्वनी बनकर व्यतीत ककये। कष्ल्पत पे्रम के उल्लास मे चूर ोती। ककन्तु आज तपष्स्वनी का व्रत टूट गया। मन में नूतन असभलार्ाओं ने ससर उठाया। दस वर्ा की तपस्या एक क्षण में भंग ो गयी। क्या य इच्छा भी उसी समट्टी के घरौंदे की भााँनत पददसलत ो जाएगी? आज जब से मािवी ने बालाजी की आरती उतारी ै,उसके आाँसू न ीं रुके। सारा हदन बीत गया। एक-एक करके तार ननकलने लगे। सूया थककर नछप गय और पक्षीगण घोसलों में ववश्राम करने लगे, ककन्तु मािवी के नेत्र न ीं थके। व सोचती ै कक ाय! क्या मैं इसी प्रकार रोने के सलए बनायी गई ूाँ? मैं कभी ाँसी भी थी ष्जसके कारण इतना रोती ूाँ? ाय! रोते-रोत ेआिी आयु बीत गयी, क्या शेर् भी इसी प्रकार बीतगेी? क्या मेरे जीवन में एक हदन भी ऐसा न आयेगा, ष्जसे स्मरण करके सन्तोर् ो कक मैंने भी कभी सुहदन देखे थे? आज के प ले मािवी कभी ऐसे नैराश्य-पीडडत और नछन्नहृदया न ीं ुई थी। व अपने कष्ल्पत पेम मे ननमग्न थी। आज उसके हृदय में नवीन असभलार्ाएाँ उत्पन्न ुई ै। अशु्र उन् ीं के पे्रररत ै। जो हृदय सोल वर्ा तक आशाओं का आवास र ा ो, व ी इस समय मािवी की भावनाओं का अनुमान कर सकता ै। सुवामा के हृदय मे नवीन इच्छाओं ने ससर उठाया ै। जब तक बालजी को न देखा था, तब तक उसकी सबसे बडी असभलार्ा य थी कक व उन् ें आाँखें भर कर देखती और हृदय-शीतल कर लेती। आज जब आाँखें भर देख सलया तो कुछ और देखने की अच्छा उत्पन्न ुई। शोक ! व इच्छा उत्पन्न ुई मािवी के घरौंदे की भााँनत समट्टी में समल जाने क सलए। आज सुवामा, ववरजन और बालाजी में सांयकाल तक बातें ोती र ी। बालाजी ने अपने अनुभवों का वणान ककया। सुवामा ने अपनी राम क ानी सुनायी और ववरजन ने क ा थोडा, ककन्तु सुना ब ुत। मुंशी संजीवनलाल के सन्यास का समाचार पाकर दोनों रोयी।ं जब दीपक जलने का समय आ प ुाँचा, तो बालाजी गंगा की ओर संध्या करने चले और सुवामा भोजन बनाने बैठी। आज ब ुत हदनों के पश्चात सुवामा मन लगाकर भोजन बना र ी थी। दोनों बात करने लगीं।

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सुवामा-बेटी! मेरी य ाहदाक असभलार्ा थी कक मेरा लडका संसार में प्रनतष्ष्ठत ो और ईश्वर ने मेरी लालसा पूरी कर दी। प्रताप ने वपता और कुल का नाम उज्ज्वल कर हदया। आज जब प्रात:काल मेरे स्वामीजी की जय सुनायी जा र ी थी तो मेरा हृदय उमड-उमड आया था। मैं केवल इतना चा ती ूाँ कक वे य वैराग्य त्याग दें। देश का उपकार करने से मैं उन् ें न ीं राकती। मैंने तो देवीजी से य ी वरदान मााँगा था, परन्तु उन् ें संन्यासी के वेश में देखकर मेरा हृदय ववदीणा ुआ जाता ै। ववरजन सुवामा का असभप्राय समि गयी। बोली-चाची! य बात तो मेरे धचत्त में पह ले ी से जमी ुई ै। अवसर पात े ी अवश्य छेडूाँगी। सुवामा-अवसर तो कदाधचत ी समले। इसका कौन हठकाना? अभी जी में आये, क ीं चल दें। सुनती ूाँ सोटा ाथ में सलये अकेले वनों में घूमत े ै। मुिसे अब बेचारी मािवी की दशा न ीं देखी जाती। उसे देखती ूाँ तो जैसे कोई मेरे हृदय को मसोसने लगता ै। मैंने ब ुतरेी स्त्रीयााँ देखीं और अनेक का वतृ्तान्त पुस्तकों में पढ़ा ; ककन्तु ऐसा पे्रम क ीं न ीं देखा। बेचारी ने आिी आयु रो-रोकर काट दी और कभी मुख न मैला ककया। मैंने कभी उसे रोत ेन ीं देखा ; परन्तु रोने वाले नेत्र और ाँसने वाले मुख नछपे न ीं र त।े मुि ेऐसी ी पुत्रविू की लालसा थी, सो भी ईश्वर ने पूणा कर दी। तुमसे सत्य क ती ूाँ, मैं उसे पुत्रविू समिती ूाँ। आज से न ीं, वर्ों से। वजृरानी-- आज उसे सारे हदन रोत े ी बीता। ब ुत उदास हदखायी देती ै। सुवामा-- तो आज ी इसकी चचाा छेडो। ऐसा न ो कक कल ककसी ओर प्रस्थान कर दे, तो किर एक युग प्रतीक्षा करनी पड।े वजृरानी-- (सोचकर) चचाा करने को तो मैं करुाँ , ककन्तु मािवी स्वयं ष्जस उत्तमता के साथ य काया कर सकती ै, कोई दसूरा न ीं कर सकता। सुवामा-- व बेचारी मुख से क्या क ेगी?

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वजृरानी-- उसके नेत्र सारी कथा क देंगे? सुवामा-- लल्लू अपने मन में क्या क ंगे? वजृरानी-- क ेंगे क्या ? य तुम् ारा भ्रम ै जो तुम उसे कुाँ वारी समि र ी ो। व प्रतापचन्र की पत्नी बन चुकी। ईश्वर के य ााँ उसका वववा उनसे ो चुका यहद ऐसा न ोता तो क्या जगत ्में पुरुर् न थे? मािवी जैसी स्त्री को कौन नेत्रों में न स्थान देगा? उसने अपना आिा यौवन व्यथा रो-रोकर त्रबताया ै। उसने आज तक ध्यान में भी ककसी अन्य पुरुर् को स्थान न ीं हदया। बार वर्ा से तपष्स्वनी का जीवन व्यतीत कर र ी ै। व पलंग पर न ीं सोयी। कोई रंगीन वस्त्र न ीं प ना। केश तक न ीं गुाँथाये। क्या इन व्यव ारों से न ीं ससद्व ोता कक मािवी का वववा ो चुका? हृदय का समलाप सच्चा वववा ै। ससन्दरू का टीका, ग्रष्न्थ-बन्िन और भााँवर- ये सब संसार के ढकोसले ै। सुवामा-- अच्छा, जैसा उधचत समिो करो। मैं केवल जग- ाँसाई से डरती ूाँ। रात को नौ बजे थे। आकाश पर तारे नछटके ुए थे। मािवी वाहटका में अकेली ककन्तु अनत दरू ैं। क्या कोई व ााँ तक प ुाँच सकता ै? क्या मेरी आशाएाँ भी उन् ी नक्षत्रों की भााँनत ै? इतने में ववरजन ने उसका ाथ पकडकर ह लाया। मािवी चौंक पडी। ववरजन--अाँिेरे में बैठी क्या कर र ी ै? मािवी-- कुछ न ीं, तो तारों को देख र ी ूाँ। वे कैसे सु ावने लगत े ैं, ककन्तु समल न ीं सकत।े ववरजन के कलेजे मे बछी-सी लग गयी। िीरज िरकर बोली- य तारे धगनने का समय न ीं ै। ष्जस अनतधथ के सलए आज भोर से ी िूली न ीं समाती थी, क्या इसी प्रकार उसकी अनतधथ-सेवा करेगी? मािवी-- मैं ऐसे अनतधथ की सेवा के योग्य कब ूाँ?

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ववरजन-- अच्छा, य ााँ से उठो तो मैं अनतधथ-सेवा की रीनत बताऊाँ । दोनों भीतर आयीं। सुवामा भोजन बना चुकी थी। बालाजी को माता के ाथ की रसोई ब ुत हदनों में प्राप्त ुई। उन् ोंने बड ेपे्रम से भोजन ककया। सुवामा खखलाती जाती थी और रोती जाती थी। बालाजी खा पीकर लेटे, तो ववरजन ने मािवी से क ा- अब य ााँ कोने में मुख बााँिकर क्यों बैठी ो? मािवी-- कुछ दो तो खाके सो र ूाँ, अब य ी जी चा ता ै। ववरजन-- मािवी! ऐसी ननराश न ो। क्या इतने हदनों का व्रत एक हदन में भंग कर देगी? मािवी उठी, परन्तु उसका मन बैठा जाता था। जैसे मेघों की काली-काली घटाएाँ उठती ै और ऐसा प्रतीत ोता ै कक अब जल-थल एक ो जाएगा, परन्तु अचानक पछवा वायु चलने के कारण सारी घटा काई की भााँनत िट जाती ै, उसी प्रकार इस समय मािवी की गनत ो र ी ै। व शुभ हदन देखने की लालसा उसके मन में ब ुत हदनों से थी। कभी व हदन भी आयेगा जब कक मैं उसके दशान पाऊाँ गी? और उनकी अमतृ-वाणी से श्रवण तपृ्त करुाँ गी। इस हदन के सलए उसने मान्याएाँ कैसी मानी थी? इस हदन के ध्यान से ी उसका हृदय कैसा खखला उठता था! आज भोर ी से मािवी ब ुत प्रसन्न थी। उसने बड ेउत्सा से िूलों का ार गूाँथा था। सैकडों कााँटे ाथ में चुभा सलये। उन्मत्त की भााँनत धगर-धगर पडती थी। य सब र्ा और उमंग इसीसलए तो था कक आज व शुभ हदन आ गया। आज व हदन आ गया ष्जसकी ओर धचरकाल से आाँखे लगी ुई थीं। व समय भी अब स्मरण न ीं, जब य असभलार्ा मन में न ीं, जब य असभलार्ा मन में न र ी ो। परन्तु इस समय मािवी के हृदय की व गात ेन ीं ै। आनन्द की भी सीमा ोती ै। कदाधचत ्व मािवी के आनन्द की सीमा थी, जब व वाहटका में िूम-िूमकर िूलों से आाँचल भर र ी थी। ष्जसने कभी सुख का स्वाद ी न चखा ो, उसके सलए इतना ी आनन्द ब ुत ै। व बेचारी इससे अधिक आनन्द का भार न ीं साँभाल सकती। ष्जन अिरों पर कभी ाँसी आती ी न ीं,

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उनकी मुस्कान ी ाँसी ै। तुम ऐसों से अधिक ाँसी की आशा क्यों करत े ो? मािवी बालाजी की ओर परन्तु इस प्रकार इस प्रकार न ीं जैसे एक नवेली ब ू आशाओं से भरी ुई श्रृंगार ककये अपने पनत के पास जाती ै। व ी घर था ष्जसे व अपने देवता का मष्न्दर समिती थी। जब व मष्न्दर शून्य था, तब व आ-आकर आाँसुओं के पुष्प चढ़ाती थी। आज जब देवता ने वास ककया ै, तो व क्यों इस प्रकार मचल-मचल कर आ र ी ै? रात्रत्र भली-भााँनत आरा ो चुकी थी। सडक पर घंटों के शब्द सुनायी दे र े थे। मािवी दबे पााँव बालाजी के कमरे के द्वार तक गयी। उसका हृदय िडक र ा था। भीतर जाने का सा स न ुआ, मानो ककसी ने पैर पकड सलए। उल्टे पााँव किर आयी और पथृ्वी पर बैठकर रोने लगी। उसके धचत्त ने क ा- मािवी! य बडी लज्जा की बात ै। बालाजी की चरेी स ी, माना कक तुि ेउनसे पे्रम ै ; ककन्तु तू उसकी स्त्री न ीं ै। तुि ेइस समय उनक ग ृ में र ना उधचत न ीं ै। तरेा पे्रम तुि ेउनकी पत्नी न ीं बना सकता। पे्रम और वस्तु ै और सो ाग और वस्तु ै। पे्रम धचत की प्रवषृ्त्त ै और ब्या एक पववत्र िमा ै। तब मािवी को एक वववा का स्मरण ो आया। वर ने भरी सभा मे पत्नी की बााँ पकडी थी और क ा था कक इस स्त्री को मैं अपने ग ृ की स्वासमनी और अपने मन की देवी समिता र ूाँगा। इस सभा के लोग, आकाश, अष्ग्न और देवता इसके साक्षी र े। ा! ये कैसे शुभ शब्द ै। मुि ेकभी ऐसे शब्द सुनने का मौका प्राप्त न ुआ! मैं न अष्ग्न को अपना साक्षी बना सकती ूाँ, न देवताओं को और न आकाश ी को; परन्तु ै अष्ग्न! ै आकाश के तारो! और े देवलोक-वाससयों! तुम साक्षी र ना कक मािवी ने बालाजी की पववत्र मूनता को हृदय में स्थान हदया, ककन्तु ककसी ननकृष्ट ववचार को हृदय में न आने हदया। यहद मैंने घर के भीतर पैर रखा ो तो ै अष्ग्न! तुम मुि ेअभी जलाकर भस्म कर दो। े आकाश! यहद तुमने अपने अनेक नेत्रों से मुि ेग ृ में जात ेदेखा, तो इसी क्षण मेरे ऊपर इन्र का वज्र धगरा दो। मािवी कुछ काल तक इसी ववचार मे मग्न बैठी र ी। अचानक उसके कान में भक-भक की ध्वनन आयीय। उसने चौंककर देखा तो बालाजी का कमरा अधिक प्रकासशत ो गया था और प्रकाश खखडककयों से बा र ननकलकर आाँगन में िैल र ा था। मािवी के पााँव तले से समट्टी ननकल गयी। ध्यान आया कक मेज पर लैम्प भभक उठा। वायु की भााँनत व बालाजी के कमरे में घुसी। देखा तो लैम्प

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िटक पथृ्वी पर धगर पडा ै और भूतल के त्रबछावन में तले िैल जाने के कारण आग लग गयी ै। दसूरे ककनारे पर बालाजी सुख से सो र े थे। अभी तक उनकी ननरा न खुली थी। उन् ोंने कालीन समेटकर एक कोने में रख हदया था। ववद्युत की भााँनत लपककर मािवी ने व कालीन उठा सलया और भभकती ुई ज्वाला के ऊपर धगरा हदया। िमाके का शब्द ुआ तो बालाजी ने चौंककर आाँखें खोली। घर मे िुआाँ भरा था और चतुहदाक तले की दगुान्ि िैली ुई थी। इसका कारण व समि गये। बोले- कुशल ुआ, न ीं तो कमरे में आग लग गयी थी। मािवी-- जी ााँ! य लैम्प धगर पडा था। बालाजी-- तुम बड ेअवसर से आ प ुाँची। माध्वी-- मैं य ीं बा र बैठी ुई थी। बालाजी- –तुमको बडा कष्ट ुआ। अब जाकर शयन करो। रात ब ुत ा गयी ै। मािवी–- चली जाऊाँ गी। शयन तो ननत्य ी करना ै। यअ अवसर न जाने किर कब आये? मािवी की बातों से अपूवा करुणा भरी थी। बालाजी ने उसकी ओर ध्यान-पूवाक देखा। जब उन् ोंने पह ले मािवी को देखा था,उसक समय व एक खखलती ुई कली थी और आज व एक मुरिाया ुआ पुष्प ै। न मुख पर सौन्दया था, न नेत्रों में आनन्द की िलक, न मााँग में सो ाग का संचार था, न माथे पर ससदंरू का टीका। शरीर में आभूर्ाणों का धचन् भी न था। बालाजी ने अनुमान से जाना कक वविाता से जान कक वविाता ने ठीक तरुणावस्था में इस दखुखया का सो ाग रण ककया ै। परम उदास ोकर बोले-क्यों मािवी! तुम् ारा तो वववा ो गया ै न? मािवी के कलेज मे कटारी चुभ गयी। सजल नेत्र ोकर बोली-- ााँ, ो गया ै। बालाजी-- और तुम् ारे पनत?

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मािवी-- उन् ें मेरी कुछ सुि ी न ीं। उनका वववा मुिसे न ीं ुआ। बालाजी ववष्स्मत ोकर बोले-- तुम् ारा पनत करता क्या ै? मािवी-- देश की सेवा। बालाजी की आाँखों के सामने से एक पदाा सा ट गया। व ेमािवी का मनोरथ जान गये और बोले- मािवी इस वववा को ककतने हदन ुए? बालाजी के नेत्र सजल ो गये और मुख पर जातीयता के मद का उन्माद– सा छा गया। भारत माता! आज इस पनततावस्था में भी तुम् ारे अंक में ऐसी-ऐसी देववयााँ खेल र ी ैं, जो एक भावना पर अपने यौवन और जीवन की आशाऍ ंसमपाण कर सकती ै। बोले- ऐसे पनत को तुम त्याग क्यों न ीं देती? मािवी ने बालाजी की ओर असभमान से देखा और क ा- स्वामी जी! आप अपने मुख से ऐसेक ें! मैं आया-बाला ूाँ। मैंने गान्िारी और साववत्री के कुल में जन्म सलया ै। ष्जसे एक बार मन में अपना पनत मान चुकी उसे न ीं त्याग सकती। यहद मेरी आयु इसी प्रकार रोत-ेरोत ेकट जाय, तो भी अपने पनत की ओर से मुि ेकुछ भी खेद न ोगा। जब तक मेरे शरीर मे प्राण र ेगा मैं ईश्वर से उनक ह त चा ती र ूाँगी। मेरे सलए य ी क्या कमक ै, जो ऐसे म ात्मा के पे्रम ने मेरे हृदय में ननवास ककया ै? मैं इसी का अपना सौभाग्य समिती ूाँ। मैंने एक बार अपने स्वामी को दरू से देखा था। व धचत्र एक क्षण के सलए भी आाँखों से न ी उतरा। जब कभी मैं बीमार ुई ूाँ, तो उसी धचत्र ने मेरी शुशु्रर्ा की ै। जब कभी मैंने ववयोेेग के आाँसू ब ाये ैं, तो उसी धचत्र ने मुि ेसान्त्वना दी ै। उस धचत्र वाले पनत को मै। कैसे त्याग दूाँ? मैं उसकी ूाँ और सदैव उसी का र ूाँगी। मेरा हृदय और मेरे प्राण सब उनकी भेंट ो चुके ैं। यहद वे क ें तो आज मैं अष्ग्न के अंक में ऐसे र्ापूवाक जा बठूैाँ जैसे िूलों की शैय्या पर। यहद मेरे प्राण उनके ककसी काम आयें तो मैं उसे ऐसी प्रसन्नता से दे दूाँ जैसे कोई उपसाक अपने इष्टदेव को िूल चढ़ाता ो। मािवी का मुखमण्डल पे्रम-ज्योनत से अरुणा ो र ा था। बालाजी ने सब कुछ सुना और चुप ो गये। सोचने लगे- य स्त्री ै; ष्जसने केवल मेरे ध्यान पर

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अपना जीवन समपाण कर हदया ै। इस ववचार से बालाजी के नेत्र अशु्रपूणा ो गये। ष्जस पे्रम ने एक स्त्री का जीवन जलाकर भस्म कर हदया ो उसके सलए एक मनुष्य के घैया को जला डालना कोई बात न ीं! पे्रम के सामने िैया कोई वस्तु न ीं ै। व बोले- मािवी तुम जैसी देववयााँ भारत की गौरव ै। मैं बडा भाग्यवान ूाँ कक तुम् ारे पे्रम-जैसी अनमोल वस्तु इस प्रकार मेरे ाथ आ र ी ै। यहद तुमने मेरे सलए योधगनी बनना स्वीकार ककया ै तो मैं भी तुम् ारे सलए इस सन्यास और वैराग्य का त्याग कर सकता ूाँ। ष्जसके सलए तुमने अपने को समटा हदया ै।, व तुम् ारे सलए बडा-से-बडा बसलदान करने से भी न ीं ह चककचायेगा। मािवी इसके सलए प ले ी से प्रस्तुत थी, तुरन्त बोली- स्वामीजी! मैं परम अबला और बुद्वव ीन सत्री ूाँ। परन्तु मैं आपको ववश्वास हदलाती ूाँ कक ननज ववलास का ध्यान आज तक एक पल के सलए भी मेरे मन मे न ी आया। यहद आपने य ववचार ककया कक मेर पे्रम का उद्देश्य केवल य क आपके चरणों में सांसाररक बन्िनों की बेडडयााँ डाल दूाँ, तो ( ाथ जोडकर) आपन ेइसका तत्व न ीं समिा। मेरे पे्रम का उद्देश्य व ी था, जो आज मुि ेप्राप्त ो गया। आज का हदन मेरे जीवन का सबसे शुभ हदन ै। आज में अपने प्राणनाथ के सम्मुख खडी ूाँ और अपने कानों से उनकी अमतृमयी वाणी सुन र ी ूाँ। स्वामीजी! मुि ेआशा न थी कक इस जीवन में मुि ेय हदन देखने का सौभाग्य ोगा। यहद मेरे पास संसार का राज्य ोता तो मैं इसी आनन्द से उसे आपके चरणों में समपाण कर देती। मैं ाथ जोडकर आपसे प्राथाना करती ूाँ कक मुि ेअब इन चरणों से अलग न कीष्जयेगा। मै। सन्यास ले लूाँगी और आपके संग र ूाँगी। वैराधगनी बनूाँगी, भभूनत रमाऊाँ गी; परन्त ्आपका संग न छोडूाँगी। प्राणनाथ! मैंने ब ुत द:ुख स े ैं, अब य जलन न ीं सकी जाती। य क ते-क त ेमािवी का कंठ रुाँ ि गया और आाँखों से पे्रम की िारा ब ने लगी। उससे व ााँ न बैठा गया। उठकर प्रणाम ककया और ववरजन के पास आकर बैठ गयी। वजृरानी ने उसे गले लगा सलया और पूछा–- क्या बातचीत ुई? मािवी-- जो तुम च ाती थीं। वजृरानी-- सच, क्या बोले?

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मािवी-- य न बताऊाँ गी। वजृरानी को मानो पडा ुआ िन समल गया। बोली-- ईश्वर ने ब ुत हदनों में मेरा मनारेथ पूरा ककया। मे अपने य ााँ से वववा करुाँ गी। मािवी नैराश्य भाव से मुस्करायी। ववरजन ने कष्म्पत स्वर से क ा-- मको भूल तो न जायेगी? उसकी आाँखों से आाँसू ब ने लगे। किर व स्वर साँभालकर बोली- मसे तू त्रबछुड जायेगी। मािवी-- मैं तुम् ें छोडकर क ीं न जाऊाँ गी। ववरजन-- चल; बातें न बना। मािवी-- देख लेना। ववरजन-- देखा ै। जोडा कैसा प नेगी? मािवी-- उज्ज्वल, जैसे बगुले का पर। ववरजन-- सो ाग का जोडा केसररया रंग का ोता ै। मािवी-- मेरा श्वेत र ेगा। ववरजन-- तुि ेचन्र ार ब ुत भाता था। मैं अपना दे दूाँगी। मािवी-- ार के स्थान पर कंठी दे देना। ववरजन-- कैसी बातें कर र ी ैं? मािवी-- अपने श्रृंगार की!

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ववरजन-- तरेी बातें समि में न ीं आती। तू इस समय इतनी उदास क्यों ै? तूने इस रत्न के सलए कैसी-कैसी तपस्याएाँ की, कैसा-कैसा योग सािा, कैसे-कैसे व्रत ककये और तुि ेजब व रत्न समल गया तो वर्ात न ीं देख पडती! मािवी-- तुम वववा की बातचीत करती ो इससे मुि ेद:ुख ोता ै। ववरजन-- य तो प्रसन्न ोने की बात ै। मािवी-- बह न! मेरे भाग्य में प्रसन्नता सलखी ी न ीं! जो पक्षी बादलों में घोंसला बनाना चा ता ै व सवादा डासलयों पर र ता ै। मैंने ननणाय कर सलया ै कक जीवन की य शेर् समय इसी प्रकार पे्रम का सपना देखने में काट दूाँगी। ***

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25. ववदाई

दसूरे हदन बालाजी स्थान-स्थान से ननवतृ ोकर राजा िमासस ं की प्रतीक्षा करन ेलगे। आज राजघाट पर एक ववशाल गोशाला का सशलारोपण ोने वाला था, नगर की ाट-बाट और वीधथयााँ मुस्काराती ुई जान पडती थी। सडृक के दोनों पाश्वा में िण्ड ेऔर िखणयााँ ल रा र ी थीं। ग ृद्वार िूलों की माला पह ने स्वागत के सलए तैयार थे, क्योंककआज उस स्वदेश-पे्रमी का शुभगमन ै, ष्जसने अपना सवास्व देश के ह त बसलदान कर हदया ै। र्ा की देवी अपनी सखी-स ेसलयों के संग ट ल र ी थी। वायु िूमती थी। द:ुख और ववर्ाद का क ीं नाम न था। ठौर-ठौर पर बिाइयााँ बज र ी थीं। पुरुर् सु ावने वस्त्र प ने इठालत ेथे। स्त्रीयााँ सोल श्रृंगार ककये मंगल-गीत गाती थी। बालक-मण्डली केसररया सािा िारण ककये कलोलें करती थीं र पुरुर्-स्त्री के मुख से प्रसन्नता िलक र ी थी, क्योंकक आज एक सच्च ेजानत-ह तैर्ी का शुभगमन ै ष्जसेने अपना सवास्व जानत के ह त में भेंट कर हदया ै। बालाजी अब अपने सु दों के संग राजघाट की ओर चले तो सूया भगवान ने पूवा हदशा से ननकलकर उनका स्वागत ककया। उनका तजेस्वी मुखमण्डल ज्यों ी लोगों ने देखा स स्रो मुखों से ‘भारत माता की जय’ का घोर शब्द सुनायी हदया और वायुमंडल को चीरता ुआ आकाश-सशखर तक जा प ंुवा। घण्टों और शंखों की ध्वनन नननाहदत ुई और उत्सव का सरस राग वायु में गूाँजने लगा। ष्जस प्रकार दीपक को देखत े ी पतंग उसे घेर लेत े ैं उसी प्रकार बालाजी को देखकर लोग बडी शीघ्रता से उनके चतुहदाक एकत्र ो गये। भारत-सभा के सवा सौ सभ्यों ने आसभवादन ककया। उनकी सुन्दर वाहदायााँ और मनचले घोडों नेत्रों में खूब जात ेथे। इस सभा का एक-एक सभ्य जानत का सच्चा ह तैर्ी था और उसके उमंग-भरे शब्द लोगों के धचत्त को उत्सा से पूणा कर देत ेथें सडक के दोनों ओर दशाकों की शे्रणी थी। बिाइयााँ बज र ी थीं। पुष्प और मेवों की वषृ्ष्ट ो र ी थी। ठौर-ठौर नगर की ललनाएाँ श्रृंगार ककये, स्वणा के थाल में कपूर, िूल और चन्दन सलये आरती करती जाती थीं। और दकूाने नवागता विू की भााँनत सुसष्ज्जत थीं। सारा नगेर अपनी सजावट से वाहटका को लष्ज्जत करता था और ष्जस प्रकार श्रावण मास में काली घटाएं उठती ैं और र -र कर वन की गरज

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हृदय को काँ पा देती ै और उसी प्रकार जनता की उमंगवद्ावक ध्वनन (भारत माता की जय) हृदय में उत्सा और उत्तजेना उत्पन्न करती थी। जब बालाजी चौक में प ुाँच ेतो उन् ोंने एक अद्भतु दृश्य देखा। बालक-वनृ्द ऊदे रंग के लेसदार कोट पह ने, केसररया पगडी बााँिे ाथों में सुन्दर छडडयााँ सलये मागा पर खड ेथे। बालाजी को देखत े ी वे दस-दस की शे्रखणयों में ो गये एवं अपने डण्ड ेबजाकर य ओजस्वी गीत गाने लगे:-- बालाजी तरेा आना मुबारक ोवे। िनन-िनन भाग्य ैं इस नगरी के ; िनन-िनन भाग्य मारे॥ िनन-िनन इस नगरी के बासी ज ााँ तब चरण पिारे। बालाजी तरेा आना मुबारक ोवे॥ कैसा धचत्ताकर्ाक दृश्य था। गीत यद्यवप सािारण था, परन्तु अनके और सिे ुए स्वरों ने समलकर उसे ऐसा मनो र और प्रभावशाली बना हदया कक पांव रुक गये। चतुहदाक सन्नाटा छा गया। सन्नाटे में य राग ऐसा स ुावना प्रतीत ोता था जैसे रात्रत्र के सन्नाटे में बलुबुल का च कना। सारे दशाक धचत्त की भााँनत खड ेथे। दीन भारतवाससयों, तुमने ऐसे दृश्य क ााँ देख?े इस समय जी भरकर देख लो। तुम वेश्याओं के नतृ्य-वाद्य से सन्तुष्ट ो गये। वारांगनाओं की काम-लीलाएाँ ब ुत देख चुके, खूब सैर सपाटे ककये ; परन्तु य सच्चा आनन्द और य सुखद उत्सा , जो इस समय तुम अनुभव कर र े ो तुम् ें कभी और भी प्राप्त ुआ था? मनमो नी वेश्याओं के संगीत और सुन्दररयों का काम-कौतुक तुम् ारी वैर्नयक इच्छाओं को उत्तषे्जत करत े ै। ककन्तु तुम् ारे उत्सा ों को और ननबाल बना देत े ैं और ऐसे दृश्य तुम् ारे हृदयो में जातीयता और जानत-असभमान का संचार करत े ैं। यहद तुमने अपने जीवन मे एक बार भी य दृश्य देखा ै, तो उसका पववत्र धच न तुम् ारे हृदय से कभी न ीं समटेगा। बालाजी का हदव्य मुखमंडल आष्त्मक आनन्द की ज्योनत से प्रकासशत था और नेत्रों से जात्यासभमान की ककरणें ननकल र ी थीं। ष्जस प्रकार कृर्क अपने ल ल ात े ुए खेत को देखकर आनन्दोन्मत्त ो जाता ै, व ी दशा इस समय बालाजी की थी। जब रागे बन्द ो गेया, तो उन् ोंने कई डग आगे बढ़कर दो छोटे-छोटे बच्चों को उठा कर अपने कंिों पर बैठा सलया और बोले, ‘भारत-माता की जय!’

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इस प्रकार शनै: शनै लोग राजघाट पर एकत्र ुए। य ााँ गोशाला का एक गगनस्पशी ववशाल भवन स्वागत के सलये खडा था। आाँगन में मखमल का त्रबछावन त्रबछा ुआ था। ग ृद्वार और स्तंभ िूल-पष्त्तयों से सुसष्ज्जत खड ेथे। भवन के भीतर एक स स गायें बंिी ुई थीं। बालाजी ने अपने ाथों से उनकी न ॉँदों में खली-भूसा डाला। उन् ें प्यार से थपककय ॉँ दी। एक ववस्ततृ ग ृ मे संगमर का अष्टभुज कुण्ड बना ुआ था। व दिू से पररवूणा था। बालाजी ने एक चुल्लू दिू लेकर नेत्रों से लगाया और पान ककया। अभी आाँगन में लोग शाष्न्त से बैठने भी न पाये थे कई मनुष्य दौड े ुए आये और बोल-पष्ण्डत बदलू शास्त्री, सेठ उत्तमचन्र और लाला माखनलाल बा र खड ेकोला ल मचा र े ैं और क त े ै। कक मा को बालाजी से दो-दो बात ेकर लेने दो। बदल ूशास्त्री काशी के ववख्यात पंष्ण्डत थे। सुन्दर चन्र-नतलक लगात,े री बनात का अंगरखा पररिान करते औश्र बसन्ती पगडी बााँिते थे। उत्तमचन्र और माखनलाल दोनों नगर के िनी और लक्षािीश मनुष्य थे। उपाधि के सलए स स्रों व्यय करत ेऔर मुख्य पदाधिकाररयों का सम्मान और सत्कार करना अपना प्रिान कत्ताव्य जानत ेथे। इन म ापुरुर्ों का नगर के मनुष्यों पर बडा दबवा था। बदल ूशास्त्री जब कभी शास्त्रीथा करते, तो नन:संदे प्रनतवादी की पराजय ोती। ववशेर्कर काशी के पण्ड ेऔर प्राग्वाल तथा इसी पन्थ के अन्य िासमक्ग्िा तो उनके पसीने की जग रुधिर ब ाने का उद्यत र त ेथे। शास्त्री जी काशी मे ह न्द ूिमा के रक्षक और म ान ्स्तम्भ प्रससद्व थे। उत्मचन्र और माखनलाल भी िासमाक उत्सा की मूनता थे। ये लोग ब ुत हदनों से बालाजी से शास्त्राथा करने का अवसर ढंूढ र े थे। आज उनका मनोरथ पूरा ुआ। पंडों और प्राग्वालों का एक दल सलये आ प ुाँच।े बालाजी ने इन म ात्मा के आने का समाचार सुना तो बा र ननकल आये। परन्तु य ााँ की दशा ववधचत्र पायी। उभय पक्ष के लोग लाहठयााँ साँभाले अाँगरखे की बााँ ें चढाये गुथने का उद्यत थे। शास्त्रीजी प्राग्वालों को सभडने के सलये ललकार र े थे और सेठजी उच्च स्वर से क र े थे कक इन शूरों की िष्ज्जय ॉँ उडा दो असभयोग चलेगा तो देखा जाएगा। तुम् ार बाल-ब ॉँका न ोने पायेगा। माखनलाल सा ब गला िाड-िाडकर धचल्लात ेथे कक ननकल आये ष्जसे कुछ असभमान ो। प्रत्येक को सब्जबाग हदखा दूाँगा। बालाजी ने जब य रंग देखा तो राजा िमासस ं

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से बोले--आप बदलू शास्त्री को जाकर समिा दीष्जये कक व इस दषु्टता को त्याग दें, अन्यथा दोनों पक्षवालों की ानन ोगी और जगत में उप ास ोगा सो अलग। राजा सा ब के नेत्रों से अष्ग्न बरस र ी थी। बोले- इस पुरुर् से बातें करने में अपनी अप्रनतष्ठा समिता ूाँ। उसे प्राग्वालों के समू ों का असभमान ै परन्तु मै। आज उसका सारा मद चूणा कर देता ूाँ। उनका असभप्राय इसके अनतररक्त और कुछ न ीं ै कक वे आपके ऊपर वार करें। पर जब तक मै। और मरे प ॉँच पुत्र जीववत ैं तब तक कोई आपकी ओर कुदृष्ष्ट से न ीं देख सकता। आपके एक संकेत-मात्र की देर ै। मैं पलक मारत ेउन् ें इस दषु्टता का सवाद चखा दूंगा। बालाजी जान गये कक य वीर उमंग में आ गया ै। राजपूत जब उमंग में आता ै तो उसे मरने-मारने क अनतररक्त और कुछ न ीं सूिता। बोले--राजा सा ब, आप दरूदशी ोकर ऐसे वचन क त े ै? य अवसर ऐसे वचनों का न ीं ै। आगे बढ़कर अपने आदसमयों को रोककये, न ीं तो पररणाम बुरा ोगा। बालाजी य क ते-क त ेअचानक रुक गये। समुर की तरंगों का भााँनत लोग इिर-उिर से उमडत ेचले आते थे। ाथों में लाहठयााँ थी और नेत्रों में रुधिर की लाली, मुखमंडल कु्रि, भकुृटी कुहटल। देखत-ेदेखत ेय जन-समुदाय प्राग्वालों के ससर पर प ुाँच गया। समय सष्न्नकट था कक लाहठयााँ ससर को चुमे कक बालाजी ववद्युत की भााँनत लपककर एक घोड ेपर सवार ो गये और अनत उच्च स्वर में बोले: ‘भाइयो ! क्या अंिेर ै? यहद मुि ेआपना समत्र समित े ो तो िटपट ाथ नीच ेकर लो और पैरों को एक इंच भी आगे न बढ़ने दो। मुि ेअसभमान ै कक तुम् ारे हृदयों में वीरोधचत क्रोि और उमंग तरंधगत ो र े ै। क्रोि एक पववत्र उद्वोग और पववत्र उत्सा ै। परन्तु आत्म-संवरण उससे भी अधिक पववत्र िमा ै। इस समय अपने क्रोि को दृढ़ता से रोको। क्या तुम अपनी जानत के साथ कुल का कत्ताव्य पालन कर चुके कक इस प्रकार प्राण ववसजान करने पर कहटबद्व ो क्या तुम दीपक लेकर भी कूप में धगरना चा ते ो? ये उलोग तम् ारे स्वदेश बान्िव और तुम् ारे ी रुधिर ैं। उन् ें अपना शत्रु मत समिो। यहद वे मूखा ैं तो उनकी मूखाता का ननवारण करना तुम् ारा कताव्य ैं। यहद वे

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तुम् ें अपशब्द क ें तो तुम बुरा मत मानों। यहद ये तुमसे युद्व करने को प्रस्तुत ो तुम नम्रता से स्वीकार कर तो और एक चतुर वैद्य की भांनत अपने ववचार ीन रोधगयों की और्धि करने में तल्लीन ो जाओ। मेरी इस आशा के प्रनतकूल यहद तुममें से ककसी ने ाथ उठाया तो व जानत का शत्रु ोगा। इन समुधचत शब्दों से चतुहदाक शांनत छा गयी। जो ज ां था व व ीं धचत्र सलखखत सा ो गया। इस मनुष्य के शब्दों में क ां का प्रभाव भरा था,ष्जसने पचास स स्र मनुष्यों के उमडत े ुए उद्वेग को इस प्रकार शीतल कर हदया ,ष्जस प्रकार कोई चतुर सारथी दषु्ट घोडों को रोक लेता ैं, और य शष्क्त उसे ककसने की दी थी ? न उसके ससर पर राजमुकुट था, न व ककसी सेना का नायक था। य केवल उस पववत्र ्और नन:स्वाथा जानत सेवा का प्रताप था, जो उसने की थी। स्वजनत सेवक के मान और प्रनतष्ठा का कारण वे बसलदान ोत े ैं जो व अपनी जनत के सलए करता ै। पण्डों और प्राग्वालों नेबालाजी का प्रतापवान रुप देखा और स्वर सुना, तो उनका क्रोि शान्त ो गया। ष्जस प्रकार सूया के ननकलने से कु रा आ जाता ै उसी प्रकार बालाजी के आने से ववरोधियों की सेना नततर त्रबतर ो गयी। ब ुत से मनुष्य – जो उपरव के उदेश्य से आये थे – श्रद्वापूवाक बालाजी के चरणों में मस्तक िुका उनके अनुयानययों के वगा में सष्म्लत ो गये। बदलू शास्त्री ने ब ुत चा ा कक व पण्डों के पक्षपात और मूखारता को उतषे्जत करें,ककन्तु सिलता न ुई। उस समय बालाजी ने एक परम प्रभावशाली वक्ततृा दी ष्जसका एक –एक शब्द आज तक सुननेवालों के हृदय पर अंककत ैं और जो भारत –वाससयों के सलए सदा दीप का काम करेगी। बालाजी की वक्ततृाएं प्राय: सारगसभात ैं। परन्तु व प्रनतभा, व ओज ष्जससे य वक्ततृा अलंकृत ै, उनके ककसी व्याख्यान में दीख न ीं पडत।े उन् ोनें अपने वाकयों के जाद ूसे थोडी ी देर में पण्डो को अ ीरों और पाससयों से गले समला हदया। उस वकततृा के अंनतम शब्द थे: यहद आप दृढता से काया करत ेजाएंगे तो अवश्य एक हदन आपको अभीष्ट ससद्वव का स्वणा स्तम्भ हदखायी देगा। परन्तु िैया को कभी ाथ से न जाने देना। दृढता बडी प्रबल शष्क्त ैं। दृढता पुरुर् के सब गुणों का राजा ैं। दृढता वीरता का एक प्रिान अंग ैं। इसे कदावप ाथ से न जाने देना। तुम् ारी परीक्षाएं ोंगी। ऐसी दशा में दृढता के अनतररक्त कोई ववश्वासपात्र पथ-प्रदशाक

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न ीं समलेगा। दृढता यहद सिल न भी ो सके, तो संसार में अपना नाम छोड जाती ै’। बालाजी ने घर प ुचंकर समाचार-पत्र खोला, मुख पीला ो गया, और सकरुण हृदय से एक ठण्डी सांस ननकल आयी। िमासस ं ने घबराकर पूछा-– कुशल तो ै? बालाजी–-सहदया में नदी का बािं िट गया बस सा स मनुष्य ग ृ ीन ो गये। िमासस ं-- ओ ो। बालाजी–- स स्रों मनुष्य प्रवा की भेंट ो गये। सारा नगर नष्ट ो गया। घरों की छतों पर नावें चल र ी ैं। भारत सभा के लोग प ुच गयें ैं और यथा शष्क्त लोगों की रक्षा कर र ें ै, ककन्तु उनकी संख्या ब ुत कम ैं। िमासस ं(सजलनयन ोकर)-- े इश्वर। तू ी इन अनाथों को नाथ ैं। गयीं। तीन घण्टे तक ननरन्तर मूसलािार पानी बरसता र ा। सोल इंच पानी धगरा। नगर के उतरीय ववभाग में सारा नगर एकत्र ैं। न र ने कों ग ृ ै, न खाने को अन्न। शव की रासशयां लगी ुई ैं ब ुत से लोग भूखे मर जात े ै। लोगों के ववलाप और करुणाक्रन्दन से कलेजा मुं को आता ैं। सब उत्पात–पीडडत मनुष्य बालाजी को बुलाने की रट लगा र ैं। उनका ववचार य ै कक मेरे प ंुचने से उनके द:ुख दरू ो जायंगे। कुछ काल तक बालाजी ध्यान में मग्न र ें, तत्पश्चात बोले–मेरा जाना आवश्यक ै। मैं तुरंत जाऊंगा। आप सहदयों की , ‘भारत सभा’ की तार दे दीष्जये कक व इस काया में मेरी स ायता करने को उद्यत ्र ें। राजा सा ब ने सववनय ननवेदन ककया –- आज्ञा ो तो मैं चलूं? बालाजी -– मैं प ंुचकर आपको सूचना दूाँगा। मेरे ववचार में आपके जाने की कोई आवश्यकता न ोगी।

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िमासस ं --उतम ोता कक आप प्रात:काल ी जात।े बालाजी -– न ीं। मुि ेय ॉँ एक क्षण भी ठ रना कहठन जान पडता ै। अभी मुि ेव ां तक प ुचंने में कई हदन लगेंगें। पल–भर में नगर में ये समाचार िैल गये कक सहदयों में बाढ आ गयी और बालाजी इस समय व ां आ र ें ैं। य सुनत े ी स स्रों मनुष्य बालाजी को प ंुचाने के सलए ननकल पड।े नौ बजत–ेबजत ेद्वार पर पचीस स स्र मनुष्यों क समुदाय एकत्र ् ो गया। सहदया की दघुाटना प्रत्येक मनुष्य के मुख पर थी लोग उन आपनत–पीडडत मनुष्यों की दशा पर स ानुभूनत और धचन्ता प्रकासशत कर र े थे। सैकडों मनुष्य बालाजी के संग जाने को कहटबद्व ुए। सहदयावालों की स ायता के सलए एक िण्ड खोलने का परामशा ोने लगा। उिर िमासस ं के अन्त: पुर में नगर की मुख्य प्रनतष्ष्ठत ष्स्त्रयों ने आज सुवामा को िन्यावाद देने के सलए एक सभा एकत्र की थी। उस उच्च प्रसाद का एक-एक कौना ष्स्त्रयों से भरा ुआ था। प्रथम वजृरानी ने कई ष्स्त्रयों के साथ एक मंगलमय सु ावना गीत गाया। उसके पीछे सब ष्स्त्रयां मण्डल बांि कर गात े– बजात ेआरती का थाल सलये सुदामा के ग ृ पर आयीं। सेवती और चन्दा अनतधथ-सत्कार करने के सलए प ले ी से प्रस्तुत थी सुवामा प्रत्येक मह ला से गले समली और उन् ें आशीवादा हदया कक तुम् ारे अंक में भी ऐसे ी सुपूत बच्च ेखेलें। किर रानीजी ने उसकी आरती की और गाना ोने लगा। आज मािवी का मुखमंडल पुष्प की भांनत खखला ुआ था। मात्र व उदास और धचनंतत न थी। आशाएं ववर् की गांठ ैं। उन् ीं आशाओं ने उसे कल रुलाया था। ककन्तु आज उसका धचत्र उन आशाओं से ररक्त ो गया ैं। इससलए मुखमण्डल हदव्य और नेत्र ववकससत ै। ननराशा र कर उस देवी ने सारी आयु काट दी, परन्तु आशापूणा र कर उससे एक हदन का द:ुख भी न स ा गया। सु ावने रागों के आलाप से भवन गूंज र ा था कक अचानक सहदया का समाचार व ां भी प ंुचा और राजा िमासस ं य क त ेय सुनायी हदये – आप लोग बालाजी को ववदा करने के सलए तैयार ो जायें वे अभी सहदया जात े ैं।

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य सुनत े ी अिारात्रत्र का सन्नाटा छा गया। सुवामा घबडाकर उठी और द्वार की ओर लपकी, मानों व बालाजी को रोक लेगी। उसके सगं सब –की–सब ष्स्त्रयां उठ खडी ुई और उसके पीछे –पीछे चली। वजृरानी ने क ा -–चची। क्या उन् ें बरबस ववदा करोगी ? अभी तो वे अपने कमरे में ैं। ‘मैं उन् ें न जाने दूंगी। ववदा करना कैसा? वजृरानी-- मैं क्या सहदया को लेकर चाटंूगी? भाड में जाय। मैं भी तो कोई ंू? मेरा भी तो उन पर कोई अधिकार ै ? वजृरानी -–तुम् ें मेरी शपथ, इस समय ऐसी बातें न करना। स स्रों मनुष्य केवल उनके भरासे पर जी र ें ैं। य न जायेंगे तो प्रलय ो जायेगा। माता की ममता ने मनुष्यत्व और जानतत्व को दबा सलया था, परन्तु वजृरानी ने समिा–बुिाकर उसे रोक सलया। सुवामा इस घटना को स्मरण करके सवादा पछताया करती थी। उसे आश्चया ोता था कक मैं आपसे बा र क्यों ो गयी। रानी जी ने पूछा-ववरजन बालाजी को कौन जयमाल पह नायेगा। ववरजन –-आप। रानीजी -– और तुम क्या करोगी? ववरजन -–मैं उनके माथे पर नतलक लगाऊंगी। रानीजी – मािवी क ां ैं? ववरजन (िीरे–से)-- उसे न छडों। बेचार, अपने ्यान में मग्न ैं। सुवामा को देखा तो ननकट आकर उसके चरण स्पशा ककयें। सुवामा ने उन् ें उठाकर हृदय में लगाया। कुछ क ना चा ती थी, परन्तु ममता से मुख न खोल सकी। रानी जी िूलों की जयमाल लेकर चली कक उसके कण्ठ में डाल दूं, ककन्तु चरण थरााये और आगे न बढ सकीं। वजृरानी चन्दन का थाल लेकर चलीं, परन्तु नेत्र-श्रावण–िन की भनत बरसने लगें। तब मािव चली। उसके नेत्रों में पे्रम की िलक थी

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और मुं पर पे्रम की लाली। अिरों पर मह नी मुस्कान िलक र ी थी और मन पे्रमोन्माद में मग्न था। उसने बालाजी की ओर ऐसी धचतवन से देखा जो अपार पे्रम से भरी ुई। तब ससर नीचा करके िूलों की जयमाला उसके गले में डाली। ललाट पर चन्दन का नतलक लगाया। लोक–संस्कारकी न्यूनता, व भी पूरी ो गयी। उस समय बालाजी ने गम्भीर स स ली। उन् ें प्रतीत ुआ कक मैं अपार पे्रम के समुर में व ां जा र ा ंू। िैया का लंगर उठ गया और उसे मनुष्य की भांनत जो अकस्मात ्जल में किसल पडा ो, उन् ोंने मािवी की बां पकड ली। परन्तु ां :ष्जस नतनके का उन् ोंने स ारा सलया व स्वयं पे्रम की िार में तीब्र गनत से ब ा जा र ा था। उनका ाथ पकडत े ी मािवी के रोम-रोम में त्रबजली दौड गयी। शरीर में स्वेद-त्रबन्द ुिलकने लगे और ष्जस प्रकार वायु के िोंके से पुष्पदल पर पड े ुए ओस के जलकण पथृ्वी पर धगर जात े ैं, उसी प्रकार मािवी के नेत्रों से अशु्र के त्रबन्द ुबालाजी के ाथ पर टपक पड।े पे्रम के मोती थें, जो उन मतवाली आंखों ने बालाजी को भेंट ककये। आज से ये ओंखें किर न रोयेंगी। आकाश पर तारे नछटके ुए थे और उनकी आड में बैठी ुई ष्स्त्रयां य दृश्य देख र ी थी आज प्रात:काल बालाजी के स्वागत में य गीत गाया था : बालाजी तरेा आना मुबारक ोवे। और इस समय ष्स्त्रयां अपने मन –भावे स्वरों से गा र ीं ैं : बालाजी तरेा आना मुबारक ोवे। आना भी मुबारक था और जाना भी मुबारक ैं। आने के समय भी लोगों की आंखों से आंसूं ननकले थें और जाने के समय भी ननकल र ें ैं। कल वे नवागत के अनतधथ स्वागत के सलए आये थें। आज उसकी ववदाई कर र ें ैं उनके रंग – रुप सब पूवावत ै: परन्तु उनमें ककतना अन्तर ैं। ***

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26. मतवाली य़ोगगनी मािवी प्रथम ी से मुरिायी ुई कली थी। ननराशा ने उसे खाक मे समला हदया। बीस वर्ा की तपष्स्वनी योधगनी ो गयी। उस बेचारी का भी कैसा जीवन था कक या तो मन में कोई असभलार्ा ी उत्पन्न न ुई, या ुई ददैुव ने उसे कुसुसमत न ोने हदया। उसका पे्रम एक अपार समुर था। उसमें ऐसी बाढ आयी कक जीवन की आशाएं और असभलार्ाएं सब नष्ट ो गयीं। उसने योधगनी के से वस्त्र पह न सलयें। व सांसररक बन्िनों से मुक्त ो गयी। संसार इन् ी इच्छाओं और आशाओं का दसूरा नाम ैं। ष्जसने उन् ें नैराश्य–नद में प्रवाह त कर हदया, उसे संसार में समिना भ्रम ैं। इस प्रकार के मद से मतवाली योधगनी को एक स्थन पर शांनत न समलती थी। पुष्प की सुगधि ंकी भांनत देश-देश भ्रमण करती और पे्रम के शब्द सुनाती किरती थी। उसके प्रीत वणा पर गेरुए रंग का वस्त्र परम शोभा देता था। इस पे्रम की मूनता को देखकर लोगों के नेत्रों से अशु्र टपक पडत ेथे। जब अपनी वीणा बजाकर कोई गीत गाने लगती तो सुनने वालों के धचत अनुराग में पग जात ेथें उसका एक–एक शब्द पे्रम–रस डूबा ोता था। मतवाली योधगनी को बालाजी के नाम से पे्रम था। व अपने पदों में प्राय: उन् ीं की कीनता सुनाती थी। ष्जस हदन से उसने योधगनी का वेर् घारण ककया और लोक–लाज को पे्रम के सलए पररत्याग कर हदया उसी हदन से उसकी ष्जह्वा पर माता सरस्वती बैठ गयी। उसके सरस पदों को सुनने के सलए लोग सैकडों कोस चले जात ेथे। ष्जस प्रकार मुरली की ध्वनन सुनकर गोवपयंां घरों से वयाकुल ोकर ननकल पडती थीं उसी प्रकार इस योधगनी की तान सुनत े ी श्रोताजनों का नद उमड पडता था। उसके पद सुनना आनन्द के प्याले पीना था। इस योधगनी को ककसी ने ंसत ेया रोत ेन ीं देखा। उसे न ककसी बात पर र्ा था, न ककसी बात का ववर्ाद्। ष्जस मन में कामनाएं न ों, व क्यों ंसे और क्यों रोये? उसका मुख–मण्डल आनन्द की मूनता था। उस पर दृष्ष्ट पडत े ी दशाक के नेत्र पववत्र आनन्द से पररपूणा ो जात ेथे। ***