प्रेचिंद ानसोव - arvind guptaवववश न क द । दरद...

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हदीकोश www.hindikosh.in ेमचद मानसरोवर भाग 4

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  • ह िंदीकोश

    www.hindikosh.in

    पे्रमचिंद मानसरोवर

    भाग 4

    http://www.hindikosh.in/

  • Manasarovar – Part 4

    By Premchand

    य पुस्तक प्रकाशनाधिकार मुक्त ै क्योंकक इसकी प्रकाशनाधिकार अवधि समाप्त ो चुकी ैं।

    This work is in the public domain in India because its term of copyright

    has expired.

    यूनीकोड सिंस्करण: सिंजय खत्री. 2012

    Unicode Edition: Sanjay Khatri, 2012

    आवरण धचत्र: ववककपीडडया (पे्रमचिंद, मानसरोवर झील)

    Cover image: Wikipedia.org (Premchand, Manasarovar Lake).

    ह िंदीकोश

    Hindikosh.in

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  • Contents पे्ररणा ........................................................................................................... 4 सदगतत ...................................................................................................... 18 तगादा ........................................................................................................ 29 दो कबे्र ....................................................................................................... 40 ढपोरसिंख .................................................................................................... 60 डडमािंस्रेशन................................................................................................. 86 दारोगाजी .................................................................................................... 98 अभभलाषा ................................................................................................. 109 खुचड़ ....................................................................................................... 117 आगा-पीछा ............................................................................................... 132 पे्रम का उदय ............................................................................................ 158 सती ........................................................................................................ 173 मतृक-भोज ............................................................................................... 184 भूत ......................................................................................................... 208 सवा सेर गें ूूँ ............................................................................................ 224 सभ्यता का र स्य .................................................................................... 233 समस्या .................................................................................................... 242 दो सखखयाूँ ............................................................................................... 249 माूँगे की घड़ी ............................................................................................ 322 नाग-पूजा ................................................................................................. 344 ववनोद ...................................................................................................... 356

  • पे्ररणा

    मेरी कक्षा में सूययप्रकाश से ज्यादा ऊिमी कोई लड़का न था, बल्कक यों क ो कक अध्यापन-काल के दस वषों में मेरा ऐसी ववषम प्रकृतत के भशष्य से सामना न पड़ा था। कपट-क्रीड़ा में उसकी जान बसती थी। अध्यापकों को बनाने और धचढाने, पररश्रमी बालकों को छेड़ने और रुलाने में ी उसे आनन्द आता था। ऐसे-ऐसे षड़यन्त्र रचता, ऐसे ऐसे फन्दे डालता, ऐसे-ऐसे बन्िन बाूँिता कक देखकर आश् चयय ोता था। धगरो बन्दी में अभ्यस्त था।

    खुदाई फौजदारों की एक फौज बना ली थी और उसके आतिंक से पाठशाला पर शासन करता था। मुख्य अधिष् ठाता (वप्र िंभसपल) का आञा ा टल जाए, मगर क्या मजाल कक कोई उसके ुक्म की अवञा ा कर सके। स्कूल के चपरासी और अदयली उससे थर-थर काूँपत ेथी। इिंस्पेक्टर का मुआइना ोने वाला था, मुख्य अधिष् ठाता ने ुक्म हदया कक लड़के तनहदयष् ट समय से आि घिंटा प ले आ जाए, मगर मतलब य था कक लड़को को मुआइने के बारे में कुछ जरूरी बातें बता दी जाए। दस बज गए, इिंस्पेक्टर सा ब आकर बैठ गए, और मदरसे में एक लड़का भी न ीिं। ग्यार बजे सब छात्र तनकल पड़े, जैसे कोई वपिंजरा खोल हदया गया ो।

    इिंस्पेक्टर सा स ने कैकफयत में भलखा - डडसील्प्लन ब ुत खराब ैं।

    वप्र िंभसपल सा ब की ककरककरी ुई, अध्यापक बदनाम ुए और य सारी शरारत सूययप्रकाश की थी, मगर ब ुत पुछ-ताछ करने पर भी ककसी ने सूययप्रकाश का नाम तक न भलया, मुझ ेअपनी सिंचालन-ववधि पर गवय था, रेतनिंग कॉलेज में इस ववषय में मैंने ख्यातत प्राप् त की थी, मगर य ाूँ मेरा सारा सिंचालन-कौशल जैसे मोचाय खा गया था। कुछ अक्ल ी काम न करती कक शैतान को कैसे सिंमागय पर लाए। कई बार अध्यापकों की बैठक ुई, पर य धगर न खुली। नई भशक्षा-ववधि के अनुसार में दिंडनीतत का पक्षपाती न था, मगर य ाूँ म इस नीतत से केवल इसभलए ववरक्त थे कक क ीिं उपचार से रोग असाध्य न ो जाए। सूययप्रकाश को

  • स्कूल से तनकाल देने का प्रस्ताव भी ककया गया, पर इसे अपनी अयोग्यता का प्रमाण समझकर म इस नीतत का व्यव ार करने का सा स न कर सके। बीस-बाईस अनुभवी और भशक्षा-शास त्र से आचायय एक बार -तरे साल के उद्दिंड बालक का सुिार न कर सकें , य ववचार तनराशाजनक था। यों तो सारा स्कूल उससे त्राह -त्राह करता था, मगर सबसे ज्यादा सिंकट में मैं था, क्योंकक व मेरी कक्षा का छात्र था और उसकी शरारतों का कुफल मुझ ेभोगना पड़ता था।

    मैं स्कूल आता, तो रदम य ी खटका लगा र ता था कक देखें आज क्या ववपल्तत आती ैं। एक हदन मैंने अपनी मेज की दराज खोली, तो उसमें से एक बड़ा-सा मेढक तनकल पड़ा। मैं चौंककर पीछे टा तो क्लास में शोर मच गया। उसकी ओर सरोष नेत्रों से देखकर र गया। सारा घिंटा उपदेश में बीत गया और व पट्ठा भसर झुकाए नीच ेमुस्करा र ा था। मुझ ेआश् चयय ोता था कक य नीच ेकी कक्षाओिं में कैसे पास ुआ था।

    एक हदन मैंने गुस्से से क ा- 'तुम इस कक्षा से उम्र भर न ीिं पास ो सकत।े'

    सूययप्रकाश ने अववचभलत भाव से क ा - 'आप मेरे पास ोने की धचन्ता न करें , मैं मेश पास ुआ ूूँ और अबकी भी ूूँगा।'

    'असम्भव!'

    'असम्भव सम्भव ो जाएगा!'

    मैं आश् चयय से उसका मुूँ देखना लगा। ज ीन-से-ज ीन लड़का भी अपनी सफलता का दावा इतने तनववयवाद रूप से न कर सकता था। मैंने सोचा - 'व प्रश् न-पत्र उड़ा लेता ोगा। मैंने प्रततञा ा की, अबकी इसकी एक चाल भी न चलने दूूँगा। देखूूँ, ककतने हदन इस कक्षा में पड़ा र ता ैं। आप घबराकर तनकल जाएगा।'

  • वावषयक परीक्षा के अवसर पर मैंने असािारण देखभाल से काम भलया, मगर जब सूययप्रकाश का उततर-पत्र देखा, तो मेरे ववस्मय की सीमा न र ी। मेरे दो पच ेथे, दोनों ी में उसके नम्बर कक्षा में सबसे अधिक थे। मुझ ेखूब मालूम था कक व मेरे ककसी पच ेका कोई प्रश् न भी ल न ीिं कर सकता। मैं इसे भस्ध कर सकता था मगर उसके उततर-पत्र का क्या करता! भलवप में इतना भेद न था जो कोई सन्दे उतपन्न कर सकता। मैंने वप्र िंभसपल से क ा, तो व भी चकरा गए, मगर उन् ें भी जान-बूझकर मक्खी तनगलनी पड़ी। मैं कदाधचत स्वभाव ी से तनराशावादी ूूँ। अन्य अध्यापकों को मैं सूययप्रकाश के ववषय में जरा भी धचल्न्तत न पाता था। मानो ऐसे लड़को का स्कूल में आना कोई नई बात न ीिं, मगर मेरे भलए व एक ववकट र स्य था। अगर य ी ढिंग र े, तो एक हदन या तो जेल में ोगा, या पागलखाने में।

    उसी साल मेरी तबादला ो गया। यद्यवप य ाूँ की जलवायु मेरे अनुकूल थी, वप्र िंभसपल और अन्य अध्यापकों से मैत्री ो गई थी। मैं अपने तबादले से खुश ुआ क्योंकक सूययप्रकाश मेरे मागय का काूँटा न र ेगा। लड़कों ने मुझ ेववदाई की दावत दी और सब-के-सब स्टेशन तक प ुूँचाने आए। उस वक्त सभी लड़के आूँखों में आूँसू भरे ुए थे। मैं भी अपने आूँसुओिं को न रोक सका। स सा मेरी तनगा सूययप्रकाश पर पड़ी, जो सबसे पीछे लल्ज्जत खड़ा था। मुझ ेऐसा मालूम ूआ कक उसकी आूँखें भी भीगी थी। मेरा जी बार-बार चा ता था कक चलते-चलत ेउससे दो-चार बातें कर लूूँ। शायद व भी मुझसे कुछ क ना चा ता था, मगर न मैंने प ले बात की, न उसने, ालािंकक मुझ ेब ुत हदनों तक इसका खेद र ा। उसकी खझझक तो क्षमा के योग्य थी, पर मेरा अवरोि अक्षम्य था, सम्भव था, उस करुणा और ग्लातन की दशा में मेरी दो-चार तनष्कपट बातें उसके हदल पर असर कर जाती, मगर इन् ीिं खोए ुए अवसरों का नाम तो जीवन ैं।

    गाड़ी मन्द गतत से चली, लड़के कई कदम तक उसके साथ दौड़े, मैं खखड़की से बा र भसर तनकालें खड़ा था। कुछ देर मुझ ेउनके ह लत ेरूमाल नजर आए। कफर

  • वे रेखाएूँ आकाश में ववलीन ो गई, मगर एक अकपकाय मूततय अब भी प्लेटफामय पर खड़ी थी। मैंने अनुमान ककया व सूययप्रकाश ैं। उस समय मेरा हृदय ककसी ववकल कैदी की भाूँतत घणृा, माभलन्य और उदासीनता के बन्िनों को तोड़-तोड़कर उसके गले भमलने के भलए तड़प उठा।

    नए स्थान की नई धचन्ताओिं ने ब ुत जकद मुझ ेअपनी ओर आकवषयत कर भलया। वपछले हदनों की याद एक सरत बनकर र गई। न ककसी का खत आया, न मैंने ी कोई खत भलखा। शायद दतुनया का य ी दस्तूर ैं। वषाय के बाद वषाय का ररयाली ककतने हदनों र ती ैं। सिंयोग से मुझ ेइिंग्लैंड में ववद्याभ्यास करने का अवसर भमल गया। व ाूँ तीन साल लग गए।

    व ाूँ से लौटा तो एक कॉलेज का वप्रिंभसपल बना हदया गया। य भसव्ध मेरे भलए बबककुल आशातीत थी। मेरी भावना स्वप्न में भी इतनी दरू न उड़ी थी, ककन्तु पदभलप्सा अब ककसी और भी ऊूँ ची डाली पर आश्रय लेना चा ती थी। भशक्षामिंत्री से रब्त-जब्त पैदा ककया। मिंत्री म ोदय मुझ पर कृपा रखत ेथे, मगर वास्तव में भशक्षा के मौभलक भस्ध ान्तों का उन् ें ञा ान न था। मुझ ेपाकर उन् ोंने सारा भार मुझ पर डाल हदया। घोड ेपर सवार थे, लगाम मेरे ाथ में थी। फल य ुआ कक उनके राजनैततक ववपक्षक्षयों से मेरा ववरोि ो गया। मुझ पर जा-बेजा आक्रमण ोने लगे। मैं भस्ध ान्त रूप से अतनवायय भशक्षा का ववरोिी ूूँ, मेरा ववचार ैं कक र मनुष्य को उन ववष्यों में ज्यादा स्वािीनता ोनी चाह ए, ल्जनका उनसे तनज सम्बन्ि ैं। मेरा ववचार ैं कक यूरोप में अतनवायय भशक्षा की जरूरत ैं, भारत में न ीिं। भौततकता पल्श् चमी सभ्यता का मूल तततव ैं। व ाूँ ककसी काम की पे्ररणा, आधथयक लाभ के आिार पर ोती ैं। ल्जन्दगी की जरूरत ज्यादा ैं, इसभलए जीवन-सिंग्राम भी अधिक भीषण ैं। माता-वपता भोग के दास ोकर बच्चों को जकद-से-जकद कुछ कमाने पर मजबूर करत े ैं। इसकी जग कक य मद का तयाग करके एक भशभलिंग रोज बचत कर लें, वे अपने कमभसन बच्चों के एक भशभलिंग की मजदरूी करने के भलए दबाएूँगें। भारतीय जीवन में साल्तवक सरलता ैं। म उस वक्त तक बच्चों से मजदरूी न ीिं करात,े जब तक पररल्स्थतत में

  • वववश न कर दे। दररद्र-से-दररद्र ह न्दसु्तानी मजदरू भी भशक्षा के उपकारों का कायल ैं। उसके मन में य अभभलाषा ोती ैं कक मेरा बच्चा चार अक्षर पढ जाए। इसभलए न ीिं कक उसे कोई अधिकार भमलेगा, बल्कक इसभलए की ववद्या मानवी शील का एक शृिंगार ैं। अगर य जानकर भी व अपने बच्चें को मदरसे न ीिं भेजता, तो समझ लेना चाह ए कक व मजबूर ैं। ऐसी दशा में उस पर कानून का प्र ार करना मेरी दृल्ष् ट में न्याय-सिंगत न ीिं ैं। इसके भसवाय मेरे ववचार में अभी मारे देश में योग्य भशक्षकों का अभाव ैं। अ्ध य-भशक्षक्षत और अकपवेतन पाने वाले अध्यापकों से आप य आशा न ीिं रख सकत े ैं कक व कोई ऊूँ चा आदशय आपके सामने रख सकें । अधिक-से-अधिक इतना ोगा कक चार-पाूँच वषय में बालक को अक्षर-ञा ान ो जाएगा। मैं इसे पवयत-खोदकर चुह या तनकालने के तुकय समझता ूूँ। व्यस्कता प्राप्त ो जाने पर य मसला एक म ीने में आसानी से तय ककया जा सकता ैं। मैं अनुभव से क सकता ूूँ कक युवावस्था में म ल्जनता ञा ान एक म ाने में प्राप् त कर सकत े ैं, उतना बाकयवस्था में तीन साल में भी न ीिं कर सकते, कफर खामख्वा बच्चों को मदरसे में कैद करने से क्या लाभ? मदरसे के बा र र कर उसे स्वच्छ वायु तो भमलती ैं, प्राकृततक अनुभव तो ोत।े पाठशाला में बन्द करके आप उसके मानभसक औऱ शारीररक दोनों वविानों की जड़ काट देत े ैं। इसीभलए जब प्रािंतीय व्यवस्थापक-सभा में अतनवायय भशक्षा का प्रस्ताव पेश ुआ, तो मेरी पे्ररणा से भमतनस्टर सा ब ने उसका ववरोि ककया।

    नतीजा य ुआ कक प्रस्ताव अस्वीकृत ो गया, कफर क्या था, भमतनस्टर सा ब की और मेरी व ले-दे शुरू ुई कक कुछ न पूतछए। व्यक्तगत आक्षेप ककए जाने लगे। मैं गरीब की बीवी था, मुझ ेसबकी भाभी बनना पड़ा। मुझ ेदेशद्रो ी, उन्नतत का शत्रु और नौकरशा ी का गलुाम क ा गया। मेरे कॉलेज में जरा-सी भी कोई बात ोती तो कौंभसल में मुझ पर दोषारोपण की वषाय ोने लगती। मैंने एक चपरासी को पथृक ककया। सारी कौंभसल पिंजे झाड़कर मेरे पीछे पड़ गई। आखखर भमतनस्टर सा ब को मजबूर ोकर उस चपरासी को ब ाल करना पड़ा। य अपमान मेरे भलए असह्य था। शायद कोई भी इसे स न न कर सकता।

  • भमतनस्टर सा ब से मुझ ेभशकायत न ीिं। व मजबूर थे। ाूँ, इस वातावरण में काम करना मेरे भलए दसु्साध्य ो गया। मुझ ेअपने कॉलेज के आिंतररक सिंगठन का भी अधिकार न ीिं। अमुक क्यों न ीिं परीक्षा में भेजा गया, अमुक के बदले अमुक को क्यों न ीिं छात्रावतृत दी गई, अमुक अध्यापक को अमुक कक्षा क्यों न ीिं दी जाती, इस तर के सार ीन आक्षेपों ने मेरी नाक में दम कर हदया था। इस नई चोट ने कमर तोड़ दी। मैंने इस्तीफा दे हदया।

    मुझ ेभमतनस्टर सा ब से इतनी आशा अवश्य थी कक व कम-से-कम इस ववषय में न्याय-परायणता से काम लेंगे, मगर उन् ोंने न्याय की जग नीतत को मान्य समझा और मुझ ेकई साल की भल्क्त का य फल भमला कक मैं पदच्युत कर हदया गया। सिंसार का ऐसा कटु अनुभव मुझ ेअब तक न ुआ था। ग्र भी कुछ बुरे आ गए थे। उन् ीिं हदनों पत नी का दे ान्त ो गया। अल्न्तम दशयन भी न कर सका।

    सन्ध्या-समय नदी-तट पर सैर करने गया था। व कुछ अस्वस््य थी। लौटा, तो उसकी लाश भमली। कदाधचत हृदय की गतत बन्द ो गई थी। इस आघात ने कमर तोड़ दी। माता के प्रसाद और आशीवायद से बड़े-बड़ ेम ान पुरुष कृताथय ो गए ैं। मैं जो कुछ ुआ, पत नी के प्रसाद और आशीवायद से ुआ, व मेरे भाग्य की वविात्री थी। ककतना अलौककक तयाग था, ककतना ववशाल िैयय। उनके मािुयय में तीक्ष्णता का नाम भी न था। मुझ ेयाद न ीिं आता कक मैंने कभी उनकी भकुृटी सिंकुधचत देखी ो, व तनराश ोना तो जानती ी न थी। मैं कई बार सख्त बीमार पड़ा ूूँ। वैद्य तनराश ो गए, पर व अपने िैयय और शाल्न्त से अणु-मात्र भी ववचभलत न ीिं ुई। उन् ें ववश् वास था कक मैं अपने पतत के जीवन-काल में मरूूँ गी और व ी ुआ भी। मैं जीवन में अब तक उन् ीिं के स ारे खड़ा था! अब व अवलम्ब ी न र ा, तो जीवन क ाूँ र ता। खाने और सोने का नाम जीवन न ीिं ैं। जीवन का नाम ैं, सदैव आगे बढत ेर ने की लगन का। य लगन गायब ो गई। मैं सिंसार से ववरक्त ो गया और एकान्तवास में जीवन के हदन व्यतीत करने का तनश् चय करके एक छोटे से गाूँव में जा बसा। चारों तरफ

  • ऊूँ चे-ऊूँ च ेटीले थे, एक ओर गिंगा ब ती थी। मैंने गिंगा के ककनारे एक छोटा-सा घर बना भलया औऱ उसी में र ने लगा, मगर काम करना तो मानवी स्वभाव ैं। बेकारी में जीवन कैसे कटता। मैंने एक छोटी-सी पाठशाला खोल ली, एक वकृ्ष की छाूँ में गाूँव के लड़कों का जमा करके कुछ पढाया करता था। उसकी य ाूँ इतनी ख्यातत ुई कक आस-पास के गाूँव के छात्र भी आने लगे।

    एक हदन जब मैं अपनी कक्षा को पढा र ा था कक पाठशाला के पास एक मोटर आकर रूकी और उसमें से उस ल्जले के डडप्टी कभमश् नर उतर पड़।े मैं उस समय केवल एक कुताय और िोती प ने ुए था। इस वेश में एक ाककम से भमलत ेमुझ ेशमय आ र ी थी। डडप्टी कभमश् नर मेरे पास आए तो मैंने झेंपत े ुए ाथ बढाया, मगर व मुझसे ाथ भमलाने के बदले मेरे पैरों की ओर झुके और उनपर भसर रख हदया। मैं कुछ ऐसा भसटवपटा गया कक मेरे मुूँ से एक शब्द भी न तनकला। मैं अिंगे्रजी अच्छी भलखता ूूँ, दशयनशास्त्र का भी आचायय ूूँ, व्याख्यान भी अच्छे दे लेता ूूँ, मगर इन गुणों में एक भी श्र्ध ा के योग्य न ीिं। श्र्ध ा तो ञा ातनयों और सािुओिं ी के अधिकार ी वस्तु ैं। अगर मैं ब्राह्मण ोता तो एक बात थी। ाूँलाकक एक भसववभलयन का ककसी ब्राह्मण के पैरों पर भसर रखना अधचिंतनीय ैं।

    मैं अभी इसी ववस्मय में पड़ा था कक डडप्टी कभमश् नर ने भसर उठाया और मेरी तरफ देखकर क ा - 'आपने शायद मुझ ेप चाना न ीिं।'

    इतना सुनत े ी मेरे स्मतृत-नेत्र खुल गए, बोला - 'आपका नाम सूययप्रकाश तो न ीिं ैं?'

    'जी ाूँ, मैं आपका व ी अभागा भशष्य ूूँ।'

    'बार -तरे वषय ो गए।'

  • सूययप्रकाश ने मुस्कराकर क ा - 'अध्यापक लड़कों को भूल जात े ैं, पर लड़के उन् ें मेशा याद रखत े ैं।'

    मैने उसी ववनोद के भाव से क ा - 'तुम जैसे लड़कों को भलूना असम्भव ैं।'

    सूयुयप्रकाश ने ववनीत स्वर में क ा - 'उन् ीिं अपरािों को क्षमा कराने के भलए आपकी सेवा में आया ूूँ। मैं सदैव आपकी खबर लेता र ता था। जब आप इिंग्लैंड गए, तो मैंने आपके भलए बिाई का पत्र भलखा, पर उसे भेज न सका। जब आप वप्रिंभसपल ुए, मैं इिंग्लैंड जाने को तैयार था, व ाूँ मैं पबत्रकाओिं में आपके लेख पढता र ता था। जब लौटा तो मालूम ुआ कक आपने इस्तीफा दे हदया और ककसी दे ात में चले गए ैं। इस ल्जले में आए ुए मुझ ेएक वषय से अधिक ुआ, पर इसका जरा भी अनुमान न था कक आप य ाूँ एकान्त सेवन कर र े ैं। इस उजाड़ गाूँव में आपका जी कैसे लगता ैं? इतनी ी अवस्था में आपने वानप्रस्थ ले भलया?'

    मैं न ीिं क सकता कक सूययप्रकाश की उन्नतत देखकर मुझ ेककतना आश् चयय ुआ। अगर व मेरा पुत्र ोता तो भी इससे अधिक आनन्द न ोता। मैं उसे अपने झोपड़ ेमें लाया और अपनी रामक ानी क सुनाई।

    सूययप्रकाश ने क ा - 'तो य कह ए कक आप अपने ी भाई के ववश् वासघात के भशकार ुए। मेरा अनुभव तो अभी ब ुत कम ैं, मगर इतने हदनों में मुझ ेमालूम ो गया ैं, कक म लोग अभी अपनी ल्जम्मेदाररयों को पूरा करना न ीिं जानत।े भमतनस्टर से भेंट ुई तो पूछूूँगा, कक य ी आपकी िमय था।'

    मैने जबाव हदया - 'भाई, उनका दोष न ीिं ैं, सम्भव ैं, इस दशा में मैं भी व ी करता, जो उन् ोंने ककया। मुझ ेअपनी स्वाथयभलप्सा की सजा भमल गई और उसके भलए मैं उनकी ऋणी ूूँ। बनावट न ीिं, सतय क ता ूूँ कक य ाूँ मुझ ेजो शाल्न्त ैं, व और क ीिं न थी। इस एकान्त-जीवन में कुछ जीवन के तततवों का व ञा ान ुआ, जो सम्पल्तत और अधिकार की दौड़ से ककसी तर सम्भव न था, इतत ास

  • और भूगोल के पोथे चाटकर और यूरोप के ववद्यालयों की शरण में जाकर भी मैं अपनी ममता को न भमटा सका, बल्कक य रोग हदन-हदन और भी असाध्य ोता जाता था। आप सीहढयों पर पाूँव रखे बगैर छत की ऊूँ चाई तक न ीिं प ुूँच सकते, सम्पल्तत की अट्टाभलका तक प ुूँचने में दसूरो की ल्जन्दगी ी जीनों का काम देती ैं। आप कुचलकर ी लक्ष्य तक प ुूँच सकत े ैं. व ाूँ सौजन्य और स ानुभूतत का स्थान ी न ीिं। मुझ ेऐसा मालूम ोता ैं कक उस वक्त मैं ह िंसक जन्तुओिं से तघरा ुआ था और मेरी शल्क्तयाूँ अपनी आतमरक्षा में ी लगी र ती थीिं। य ाूँ मैं अपने चारों और सन्तोष और सरलता देखता ूूँ। मेरे पास जो लोग आत े ैं, कोई स्वाथय लेकर न ीिं आत ेऔर न मेरी सेवाओिं से प्रशिंसा या गौरव की लालसा ैं।'

    य क कर मैंने सूययप्रकाश के च ेरे की ओर गौर से देखा, कपट मुस्कान की जग ग्लातन का रिंग था। शायद य हदखाने आया था कक आप ल्जसकी तरफ से इतने तनराश ो गए थे, व अब इस पद को सशुोभभत कर र ा ैं। व मुझसे अपने सददु्योग का बखान कराना चा ता था, मुझ ेअब अपनी भूल मालूम ुई, एक सम्पन्न आदमी के सामने समवृ्ध की तनन्दा उधचत न ीिं। मैंने तुरन्त बात पलट कर क ा - 'मगर तुम अपना ाल तो क ो। तुम् ारी य काया पलट कैसे ुई? तुम् ारी शरारतों को याद करता ूूँ तो अब भी रोएूँ खड़ े ो जात े ैं, ककसी देवता के वरदान के भसवा और तो क ीिं य ववभूतत न प्राप् त ो सकती थी।'

    सूययप्रकाश ने मुस्कराकर क ा - 'आपका आशीवायद था।'

    मेरे ब ुत आग्र करने पर सूययप्रकाश ने अपना वतृान्त सुनाना शुरू ककया - 'आपके चले आने के कई हदनों बाद मेरा ममेरा भाई स्कूल में दाखखल ुआ, उसकी उम्र आठ-नौ साल से ज्यादा न थी, वप्र िंभसपल सा ब उसे ोस्टल में न लेत ेथे और न मामा सा ब उसके ठ रने का प्रबन्ि कर सकत ेथे। उन् ें इस सिंकट में देखकर मैंने वप्र िंभसपल सा ब से क ा - उसे मेरे कमरे में ठ रा दील्जए।

  • 'वप्र िंभसपल सा ब ने इसे तनयम-ववरू्ध बतलाया, इस पर मैंने बबगड़ उसी हदन ोस्टल छोड़ हदया और एक ककराए का मकान लेकर मो न के साथ र ने लगा। उसकी माूँ कई साल प ले मर चुकी थी। इतना दबुला-पतला, कमजोर और गरीब लड़का था कक प ले ी हदन से मुझ ेउस पर दया आने लगी। कभी उसके भसर में ददय ोता, कभी ज्वर ो आता। आए हदन कोई-न-कोई बीमारी खड़ी र ती थी। इिर साूँझ ुआ और झपककयाूँ आने लगी। बड़ी मुल्श्कल से भोजन करने उठता। हदन चढे सोया करता औऱ जब तक मैं गोद में उठाकर बबठा न देता, उठने का नाम न लेता। रात को ब ुिा चौंक कर मेरी चारपाई पर आ जाता। मेरे गले से भलपटकर सोता। मुझ ेउस पर कभी क्रोि न आता। क न ीिं सकता, क्यों उससे पे्रम ो गया। मैं ज ाूँ प ले नौ बजे सोकर उठता था, अब तड़के उठ बैठता और उसके भलए दिू गरम करता। कफर उसे उठा कर ाथ-मुूँ िुलाता और नाश्ता कराता। उसके स्वास््य के ववचार से तनतय वायु सेवन को ले जाता। मैं जो कभी ककताब लेकर न बैठता था, उसे घन्टों पढाया करता। मुझ ेअपने दातयतव का इतना ञा ान कैसे ो गया, इसका मुझ ेआश् चयय ैं, उसे कोई भशकायत ो जाती तो मेरे प्राण नखों मे समा जात।े डॉक्टर के पास दौड़ता, दवाएूँ लाता और मो न की खुशामद करके दवा वपलाता। सदैव य धचन्ता लगी र ती थी कक कोई बात उसकी इच्छा के ववरु्ध न जाए, इस बेचारे का य ाूँ मेरे भसवा दसूरा कौन ैं? मेरे चिंचल भमत्रों में से कोई उसे धचढाता या छेड़ता तो मेरी तयोररयाूँ बदल जाती थी! कई लड़के तो मुझ ेबूढी दाई क कर धचढात ेथे, पर मैं ूँस कर टाल देता था, मैं उसके सामने एक अनुधचत शब्द भी मुूँ से न तनकालता। य शिंका ोती थी कक क ीिं मेरी देखा-देखी य भी खराब न ो जाए, मैं उसके सामने इस तर र ना चा ता था कक व मुझ ेअपना आदशय समझ ेऔर इसके भलए य मानी ुई बात थी कक मैं अपना चररत्र सुिारूूँ । व मेरा नौ बजे सोकर उठना, बार बड ेतक मटरगश्ती करना, नई-नई शरारतों के मिंसूबे बाूँिना और अध्यापकों की आूँख बचाकर स्कूल से उड़ जाना, सब आप- ी-आप जाता र ा। स्वास््य और चररत्र पालन के भस्ध ान्तों का मैं शत्र ुथा, पर अब मुझसे बढकर तनयमों को रक्षक दसूरा न था। मैं ईश् वर का उप ास ककया करता, मगर अब पक्का आल्स्तक ो

  • गया था। व बड़ ेसरल भाव से पूछता, परमातमा सब जग र त े ैं, तो मेरे पास भी र तें ोंगे, इस प्रश् न का मजाक उड़ाना मेरे भलए असम्भव था।'

    'मैं क ता - ाूँ परमातमा तुम् ारे, मारे सबके पास र त े ैं और मारी रक्षा करत े ैं। य आश् वासन पाकर उसका च ेरा आनन्द से खखल उठता था, कदाधचत व परमातमा की सतता का अनुभव करने लगता था, साल भर में मो न कुछ से कुछ ो गया।

    मामा सा ब दोबारा आए, तो उसे देकर चककत ो गए। आूँखों में आूँसू भरकर बोले - बेटा! तुमने इसको ल्जला भलया, न ीिं तो मैं तनराश ो चुका था, इसका पुनीत फल तुम् ें ईश् वर देंगे। इसकी माूँ स्वगय में बैठी ुई तुम् ें आशीवायद दे र ी ैं।

    'सूययप्रकाश की आूँखें भी उस वक्त सजल ो गई थी।

    'मैने पूछा - मो न भी तुम् ें ब ुत प्यार करता ोगा?

    'सूययप्रकाश ने सजल नेत्रों में सरत भरा आनन्द कफर चमक उठा, कफर बोला - व मुझ ेएक भमनट के भलए भी न छोड़ता था, मेरे साथ बैठता, मेरे साथ खाता, मेरे साथ सोता, मैं ी उसका सब कुछ था। आ ! व सिंसार में न ीिं ैं, मगर मेरे भलए व अब भी उसी तर जीता- जागता ैं। मैं जो कुछ ूूँ, उसी का बनाया ुआ ूूँ, अगर व दैवी वविान की भाूँतत मेरा पथ-प्रदशयक न बन जाता, तो शायद आज मैं ककसी जेल में पड़ा ोता। एक हदन मैंने क हदया था, अगर तुम रोज न ा न भलया करोगे तो मैं तुमसे न बोलूूँगा। न ाने से व न जाने क्यों जी चुराता था, मेरी िमकी का फल य ुआ कक व तनतय प्रातःकाल न ाने लगा, ककतनी ी सदी क्यों न ो, ककतनी ी ठिंडी वा चले, लेककन स्नान अवश्य करता था। देखता र ता था, मैं ककस बात से खुश ोता ूूँ। एक हदन भमत्रों के साथ धथयेटर देखने चला गया, ताकीद कर गया था कक तुम खाना खाकर सो र ना। तीन बजे रात को लौटा, तो देखा कक व बैठा ुआ ैं!

  • मैंने पूछा - तुम सोए न ीिं?

    'उसने क ा - नीिंद न ीिं आई।

    'उस हदन से मैंने धथयेटर जाने का नाम न भलया। बच्चों में प्यार की जो भूख ोती ै - दिू, भमठाई और खखलौनों से भी ज्यादा मादक, जो माूँ की गोद के सामने सिंसार की तनधि की भी परवा न ीिं करती, मो न की व भूख कभी सन्तुष् ट न ोती थी। प ाड़ों से टकराने वाली सारस की आवाज की तर व सदैव उसकी नसों में गूूँजा करता थी। जैसे भूभम पर फैली ुई लता कोई स ारा पात े ी उससे धचपट जाती ैं, व ी ाल मो न का था। व मुझसे ऐसा धचपट गया था कक पथृक ककया जाता, तो उसकी कोमल बेल के टुकड़े-टुकड़ े ो जात।े व मेरे साथ तीन साल र ा औऱ तब मेरे जीवन में प्रकाश की एक रेखा डालकर अन्िकार नें ववलीन ो गया। उस जीणय काया में कैसे-कैसे अरमान भरे ुए थे। कदाधचत ईश् वर ने मेरे जीवन में एक अवलम्ब की सलृ्ष् ट के भलए उसे भेजा था। उद्देश्य पूरा ो गया तो व क्यों र ता।

    'गभमययों की तातील थी। दो तातीलों में मो न मेरे साथ ी र ा था। मामाजी के आग्र करने पर भी घर न आया। अबकी कॉलेज के छात्रों ने कश्मीर-यात्रा करने का तनश् च ककया और मुझ ेउसका अध्यक्ष बनाया। कश्मीर यात्रा की अभभलाषा मुझ ेधचरकाल से थी। इसी अवसर को गनीमत समझा। मो न को मामाजी के पास भेजकर मैं कश्मीर चला गया। दो म ीने बाद लौटा तो मालूम ुआ मो न बीमार ैं। कश्मीर में मुझ ेबार-बार मो न की याद आती थी और जी चा ता था, लौट जाऊूँ । मुझ ेउस पर इतना पे्रम ैं , इसका अन्दाज मुझ ेकश्मीर जाकर ुआ, लेककन भमत्रों ने पीछा न छोड़ा। उसकी बीमारी की खबर पात े ी मैं अिीर ो उठा और दसूरे ी हदन उसके पास जा प ुूँचा। मुझ ेदेखत े ी उसके पीले और सूखे च ेरे पर आनन्द की स्फूततय झलक पड़ी। मैं दौड़कर उसके गले से भलपट

  • गया। उसकी आूँखों में व दरूदृल्ष् ट और च ेरे पर व अलौककक आभा थी जो मिंडराती ुई मतृयु की सूचना देती ैं।

    'मैने आवेश से काूँपत े ुए स्वर में पूछा - य तुम् ारी क्या दशा ैं मो न? दो म ीने में य नौबत प ुूँच गई?

    'मो न ने सरल मुस्कान के साथ क ा - आप कश्मीर की सरै करने गए थे, मैं आकाश की सैर करने जा र ा ूूँ।

    'मगर य दःुख की क ानी क कर मैं रोना और रूलाना न ीिं चा ता। मेरे चले जाने के बाद मो न इतने पररश्रम से पढने लगा मानो तपस्या कर र ा ो, उसे य िुन सवार ो गई थी कक साल भर की पढाई दो म ीने में समाप् त कर ले और स्कूल खुलने के बाद मुझसे इस श्रम का प्रशिंसारूपी उप ार प्राप् त करे। मैं ककस तर उसकी पीठ ठोकूूँ गा, शाबाशी दूूँगा, अपने भमत्रों से बखान करूूँ गा, इन भावनाओिं ने अपने सारे बालोधचत उतसा और तकलीनता से उसे वशीभूत कर भलया। मामाजी को दफ्तर के कामों से इतना अवकाश क ाूँ कक उसके मनोरिंजन का ध्यान रखें। शायद उसे प्रततहदन कुछ-न-कुछ पढत ेदेखकर व हदल में खुश ोत ेथे। उसे खेलत ेदेख कर व जरूर डाूँटत।े पढत ेदेखकर भला क्या क त।े फल य ुआ कक मो न को कका- कका ज्वर आने लगा, ककन्तु उस दशा में भी उसने पढना न ीिं छोड़ा। कुछ और व्यततक्रम भी ुए, ज्वर का प्रकोप और बढा। पर उस दशा में भी ज्वर कुछ कका ो जाता, तो ककताबें देखने लगता था। उसके प्राण मुझमें ी बने र त ेथे। ज्वर की दशा में भी नौकरों से पूछता - भैया का पत्र आया? व कब आएूँगे?

    'इसके भसवा औऱ कोई दसूरी अभभलाषा न थी, अगर मुझ ेमालूम ोता कक मेरी कश्मीर यात्रा इतना म ूँगी पड़ेगी, तो उिर जाने का नाम भी न लेता। उसे बचाने के भलए मुझसे जो कुछ ो सकता था, व मैंने ककया, ककन्तु बुखार टाइफाइड था, उसकी जान लेकर ी उतरा। उसके जीवन के स्वप्न मेरे भलए ककसी ऋवष के आशीवायद बनकर मुझ ेप्रोतसाह त करने लगे और य उसी का शुभ फल ैं कक

  • आज आप मुझ ेइस दशा में देख र े ैं। मो न की बाल अभभलाषाओिं को प्रतयक्ष रूप में लाकर मुझ ेय सन्तोष ोता ैं कक शायद उसकी पववत्र आतमा मुझ ेदेखकर प्रसन्न ोती ो। य ी पे्ररणा थी कक ल्जसने कहठन-से-कहठन परीक्षाओिं में भी मेरा बेड़ा पार लगाया, न ीिं तो मैं आज भी व ीिं मन्दबुव्ध सूययप्रकाश ूूँ ल्जसकी सूरत से आप धचढत ेथे।'

    उस हदन से मैं कई बार सूययप्रकाश से भमल चुका ूूँ। व जब इस तरफ आ जाता ैं, तो बबना मुझसे भमले न ीिं जाता। मो न को व अपना इष् टदेव समझता ैं। मानव-प्रकृतत का य एक ऐसा र स्य ैं, ल्जसे मैं आज तक न ीिं समझ सका।

  • सदगति

    दखुी चमार द्वार पर झाडू लगा र ा था और उसकी पत नी झुररया घर को गोबर से लीप र ी थी। दोनों अपने-अपने काम से फुसयत पा चुके तो चमाररन ने क ा- 'तो जाके पिंडडत बाबा से क आओ न, क ीिं ऐसा न ो क ीिं चले जाएूँ।'

    दखुी ने क ा - ' ाूँ जाता ूूँ, लेककन य तो सोच, बैठेगें ककस चीज पर?'

    झुररया - 'क ीिं से खहटया न भमल जाएगी? ठुकराने से माूँग लाना।'

    दखुी ने क ा - 'तू तो कभी-कभी ऐसी बात क देती ैं कक दे जल जाती ैं। ठुकराने वाले मुझ ेखहटया देंगे! आग तक तो घर से तनकलती न ीिं खहटया देंगे!कैथाने (आूँगन) में जाकर एक लोटा पानी माूँगू तो न भमले, भला खहटया कौन देगा! मारे उपले, सेंठें , भूसा, लकड़ी थोड़ े ी ैं कक जो चा े उठा ले जाएूँ। ले अपनी खटोली िोकर रख दे, गरमी के तो हदन ैं, उनके आते-आत ेसूख जाएगी।'

    झुररया ने क ा - 'व मारी खटोली पर बैठें गे न ीिं, देखत ेन ीिं ककतने नेम-िरम से र त े ैं।'

    दखुी ने जरा धचिंततत ोकर क ा - ' ाूँ, य बात तो ैं, म ुए के पतत ेतोड़कर एक पततल बना लूूँ तो ठीक ो जाए। पततल में बड़-ेबड़ ेआदमी खात े ैं, व पववततर ैं, ला तो डिंडा, पतत ेतोड़ लूूँ।'

    झुररया ने क ा - 'पततल मैं बना लूूँगी, तुम जाओ। लेककन ाूँ, उन् ें सीिा भी तो देना ोगा, अपनी थाली में रख दूूँ?'

    दखुी ने क ा- 'क ीिं ऐसा गजब न करना, न ीिं तो सीिा भी जाए और थाली भी फूटें ! बाबा थाली उठाकर पटक देंगे। उनको बड़ी जकदी क्रोि चढ जाता ैं। क्रोि में पिंडडताइन तक को न ीिं छोड़ते, लडके को ऐसा पीटा कक आज तक टूटा ाथ

  • भलए कफरता ैं। पततल में सीिा भी देना। ाूँ, मुदा तू छुना मत, झूरी गोंड़ की लड़की को लेकर सा ू की दकुान से सब चीजें ले आना। सीिा भरपूर ो। सेर भर आटा, आि सेर चावल, पाव भर दाल, आि पाव घी, नोन, कदी और पततल में एक ककनारे चार आने पैसे रख देना। गोंड़ की लड़की न भमले तो भुल्जयन के ाथ-पैर जोड़कर ले जाना। तू कुछ मत छूना, न ीिं तो गजब ो जाएगा।'

    इन बातों की ताकीद करके दखुी ने लकड़ी उठाई और घास का एक बड़ा-सा गट्ठा लेकर पिंडड़तजी से अजय करने चला। खाली ाथ बाबाजी की सेवा में कैसे जाता, नजराने के भलए उसके पास घास के भसवाय और क्या था, उसे खाली ाथ देखकर तो बाबा दरू ी से दतुकारत।े

    पिंडडत घासीराम ईश् वर के परम भक्त थे, नीिंद खुलत े ी ईशोपासना में लग जात।े मुूँ - ाथ िोत ेआठ बजते, तब असली पूजा शुरू ोती, ल्जसका प ला भाग भिंग की तैयारी थी। उसके बाद आि घिंटे तक चन्दन रगड़ते, कफर आइने के सामने एक ततनके से माथे पर ततलक लगात।े चन्दन की दो रेखाओिं के बीच में लाल रोली की बबन्दी ोती थी। कफर छाती पर, बा ों पर चन्दन लगाते, फूल चढात,े आरती करते, घिंटी बजात।े दस बजते-बजत ेव पूजन से उठत ेऔर भिंग छानकर बा र आत।े तब तक दो-चार जजमान द्वार पर आ जात!े ईशोपासना का ततकाल फल भमल जाता, व ी उनकी खेती थी।

    आज पूजन-ग ृ से तनकले, तो देखा दखुी चमार घास का गट्ठा भलए बैठा ैं। दखुी उन् ें देखत े ी उठ खड़ा ुआ और साष् टािंग दिंडवत करके ाथ बाूँिकर खड़ा ो गया। य तजेस्वी मूततय देखकर उसका हृदय श्र्ध ा से पररपणूय ो गया! ककतनी हदव्य मूततय थी, छोटा-सा गोल-मटोल आदमी, धचकना भसर, फूले गाल, ब्रह्मतजे से प्रदीप् त आूँखें। रोरी और चन्दन देवताओिं की प्रततभा प्रदान कर र ी थी। दखुी को देखकर श्रीमुख से बोले - 'आज कैसे चला रे दखुखया?'

  • दखुी ने भसर झुकाकर क ा- 'बबहटया की सगाई कर र ा ूूँ म ाराज। कुछ साइत-सगुन ववचारना ैं, कब मजी ोगी?'

    घासी ने क ा- 'आज मुझ ेछुट्टी न ीिं ैं। ाूँ, साूँझ तक आ जाऊगा।'

    दखुी ने क ा - 'न ीिं म ाराज, जकदी मजी ो जाए। सब सामान ठीक कर आया ूूँ। य घास क ाूँ रख दूूँ?'

    घासी ने क ा - 'इसे गाय के सामने डाल दे और जरा झाडू लेकर द्वार तो साफ कर दे। य बैठक भी कई हदनों से लीपी न ीिं गई, गोबर से लीप दे। तब तक मैं भोजन कर लूूँ। कफर जरा आराम करके चलूूँगा। ाूँ, य लकड़ी भी चीर देना। खभल ान में चार खाूँची भूसा पड़ा ैं, उसे भी उठा लाना और भुसौली में रख देना।'

    दखुी फौरन ुक्म की तामील करने लगा। द्वार पर झाडू लगाई, बैठक को गोबर से लीपा। तब बार बज गए। पिंडडतजी भोजन करने चले गए। दखुी ने सुब से कुछ न ीिं खाया था। उसे भी जोर की भूख लगी, पर व ाूँ खाने को क्या िरा था। घर य ाूँ से मील भर था। व ाूँ खाने जाए तो पिंडडतजी बबगड़ जाएूँ। बेचारे ने भूख दबाई और लकड़ी फाड़ने लगा। लकड़ी की मोटी-सी गाूँठ थी, ल्जस पर प ले ककतने भक्तों ने अपना जोर आजमा भलया था। व उसी दम-खम के साथ लो े से लो ा लेने के भलए तैयार थी। दखुी घास छीलकर बाजार ले जाता था। लकड़ी चीरने का उसे अभ्यास न था। घास उसके खुरपै के सामने भसर झुका देती थी। य ाूँ कस-कसकर कुक ाड़ी का भरपूर ाथ लगाता, पर गाूँठ पर तनशान तक न पड़ता था। कुक ाड़ी उचट जाती। पसीने में तर था, ाूँफता था, थककर बैठ जाता, कफर उठता था। ाथ उठाए न उठत ेथे, पाूँव काूँप र े थे, कमर सीिी न ोती थी, आूँखों तले अूँिेरा ो र ा था। भसर में चक्कर आ र े थे, तततभलयाूँ उड़ र ी थीिं। कफर भी अपना काम ककए जाता था। अगर एक धचलम तम्बाकू पीने को भमल जाती, तो शायद कुछ ताकत आती।

  • उसने सोचा - 'य ाूँ धचलम और तम्बाकू क ाूँ भमलेगी। ब्राह्मणों का पूरा पडोस ैं। ब्राह्मण लोग म नीच जातों की तर तम्बाकू थोड़ े ी पीत े ैं। स सा उसे याद आया कक गाूँव में एक गोंड़ भी र ता ैं, उसके य ाूँ जरूर धचलम-तम्बाकू ोगा, तुरन्त उसके घर दौड़ा, खैर मे नत सुफल ुई, उसने तम्बाकू भी दी और धचलम भी, पर आग व ाूँ न थी।'

    दखुी ने क ा - 'आग की धचन्ता न करो भाई, मैं जाता ूूँ, पिंडडतजी के घर से आग माूँग लूूँगा, व ाूँ तो अभी रसोई बन र ी थी।'

    य क ता ूआ व दोनों चीजें लेकर चला आया और पिंडडतजी के घर में बरौठे के द्वार पर खड़ा ोकर बोला- 'माभलक, रधचके (थोड़ी-सी ) आग भमल जाए, तो धचलम पी लें।'

    पिंडडतजी भोजन कर र े थे। पिंडडताइन ने पूछा - 'य कौन आदमी आग माूँग र ा ैं?'

    पिंडडत ने क ा - 'अरे व ी ससुरा दखुखया चमार ैं, क ा ैं थोड़ी-सी लकड़ी चीर दे, आग तो ैं, दे दो।'

    पिंडडताइन ने भवें चढाकर क ा - 'तुम् ें तो जैसे पोथी-पत्रे के फेर में िरम-करम ककसी बात की सुधि ी न ीिं र ी। चमार ो, िोबी ो, पासी ो, मुूँ उठाए घर में चला आए। ह न्द ूका घर न ुआ, कोई सराय ुई। क दो दाढीजार से चला जाए, न ीिं तो इस लुआठे से मुूँ झुलस दूूँगी, आग माूँगने चले ैं।'

    पिंडडतजी ने समझाकर क ा - 'भीतर आ गया, तो क्या ुआ, तुम् ारी कोई चीज तो न ीिं छुई, िरती पववत्र ैं, जरा-सी आग दे क्यों न ीिं देती, काम तो मारा ी कर र ा ैं, कोई लोतनया य ी लकड़ी फाड़ता, तो कम-से-कम चार आने लेता।'

    पिंडडताइन ने गरज कर क ा - 'व घर में आया क्यों!'

  • पिंडडत ने ारकर क ा - 'ससुरे का अभाग था और क्या!'

    पिंडडताइन ने क ा- 'अच्छा, इस बखत तो आग हदए देती ूूँ, लेककन कफर जो इस तर घर में आएगा, तो उसका मुूँ ी जला दगूी।'

    दखुी के कानों में इन बातों की भनक पड़ र ी था। पछता र ा था, ना क आया। सच तो क ती ैं। पिंडडत के घर में चमार कैसे चला आए। बड़ ेपववततर ोत े ैं य लोग, तभी तो सिंसार पूजता ैं, तभी तो इतना मान ैं, भर-चमार थोड़ े ी ैं, इसी गाूँव में बूढा ो गया, मगर मुझ ेइतनी अकल भी न आई।

    इसभलए जब पिंडडताइन आग लेकर तनकलीिं, तो व मानो स्वगय का वरदान पा गया। दोनों ाथ जोड़कर जमीन पर माथा टेकता ुआ बोला - 'पिंडाइन माता, मुझसे बड़ी भूल ुई कक घर में चला आया, चमार की अकल ी तो ठ री, इतने मूरख न ोते, तो लात क्यों खात।े' पिंडडताइन धचमटे से पकड़कर आग लाई थी, पाूँच ाथ की दरूी से घूूँघट की आड़ से दखुी की तरफ आग फें की, आग की बड़ी-सी धचनगारी दखुी के भसर पर पड़ गई, जकदी से पीछे ट कर भसर के झोटे देने लगा। उसने मन में क ा - 'य एक पववततर बाह्मन के घर को अपववततर करने का फल ैं, भगवान ने ककतनी जकदी फल हदया, इसी से तो सिंसार पिंडडतों से डरता ैं, और सबके रुपए मारे जात े ैं, बाह्मन के रुपए भला कोई मार तो ले! घर भर का सतयानाश ो जाए, पाूँव गल-गलकर धगरने लगे।'

    बा र आकर उसने धचलम पी और कफर कुक ारी लेकर जुट गया। खट-खट की आवाजें आनें लगी। उस पर आग पड़ गई, तो पिंडडताइन को उस पर कुछ दया आ गई। पिंडडतजी भोजन करके उठे, तो बोली - 'इस चमरवा को भी कुछ खाने को दे दो, बेचारा कब से काम कर र ा ै, भूखा ोगा।'

    पिंडडतजी ने इस प्रस्ताव को व्याव ाररक क्षेत्र से दरू समझकर पूछा - 'रोहटयाूँ ैं?'

    पिंडडताइन ने क ा - 'दो-चार बच जाएूँगी।'

  • पिंडडत ने क ा - 'दो-चार रोहटयों में क्या ोगा? चमार ैं, कम-से-कम सेर भर चढा जाएगा।'

    पिंडडताइन कानों पर ाथ रखकर बोली - 'अरें बाप रे बाप! सेर भर! तो कफर र ने दो।'

    पिंडडत ने अब सेर बनकर क ा- 'कुछ भूसी-चोकर ो तो आटे में भमलाकर दो ठो भलट्टा ठोंक दो, साले का पेट भर जाएगा, पतली रोहटयों से इन नीचों का पेट न ीिं भरता, इन् ें तो जुआर का भलट्टा चाह ए।'

    पिंडडताइन ने क ा - 'अब जाने भी दो, िूप में कौन मरे।'

    दखुी ने धचलम पीकर कफर कुक ारी सम्भाली। दम लेने से जरा ाथों में ताकत आ गई थी। कोई आि घन्टें तक कफर कुक ाड़ी चलाता र ा, कफर बेदम ोकर व ीिं भसर पकड़ के बैठ गया।

    इतने में गौंड़ आ गया और बोला - 'क्यों जान देत े ो बूढे दादा, तुम् ारे फाड़ ेय गाूँठ न फटेगा, ना क लाकन ोत े ो।'

    दखुी ने माथे का पसीना पोंछकर क ा- 'अभी गाड़ी-भर भूसा ढोना ैं भाई!'

    गौंड़ ने क ा - 'कुछ खाने को भमला कक काम ी कराना जानत े ैं, जाके माूँगत ेक्यों न ीिं?'

    दखुी ने क ा- 'कैसी बात करत े ो धचखुरी, बाह्मन की रोटी मको पचगेी!'

    गौंड़ ने क ा - 'पचने को पच जाएगी, प ले भमले तो, मूूँछों पर ताव देकर भोजन ककया और आराम से सोए, तुम् ें लकड़ी फाड़ने का ुक्म लगा हदया, जमीिंदार भी

  • कुछ खाने को देता ैं, ाककम भी बेगार लेता ैं, तो थोड़ी ब ुत मजूरी देता ैं, य उनसे भी बढ गए. उस पर िमायतमा बनत े ैं।'

    दखुी ने क ा- 'िीरे-िीरे बोलो भाई, क ीिं सुन लें तो आफत आ जाए।'

    य क कर दखुी कफर सम्भल पड़ा और कुक ाड़ी की चोट मारने लगा। धचखुरी को उस पर दया आई। आकर कुक ारी उसके ाथ से छान ली और आि घन्टे खूब कस-कसकर कुक ाड़ी चलाई, गाूँठ में दरार भी न पड़ी। तब उसने कुक ारी फैं क दी और य क कर चला गया -'तुम् ारे फाड़ ेय न फटेगी, जान भले तनकल जाए।'

    दखुी सोचने लगा, बाबा ने य गाूँठ क ाूँ रख छोड़ी थी कक फाड़ ेन ीिं फटती। क ीिं दरार तक तो न ीिं पड़ती। मैं कब तक इसे चीरता र ूूँगा। अभी घर पर सौ काम पड़ े ैं। कार-परोजन का घर ैं, एक-न-एक चीज घटी ी र ती ैं, पर इन् ें क्या धचन्ता। चलूूँ जब तक भूसा ी उठा लाऊूँ । क दूूँगा, बाबा, आज तो लकड़ी न ीिं फटी, कल आकर फाड़ दूूँगा।

    उसने झौवा उठाया और भूसा ढोने लगा। खभल ान य ाूँ से दो फरलािंग से कम न था। अगर झौवा खूब भर-भर कर लाता तो काम जकद खतम ो जाता, कफर झौवे को उठाता कौन। अकेले भरा ुआ झौवा उससे न उठ सकता था। इसभलए थोड़ा-थोड़ा लाता था। चार बजे क ीिं भूसा खतम ुआ। पिंडडतजी की नीिंद खुली। मुूँ - ाथ िोया, पान खाया औऱ बा र तनकले, देखा, तो दखुी झौवा भसर पर रखे सो र ा ैं।

    पिंडडतजी जोर से बोला - 'अरे, दखुखया तू सो र ा ैं? लकड़ी तो अभी ज्यों-की-तयों पड़ी ुई ैं, इतनी देर तू करता क्या र ा? मुट्ठी भर भूसा ढोने में साूँझ कर दी! उस पर सो र ा ैं। उठा ले कुक ाड़ी और लकड़ी फाड़ डाल, तुझसे जरा-सी लकड़ी न ीिं फटती, कफर साइत भी वैसी ी तनकलेगी, मुझ ेदोष मत देना! इसी से क ी ैं नीच के घर में खाने को ुआ और उसकी आूँखें बदली।'

  • दखुी ने कफर कुक ाड़ी उठाई, जो बातें प ले से सोच रखी थी, व सब भूल गया। पेट पीठ में िूँसा जाता था, आज सवेरे से जलपान तक न ककया था। अवकाश ी न भमला। उठना ी प ाड़ मालूम ोता था। जी डूबा जाता था, पर हदल को समझाकर उठा। पिंडडत ैं, क ीिं साइत ठीक न ववचारें तो कफर सतयानाश ी ो जाए। जभी तो सिंसार में इतना मान ैं। क ी साइत ी का तो सब खेल ैं। ल्जसे चा े बबगाड़ दे। पिंडडतजी गाूँठ के पास आकर खड़ े ो गए और बढावा देने लगे - ' ाूँ, मार कसके, और मार, कसके मार, अबे जोर से मार, तरेे ाथ में तो जैसे दम ी न ीिं ैं, लगा कसके, खड़ा सोचने क्या लगता ैं, ाूँ, बस फटा ी चा ती ैं! दे उसी दरार में!'

    दखुी अपने ोश में न था। न-जाने कौन-सी गुप् तशल्क्त उसके ाथों को चला र ी थी। व थकान, भूख, कमजोरी सब मानो भाग गई। उसे अपने बा ुबल पर स्वयिं ववश् वास न ी ो र ा था। एक-एक चोट वज्र की तर पड़ती थी। आि घन्टे तक व इसी उन्माद की दशा में ाथ चलाता र ा, य ाूँ तक की लकड़ी बीच से फट गई और दखुी के ाथ से कुक ाड़ी छूट कर धगर पड़ी। इसके साथ व भी चक्कर खाकर धगर पड़ा। भूखा, प्यासा, थका ुआ शरीर जवाब दे गया।

    पिंडडतजी ने पुकारा - 'उठ के दो-चार ाथ और लगा दे, पतली-पतली चैभलयाूँ ो जाए।'

    दखुी न उठा। पिंडडतजी ने अब उसे हदक करना उधचत न समझा। भीतर जाकर बूटी छानी, शौच गए, स्नान ककया और पिंडडताइन बाना प नकर बा र तनकले! दखुी अभी तक व ी पड़ा ुआ था।

    पिंडडत ने जोर से पुकारा - 'अऱे क्या पड़ े ी र ोगे दखुी, चलो तुम् ारे ी घर चल र ा ूूँ, सब सामान ठीक-ठाक ैं न?'

    दखुी कफर भी न उठा।

  • अब पिंडडतजी को कुछ शिंका ुई। पास जाकर देखा, तो दखुी अकड़ा पड़ा ुआ था। बद वास ोकर भागे और पिंडडताइन से बोले - 'दखुखया तो जैसे मर गया।'

    पिंडडताइन कबकाकर बोली - 'व तो अभी लकड़ी चीर र ा था न?'

    पिंडडत न क ा - ' ाूँ, लकड़ी चीरत-ेचीरत ेमर गया, अब क्या ोगा?'

    पिंडडताइन ने शान्त ोकर क ा - ' ोगा क्या चमरौने में क ला भेजो मदुाय उठा ले जाए।'

    एक क्षण में गाूँव भर में खबर ो गई। पूरे में ब्राह्मणों की बस्ती थी। केवल एक घर गोड़ का था। लोगों ने इिर का रास्ता छोड़ हदया। कुूँ ए का रास्ता उिर ी से था, पानी कैसे भरा जाए! चमार की लाश के पास से ोकर पानी भरने कौन जाए।

    एक बुहढया ने पिंडडतजी से क ा - 'अब मुदाय फें कवात ेक्यों न ीिं? कोई गाूँव में पानी पीएगा या न ीिं।'

    इिर गोंड ने चमरौने में जाकर सबसे क हदया - 'खबरदार, मुदाय उठाने मत जाना, अभी पुभलस की त कीकात ोगी, हदकलगी ैं कक एक गरीब की जान ले ली। पिंडडतजी ोंगे, तो अपने घर के ोंगे, लाश उठाओगे तो तुम भी पकड़ ेजाओगे।'

    इसके बाद ी पिंडडतजी प ुूँच,े पर चमरौने का कोई आदमी लाश उठाने को तैयार न ुआ। ाूँ, दखुी की स्त्री और कन्या दोंनो ाय- ाय करती व ाूँ के भलए चल पड़ी और पिंडडतजी के द्वार पर आकर भसर पीट-पीटकर रोने लगीिं। उनके साथ दस-पाूँच और चमाररनें थी। कोई रोती थी, कोई समझाती थी, पर चमार एक भी न था। पिंडडतजी ने चमारों को ब ुत िमकाया, समझाया, भमन्नत की, पर चमारों

  • के हदल पर पुभलस का रोब छाया ुआ था, एक भी न माना, आखखर पिंडड़त तनराश ोकर लौट गए।

    आिी रात तक रोना-पीटना जारी र ा। देवताओिं का सोना मलु्श्कल ो गया। पर लाश उठाने कोई चमार न आया और ब्राह्मण चमार की लाश कैसे उठात!े भला ऐसा ककसी शास्त्र-पुराण में भलखा ैं? क ीिं कोई हदखा दे।

    पिंडडताइन ने झुूँझलाकर क ा - 'इन डाइनों ने तो खोपड़ी चाट डाली, ककसी का गला भी न ीिं पकता।'

    पिंडडत ने क ा - 'रोने दो चुड़लैों को, कब तक रोएूँगी। जीता था, तो कोई बात न पूछता था, मर गया, तो कोला ल मचाने के भलए सब-की-सब आ प ुूँची।'

    पिंडडताइन ने क ा - 'चमार को रोना मन ुस ैं।'

    पिंडडत ने क ा - ' ाूँ, ब ुत मन ूस।'

    पिंडडताइन ने क ा - 'अभी से दगुयन्ि उठने लगी।'

    पिंडडत ने क ा - 'चमार था ससुरा कक न ीिं। साि-असाि ककसी का ववचार ैं इन सबों को।'

    पिंडडताइन ने क ा - 'इन सबों को तघन भी न ीिं लगती।'

    पिंडडत ने क ा - 'भ्रष् ट ैं सब।'

    रात तो ककसी तर कटी, मगर सबेरे भी कोई चमार न आया। चमाररनें भी रो-पीटकर चला गई। दगुयन्ि कुछ-कुछ फैलने लगी।

  • पिंडडतजी ने एक रस्सी तनकाली। उसका फन्दा बनाकर मुद�