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(क) वतं भारत और सािह य के मान का
वतं भारत और सािह य के मान का से ता पय ह ै– सन ्1947 ई. के बाद
बदलते मानव-मू य और जीवन-दिृ के साथ सािह य म जो बदलाव आया उसके माप-
तौल का पैमाना । वतं ता के बाद सामािजक संबंध तथा िवचार म प रवतन आ,
िजसके चलते सािह यकार के िवचार म भी प रवतन प रलि त ए, साथ ही सािह य
के मानदड़ं बदले और पाठक तथा िवचारक के भाव, िवचार एवं अनुभूित म भी बदलाव
दखेने को िमला । िशवहान सह चौहान का मानना ह ै– “ वतं ता के बाद, दभुा य से,
मन और जीवन क गितयाँ िवपरीत दशा म चलने लग । जीवन तो आगे बढ़ा, य क
राजनीितक वतं ता ही जीवन का ल य नह था। ले कन मन और बुि धोखा खा गए।
कुछ लोग वतं ता को ही अंितम मंिजल समझ कर आगे बढ़ने से क गए ।”1 वतं ता
पूव लोग के मन म जो उ लास और उमंग थी उसपर पानी फर गया । भारत वतं
होने के बाद भी सब कुछ पुराना ही ह,ै नया कुछ भी नह आ, केवल शासक बदला ।
इस तरह धीरे-धीरे वाथ बढ़ता गया । बुि जीिवय म संघष आ । वतं ता असल म
दािय व ह,ै वह स ा का उपभोग नह , न मंिजल क ाि । वा थय पर न केवल आम
जनता क दिृ थी, बि क सािह यकार भी उनसे थे । सािह यकार के साथ-साथ
आलोचक भी ितब ह ै । सािह य के मान मू य का उठाते ए िशवदान सह
चैहान ने िलखा ह ै – “ वाथ का संघष ण थायी ह,ै अिधक दन नह चलेगा ।
बुि जीिवय और सािह यकार को अपना म छोड़कर वा तिवकता से आँख दो-चार
करनी ही पड़ेगी और युग क क ीय सम या को ित बिबत करने के िलए जीवन स य
से जूझना पड़ेगा । इसिलए नए भारत म सािह य के मान-मू य का उठाना अब
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अिनवाय हो गया ह ै ।”2 आगे मधुरेशजी िलखते ह – “ वाधीन भारत म सािह य के
मान-मू य का सवाल उठाते ए िशवदान सह चौहान ि वादी और कंु ठत मानव
क ित ा के थान पर ‘पूणमानव’ क ित ा पर बल दतेे ह।”3 चौहानजी न े
छायावादी का म ि वाद को रा ीय चेतना और वधीनता से जोड़ा ह ैऔर
योगवादी का म ि वाद को ि क कंुठा और अहमं वृि से जोड़ा
ह।ै उनक दिृ उन सािह यकार क ओर ह,ै जो ि से ऊपर उठकर रा क
सम या एवं समाधान क ओर और उ ित के िलए सदवै अ सर है । वा तव म समाज
के िवकास म रा क गित आव यक ह ै और रा तभी उ त हो सकता ह,ै जब
सामािजक, आ थक, राजनैितक और सािहि यक आ द क उ ित हो ।
जैसा क पहले कहा जा चुका ह ै वतं ता मा राजनीितक प रवतन नह ह ै ।
शासन बदल जाने से लोग वतं नह हो जाते, उसके िलए भाव बदलना होगा, िवचार
बदलना होगा और ईमानदारी बरतनी होगी । िशवदान सह चौहान का मानना ह ै–
“राजनीितक पा टयाँ या सरकार बदल सकती ह, ले कन नए भारत के बनने के म म
फक नह आ सकता – हर पाट को अपने अि त व क र ा के िलए नए भारत के
िनमाण का बीड़ा उठाना होगा, और ईमानदारी से उसके िनमाण म भाग लेना होगा,
नह तो इितहास उसे िमटा दगेा । भगवान चाहे धिनक और शि मान का ही साथ
दतेा हो, ले कन इितहास इतना अंधा और प पाती नह ह,ै य क इितहास का िनमाण
मनु य करते ह । इितहास क या मानव गित क या ह,ै इसिलए उसक
कसौटी भी मानव गित ही ह ै। इस कसौटी पर जो पाट , रा य, वग, स यता, ि
या िवचार खोटा िस होगा, उसे इितहास अंतत: िमटा दगेा, इसम संदहे नह । हमारा
मानव समाज के दीघकालीन इितहास का अनुभव यही बताता ह ै।”4 इितहास का संबंध
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अतीत से है । दसूरी ओर हर ि अपना इितहास रचता ह ै । इितहास का योग
अतीत क घटना के िववरण के थान पर वयं अतीतकालीन घटना और ि य
के िलए भी होता ह,ै जैसे- महा मा गांधी ने भारत के नये इितहास का िनमाण कया ।
ि के ि व के आधार पर उसका इितहास बनता ह।ै इितहास को ि बदल
नह सकता । इितहास क हर घटना नयी होती ह ै । नई व था के िनमाण के िलए
क ठन प र म क आव कता ह ै । सािह यकार हो या कसान अपनी शि का उिचत
उपयोग जब तक नह करता ह,ै तब तक वह लक र का फक र बना रहता ह ै । नय े
भारत के िनमाण के िलए जनता क गरीबी, िपछड़ापन, अिश ा और भेद-भाव को
यागना होगा । मनु य जीवन क िवकृि य , अभाव को दरू करना पड़ेगा । इस बात
को िशवदान सह चौहान ने िलखा ह ै– “धरती के िजस बंजर च पे पर हल चलता ह,ै
वह उसके िलए िव लव, ांित, प रवतन सब कुछ होता ह ै। ले कन वह अंतत: िनमाण
क या का ही अंग ह ै। उसक उधेड़ी ई िम ी क ताजी गंध म भी अ के भावी
अंकुर क संभावना िछपी होती ह ै । यह सब हल जोतने वाले को दीखता ह ै । उसका
ल य प होता ह ैऔर यह ल य उसे अपनी ि गत क ठनाईय और अभाव से
ऊपर उठकर भूिम को उवर बनाने म अपनी सम त शि लगा दनेे क ेरणा दतेा है ।”5
अत: आलोचक सािह य के उवरक भूिम तैयार करता ह ै।
आधुिनक काल ांितकारी प रवतन का युग है । राजनीितक दिृ से अँ जे के
ित भीषण यु , सामािजक दिृ से वण भेद का समापन(परंतु शोिषत और शोषण वग
का उदय), धा मक दिृ से मानव धम क थापना, सां कृितक दिृ से अनेक सं कृितय
क धानता तथा सािहि यक दिृ से जनसाधारण का सािह य । वतं ता के बाद हर
प रि थित म प रवतन आया और उसका सीधा भाव सािह य पर पड़ा । िशवदान सह
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चौहान ने प िलखा ह ै– “आज के ितकूल प रि थितय म रा ीय-सां कृितक जीवन
एक ं यपूण हक कत बन गया ह,ै िजसम उ को ट का सािह य और कला का फलता-
फूलता संभव नह दखता । इसिलए तृतीय उ थान के लेखक और कलाकार को पा ा य
दशे क ासो मुखी सामियक वृि य का आकषण छोड़ यथाथ जनजीवन के स य को
उ ा टत करने वाली े कलाकृितय का िनमाण भी करना ह ैऔर अनुकूल सां कृितक
जीवन के िलए संघष भी ।”6 य द यह कहा जाता रहा ह ै क ‘सािह य समाज का दपण
ह।ै’ तो यह भी कहना अनुिचत न होगा क ‘सािह य जनसाधारण का दपण ह।ै’ समाज
और जनसाधारण म अंतर प करना ब त क ठन काय ह ै। पारंप रक अवधारणानुसार
समाज मुखत: बुि जीवी, सा र तथा रीित-नीित का पालन करने वाला समुदाय ह,ै
तो जनसाधारण आम ि , िनर र, तथा यह भी कह सकते ह क इसम बुि जीवी भी
हो सकते ह और बुि हीन भी । आचाय रामचं शु ल ने अपने हदी सािह य के
इितहास म सािह य को प रभािषत करते ए जनता क िच वृि य क बात क है ।
आजादी िमलने के पहले सािह य और जनता को लेकर ब त िववाद हो रहा था । किव
अगामी कल के िलए जीता ह।ै कहने का ता पय यह है क किव त कालीन जनता को
उतने प म जाग क नह बना पाता िजतने क आव यकता ह ै । यहाँ यह प हो
जाना चािहए क इस समय भारतवष अं जेो का गुलाम था, गुलामी मानिसकता को
जगाने क ओर संकेत करते ए इन सब बात को हम कह सकते ह । त कालीन जनता
ुधातुर, वास-िवहीन तथा व हीन हो चुक थी, िजसके कारण सािह य उनके िलए
कसी काम का नह था । उनको समझाने के िलए एक मा रा ता भोजन, कपड़ा तथा
अवास ही हो सकता ह ै। यह कोई सािह यकार उ ह नह द ेसकता । वे खुद उसके िलए
अपनी ही मेहनत-मजूरी क आशा रखते ह । आचाय केसरी कुमार ने प िलखा ह ै–
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“करोड़ भूखे लोग िसफ एक किवता माँनते ह – शि दायक भोजन । उ ह यह कोई दगेा
नह । उ ह उसे कमाना ह।ै और इसे वे िसफ चोटी के पसीने से ही कमा सकते ह ।”7 यह
बात स य ह ै क भूखे ि के िलए सािह य या, संसार क कोई व तु कसी मायने क
नह ह ै। यह भी यान म रखना होगा क जनता क आड़ म िलखा जाने वाला सािह य
कसके िलए िलखा जाता ह ै? सािह यकार िजसके िलए सािह य क रचना करता ह,ै वह
उसका पाठक नह बनते । िशवदान सह चौहान का मानना ह ै– “ वाधीनता के बाद
जीवन ने जो मोड़ िलया ह ैऔर हमारे आगे भावी िवकास क संभावना के जो ार
खुले ह, उ ह ने जीवन-वा तव को यथाथ और मूत ढंग से ित बिबत करने के िलए
सािह यकार के आगे कलािनमाण क नई सम याए ँपैदा पर दी ह, इस बात के ित
कसी- कसी लेखक ने ही जाग कता दखाई ह,ै अ यथा अिधकांश लेखक वाधीनता से
पहले के अपने पुराने ढर पर चल रहे ह । इसीिलए सािह य और जीवन क गित म
वैष य दीखता है ।”8 इस समय का सािह य पूँजीपित वग, सेठ, राजनीित आ द के
आ ोश से िलखा गया सािह य हा या पद बन जाता ह ै। यहाँ हम यह दखे सकते ह क
सािह यकार समाज का एक िविश ि होता ह ैएवं पाठक मूलत: पूँजीपित, शासक,
सेठ आ द होते ह और सािह य जनसाधारण का । जनसाधारण अपने िलए कसी कार
क सहायता पाठक वग से नह ले सकता । सािह यकार जनसाधारण के ित सहानुभूित
कट करता होगा, इसका अनुभव भी त कालीन जनसाधारण नह कर पाते । आचाय
केसरी कुमार के अनुसार – “ ेरक पाठक ेमचंद के वा तिवक पाठक नह ए । ेमचंद
के वा तिवक पाठक ब लांशत: वे थे िजनके िखलाफ ेमचंद ने िलखा । यह लेखक क
िनयती ह ै।”9 िजस कार दिलत सािह य के बारे म िलखा गया ह ै क दिलत सािह य क
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रचना वही कर सकते ह या उसका वही अिधकारी ह ैजो दिलत वग का होता ह,ै उसी
कार भूखे का सािह य वही िलख सकता ह,ै जो भूखा हो । नागाजुन के संबंध म ‘एक
काल पु ष का आदहे होना’ नामक लेख म काश भनु ने िलखा ह ै– “सही माने म वह
जनता के किव ह, िज ह ने जीवन भर जनता के क ठन तप और अटूट जीवन से उ ह ने
सािवत कया क आम जनता के छोटे-बड़े दखु और बचपन संघष से जुड़ा कोई जन
किव ही इस युग का स ा महाकिव हो सकता ह ै ।”10 हर समय जनसाधारण के िलए
सािह य िलखा गया, ले कन इसे दसूरे प म दखेा गया । कालांतर म सािह य का भी
भेद कर दया गया – सािह य और प रिनि त सािह य । सािह य का रसा वादन हर
ि करता ह ैचाह ेवह गरीब हो, धनी हो या गाँव का हो या शहर का । ले कन बात
यह ह ै क गाँव के अिधकांश लोग अिशि त ह, वे उसे पढ़ कर रसा वादन नह कर पाते
तथा आज का समय यह ह ै क उ ह पढ़कर कोई नह सुनाएगा । िशवदान सह चौहान
और ि लोचन शा ी का समय नह ह,ै ये सोग अिशि त जनता के बीच भी सािह य का
पाठ कया करते थे । नाटक सािह य क सव कृ िवधा ह ै । उसे भी आज तकनीक
(टे ोलॉजी) या फ मी दिुनया म कोई मंचन नह कर के दखा रहा ह ै। िजससे जनता
उसका आनंद ले सके । लोक गीत जनसाधारण म गा-गा कर पढ़ा जाता ह,ै जो भूखे
ि भी उसे न चाहते ए एक ण के िलए सही उधर मुड़ जाता ह ै । य द कोई
वातानुकूल (ए.सी.) म बैठ कर उपदशे दतेा हो तथा कोई घर-घर जाकर अपने तथा
अपने समाज क भलाई क बात कहता हो, उसम जो फक ह ै वही फक सािह य या
जनसािह य म ह ै । चाह ेपूँजीपित, शासक एवं बुि जीवी के िलए यह सािह य उतना
मायने नह रखता हो पर वह उसक आधारशीला ह,ै उसे यान से देखना चिहए ।
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िन कष - आज के लेखक भी अजीब दिुवधा म फँसा आ ह ै । वह इस
जनसाधारण क तरह अपने तेज एलं मू य िच के कारण नह रह सकता और वै ािनक
युग के अनेक महारिथय के साथ भी । इनक एक अपनी अलग दिुनया बनती जा रही है
। परंपरा से कही गयी बात – सािह य, समाज और सािह यकार म अ यो याि त संबंध
ह,ै का उ लंघन करते ए आज का सािह य, समाज तथा सािह यकार तीन तीन
दशा म मण कर रह े ह । इनके बीच क खाई दरू करने के िलए आज एक बड़े
ि व क कमी महसूस क जा रही ह।ै जो भी हो एकमा अपने ही िलए भाव का
काशन भी एक ऐसी ही िनरथक बात ह ै। रचना वयं रचनाकार के िलए नह ह,ै यह
मानना पड़ेगा और यह मानकर ही चलना पड़ेगा।
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(ख) हदी सािह य के इितहास क सम या
हदी सािह य के आिवभाव-काल को लेकर िव ान म मतभेद ह ै । िविभ
इितहासकार ने िविभ मत तुत कया ह,ै कतु वै ािनक दिृ कोण से िवचार करने
पर उनम से अिधकांश मत असंगत एवं ामक िस होते ह । बौि क िवकास,
सािहि यक चेतना और नवीन शोध के प रणाम व प हदी सािह य के इितहास क
सम या पर िवचार करना अ यंत आव यक ह ै । सािह य का इितहास कसी भी भाषा
का हो सकता है । अत: भाषा ही सािह य के इितहास का रीढ़ है । इसिलए ‘ हदी’ श द
का िव तृत िववेचन करना अनुिचत न होगा । गासा द तॉसी से लेकर ाय: सभी हदी
सािह यकार ने समय-समय पर हदी भाषा के व प एवं िव तार पर गंभीर िववेचन
कया ह,ै परंतु वे एकमत नह हो पाए । भाषा वै ािनक ने हदी भाषा का दो अथ
लगाया ह ै । िव तृत अथ म शौरसेनी, मागधी, अ मागधी अप ंश से िनकली ई
आधुिनक भाषाए ँएवं उपभाषा के समूह को तथा संकुिचत अथ म खड़ी बोली हदी,
िजसे भारत सरकार ने आज रा भाषा या राजभाषा का प दान कया ह ै। इसे हम
प रिनि त भाषा, मानक हदी आ द नाम से भी अिभिहत करते ह । िशवदान सह
चौहान ने इस िवषय पर िव तृत िववेचन िव ेषण तुत कया ह,ै जो इस कार ह ै–
“ हदी कसी एक भाषा का नाम नह ह,ै बि क शौरसेनी और अध-मागधी अप ंश से
आठव -दसव शताि दय के बीच िवकिसत ई जनपदीय भाषा के समूह का नाम ह ै।
इनम से कभी कसी भाषा या बोली का अिधक चार रहा तो कभी कसी का, फलत:
सािह य के सहासन पर कभी राज थानी तो कभी मैिथली कभी अवधी तो कभी ज
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आ ढ़ रही । इस कार िवशाल े क िविभ आधुिनक भाषा के सािह य के
इितहास को एक ही पु तक म भावुकतापूवक संकिलत कर दनेे से सम प म आठव -
दसव शता दी से हदी म सािह य िनमाण क धारा का अिवि छ वाह दखाना सुगम
हो जाता ह ै। कतु जब वे आधुिनक या वतमान सािह य पर कलम उठाते ह तब उनक
भावुकता का के भी बदल जाता ह ै। आधुिनक युग के आते ही ज, अवधी, मैिथली,
राज थानी आ द भाषा म परंपरा से होते आए सािह य िनमाण क त कालीन चे ा
के ित वे सहसा असिह णु हो उठते ह ।”11 िवकास और िव तार के प रणाम व प
भाषा म प रवतन आ और सािहि यक भाषा के प म उथल-पुथल होता रहा तथा
कभी कसी भाषा को तो कभी कसी को सािह य क मुखता िमलती रही । डॉ. ब न
सह का मानना ह ै– “एक समय तो जभाषा पूरे हदी े क सािहि यक अिभ ि
का मा यम बन चुक थी- िहमाचल से िवदभ और राज थान से असम तक । य द उसम
ग िलखा जाता रहा होता तो खड़ी बोली का थान वही लेती ।”12 यह ठीक ह ै क
जभाषा एक समय सािह यािभ ि म मुख थान ले चुक थी, पर यह कहना क
उस भाषा म ग क संभावना नह थी या खड़ी बोली क अपे ा कम थी तो यह बात
हा या पद जैसी लगेगी । िवचार , भाव एवं अनुभूितय क अिभ ि भाषा का मुख
गुण ह ै , अत: सभी जनपद क भाषाएँ अपने आप म िवशेष थान रखती ह । यही
कारण ह ै क सभी े ीय भाषाए ँएक- दसूरे से िभ ह, ले कन ल य सभी का एक ह ै।
यह ठीक ह ै क एक जनपद क भाषा दसूरे जनपद के िलए दु ह एवं क ठन है ।
राम व प चतुवदी के अनुसार – “ हदी े क 18 बोिलयाँ (पि मी हदी के अंतगत-
खड़ी बोली, बाँग , जभाषा, कनौजी, बंुदलेी; पूव हदी म - अवधी, बघेली,
छ ीगढ़ी; िबहारी म – मैिथली, मगही, भोजपुरी; राज थानी म मेवाती-अहीरवाड़ी,
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मालवी, जयपुरी-हड़ौती, मारवाड़ी-मेवाड़ी; तथा पहाड़ी म पि मी पहाड़ी, म य
पहाड़ी, पूव पहाड़ी = 18) ु पित क दिृ से अलग – अलग अप ंश से िवकिसत ई
ह ै।”13 सािह यकार के िववेचन, िव ेषण एवं अ ययन को म य नजर रखते ए हदी
के दोन प को वीकार कर लेना होगा । परंतु सम या तब उ प होती ह,ै जब
सािह येितहासकार हदी सािह य के इितहास म आ द और म य काल तक हदी के
िव तृत अथ का ( हदी के 18 े ीय बोिलय म से मुखत : ज, मैिथली, अवधी,
राज थानी एवं खड़ी बोली का) योग करते ह, जब क आधुिनक काल के सािह य म
मा खड़ी बोली का ही योग कया जाता ह ै।
सािहि यक वृि य एवं सामािजक प रि थितय के प रवतन के साथ-साथ
सभी जनपद क भाषा म प रवतन आया तथा समय के साथ वे सभी भाषाए ँअपना
अि त व लेती रही, कोइ भाषा एकाएक ख म एवं चरम ि थित तक नह प चँी , न
प चँ सकती ह ै। धीरे-धीरे ाय : सभी जनपदीय भषा म सािह य या लोक सािह य
या जनसािह य क रचना होने लगी । लगभग सभी (जो िव तृत अथ के हदी क
बोिलयाँ ह)ै े ीय भाषा का सािह य आज भी िलखा जा रहा ह,ै फर भी इसका
हदी सािह य के इितहास म उ लेख नह कया गया ह ै। िशवदान सह चौहान ने प
िलखा ह ै– “आधुिनक काल से पहले तक तो हम हदी भाषा-समूह का इितहास िलखते
ह, ले कन आधुिनक काल आते ही हम संघ-भाषा हदी (खड़ी बोली का सं कृतिन
सािहि यक प ) का इितहास िलखने लगते ह । पहले हमारी भावुकता हदी क परंपरा
को दीघतम और िवशालतर दखाने म त होती ह ैऔर हदी भाषा समूह क कसी
भाषा या बोली क एक भी रचना को इस इितहास परंपरा से िवलग करना बदा त नह
करती कतु फर भी खड़ी बोली के सं कृतिन प म ही (खड़ी बोली का फ़रसीिन उद ू
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प भी इसम सि मिलत नह कया जाता) सीिमत हो जाती ह ै।”14 कोई भाषा समाज
क सम या एवं समाधान ढूढने म सफल हो जाती ह,ै तब वह अपने े िवशेष से जुड़ी
न रह कर, पूरे रा क उपलि ध होती है । रा क अनेक े ीय (जनपदीय) भाषा के
आधारिशला पर खड़ी हदी धीरे-धीरे अपनी वतं स ा थािपत करने लगी तथा आज
के संदभ म इसने रा भाषा का प हण कया ह ै।
हदी भाषा के संदभ म कन- कन भाषा एवं उपभाषा को थान दनेा
चािहए, इस संबंध म चौहान जी का उपयु मत अ यंत मह वपूण ह ै। यह आ य क
बात ह ै क हदी का नामकरण उसके आिवभाव से भी ब त पहले हो गया था । पाँचव –
छठी शता दी म भारत को हद कहा जाता था । इकबाल के कथन को उ धृत करते ए
डॉ. व न सह ने प िलखा ह ै– “ हदी का इितहास भी कम लंबा और रोचक नह ह ै।
हदी के दो अथ ह – हद दशे का िनवासी और हदी भाषा । हद के नवािसय को
इकबाल ने हदी कहा ह ै– हदी ह हम, वतन ह हदो ता हमारा । प है क हद से
हदी बनी । पर हदी का इितहास भी अंधकार के गत म िछपा आ ह ै। यह क यह
श द कब और कहाँ से आया, कैसे बना और कनके ारा यु आ आज भी समाधान
क अपे ा रखता ह ै।”15 यह बात मान ली जाय तो हदी भाषा का व प प नह
होगा । हद म एक ही जाित िनवास नह कर रही थी । अनेक जाित और सं दाय के
लोग अपने धम, सं कृित एवं भाषा अ द के िवकास के िलए सतत य शील थे । हर
जनपद के लोग अपनी जनपदीय भाषा म सािह य क रचना करते थे । अत: कहा जा
सकता ह ै क सातव -आठव शता दी से लेकर उ ीसव शता दी तक का हदी सािह य
िविभ जनपदीय भाषा का सािह य ह।ै आ य क बात तो यह है क सन् 1900 ई. के
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बाद हदी सािह य के इितहास म केवल खड़ी बोली( हदी) के सािह य को रखा जाता ह,ै
हालां क आज भी अ य जनपदीय भाषा ( ज, अवधी मैिथली भोजपुरी आ द) म
सािह य क रचना हो रही ह ै। इसे हम सािह य के इितहास क सम या कह या हदी क
उ कृ ता । आज िजस कार हदी भाषा पर अं ेजी श द एवं वा य का भाव पड़
रहा ह,ै हो न हो हदी अपना अलग अि त व बना ले । हदी के सािह येितहासकार को
इस स य क ओर यान दनेा होगा । िशवदान सह चौहान ने इितहासकार क ओर
संकेत करते ए िलखा ह ै – “वह इितहासकार ही या जो चिलत धारणा और
मतवाद के बा -आवरण को चीरकर स य का उ ाटन न कर सके या वयं उन
मतवाद का च मा अपनी आँख पर चढ़ाकर इितहास को झुठला द ेया केवल इितवृ
का सं ह करके छु ी पा ले ।”16 सािह येितहासकार को स य का उ ोधन करना होगा,
अ यथा उन सारे सािह य को जो ज, अवधी, मैिथली, एवं भोजपुरी आ द जनपदीय
भाषा म िलखे जा रह ेह, उनका हदी सािह य के अंतगत उ लेख कया जाय । अनेक
िव ान का आ ेप ह ै क अमुक भाषा म अिभ जंना शि अिधक ह ैऔर अमुक म कम।
यह एक म मा ह ै । ‘भाषा’ भाषा होती ह ै । वह अपने समाज के अनु प िवकिसत
होती ह ैऔर िव तृत भी । भाषा अपने समाज एवं सं कृित का एक अंग होती ह ै। भाषा
से समाज के मह व एवं िवकास का पता चलता ह ै। कोइ भाषा दबी एवं संकुिचत रह
जाए तो उसम अिभ ंजना शि कम होगी और उस भाषा के सािह य का िवकास
संभव नह हो पाएगा । परंतु िजन भाषा म सािह य क असीिमत अिभ ि हो रही
ह,ै उस भाषा क अिभ ंजना शि पर बात करना उिचत न होगा । ऐसे िव ान को
जो भाषा क अिभ ंजना शि पर बात करते ह, उसे िशवदान सह चौहान ने मूख
कहकर फटकारा ह ै। “भाषा के इितहास के अधार पर उनको बोलने वाली जाितय के
सां कृितक िवकास का सही अनुमान लगाया जा सकता है । इसिलए यह कहना
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मूखतापूण ह ै क अमुक भाषा म अिभ ंजना शि क कमी ह ै और अमुक म
अिभ ंजना शि अिधक ह ै। अिधक से अिधक कोई भाषा त काल िपछड़ी हो सकती
ह।ै”17 अत: भाषा को भाषा क दिृ से दखेना चिहए। सभी भाषाएँ अपने आप म वतं
स ा रखती ह ै।
िन कष – कसी भी भाषा के सिह य का इितहास मा उस भाषा का या समाज
का ही नह , बि क रा क उपलि धय का द तावेज होता ह ै। भाषा, समाज और रा
म ए प रवतन का लेखा-जोखा उसम िव मान होता ह ै। हदी सािह य का इितहास
भी इसके िलए अपवाद नह ह ै। यह हमारी ाचीन स यता और गौरवशाली परंपरा का
ितपादन करता ह ै । सािह येितहास लेखन म कुछ ऐसे मह वपूण वदु पर िवचार
कया गया ह,ै िजसम इितहास लेखक सम वयवादी दिृ कोण के तहत इितहास को दखे ।
पारंप रक प रपाटी तोड़ने का साहस दखाए,ँ कगमेकर बन बैठे मठािधपितय के खेम
का िह सा न बनकर सािह य,सािहि यक, पाठक तथा इितहास के ित अपने दािय व को
पहचान ल तो इितहास लेखन का दु कर तीत होनेवाला काय सुगम बनते दरे नह
लगेगी ।
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(ग) गितवादी और योगवादी सािह य
गितवाद दो श द के योग से बना है – ‘ गित’ और ‘वाद’ । गित का अथ
ह–ै आगे क ओर बढ़ना और ‘वाद’ श द का संबंध मा सवाद िवचारधारा से ह ै ।
गितवाद उस का ांदोलन क ओर संकेत करता ह,ै जो मा सवादी िवचारधारा से
ेरणा हण करता आ शोिषत-उ पीिड़त वग के ित सहानुभूित और संवेदना द शत
करता ह ै। िशवदान सह चौहान ने िलखा ह ै– “ गितवाद सािह य क वह धारा ह,ै जो
पूँजीवाद के अंितम काल म उ प होती ह,ै जो पूँजीवादी सािह य और कला क सारी
कामयािबय और सजीव परंपरा को हण कर नये जन-सािह य का िनमाण करती
ह।ै”18 नये जन सािह य का िनमाण से चौहानजी का त पय ह ैमा सवादी िवचारधारा से
े रत सािह य, जो जन-साधारण से जुड़ा ह।ै डॉ. गणपितचं गु का मानना ह ै क –
“कोई भी िवचार जो समाज क गित म सहायक होता ह ै गितशील कहा जा सकता ह,ै
जब क गितवाद का अथ िवशु मा सवादी िवचार से िलया जाता है । इसीिलए
गितवाग क प रभाषा करते ए कहा गया ह ै क राजनीित के े म जो मा सवाद है
वही सािह य के े म गितवाद ह ै। अत: गितवाद को समझने के िलए म सवाद के
आधारभूत िस ांत का ान अपेि त ह।ै”19 गितवादी सािह य का सीधा संबंध
मा सवादी िवचारधारा से ह ै । िशवदान सह चौहान ने प िलखा ह ै – “ गितवाद
सािह य क धारा नह , सािह य का मा सवादी दिृ कोण ह,ै जैसे रस-िस ांत सािह य
क धारा नह , सािह य का ाचीन आ याि मक दिृ कोण ह ै । अत: गितवाद को
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स दयशा (ई थे ट स) संबंधी मा स य दिृ कोण का हदी नामकरण समझना
चािहए।”20 अत: हम कह सकते ह क जो धारणा सामािजक े म समाजवाद ह,ै
राजनैितक े म मा सवाद ह,ै वही सािह य के े म गितवादी के नाम से जाना
जाता ह ै। मा स का िवचारधारा सा यवाद से ह ै। सा यवादी िवचार का चार करने
वाला या सा यवादी ल य क पू त म यो य दनेे वाला सािह य ही गितवादी सािह य
कहलाता ह ै । एक बात यान दनेे योग है क गितवाद से एक िमलता-जुलता श द
गितशील भी हदी म चिलत ह,ै कतु दोन के अथ म सू म अंतर ह ै । गितवाद
मा सवादी सािह य िस ांत और इसके अनु प रचा गया सािह य ह,ै तो गितशील
छायावाद के बाद क सामािजक चेतना वाला सािह य िजसम राजनैितक मतवाद क
िभ ता के बावजूद ापक मानवतावादी चेतना मौजूद ह ै । गितवाद एक िवशेष
कालखंड़ से जुड़ा सािह य ह,ै िजसम मा सवादी स दयशा मौजूद ह,ै वही गितशील
आ दकाल से अब तक क सम त सािहि यक परंपरा तक इसके दायरे का िव तार घेरा
ह।ै अत: गितवाद मा सवादी िवचारधारा से सवथा जुड़ा आ ह ै और गितशील
मा स क सा यवादी िवचारधारा से सवथा वतं ह ै।
जहाँ तक गितवादी का ांदोलन का शु आत क ह,ै तो सन् 1936 म
‘ गितशील लेखक संघ’ क थापना के साथ गितवाद क शु आत मानी जाती ह ै ।
ेमचंद ने अपनी अ य ीय भाषण म ही कहा था क गितशील नाम ही गलत ह,ै
य क सभी सािह यकार वभाव से गितशील होते ह । उ ह ने प िलखा है –
“ गितशील लेखक संघ यह नाम ही मेरे िवचार से गलत ह ै। सािह यकार या कलाकार
वभावत: गितशील होता ह ै । अगर यह उसका वभाव न होता, तो शायद वह
सािह यकार ही न होता ह ै ।”21 आगे बात को और प करते ए ेमचंदजी ने
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गितशील सािह य के संबंध म कहा था – “हमारी कसौटी पर वही सािह य खरा
उतरेगा, िजसम उ चतन हो, वाधीनता का भाव हो, स दय का सार हो, सृजन क
आभा हो, जीवन क स ाइय का काश हो जो हमम गित, संघष और बेचैनी पैदा करे,
सुलाए नह , य क अब और यादा सोना मृ यु का ल ण ह।ै”22 ेमचंद ने सािह य का
ल य जनवादी िनधा रत कया ह ै। िशवदान सह चौहान ने ब त ही संतुिलत श द म
गितशील सािह य क प रभाषा दी ह – “जो सािह य जीवन के यथाथ को गहरीई और
कला मक स ाई से ित बिबत करता ह,ै वही गितशील ह,ै चाह ेउसक रचना करने
वाले लेखक का ि गत दिृ कोण आदशवादी हो या मा सवादी ।”23 इसम मू य का
माप केवल जनहीत ह ै। यह नवीनधारा जनजीवन से े रत एवं भािवत सािह य धारा
ह,ै जो ढ़ के च ान को तोड़ सामािजक यथाथ को सामने लाती ह ै। डॉ. रामिवलास
शमा गितशील सािह य का मतलब बताते ए िलखते ह क – “ गितशील सािह य से
मतलब उस सािह य से ह ैजो समाज को आगे बढ़ाता ह,ै मनु य के िवकास म सहायक
होता ह ै ।”24 केवल गितशील सािह य ही समाज को आगे नह बढ़ता या मनु य के
िवकास म सहायक नह होता, बि क कोई भी े सािह य सामािजक और सां कृितक
िवकास के िलए ितब होता ह ै। े सािह य से ता पय है वह सािह य जो सामािजक
ित यावाद से ऊपर उठ कर मनु य म मावनवीय संवेदना, स दय बोध, कम-चेतना
और तक-बु ी को जगाता है । िशवदान सह चौहान का मानना ह ै – “जाित- षे,
भा यवाद, िनराशावाद, अनैितकता और शोषण का चार करने वाले ित यावादी
हीन सािह य से उस े ाचीन और अवाचीन सािह य का अलगाव जािहर कर जो
मनु य म मानवीय संवेदना, स दय-बोध, कम-चेतना और तक-बुि जगाता ह,ै आशा का
संचार करता ह ैऔर अपने ि गत जीवन क ु ता से ऊपर उठाकर हम उदा
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और नैितक मानव बनाता ह ै । हम अिभ था क े सािह य क इस गितशील
परंपरा को अपने नई कृितय से और समृ कर और सामूिहक य ारा जनता क
िच का इतना प र कार कर क ित यावादी सािह य का चलन बंद हो जाए ।”25
आगे और प करते ए िलखा ह ै – “जो सािह य पाठक को व थ ेरणाएं दतेा ह,ै
मनोिवकृितय को और उभार कर ि को असामािजक और मानव ोही नह बनाता,
जीवन सं ाम म आगे बढ़ाने का बल और साहस देता ह ैऔर मनु य क चेतना को गहरा,
ापक और मानवीय बनाता ह,ै हसा और षे को नह बढ़ाता और जो वा तव म
जीवन क मा मक और सारग भत ि थितय का िच ण करता ह ैअथात् िजसम कला-
सौ व और गहराई ह,ै वह सब गितशील ही तो ह ै।”26 इस तरह रचना के सामािजक
दािय व से संब करके देखते ह । गितशील सािह यकार क दिृ म सिह य का
उ े य रस क सृि या मनोरंजन नह ह ै । सामािजक तनाव के कारण सािह य म
प रवतन आ ।
गितवादी सािह यकार ने समाज क उ ित व नवनीमाण के िलए सबसे
पहले ढ़य पर हार कया ह ै । ाचीन काल से चली आ रह ेधा मक अंधिव ाश
और सामािजक ढ़य को छोड़कर शोिषत , िपिड़त क क ण था को सािह य म
तुत कर उ ह मुि का संदशे दया ह ै । िशवदान सह चौहान ने सािह यकार क
आ था म धम क आलोचना करते ए िलखा है – “पुिलस, धम और रा य मनु य को
अपमािनत करने वाली सं थाए ँह, वे उसे अपने उस गौरव से वंिचत रखती ह, िजसका
वह मनु य होने के नाते अिधकारी है । मनु य और मनु यता के मु िवकास के िलए इन
तीन से मुि ज़ री ह ै ।”27 अत: धम भी शोषण का एक साधन ह ै । धमभी
भा यवादी बन जाता ह ै । वह समाज पर आई िवपि य को ई र का कोप मानकर
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उ ह सहन करता है तथा भा य पर सब कुछ छोड़ दतेा ह ै । राजा अथवा जम दार को
ई र मानने क धारणा के पीछे यही शोषण क भावना िनिहत ह ै। पूँजीपित, जम दार
और नेता धा मक भावना उभार कर शोषण करता ह ैऔर वह सुखमय जीवन तीत
करता ह ै। यही कारण ह ै क चौहानजी ने धम क कटु आलोचना क ह ै।
हदी सािह य म गितवाद का िवकास सामािजक मानवता के प र े य म आ
ह ै । सािह य क इस का धारा क त कालीन युग म अ यंत आव यकता थी ।
गितवादी सािह यकार का मुख उ े य समाज व था के ित असंतोष, समाज का
यथाथवादी िच ण, मा सवादी िवचार का चार, मानव क अपराजय शि म आ था,
मानव के आ याि मक िवकास का िनषेध, रा ीय एवं अंतरा ीय ेम क उ भावना,
सामियक सम या के ित जाग कता, सामंतवाद, सा ाजवाद और पूँजीवाद के ित
िव ोह, शोिषत के ित सहानुभूित, नारी संबंधी नवीन दिृ और बौि कता और ं य
का ाधा य ह ै।
योग का वभािवक अथ ह ै– उपयोिगता एवं परंपरा क दिृ से परी ण । यह
श द मूलत िव ान क अ वेषण-कायिवधी से िलया गया ह ै । योग ितभा संप
कलाकार क एक सहज वृि ह;ै जो नयी अनुभूित और आ मबोध के नये तर को
ज म दतेी ह ै। िशवदान सह चौहान का मानना ह ै– “ योग सािह यकार और कलाकार
क सृजना मक चे ा का सहज धम ह,ै िजसका पालन उ ह अिनवायत: करना पड़ता
ह।ै”28 योग का संबंध बु चेतना से ह ै । िजसके आधार पर नए मू य , नये आयाम
और नयी वृि याँ िवकिसत होती ह । य तो हर युग क किवता म योग होते आये ह,
पर हदी क योगवादी किवता ने नयी प रि थितय म नये िवषय उपि थत कये ह ।
योग का ल य ह ै ापक सामािजक स य के खंड अनुभव को साधारणीकरण करने म
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किवता को नवानुकूल मा यम दनेा, िजसम ि ारा इस ापक स य का
सवबोधग य ेषण संभव हो सके । इस त य को आचाय केशरी कुमार ने इस कर प
कया ह ै– “ योग ि स य को ापक स य बनाने तथा भाषा म अिधक सारग भत
अथ भरकर अपनी संवेदना को पाठक तक प चँाने के िलए है । उ ह ने िस ांत म
किवता को योग का िवषय भी माना और साधारणीकरण क सम या को का क
मौिलक सम या तथा किवता क भाषा क गूढ़ता को अपनी बेबसी भी कहा ।”29
िशवदान सह चौहान का मानना ह ै क योगवादी सािह यकार व तु स य अिधक प
म योग क ि थित मानते ह । उ ह ने इस कार िलखा ह ै– “ योगवादी इसके िवपरीत
‘ योग’ का संबंध केवल किवता के पाकार (फाम) तक ही सीिमत रखने पर जोर दतेे
आए ह । यह सच ह ै क पगत योग को ही वे ‘सा य’ घोिषत नह करते, कतु ये
योग कस िवशेष व तु-स य क अिभ ि के ‘साधन’ ह, इसे वे कभी खुलकर बताते
भी नह और न ‘व तु’ और ‘ प’ के अंगांिग संबंध पर जोर ही दतेे ह।”30 योगवादी
किवता ासो मुख म यवग य समाज के जीवन का िच ह ै। योगवादी किव ने िजस
नये स य के शोध और ेषण के नये मा यम क खोज क वह स य इसी म यवग य
समाज के ि का स य ह ै। डॉ. िव नाथ साद ने प वाद : िस ांत और साधना म
तुत िवषय पर अपना मत इस कार दया ह ै– “ योग का उ े य ह,ै मा य स य का
परी ण एवं िविभ त व के अ वेषण क िविध ह ै। ... इस कार योग क मूल वृि
परंपरागत थापना से आगे बढ़कर नयी दशा क थापना ह ै । साथ ही योग
यथाथ को जीवन के प र े य म दखेने का साधन ह ै। योग क वा तिवक दिृ िववेक
के आधार पर िवकिसत होती ह ै । योग म िन प दशाए ँहोती ह ै – (क) योग
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कसी भी स य को अंितम स य नह मानता, (ख) कसी व तु का वहार (Behaviour)
उसक कृित (Nature) िनधारण करती ह,ै क तु कृित प रि थितय ारा शािसत
होती ह,ै (ग) योग चम कार को कोई थान नह दतेा, य क चम कार िववेक को न
करके अंधिव ास को ा य दतेा ह,ै (घ) ण- ित ण क अनुभूित योग को
गितशीलता दान करती ह ै।”31
आधुिनक हदी सािह य म योगवादी किवता क परंपरा तारस क 1943 ई. के
काशन के साथ शु ई । डॉ. नामवर सह ने िलखा ह ै– “ हदी किवता के पाठक म
योगवाद क चचा ‘तारस क’ किवता सं ह (1943 ई.) से शु ई; ‘ तीक’
पि का(जुलाई 47-52 ई.)से उसे बल िमला और ‘दसूरा स क’ किवता सं ह (1951 ई.)
से उसक थापना ई ।”32 तारस क म सात किवय क किवता संकिलत ह, परंतु सात
किव योगवादी नह ह । डॉ. ब न सह ने िलखा ह ै– “ योगवाद का आरंभ अ ेय के
संपादक व म कािशत ‘तारस क’ (1943 ई.) से होता ह ै। ‘तारस क’ क भूिमका पर
तेज रोशनी डालने से भूिमका लेखक का म त प हो जाता ह ै । वह कहता है क
सात किव कसी एक कूल के नह ह । वे राही नह , राह के अ वेषी ह ।”33 ारंभ म
किवय का दिृ कोण प नह था, नूतनता क खोज के िलए केवल योग क घोषणा
क गई थी, तो इसे योगवादी कहा गया। इसी आंदोलन क एक शाखा प वाद ह ै।
प वाद को नकेनवाद भी कहा जाता ह ै । निलन िवलोचन शमा, केसरी कुमार और
नरेस के संयु यास से आरंभ आ इस का ांदोलन का भाव वैसे परवत हदी
किवता पर नह के बराबर दखाई पड़ा । इसका कारण यह है क उ किवय का
उ े य अ ेय के तारस क क ित या म एक अलग का ांदोलन खड़ा करना था, जो
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नकेन के प म सामने आया । नकेन क प वादी किवय के पीछे कोई िनि त
िवचार- णाली थी या नह इसका पता लगाना ब त क ठन काय ह ै। इनके किवता क
वृि से यह सूचना ज र िमल जाती ह ै क उ का ांदोलन से जुड़े तीन किव
योगमूलक इस नई का - वृि के ज रए यह बतलाना चाहते थे क य द अ ेय हदी
किवता म योग के िलए िवदशेी किवता के बब और तीक के समाना तर कुछ बब
एवं तीक इ तेमाल म ला रहे थे तो वे अपनी इन किवता के मा यम से उनका उ र
दशेज बब और तीक का योग कर के दनेा चाहते थे । इसके िलए इ ह ने शाि दक
योग पर बल दया ।
जो ि का अनुभव ह,ै उसे समि तक कैसे उसक संपूणता म प चँाया जाय,
यही पहली सम या थी, जो योगशीलता को ललकारती ह,ै य क किव यह अनुभव
करता ह ै क अब भाषा का पुराना ापक व नह ह ै। भाषा, लय, छंद और शैली म आये
प रवतन ही योग नह ह, बि क एक िवशेष कार के दिृ कोण ह । िशवदान सहव
चौहान का मानना ह ै– “हमारे दशे म िवशेषकर हदी म नई किवता के व ा का
एक ऐसा दल उठ खड़ा आ है जो एक खास क म क आ मिन और ि वादी वृि
क किवता को ही योगवादी, ‘आधुिनक’ या ‘नई किवता’ घोिषत करता ह ैऔर किवता
क भाषा, लय, छंद, शैली आ द म कए गए एक िवशेष कार के योग को ही ‘ योग’
मानता ह ै। सािह य म ‘ योग’ को लंुज और लंगड़ा बना दनेा ह,ै जब क आधुिनक युग के
संपूण अंतबा स य को सबल अिभ ि देने क सम या इतनी बड़ी है क आधुिनक
किव और कलाकार को अपने योग से जीवन से संपूण िव तार को नापने क छूट ही
नह , उसम साम य भी होनी चािहए । ‘ योग’ के अथ को पहले तो संकुिचत करके, फर
उसको एक खास राजनीितक मतवाद क बैसाखी लगाकर चलाने से न तो वह िव तार
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नापा जा सकता ह ैऔर न वह ाणवन किवता ही पैदा हो सकती ह,ै जो आधुिनक युग
क मांग ह।ै”34 अ ेयजी के ारा बार-बार वय ंको योगशील किव घोिषत करने और
प वा दय ारा योग को सा य प म वीकार करने के बाद भी, कस अ ात
ेरणा से समी क ने योगशील को ही वा तिवक योगवादी मान िलया । डॉ. ब न
सह ने योगवाद को साधन तथा प वाद को सा य माना ह ै। उ ह ने प िलखा ह ै–
“ योगशील के िलए योग साधन है, जब क नकेनवा दय के िलए सा य ।”35 डॉ.
गणपितचं गु ने भी इस पर अपनी सहमती दखाई ह,ैजो इस कार ह ै –
“नकेनवा दय का यह प वाद अ ेय के योगवाद क प ा म खड़ा कया गया
आंदोलन था, जो परंपरा का िवरोध करने, नूतनता क दहुाई दनेे, तथा योग पर बल
दनेे क दिृ से भी आगे था । इसने िस कर दया क असली योगवादी तो प वाद
ही ह,ै य क यह योग को ही सा य मानता ह,ै केवल साधन नह ।”36 इस कार
नकेनवा दय एवं अ य िव ान ने योगशील और योगवाद म अंतर प करते ए
यह माना ह ै क योगशील किव योग को साधन तथा योगवादी किव योग को
सा य मानते ह । इस कार प वादी किव असल योगवादी किव ह ।
कला से यह अपे ा क जाती ह ै क उसे सं ेषणीय होना चािहए । सं ेषणीयता
का क वह शि ह,ै िजस पर उसक अिभ ि , योजन तथा सा य क सफलता
िनभर करती ह ै। यह साधन और सा य दोन ह ै। इसक सफलता इसके घटक पर िनभर
करती ह।ै घटक मु यत: दो ह – कलाकार और पाठक । इन दोन के म य का िमलन बद ु
वह उ पादन ह,ै िजसे कला या रचना क सं ा दी जाती ह ै। उ पादन के िवषय या उसके
वैिश य उसे ा अथवा अ ा बनाते ह । इस संरचना च म मूल व तु ह ै–दाता या
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कलाकार उसक ईमनदार अिभ ि सं ेषण क यो यता ा कर पाती ह ै । ऐसी
ि थित म उसके िलए आव यक मह व क व तु ह ै क वह अपने आवेग और आवेश,
िवचार और तक, क पना और भावानुभूित को िन संग प म तुत करे – न तो उसे
िछपाये न ही तोड़-मरोड़कर अपने िनजी सै ांितक आ ह के वशीभूत हो कर तुत करे।
ो. िव नाथ साद के श द म – “ प वाद योग को सा य मानता ह ैऔर भाव तथा
भाषा, िवचार तथा अिभ ि , आवेश तथा आ म ेषण, भाव तथा प इनम से कसी
म अथवा सभी म योग को आव यक समझता ह ै। इसके अनुसार किवता न तो भाव ,
िवचार अथवा दशन से िलखी जाती है और न ही छंद अलंकार आ द से, अिपतु वह
श द से िलखी जाती ह ै । प वाद मानता ह ै क किवता क वा तवीक ेरणा
व तुि थित से िमलती ह।ै व तु ा के भीतर भाव-छिवयाँ उ प करती ह ै ।”37 अत:
प वा दय क ईमानदारी क शंसा होनी चािहए क उ ह ने स य मन से यह
वीकार कया क वे सामािजक अनुभव को नह करते, और यह क सही-सही
सं ेषण क क ठनाई को समझकर वे पाठक को मनोनुकूल अथ हण करने के िलए वतं
छोड़ दतेे ह तथा मु आसंग के सहारे वे उपचेतन के मम का उ ाटन करना चाहत ेह ।
योगवादी सािह य के उ व से पूव सािह य म जो योग ए उनम आंत रक
वा य के िवकास का पूरा-पूरा यान रखा गया और जीवन को ही योग प म हण
कया गया, कतु आज का योगवादी सािह य आंत रक मह व को धानता न दकेर
बा प रवतन म ही य शील ह ै । तारस क म अ ेय ने योग क ा या तुत
करते ए अपनी किवता के व म कहा ह ै– “ योग सभी काल के किवय ने कये
ह, य िप कसी एक काल म कसी िवशेष दशा म योग करने क वृि वाभािवक
ही ह,ै कतु किव मश: अनुभव करता है क िजन े म योग ए ह, िजनसे आगे
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बढ़कर अब उन े का अ वेषण करना चािहए, िज ह अभी नह छुआ गया ह ै या
िजनको अभे मान िलया गया ह ै।”38
योगवादी किवय क अंतरा मा म अहभंाव इस प म ब मूल ह ै क वह
सामािजक जीवन के साथ कसी कार के सामंज य का गठबंधन नह कर सकता । यह
एक कार से ि वाद क परम िवकृित का प रणाम ह ै। वैयि कता क अिभ ंजना
आधुिनक हदी सािह य क एक मुख िवशेषता है । िशवदान सह चौहान का मनना है–
“ योगवादी जब इस कार क बौि क दलील देता ह ैतो वयं अपने ि वाद क क
खोदकर उसम कुद पड़ता ह।ै यह मान लेने पर क िव ान क ईजाद और यु क
िवभीषका ने अिनि ता और भय का वातावरण पैदा कर दया ह,ै िजससे समाज म
कंुठा, िनराशा, मरण-भावना, हसा, पर-पीड़ा, अना था, यौन-उ छंृखलता, वाथपरता
और मानव ोह क भावनाए ँऊपर से नीचे तक ा हो गयी ह, या योगवादी किव
का केवल अपनी आ मा के स य को करने या अपने ि व को ामािणत करने
का यह सारा आडंबर एक भयंकर आ म- वंचना का माण नह देता – य क
योगवादी किवता म अिधकतर इन भावना क ही अनुगंुज रहती ह ै ।”39 भारतद,ु
ि वेदी एवं छायावादी युग म वैयि कता क धानता रही ह,ै कतु वह वैयि कता
समि से सवथा िवि छ नह थी, उसम ापक उदा लोक भावना थी । पूववत
सािह य म वैयि कता क अिभ ंजना म स दय संवेदना एवं ेषणीयता क पया
मता थी, कतु योगवाद क वैयि कता के समीप म जज रत थोथा ही रह गया ।
‘आधुिनक सािह य क वृि याँ’ म डॉ. नामवर सह ने योगवादी किवय म वैयि क
भावना को वीकार कया ह ै। जो इस कार ह ै– “ योगवाद के पं ह वष का इितहास
ि वाद के दो सीमांत के बीच फैला आ ह ै – इनम से एक सीमांत ह ैम यवग य
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प रवेश के ित म यवग य किव का वैयि क असंतोष और दसूरा सीमांत ह ै जन-
जागरण से डरे ए किव क आ मर ा क भावना । कुल िमलाकर यह चरम ि वाद
ही योगवाद का क बद ुह ैऔर िविभ राजनैितक, सामािजक मा यता के प म
यह संक ण ि वाद अपने को करता रहता ह ै।”40 इस कार योगवादी किवय
क रचना म ि िन ता कूट-कूट कर भरी ह ै। वह अपनी बात कहता है। समाज क
उपे ा करता ह ै । वह अपने तक रह कर घोर अहवंादी बन गया ह ै । डॉ. राम व प
चतुवदी ने इस बात को आपने श द म इस कार प कया ह ै– “आधुिनक सािह य म
मानवीय ि व और उसक सजना मकता क सबसे गहरी और साथक चतन
सि दानंद हीरानंद वा ययन अ ेय के कृित व म िमलती ह ै।समकालीन जीवन के िजस
खतर क ओर अभी संकेत कया गया, उनसे उबरने के िलए मनु य के सजना मक
ि व को सुरि त रखते ए िवकिसत करनी ह,ै पुरानी श दावली म, आधुिनक
जीवन का सबसे बड़ा पु षाथ ह ै । सजना मक ि व मूलत: वाधीन होकर ही
दािय व का अनुभव कया जा सकता ह ै।”41
योगवाद पर एक आ ेप लगाया गया क योगवादी किव अित बौि कता से
िसत ह । उन लोग का तक यह था क आज क नई किवता म अनुभूित एवं
रागा मकता क कमी ह,ै इसके िवपरीत इसम बौि क ायाम क उछल-कूद
आव यकता से भी अिधक ह ै। यह किवता पाठक के दय को तरंिगत तथा उ िेलत न
कर उसक बुि को अपने च ुह म आब करके परेशान करना चाहती ह ै। आचाय
केसरी कुमार इस बात से सहमत नह ह । उनका मानना ह ै – “यह इ जाम क
योगवादी बौि कता से त होने के कारण का क चौह ी म नह आता( य क वह
राग क जागीर ह)ै एक पूवा ह िलए ह ै। इस पूवा ह का उदाहरण डॉ. नगे का यह
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कथन ह ै क किवता मानव मन का शेष सृि के साथ रागा मक संबंध थािपत करती
ह।ै”42 कार कहा जा सकता ह ै क आज क किवता म रागा मकता के थान पर अ प
िवचरा मकता ह ैऔर इसीिलए उसम साधारणीकरण क मा ा का सवथा अभाव ह ै।
िन कषत: कहा जा सकता ह ै क योगवादी किवता आधुिनक युग के का -
जीनव का स य ह ै। नयी तरह का बोध एकदम वीकृत ही हो जाय, यह आव यक नह
ह ै । यही कारण है क इस नयी किवता क आलोचना भी खूब ई है; जैसे ये लोग
रा ीयता क अपे ा अंतरा ीयता के राग अलापते ह, इनम अितशय वै ािनकता का
आ ह ह ै। ये लघु मानव के दद को रोते ह । इनम उ ेजना व त अिधक ह ै। योगवादी
किवता के साथ दसूर के भाव का मेल नह होता यानी उसम साधारणीकरण क
गंुजाइश नह ह,ै अतएवं ेषणीयता भी नह ह ै । उदा ता और आ वाद क जगह
भ ापन और िणक चम कार ह ै। इसम िवलायतीपन और नकल ह ैये सभी और इसी
तरह के अनेक आ ेप इस किवता के बारे म दये जाते रह े ह । इन सबके बावजूद
योगवादी किवता, नयी किवता का अि त व उ रो र बढ़ा ह ै। इसक आलोचना क
अिधकता ही इसके अि त व क वीकृित का माण ह ै।
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(घ) सािह य म पणू मानव क ित ा और रा ीय बोध
सािह य समाज के नैितक मू य के िलए िलखा जाता ह ै। सािह य का िनमाता
ि होता ह ै तथा वह समाज का एक अंग ह ै । ि क अपनी भावना, िवचार,
अनुभूित तथा अपने चतन का प रणाम सािह य ह ै । सािह य िवशेष क अिभ ि
होता ह ै । इसी िवशेष का सामा य होना ही सामािजक करण ह ै । सािह यकार िजस
समाज म ज म लेता ह,ै उसी समाज म रहकर वहाँ क बात को दखे सुनकर, अनुभव
करके उसे ही अिभ करता ह ै। सािह यकार समाज क संपूण ि थित को हण करके
उस भाव जगत् को क पना के रंग म रंग कर तुत करता ह ै । वह जन-समा य से
अिधक जाग क होता ह,ै अिधक संवेदनशील होता ह ै। इसिलए वह समाज को सही प
म तुत करने म स म होता ह ै। िशवदान सह चौहान ने िलखा ह ै– “महान लेखक
क रचना म अपन-ेअपने काल क सामािजक िवचारधाराए ँ ई ह और उनक
कृितयाँ अपने समय के ऐितहािसक वा तव म पूणत: संबं ह । ले कन इन महान लेखक
को कसी शोषक वग के खंूटे से बांधकर जांचना थ होगा, य क उनक रचना म
अपने समय का सम जीवन, तमाम वग के अंत:संबंध ित बिबत ए ह और इस
कार उस युग क मूल सम या का उ ाटन आ ह ै।”43 समाज क सोच और समाज
के वर को सािह यकार मुख रत करता ह।ै इस कार कहा जा सकता ह ै क सािह यकार
समाज का मुख होता ह ै। ो. िव नाथ साद ने ‘सािह य म समाज क अंतल नता का
’ नामक लेख म सािह य म समाज क अंतल नता का अथ प करते ए िलखा है –
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“सािह य का िवषय सामािजक हो । िनतांत क पना या ि गत संवेदना भी य द ह ैतो
उसे भी समाज के संद भत होना चािहए । सामािजक आधार होने का अथ ह,ै उसका
समाज म िविनयोग संभव हो । रचनाकार क िनजी अनुभूित, क पना और संवेदना क
सािहि यक अिभ ि समाज के िलए सवथा अप रिचत न हो । समाज यह मान सके
और अनुभव कर सके क सािह यकार क अिभ ि उसक अनुभूित ह ै। महान् सािह य
क िनजी अनुभूित समाज क अनुभूित क ितिनिध होती ह ै।”44 सािह यकार समाज के
िवचार, भाव तथा अनुभूित को ता कक करण करते ए तुत करता ह ै । आन ड
हाउजर कहते ह – “ ि अपने दिृ कोण, अपने चतन, अपनी अनुभूित, अपने काय
का ता कक करण करता ह,ै अथात् उसे इनक एक वीकाय ा या क चता रहती है,
िजस पर सामािजक ढ़य क दिृ आपि न क जा सके । इस तरह सामािजक
समुदाय अपने ि ितिनिधय के ज रए ाकृितक और ऐितहािसक घटना ,सबसे
आगे अपनी-अपनी स मितय और मू यांकन क ऐसी ा या करते ह, जो उनके
भौितक िहत , स ा क आकां ा, मान- ित ा और अ य सामािजक ल य के अनुकूल
ह ।”45 समाज युग-सापे होता ह,ै युग बदलता ह ैतो समाज बद�