narak ka marg premchand

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2

प्रमेचंद

नरक का मार्ग

3

क्रम

विश्वास : 3

नरक का मार्ग : 20

स्त्री और पुरूष : 28

उध्दार : 34

वनिागसन : 42

नैराश्य लीला : 49

कौशल़ : 61

र्स्गर् की देिी : 66

आधार : 75

एक ऑंच की कसर : 81

माता का ह्रदय : 87

परीक्षा : 96

तेंतर : 100

नैराश्य : १08

दण्ड : 119

वधक्कार : 132

लैला : 140

नेउर : 158

शूद्र : 168

4

विश्वास

न वदनो वमस जोसी बम्बई सभ्य-समाज की रावधका थी।

थी तो िह एक छोटी सी कन्या पाठशाला की अध्यावपका

पर उसका ठाट-बाट, मान-सम्मान बडी-बडी धन-रावनयो ं

को भी लज्जित करता था। िह एक बडे महल में रहती थी,

जो वकसी जमाने में सतारा के महाराज का वनिास-स्थान

था। िह ॉँ सारे वदन नर्र के रईसो,ं राजो,ं राज-कमचाररयो ं

का तांता लर्ा रहता था। िह सारे प्ांत के धन और कीवतग

के उपासको ं की देिी थी। अर्र वकसी को ज्जिताब का

िब्त था तो िह वमस जोशी की िुशामद करता था। वकसी

को अपने या संबधी के वलए कोई अच्छा ओहदा वदलाने की

धुन थी तो िह वमस जोशी की अराधना करता था। सरकारी

इमारतो ं के ठीके ; नमक, शराब, अफीम आवद सरकारी

चीजो ं के ठीके ; लोहे-लकडी, कल-पुरजे आवद के ठीके

सब वमस जोशी ही के हाथो में थे। जो कुछ करती थी िही

करती थी, जो कुछ होता था उसी के हाथो होता था। वजस

िक्त िह अपनी अरबी घोडो की वफटन पर सैर करने

वनकलती तो रईसो ंकी सिाररयां आप ही आप रासे्त से हट

जाती थी, बडे दुकानदार िडे हो-हो कर सलाम करने

लर्ते थे। िह रूपिती थी, लेवकन नर्र में उससे बढ़कर

रूपिती रमवियां भी थी। िह सुवशवक्षता थी,ं िक्चतुर थी,

र्ाने में वनपुि, हंसती तो अनोिी छवि से, बोलती तो

वनराली घटा से, ताकती तो बांकी वचतिन से ; लेवकन इन

रु्िो में उसका एकावधपत्य न था। उसकी प्वतष्ठा, शज्जक्त

और कीवतग का कुछ और ही रहस्य था। सारा नर्र ही नही ;

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सारे प्ान्त का बच्चा जानता था वक बम्बई के र्िनगर वमस्टर

जौहरी वमस जोशी के वबना दामो ंके रु्लाम है।वमस जोशी

की आंिो का इशारा उनके वलए नावदरशाही हुक्म है। िह

वथएटरो में दाितो ंमें, जलसो ंमें वमस जोशी के साथ साये

की भ ॉँवत रहते है। और कभी-कभी उनकी मोटर रात के

सन्नाटे में वमस जोशी के मकान से वनकलती हुई लोर्ो को

वदिाई देती है। इस पे्म में िासना की मात्रा अवधक है या

भज्जक्त की, यह कोई नही जानता । लेवकन वमस्टर जौहरी

वििावहत है और वमस जौशी विधिा, इसवलए जो लोर्

उनके पे्म को कलुवषत कहते है, िे उन पर कोई अत्याचार

नही ंकरते।

बम्बई की व्यिस्थावपका-सभा ने अनाज पर कर लर्ा

वदया था और जनता की ओर से उसका विरोध करने के

वलए एक विराट सभा हो रही थी। सभी नर्रो ं से प्जा के

प्वतवनवध उसमें सज्जम्मवलत होने के वलए हजारो की संख्या

में आये थे। वमस जोशी के विशाला भिन के सामने, चौडे

मैदान में हरी-भरी घास पर बम्बई की जनता उपनी

फररयाद सुनाने के वलए जमा थी। अभी तक सभापवत न

आये थे, इसवलए लोर् बैठे र्प-शप कर रहे थे। कोई

कमगचारी पर आके्षप करता था, कोई देश की ज्जस्थवत पर,

कोई अपनी दीनता पर—अर्र हम लोर्ो में अर्डने का

जरा भी सामर्थ्ग होता तो मजाल थी वक यह कर लर्ा वदया

जाता, अवधकाररयो ंका घर से बाहर वनकलना मुज्जिल हो

जाता। हमारा जरुरत से ज्यादा सीधापन हमें अवधकाररयो ं

के हाथो ंका ज्जिलौना बनाए हुए है। िे जानते हैं वक इन्हें

वजतना दबाते जाओ, उतना दबते जायेर्ें, वसर नही ं उठा

सकते। सरकार ने भी उपद्रि की आंशका से सशस्त्र

6

पुवलस बुला ली।ैै उस मैदान के चारो ंकोनो पर वसपावहयो ं

के दल डेरा डाले पडे थे। उनके अफसर, घोडो ंपर सिार,

हाथ में हंटर वलए, जनता के बीच में वनशं्शक भाि से घोडें

दौडाते वफरते थे, मानो ंसाफ मैदान है। वमस जोशी के ऊंचे

बरामदे में नर्र के सभी बडे-बडे रईस और राज्यावधकारी

तमाशा देिने के वलए बैठे हुए थे। वमस जोशी मेहमानो ंका

आदर-सत्कार कर रही थी ं और वमस्टर जौहरी, आराम-

कुसी परलेटे, इस जन-समूह को घृिा और भय की दृवि से

देि रहे थे।

सहसा सभापवत महाशय आपटे एक वकराये के तांरे्

पर आते वदिाई वदये। चारो ंतरफ हलचल मच र्ई, लोर्

उठ-उठकर उनका र्स्ार्त करने दौडे और उन्हें ला कर

मंच पर बेठा वदया। आपटे की अिस्था ३०-३५ िषग से

अवधक न थी ; दुबले-पतले आदमी थे, मुि पर वचन्ता का

र्ाढ़ा रंर्-चढ़ा हुआ था। बाल भी पक चले थे, पर मुि पर

सरल हास्य की रेिा झलक रही थी। िह एक सफेद मोटा

कुरता पहने थे, न पांि में जूते थे, न वसर पर टोपी। इस

अद्धनगग्न, दुबगल, वनसे्तज प्ािी में न जाने कौल-सा जादू था

वक समस्त जनता उसकी पूजा करती थी, उसके पैरो ंमें न

जाने कौन सा जादू था वक समस्त जरत उसकी पूजा करती

थी, उसकेपैरोैे पर वसर रर्डती थी। इस एक प्ािी क

हाथो ंमें इतनी शज्जक्त थी वक िह क्षि मात्र में सारी वमलो ंको

बंद करा सकता था, शहर का सारा कारोबार वमटा सकता

था। अवधकाररयो ंको उसके भय से नीदं न आती थी, रात

को सोते-सोते चौकं पडते थे। उससे ज्यादा भंयकर जनु्त

अवधकाररयो ंकी दृविमें दूसरा नथा। ये प्चंड शासन-शज्जक्त

उस एक हड्डी के आदमी से थरथर कांपती थी, क्ोवंक उस

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हड्डी मेंएक पवित्र, वनष्कलंक, बलिान और वदव्य आत्मा का

वनिास था।

पटे नें मंच पर िडें होकरह पहले जनता को शांत

वचत्त रहने और अवहंसा-व्रत पालन करने का

आदेश वदया। वफर देश में राजवनवतक ज्जस्थवत का ििगन

करने लरे्। सहसा उनकी दृवि सामने वमस जोशी के

बरामदे की ओर र्ई तो उनका प्जा-दुि पीवडत हृदय

वतलवमला उठा। यहां अर्वित प्ािी अपनी विपवत्त की

फररयाद सुनने के वलए जमा थे और िहां मेंजो पर चाय

और वबसु्कट, मेिे और फल, बफग और शराब की रेल-पेल

थी। िे लोर् इन अभार्ो ंको देि-देि हंसते और तावलयां

बजाते थे। जीिन में पहली बार आपटे की जबान काबू से

बाहर हो र्यी। मेघ की भांवत र्रज कर बोले—

‘इधर तो हमारे भाई दाने-दाने को मुहताज हो रहे है,

उधर अनाज पर कर लर्ाया जा रहा है, केिल इसवलए वक

राजकमगचाररयो ंके हलिे-पूरी में कमी न हो। हम जो देश

जो देश के राजा हैं, जो छाती फाड कर धरती से धन

वनकालते हैं, भूिो ंमरते हैं; और िे लोर्, वजन्हें हमने अपने

सुि और शावत की व्यिस्था करने के वलए रिा है, हमारे

र्स्ामी बने हुए शराबो ंकी बोतले उडाते हैं। वकतनी अनोिी

बात है वक र्स्ामी भूिो ंमरें और सेिक शराबें उडायें, मेिे

िायें और इटली और से्पन की वमठाइयां चलें! यह वकसका

अपराध है? क्ा सेिको ंका? नही,ं कदावप नही,ं हमारा ही

अपराध है वक हमने अपने सेिको ंको इतना अवधकार दे

रिा है। आज हम उच्च र्स्र से कह देना चाहते हैं वक हम

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यह कू्रर और कुवटल व्यिहार नही ं सह सकते।यह हमारें

वलए असह्य है वक हम और हमारे बाल-बचे्च दानो ंको तरसें

और कमगचारी लोर्, विलास में डूबें हुए हमारे करूि-

क्रन्दन की जरा भी परिा न करत हुए विहार करें । यह

असह्य है वक हमारें घरो ंमें चूल्हें न जलें और कमगचारी लोर्

वथएटरो ं में ऐश करें , नाच-रंर् की महवफलें सजायें, दाितें

उडायें, िेश्चाओ ंपर कंचन की िषाग करें । संसार में और ऐसा

कौन ऐसा देश होर्ा, जहां प्जा तो भूिी मरती हो और

प्धान कमगचारी अपनी पे्म-वक्रडा में मग्न हो, जहां ज्जस्त्रयां

र्वलयो ंमें ठोकरें िाती वफरती हो ंऔर अध्यावपकाओ ंका

िेष धारि करने िाली िेश्याएं आमोद-प्मोद के नशें में चूर

हो-ं---

काएक सशस्त्र वसपावहयो ं के दल में हलचल पड

र्ई। उनका अफसर हुक्म दे रहा था—सभा भंर् कर

दो, नेताओ ंको पकड लो, कोई न जाने पाए। यह विद्रोहात्म

व्याख्यान है।

वमस्टर जौहरी ने पुवलस के अफसर को इशारे पर

बुलाकर कहा—और वकसी को वर्रफ्तार करने की जरुरत

नही।ं आपटे ही को पकडो। िही हमारा शतु्र है।

पुवलस ने डंडे चलने शुरु वकये। और कई वसपावहयो ंके

साथ जाकर अफसर ने अपटे का वर्रफ्तार कर वलया।

जनता ने त्यौररयां बदली।ं अपने प्यारे नेता को यो ं

वर्रफ्तार होते देि कर उनका धैयग हाथ से जाता रहा।

लेवकन उसी िक्त आपटे की ललकार सुनाई दी—तुमने

अवहंसा-व्रत वलया है ओर अर्र वकसी ने उस व्रत को तोडा

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तो उसका दोष मेरे वसर होर्ा। मैं तुमसे सविनय अनुरोध

करता हं वक अपने-अपने घर जाओ।ं अवधकाररयो ं ने िही

वकया जो हम समझते थे। इस सभा से हमारा जो उदे्दश्य था

िह पूरा हो र्या। हम यहां बलिा करने नही ं, केिल संसार

की नैवतक सहानुभूवत प्ाप्त करने के वलए जमाहुए थे, और

हमारा उदे्दश्य पूराहो र्या।

एक क्षि में सभा भंर् हो र्यी और आपटे पुवलस की

हिालात में भेज वदए र्ये

स्टर जौहरी ने कहा—बच्चा बहुत वदनो ंके बाद पंजे

में आए हैं, राज-द्रोह कामुकदमा चलाकर कम से

कम १० साल के वलए अंडमान भेंजूर्ां।

वमस जोशी—इससे क्ा फायदा?

‘क्ो?ं उसको अपने वकए की सजा वमल जाएर्ी।’

‘लेवकन सोवचए, हमें उसका वकतना मूल्य देना पडेर्ा।

अभी वजस बात को वर्ने-वर्नाये लोर् जानते हैं, िह सारे

संसार में फैलेर्ी और हम कही ं मंुह वदिाने लायक नही ं

रहेंर्ें। आप अिबारो ंमें संिाददाताओ ंकी जबान तो नही ं

बंद कर सकते।’

‘कुछ भी हो मैं इसे जोल में सडाना चाहता हं। कुछ

वदनो ं के वलए तो चैन की नीदं नसीब होर्ी। बदनामी से

डरना ही व्यथग है। हम प्ांत के सारे समाचार-पत्रो ंको अपने

सदाचार का रार् अलापने के वलए मोल ले सकते हैं। हम

प्ते्यक लांछन को झठू सावबत कर सकते हैं, आपटे पर

वमर्थ्ा दोषारोपरि का अपराध लर्ा सकते हैं।’

‘मैं इससे सहज उपाय बतला सकती हं। आप आपटे

को मेरे हाथ में छोड दीवजए। मैं उससे वमलंूर्ी और उन

वम

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यंत्रो ंसे, वजनका प्योर् करने में हमारी जावत वसद्धहस्त है,

उसके आंतररक भािो ंऔर विचारो ंकी थाह लेकर आपके

सामने रि दंूर्ी। मैं ऐसे प्माि िोज वनकालना चाहती

हंवजनके उत्तर में उसे मंुह िोलने का साहस न हो, और

संसार की सहानुभूवत उसके बदले हमारे साथ हो। चारो ं

ओर से यही आिाज आये वक यह कपटी ओर धूतग था और

सरकर ने उसके साथ िही व्यिहार वकया है जो होना

चावहए। मुझे विश्वास है वक िह षंडं्यत्रकाररयो ंको मुज्जिया

है और मैं इसे वसद्ध कर देना चाहती हं। मैं उसे जनता की

दृवि में देिता नही ंबनाना चाहती ंहं, उसको राक्षस के रुप

में वदिाना चाहती हं।

‘ऐसा कोई पुरुष नही ंहै, वजस पर युिती अपनी मोवहनी

न डाल सके।’

‘अर्र तुम्हें विश्वास है वक तुम यह काम पूरा कर

वदिाओरं्ी, तो मुझे कोई आपवत्त नही ंहै। मैं तो केिल उसे

दंड देना चाहता हं।’

‘तो हुक्म दे दीवजए वक िह इसी िक्त छोड वदया

जाय।’

‘जनता कही ंयह तो न समझेर्ी वक सरकार डर र्यी?’

‘नही,ं मेरे ख्याल में तो जनता पर इस व्यिहार का बहुत

अच्छा असर पडेर्ा। लोर् समझेर्ें वक सरकार ने जनमत

का सम्मान वकया है।’

‘लेवकन तुम्हें उसेक घर जाते लोर् देिेंरे् तो मन में क्ा

कहेंरे्?’

‘नकाब डालकर जाऊंर्ी, वकसी को कानोकंान िबर न

होर्ी।’

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‘मुझे तो अब भी भय है वक िह तुमे्ह संदेह की दृवि से

देिेर्ा और तुम्हारे पंजे में न आयेर्ा, लेवकन तुम्हारी इच्छा

है तो आजमा देिो।ं’

यह कहकर वमस्टर जौहरी ने वमस जोशी को पे्ममय

नेत्रो ंसे देिा, हाथ वमलाया और चले र्ए।

आकाश पर तारे वनकले हुए थे, चैत की शीतल, सुिद

िायु चल रही थी, सामने के चौडे मैदान में सन्नाटा छाया

हुआ था, लेवकन वमस जोशी को ऐसा मालूम हुआ मानो ं

आपटे मंच पर िडा बोल रहा है। उसक शांत, सौम्य,

विषादमय र्स्रुप उसकी आंिो ंमें समाया हुआ था।

त:काल वमस जोशी अपने भिन से वनकली, लेवकन

उसके िस्त्र बहुत साधारि थे और आभूषि के नाम

शरीर पर एक धार्ा भी नथा। अलंकार-विहीन हो कर

उसकी छवि र्स्च्छ, जल की भांवत और भी वनिर र्यी।

उसने सडक पर आकर एक तांर्ा वलया और चली।

अपटे का मकान र्रीबो ंके एक दूर के मुहले्ल में था।

तांरे्िाला मकान का पता जानता था। कोई वदक्कत न हुई।

वमस जोशी जब मकान के द्वार पर पहंुची तो न जाने क्ो ं

उसका वदल धडक रहा था। उसने कांपते हुए हाथो ं से

कंुडी िटिटायी। एक अधेड औरत वनकलकर द्वार िोल

वदय। वमस जोशी उस घर की सादर्ी देि दंर् रह र्यी।

एक वकनारें चारपाई पडी हुई थी, एक टूटी आलमारी में

कुछ वकताबें चुनी हुई थी,ं फशग पर ज्जिलने का डेस्क था

ओर एक रस्सी की अलर्नी पर कपडे लटक रहे थे। कमरे

के दूसरे वहसे्स में एक लोहे का चूल्हा था और िाने के

बरतन पडे हुए थे। एक लम्बा-तर्डा आदमी, जो उसी

प्ा

12

अधेड औरत का पवत था, बैठा एक टूटे हुए ताले की

मरम्मत कर रहा था और एक पांच-छ िषग का तेजर्स्ी

बालक आपटे की पीठ पर चढ़ने के वलए उनके र्ले में हाथ

डाल रहा था।आपटे इसी लोहार के साथ उसी घर में रहते

थे। समाचार-पत्रो ंके लेि वलिकर जो कुछ वमलता उसे दे

देते और इस भांवत रृ्ह-प्बंध की वचंताओ ंसे छुट्टी पाकर

जीिन व्यतीत करते थें।

वमस जोशी को देिकर आपटे जरा चौकें, वफर िडे

होकर उनका र्स्ार्त वकया ओर सोचने लरे् वक कहां

बैठाऊं। अपनी दररद्रता पर आज उन्हें वजतनी लाज आयी

उतनी और कभी न आयी थी। वमस जोशी उनका

असमंजस देिकर चारपाई पर बैठ र्यी और जरा रुिाई

से बोली---मैं वबना बुलाये आपके यहां आने के वलए क्षमा

मांर्ती हं वकंतु काम ऐसा जरुरी था वक मेरे आये वबना पूरा

न हो सकता। क्ा मैं एक वमनट के वलए आपसे एकांत में

वमल सकती हं।

आपटे ने जर्न्नाथ की ओर देि कर कमरे से बाहर चले

जाने का इशारा वकया। उसकी स्त्री भी बाहर चली र्यी।

केिल बालक रह र्या। िह वमस जोशी की ओर बार-बार

उतु्सक आंिो ं से देिता था। मानो ं पूछ रहा हो वक तुम

आपटे दादा की कौन हो?

वमस जोशी ने चारपाई से उतर कर जमीन पर बैठते

हुए कहा---आप कुछ अनुमान कर सकते हैं वक इस िक्त

क्ो ंआयी हं।

आपटे ने झेंपते हुए कहा---आपकी कृपा के वसिा

और क्ा कारि हो सकता है?

13

वमस जोशी---नही,ं संसार इतना उदार नही ं हुआ वक

आप वजसे र्ांवलयां दें , िह आपको धन्यिाद दे। आपको

याद है वक कल आपने अपने व्याख्यान में मुझ पर क्ा-

क्ा आके्षप वकए थे? मैं आपसे जोर देकर कहती हं वकिे

आके्षप करके आपने मुझपर घोर अत्याचार वकया है। आप

जैसे सहृदय, शीलिान, विद्वान आदमी से मुझे ऐसी आशा न

थी। मैं अबला हं, मेरी रक्षा करने िाला कोई नही ं है? क्ा

आपको उवचत था वक एक अबला पर वमर्थ्ारोपि करें?

अर्र मैं पुरुष होती तो आपसे डू्यल िेलने काक आग्रह

करती । अबला हं, इसवलए आपकी सिनता को स्पशग

करना ही मेरे हाथ में है। आपने मुझ पर जो लांछन लर्ाये

हैं, िे सिगथा वनमूगल हैं।

आपटे ने दृढ़ता से कहा---अनुमान तो बाहरी प्मािो ंसे

ही वकया जाता है।

वमस जोशी—बाहरी प्मािो ंसे आप वकसी के अंतस्तल

की बात नही ंजान सकते ।

आपटे—वजसका भीतर-बाहर एक न हो, उसे देि कर

भ्रम में पड जाना र्स्ाभाविक है।

वमस जाशी—हां, तो िह आपका भ्रम है और मैं चाहती

हं वक आप उस कलंक को वमटा दे जो आपने मुझ पर

लर्ाया है। आप इसके वलए प्ायवश्चत करें रे्?

आपटे---अर्र न करंू तो मुझसे बडा दुरात्मा संसार में

न होर्ा।

वमस जोशी—आप मुझपर विश्वास करते हैं।

आपटे—मैंने आज तक वकसी रमिी पर विश्वास नही ं

वकया।

14

वमस जोशी—क्ा आपको यह संदेह हो रहा है वक मैं

आपके साथ कौशल कर रही हं?

आपटे ने वमस जोशी की ओर अपने सदय, सजल,

सरल नेत्रो ं से देि कर कहा—बाई जी, मैं रं्िार और

अवशि प्ािी हं। लेवकन नारी-जावत के वलए मेरे हृदय में जो

आदर है, िह श्रद्धा से कम नही ंहै, जो मुझे देिताओ ंपर हैं।

मैंने अपनी माता का मुि नही ं देिा, यह भी नही ंजानता

वक मेरा वपता कौन था; वकंतु वजस देिी के दया-िृक्ष की

छाया में मेरा पालन-पोषि हुआ उनकी पे्म-मूवतग आज

तक मेरी आंिो ंके सामने है और नारी के प्वत मेरी भज्जक्त

को सजीि रिे हुए है। मै उन शब्ो ंको मंुह से वनकालने

के वलए अतं्यत दु:िी और लज्जित हं जो आिेश में वनकल

र्ये, और मै आज ही समाचार-पत्रो ं में िेद प्कट करके

आपसे क्षमा की प्ाथगना करंुर्ा।

वमस जोशी का अब तक अवधकांश र्स्ाथी आदवमयो ंही

से सावबका पडा था, वजनके वचकने-चुपडे शब्ो ंमें मतलब

छुपा हुआ था। आपटे के सरल विश्वास पर उसका वचत्त

आनंद से र्द्गद हो र्या। शायद िह रं्र्ा में िडी होकर

अपने अन्य वमत्रो ंसे यह कहती तो उसके फैशनेबुल वमलने

िालो ंमें से वकसी को उस पर विश्वास न आता। सब मंुह के

सामने तो ‘हां-हां’ करते, पर बाहर वनकलते ही उसका

मजाक उडाना शुरु करते। उन कपटी वमत्रो ंके समु्मि यह

आदमी था वजसके एक-एक शब् में सच्चाई झलक रही

थी, वजसके शब् अंतस्तल से वनकलते हुए मालूम होते थे।

आपटे उसे चुप देिकर वकसी और ही वचंता में पडे हुए

थें।उन्हें भय हो रहा था अब मैं चाहे वकतना क्षमा मांरू्, वमस

15

जोशी के सामने वकतनी सफाइयां पेश करंू, मेरे आके्षपो ं

का असर कभी न वमटेर्ा।

इस भाि ने अज्ञात रुप से उन्हें अपने विषय की रु्प्त

बातें कहने की पे्रिा की जो उन्हें उसकी दृवि में लघु बना

दें , वजससे िह भी उन्हें नीच समझने लरे्, उसको संतोष हो

जाए वक यह भी कलुवषत आत्मा है। बोले—मैं जन्म से

अभार्ा हं। माता-वपता का तो मंुह ही देिना नसीब न हुआ,

वजस दयाशील मवहला ने मुझे आश्रय वदया था, िह भी मुझे

१३ िषग की अिस्था में अनाथ छोडकर परलोक वसधार

र्यी। उस समय मेरे वसर पर जो कुछ बीती उसे याद

करके इतनी लिा आती हे वक वकसी को मंुह न वदिाऊं।

मैंने धोबी का काम वकया; मोची का काम वकया; घोडे की

साईसी की; एक होटल में बरतन मांजता रहा; यहां तक

वक वकतनी ही बार कु्षधासे व्याकुल होकर भीि मांर्ी।

मजदूरी करने को बुरा नही ंसमझता, आज भी मजदूरी ही

करता हं। भीि मांर्नी भी वकसी-वकसी दशा में क्षम्य है,

लेवकन मैंने उस अिस्था में ऐसे-ऐसे कमग वकए, वजन्हें कहते

लिा आती है—चोरी की, विश्वासघात वकया, यहां तक वक

चोरी के अपराध में कैद की सजा भी पायी।

वमस जोशी ने सजल नयन होकर कहा—आज यह सब

बातें मुझसे क्ो ं कर रहे हैं? मैं इनका उले्लि करके

आपको वकतना बदनाम कर सकती ंहं, इसका आपको भय

नही ंहै?

आपटे ने हंसकर कहा—नही,ं आपसे मुझे भय नही ंहै।

वमस जोशी—अर्र मैं आपसे बदला लेना चाहं, तो?

आपटे---जब मैं अपने अपराध पर लज्जित होकर

आपसे क्षमा मांर् रहा हं, तो मेरा अपराध रहा ही कहाॉँ,

16

वजसका आप मुझसे बदला लेंर्ी। इससे तो मुझे भय होता

है वक आपने मुझे क्षमा नही ंवकया। लेवकन यवद मैंने आपसे

क्षमा न मांर्ी तो मुझसे तो बदला न ले सकती।ं बदला लेने

िाले की आंिें यो सजल नही ंहो जाया करती।ं मैं आपको

कपट करने के अयोग्य समझता हं। आप यवद कपट

करना चाहती ंतो यहां कभी न आती।ं

वमस जोशी—मै आपका भेद लेने ही के वलए आयी हं।

आपटे---तो शौक से लीवजए। मैं बतला चुका हं वक मैंने

चोरी के अपराध में कैद की सजा पायी थी। नावसक के जेल

में रिा र्या था। मेरा शरीर दुबगल था, जेल की कडी मेहनत

न हो सकती थी और अवधकारी लोर् मुझे कामचोर समझ

कर बेंतो से मारते थे। आज्जिर एक वदन मैं रात को जेल से

भार् िडा हुआ।

वमस जोशी—आप तो वछपे रुस्तम वनकले!

आपटे--- ऐसा भार्ा वक वकसी को िबर न हुई। आज

तक मेरे नाम िारंट जारी है और ५०० रु0 का इनाम भी है।

वमस जोशी----तब तो मैं आपको जरुर पकडा दंूर्ी।

आपटे---तो वफर मैं आपको अपना असल नाम भी बता

देता हं। मेरा नाम दामोदर मोदी है। यह नाम तो पुवलस से

बचने के वलए रि छोडा है।

बालक अब तक तो चुपचाप बैठा हुआ था। वमस जोशी

के मंुह से पकडाने की बात सुनकर िह सजर् हो र्या।

उन्हें डांटकर बोला—हमाले दादा को कौन पकडेर्ा?

वमस जोशी---वसपाही और कौन?

बालक---हम वसपाही को मालेंरे्।

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यह कहकर िह एक कोने से अपने िेलने िाला डंडा

उठा लाया और आपटे के पास िीरोवचता भाि से िडा हो

र्या, मानो वसपावहयो ंसे उनकी रक्षा कर रहा है।

वमस जोशी---आपका रक्षक तो बडा बहादुर मालूम

होता है।

आपटे----इसकी भी एक कथा है। साल-भर होता है,

यह लडका िो र्या था। मुझे रासे्त में वमला। मैं पूछता-

पूछता इसे यहां लाया। उसी वदन से इन लोर्ो ंसे मेरा इतना

पे्म हो र्या वक मैं इनके साथ रहने लर्ा।

वमस जोशी---आप अनुमान कर सकते हैं वक आपका

िृतान्त सुनकर मैं आपको क्ा समझ रही हं।

आपटे---िही, जो मैं िास्ति में हं---नीच, कमीना धूतग....

वमस जोशी---नही,ं आप मुझ पर वफर अन्याय कर रहे

है। पहला अन्याय तो क्षमा कर सकती हं, यह अन्याय क्षमा

नही ं कर सकती। इतनी प्वतकूल दशाओ ं में पडकर भी

वजसका हृदय इतना पवित्र, इतना वनष्कपट, इतना सदय

हो, िह आदमी नही ंदेिता है। भर्िन्, आपने मुझ पर जो

आके्षप वकये िह सत्य हैं। मैं आपके अनुमान से कही ंभ्रि

हं। मैं इस योग्य भी नही ं हं वक आपकी ओर ताक सकंू।

आपने अपने हृदय की विशालता वदिाकर मेरा असली

र्स्रुप मेरे सामने प्कट कर वदया। मुझे क्षमा कीवजए, मुझ

पर दया कीवजए।

यह कहते-कहते िह उनके पैंरो पर वर्र पडी। आपटे

ने उसे उठा वलया और बोले----ईश्वर के वलए मुझे लज्जित

न करो।

वमस जोशी ने र्द्गद कंठ से कहा---आप इन दुिो ं के

हाथ से मेरा उद्धार कीवजए। मुझे इस योग्य बनाइए वक

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आपकी विश्वासपात्री बन सकंू। ईश्वर साक्षी है वक मुझे

कभी-कभी अपनी दशा पर वकतना दुि होता है। मैं बार-

बार चेिा करती हं वक अपनी दशा सुधारंु;इस विलावसता

के जाल को तोड दंू, जो मेरी आत्मा को चारो ं तरफ से

जकडे हुए है, पर दुबगल आत्मा अपने वनश्चय पर ज्जस्थत नही ं

रहती। मेरा पालन-पोषि वजस ढंर् से हुआ, उसका यह

पररिाम होना र्स्ाभाविक-सा मालूम होता है। मेरी उच्च

वशक्षा ने रृ्वहिी-जीिन से मेरे मन में घृिा पैदा कर दी।

मुझे वकसी पुरुष के अधीन रहने का विचार अर्स्ाभाविक

जान पउ़ता था। मैं रृ्वहिी की वजमे्मदाररयो ंऔर वचंताओ ं

को अपनी मानवसक र्स्ाधीनता के वलए विष-तुल्य समझती

थी। मैं तकग बुज्जद्ध से अपने स्त्रीत्व को वमटा देना चाहती थी,

मैं पुरुषो ंकी भांवत र्स्तंत्र रहना चाहती थी। क्ो ंवकसी की

पांबद होकर रहं? क्ो ंअपनी इच्छाओ ंको वकसी व्यज्जक्त के

सांचे में ढालू? क्ो ंवकसी को यह अवधकार दंू वक तुमने यह

क्ो ं वकया, िह क्ो ं वकया? दाम्पत्य मेरी वनर्ाह में तुच्छ

िसु्त थी। अपने माता-वपता की आलोचना करना मेरे वलए

अवचत नही,ं ईश्वर उन्हें सद्गवत दे, उनकी राय वकसी बात

पर न वमलती थी। वपता विद्वान् थे, माता के वलए ‘काला

अक्षर भैंस बराबर’ था। उनमें रात-वदन िाद-वििाद होता

रहता था। वपताजी ऐसी स्त्री से वििाह हो जाना अपने

जीिन का सबसे बडा दुभागग्य समझते थे। िह यह कहते

कभी न थकते थे वक तुम मेरे पांि की बेडी बन र्यी,ं नही ं

तो मैं न जाने कहां उडकर पहंुचा होता। उनके विचार मे

सारा दोष माता की अवशक्षा के वसर था। िह अपनी

एकमात्र पुत्री को मूिाग माता से संसर्ग से दूररिना चाहते

थे। माता कभी मुझसे कुछ कहती ंतो वपताजी उन पर टूट

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पडते—तुमसे वकतनी बार कह चुका वक लडकी को डांटो

मत, िह र्स्यं अपना भला-बुरा सोच सकती है, तुम्हारे

डांटने से उसके आत्म-सम्मान का वकतनाधक्का लरे्र्ा,

यह तुम नही ं जान सकती।ं आज्जिर माताजी ने वनराश

होकर मुझे मेरे हाल पर छोड वदया और कदावचत् इसी

शोक में चल बसी।ं अपने घर की अशांवत देिकर मुझे

वििाह से और भी घृिा हो र्यी। सबसे बडा असर मुझ पर

मेरे कालेज की लेडी वपं्वसपल का हुआ जो र्स्यं

अवििावहत थी।ं मेरा तो अब यह विचार है वक युिको की

वशक्षा का भार केिल आदशग चररत्रो ं पर रिना चावहए।

विलास में रत, कालेजो ंके शौवकन प्ोफेसर विद्यावथगयो ंपर

कोई अच्छा असर नही ंडाल सकते । मैं इस िक्त ऐसी बात

आपसे कह रही हं। पर अभी घर जाकर यह सब भूल

जाऊंर्ी। मैं वजस संसार में हं, उसकी जलिायु ही दूवषत है।

िहां सभी मुझे कीचड में लतपत देिना चाहते है।, मेरे

विलासासक्त रहने में ही उनका र्स्ाथग है। आप िह पहले

आदमी हैं वजसने मुझ पर विश्वास वकया है, वजसने मुझसे

वनष्कपट व्यिहार वकया है। ईश्वर के वलए अब मुझे भूल न

जाइयेर्ा।

आपटे ने वमस जोशी की ओर िेदना पूिग दृवि से

देिकर कहा—अर्र मैं आपकी कुछ सेिा कर सकंू तो

यह मेरे वलए सौभाग्य की बात होर्ी। वमस जोशी! हम सब

वमट्टी के पुतले हैं, कोई वनदोषग नही।ं मनुष्य वबर्डता है तो

पररज्जस्थवतयो ंसे, या पूिग संस्कारो ंसे । पररज्जस्थवतयो ंका त्यार्

करने से ही बच सकता है, संस्कारो ं से वर्रने िाले मनुष्य

का मार्ग इससे कही ंकवठन है। आपकी आत्मा सुन्दर और

पवित्र है, केिल पररज्जस्थवतयो ं ने उसे कुहरे की भांवत ढंक

20

वलया है। अब वििेक का सूयग उदय हो र्या है, ईश्वर ने

चाहातो कुहरा भी फट जाएर्ा। लेवकन सबसे पहले उन

पररज्जस्थवतयो ंका त्यार् करने को तैयार हो जाइए।

वमस जोशी—यही आपको करना होर्ा।

आपटे ने चुभती हुई वनर्ाहो ं से देि कर कहा—िैद्य

रोर्ी को जबरदस्ती दिा वपलाता है।

वमस जोशी –मैं सब कुछ करुर्ी।ं मैं कडिी से कडिी

दिा वपयंूर्ी यवद आप वपलायेंरे्। कल आप मेरे घर आने

की कृपा करें रे्, शाम को?

आपटे---अिश्य आऊंर्ा।

वमस जोशी ने विदा देते हुए कहा---भूवलएर्ा नही,ं मैं

आपकी राह देिती रहंर्ी। अपने रक्षक को भी लाइएर्ा।

यह कहकर उसने बालक को र्ोद मे उठाया ओर उसे

र्ले से लर्ा कर बाहर वनकल आयी।

र्िग के मारे उसके पांि जमीन पर न पडते थे। मालूम

होता था, हिामें उडी जा रही है, प्यास से तडपते हुए मनुष्य

को नदी का तट नजर आने लर्ा था।

सरे वदन प्ात:काल वमस जोशी ने मेहमानो ं के नाम

दािती काडग भेजे और उत्सि मनाने की तैयाररयां

करने लर्ी। वमस्टर आपटे के सम्मान में पाटी दी जा रही

थी। वमस्टर जौहरी ने काडग देिा तो मुस्कराये। अब

महाशय इस जाल से बचकरह कहां जायेरे्। वमस जोशी ने

ने उन्हें फसाने के वलए यह अच्छी तरकीब वनकाली। इस

काम में वनपुि मालूम होती है। मैने सकझा था, आपटे

चालाक आदमी होर्ा, मर्र इन आन्दोलनकारी विद्रावहयो ं

को बकिास करने के वसिा और क्ा सूझ सकती है।

दू

21

चार ही बजे मेहमान लोर् आने लरे्। नर्र के बडे-बडे

अवधकारी, बडे-बडे व्यापारी, बडे-बडे विद्वान, समाचार-

पत्रो ं के सम्पादक, अपनी-अपनी मवहलाओ ं के साथ आने

लरे्। वमस जोशी ने आज अपने अचे्छ-से-अचे्छ िस्त्र और

आभूषि वनकाले हुए थे, वजधर वनकल जाती थी मालूम

होता था, अरुि प्काश की छटा चली आरही है। भिन में

चारो ंओर सुरं्ध की लपटे आ रही थी ंऔर मधुर संर्ीत की

ध्ववन हिा में रंू्ज रही ंथी।

पांच बजते-बजते वमस्टर जौहरी आ पहंुचे और वमस

जोशी से हाथ वमलाते हुए मुस्करा कर बोले—जी चाहता है

तुम्हारे हाथ चूम लंू। अब मुझे विश्वास हो र्या वक यह

महाशय तुम्हारे पंजे से नही ंवनकल सकते।

वमसेज पेवटट बोली-ं--वमस जोशी वदलो ं का वशकार

करने के वलए ही बनाई र्ई है।

वमस्टर सोराब जी---मैंने सुना है, आपटे वबलकुल

रं्िार-सा आदमी है।

वमस्टर भरुचा---वकसी यूवनिवसगटी में वशक्षा ही नही ं

पायी, सभ्यता कहां से आती?

वमस्टर भरुचा---आज उसे िूब बनाना चावहए।

महंत िीरभद्र डाढ़ी के भीतर से बोले---मैंने सुना है

नाज्जस्तक है। ििागश्रम धमग का पालन नही ंकरता।

वमस जोशी---नाज्जस्तक तो मै भी हं। ईश्वर पर मेरा भी

विश्वास नही ंहै।

महंत---आप नाज्जस्तक हो,ं पर आप वकतने ही नाज्जस्तको ं

को आज्जस्तक बना देती हैं।

वमस्टर जौहरी---आपने लाि की बात की कही ं मंहत

जी!

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वमसेज भरुचा—क्ो ंमहंत जी, आपको वमस जोशी ही

न आज्जस्तक बनाया है क्ा?

सहसा आपटे लोहार के बालक की उंर्ली पकडे हुए

भिन में दाज्जिल हुए। िह पूरे फैशनेबुल रईस बने हुए थे।

बालक भी वकसी रईस का लडका मालूम होता था। आज

आपटे को देिकर लोर्ो को विवदत हुआ वक िह वकतना

सुदंर, सजीला आदमी है। मुि से शौयग वनकल रहा था,

पोर-पोर से वशिता झलकती थी, मालूम होता था िह इसी

समाज में पला है। लोर् देि रहे थे वक िह कही ंचूके और

तावलयां बजायें, कही कदम वफसले और कहकहे लर्ायें

पर आपटे मंचे हुए ज्जिलाडी की भांवत, जो कदम उठाता था

िह सधा हुआ, जो हाथ वदिलाता था िह जमा हुआ। लोर्

उसे पहले तुच्छ समझते थे, अब उससे ईष्याग करने लरे्,

उस पर फबवतयां उडानी शुरु की।ं लेवकन आपटे इस

कला में भी एक ही वनकला। बात मंुह से वनकली ओर

उसने जिाब वदया, पर उसके जिाब में मावलन्य या कटुता

का लेश भी न होता था। उसका एक-एक शब् सरल,

र्स्च्छ , वचत्त को प्सन्न करने िाले भािो ंमें डूबा होता था।

वमस जोशी उसकी िाक्चातुरी पर फुल उठती थी?

सोराब जी---आपने वकस यूवनिवसगटी से वशक्षा पायी

थी?

आपटे---यूवनिवसगटी में वशक्षा पायी होती तो आज मैं भी

वशक्षा-विभार् का अध्यक्ष होता।

वमसेज भरुचा—मैं तो आपको भयंककर जंतु समझती

थी?

आपटे ने मुस्करा कर कहा—आपने मुझे मवहलाओ ंके

सामने न देिा होर्ा।

23

सहसा वमस जोशी अपने सोने के कमरे में र्यी ओर

अपने सारे िस्त्राभूषि उतार फें के। उसके मुि से शुभ्र

संकल्प का तेज वनकल रहा था। नेंत्रो से दबी ज्योवत

प्सु्फवटत हो रही थी, मानो ं वकसी देिता ने उसे िरदान

वदया हो। उसने सजे हुए कमरे को घृिा से देिा, अपने

आभूषिो ं को पैरो ं से ठुकरा वदया और एक मोटी साफ

साडी पहनकर बाहर वनकली। आज प्ात:काल ही उसने

यह साडी मंर्ा ली थी।

उसे इस नेय िेश में देि कर सब लोर् चवकत हो र्ये।

कायापलट कैसी? सहसा वकसी की आंिो ं को विश्वास न

आया; वकंतु वमस्टर जौहरी बर्लें बजाने लरे्। वमस जोशी ने

इसे फंसाने के वलए यह कोई नया र्स्ांर् रचा है।

‘वमत्रो!ं आपको याद है, परसो ं महाशय आपटे ने मुझे

वकतनी र्ांवलयां दी थी। यह महाशय िडे हैं । आज मैं इन्हें

उस दुव्यगिहार का दण्ड देना चाहती हं। मैं कल इनके

मकान पर जाकर इनके जीिन के सारे रु्प्त रहस्यो ं को

जान आयी। यह जो जनता की भीड र्रजते वफरते है, मेरे

एक ही वनशाने पर वर्र पडे। मैं उन रहस्यो ंके िोलने में

अब विलंब न करंुर्ी, आप लोर् अधीर हो रहे होर्ें। मैंने जो

कुछ देिा, िह इतना भंयकर है वक उसका िृतांत सुनकर

शायद आप लोर्ो ंको मूछाग आ जायेर्ी। अब मुझे लेशमात्र

भी संदेह नही ंहै वक यह महाशय पके्क देशद्रोही है....’

वमस्टर जौहरी ने ताली बजायी ओर तावलयो ं के ह ल

रंू्ज उठा।

वमस जोशी---लेवकन राज के द्रोही नही,ं अन्याय के

द्रोही, दमन के द्रोही, अवभमान के द्रोही---

24

चारो ं ओर सन्नाटा छा र्या। लोर् विज्जित होकर एक

दूसरे की ओर ताकने लरे्।

वमस जोशी---रु्प्त रुप से शस्त्र जमा वकए है और रु्प्त

रुप से हत्याऍं की हैं.........

वमस्टर जौहरी ने तावलयां बजायी और तावलयां का

दौर्डा वफर बरस र्या।

वमस जोशी—लेवकन वकस की हत्या? दु:ि की, दररद्रता

की, प्जा के किो ंकी, हठधमी की ओर अपने र्स्ाथग की।

चारो ंओर वफर सन्नाटा छा र्या और लोर् चवकत हो-हो

कर एक दूसरे की ओर ताकने लरे्, मानो उन्हें अपने कानो ं

पर विश्वास नही ंहै।

वमस जोशी—महाराज आपटे ने डकैवतयां की और कर

रहे हैं---

अब की वकसी ने ताली न बजायी, लोर् सुनना चाहते थे

वक देिे आरे् क्ा कहती है।

‘उन्होनें मुझ पर भी हाथ साफ वकया है, मेरा सब कुछ

अपहरि कर वलया है, यहां तक वक अब मैं वनराधार हं

और उनके चरिो ंके वसिा मेरे वलए कोई आश्रय नही ं है।

प्ाण्धार! इस अबला को अपने चरिो ं में स्थान दो, उसे

डूबने से बचाओ। मैं जानती हं तुम मुझे वनराश न करोरं्ें।’

यह कहते-कहते िह जाकर आपटे के चरिो ं में वर्र

पडी। सारी मण्डली सं्तवभत रह र्यी।

क सप्ता रु्जर चुका था। आपटे पुवलस की वहरासत

में थे। उन पर चार अवभयोर् चलाने की तैयाररयां

चल रही ं थी। सारे प्ांत में हलचल मची हुई थी। नर्र में

रोज सभाएं होती थी,ं पुवलस रोज दस-पांच आदवमयां को

25

पकडती थी। समाचार-पत्रो ंमें जोरो ंके साथ िाद-वििाद हो

रहा था।

रात के नौ बज र्ये थे। वमस्टर जौहरी राज-भिन में मेंज

पर बैठे हुए सोच रहे थे वक वमस जोशी को क्ो ंकर िापस

लाएं? उसी वदन से उनकी छाती पर सांप लोट रहा था।

उसकी सूरत एक क्षि के वलए आंिो ंसे न उतरती थी।

िह सोच रहे थे, इसने मेरे साथ ऐसी दर्ा की! मैंने

इसके वलएक्ा कुछ नही ं वकया? इसकी कौन-सी इच्छा

थी, जो मैने पूरी नही ंकी इसी ने मुझसे बेिफाई की। नही,ं

कभी नही,ं मैं इसके बरै्र वजंदा नही ं रह सकता। दुवनया

चाहे मुझे बदनाम करे, हत्यारा कहे, चाहे मुझे पद से हाथ

धोना पडे, लेवकन आपटे को नही ं छोडूर्ां। इस रोडे को

रासे्त से हटा दंूर्ा, इस कांटे को पहलू से वनकाल बाहर

करंुर्ा।

सहसा कमरे का दरिाजा िुला और वमस जाशी ने

प्िेश वकया। वमस्टर जौहरी हकबका कर कुसी पर से उठ

िडे हुए, यह सोच रहे थे वक शायद वमस जोशी ने वनराश

होकर मेरे पास आयी हैं, कुछ रुिे, लेवकन नम्र भाि से

बोले---आओ बाला, तुम्हारी याद में बैठा था। तुम वकतनी

ही बेिफाई करो, पर तुम्हारी याद मेरे वदल से नही ंवनकल

सकती।

वमस जोशी---आप केिल जबान से कहते है।

वमस्टर जौहरी—क्ा वदल चीरकर वदिा दंू?

वमस जोशी—पे्म प्वतकार नही ंकरता, पे्म में दुराग्रह

नही ंहोता। आप मरे िून के प्यासे हो रहे हैं, उस पर भी

आप कहते हैं, मैं तुम्हारी याद करता हं। आपने मेरे र्स्ामी

को वहरासत में डाल रिा है, यह पे्म है! आज्जिर आप

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मुझसे क्ा चाहते हैं? अर्र आप समझ रहे हो ं वक इन

सज्जियो ं से डर कर मै आपकी शरि आ जाऊंर्ी तो

आपका भ्रम है। आपको अज्जियार है वक आपटे को काले

पानी भेज दें , फांसी चढ़ा दें , लेवकन इसका मुझ परकोई

असर न होर्ा।िह मेरे र्स्मी हैं, मैं उनको अपना र्स्ामी

समझती हं। उन्होने अपनी विशाल उदारता से मेरा उद्धार

वकया । आप मुझे विषय के फंदो में फंसाते थे, मेरी आत्मा

को कलुवषत करते थे। कभी आपको यह ियाल आया वक

इसकी आत्मा पर क्ा बीत रही होर्ी? आप मुझे आत्मशुन्य

समझते थे। इस देिपुरुष ने अपनी वनमगल र्स्च्छ आत्मा के

आकषगि से मुझे पहली ही मुलाकात में िीचं वलया। मैं

उसकी हो र्यी और मरते दम तक उसी की रहंर्ी। उस

मार्ग से अब आप हटा नही ंसकते। मुझे एक सच्ची आत्मा

की जरुरत थी , िह मुझे वमल र्यी। उसे पाकर अब तीनो ं

लोक की सम्पदा मेरी आंिो में तुच्छ है। मैं उनके वियोर् में

चाहे प्ाि दे दंू, पर आपके काम नही ंआ सकती।

वमस्टर जौहरी---वमस जोशी । पे्म उदार नही ं होता,

क्षमाशील नही ंहोता । मेरे वलए तुम सिगर्स् हो, जब तक मैं

समझता हं वक तुम मेरी हो। अर्र तुम मेरी नही ंहो सकती

तो मुझे इसकी क्ा वचंता हो सकती है वक तुम वकस वदशा

में हो?

वमस जोशी—यह आपका अंवतम वनिगय है?

वमस्टर जौहरी—अर्र मैं कह दंू वक हां, तो?

वमस जोशी ने सीने से वपस्तौल वनकाल कर कहा---तो

पहले आप की लाश जमीन पर फडर कती होर्ी और आपके

बाद मेरी ,बोवलए। यह आपका अंवतम वनिगय वनश्चय है?

27

यह कहकर वमस जोशी ने जौहरी की तरफ वपस्तौल

सीधा वकया। जौहरी कुसी से उठ िडे हुए और मुस्कर

बोले—क्ा तुम मेरे वलए कभी इतना साहस कर सकती

थी?ं जाओ,ं तुम्हारा आपटे तुम्हें मुबारक हो। उस पर से

अवभयोर् उठा वलया जाएर्ा। पवित्र पे्म ही मे यह साहस

है। अब मुझे विश्वास हो र्या वक तुम्हारा पे्म पवित्र है।

अर्र कोई पुराना पापी भविष्यिािी कर सकता है तो मैं

कहता हं, िह वदन दूर नही ं है, जब तुम इस भिन की

र्स्ावमनी होर्ी। आपटे ने मुझे पे्म के के्षत्र में नही,ं राजनीवत

के के्षत्र में भी परास्त कर वदया। सच्चा आदमी एक

मुलाकात में ही जीिन बदल सकता है, आत्मा को जर्ा

सकता है और अज्ञान को वमटा कर प्काश की ज्योवत

फैला सकता है, यह आज वसद्ध हो र्या।

28

नरक का मार्ग

त “भक्तमाल” पढ़ते-पढ़ते न जाने कब नीदं आ

र्यी। कैसे-कैसे महात्मा थे वजनके वलए भर्ित्-पे्म

ही सब कुछ था, इसी में मग्न रहते थे। ऐसी भज्जक्त बडी

तपस्या से वमलती है। क्ा मैं िह तपस्या नही ंकर सकती?

इस जीिन में और कौन-सा सुि रिा है? आभूषिो ं से

वजसे पे्म हो जाने , यहां तो इनको देिकर आंिे फूटती

है;धन-दौलत पर जो प्ाि देता हो िह जाने, यहां तो इसका

नाम सुनकर ज्वर-सा चढ़ आता हैं। कल पर्ली सुशीला ने

वकतनी उमंर्ो ंसे मेरा शंृ्रर्ार वकया था, वकतने पे्म से बालो ं

में फूल रंू्थे। वकतना मना करती रही, न मानी। आज्जिर

िही हुआ वजसका मुझे भय था। वजतनी देर उसके साथ

हंसी थी, उससे कही ंज्यादा रोयी। संसार में ऐसी भी कोई

स्त्री है, वजसका पवत उसका शंृ्रर्ार देिकर वसर से पांि

तक जल उठे? कौन ऐसी स्त्री है जो अपने पवत के मंुह से

ये शब् सुने—तुम मेरा परलोर् वबर्ाडोर्ी, और कुछ नही,ं

तुम्हारे रंर्-ढंर् कहे देते हैं---और मनुष्य उसका वदल विष

िा लेने को चाहे। भर्िान्! संसार में ऐसे भी मनुष्य हैं।

आज्जिर मैं नीचे चली र्यी और ‘भज्जक्तमाल’ पढ़ने लर्ी।

अब िंृदािन वबहारी ही की सेिा करंुर्ी उन्ही ं को अपना

शंृ्रर्ार वदिाऊंर्ी, िह तो देिकर न जलेरे्। िह तो हमारे

मन का हाल जानते हैं।

भर्िान! मैं अपने मन को कैसे समझाऊं! तुम

अंतयागमी हो, तुम मेरे रोम-रोम का हाल जानते हो। मैं

चाहती हंु वक उन्हें अपना इि समझूं, उनके चरिो ंकी सेिा

रा

29

करंु, उनके इशारे पर चलंू, उन्हें मेरी वकसी बात से, वकसी

व्यिहार से नाममात्र, भी दु:ि न हो। िह वनदोष हैं, जो कुछ

मेरे भाग्य में था िह हुआ, न उनका दोष है, न माता-वपता

का, सारा दोष मेरे नसीबो ंही का है। लेवकन यह सब जानते

हुए भी जब उन्हें आते देिती हं, तो मेरा वदल बैठ जाता है,

मुह पर मुरदनी सी-छा जाती है, वसर भारी हो जाता है, जी

चाहता है इनकी सूरत न देिंू, बात तक करने को जी नही

चाहता;कदावचत् शतु्र को भी देिकर वकसी का मन इतना

क्ांत नही ं होता होर्ा। उनके आने के समय वदल में

धडकन सी होने लर्ती है। दो-एक वदन के वलए कही ंचले

जाते हैं तो वदल पर से बोझ उठ जाता है। हंसती भी हं,

बोलती भी हं, जीिन में कुछ आनंद आने लर्ता है लेवकन

उनके आने का समाचार पाते ही वफर चारो ंओर अंधकार!

वचत्त की ऐसी दशा क्ो ंहै, यह मैं नही ंकह सकती। मुझे तो

ऐसा जान पडता है वक पूिगजन्म में हम दोनो ं में बैर था,

उसी बैर का बदला लेने के वलए उन्होनें मुझेसे वििाह वकया

है, िही पुराने संस्कार हमारे मन में बने हुए हैं। नही ंतो िह

मुझे देि-देि कर क्ो ंजलते और मैं उनकी सूरत से क्ो ं

घृिा करती? वििाह करने का तो यह मतलब नही ं हुआ

करता! मैं अपने घर कही ं इससे सुिी थी। कदावचत् मैं

जीिन-पयगन्त अपने घर आनंद से रह सकती थी। लेवकन

इस लोक-प्था का बुरा हो, जो अभावर्न कनयाओ ं को

वकसी-न-वकसी पुरुष के र्लें में बांध देना अवनिायग

समझती है। िह क्ा जानता है वक वकतनी युिवतयां उसके

नाम को रो रही है, वकतने अवभलाषाओ ं से लहराते हुए,

कोमल हृदय उसके पैरो तल रौदें जा रहे है? युिवत के वलए

पवत कैसी-कैसी मधुर कल्पनाओ ंका स्रोत्र होता है, पुरुष में

30

जो उत्तम है, शे्रष्ठ है, दशगनीय है, उसकी सजीि मूवतग इस

शब् के ध्यान में आते ही उसकी नजरो ंके सामने आकर

िडी हो जाती है।लेवकन मेरे वलए यह शब् क्ा है। हृदय

में उठने िाला शूल, कलेजे में िटकनेिाला कांटा, आंिो में

र्डने िाली वकरवकरी, अंत:करि को बेधने िाला वं्यर्

बाि! सुशीला को हमेशा हंसते देिती हं। िह कभी अपनी

दररद्रता का वर्ला नही ंकरती; र्हने नही ंहैं, कपडे नही ंहैं,

भाडे के नन्हेंसे मकान में रहती है, अपने हाथो ं घर का

सारा काम-काज करती है , वफर भी उसे रोतेनहीैे देिती

अर्र अपने बस की बात होती तो आज अपने धन को

उसकी दररद्रता से बदल लेती। अपने पवतदेि को मुस्कराते

हुए घर में आते देिकर उसका सारा दु:ि दाररद्रय छूमंतर

हो जाता है, छाती र्ज-भर की हो जाती है। उसके

पे्मावलंर्न में िह सुि है, वजस पर तीनो ं लोक का धन

न्योछािर कर दंू।

ज मुझसे जब्त न हो सका। मैंने पूछा—तुमने मुझसे

वकसवलए वििाह वकया था? यह प्श्न महीनो ंसे मेरे

मन में उठता था, पर मन को रोकती चली आती थी। आज

प्याला छलक पडा। यह प्श्न सुनकर कुछ बौिला-से र्ये,

बर्लें झाकने लरे्, िीसें वनकालकर बोले—घर संभालने के

वलए, रृ्हस्थी का भार उठाने के वलए, और नही ंक्ा भोर्-

विलास के वलए? घरनी के वबना यह आपको भूत का डेरा-

सा मालूम होता था। नौकर-चाकर घर की सम्पवत उडाये

देते थे। जो चीज जहां पडी रहती थी, कोई उसको देिने

िाला न था। तो अब मालूम हुआ वक मैं इस घर की

चौकसी के वलए लाई र्ई हं। मुझे इस घर की रक्षा करनी

31

चावहए और अपने को धन्य समझना चावहए वक यह सारी

सम्पवत मेरी है। मुख्य िसु्त सम्पवत्त है, मै तो केिल चौकी

दाररन हं। ऐसे घर में आज ही आर् लर् जाये! अब तक तो

मैं अनजान में घर की चौकसी करती थी, वजतना िह चाहते

हैं उतना न सही, पर अपनी बुज्जद्ध के अनुसार अिश्य करती

थी। आज से वकसी चीज को भूलकर भी छूने की कसम

िाती हं। यह मैं जानती हं। कोई पुरुष घर की चौकसी के

वलए वििाह नही ंकरता और इन महाशय ने वचढ़ कर यह

बात मुझसे कही। लेवकन सुशीला ठीक कहती है, इन्हें स्त्री

के वबना घर सुना लर्ता होर्ा, उसी तरह जैसे वपंजरे में

वचवडया को न देिकर वपंजरा सूना लर्ता है। यह हम

ज्जस्त्रयो ंका भाग्य!

लूम नही,ं इन्हें मुझ पर इतना संदेह क्ो होता है।

जब से नसीब इस घर में लाया हैं, इन्हें बराबर

संदेह-मूलक कटाक्ष करते देिती हं। क्ा कारि है? जरा

बाल रु्थिाकर बैठी और यह होठ चबाने लरे्। कही ंजाती

नही,ं कही ंआती नही,ं वकसी से बोलती नही,ं वफर भी इतना

संदेह! यह अपमान असह्य है। क्ा मुझे अपनी आबरु

प्यारी नही?ं यह मुझे इतनी वछछोरी क्ो ं समझते हैं, इन्हें

मुझपर संदेह करते लिा भी नही ं आती? काना आदमी

वकसी को हंसते देिता है तो समझता है लोर् मुझी पर हंस

रहे है। शायद इन्हें भी यही बहम हो र्या है वक मैं इन्हें

वचढ़ाती हं। अपने अवधकार के बाहर से बाहर कोई काम

कर बैठने से कदावचत् हमारे वचत्त की यही िृवत्त हो जाती

है। वभकु्षक राजा की र्द्दी पर बैठकर चैन की नीदं नही ंसो

मा

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सकता। उसे अपने चारो ं तरफ शुत्र वदिायी देंर्ें। मै

समझती हं, सभी शादी करने िाले बुड्ढ़ो का यही हाल है।

आज सुशीला के कहने से मैं ठाकुर जी की झांकी

देिने जा रही थी। अब यह साधारि बुज्जद्ध का आदमी भी

समझ सकता हैवक फूहड बह बनकर बाहर वनकलना

अपनी हंसी उडाना है, लेवकन आप उसी िक्त न जाने

वकधर से टपक पडे और मेरी ओर वतरस्कापूिग नेत्रो ं से

देिकर बोले—कहां की तैयारी है?

मैंने कह वदया, जरा ठाकुर जी की झांकी देिने जाती

हं।इतना सुनते ही त्योररयां चढ़ाकर बोले—तुम्हारे जाने की

कुछ जरुरत नही।ं जो अपने पवत की सेिा नही ंकर सकती,

उसे देिताओ ंके दशगन से पुण्य के बदले पाप होता। मुझसे

उडने चली हो । मैं औरतो ंकी नस-नस पहचानता हं।

ऐसा क्रोध आया वक बस अब क्ा कहं। उसी दम

कपडे बदल डाले और प्ि कर वलया वक अब कभ दशगन

करने जाऊंर्ी। इस अविश्वास का भी कुछ वठकाना है! न

जाने क्ा सोचकर रुक र्यी। उनकी बात का जिाब तो

यही था वक उसी क्षि घरसे चल िडी हुई होती, वफर

देिती मेरा क्ा कर लेते।

इन्हें मेरा उदास और विमन रहने पर आश्चयग होता है।

मुझे मन-में कृतघ्न समझते है। अपनी समिमें इन्होने मरे से

वििाह करके शायद मुझ पर एहसान वकया है। इतनी बडी

जायदाद और विशाल सम्पवत्त की र्स्ावमनी होकर मुझे

फूले न समाना चावहए था, आठो पहरइनका यशर्ान करते

रहना चावहये था। मैं यह सब कुछ न करके उलटे और मंुह

लटकाए रहती हं। कभी-कभी बेचारे पर दया आती है। यह

33

नही ंसमझते वक नारी-जीिन में कोई ऐसी िसु्त भी है वजसे

देिकर उसकी आंिो ंमें र्स्र्ग भी नरकतुल्य हो जाता है।

न वदन से बीमान हैं। डाक्टर कहते हैं, बचने की कोई

आशा नही,ं वनमोवनया हो र्या है। पर मुझे न जाने क्ो ं

इनका र्म नही ंहै। मैं इनती िज्र-हृदय कभी न थी।न जाने

िह मेरी कोमलता कहां चली र्यी। वकसी बीमार की सूरत

देिकर मेरा हृदय करुिा से चंचल हो जाता था, मैं वकसी

का रोना नही ंसुन सकती थी। िही मैं हं वक आज तीन वदन

से उन्हें बर्ल के कमरे में पडे कराहते सुनती हं और एक

बार भी उन्हें देिने न र्यी, आंिो में आंसू का वजक्र ही

क्ा। मुझे ऐसा मालूम होता है, इनसे मेरा कोई नाता ही

नही ंमुझे चाहे कोई वपशाचनी कहे, चाहे कुलटा, पर मुझे तो

यह कहने में लेशमात्र भी संकोच नही ंहै वक इनकी बीमारी

से मुझे एक प्कार का ईष्यागमय आनंद आ रहा है। इन्होने

मुझे यहां कारािास दे रिा था—मैं इसे वििाह का पवित्र

नाम नहीदेंना चाहती---यह कारािास ही है। मैं इतनी

उदार नही ंहं वक वजसने मुझे कैद मे डाल रिा हो उसकी

पूजा करंु, जो मुझे लात से मारे उसक पैरो का चंूमू। मुझे

तो मालूम हो रहा था। ईश्वर इन्हें इस पाप का दण्ड दे रहे

है। मै वनस्सकोचं होकर कहती हं वक मेरा इनसे वििाह नही ं

हुआ है। स्त्री वकसी के र्ले बांध वदये जाने से ही उसकी

वििावहता नही ं हो जाती। िही संयोर् वििाह का पद पा

सकता है। वजंसमे कम-से-कम एक बार तो हृदय पे्म से

पुलवकत हो जाय! सुनती हं, महाशय अपने कमरे में पडे-

पडे मुझे कोसा करते हैं, अपनी बीमारी का सारा बुिार

मुझ पर वनकालते हैं, लेवकन यहां इसकी परिाह नही।ं

ती

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वजसकाह जी चाहे जायदाद ले, धन ले, मुझे इसकी जरुरत

नही!ं

ज तीन वदन हुए, मैं विधिा हो र्यी, कम-से-कम

लोर् यही कहते हैं। वजसका जो जी चाहे कहे, पर

मैं अपने को जो कुछ समझती हं िह समझती हं। मैंने

चूवडया नही ं तोडी, क्ो ं तोडू? क्ो ं तोडू? मांर् में सेंदुर

पहले भी न डालती थी, अब भी नही ंडालती। बूढे़ बाबा का

वक्रया-कमग उनके सुपुत्र ने वकया, मैं पास न फटकी। घर में

मुझ पर मनमानी आलोचनाएं होती हैं, कोई मेरे रंु्थे हुए

बालो ं को देिकर नाक वसंकोडता हैं, कोई मेरे आभूषिो ं

पर आंि मटकाता है, यहां इसकी वचंता नही।ं उन्हें वचढ़ाने

को मैं भी रंर्=-वबरंर्ी सावडया पहनती हं, और भी बनती-

संिरती हं, मुझे जरा भी दु:ि नही ं हैं। मैं तो कैद से छूट

र्यी। इधर कई वदन सुशीला के घर र्यी। छोटा-सा मकान

है, कोई सजािट न सामान, चारपाइयां तक नही,ं पर

सुशीला वकतने आनंद से रहती है। उसका उल्लास देिकर

मेरे मन में भी भांवत-भांवत की कल्पनाएं उठने लर्ती हैं---

उन्हें कुज्जत्सत क्ो ं कहंु, जब मेरा मन उन्हें कुज्जत्सत नही ं

समझता ।इनके जीिन में वकतना उत्साह है।आंिे

मुस्कराती रहती हैं, ओठो ंपर मधुर हास्य िेलता रहता है,

बातो ंमें पे्म का स्रोत बहताहुआजान पडता है। इस आनंद

से, चाहे िह वकतना ही क्षविक हो, जीिन सफल हो जाता

है, वफर उसे कोई भूल नही ंसकता, उसी िृवत अंत तक के

वलए काफी हो जाती है, इस वमजराब की चोट हृदय के

तारो ंको अंतकाल तक मधुर र्स्रो ंमें कंवपत रिसकती है।

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एक वदन मैने सुशीला से कहा---अर्र तेरे पवतदेि कही ं

परदेश चले जाए तो रोत-रोते मर जाएर्ी!

सुशीला रं्भीर भाि से बोली—नही ंबहन, मरुर्ी ंनही ं ,

उनकी याद सदैि प्फुज्जल्लत करती रहेर्ी, चाहे उन्हें

परदेश में बरसो ंलर् जाएं।

मैं यही पे्म चाहती हं, इसी चोट के वलए मेरा मन

तडपता रहता है, मै भी ऐसी ही िृवत चाहती हं वजससे

वदल के तार सदैि बजते रहें, वजसका नशा वनत्य छाया रहे।

त रोते-रोते वहचवकयां बंध र्यी। न-जाने क्ो वदल

भर आता था। अपना जीिन सामने एक बीहड

मैदान की भांवत फैला हुआ मालूम होता था, जहां बरू्लो ंके

वसिा हररयाली का नाम नही।ं घर फाडे िाता था, वचत्त

ऐसा चंचल हो रहा था वक कही ं उड जाऊं। आजकल

भज्जक्त के गं्रथो की ओर ताकने को जी नही ं चाहता, कही

सैर करने जाने की भी इच्छा नही ंहोती, क्ा चाहती हं िह

मैं र्स्यं भी नही ं जानती। लेवकन मै जो जानती िह मेरा

एक-एक रोम-रोम जानता है, मैं अपनी भािनाओ ं को

संजीि मूवतग हैं, मेरा एक-एक अंर् मेरी आंतररक िेदना का

आतगनाद हो रहा है।

मेरे वचत्त की चंचलता उस अंवतम दशा को पहंच र्यी

है, जब मनुष्य को वनंदा की न लिा रहती है और न भय।

वजन लोभी, र्स्ाथी माता-वपता ने मुझे कुएं में ढकेला, वजस

पाषाि-हृदय प्ािी ने मेरी मांर् में सेंदुर डालने का र्स्ांर्

वकया, उनके प्वत मेरे मन में बार-बार दुष्कामनाएं उठती

हैं। मैं उने्ह लज्जित करना चाहती हं। मैं अपने मंुह में

कावलि लर्ा कर उनके मुि में कावलि लर्ाना चाहती हं

रा

36

मैअपने प्ािदेकर उने्ह प्ािदण्ड वदलाना चाहती हं।मेरा

नारीत्व लुप्त हो र्या है,। मेरे हृदय में प्चंड ज्वाला उठी

हुई है।

घर के सारे आदमी सो रहे है थे। मैं चुपके से नीचे

उतरी , द्वार िोला और घर से वनकली, जैसे कोई प्ािी

र्मी से व्याकुल होकर घर से वनकले और वकसी िुली हुई

जर्ह की ओर दौडे।उस मकान में मेरा दम घुट रहा था।

सडक पर सन्नाटा था, दुकानें बंद हो चुकी थी। सहसा

एक बुवढयां आती हुई वदिायी दी। मैं डरी कही ंयह चुडैल

न हो। बुवढया ने मेरे समीप आकर मुझे वसर से पांि तक

देिा और बोली ---वकसकी राह देिरही हो

मैंने वचढ़ कर कहा---मौत की!

बुवढ़या---तुम्हारे नसीबो ं में तो अभी वजन्दर्ी के बडे-

बडे सुि भोर्ने वलिे हैं। अंधेरी रात रु्जर र्यी, आसमान

पर सुबह की रोशनी नजर आ रही हैं।

मैने हंसकर कहा---अंधेरे में भी तुम्हारी आंिे इतनी

तेज हैंवक नसीबो ंकी वलिािट पढ़ लेती हैं?

बुवढ़या---आंिो से नही ंपढती बेटी, अक् से पढ़ती हं,

धूप में चूडे नही सुफेद वकये हैं।। तुम्हारे वदन र्ये और

अचे्छ वदन आ रहे है। हंसो मत बेटी, यही काम करते इतनी

उम्र रु्जर र्यी। इसी बुवढ़या की बदौलत जो नदी में कूदने

जा रही थी,ं िे आज फूलो ंकी सेज पर सो रही है, जो जहर

का प्याल पीने को तैयार थी,ं िे आज दूध की कुज्जल्लयां कर

रही हैं। इसीवलए इतनी रात र्ये वनकलती ह वक अपने

हाथो ंवकसी अभावर्न का उद्धार हो सके तो करंु। वकसी से

कुछ नही ं मांर्ती, भर्िान् का वदया सब कुछ घर में है,

केिल यही इच्छा है उने्ह धन, वजने्ह संतान की इच्छा है उन्हें

37

संतान, बस औरक्ा कहं, िह मंत्र बता देती हं वक वजसकी

जो इच्छा जो िह पूरी हो जाये।

मैंने कहा---मुझे न धन चावहए न संतान। मेरी

मनोकामना तुम्हारे बस की बात नही ंहै।

बुवढ़या हंसी—बेटी, जो तुम चाहती हो िह मै जानती हं;

तुम िह चीज चाहती हो जो संसार में होते हुए र्स्र्ग की है,

जो देिताओ ं के िरदान से भी ज्यादा आनंदप्द है, जो

आकाश कुसुम है,रु्लर का फूल है और अमािसा का चांद

है। लेवकन मेरे मंत्र में िह शंज्जक्त है जो भाग्य को भी संिार

सकती है। तुम पे्म की प्यासी हो, मैं तुमे्ह उस नाि पर बैठा

सकती हं जो पे्म के सार्र में, पे्म की तंरर्ो ं पर क्रीडा

करती हुई तुमे्ह पार उतार दे।

मैने उतं्कवठत होकर पूछा—माता, तुम्हारा घर कहां है।

बुवढया---बहुत नजदीक है बेटी, तुम चलो ंतो मैं अपनी

आंिो पर बैठा कर ले चलंू।

मुझे ऐसा मालूम हुआ वक यह कोई आकाश की देिी

है। उसेक पीछ-पीछे चल पडी।

ह! िह बुवढया, वजसे मैं आकाश की देिी समझती थी,

नरक की डाइन वनकली। मेरा सिगनाश हो र्या। मैं

अमृत िोजती थी, विष वमला, वनमगल र्स्च्छ पे्म की प्यासी

थी, रं्दे विषाक्त नाले में वर्र पडी िह िसु्त न वमलनी थी, न

वमली। मैं सुशीला का –सा सुि चाहती थी, कुलटाओ ंकी

विषय-िासना नही।ं लेवकन जीिन-पथ में एक बार उलटी

राह चलकर वफर सीधे मार्ग पर आना कवठन है?

लेवकन मेरे अध:पतन का अपराध मेरे वसर नही,ं मेरे

माता-वपता और उस बूढे़ पर है जो मेरा र्स्ामी बनना

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चाहता था। मैं यह पंज्जक्तयां न वलिती,ं लेवकन इस विचार से

वलि रही हं वक मेरी आत्म-कथा पढ़कर लोर्ो ंकी आंिे

िुलें; मैं वफर कहती हं वक अब भी अपनी बावलकाओ के

वलए मत देिो ंधन, मत देिो ंजायदाद, मत देिो ंकुलीनता,

केिल िर देिो।ं अर्र उसके वलए जोडा का िर नही ंपा

सकते तो लडकी को क्वारी रि छोडो, जहर दे कर मार

डालो, र्ला घोटं डालो, पर वकसी बूढे़ िूसट से मत ब्याहो।

स्त्री सब-कुछ सह सकती है। दारुि से दारुि दु:ि, बडे से

बडा संकट, अर्र नही ंसह सकती तो अपने यौिन-काल

की उंमर्ो का कुचला जाना।

रही मैं, मेरे वलए अब इस जीिन में कोई आशा नही ं।

इस अधम दशा को भी उस दशा से न बदलंूर्ी, वजससे

वनकल कर आयी हं।

39

स्त्री और पुरुष

वपन बाबू के वलए स्त्री ही संसार की सुन्दर िसु्त थी।

िह कवि थे और उनकी कविता के वलए ज्जस्त्रयो ंके

रुप और यौिन की प्शसा ही सबसे वचंताकषगक विषय था।

उनकी दृवि में स्त्री जर्त में व्याप्त कोमलता, माधुयग और

अलंकारो ं की सजीि प्वतमा थी। जबान पर स्त्री का नाम

आते ही उनकी आंिे जर्मर्ा उठती थी,ं कान िडें हो

जाते थे, मानो वकसी रवसक ने र्ाने की आिाज सुन ली हो।

जब से होश संभाला, तभी से उन्होनें उस संुदरी की कल्पना

करनी शुरु की जो उसके हृदय की रानी होर्ी; उसमें ऊषा

की प्फुल्लता होर्ी, पुष्प की कोमलता, कंुदन की चमक,

बसंत की छवि, कोयल की ध्ववन—िह कवि िविगत सभी

उपमाओ ं से विभूवषत होर्ी। िह उस कज्जल्पत मूवत्र के

उपासक थे, कविताओ ं में उसका रु्ि र्ाते, िह वदन भी

समीप आ र्या था, जब उनकी आशाएं हरे-हरे पत्तो ं से

लहरायेंर्ी, उनकी मुरादें पूरी हो होर्ी। कालेज की अंवतम

परीक्षा समाप्त हो र्यी थी और वििाह के संदेशे आने लरे्

थे।

िाह तय हो र्या। वबवपन बाबू ने कन्या को देिने का

बहुत आग्रह वकया, लेवकन जब उनके मांमू ने विश्वास

वदलाया वक लडकी बहुत ही रुपिती है, मैंने अपनी आंिो ं

से देिा है, तब िह राजी हो र्ये। धूमधाम से बारात वनकली

और वििाह का मुहतग आया। िधू आभूषिो ं से सजी हुई

मंडप में आयी तो विवपन को उसके हाथ-पांि नजर आये।

वकतनी संुदर उंर्वलया थी,ं मानो ंदीप-वशिाएं हो, अंर्ो की

वि

वि

40

शोभा वकतनी मनोहाररिी थी। विवपन फूले न समाये। दूसरे

वदन िधू विदा हुई तो िह उसके दशगनो ं के वलए इतने

अधीर हुए वक ज्यो ंही रासे्त में कहारो ं ने पालकी रिकर

मंुह-हाथ धोना शुरु वकया, आप चुपके से िधू के पास जा

पहंुचे। िह घंूघट हटाये, पालकी से वसर वनकाले बाहर झांक

रही थी। विवपन की वनर्ाह उस पर पड र्यी। यह िह परम

संुदर रमिी न थी वजसकी उन्होने कल्पना की थी, वजसकी

िह बरसो ं से कल्पना कर रहे थे---यह एक चौडे मंुह,

वचपटी नाक, और फुले हुए र्ालो ंिाली कुरुपा स्त्री थी। रंर्

र्ोरा था, पर उसमें लाली के बदले सफदी थी; और वफर

रंर् कैसा ही संुदर हो, रुप की कमी नही ंपूरी कर सकता।

विवपन का सारा उत्साह ठंडा पड र्या---हां! इसे मेरे ही

र्ले पडना था। क्ा इसके वलए समस्त संसार में और कोई

न वमलता था? उन्हें अपने मांमू पर क्रोध आया वजसने िधू

की तारीफो ंके पुल बांध वदये थे। अर्र इस िक्त िह वमल

जाते तो विवपन उनकी ऐसी िबर लेता वक िह भी याद

करते।

जब कहारो ंने वफर पालवकयां उठायी ंतो विवपन मन में

सोचने लर्ा, इस स्त्री के साथ कैसे मैं बोलूर्ा, कैसे इसके

साथ जीिन काटंर्ा। इसकी ओर तो ताकने ही से घृिा

होती है। ऐसी कुरुपा ज्जस्त्रयां भी संसार में हैं, इसका मुझे

अब तक पता न था। क्ा मंुह ईश्वर ने बनाया है, क्ा आंिे

है! मैं और सारे ऐबो ंकी ओर से आंिे बंद कर लेता, लेवकन

िह चौडा-सा मंुह! भर्िान्! क्ा तुम्हें मुझी पर यह िज्रपात

करना था।

41

वपन हो अपना जीिन नरक-सा जान पडता था। िह

अपने मांमू से लडा। ससुर को लंबा िराग वलिकर

फटकारा, मां-बाप से हुित की और जब इससे शांवत न

हुई तो कही ंभार् जाने की बात सोचने लर्ा। आशा पर उसे

दया अिश्य आती थी। िह अपने का समझाता वक इसमें

उस बेचारी का क्ा दोष है, उसने जबरदस्ती तो मुझसे

वििाह वकया नही।ं लेवकन यह दया और यह विचार उस

घृिा को न जीत सकता था जो आशा को देिते ही उसके

रोम-रोम में व्याप्त हो जाती थी। आशा अपने अचे्छ-से-

अचे्छ कपडे पहनती; तरह-तरह से बाल संिारती, घंटो

आइने के सामने िडी होकर अपना शंृ्रर्ार करती, लेकन

विवपन को यह शुतुरर्मज-से मालूम होते। िह वदल से

चाहती थी वक उन्हें प्सन्न करंु, उनकी सेिा करने के वलए

अिसर िोजा करती थी; लेवकन विवपन उससे भार्ा-भार्ा

वफरता था। अर्र कभी भेंट हो जाती तो कुछ ऐसी जली-

कटी बातें करने लर्ता वक आशा रोती हुई िहां से चली

जाती।

सबसे बुरी बात यह थी वक उसका चररत्र भ्रि होने लर्ा।

िह यह भूल जाने की चेिा करने लर्ा वक मेरा वििाह हो

र्या है। कई-कई वदनो ंक आशा को उसके दशगन भी न

होते। िह उसके कहकहे की आिाजे बाहर से आती हुई

सुनती, झरोिे से देिती वक िह दोस्तो ंके र्ले में हाथ डालें

सैर करने जा रहे है और तडप कर रहे जाती।

एक वदन िाना िाते समय उसने कहा—अब तो

आपके दशगन ही नही ंहोतें। मेरे कारि घर छोड दीवजएर्ा

क्ा ?

वि

42

विवपन ने मंुह फेर कर कहा—घर ही पर तो रहता हं।

आजकल जरा नौकरी की तलाश है इसवलए दौड-धूप

ज्यादा करनी पडती है।

आशा—वकसी डाक्टर से मेरी सूरत क्ो ं नही ं बनिा

देते ? सुनती हं, आजकल सूरत बनाने िाले डाक्टर पैदा हुए

है।

विवपन— क्ो ं नाहक वचढ़ती हो, यहां तुमे्ह वकसने

बुलाया था ?

आशा— आज्जिर इस मजग की दिा कौन करेंर्ा ?

विवपन— इस मजग की दिा नही ंहै। जो काम ईश्चर से

ने करते बना उसे आदमी क्ा बना सकता है ?

आशा – यह तो तुम्ही सोचो वक ईश्वर की भुल के वलए

मुझे दंड दे रहे हो। संसार में कौन ऐसा आदमी है वजसे

अच्छी सूरत बुरी लर्ती हो, वकन तुमने वकसी मदग को

केिल रुपहीन होने के कारि क्वांरा रहते देिा है, रुपहीन

लडवकयां भी मां-बाप के घर नही ं बैठी रहती।ं वकसी-न-

वकसी तरह उनका वनिागह हो ही जाता है; उसका पवत उप

पर प्ाि ने देता हो, लेवकन दूध की मक्खी नही ंसमझता।

विवपन ने झंुझला कर कहा—क्ो ं नाहक वसर िाती

हो, मै तुमसे बहस तो नही ंकर रहा हं। वदल पर जब्र नही ं

वकया जा सकता और न दलीलो ंका उस पर कोई असर

पड सकता है। मैं तुमे्ह कुछ कहता तो नही ं हं, वफर तुम

क्ो ंमुझसे हुित करती हो ?

आशा यह वझडकी सुन कर चली र्यी। उसे मालूम हो

र्या वक इन्होने मेरी ओर से सदा के वलए ह्रदय कठोर कर

वलया है।

43

वपन तो रोज सैर-सपाटे करते, कभी-कभी रात को

र्ायब रहते। इधर आशा वचंता और नैराश्य से

घुलते-घुलते बीमार पड र्यी। लेवकन विवपन भूल कर भी

उसे देिने न आता, सेिा करना तो दूर रहा। इतना ही नही,ं

िह वदल में मानता था वक िह मर जाती तो र्ला छुटता,

अबकी िुब देिभाल कर अपनी पसंद का वििाह करता।

अब िह और भी िुल िेला। पहले आशा से कुछ

दबता था, कम-से-कम उसे यह धडका लर्ा रहता था वक

कोई मेरी चाल-ढ़ाल पर वनर्ाह रिने िाला भी है। अब िह

धडका छुट र्या। कुिासनाओ ं में ऐसा वलप्त हो र्या वक

मरदाने कमरे में ही जमघटे होने लरे्। लेवकन विषय-भोर्

में धन ही का सिगनाश होता, इससे कही ंअवधक बुज्जद्ध और

बल का सिगनाश होता है। विवपन का चेहरा पीला लर्ा, देह

भी क्षीि होने लर्ी, पसवलयो ं की हवड्डयां वनकल आयी ं

आंिो ं के इदग-वर्दग र्ढे़ पड र्ये। अब िह पहले से कही ं

ज्यादा शोक करता, वनत्य तेल लर्ता, बाल बनिाता, कपडे

बदलता, वकनु्त मुि पर कांवत न थी, रंर्-रोर्न से क्ा हो

सकता ?

एक वदन आशा बरामदे में चारपाई पर लेटी हुई थी।

इधर हफ्तो ंसे उसने विवपन को न देिा था। उने्ह देिने की

इच्छा हुई। उसे भय था वक िह सन आयेंरे्, वफर भी िह

मन को न रोक सकी। विवपन को बुला भेजा। विवपन को भी

उस पर कुछ दया आ र्यी आ र्यी। आकार सामने िडे

हो र्ये। आशा ने उनके मंुह की ओर देिा तो चौक पडी।

िह इतने दुबगल हो र्ये थे वक पहचनाना मुवशकल था।

बोली—तुम भी बीमार हो क्ा? तुम तो मुझसे भी ज्यादा

घुल र्ये हो।

वि

44

विवपन—उंह, वजंदर्ी में रिा ही क्ा है वजसके वलए

जीने की वफक्र करंु !

आशा—जीने की वफक्र न करने से कोई इतना दुबला

नही ंहो जाता। तुम अपनी कोई दिा क्ो ंनही ंकरते?

यह कह कर उसने विवपन का दावहन हाथ पकड कर

अपनी चारपाई पर बैठा वलया। विवपन ने भी हाथ छुडाने

की चेिा न की। उनके र्स्ाभाि में इस समय एक विवचत्र

नम्रता थी, जो आशा ने कभी ने देिी थी। बातो ं से भी

वनराशा टपकती थी। अक्खडपन या क्रोध की रं्ध भी न

थी। आशा का ऐसा मालुम हुआ वक उनकी आंिो में आंसू

भरे हुए है।

विवपन चारपाई पर बैठते हुए बोले—मेरी दिा अब

मौत करेर्ी। मै तुम्हें जलाने के वलए नही ं कहता। ईश्वर

जानता है, मैं तुमे्ह चोट नही ंपहंुचाना चाहता। मै अब ज्यादा

वदनो ं तक न वजऊंर्ा। मुझे वकसी भयंकर रोर् के लक्षि

वदिाई दे रहे है। डाक्टर नें भी िही कहा है। मुझे इसका

िेद है वक मेरे हाथो ं तुमे्ह कि पहंुचा पर क्षमा करना।

कभी-कभी बैठे-बैठे मेरा वदल डूब वदल डूब जाता है,

मूछाग-सी आ जाती है।

यह कहतें-कहते एकाएक िह कांप उठे। सारी देह में

सनसनी सी दौड र्यी। मूवछग त हो कर चारपाई पर वर्र पडे

और हाथ-पैर पटकने लरे्।

मंुह से वफचकुर वनकलने लर्ा। सारी देह पसीने से तर हो

र्यी।

आशा का सारा रोर् हिा हो र्या। िह महीनो ं से

वबस्तर न छोड सकी थी। पर इस समय उसके वशवथल

अंर्ो में विवचत्र सु्फवतग दौड र्यी। उसने तेजी से उठ कर

45

विवपन को अच्छी तरह लेटा वदया और उनके मुि पर पानी

के छीटें देने लर्ी। महरी भी दौडी आयी और पंिा झलने

लर्ी। पर भी विवपन ने आंिें न िोली।ं संध्या होते-होते

उनका मंुह टेढ़ा हो र्या और बायां अंर् शुन्य पड र्या।

वहलाना तो दूर रहा, मंूह से बात वनकालना भी मुज्जिल हो

र्या। यह मूछाग न थी, फावलज था।

वलज के भयंकर रोर् में रोर्ी की सेिा करना

आसान काम नही ं है। उस पर आशा महीनो ं से

बीमार थी। लेवकन उस रोर् के सामने िह पना रोर् भूल

र्ई। 15 वदनो ं तक विवपन की हालत बहुत नाजुक रही।

आशा वदन-के-वदन और रात-की-रात उनके पास बैठी

रहती। उनके वलए पर्थ् बनाना, उन्हें र्ोद में सम्भाल कर

दिा वपलाना, उनके जरा-जरा से इशारो ंको समझाना उसी

जैसी धैयशाली स्त्री का काम था। अपना वसर ददग से फटा

करता, ज्वर से देह तपा करती, पर इसकी उसे जरा भी

परिा न थी।

१५ वदनो ंबाद विवपन की हालत कुछ सम्भली। उनका

दावहना पैर तो लंुज पड र्या था, पर तोतली भाषा में कुछ

बोलने लरे् थे। सबसे बुरी र्त उनके सुन्दर मुि की हुई

थी। िह इतना टेढ़ा हो र्या था जैसे कोई रबर के ज्जिलौने

को िीचं कर बढ़ा दें। बैटरी की मदद से जरा देर के वलए

बैठे या िडे तो हो जाते थे; लेवकन चलने−वफरने की ताकत

न थी।

एक वदनो ं लेटे−लेटे उने्ह क्ा ख्याल आया। आईना

उठा कर अपना मंुह देिने लरे्। ऐसा कुरुप आदमी

उन्होने कभी न देिा था। आवहस्ता से बोले−−आशा, ईश्वर

फा

46

ने मुझे र्रुर की सजा दे दी। िास्ति में मुझे यह उसी बुराई

का बदला वमला है, जो मैने तुम्हारे साथ की। अब तुम अर्र

मेरा मंुह देिकर घृिा से मंुह फेर लो तो मुझेसे उस

दुव्यगिहार का बदला लो, जो मैने, तुम्हारे साथ वकए है।

आशा ने पवत की ओर कोमल भाि से देिकर

कहा−−मै तो आपको अब भी उसी वनर्ाह से देिती हंु।

मुझे तो आप में कोई अन्तर नही ंवदिाई देता।

वपन−−िाह, बन्दर का−सा मंुह हो र्या है, तुम

कहती हो वक कोई अन्तर ही नही।ं मैं तो अब कभी

बाहर न वनकलंूर्ा। ईश्वर ने मुझे सचमुच दंड वदया।

बहुत यत्न वकए र्ए पर विवपन का मंुह सीधा न हुआ।

मुख्य का बायां भार् इतना टेढ़ा हो र्या था वक चेहरा

देिकर डर मालूम होता था। हां, पैरो ंमें इतनी शज्जक्त आ

र्ई वक अब िह चलने−वफरने लरे्।

आशा ने पवत की बीमारी में देिी की मनौती की थी।

आज उसी की पुजा का उत्सि था। मुहले्ल की ज्जस्त्रयां

बनाि−वसंर्ार वकये जमा थी।ं र्ाना−बजाना हो रहा था।

एक सेहली ने पुछा−−क्ो ंआशा, अब तो तुम्हें उनका

मंुह जरा भी अच्छा न लर्ता होर्ा।

आशा ने र्म्भीर होकर कहा−−मुझे तो पहले से कही ं

मंुह जरा भी अच्छा न लर्ता होर्ा।

‘चलो,ं बातें बनाती हो।’

‘नही बहन, सच कहती हंु; रुप के बदले मुझे उनकी

आत्मा वमल र्ई जो रुप से कही ंबढ़कर है।’

विवपन कमरे में बैठे हुए थे। कई वमत्र जमा थे। ताश हो

रहा था।

वि

47

कमरे में एक ज्जिडकी थी जो आंर्न में िुलती थी। इस

िक्त िह बन्दि थी। एक वमत्र ने उसे चुपके से िोल वदया।

एक वमत्र ने उसे चुपके वदया और शीशे से झांक कर विवपन

से कहा−− आज तो तुम्हारे यहां पाररयो ंका अच्छा जमघट

है।

विवपन−−बन्दा कर दो।

‘अजी जरा देिो तो: कैसी−कैसी सूरतें है ! तुमे्ह इन

सबो ंमें कौन सबसे अच्छी मालूम होती है ?

विवपन ने उडती हुई नजरो ंसे देिकर कहा−−मुझे तो

िही ंसबसे अच्छी मालूम होती है जो थाल में फुल रि रही

है।

‘िाह री आपकी वनर्ाह ! क्ा सूरत के साथ तुम्हारी

वनर्ाह भी वबर्ड र्ई? मुझे तो िह सबसे बदसुरत मालूम

होती है।’

‘इसवलए वक तुम उसकी सूरत देिते हो और मै

उसकी आत्मा देिता हं।’

‘अच्छा, यही वमसेज विवपन हैं?’

‘जी हां, यह िही देिी है।

48

उद्धार

दू समाज की िैिावहक प्था इतनी दुवषत, इतनी

वचंताजनक, इतनी भयंकर हो र्यी है वक कुछ

समझ में नही ंआता, उसका सुधार क्ोकंर हो। वबरलें ही

ऐसे माता−वपता होरें् वजनके सात पुत्रो ं के बाद एक भी

कन्या उत्पन्न हो जाय तो िह सहषग उसका र्स्ार्त करें ।

कन्या का जन्म होते ही उसके वििाह की वचंता वसर पर

सिार हो जाती है और आदमी उसी में डुबवकयां िाने

लर्ता है। अिस्था इतनी वनराशमय और भयानक हो र्ई है

वक ऐसे माता−वपताओ ंकी कमी नही ंहै जो कन्या की मृतु्य

पर ह्रदय से प्सन्न होते है, मानो ंवसर से बाधा टली। इसका

कारि केिल यही है वक देहज की दर, वदन दूनी रात

चौरु्नी, पािस−काल के जल−रु्जरे वक एक या दो हजारो ं

तक नौबत पहंुच र्ई है। अभी बहुत वदन नही ं रु्जरे वक

एक या दो हजार रुपये दहेज केिल बडे घरो ंकी बात थी,

छोटी−छोटी शावदयो ं पांच सौ से एक हजार तक तय हो

जाती थी;ं अब मामुली−मामुली वििाह भी तीन−चार हजार

के नीचे तय नही ं होते । िचग का तो यह हाल है और

वशवक्षत समाज की वनधगनता और दररद्रता वदन बढ़ती जाती

है। इसका अन्त क्ा होर्ा ईश्वर ही जाने। बेटे एक दजगन भी

हो ं तो माता−वपता का वचंता नही ं होती। िह अपने ऊपर

उनके वििाह−भार का अवनिायग नही ंसमझता, यह उसके

वलए ‘कम्पलसरी’ विषय नही,ं ‘आप्शनल’ विषय है। होर्ा

तो ंकर देर्ें; नही कह दें रे्−−बेटा, िाओ ंकमाओ,ं कमाई

हो तो वििाह कर लेना। बेटो ंकी कुचररत्रता कलंक की बात

नही ं समझी जाती; लेवकन कन्या का वििाह तो करना ही

वहं

49

पडेर्ा, उससे भार्कर कहां जायेर्ें ? अर्र वििाह में

विलम्ब हुआ और कन्या के पांि कही ंऊंचे नीचे पड र्ये तो

वफर कुटुम्ब की नाक कट र्यी; िह पवतत हो र्या, टाट

बाहर कर वदया र्या। अर्र िह इस दुघगटना को सफलता

के साथ रु्प्त रि सका तब तो कोई बात नही;ं उसको ं

कलंवकत करने का वकसी का साहस नही;ं लेवकन

अभाग्यिश यवद िह इसे वछपा न सका, भंडाफोड हो र्या

तो वफर माता−वपता के वलए, भाई−बंधुओ ंके वलए संसार

में मंुह वदिाने को नही ंरहता। कोई अपमान इससे दुस्सह,

कोई विपवत्त इससे भीषि नही।ं वकसी भी व्यावध की इससे

भयंकर कल्पना नही ंकी जा सकती। लुत्फ तो यह है वक

जो लोर् बेवटयो ं के वििाह की कवठनाइयो ं को भोर्ा चुके

होते है िही ंअपने बेटो ंके वििाह के अिसर पर वबलकुल

भुल जाते है वक हमें वकतनी ठोकरें िानी पडी थी,ं जरा भी

सहानुभूवत नही प्कट करतें, बज्जि कन्या के वििाह में जो

तािान उठाया था उसे चक्र−िृज्जद्ध ब्याज के साथ बेटे के

वििाह में िसूल करने पर कवटबद्ध हो जाते हैं। वकतने ही

माता−वपता इसी वचंता में ग्रहि कर लेता है, कोई बूढे़ के

र्ले कन्या का मढ़ कर अपना र्ला छुडाता है, पात्र−कुपात्र

के विचार करने का मौका कहां, ठेलमठेल है।

मंुशी रु्लजारीलाल ऐसे ही हतभारे् वपताओ ंमें थे। यो ं

उनकी ज्जस्थवत बूरी न थी। दो−ढ़ाई सौ रुपये महीने िकालत

से पीट लेते थे, पर िानदानी आदमी थे, उदार ह्रदय, बहुत

वकफायत करने पर भी माकूल बचत न हो सकती थी।

सम्बज्जियो ंका आदर−सत्कार न करें तो नही ंबनता, वमत्रो ं

की िावतरदारी न करें तो नही बनता। वफर ईश्वर के वदये

हुए दो पुत्र थे, उनका पालन−पोषि, वशक्षि का भार था,

50

क्ा करते ! पहली कन्या का वििाह टेढ़ी िीर हो रहा था।

यह आिश्यक था वक वििाह अचे्छ घराने में हो, अन्यथा

लोर् हंसेरे् और अचे्छ घराने के वलए कम−से−कम पांच

हजार का तिमीना था। उधर पुत्री सयानी होती जाती थी।

िह अनाज जो लडके िाते थे, िह भी िाती थी; लेवकन

लडको ं को देिो तो जैसे सूिो ं का रोर् लर्ा हो और

लडकी शुक् पक्ष का चांद हो रही थी। बहुत दौड−धूप

करने पर बचारे को एक लडका वमला। बाप आबकारी के

विभार् में ४०० रु० का नौकर था, लडका सुवशवक्षत। स्त्री से

आकार बोले, लडका तो वमला और घरबार−एक भी काटने

योग्य नही;ं पर कवठनाई यही है वक लडका कहता है, मैं

अपना वििाह न करंुर्ा। बाप ने समझाया, मैने वकतना

समझाया, औरो ंने समझाया, पर िह टस से मस नही ंहोता।

कहता है, मै कभी वििाह न करंुर्ा। समझ में नही ंआता,

वििाह से क्ो ं इतनी घृिा करता है। कोई कारि नही ं

बतलाता, बस यही कहता है, मेरी इच्छा। मां बाप का

एकलौता लडका है। उनकी परम इच्छा है वक इसका

वििाह हो जाय, पर करें क्ा? यो ंउन्होने फलदान तो रि

वलया है पर मुझसे कह वदया है वक लडका र्स्भाि का

हठीला है, अर्र न मानेर्ा तो फलदान आपको लौटा वदया

जायेर्ा।

स्त्री ने कहा−−तुमने लडके को एकांत में बुलािकर

पूछा नही?ं

रु्लजारीलाल−−बुलाया था। बैठा रोता रहा, वफर

उठकर चला र्या। तुमसे क्ा कहं, उसके पैरो ं पर वर्र

पडा; लेवकन वबना कुछ कहे उठाकर चला र्या।

51

स्त्री−−देिो, इस लडकी के पीछे क्ा−क्ा झेलना

पडता है?

रु्लजारीलाल−−कुछ नही,ं आजकल के लौडें सैलानी

होते हैं। अंर्रेजी पुस्तको ंमें पढ़ते है वक विलायत में वकतने

ही लोर् अवििावहत रहना ही पसंद करते है। बस यही

सनक सिार हो जाती है वक वनद्वगद्व रहने में ही जीिन की

सुि और शांवत है। वजतनी मुसीबतें है िह सब वििाह ही में

है। मैं भी कालेज में था तब सोचा करता था वक अकेला

रहंर्ा और मजे से सैर−सपाटा करंुर्ा।

स्त्री−−है तो िास्ति में बात यही। वििाह ही तो सारी

मुसीबतो ंकी जड है। तुमने वििाह न वकया होता तो क्ो ंये

वचंताएं होती ं? मैं भी क्वांरी रहती तो चैन करती।

सके एक महीना बाद मंुशी रु्लजारीलाल के पास िर

ने यह पत्र वलिा−−

‘पूज्यिर,

सादर प्िाम।

मैं आज बहुत असमंजस में पडकर यह पत्र वलिने का

साहस कर रहा हं। इस धृिता को क्षमा कीवजएर्ा।

आपके जाने के बाद से मेरे वपताजी और माताजी दोनो ंमुझ

पर वििाह करने के वलए नाना प्कार से दबाि डाल रहे है।

माताजी रोती है, वपताजी नाराज होते हैं। िह समझते है वक

मैं अपनी वजद के कारि वििाह से भार्ता हं। कदावचता

उने्ह यह भी सने्दह हो रहा है वक मेरा चररत्र भ्रि हो र्या

है। मैं िास्तविक कारि बताते हुए डारता हं वक इन लोर्ो ं

को दु:ि होर्ा और आश्चयग नही ं वक शोक में उनके प्ािो ं

पर ही बन जाय। इसवलए अब तक मैने जो बात रु्प्त रिी

52

थी, िह आज वििश होकर आपसे प्कट करता हं और

आपसे साग्रह वनिेदन करता हं वक आप इसे र्ोपनीय

समवझएर्ा और वकसी दशा में भी उन लोर्ो ं के कानो ं में

इसकी भनक न पडने दीवजएर्ा। जो होना है िह तो होर्ा

है, पहले ही से क्ो ं उने्ह शोक में डुबाऊं। मुझे ५−६

महीनो ंसे यह अनुभि हो रहा है वक मैं क्षय रोर् से ग्रवसत

हं। उसके सभी लक्षि प्कट होते जाते है। डाक्टरो ंकी भी

यही राय है। यहां सबसे अनुभिी जो दो डाक्टर हैं, उन

दोनो ंही से मैने अपनी आरोग्य−परीक्षा करायी और दोनो

ही ने स्पि कहा वक तुमे्ह वसल है। अर्र माता−वपता से यह

कह दंू तो िह रो−रो कर मर जायेर्ें। जब यह वनश्चय है वक

मैं संसार में थोडे ही वदनो ंका मेहमान हं तो मेरे वलए वििाह

की कल्पना करना भी पाप है। संभि है वक मैं विशेष प्यत्न

करके साल दो साल जीवित रहं, पर िह दशा और भी

भयंकर होर्ी, क्ोवक अर्र कोई संतान हुई तो िह भी मेरे

संस्कार से अकाल मृतु्य पायेर्ी और कदावचत् स्त्री को भी

इसी रोर्−राक्षस का भक्ष्य बनना पडे। मेरे अवििावहत रहने

से जो बीतेर्ी, मुझ पर बीतेर्ी। वििावहत हो जाने से मेरे

साथ और कई जीिो ंका नाश हो जायर्ा। इसवलए आपसे

मेरी प्ाथगना है वक मुझे इस बिन में डालने के वलए आग्रह

न कीवजए, अन्यथा आपको पछताना पडेर्ा।

सेिक

‘हजारीलाल।’

पत्र पढ़कर रु्लजारीलाल ने स्त्री की ओर देिा और

बोले−−इस पत्र के विषय में तुम्हारा क्ा विचार हैं।

स्त्री−−मुझे तो ऐसा मालूम होता है वक उसने बहाना

रचा है।

53

रु्लजारीलाल−−बस−बस, ठीक यही मेरा भी विचार

है। उसने समझा है वक बीमारी का बहाना कर दंूर्ा तो

आप ही हट जायेंरे्। असल में बीमारी कुछ नही।ं मैने तो

देिा ही था, चेहरा चमक रहा था। बीमार का मंुह वछपा

नही ंरहता।

स्त्री−−राम नाम ले के वििाह करो, कोई वकसी का

भाग्य थोडे ही पढे़ बैठा है।

रु्लजारीलाल−−यही तो मै सोच रहा हं।

स्त्री−−न हो वकसी डाक्टर से लडके को वदिाओ ं ।

कही ंसचमुच यह बीमारी हो तो बेचारी अम्बा कही ंकी न

रहे।

रु्लजारीलाल−तुम भी पार्ल हो क्ा? सब हीले−हिाले हैं।

इन छोकरो ं के वदल का हाल मैं िुब जानता हं। सोचता

होर्ा अभी सैर−सपाटे कर रहा हं, वििाह हो जायर्ा तो

यह रु्लछरे कैसे उडेरे्!

स्त्री−−तो शुभ मुहतग देिकर लग्न वभजिाने की तैयारी

करो।

हजारीलाल बडे धमग−सने्दह में था। उसके पैरो ं में

जबरदस्ती वििाह की बेडी डाली जा रही थी और िह कुछ

न कर सकता था। उसने ससुर का अपना कच्चा वचट्ठा कह

सुनाया; मर्र वकसी ने उसकी बालो ंपर विश्वास न वकया।

मां−बाप से अपनी बीमारी का हाल कहने का उसे साहस

न होता था। न जाने उनके वदल पर क्ा रु्जरे, न जाने क्ा

कर बैठें ? कभी सोचता वकसी डाक्टर की शहदत लेकर

ससूर के पास भेज दंू, मर्र वफर ध्यान आता, यवद उन

लोर्ो ं को उस पर भी विश्वास न आया, तो? आजकल

54

डाक्टरी से सनद ले लेना कौन−सा मुज्जिल काम है।

सोचेंरे्, वकसी डाक्टर को कुछ दे वदलाकर वलिा वलया

होर्ा। शादी के वलए तो इतना आग्रह हो रहा था, उधर

डाक्टरो ंने स्पि कह वदया था वक अर्र तुमने शादी की तो

तुम्हारा जीिन−सुत्र और भी वनबगल हो जाएर्ा। महीनो ंकी

जर्ह वदनो ंमें िारा−न्यारा हो जाने की सम्भािाना है।

लग्न आ चुकी थी। वििाह की तैयाररयां हो रही थी,ं

मेहमान आते−जाते थे और हजारीलाल घर से भार्ा−भार्ा

वफरता था। कहां चला जाऊं? वििाह की कल्पना ही से

उसके प्ाि सूि जाते थे। आह ! उस अबला की क्ा र्वत

होर्ी ? जब उसे यह बात मालूम होर्ी तो िह मुझे अपने

मन में क्ा कहेर्ी? कौन इस पाप का प्ायवश्चत करेर्ा ?

नही,ं उस अबला पर घोर अत्याचार न करंुर्ा, उसे िैधव्य

की आर् में न जलाऊंर्ा। मेरी वजन्दर्ी ही क्ा, आज न

मरा कल मरंुर्ा, कल नही ंतो परसो,ं तो क्ो ंन आज ही

मर जाऊं। आज ही जीिन का और उसके साथ सारी

वचंताओ ं को, सारी विपवत्तयो ं का अन्त कर दंू। वपता जी

रोयेंरे्, अम्मां प्ाि त्यार् देंर्ी; लेवकन एक बावलका का

जीिन तो सफल हो जाएर्ा, मेरे बाद कोई अभार्ा अनाथ

तो न रोयेर्ा।

क्ो ंन चलकर वपताजी से कह दंू? िह एक−दो वदन

दु:िी रहेंरे्, अम्मां जी दो−एक रोज शोक से वनराहार रह

जायेर्ी,ं कोई वचंता नही।ं अर्र माता−वपता के इतने कि से

एक युिती की प्ाि−रक्षा हो जाए तो क्ा छोटी बात है?

यह सोचकर िह धीरे से उठा और आकर वपता के

सामने िडा हो र्या।

55

रात के दस बज र्ये थे। बाबू दरबारीलाल चारपाई पर

लेटे हुए हुक्का पी रहे थे। आज उने्ह सारा वदन दौडते

रु्जरा था। शावमयाना तय वकया; बाजे िालो ं को बयाना

वदया; आवतशबाजी, फुलिारी आवद का प्बि वकया। घंटो

ब्राहमिो ंके साथ वसर मारते रहे, इस िक्त जरा कमर सीधी

कर रहें थे वक सहसा हजारीलाल को सामने देिकर चौकं

पडें। उसका उतरा हुआ चेहरा सजल आंिे और कंुवठत

मुि देिा तो कुछ वचंवतत होकर बोले−−क्ो ं लालू,

तबीयत तो अच्छी है न? कुछ उदास मालूम होते हो।

हजारीलाल−−मै आपसे कुछ कहना चाहता हं; पर

भय होता है वक कही ंआप अप्सन्न न हो।ं

दरबारीलाल−−समझ र्या, िही पुरानी बात है न ?

उसके वसिा कोई दूसरी बात हो शौक से कहो।

हजारीलाल−−िेद है वक मैं उसी विषय में कुछ

कहना चाहता हं।

दरबारीलाल−−यही कहना चाहता हो न मुझे इस

बिन में न डावलए, मैं इसके अयोग्य हं, मै यह भार सह

नही ंसकता, बेडी मेरी र्दगन को तोड देर्ी, आवद या और

कोई नई बात ?

हजारीलाल−−जी नही ंनई बात है। मैं आपकी आज्ञा

पालन करने के वलए सब प्कार तैयार हं; पर एक ऐसी बात

है, वजसे मैने अब तक वछपाया था, उसे भी प्कट कर देना

चाहता हं। इसके बाद आप जो कुछ वनश्चय करें रे् उसे मैं

वशरोधायग करंुर्ा।

हजारीलाल ने बडे विनीत शब्ो ं में अपना आशय

कहा, डाक्टरो ं की राय भी बयान की और अन्त में

56

बोलें−−ऐसी दशा में मुझे पूरी आशा है वक आप मुझे

वििाह करने के वलए बाध्य न करेंर्ें।

दरबारीलाल ने पुत्र के मुि की और र्ौर से देिा, कहे जदी

का नाम न था, इस कथन पर विश्वास न आया; पर अपना

अविश्वास वछपाने और अपना हावदगक शोक प्कट करने के

वलए िह कई वमनट तक र्हरी वचंता में मग्न रहे। इसके

बाद पीवडत कंठ से बोले−−बेटा, इस इशा में तो वििाह

करना और भी आिश्यक है। ईश्वर न करें वक हम िह बुरा

वदन देिने के वलए जीते रहे, पर वििाह हो जाने से तुम्हारी

कोई वनशानी तो रह जाएर्ी। ईश्वर ने कोई संतान दे दी तो

िही हमारे बुढ़ापे की लाठी होर्ी, उसी का मंुह देिरेि कर

वदल को समझायेंरे्, जीिन का कुछ आधार तो रहेर्ा। वफर

आरे् क्ा होर्ा, यह कौन कह सकता है ? डाक्टर वकसी

की कमग−रेिा तो नही ंपढ़ते, ईश्वर की लीला अपरम्पार है,

डाक्टर उसे नही ं समझ सकते । तुम वनवशं्चत होकर बैठो,ं

हम जो कुछ करते है, करने दो। भर्िान चाहेंरे् तो सब

कल्याि ही होर्ा।

हजारीलाल ने इसका कोई उत्तर नही ं वदया। आंिे

डबडबा आयी,ं कंठािरोध के कारि मंुह तक न िोल

सका। चुपके से आकर अपने कमरे मे लेट रहा।

तीन वदन और रु्जर र्ये, पर हजारीलाल कुछ वनश्चय

न कर सका। वििाह की तैयाररयो ंमें रिे जा चुके थे। मंते्रयी

की पूजा हो चूकी थी और द्वार पर बाजो ंका शोर मचा हुआ

था। मुहले्ल के लडके जमा होकर बाजा सुनते थे और

उल्लास से इधर−उधर दौडते थे।

संध्या हो र्यी थी। बरात आज रात की र्ाडी से जाने

िाली थी। बरावतयो ं ने अपने िस्त्राभूष्ण पहनने शुरु वकये।

57

कोई नाई से बाल बनिाता था और चाहता था वक ित ऐसा

साफ हो जाय मानो ंिहां बाल कभी थे ही नही,ं बुढे़ अपने

पके बाल को उिडिा कर जिान बनने की चेिा कर रहे

थे। तेल, साबुन, उबटन की लूट मची हुई थी और

हजारीलाल बर्ीचे मे एक िृक्ष के नीचे उदास बैठा हुआ

सोच रहा था, क्ा करंु?

अज्जन्तम वनश्चय की घडी वसर पर िडी थी। अब एक

क्षि भी विल्म्म्ब करने का मौका न था। अपनी िेदना वकससे

कहें, कोई सुनने िाला न था।

उसने सोचा हमारे माता−वपता वकतने अदुरदशी है,

अपनी उमंर् में इने्ह इतना भी नही सूझता वक िधु पर क्ा

रु्जरेर्ी। िधू के माता−वपता वकतने अदूरशी है, अपनी

उमंर् मे भी इतने अिे हो रहे है वक देिकर भी नही ं

देिते, जान कर नही ंजानते।

क्ा यह वििाह है? कदावप नही।ं यह तो लडकी का

कुएं में डालना है, भाड मे झोकंना है, कंुद छुरे से रेतना है।

कोई यातना इतनी दुस्सह, कर अपनी पुत्री का िैधव््य के

अवग्न−कंुड में डाल देते है। यह माता−वपता है? कदावप

नही।ं यह लडकी के शतु्र है, कसाई है, बवधक हैं, हत्यारे है।

क्ा इनके वलए कोई दण्ड नही ं? जो जान−बूझ कर अपनी

वप्य संतान के िुन से अपने हाथ रंर्ते है, उसके वलए कोई

दण्ड नही?ं समाज भी उने्ह दण्ड नही ंदेता, कोई कुछ नही ं

कहता। हाय !

यह सोचकर हजारीलाल उठा और एक ओर चुपचाप

चल वदया। उसके मुि पर तेज छाया हुआ था। उसने

आत्म−बवलदान से इस कि का वनिारि करने का दृढ़

संकल्प कर वलया था। उसे मृतु्य का लेश−मात्र भी भय न

58

था। िह उस दशा का पहंुच र्या था जब सारी आशाएं मृतु्य

पर ही अिलज्जम्बत हो जाती है।

उस वदन से वफर वकसी ने हजारीलाल की सूरत नही ं

देिी। मालूम नही ंजमीन िा र्ई या आसमान। नावदयो ंमे

जाल डाले र्ए, कुओ ं में बांस पड र्ए, पुवलस में हुवलया

र्या, समाचार−पत्रो ंमे विज्ञज्जप्त वनकाली र्ई, पर कही ंपता

न चला ।

कई हफ्तो के बाद, छािनी रेलिे से एक मील पवश्चम

की ओर सडक पर कुछ हवड्डयां वमली।ं लोर्ो को अनुमान

हुआ वक हजारीलाल ने र्ाडी के नीचे दबकर जान दी, पर

वनवश्चत रुप से कुछ न मालुम हुआ।

भादो ं का महीना था और तीज का वदन था। घरो ं में

सफाई हो रही थी। सौभाग्यिती रमवियां सोलहो शंृ्रर्ार

वकए रं्र्ा−स्नान करने जा रही थी।ं अम्बा स्नान करके लौट

आयी थी और तुलसी के कचे्च चबूतरे के सामने िडी

िंदना कर रही थी। पवतरृ्ह में उसे यह पहली ही तीज थी,

बडी उमंर्ो से व्रत रिा था। सहसा उसके पवत ने अन्दर

आ कर उसे सहास नेत्रो ं से देिा और बोला−−मंुशी

दरबारी लाल तुम्हारे कौन होते है, यह उनके यहां से तुम्हारे

वलए तीज पठौनी आयी है। अभी डावकया दे र्या है।

यह कहकर उसने एक पासगल चारपाई पर रि वदया।

दरबारीलाल का नाम सुनते ही अम्बा की आंिे सजल हो

र्यी।ं िह लपकी हुयी आयी और पासगल िृवतयां जीवित हो

र्यी,ं ह्रदय में हजारीलाल के प्वत श्रद्धा का एक

उद्−र्ार−सा उठ पडा। आह! यह उसी देिात्मा के

आत्मबवलदान का पुनीत फल है वक मुझे यह वदन देिना

नसीब हुआ। ईश्वर उने्ह सद्−र्वत दें। िह आदमी नही,ं

59

देिता थे, वजसने अपने कल्याि के वनवमत्त अपने प्ाि तक

समपगि कर वदए।

पवत ने पूछा−−दरबारी लाल तुम्हारी चचा हैं।

अम्बा−−हां।

पवत−−इस पत्र में हजारीलाल का नाम वलिा है, यह

कौन है?

अम्बा−−यह मंुशी दरबारी लाल के बेटे हैं।

पवत−−तुम्हारे चचरे भाई ?

अम्बा−−नही,ं मेरे परम दयालु उद्धारक, जीिनदाता,

मुझे अथाह जल में डुबने से बचाने िाले, मुझे सौभाग्य का

िरदान देने िाले।

पवत ने इस भाि कहा मानो कोई भूली हुई बात याद

आ र्ई हो−−आह! मैं समझ र्या। िास्ति में िह मनुष्य

नही ंदेिता थे।

60

वनिागसन

परशुराम –िही—ंिही ंदालान में ठहरो!

मयागदा—क्ो,ं क्ा मुझमें कुछ छूत लर् र्ई!

परशुराम—पहले यह बताओ ंतुम इतने वदनो ंसे कहां रही,ं

वकसके साथ रही,ं वकस तरह रही ंऔर वफर यहां वकसके

साथ आयी?ं तब, तब विचार...देिी जाएर्ी।

मयागदा—क्ा इन बातो ं को पूछने का यही िक्त है;

वफर अिसर न वमलेर्ा?

परशुराम—हां, यही बात है। तुम स्नान करके नदी से

तो मेरे साथ ही वनकली थी।ं मेरे पीछे-पीछे कुछ देर तक

आयी ंभी; मै पीछे वफर-वफर कर तुम्हें देिता जाता था,वफर

एकाएक तुम कहां र्ायब हो र्यी?ं

मयागदा – तुमने देिा नही,ं नार्ा साधुओ ंका एक दल

सामने से आ र्या। सब आदमी इधर-उधर दौडने लरे्। मै

भी धके्क में पडकर जाने वकधर चली र्ई। जरा भीड कम

हुई तो तुम्हें ढंूढ़ने लर्ी। बासू का नाम ले-ले कर पुकारने

लर्ी, पर तुम न वदिाई वदये।

परशुराम – अच्छा तब?

मयागदा—तब मै एक वकनारे बैठकर रोने लर्ी, कुछ

सूझ ही न पडता वक कहां जाऊं, वकससे कहं, आदवमयो ंसे

डर लर्ता था। संध्या तक िही ंबैठी रोती रही।ैै

परशुराम—इतना तूल क्ो ंदेती हो? िहां से वफर कहां

र्यी?ं

मयागदा—संध्या को एक युिक ने आ कर मुझसे पूछा,

तुम्हारेक घर के लोर् कही ंिो तो नही ंर्ए है? मैने कहा—

हां। तब उसने तुम्हारा नाम, पता, वठकाना पूछा। उसने सब

61

एक वकताब पर वलि वलया और मुझसे बोला—मेरे साथ

आओ, मै तुम्हें तुम्हारे घर भेज दंूर्ा।

परशुराम—िह आदमी कौन था?

मयागदा—िहां की सेिा-सवमवत का र्स्यंसेिक था।

परशुराम –तो तुम उसके साथ हो ली?ं

मयागदा—और क्ा करती? िह मुझे सवमवत के

कायगलय में ले र्या। िहां एक शावमयाने में एक लम्बी

दाढ़ीिाला मनुष्य बैठा हुआ कुछ वलि रहा था। िही उन

सेिको ंका अध्यक्ष था। और भी वकतने ही सेिक िहां िडे

थे। उसने मेरा पता-वठकाना रवजस्टर में वलिकर मुझे एक

अलर् शावमयाने में भेज वदया, जहां और भी वकतनी िोयी

हुई ज्जस्त्रयो ंबैठी हुई थी।ं

परशुराम—तुमने उसी िक्त अध्यक्ष से क्ो ं न कहा

वक मुझे पहंुचा दीवजए?

पयागदा—मैने एक बार नही ंसैकडो बार कहा; लेवकन

िह यह कहते रहे, जब तक मेला न ित्म हो जाए और सब

िोयी हुई ज्जस्त्रयां एकत्र न हो जाएं, मैं भेजने का प्बि नही ं

कर सकता। मेरे पास न इतने आदमी हैं, न इतना धन?

परशुराम—धन की तुमे्ह क्ा कमी थी, कोई एक सोने

की चीज बेच देती तो काफी रूपए वमल जाते।

मयागदा—आदमी तो नही ंथे।

परशुराम—तुमने यह कहा था वक िचग की कुछ वचन्ता

न कीवजए, मैं अपने र्हने बेचकर अदा कर दंूर्ी?

मयागदा—सब ज्जस्त्रयां कहने लर्ी,ं घबरायी क्ो ं जाती

हो? यहां वकस बात का डर है। हम सभी जल्द अपने घर

पहंुचना चाहती है; मर्र क्ा करें ? तब मैं भी चुप हो रही।

62

परशुराम – और सब ज्जस्त्रयां कुएं में वर्र पडती तो तुम

भी वर्र पडती?

मयागदा—जानती तो थी वक यह लोर् धमग के नाते मेरी

रक्षा कर रहे हैं, कुछ मेरे नौकरी या मजूर नही ं हैं, वफर

आग्रह वकस मंुह से करती? यह बात भी है वक बहुत-सी

ज्जस्त्रयो ं को िहां देिकर मुझे कुछ तसल्ली हो र्ईर््

परशुराम—हां, इससे बढ़कर तस्कीन की और क्ा बात हो

सकती थी? अच्छा, िहां के वदन तस्कीन का आनन्द उठाती

रही? मेला तो दूसरे ही वदन उठ र्या होर्ा?

मयागदा—रात- भर मैं ज्जस्त्रयो ंके साथ उसी शावमयाने में

रही।

परशुराम—अच्छा, तुमने मुझे तार क्ो ं न वदलिा

वदया?

मयागदा—मैंने समझा, जब यह लोर् पहंुचाने की कहते

ही हैं तो तार क्ो ंदंू?

परशुराम—िैर, रात को तुम िही ं रही। युिक बार-

बार भीतर आते रहे होरें्?

मयागदा—केिल एक बार एक सेिक भोजन के वलए

पूछने आयास था, जब हम सबो ं ने िाने से इन्कार कर

वदया तो िह चला र्या और वफर कोई न आया। मैं रात-भर

जर्ती रही।

परशुराम—यह मैं कभी न मानंूर्ा वक इतने युिक िहां

थे और कोई अन्दर न र्या होर्ा। सवमवत के युिक आकाश

के देिता नही ंहोत। िैर, िह दाढ़ी िाला अध्यक्ष तो जरूर

ही देिभाल करने र्या होर्ा?

63

मयागदा—हां, िह आते थे। पर द्वार पर से पूछ-पूछ कर

लौट जाते थे। हां, जब एक मवहला के पेट में ददग होने लर्ा

था तो दो-तीन बार दिाएं वपलाने आए थे।

परशुराम—वनकली न िही बात!मै इन धूतों की नस-

नस पहचानता हं। विशेषकर वतलक-मालाधारी दवढ़यलो ं

को मैं रु्रू घंटाल ही समझता हं। तो िे महाशय कई बार

दिाई देने र्ये? क्ो ं तुम्हारे पेट में तो ददग नही ंहोने लर्ा

था.?

मयागदा—तुम एक साधु पुरूष पर आके्षप कर रहे हो।

िह बेचारे एक तो मेरे बाप के बराबर थे, दूसरे आंिे नीची

वकए रहने के वसिाय कभी वकसी पर सीधी वनर्ाह नही ं

करते थे।

परशुराम—हां, िहां सब देिता ही देिता जमा थे। िैर,

तुम रात-भर िहां रही।ं दूसरे वदन क्ा हुआ?

मयागदा—दूसरे वदन भी िही ंरही। एक र्स्यंसेिक हम

सब ज्जस्त्रयो ंको साथ में लेकर मुख्य-मुख्य पवित्र स्थानो का

दशगन कराने र्या। दो पहर को लौट कर सबो ं ने भोजन

वकया।

परशुराम—तो िहां तुमने सैर-सपाटा भी िूब वकया,

कोई कि न होने पाया। भोजन के बाद र्ाना-बजाना हुआ

होर्ा?

मयागदा—र्ाना बजाना तो नही,ं हां, सब अपना-अपना

दुिडा रोती रही,ं शाम तक मेला उठ र्या तो दो सेिक हम

लोर्ो ंको ले कर से्टशन पर आए।

परशुराम—मर्र तुम तो आज सातिें वदन आ रही हो

और िह भी अकेली?

मयागदा—से्टशन पर एक दुघगटना हो र्यी।

64

परशुराम—हां, यह तो मैं समझ ही रहा था। क्ा

दुघगटना हुई?

मयागदा—जब सेिक वटकट लेने जा रहा था, तो एक

आदमी ने आ कर उससे कहा—यहां र्ोपीनाथ के

धमगशाला में एक आदमी ठहरे हुए हैं, उनकी स्त्री िो र्यी

है, उनका भला-सास नाम है, र्ोरे-र्ोरे लमे्ब-से िूबसूरत

आदमी हैं, लिनऊ मकान है, झिाई टोले में। तुम्हारा

हुवलया उसने ऐसा ठीक बयान वकया वक मुझे उसस पर

विश्वास आ र्या। मैं सामने आकर बोली, तुम बाबूजी को

जानते हो? िह हंसकर बोला, जानता नही ंहं तो तुम्हें तलाश

क्ो करता वफरता हं। तुम्हारा बच्चा रो-रो कर हलकान हो

रहा है। सब औरतें कहने लर्ी,ं चली जाओ,ं तुम्हारे

र्स्ामीजी घबरा रहे होरें्। र्स्यंसेिक ने उससे दो-चार बातें

पूछ कर मुझे उसके साथ कर वदया। मुझे क्ा मालूम था

वक मैं वकसी नर-वपशाच के हाथो ं पडी जाती हं। वदल मैं

िुशी थी वकअब बासू को देिंूर्ी तुम्हारे दशगन करंूर्ी।

शायद इसी उतु्सकता ने मुझे असािधान कर वदया।

परशुराम—तो तुम उस आदमी के साथ चल दी? िह

कौन था?

मयागदा—क्ा बतलाऊं कौन था? मैं तो समझती हं,

कोई दलाल था?

परशुराम—तुमे्ह यह न सूझी वक उससे कहती,ं जा

कर बाबू जी को भेज दो?

मयागदा—अवदन आते हैं तो बुज्जद्ध भ्रि हो जाती है।

परशुराम—कोई आ रहा है।

मयागदा—मैं रु्सलिाने में वछपी जाती हं।

65

परशुराम –आओ भाभी, क्ा अभी सोयी नही,ं दस तो

बज र्ए होरें्।

भाभी—िासुदेि को देिने को जी चाहता था भैया, क्ा

सो र्या?

परशुराम—हां, िह तो अभी रोते-रोते सो र्या।

भाभी—कुछ मयागदा का पता वमला? अब पता वमले तो

भी तुम्हारे वकस काम की। घर से वनकली ज्जस्त्रयां थान से

छूटी हुई घोडी हैं। वजसका कुछ भरोसा नही।ं

परशुराम—कहां से कहां लेकर मैं उसे नहाने लर्ा।

भाभी—होनहार हैं, भैया होनहार। अच्छा, तो मै जाती

हं।

मयागदा—(बाहर आकर) होनहार नही ंहं, तुम्हारी चाल

है। िासुदेि को प्यार करने के बहाने तुम इस घर पर

अवधकार जमाना चाहती हो।

परशुराम –बको मत! िह दलाल तुम्हें कहां ले र्या।

मयागदा—र्स्ामी, यह न पूवछए, मुझे कहते लि आती

है।

परशुराम—यहां आते तो और भी लि आनी चावहए

थी।

मयागदा—मै परमात्मा को साक्षी देती हं, वक मैंने उसे

अपना अंर् भी स्पशग नही ंकरने वदया।

पराशुराम—उसका हुवलया बयान कर सकती हो।

मयागदा—सांिला सा छोटे डील डौल काआदमी

था।नीचा कुरता पहने हुए था।

परशुराम—र्ले में ताबीज भी थी?

मयागदा—हां,थी तो।

66

परशुराम—िह धमगशाले का मेहतर था।मैने उसे

तुम्हारे रु्म हो जाने की चचाग की थी। िहउस दुि ने उसका

िह र्स्ांर् रचा।

मयागदा—मुझे तो िह कोई ब्रह्मि मालूम होता था।

परशुराम—नही ं मेहतर था। िह तुम्हें अपने घर ले

र्या?

मयागदा—हां, उसने मुझे तांरे् पर बैठाया और एक तंर्

र्ली में, एक छोटे- से मकान के अन्दर ले जाकर बोला,

तुम यही ंबैठो, मुम्हारें बाबूजी यही ंआयेंरे्। अब मुझे विवदत

हुआ वक मुझे धोिा वदया र्या। रोने लर्ी। िह आदमी

थोडी देर बाद चला र्या और एक बुवढया आ कर मुझे

भांवत-भांवत के प्लोभन देने लर्ी। सारी रात रो-रोकर

काटी दूसरे वदन दोनो ं वफर मुझे समझाने लरे् वक रो-रो

कर जान दे दोर्ी, मर्र यहां कोई तुम्हारी मदद को न

आयेर्ा। तुम्हाराएक घर डूट र्या। हम तुमे्ह उससे कही ं

अच्छा घर देंर्ें जहां तुम सोने के कौर िाओर्ी और सोने से

लद जाओर्ी। लब मैने देिा वकक यहां से वकसी तरह नही ं

वनकल सकती तो मैने कौशल करने का वनश्चय वकया।

परशुराम—िैर, सुन चुका। मैं तुम्हारा ही कहना मान

लेता हं वक तुमने अपने सतीत्व की रक्षा की, पर मेरा हृदय

तुमसे घृिा करता है, तुम मेरे वलए वफर िह नही ं वनकल

सकती जो पहले थी।ं इस घर में तुम्हारे वलए स्थान नही ंहै।

मयागदा—र्स्ामी जी, यह अन्याय न कीवजए, मैं

आपकी िही स्त्री हं जो पहले थी। सोवचए मेरी दशा क्ा

होर्ी?

परशुराम—मै यह सब सोच चुका और वनश्चय कर

चुका। आज छ: वदन से यह सोच रहा हं। तुम जानती हो वक

67

मुझे समाज का भय नही।ं छूत-विचार को मैंने पहले ही

वतलांजली दे दी, देिी-देिताओ ं को पहले ही विदा कर

चुका:पर वजस स्त्री पर दूसरी वनर्ाहें पड चुकी, जो एक

सप्ताह तक न-जाने कहां और वकस दशा में रही, उसे

अंर्ीकार करना मेरे वलए असम्भि है। अर्र अन्याय है तो

ईश्वर की ओर से है, मेरा दोष नही।ं

मयागदा—मेरी वििशमा पर आपको जरा भी दया नही ं

आती?

परशुराम—जहां घृिा है, िहां दया कहां? मै अब भी

तुम्हारा भरि-पोषि करने को तैयार हं।जब तक जीऊर्ां,

तुम्हें अन्न-िस्त्र का कि न होर्ा पर तुम मेरी स्त्री नही ंहो

सकती।ं

मयागदा—मैं अपने पुत्र का मुह न देिंू अर्र वकसी ने

स्पशग भी वकया हो।

परशुराम—तुम्हारा वकसी अन्य पुरूष के साथ क्षि-

भर भी एकान्त में रहना तुम्हारे पवतव्रत को नि करने के

वलए बहुत है। यह विवचत्र बंधन है, रहे तो जन्म-जन्मान्तर

तक रहे: टूटे तो क्षि-भर में टूट जाए। तुम्ही ंबताओ,ं वकसी

मुसलमान ने जबरदस्ती मुझे अपना उज्जच्छट भोलन ज्जिला

वदयया होता तो मुझे र्स्ीकार करती?ं

मयागदा—िह.... िह.. तो दूसरी बात है।

परशुराम—नही,ं एक ही बात है। जहां भािो ं का

सम्बि है, िहां तकग और न्याय से काम नही ंचलता। यहां

तक अर्र कोई कह दे वक तुम्हारें पानी को मेहतर ने छू

वनया है तब भी उसे ग्रहि करने से तुम्हें घृिा आयेर्ी।

अपने ही वदन से सोचो वक तुम्हारेंसाथ न्याय कर रहा हं या

अन्याय।

68

मयागदा—मै तुम्हारी छुई चीजें न िाती, तुमसे पृथक

रहती पर तुम्हें घर से तो न वनकाल सकती थी। मुझे

इसवलए न दुत्कार रहे हो वक तुम घर के र्स्ामी हो और वक

मैं इसका पलन करतजा हं।

परशुराम—यह बात नही ंहै। मै इतना नीच नही ंहं।

मयागदा—तो तुम्हारा यही ंअवतमं वनश्चय है?

परशुराम—हां, अंवतम।

मयागदा-- जानते हो इसका पररिाम क्ा होर्ा?

परशुराम—जानता भी हं और नही ंभी जानता।

मयागदा—मुझे िासुदेि ले जाने दोरे्?

परशुराम—िासुदेि मेरा पुत्र है।

मयागदा—उसे एक बार प्यार कर लेने दोरे्?

परशुराम—अपनी इच्छा से नही,ं तुम्हारी इच्छा हो तो

दूर से देि सकती हो।

मयागदा—तो जाने दो, न देिंूर्ी। समझ लंूर्ी वक

विधिा हं और बांझ भी। चलो मन, अब इस घर में तुम्हारा

वनबाह नही ंहै। चलो जहां भाग्य ले जाय।

69

नैराश्य लीला

वडत हृदयनाथ अयोध्या के एक सम्मावनत पुरूष थे।

धनिान तो नही ं लेवकन िाने वपने से िुश थे। कई

मकान थे, उन्ही के वकराये पर रु्जर होता था। इधर वकराये

बढ र्ये थे, उन्होनें अपनी सिारी भी रि ली थी। बहुत

विचार शील आदमी थे, अच्छी वशक्षा पायी थी। संसार का

काफी तरजुरबा था, पर वक्रयात्मक शवकत् से व्रवचत थे, सब

कुछ न जानते थे। समाज उनकी आंिो ंमें एक भयंकर भूत

था वजससे सदैि डरना चावहए। उसे जरा भी रूि वकया तो

वफर जाने की िैर नही।ं उनकी स्त्री जारे्श्वरी उनका

प्वतवबम्ब, पवत के विचार उसके विचार और पवत की इच्छा

उसकी इच्छा थी, दोनो ं प्ावियो ं में कभी मतभेद न होता

था। जारे्श्चरी ज्जिि की उपासक थी। हृदयनाथ िैष्णि थे,

दोनो धमगवनि थे। उससे कही ं अवधक , वजतने समान्यत:

वशवक्षत लोर् हुआ करते है। इसका कदावचत् यह कारि था

वक एक कन्या के वसिा उनके और कोई सनतान न थी।

उनका वििाह तेरहिें िषग में हो र्या था और माता-वपता की

अब यही लालसा थी वक भर्िान इसे पुत्रिती करें तो हम

लोर् निासे के नाम अपना सब-कुछ वलि वलिाकर

वनवश्चत हो जायें।

वकनु्त विधाता को कुछ और ही मन्जूर था। कैलाश

कुमारी का अभी र्ौना भी न हुआ था, िह अभी तक यह भी

न जानने पायी थी वक वििाह का आश्य क्ा है वक उसका

सोहार् उठ र्या। िैधव्य ने उसके जीिन की अवभलाषाओ ं

का दीपक बुझा वदया।

पं

70

माता और वपता विलाप कर रहे थे, घर में कुहराम

मचा हुआ था, पर कैलाशकुमारी भौचंक्की हो-हो कर

सबके मंुह की ओर ताकती थी। उसकी समझ में यह न

आता था वक ये लोर् रोते क्ो ंहैं। मां बाप की इकलौती बेटी

थी। मां-बाप के अवतररक्त िह वकसी तीसरे व्यज्जक्त को

उपने वलए आिश्यक न समझती थी। उसकी सुि

कल्पनाओ ं में अभी तक पवत का प्िेश न हुआ था। िह

समझती थी, स्त्रीयां पवत के मरने पर इसवलए राती है वक

िह उनका और बच्चो ंका पालन करता है। मेरे घर में वकस

बात की कमी है? मुझे इसकी क्ा वचन्ता है वक िायेंरे्

क्ा, पहनेर्ें क्ा? मुढरे वजस चीज की जरूरत होर्ी

बाबूजी तुरन्त ला दें रे्, अम्मा से जो चीज मारंू्र्ी िह दे

देंर्ी। वफर रोऊं क्ो?ंिह अपनी मां को रोते देिती तो

रोती, पती के शोक से नही,ं मां के पे्म से । कभी सोचती,

शायद यह लोर् इसवलए रोते हैं वक कही ंमैं कोई ऐसी चीज

न मांर् बैठंू वजसे िह दे न सकें । तो मै ऐसी चीज मांरू्र्ी ही

क्ो? मै अब भी तो उन से कुछ नही ंमांर्ती, िह आप ही

मेरे वलए एक न एक चीज वनत्य लाते रहते हैं? क्ा मैं अब

कुछ और हो जाऊर्ी?ं इधर माता का यहा हाल था वक बेटी

की सूरत देिते ही आंिो ं से आंसू की झडी लर् जाती।

बाप की दशा और भी करूिाजनक थी। घर में आना-

जाना छोड वदया। वसर पर हाथ धरे कमरे में अकेले उदास

बैठे रहते। उसे विशेष दु:ि इस बात का था वक सहेवलयां

भी अब उसके साथ िेलने न आती। उसने उनके घर लाने

की माता से आज्ञा मांर्ी तो फूट-फूट कर रोने लर्ी ंमाता-

वपता की यह दशा देिी तो उसने उनके सामने जाना छोड

वदया, बैठी वकसे्स कहावनयां पढा करती। उसकी

71

एकांतवप्यता का मां-बाप ने कुछ और ही अथग समझा।

लडकी शोक के मारे घुली जाती है, इस िज्राघात ने उसके

हृदय को टुकडे-टुकडे कर डाला है।

एक वदन हृदयनाथ ने जारे्श्वरी से कहा—जी चाहता है

घर छोड कर कही ंभार् जाऊं। इसका कि अब नही ंदेिा

जाता।

जारे्श्वरी—मेरी तो भर्िान से यही प्ाथनाग है वक मुझे

संसार से उठा लें। कहां तक छाती पर पत्थर कीस वसल

रिंू।

हृदयनाथ—वकसी भावतं इसका मन बहलाना चावहए,

वजसमें शोकमय विचार आने ही न पायें। हम लोरं्ो ं को

दु:िी और रोते देि कर उसका दु:ि और भी दारूि हो

जाता है।

जारे्श्वरी—मेरी तो बुज्जद्ध कुछ काम नही ंकरती।

हृदयनाथ—हम लोर् यो ं ही मातम करते रहे तो

लडंकी की जान पर बन जायेर्ी। अब कभी कभी वथएटर

वदिा वदया, कभी घर में र्ाना-बजाना करा वदया। इन बातो ं

से उसका वदल बहलता रहेर्ा।

जारे्शिरी—मै तो उसे देिते ही रो पडती हं। लेवकन

अब जब्त करंूर्ी तुम्हारा विचार बहुत अच्छा है। विना

वदल बहलाि के उसका शोक न दूर होर्ा।

हृदयनाथ—मैं भी अब उससे वदल बहलाने िाली बातें

वकया करूर्ां। कल एक सैरबी ंलाऊर्ा, अचे्छ-अचे्छ दृश्य

जमा करूर्ां। ग्रामोफोन तो अज ही मर्िाये देता हं। बस

उसे हर िक्त वकसी न वकसी कात में लर्ाये रहना चावहए।

एकातंिास शोक-ज्वाला के वलए समीर के समान है।

72

उस वदन से जारे्श्वरी ने कैलाश कुमारी के वलए विनोद

और प्मोद के समान लमा करनेशुरू वकये। कैलासी मां के

पास आती तो उसकी आंिो ं में आसू की बंूदे न देिती,

होठो ं पर हंसी की आभा वदिाई देती। िह मुस्करा कर

कहती –बेटी, आज वथएटर में बहुत अच्छा तमाशा होने

िाला है, चलो देि आयें। कभी रं्र्ा-स्नान की ठहरती, िहां

मां-बेटी वकश्ती पर बैठकर नदी में जल विहार करती,ं

कभी दोनो ं संध्या-समय पाकै की ओर चली जाती।ं धीरे-

धीरे सहेवलयां भी आने लर्ी।ं कभी सब की सब बैठकर

ताश िेलती।ं कभी र्ाती-बजाती।ं पज्जण्डत हृदय नाथ ने भी

विनोद की सामवग्रयां जुटायी।ं कैलासी को देिते ही मग्न

होकर बोलते—बेटी आओ, तुम्हें आज काश्मीर के दृश्य

वदिाऊं: कभी ग्रामोफोन बजाकर उसे सुनाते। कैलासी इन

सैर-सपाटो ंका िूब आन्नद उठाती। अतने सुि से उसके

वदन कभी न रु्जरे थे।

2

स भांवत दो िषग बीत र्ये। कैलासी सैर-तमाशे की

इतनी आवद हो र्यी वक एक वदन भी वथएटर न जाती

तो बेकल-ससी होने लर्ती। मनोरंजन निीननता का दास

है और समानता का शतु्र। वथएटरो ं के बाद वसनेमा की

सनक सिार हुई। वसनेमा के बाद वमिेररज्म और

वहपनोवटज्म के तमाशो ं की सनक सिार हुई। वसनेमा के

बाद वमिेररज्म और वहप्नोवटज्म के तमाशो ंकी। ग्रामोफोन

के नये ररकाडग आने लरे्। संर्ीत का चस्का पड र्या।

वबरादरी में कही ं उत्सि होता तो मां-बेटी अिश्स्स्य जाती।ं

कैलासी वनत्य इसी नशे में डूबी रहती, चलती तो कुछ

रु्नरु्नती हुई, वकसी से बाते करती तो िही वथएटर की और

73

वसनेमा की। भौवतक संसार से अब कोई िास्ता न था, अब

उसका वनिास कल्पना संसार में था। दूसरे लोक की

वनिावसन होकर उसे प्ावियो ं से कोई सहानुभूवत न रही,ं

वकसी के दु:ि पर जरा दया न आती। र्स्भाि में

उचंृ्छिलता का विकास हुआ, अपनी सुरूवच पर र्िग करने

लर्ी। सहेवलयो ंसे डीरें् मारती, यहां के लोर् मूिग है, यह

वसनेमा की कद्र क्ा करेर्ें। इसकी कद्र तो पवश्चम के लोर्

करते है। िहां मनोरंजन की सामावग्रयां उतनी ही आिश्यक

है वजतनी हिा। जभी तो िे उतने प्सनन-वचत्त रहते है,

मानो वकसी बात की वचंता ही नही।ं यहां वकसी को इसका

रस ही नही।ं वजन्हें भर्िान ने सामर्थ्ग भी वदया है िह भी

सरंशाम से मुह ढांक कर पडे रहमे हैं। सहेवलयां कैलासी

की यह र्िग-पूिग बातें सुनती ंऔर उसकी और भी प्शंसा

करती।ं िह उनका अपमान करने के आिेश में आप ही

हास्यास्पद बन जाती थी।

पडोवसयो ं में इन सैर-सपाटो ं की चचाग होने लर्ी।

लोक-सम्मवत वकसी की ररआयत नही ं करती। वकसी ने

वसर पर टोपी टेढी रिी और पडोवसयो ंकी आंिो ंमें िुबा

कोई जरा अकड कर चला और पडोवसयो ंने अिाजें कसी।ं

विधिा के वलए पूजा-पाठ है, तीथग-व्रत है, मोटा िाना

पहनना है, उसे विनोदऔर विलास, रार् और रंर् की क्ा

जरूरत? विधाता ने उसके द्वार बंद रर वदये है। लडकी

प्यारी सही, लेवकन शमग और हया भी कोई चीज होती है।

जब मां-बाप ही उसे वसर चढाये हुए है तो उसका क्ा

दोष? मर्र एक वदन आंिे िुलेर्ी अिश्य।मवहलाएं

कहती,ं बाप तो मदग है, लेवकन मां कैसी है। उसको जरा भी

74

विचार नही ं वक दुवनयां क्ा कहेर्ी। कुछ उन्ही ं की एक

दुलारी बेटी थोडे ही है, इस भांवतमन बढाना अच्छा नही।ं

कुद वदनो ंतक तो यह ज्जिचडी आपस में पकती रही।

अंत को एक वदन कई मवहलाओ ं ने जारे्श्वरी के घर

पदापगि वकया। जारे्श्वरी ने उनका बडा आदर-सत्कार

वकया। कुछ देर तक इधर-उधर की बातें करने के बाद

एक मवहला बोली—मवहलाएं रहस्य की बातें करने में बहुत

अभ्यस्त होती है—बहन, तुम्ही ंमजे में हो वक हंसी-िुसी में

वदन काट देती हो। हमंु तो वदन पहाड हो जाता है। न कोई

काम न धंधा, कोई कहां तक बातें करें ?

दूसरी देिी ने आंिें मटकाते हुए कहा—अरे, तो यह

तो बदे की बात है। सभी के वदन हंसी-िंुशी से कटें तो रोये

कौन। यहां तो सुबह से शाम तक चक्की-चूले्ह से छुट्टी नही ं

वमलती: वकसी बचे्च को दस्त आ रहें तो वकसी को ज्वर

चढा हुआ है: कोई वमठाइयो ंकी रट कहा है: तो कोई पैसो

के वलए महानामथ मचाये हुए है। वदन भर हाय-हाय करते

बीत जाता है। सारे वदन कठपुतवलयो ं की भांवत नाचती

रहती हं।

तीसरी रमिी ने इस कथन का रहस्यमय भाि से

विरोध वकया—बदे की बात नही,ं िैसा वदल चावहए। तुम्हें

तो कोई राजवसंहासन पर वबठा दे तब भी तस्कीन न होर्ी।

तब और भी हाय-हाय करोर्ी।

इस पर एक िृद्धा ने कहा—नौज ऐसा वदल: यह भी

कोई वदल है वक घर में चाहे आर् लर् जाय, दुवनया में

वकतना ही उपहास हो रहा हो, लेवकन आदमी अपने रार्-

रंर् में मस्त रह। िह वदल है वक पत्थर : हम रृ्वहिी

75

कहलाती है, हमारा काम है अपनी रृ्हस्थी में रत रहना।

आमोद-प्मोद में वदन काटना हमारा काम नही।ं

और मवहलाओ ंने इन वनदगय वं्यग्य पर लज्जित हो कर

वसर झुका वलया। िे जारे्श्वरी की चटुवकयां लेना चाहती थी।ं

उसके साथ वबल्ली और चूहे की वनदगयी क्रीडा करना

चाहती थी।ं आहत को तडपाना उनका उदे्दश्य था। इस

िुली हुई चोट ने उनके पर-पीडन पे्म के वलए कोई

रंु्जाइश न छोडी: वकंतु जारे्श्वरी को ताडना वमल र्यी।

ज्जस्त्रयो ंके विदा होने के बाद उसने जाकर पवत से यह सारी

कथा सुनायी। हृदयनाथ उन पुरूषो ं में न थे जो प्ते्यक

अिसर पर अपनी आज्जत्मक र्स्ाधीनता का र्स्ांर् भरते है,

हठधमी को आत्म-र्स्ातत्रय य के नाम से वछपाते है। िह

सवचन्त भाि से बोले---तो अब क्ा होर्ा?

जारे्श्वरी—तुम्ही ंकोई उपाय सोचो।

हृदयनाथ—पडोवसयो ं ने जो आके्षप वकया है िह

सिथाग उवचत है। कैलाशकुमारी के र्स्भाि में मुझें एक

सविवचत्र अन्तर वदिाई दे रहा है। मुझे रं्स्म ज्ञात हो रहा है

वक उसके मन बहलाि के वलए हम लोरं्ो ं ने जो उपाय

वनकाला है िह मुनावसब नही ंहै। उनका यह कथन सत्य है

वक विधिाओ ं के वलए आमोद-प्ामोद िवजगत है। अब हमें

यह पररपाटी छोडनी पडेर्ी।

जारे्श्वरी—लेवकन कैलासी तो अन िेल-तमाशो ं के

वबना एक वदन भी नही ंरह सकती।

हृदयनाथ—उसकी मनोिृवत्तयो ंको बदलना पडेर्ा।

3

76

नै:शैने यह विलोसोल्माद शांत होने लर्ा। िासना का

वतरस्कार वकया जाने लर्ा। पंवडत जी संध्या समय

ग्रमोफोन न बजाकर कोई धमग-गं्रथ सुनते। र्स्ाध्याय, संसम

उपासना में मां-बेटी रत रहने लर्ी।ं कैलासी को रु्रू जी ने

दीक्षा दी, मुहले्ल और वबरादरी की ज्जस्त्रयां आयी,ं उत्सि

मनाया र्या।

मां-बेटी अब वकश्ती पर सैर करने के वलए रं्र्ा न

जाती,ं बज्जि स्नान करने के वलए। मंवदरो में वनत्य जाती।ं

दोनां एकादशी का वनजगल व्रम रिने लर्ी।ं कैलासी को

रु्रूजी वनत्य संध्या-समय धमोपदेश करते। कुछ वदनो ंतक

तो कैलासी को यह विचार-पररिगतन बहुत किजनक

मालूम हुआ, पर धमगवनष्ठा नाररयो ं का र्स्ाभाविक रु्ि है,

थोडे ही वदनो में उसे धमग से रूची हो र्यी। अब उसे अपनी

अिस्था का ज्ञान होने लर्ा था। विषय-िासना से वचत्त आप

ही आप ज्जिंचने लर्ा। पवत का यथाथग आशय समझ में आने

लर्ा था। पवत ही स्त्री का सच्चा पथ प्दशगक और सच्चा

सहायक है। पवतविहीन होना वकसी घोर पाप का प्ायवश्चत

है। मैने पूिग-जन्म में कोई अकमग वकया होर्ा। पवतदेि

जीवित होते तो मै वफर माया में फंस जाती। प्ायवश्चत कर

अिसर कहां वमलता। रु्रूजी का िचन सत्य है वक

परमात्मा ने तुम्हें पूिग कमों के प्ायवश्चत का अिसर वदया है।

िैधव्य यातना नही ं है, जीिोद्धर का साधन है। मेरा उद्धार

त्यार्, विरार्, भज्जक्त और उपासना से होर्ा।

कुछ वदनो ं के बाद उसकी धावमगक िृवत्त इतनी प्बल

हो र्यी, वक अन्य प्ावियो ंसे िह पृथक् रहने लर्ी। वकसी

को न छूती, महररयो ंसे दूर रहती, सहेवलयो ंसे र्ले तक न

वमलती, वदन में दो-दो तीन-तीन बार स्नान करती, हमेशा

77

कोई न कोई धमग-ग्रन्थ पढा करती। साधु –महात्माओ ं के

सेिा-सत्कार में उसे आज्जत्मक सुि प्ाप्त होता। जहां वकसी

महात्मा के आने की िबर पाती, उनके दशगनो ं के वलए

किकल हो जाती। उनकी अमृतिािी सुनने से जी न

भरता। मन संसार से विरक्त होने लर्ा। तल्लीनता की

अिस्था प्ाप्त हो र्यी। घंटो ध्यान और वचंतन में मग्न रहती।

समावजक बंधनो से घृि हो र्यी। घंटो ध्यान और वचंतन में

मग्न रहती। हृदय र्स्ावधनता के वलए लालावयत हो र्या: यहां

तक वक तीन ही बरसो ं में उसने संन्यास ग्रहि करने का

वनश्चय कर वलया।

मां-बाप को यह समाचार ज्ञात हुआ ता होश उड र्ये।

मां बोली—बेटी, अभी तुम्हारी उम्र ही क्ा है वक तुम ऐसी

बातें सोचती हो।

कैलाशकुमारी—माया-मोह से वजतनी जल्द वनिृवत्त हो

जाय उतना ही अच्छा।

हृदयनाथ—क्ा अपने घर मे रहकर माया-मोह से

मुक्त नही ंहो सकती हो? माया-मोह का स्थान मन है, घर

नही।ं

जारे्श्वरी—वकतनी बदनामी होर्ी।

कैलाशकुमारी—अपने को भर्िान् के चरिो ं पर

अपगि कर चुकी तो बदनामी क्ा वचंता?

जारे्श्वरी—बेटी, तुम्हें न हो , हमको तो है। हमें तो

तुम्हारा ही सहरा है। तुमने जो संयास वलया तो हम वकस

आधार पर वजयेंरे्?

कैलाशकुमारी—परमात्मा ही सबका आधार है। वकसी

दूसरे प्ािी का आश्रय लेना भूल है।

78

दूसरे वदन यह बात मुहले्ल िालो ं के कानो ं में पहंुच

र्यी। जब कोई अिस्था असाध्य हो जाती है तो हम उस पर

वं्यर् करने लर्ते है। ‘यह तो होना ही था, नयी बात क्ा

हुई, लवडवकयो ंको इस तरह र्स्छंद नही ंकर वदया जाता,

फूले न समाते थे वक लडकी ने कुल का नाम उििल कर

वदया। पुराि पढती है, उपवनषद् और िेदांत का पाठ

करती है, धावमगक समस्याओ ंपर ऐसी-ऐसी दलीलें करती है

वक बडे-बडे विद्वानो ंकी जबान बंद हो जाती है तो अब क्ो ं

पछताते है?’ भद्र पुरूषो ंमें कई वदनो ंतक यही आलोचना

हाती रही। लेवकन जैसे अपने बचे्च के दौडते-दौडते –धम

से वर्र पडने पर हम पहले क्रोध के आिेश में उसे

वझडवकयां सुनाते है, इसके बाद र्ोद में वबठाकर आंसू

पोछतें और फुसलाने का लर्ते है: उसी तरह इन भद्र

पुरूषो ं ने व्य्रग्य के बाद इस रु्त्थी के सुलझाने का उपाय

सोचना शुरू वकया। कई सिन हृदयनाथ के पास आये

और वसर झुकाकर बैठ र्ये। विषय का आरम्भ कैसे हो?

कई वमनट के बाद एक सिन ने कहा –ससुना है

डाक्टर र्ौड का प्स्ताि आज बहुमत से र्स्ीकृत हो र्या।

दूसरे महाश्य बोले—यह लोर् वहंदू-धमग का सिगनाश

करके छोडेर्ें। कोई क्ा करेर्ा, जब हमारे साधु-महात्मा,

वहंदू-जावत के सं्तभ है, इतने पवतत हो र्ए हैं वक भोली-

भाली युिवतयो ं को बहकाने में संकोच नही ं करते तो

सिगनाश होनें में रह ही क्ा र्या।

हृदयनाथ—यह विपवत्त तो मेरे वसर ही पडी हुई है।

आप लोर्ो ंको तो मालूम होर्ा।

पहले महाश्य –आप ही के वसर क्ो,ं हम सभी के

वसर पडी हुई है।

79

दूसरो महाश्य –समस्त जावत के वसर कवहए।

हृदयनाथ—उद्धार का कोई उपाय सोवचए।

पहले महाश्य—अपने समझाया नही?ं

हृदयनाथ—समझा के हार र्या। कुछ सुनती ही नही।ं

तीसरे महाश्य—पहले ही भूल हुई। उसे इस रासे्त पर

उतरना ही नही ंचावहए था।

पहले महाशय—उस पर पछताने से क्ा होर्ा? वसर

पर जो पडी है, उसका उपाय सोचना चावहए। आपने

समाचार-पत्रो ं में देिा होर्ा, कुछ लोर्ो ं की सलाह है वक

विधिाओ ं से अध्यापको का काम लेना चावहए। यद्यवप मैं

इसे भी बहुत अच्छा नही ंसमझता,पर संन्यावसनी बनने से

तो कही ं अच्छा है। लडकी अपनी आंिो ं के सामने तो

रहेर्ी। अवभप्ाय केिल यही है वक कोई ऐसा कामा होना

चावहए वजसमें लडकी का मन लर्ें। वकसी अिलम्ब के

वबना मनुष्य को भटक जाने की शंका सदैि बनी रहती है।

वजस घर में कोई नही ं रहता उसमें चमर्ादड बसेरा कर

लेते हैं।

दूसरे महाशय –सलाह तो अच्छी है। मुहले्ल की दस-

पांच कन्याएं पढने के वलए बुला ली जाएं। उने्ह वकताबें,

रु्वडयां आवद इनाम वमलता रहे तो बडे शौक से आयेंर्ी।

लडकी का मन तो लर् जायेर्ा।

हृदयनाथ—देिना चावहए। भरसक समझाऊर्ां।

ज्यो ंही यह लोर् विदा हुए: हृदयनाथ ने कैलाशकुमारी

के सामने यह तजिीज पेश की कैलासी को सुन्यस्त के

उच्च पद के सामने अध्यावपका बनना अपमानजनक जान

पडता था। कहां िह महात्माओ ंका सतं्सर्, िह पिगतो की

रु्फा, िह सुरम्य प्ाकृवतक दृश्य िहवहमरावश की ज्ञानमय

80

ज्योवत, िह मानसरािर और कैलास की शुभ्र छटा, िह

आत्मदशगन की विशाल कल्पनाएं, और कहां बावलकाओ ं

को वचवडयो ंकी भांवत पढाना। लेवकन हृदयनाथ कई वदनो ं

तक लर्ातार से िा धमग का माहातम्य उसके हृदय पर

अंवकत करते रहे। सेिा ही िास्तविक संन्यस है। संन्यासी

केिल अपनी मुज्जक्त का इचु्छक होता है, सेिा व्रतधरी अपने

को परमाथग की िेदी पर बवल दे देता है। इसका र्ौरि कही ं

अवधक है। देिो, ऋवषयो ंमें दधीवच का जो यश है, हररशं्चद्र

की जो कीवतग है, सेिा त्यार् है, आवद। उन्होनें इस कथन की

उपवनषदो ंऔर िेदमंत्रो ंसे पुवि की यहां तक वक धीरे-धीरे

कैलासी के विचारो ं में पररितनग होने लर्ा। पंवडत जी ने

मुहले्ल िालो ंकी लडवकयो ंको एकत्र वकया, पाठशाला का

जन्म हो र्या। नाना प्कार के वचत्र और ज्जिलौने मंर्ाए।

पंवडत जी रं्स्य कैलाशकुमारी के साथ लडवकयो ं को

पढाते। कन्याएं शौक से आती।ं उने्ह यहां की पढाई िेल

मालूम होता। थोडे ही हदनो ंमें पाठशाला की धूम हो र्यी,

अन्य मुहल्लो ंकी कन्याएं भी आने लर्ी।ं

लास कुमारी की सेिा-प्िृवत्त वदनो-ंवदन तीव्र होने लर्ी।

वदन भर लडवकयो ं को वलए रहती: कभी पढाती, कभी

उनके साथ िेलती, कभी सीना-वपरोना वसिाती। पाठशाला

ने पररिार का रूप धारि कर वलया। कोई लडकी बीमार

हो जाती तो तुरन्त उसके घर जाती, उसकी सेिा-सुशू्रषा

करती, र्ा कर या कहावनयां सुनाकर उसका वदल

बहलाती।

पाठशाला को िुले हुए साल-भर हुआ था। एक

लडकी को, वजससे िह बहुत पे्म करती थी, चेचक वनकल

कै

81

आयी। कैलासी उसे देिने र्ई। मां-बाप ने बहुत मना

वकया, पर उसने न माना। कहा, तुरन्त लौट आऊंर्ी।

लडकी की हालत िराब थी। कहां तो रोते-रोते तालू

सूिता था, कहां कैलासी को देिते ही सारे कि भार् र्ये।

कैलासी एक घंटे तक िहां रही। लडकी बराबर उससे बातें

करती रही। लेवकन जब िह चलने को उठी तो लडकी ने

रोना शुरू कर वदया। कैलासी मजबूर होकर बैठ र्यी।

थोडी देर बाद िह वफर उठी तो वफर लडकी की यह दशा

हो र्यी। लडकी उसे वकसी तरह छोडती ही न थी। सारा

वदन रु्जर र्या। रात को भी रात को लडकी ने जाने न

वदयां। हृदयनाथ उसे बुलाने को बार-बार आदमी भेजते,

पर िह लडकी को छोडकर न जा सकती। उसे ऐसी शंका

होती थी वक मैं यहां से चली और लडकी हाथ से र्यी।

उसकी मां विमाता थी। इससे कैलासी को उसके ममत्व पर

विश्वास न होता था। इस प्कार तीन वदनो ं तक िह िहां

राही। आठो ं पहर बावलका के वसरहाने बैठी पंिा झ्लती

रहती। बहुत थक जाती तो दीिार से पीठ टेक लेती। चौथे

वदन लडकी की हालत कुछ संभलती हुई मालूम हुई तो िह

अपने घर आयी। मर्र अभी स्नान भी न करने पायी थी वक

आदमी पहंुचा—जल्द चवलए, लडकी रो-रो कर जान दे

रही है।

हृदयनाथ ने कहा—कह दो, अस्पताल से कोई नसग

बुला लें।

कैलसकुमारी-दादा, आप व्यथग में झुझलाते हैं। उस

बेचारी की जान बच जाय, मै तीन वदन नही,ं जीन मवहने

उसकी सेिा करने को तैयार हं। आज्जिर यह देह वकस

काम आएर्ी।

82

हृदयनाथ—तो कन्याएं कैसे पढेर्ी?

कैलासी—दो एक वदन में िह अच्छी हो जाएर्ी, दाने

मुरझाने लरे् हैं, तब तक आप लरा इन लडवकयो ं की

देिभाल करते रवहएर्ा।

हृदयनाथ—यह बीमारी छूत फैलाती है।

कैलासी—(हंसकर) मर जाऊंर्ी तो आपके वसर से

एक विपवत्त टल जाएर्ी। यह कहकर उसने उधर की राह

ली। भोजन की थाली परसी रह र्यी।

तब हृदयनाथ ने जारे्श्वरी से कहा---जान पडता है,

बहुत जल्द यह पाठशाला भी बन्द करनी पडेर्ी।

जारे्श्वरी—वबना मांझी के नाि पार लर्ाना बहुत

कवठन है। वजधर हिा पाती है, उधर बह जाती है।

हृदयनाथ—जो रास्ता वनकालता हं िही कुछ वदनो ंके

बाद वकसी दलदल में फंसा देता है। अब वफर बदनामी के

समान होते नजर आ रहे है। लोर् कहेंर्ें, लडकी दूसरो ंके

घर जाती है और कई-कई वदन पडी रहती है। क्ा करंू,

कह दंू, लडवकयो ंको न पढाया करो?

जारे्श्वरी –इसके वसिा और हो क्ा सकता है।

कैलाशकुमारी दो वदन बाद लौटी तो हृदयनाथ ने

पाठशाला बंद कर देने की समस्या उसके सामने रिी।

कैलासी ने तीव्र र्स्र से कहा—अर्र आपको बदनामी का

इतना भय है तो मुझे विष देदीवजए। इसके वसिा बदनामी

से बचने का और कोई उपाय नही ंहै।

हृदयनाथ—बेटी संसार में रहकर तो संसार की-सी

करनी पडेर्ी।

कैलासी तो कुछ मालूम भी तो हो वक संसार मुझसे

क्ा चाहता है। मुझमें जीि है, चेतना है, जड क्ोकंर बन

83

जाऊ। मुझसे यह नही ंहो सकता वक अपने को अभाहर्न,

दुज्जिया समझूं और एक टुकडा रोटी िाकर पडी रहं। ऐसा

क्ो ं करंू? संसार मुझे जो चाहे समझे, मै अपने को

अभावर्नी नही ंसमझती। मै अपने आत्म-सम्मान की रक्षा

आप कर सकती हं। मैं इसे घोर अपमान समझती हं वक

पर्-पर् पर मुझ पर शंका की जाए, वनत्य कोई चरिाहो ंकी

भांवत मेरे पीछे लाठी वलए घूमता रहे वक वकसी िेत में न

जाने बूडू। यह दशा मेरे वलए असह्य हैं।

यह कहकर कैलाशकुमारी िहां से चली र्यी वक

कही ंमंुह से अनर्गल शब् न वनकल पडें। इधर कुछ वदनो ं

से उसे अपनी बेकसी का यथागथ ज्ञान होने लर्ा था स्त्री

पुरूष की वकतली अधीन है, मानो स्त्री को विधाता ने

इसवलए बनाया है वक पुरूषो ं के अवधन रहं यह सोचकर

िह समाज के अत्याचार पर दांत पीसने लर्ती थी।

पाठशाला तो दूसरे वदन बन्द हो र्यी, वकनु्त उसी वदन

कैलाशकुमारी को पुरूषो ंसे जलन होने लर्ी। वजस सुि-

भोर् से प्ारब्ध हमें िंवचत कर देता है उससे हमे दे्वष हो

जाता है। र्रीब आदमी इसीलए तो अमीरो ं से जलता है

और धन की वनन्दा करता है। कैलाशी बार-बार झंुझलावत

वक स्त्री क्ो ंपुरूष पर इतनी अिलज्जम्बत है? पुरूशष क्ो ं

स्त्री के भग्य का विधायक है? स्त्री क्ो ं वनत्य पुरूषो ं का

आश्रय चाहे, उनका मंुह ताके? इसवलए न वक ज्जस्त्रयो ं में

अवभमान नही ं है, आत्म सम्मान नही ं है। नारी हृदय के

कोमल भाि, उसे कुते्त का दुम वहलाना मालूम होने लरे्।

पे्म कैसा। यह सब ढोर् है, स्त्री पुरूष के अवधन है,

उसकी िुशमद न करे, सेिा न करे, तो उसका वनिागह कैसे

हो।

84

एक वदन उसने अपने बाल रंू्थे और जूडे में एक

रु्लाब का फूल लर्ा वलया। मां ने देिा तो ओठं से जीभ

दबा ली। महररयो ंने छाती पर हाथ रिे।

इसी तरह एक वदन उसने रंर्ीन रेशमी साडी पहन

ली। पडोवसनो ंमें इस पर िूब आलोचनाएं हुईं।

उसने एकादशी का व्रत रिनाउ छोड वदया जो वपछले

आठ िषों से रिमी आयी ं थी। कंघी और आइने को िह

अब त्याज्य न समझती थी।

सहालर् के वदन आए। वनत्य प्वत उसके द्वार पर से

बरातें वनकलती ं । मुहले्ल की ज्जस्त्रयां अपनी अटाररयो ं पर

िडी होकर देिती। िर के रंर् –रूप, आकर-प्कार पर

वटकाएं होती, जारे्श्वरी से भी वबना एक आि देिे रहा

नह जाता। लेवकन कैलाशकुमारी कभी भूलकर भी इन

जालूसो को न देिती। कोई बरात या वििाह की बात

चलाता तो िह मुहं फेर लेती। उसकी दृवि में िह वििाह

नही,ं भोली-भाली कन्याओ ंका वशकार था। बरातो ंको िह

वशकाररयो ंके कुते्त समझती। यह वििाह नही ंबवलदान है।

ज का व्रत आया। घरो ं की सफाई होने लर्ी।

रमवियां इस व्रत को तैयाररयां करने लर्ी।ं जारे्श्वरी

ने भी व्रत का सामान वकया। नयी-नयी सावडया मर्िायी।ं

कैलाशकुमारी के ससुराल से इस अिसर पर कपडे ,

वमठाईयां और ज्जिलौने आया करते थे।अबकी भी आए।

यह वििावहता ज्जस्त्रयो ंका व्रत है। इसका फल है पवत का

कल्याि। विधिाएं भी अस व्रत का यथेवचत रीवत से पालन

करती है। वत से उनका सम्बि शारीररक नही ं िरन्

आध्याज्जत्मक होता है। उसका इस जीिन के साथ अन्त नही ं

ती

85

होता, अनंतकाल तक जीवित रहता है। कैलाशकुमारी अब

तक यह व्रत रिती आयी थी। अब उसने वनश्चय वकया मै

व्रत न रिंूर्ी। मां ने तो माथा ठोकं वलया। बोली—बेटी, यह

व्रत रिना धमग है।

कैलाशकुमारी-पुरष भी ज्जस्त्रयो ंके वलए कोई व्रत रिते

है?

जारे्श्वरी—मदों में इसकी प्था नही ंहै।

कैलाशकुमारी—इसवलए न वक पुरूषो ंकी जान उतनी

प्यारी नही होती वजतनी ज्जस्त्रयो ंको पुरूषो ंकी जान ?

जारे्श्वरी—ज्जस्त्रयां पुरूषो ंकी बराबरी कैसे कर सकती

हैं? उनका तो धमग है अपने पुरूष की सेिा करना।

कैलाशकुमारी—मै अपना धमग नही ंसमझती। मेरे वलए

अपनी आत्मा की रक्षा के वसिा और कोई धमग नही?ं

जारे्श्वरी—बेटी र्जब हो जायेर्ा, दुवनया क्ा कहेर्ी?

कैलाशकुमारी –वफर िही दुवनया? अपनी आत्मा के

वसिा मुझे वकसी का भय नही।ं

हृदयनाथ ने जारे्श्वरी से यह बातें सुनी ंतो वचन्ता सार्र

में डूब र्ए। इन बातो ंका क्ा आश्य? क्ा आत्म-सम्मान

को भाि जाग्रत हुआ है या नैरश्य की कू्रर क्रीडा है?

धनहीन प्ािी को जब कि-वनिारि का कोई उपाय नही ं

रह जाता तो िह लिा को त्यार् देता है। वनसं्सदेह नैराश्य

ने यह भीषि रूप धारि वकया है। सामान्य दशाओ ं में

नैराश्य अपने यथाथग रूप मे आता है, पर र्िगशील प्ावियो ं

में िह पररमावजगत रूप ग्रहि कर लेता है। यहां पर

हृदयर्त कोमल भािो ंको अपहरि कर लेता है—चररत्र में

अर्स्ाभाविक विकास उत्पन्न कर देता है—मनुष्य लोक-

लाज उपिासे और उपहास की ओर से उदासीन हो जाता

86

है, नैवतक बिन टूट जाते है। यह नैराश्य की अवतंम

अिस्था है।

हृदयनाथ इन्ही ंविचारो ंमे मग्न थे वक जारे्श्वरी ने कहा

–अब क्ा करनाउ होर्ा?

जारे्श्वरी—कोई उपाय है?

हृदयनाथ—बस एक ही उपाय है, पर उसे जबान पर नही ं

ला सकता

87

कौशल

पंवडत बलराम शास्त्री की धमगपत्नी माया को बहुत

वदनो ं से एक हार की लालसा थी और िह सैकडो ही बार

पंवडत जी से उसके वलए आग्रह कर चुकी थी, वकनु्त

पज्जण्डत जी हीला-हिाला करते रहते थे। यह तो साफ-साफ

ने कहते थे वक मेरे पास रूपये नही है—इनसे उनके

पराक्रम में बट्टा लर्ता था—तकग नाओ ं की शरि वलया

करते थे। र्हनो ंसे कुछ लाभ नही ंएक तो धातु अच्छी नही ं

वमलती,श् उस पर सोनार रुपसे के आठ-आठ आने कर

देता है और सबसे बडी बात यह है वक घर में र्हने रिना

चोरो को नेिता देन है। घडी-भर शृ्रर्ांर के वलए इतनी

विपवत्त वसर पर लेना मूिो का काम है। बेचारी माया तकग –

शास्त्र न पढी थी, इन युज्जक्तयो ंके सामने वनरूत्तर हो जाती

थी। पडोवसनो को देि-देि कर उसका जी ललचा करता

था, पर दुि वकससे कहे। यवद पज्जण्डत जी ज्यादा मेहनत

करने के योग्य होते तो यह मुज्जिल आसान हो जाती । पर

िे आलसी जीि थे, अवधकांश समय भोजन और विश्राम में

व्यवतत वकया करते थे। पत्नी जी की कटूज्जक्तयां सुननी मंजूर

थी,ं लेवकन वनद्रा की मात्रा में कमी न कर सकते थे।

एक वदन पज्जण्डत जी पाठशाला से आये तो देिा वक

माया के र्ले में सोने का हार विराज रहा है। हार की चमक

से उसकी मुि-ज्योवत चमक उठी थी। उन्होने उसे कभी

इतनी सुन्दर न समझा था। पूछा –यह हार वकसका है?

माया बोली—पडोस में जो बाबूजी रहते हैं उन्ही की

स्त्री का है।

88

आज उनसे वमलने र्यी थी, यह हार देिा , बहुत पसंद

आया। तुम्हें वदिाने के वलए पहन कर चली आई। बस,

ऐसा ही एक हार मुझे बनिा दो।

पज्जण्डत—दूसरे की चीज नाहक मांर् लायी। कही ंचोरी

हो जाए तो हार तो बनिाना ही पडे, उपर से बदनामी भी

हो।

माया—मैंतो ऐसा ही हार लूर्ी। २० तोले का है।

पज्जण्डत—वफर िही वजद।

माया—जब सभी पहनती हैं तो मै ही क्ो ंन पहनंू?

पज्जण्डत—सब कुएं में वर्र पडें तो तुम भी कुएं में वर्र

पडोर्ी। सोचो तो, इस िक्त इस हार के बनिाने में ६००

रुपये लरे्रे्। अर्र १ रु० प्वत सैकडा ब्याज रिवलया जाय

ता – िषग मे ६०० रू० के लर्भर् १००० रु० हो जायेर्ें।

लेवकन ५ िषग में तुम्हारा हार मुज्जिल से ३०० रू० का रह

जायेर्ा। इतना बडा नुकसान उठाकर हार पहनने से क्ा

सुि? सह हार िापस कर दो , भोजन करो और आराम से

पडी रहो। यह कहते हुए पज्जण्डत जी बाहर चले र्ये।

रात को एकाएक माया ने शोर मचाकर कहा –

चोर,चोर,हाय, घर में चोर , मुझे घसीटे वलए जाते हैं।

पज्जण्डत जी हकबका कर उठे और बोले –कहा, कहां?

दौडो,दौडो।

माया—मेरी कोठारी में र्या है। मैनें उसकी परछाईं

देिी ।

पज्जण्डत—लालटेन लाओ,ं जरा मेरी लकडी उठा लेना।

माया—मुझसे तो डर के उठा नही ंजाता।

कई आदमी बाहर से बोले—कहां है पज्जण्डत जी, कोई

सेंध पडी है क्ा?

89

माया—नही,ंनही,ं िपरैल पर से उतरे हैं। मेरी नीदं

िुली तो कोई मेरे ऊपर झुका हुआ था। हाय रे, यह तो हार

ही ले र्या, पहने-पहने सो र्ई थी। मुए ने र्ले से वनकाल

वलया । हाय भर्िान,

पज्जण्डत—तुमने हार उतार क्ां न वदया था?

माया-मै क्ा जानती थी वक आज ही यह मुसीबत वसर

पडने िाली है, हाय भर्िान्,

पज्जण्डत—अब हाय-हाय करने से क्ा होर्ा? अपने

कमों को रोओ। इसीवलए कहा करता था वक सब घडी

बराबर नही ं जाती, न जाने कब क्ा हो जाए। अब आयी

समझ में मेरी बात, देिो, और कुछ तो न ले र्या?

पडोसी लालटेन वलए आ पहंुचे। घर में कोना –कोना

देिा। कररयां देिी,ं छत पर चढकर देिा, अर्िाडे-

वपछिाडे देिा, शौच रृ्ह में झाका, कही ं चोर का पता न

था।

एक पडोसी—वकसी जानकार आदमी का काम है।

दूसरा पडोसी—वबना घर के भेवदये के कभी चोरी नही ं

होती। और कुछ तो नही ंले र्या?

माया—और तो कुड नही ं र्या। बरतन सब पडे हुए

हैं। सनू्दक भी बन्द पडे है। वनर्ोडे को ले ही जाना था तो

मेरी चीजें ले जाता । परायी चीज ठहरी। भर्िान् उन्हें कौन

मंुह वदिाऊर्ी।

पज्जण्डत—अब र्हने का मजा वमल र्या न?

माया—हाय, भर्िान्, यह अपजस बदा था।

पज्जण्डत—वकतना समझा के हार र्या, तुम न मानी,ं न

मानी।ं बात की बात में ६००रू० वनकल र्ए, अब देिंू

भर्िान कैसे लाज रिते हैं।

90

माया—अभारे् मेरे घर का एक-एक वतनका चुन ले

जाते तो मुझे इतना दु:ि न होता। अभी बेचारी ने नया ही

बनािाया था।

पज्जण्डत—िूब मालूम है, २० तोले का था?

माया—२० ही तोले को तो कहती थी?

पज्जण्डत—बवधया बैठ र्ई और क्ा?

माया—कह दंूर्ी घर में चोरी हो र्यी। क्ा लेर्ी? अब

उनके वलए कोई चोरी थोडे ही करने जायेर्ा।

पज्जण्डत तुम्हारे घर से चीज र्यी, तुम्हें देनी पडेर्ी।

उने्ह इससे क्ा प्योजन वक चोर ले र्या या तुमने उठाकर

रि वलया। पवतययेर्ी ही नही।

माया –तो इतने रूपये कहां से आयेरे्?

पज्जण्डत—कही ंन कही ं से तो आयेंरे् ही,नही ंतो लाज

कैसे रहेर्ी: मर्र की तुमने बडी भूल ।

माया—भर्िान् से मंर्नी की चीज भी न देिी र्यी।

मुझे काल ने घेरा था, नही ंतो इस घडी भर र्ले में डाल लेने

से ऐसा कौन-सा बडा सुि वमल र्या? मै हं ही अभावर्नी।

पज्जण्डत—अब पछताने और अपने को कोसने से क्ा

फायदा? चुप हो के बैठो, पडोवसन से कह देना, घबराओ ं

नही,ं तुम्हारी चीज जब तक लौटा न देंर्ें, तब तक हमें चैन

न आयेर्ा।

ज्जण्डत बालकराम को अब वनत्य ही वचंता रहने लर्ी

वक वकसी तरह हार बने। यो ंअर्र टाट उलट देते

तो कोई बात न थी । पडोवसन को सन्तोष ही करना पडता,

ब्राह्मि से डाडं कौन लेता , वकनु्त पज्जण्डत जी ब्राह्मित्व के

91

र्ौरि को इतने ससे्त दामो ं न बेचना चाहते थे। आलस्य

छोडंकर धनोपाजगन में दत्तवचत्त हो र्ये।

छ: महीने तक उन्होने वदन को वदन और रात

को रात नही ंजाना। दोपहर को सोना छोड वदया, रात को

भी बहुत देर तक जार्ते। पहले केिल एक पाठशाला में

पढाया करते थे। इसके वसिा िह ब्राह्मि के वलए िुले हुए

एक सौ एक व्यिसायो ं में सभी को वनंदवनय समझते थे।

अब पाठशाला से आकर संध्या एक जर्ह ‘भर्ित्’ की

कथा कहने जाते िहां से लौट कर ११-१२ बजे रात तक

जन्म कंुडवलयां, िषग-फल आवद बनाया करते। प्ात:काल

मज्जन्दर में ‘दुर्ाग जी का पाठ करते । माया पज्जण्डत जी का

अध्यिसाय देिकर कभी-कभी पछताती वक कहां से मैने

यह विपवत्त वसर पर ली ंकही ंबीमार पड जायें तो लेने के

देने पडे। उनका शरीर क्षीि होते देिकर उसे अब यह

वचनता व्यवथत करने जर्ी। यहां तक वक पांच महीने रु्जर

र्ये।

एक वदन संध्या समय िह वदया-बवत्त करने जा रही थी

वक पज्जण्डत जी आये, जेब से पुवडया वनकाल कर उसके

सामने फें क दी और बोले—लो, आज तुम्हारे ऋि से मुक्त

हो र्या।

माया ने पुवडया िोली तो उसमें सोने का हार था,

उसकी चमक-दमक, उसकी सुन्दर बनािट देिकर

उसके अन्त:स्थल में रु्दर्दी –सी होने लर्ी । मुि पर

आन्नद की आभा दौड र्ई। उसने कातर नेत्रो ं से देिकर

पूछा—िुश हो कर दे रहे हो या नाराज होकर1.

पज्जण्डत—इससे क्ा मतलब? ऋि तो चुकाना ही

पडेर्ा, चाहे िुशी हो या नािुशी।

92

माया—यह ऋि नही ंहै।

पज्जण्डत—और क्ा है, बदला सही।

माया—बदला भी नही ंहै।

पज्जण्डत वफर क्ा है।

माया—तुम्हारी ..वनशानी?

पज्जण्डत—तो क्ा ऋि के वलए कोई दूसरा हार

बनिाना पडेर्ा?

माया—नही-ंनही,ं िह हार चारी नही ं र्या था। मैनें

झठू-मूठ शोर मचाया था।

पज्जण्डत—सच?

माया—हां, सच कहती हं।

पज्जण्डत—मेरी कसम?

माया—तुम्हारे चरि छूकर कहती हं।

पज्जण्डत—तो तमने मुझसे कौशल वकया था?

माया-हां?

पज्जण्डत—तुमे्ह मालूम है, तुम्हारे कौशल का मुझे क्ा

मूल्य देना पडा।

माया—क्ा ६०० रु० से ऊपर?

पज्जण्डत—बहुत ऊपर? इसके वलए मुझे अपने

आत्मर्स्ातंत्रय को बवलदान करना पडा।

93

स्वर्ग की देिी

ग्य की बात ! शादी वििाह में आदमी का क्ा अज्जियार

। वजससे ईश्वर ने, या उनके नायबो ं–ब्रह्मि—ने तय कर

दी, उससे हो र्यी। बाबू भारतदास ने लीला के वलए सुयोग्य

िर िोजने में कोई बात उठा नही रिी। लेवकन जैसा घर-

घर चाहते थे, िैसा न पा सके। िह लडकी को सुिी देिना

चाहते थे, जैसा हर एक वपता का धमग है ; वकंतु इसके वलए

उनकी समझ में सम्पवत्त ही सबसे जरूरी चीज थी। चररत्र

या वशक्षा का स्थान र्ौि था। चररत्र तो वकसी के माथे पर

वलिा नही रहता और वशक्षा का आजकल के जमाने में

मूल्य ही क्ा ? हां, सम्पवत्त के साथ वशक्षा भी हो तो क्ा

पूछना ! ऐसा घर बहुत ढढा पर न वमला तो अपनी विरादरी

के न थे। वबरादरी भी वमली, तो जायजा न वमला!; जायजा

भी वमला तो शते तय न हो सकी। इस तरह मजबूर होकर

भारतदास को लीला का वििाह लाला सन्तसरन के लडके

सीतासरन से करना पडा। अपने बाप का इकलौता बेटा था,

थोडी बहुत वशक्षा भी पायी थी, बातचीत सलीके से करता

था, मामले-मुकदमें समझता था और जरा वदल का रंर्ीला

भी था । सबसे बडी बात यह थी वक रूपिान, बवलष्ठ, प्सन्न

मुि, साहसी आदमी था ; मर्र विचार िही बाबा आदम के

जमाने के थे। पुरानी वजतनी बाते है, सब अच्छी ; नयी

वजतनी बातें है, सब िराब है। जायदाद के विषय में

जमीदंार साहब नये-नये दफो ं का व्यिहार करते थे, िहां

अपना कोई अज्जियार न था ; लेवकन सामावजक प्थाओ ं

के कटटर पक्षपाती थे। सीतासरन अपने बाप को जो करते

या कहते िही िुद भी कहता था। उसमें िुद सोचने की

भा

94

शज्जक्त ही न थी। बुवद्व की मंदता बहुधा सामावजक

अनुदारता के रूप में प्कट होती है।

ला ने वजस वदन घर में ि ॉँि रिा उसी वदन उसकी

परीक्षा शुरू हुई। िे सभी काम, वजनकी उसके घर

में तारीफ होती थी यहां िवजगत थे। उसे बचपन से ताजी

हिा पर जान देना वसिाया र्या था, यहां उसके सामने मंुह

िोलना भी पाप था। बचपन से वसिाया र्या था रोशनी ही

जीिन है, यहां रोशनी के दशगन दुभगभ थे। घर पर अवहंसा,

क्षमा और दया ईश्वरीय रु्ि बताये र्ये थे, यहां इनका नाम

लेने की भी र्स्ाधीनता थी। संतसरन बडे तीिे, रु्से्सिर

आदमी थे, नाक पर मक्खी न बैठने देते। धूतगता और छल-

कपट से ही उन्होने जायदाद पैदा की थी। और उसी को

सफल जीिन का मंत्र समझते थे। उनकी पत्नी उनसे भी दो

अंरु्ल ऊंची थी।ं मजाल क्ा है वक बह अपनी अंधेरी

कोठरी के द्वार पर िडी हो जाय, या कभी छत पर टहल

सकें । प्लय आ जाता, आसमान वसर पर उठा लेती। उन्हें

बकने का मजग था। दाल में नमक का जरा तेज हो जाना

उन्हें वदन भर बकने के वलए काफी बहाना था । मोटी-ताजी

मवहला थी, छीटं का घाघरेदार लंहर्ा पहने, पानदान बर्ल

में रिे, र्हनो से लदी हुई, सारे वदन बरोठे में माची पर

बैठीैे रहती थी। क्ा मजाल वक घर में उनकी इच्छा के

विरूद्व एक पत्ता भी वहल जाय ! बह की नयी-नयी आदतें

देि देि जला करती थी। अब काहे की आबरू होर्ी।

मंुडेर पर िडी हो कर झांकती है। मेरी लडकी ऐसी दीदा-

वदलेर होती तो र्ला घोटं देती। न जाने इसके देश में कौन

लोर् बसते है ! र्हनें नही पहनती। जब देिो नंर्ी – बुच्ची

ली

95

बनी बैठी रहती है। यह भी कोई अचे्छ लच्छन है। लीला के

पीछे सीतासरन पर भी फटकार पडती। तुझे भी च ॉँदनी में

सोना अच्छा लर्ता है, क्ो ं? तू भी अपने को मदग कहता

कहेर्ा ? यह मदग कैसा वक औरत उसके कहने में न रहे।

वदन-भर घर में घुसा रहता है। मंुह में जबान नही है ?

समझता क्ो ंनही ?

सीतासरन कहता---अम्मां, जब कोई मेरे समझाने से

माने तब तो?

मां---मानेर्ी क्ो नही, तू मदग है वक नही ? मदग िह

चावहए वक कडी वनर्ाह से देिे तो औरत कांप उठे।

सीतासरन -----तुम तो समझाती ही रहती हो ।

मां ---मेरी उसे क्ा परिाह ? समझती होर्ी, बुवढया

चार वदन में मर जायर्ी तब मैं मालवकन हो ही जाउॉँर्ी

सीतासरन --- तो मैं भी तो उसकी बातो ंका जबाब नही दे

पाता। देिती नही हो वकतनी दुबगल हो र्यी है। िह रंर् ही

नही रहा। उस कोठरी में पडे-पडे उसकी दशा वबर्डती

जाती है।

बेटे के मंुह से ऐसी बातें सुन माता आर् हो जाती और

सारे वदन जलती ; कभी भाग्य को कोसती, कभी समय को

सीतासरन माता के सामने तो ऐसी बातें करता ;

लेवकन लीला के सामने जाते ही उसकी मवत बदल जाती

थी। िह िही बातें करता था जो लीला को अच्छी लर्ती।

यहां तक वक दोनो ंिृद्वा की हंसी उडातें। लीला को इस में

ओर कोई सुि न था । िह सारे वदन कुढती रहती। कभी

चूले्ह के सामने न बैठी थी ; पर यहां पसेररयो ंआटा थेपना

पडता, मजूरो ंऔर टहलुओ ंके वलए रोटी पकानी पडती।

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कभी-कभी िह चूले्ह के सामने बैठी घंटो रोती। यह बात न

थी वक यह लोर् कोई महाराज-रसोइया न रि सकते हो;

पर घर की पुरानी प्था यही थी वक बह िाना पकाये और

उस प्था का वनभाना जरूरी था। सीतासरन को देिकर

लीला का संतप्त ह्रदय एक क्षि के वलए शान्त हो जाता था।

र्मी के वदन थे और सन्ध्या का समय था। बाहर हिा

चलती, भीतर देह फुकती थी। लीला कोठरी में बैठी एक

वकताब देि रही थी वक सीतासरन ने आकर कहा--- यहां

तो बडी र्मी है, बाहर बैठो।

लीला—यह र्मी तो उन तानो से अच्छी है जो अभी

सुनने पडेरे्।

सीतासरन—आज अर्र बोली तो मैं भी वबर्ड

जाऊंर्ा।

लीला—तब तो मेरा घर में रहना भी मुज्जिल हो

जायेर्ा।

सीतासरन—बला से अलर् ही रहेंरे् !

लीला—मैं मर भी लाऊं तो भी अलर् रहं । िह जो

कुछ कहती सुनती है, अपनी समझ से मेरे भले ही के

वलए कहती-सुनती है। उन्हें मुझसे कोई दुश्मनी थोडे ही है।

हां, हमें उनकी बातें अच्छी न लर्ें, यह दूसरी बात

है।उन्होनें िुद िह सब कि झेले है, जो िह मुझे झेलिाना

चाहती है। उनके र्स्ास्थ्य पर उन किो का जरा भी असर

नही पडा। िह इस ६५ िषग की उम्र में मुझसे कही ंटांठी है।

वफर उन्हें कैसे मालूम हो वक इन किो ंसे र्स्ास्थ्य वबर्ड

सकता है।

सीतासरन ने उसके मुरझाये हुए मुि की ओर करुिा

नेत्रो ंसे देि कर कहा—तुम्हें इस घर में आकर बहुत दु:ि

97

सहना पडा। यह घर तुम्हारे योग्य न था। तुमने पूिग जन्म में

जरूर कोई पाप वकया होर्ा।

लीला ने पवत के हाथो से िेलते हुए कहा—यहां न

आती तो तुम्हारा पे्म कैसे पाती ?

च साल रु्जर र्ये। लीला दो बच्चो ंकी मां हो र्यी।

एक लडका था, दूसरी लडकी । लडके का नाम

जानकीसरन रिा र्या और लडकी का नाम कावमनी।

दोनो बचे्च घर को रु्लजार वकये रहते थे। लडकी लडकी

दादा से वहली थी, लडका दादी से । दोनो ंशोि और शरीर

थें। र्ाली दे बैठना, मंुह वचढा देना तो उनके वलए मामूली

बात थी। वदन-भर िाते और आये वदन बीमार पडे रहते।

लीला ने िुद सभी कि सह वलये थे पर बच्चो ं में बुरी

आदतो ंका पडना उसे बहुत बुरा मालूम होता था; वकनु्त

उसकी कौन सुनता था। बच्चो ंकी माता होकर उसकी अब

र्िना ही न रही थी। जो कुछ थे बचे्च थे, िह कुछ न थी।

उसे वकसी बचे्च को डाटने का भी अवधकार न था, सांस

फाड िाती थी।

सबसे बडी आपवत्त यह थी वक उसका र्स्ास्थ्य अब

और भी िराब हो र्या था। प्सब काल में उसे िे भी

अत्याचार सहने पडे जो अज्ञान, मूिगता और अंध विश्वास ने

सौर की रक्षा के वलए र्ढ रिे है। उस काल-कोठरी में,

जह ॉँ न हिा का रु्जर था, न प्काश का, न सफाई का, चारो ं

और दुर्गि, और सील और र्न्दर्ी भरी हुई थी, उसका

कोमल शरीर सूि र्या। एक बार जो कसर रह र्यी िह

दूसरी बार पूरी हो र्यी। चेहरा पीला पड र्या, आंिे घंस

पां

98

र्यी।ं ऐसा मालूम होता, बदन में िून ही नही रहा। सूरत ही

बदल र्यी।

र्वमगयो ंके वदन थे। एक तरफ आम पके, दूसरी तरफ

िरबूजे । इन दोनो फलो की ऐसी अच्छी फसल कभी न

हुई थी अबकी इनमें इतनी वमठास न जाने कहा से आयी

थी वक वकतना ही िाओ मन न भरे। संतसरन के इलाके से

आम औरी िरबूजे के टोकरे भरे चले आते थे। सारा घर

िूब उछल-उछल िाता था। बाबू साहब पुरानी हड्डी के

आदमी थे। सबेरे एक सैकडे आमो ंका नाश्ता करते, वफर

पसेरी-भर िरबूज चट कर जाते। मालवकन उनसे पीछे

रहने िाली न थी। उन्होने तो एक िक्त का भोजन ही बन्द

कर वदया। अनाज सडने िाली चीज नही। आज नही कल

िचग हो जायेर्ा। आम और िरबूजे तो एक वदन भी नही

ठहर सकते। शुदनी थी और क्ा। यो ं ही हर साल दोनो ं

चीजो ं की रेल-पेल होती थी; पर वकसी को कभी कोई

वशकायत न होती थी। कभी पेट में वर्रानी मालूम हुई तो

हड की फंकी मार ली। एक वदन बाबू संतसरन के पेट में

मीठा-मीठा ददग होने लर्ा। आपने उसकी परिाह न की ।

आम िाने बैठ र्ये। सैकडा पूरा करके उठे ही थे वक कै

हुई । वर्र पडे वफर तो वतल-वतल करके पर कै और दस्त

होने लरे्। हैजा हो र्या। शहर के डाक्टर बुलाये र्ये,

लेवकन आने के पहले ही बाबू साहब चल बसे थे। रोना-

पीटना मच र्या। संध्या होते-होते लाश घर से वनकली।

लोर् दाह-वक्रया करके आधी रात को लौटे तो मालवकन को

भी कै दस्त हो रहे थे। वफर दौड धूप शुरू हुई; लेवकन सूयग

वनकलते-वनकलते िह भी वसधार र्यी। स्त्री-पुरूष

जीिनपयंत एक वदन के वलए भी अलर् न हुए थे। संसार से

99

भी साथ ही साथ र्ये, सूयागस्त के समय पवत ने प्स्थान

वकया, सूयोदय के समय पत्नी ने ।

लेवकन मुशीबत का अभी अंत न हुआ था। लीला तो

संस्कार की तैयाररयो ं मे लर्ी थी; मकान की सफाई की

तरफ वकसी ने ध्यान न वदया। तीसरे वदन दोनो बचे्च दादा-

दादी के वलए रोत-रोते बैठक में जा पंहुचे। िहां एक आले

का िरबूजज कटा हुआ पडा था; दो-तीन कलमी आम भी

रिे थे। इन पर मज्जक्खयां वभनक रही थी।ं जानकी ने एक

वतपाई पर चढ कर दोनो ं चीजें उतार ली ं और दोनंो ं ने

वमलकर िाई। शाम होत-होते दोनो ंको हैजा हो र्या और

दोनंो मां-बाप को रोता छोड चल बसे। घर में अंधेरा हो

र्या। तीन वदन पहले जहां चारो ंतरफ चहल-पहल थी, िहां

अब सन्नाटा छाया हुआ था, वकसी के रोने की आिाज भी

सुनायी न देती थी। रोता ही कौन ? ले-दे के कुल दो प्ािी

रह र्ये थे। और उन्हें रोने की सुवध न थी।

ला का र्स्ास्थ्य पहले भी कुछ अच्छा न था, अब तो

िह और भी बेजान हो र्यी। उठने-बैठने की शज्जक्त

भी न रही। हरदम िोयी सी रहती, न कपडे-लते्त की सुवध

थी, न िाने-पीने की । उसे न घर से िास्ता था, न बाहर से ।

जहां बैठती, िही बैठी रह जाती। महीनो ंकपडे न बदलती,

वसर में तेल न डालती बचे्च ही उसके प्ािो के आधार थे।

जब िही न रहे तो मरना और जीना बराबर था। रात-वदन

यही मनाया करती वक भर्िान् यहां से ले चलो । सुि-दु:ि

सब भुर्त चुकी। अब सुि की लालसा नही है; लेवकन

बुलाने से मौत वकसी को आयी है ?

ली

100

सीतासरन भी पहले तो बहुत रोया-धोया; यहां तक वक

घर छोडकर भार्ा जाता था; लेवकन ज्यो-ंज्यो वदन रु्जरते

थे बच्चो ं का शोक उसके वदल से वमटता था; संतान का

दु:ि तो कुछ माता ही को होता है। धीरे-धीरे उसका जी

संभल र्या। पहले की भ ॉँवत वमत्रो ं के साथ हंसी-वदल्लर्ी

होने लर्ी। यारो ं ने और भी चंर् पर चढाया । अब घर का

मावलक था, जो चाहे कर सकता था, कोई उसका हाथ

रोकने िाला नही था। सैर’-सपाटे करने लर्ा। तो लीला को

रोते देि उसकी आंिे सजर् हो जाती थी,ं कहां अब उसे

उदास और शोक-मग्न देिकर झंुझला उठता। वजंदर्ी रोने

ही के वलए तो नही है। ईश्वर ने लडके वदये थे, ईश्वर ने ही

छीन वलये। क्ा लडको के पीछे प्ाि दे देना होर्ा ? लीला

यह बातें सुनकर भौचंक रह जाती। वपता के मंुह से ऐसे

शब् वनकल सकते है। संसार में ऐसे प्ािी भी है।

होली के वदन थे। मदागना में र्ाना-बजाना हो रहा था।

वमत्रो ंकी दाित का भी सामान वकया र्या था । अंदर लीला

जमीनं पर पडी हुई रो रही थी त्याहोर के वदन उसे रोते ही

कटते थें आज बचे्च बचे्च होते तो अचे्छ- अचे्छ कपडे पहने

कैसे उछलते वफरते! िही न रहे तो कहां की तीज और

कहां के त्योहार।

सहसा सीतासरन ने आकर कहा – क्ा वदन भर रोती

ही रहोर्ी ? जरा कपडे तो बदल डालो , आदमी बन जाओ

। यह क्ा तुमने अपनी र्त बना रिी है ?

लीला—तुम जाओ अपनी महवफल मे बैठो, तुमे्ह मेरी

क्ा वफक्र पडी है।

सीतासरन—क्ा दुवनया में और वकसी के लडके नही

मरते ? तुम्हारे ही वसर पर मुसीबत आयी है ?

101

लीला—यह बात कौन नही जानता। अपना-अपना

वदल ही तो है। उस पर वकसी का बस है ?

सीतासरन मेरे साथ भी तो तुम्हारा कुछ कतगव्य है ?

लीला ने कुतूहल से पवत को देिा, मानो उसका

आशय नही समझी। वफर मंुह फेर कर रोने लर्ी।

सीतासरन – मै अब इस मनहसत का अन्त कर देना

चाहता हं। अर्र तुम्हारा अपने वदल पर काबू नही है तो

मेरा भी अपने वदल पर काबू नही है। मैं अब वजंदर्ी – भर

मातम नही मना सकता।

लीला—तुम रंर्-रार् मनाते हो, मैं तुम्हें मना तो नही

करती ! मैं रोती हं तो कंू् नही रोने देते।

सीतासरन—मेरा घर रोने के वलए नही है ?

लीला—अच्छी बात है, तुम्हारे घर में न रोउंर्ी।

5

ला ने देिा, मेरे र्स्ामी मेरे हाथ से वनकले जा रहे

है। उन पर विषय का भूत सिार हो र्या है और

कोई समझाने िाला नही।ं िह अपने होश मे नही है। मैं क्ा

करंु, अर्र मैं चली जाती हं तो थोडे ही वदनो में सारा ही घर

वमट्टी में वमल जाएर्ा और इनका िही हाल होर्ा जो र्स्ाथी

वमत्रो के चंुर्ल में फंसे हुए नौजिान रईसो ं का होता है।

कोई कुलटा घर में आ जाएर्ी और इनका सिगनाश कर

देर्ी। ईश्वा ! मैं क्ा करंू ? अर्र इन्हें कोई बीमारी हो

जाती तो क्ा मैं उस दशा मे इन्हें छोडकर चली जाती ?

कभी नही। मैं तन मन से इनकी सेिा-सुशू्रषा करती, ईश्वर

से प्ाथगना करती, देिताओ ंकी मनौवतयां करती। माना इन्हें

शारीररक रोर् नही है, लेवकन मानवसक रोर् अिश्य है।

आदमी रोने की जर्ह हंसे और हंसने की जर्ह रोये,

ली

102

उसके दीिाने होने में क्ा संदेह है ! मेरे चले जाने से इनका

सिगनाश हो जायेर्ा। इन्हें बचाना मेरा धमग है।

हां, मुझें अपना शोक भूल जाना होर्ा। रोऊंर्ी, रोना

तो तकदीर में वलिा ही है—रोऊंर्ी, लेवकन हंस-हंस कर ।

अपने भाग्य से लडंूर्ी। जो जाते रहे उनके नाम के वसिा

और कर ही क्ा सकती हं, लेवकन जो है उसे न जाने दंूर्ी।

आ, ऐ टूटे हुए ह्रदय ! आज तेरे टुकडो ंको जमा करके एक

समावध बनाऊं और अपने शोक को उसके हिाले कर दंू।

ओ रोने िाली आंिो,ं आओ, मेरे आसंुओ ं को अपनी

विहंवसत छटा में वछपा लो। आओ, मेरे आभूषिो,ं मैंने बहुत

वदनो ं तक तुम्हारा अपमान वकया है, मेरा अपराध क्षमा

करो। तुम मेरे भले वदनो के साक्षी हो, तुमने मेरे साथ बहुत

विहार वकए है, अब इस संकट में मेरा साथ दो ; मर्र देिो

दर्ा न करना ; मेरे भेदो ंको वछपाए रिना।

वपछले पहर को पहवफल में सन्नाटा हो र्या। ह-हा की

आिाजें बंद हो र्यी। लीला ने सोचा क्ा लोर् कही चले

र्ये, या सो र्ये ? एकाएक सन्नाटा क्ो ं छा र्या। जाकर

दहलीज में िडी हो र्यी और बैठक में झांककर देिा,

सारी देह में एक ज्वाला-सी दौड र्यी। वमत्र लोर् विदा हो

र्ये थे। समावजयो का पता न था। केिल एक रमिी मसनद

पर लेटी हुई थी और सीतासरन सामने झुका हुआ उससे

बहुत धीरे-धीरे बातें कर रहा था। दोनो ं के चेहरो ं और

आंिो से उनके मन के भाि साफ झलक रहे थे। एक की

आंिो ं में अनुरार् था, दूसरी की आंिो में कटाक्ष ! एक

भोला-भोला ह्रदय एक मायाविनी रमिी के हाथो ंलुटा जाता

था। लीला की सम्पवत्त को उसकी आंिो ं के सामने एक

छवलनी चुराये जाती थी। लीला को ऐसा क्रोध आया वक

103

इसी समय चलकर इस कुल्टा को आडे हाथो ं लंू, ऐसा

दुत्कारंू िह भी याद करें , िडे-,िडे वनकाल दंू। िह पत्नी

भाि जो बहुत वदनो से सो रहा था, जार् उठा और विकल

करने लर्ा। पर उसने जब्त वकया। िेर् में दौडती हुई

तृष्णाएं अक्समात् न रोकी जा सकती थी। िह उलटे पांि

भीतर लौट आयी और मन को शांत करके सोचने लर्ी—

िह रूप रंर् में, हाि-भाि में, निरे-वतले्ल में उस दुिा की

बराबरी नही कर सकती। वबलकुल चांद का टुकडा है,

अंर्-अंर् में सू्फवतग भरी हुई है, पोर-पोर में मद छलक रहा

है। उसकी आंिो ं में वकतनी तृष्णा है। तृष्णा नही, बज्जि

ज्वाला ! लीला उसी िक्त आइने के सामने र्यी । आज

कई महीनो के बाद उसने आइने में अपनी सूरत देिी। उस

मुि से एक आह वनकल र्यी। शोक न उसकी कायापलट

कर दी थी। उस रमिी के सामने िह ऐसी लर्ती थी जैसे

रु्लाब के सामने जूही का फूल

तासरन का िुमार शाम को टूटा । आिें िुली ंतो

सामने लीला को िडे मुस्करातेदेिा।उसकी

अनोिी छवि आंिो ंमें समा र्ई। ऐसे िुश हुए मानो बहुत

वदनो के वियोर् के बाद उससे भेंट हुई हो। उसे क्ा मालूम

था वक यह रुप भरने के वलए वकतने आंसू बहाये है; कैशो ं

मे यह फूल रंू्थने के पहले आंिो ंमें वकतने मोती वपरोये है।

उन्होनें एक निीन पे्मोत्साह से उठकर उसे र्ले लर्ा वलया

और मुस्कराकर बोले—आज तो तुमने बडे-बडे शास्त्र

सजा रिे है, कहां भारंू् ?

लीला ने अपने ह्रदय की ओर उंर्ली वदिकर कहा –-

यहा आ बैठो बहुत भारे् वफरते हो, अब तुम्हें बांधकर

सी

104

रिूर्ी ं। बार् की बहार का आनंद तो उठा चुके, अब इस

अंधेरी कोठरी को भी देि लो।

सीतासरन ने जज्जित होकर कहा—उसे अंधेरी कोठरी

मत कहो लीला िह पे्म का मानसरोिर है !

इतने मे बाहर से वकसी वमत्र के आने की िबर आयी।

सीताराम चलने लरे् तो लीला ने हाथ उनका पकडकर हाथ

कहा—मैं न जाने दंूर्ी।

सीतासरन-- अभी आता हं।

लीला—मुझे डर है कही ंतुम चले न जाओ।

सीतासरन बाहर आये तो वमत्र महाशय बोले –आज

वदन भर सोते हो क्ा ? बहुत िुश नजर आते हो। इस

िक्त तो िहां चलने की ठहरी थी न ? तुम्हारी राह देि रही

है।

सीतासरन—चलने को तैयार हं, लेवकन लीला जाने

नही ंदेर्ी।ं

वमत्र—वनरे र्ाउदी ही रहे। आ र्ए वफर बीिी के पंजे

में ! वफर वकस वबरते पर र्रमाये थे ?

सीतासरन—लीला ने घर से वनकाल वदया था, तब

आश्रय ढूढता – वफरता था। अब उसने द्वार िोल वदये है

और िडी बुला रही है।

वमत्र—आज िह आनंद कहां ? घर को लाि सजाओ

तो क्ा बार् हो जायेर्ा ?

सीतासरन—भई, घर बार् नही हो सकता, पर र्स्र्ग हो

सकता है। मुझे इस िक्त अपनी क्षद्रता पर वजतनी लिा

आ रही है, िह मैं ही जानता हं। वजस संतान शोक में उसने

अपने शरीर को घुला डाला और अपने रूप-लािण्य को

वमटा वदया उसी शोक को केिल मेरा एक इशारा पाकर

105

उसने भुला वदया। ऐसा भुला वदया मानो कभी शोक हुआ

ही नही ! मैं जानता हं िह बडे से बडे कि सह सकती है।

मेरी रक्षा उसके वलए आिश्यक है। जब अपनी उदासीनता

के कारि उसने मेरी दशा वबर्डते देिी तो अपना सारा

शोक भूल र्यी। आज मैंने उसे अपने आभूषि पहनकर

मुस्कराते हंुए देिा तो मेरी आत्मा पुलवकत हो उठी । मुझे

ऐसा मालूम हो रहा है वक िह र्स्र्ग की देिी है और केिल

मुझ जैसे दुबगल प्ािी की रक्षा करने भेजी र्यी है। मैने उसे

कठोर शब् कहे, िे अर्र अपनी सारी सम्पवत्त बेचकर भी

वमल सकते, तो लौटा लेता। लीला िास्ति में र्स्र्ग की देिी

है!

106

आधार

रे र् ॉँि मे मथुरा का सा र्ठीला जिान न था। कोई

बीस बरस की उमर थी । मसें भीर् रही थी। र्उएं

चराता, दूध पीता, कसरत करता, कुश्ती लडता था और

सारे वदन बांसुरी बजाता हाट मे विचरता था। ब्याह हो र्या

था, पर अभी कोई बाल-बच्चा न था। घर में कई हल की

िेती थी, कई छोटे-बडे भाई थे। िे सब वमलचुलकर िेती-

बारी करते थे। मथुरा पर सारे र् ॉँि को र्िग था, जब उसे

ज ॉँवघये-लंर्ोटे, नाल या मुग्दर के वलए रूपये-पैसे की

जरूरत पडती तो तुरन्त दे वदये जाते थे। सारे घर की यही

अवभलाषा थी वक मथुरा पहलिान हो जाय और अिाडे मे

अपने सिाये को पछाडे। इस लाड – प्यार से मथुरा जरा

टराग हो र्या था। र्ायें वकसी के िेत मे पडी है और आप

अिाडे मे दंड लर्ा रहा है। कोई उलाहना देता तो उसकी

त्योररयां बदल जाती। र्रज कर कहता, जो मन मे आये कर

लो, मथुरा तो अिाडा छोडकर हांकने न जायेंरे् ! पर

उसका डील-डौल देिकर वकसी को उससे उलझने की

वहम्मत न पडती । लोर् र्म िा जाते

र्वमगयो के वदन थे, ताल-तलैया सूिी पडी थी। जोरो ं

की लू चलने लर्ी थी। र् ॉँि में कही ंसे एक सांड आ वनकला

और र्उओ ं के साथ हो वलया। सारे वदन र्उओ ं के साथ

रहता, रात को बस्ती में घुस आता और िंूटो से बंधे बैलो

को सीरं्ो ंसे मारता। कभी-वकसी की र्ीली दीिार को सीरं्ो

से िोद डालता, घर का कूडा सीरं्ो से उडाता। कई

वकसानो ने सार्-भाजी लर्ा रिी थी, सारे वदन सीचंते-

सीचंते मरते थे। यह सांड रात को उन हरे-भरे िेतो ं में

सा

107

पहंुच जाता और िेत का िेत तबाह कर देता । लोर् उसे

डंडो ंसे मारते, र् ॉँि के बाहर भर्ा आते, लेवकन जरा देर में

र्ायो ंमें पहंुच जाता। वकसी की अक् काम न करती थी वक

इस संकट को कैसे टाला जाय। मथुरा का घर र्ांि के बीच

मे था, इसवलए उसके िेतो को सांड से कोई हावन न

पहंुचती थी। र्ांि में उपद्रि मचा हुआ था और मथुरा को

जरा भी वचन्ता न थी।

आज्जिर जब धैयग का अंवतम बंधन टूट र्या तो एक

वदन लोर्ो ंने जाकर मथुरा को घेरा और बौले—भाई, कहो

तो र्ांि में रहें, कही ं तो वनकल जाएं । जब िेती ही न

बचेर्ी तो रहकर क्ा करेर्ें .? तुम्हारी र्ायो ंके पीछे हमारा

सत्यानाश हुआ जाता है, और तुम अपने रंर् में मस्त हो।

अर्र भर्िान ने तुम्हें बल वदया है तो इससे दूसरो की रक्षा

करनी चावहए, यह नही वक सबको पीस कर पी जाओ ।

सांड तुम्हारी र्ायो ं के कारि आता है और उसे भर्ाना

तुम्हारा काम है ; लेवकन तुम कानो में तेल डाले बैठे हो,

मानो तुमसे कुछ मतलब ही नही।

मथुरा को उनकी दशा पर दया आयी। बलिान मनुष्य

प्ाय: दयालु होता है। बोला—अच्छा जाओ, हम आज सांड

को भर्ा दें रे्।

एक आदमी ने कहा—दूर तक भर्ाना, नही तो वफर

लोट आयेर्ा।

मथुरा ने कंधे पर लाठी रिते हुए उत्तर वदया—अब

लौटकर न आयेर्ा।

2

लवचलाती दोपहरी थी। मथुरा सांड को भर्ाये वलए

जाता था। दोनंो पसीने से तर थे। सांड बार-बार र्ांि वच

108

की ओर घूमने की चेिा करता, लेवकन मथुरा उसका इरादा

ताडकर दूर ही से उसकी राह छें क लेता। सांड क्रोध से

उन्मत्त होकर कभी-कभी पीछे मुडकर मथुरा पर तोड

करना चाहता लेवकन उस समय मथुरा सामाना बचाकर

बर्ल से ताबड-तोड इतनी लावठयां जमाता वक सांड को

वफर भार्ना पडता कभी दोनो ं अरहर के िेतो में दौडते,

कभी झावडयो ं में । अरहर की िूवटयो ं से मथुरा के पांि

लह-लुहान हो रहे थे, झावडयो ंमें धोती फट र्ई थी, पर उसे

इस समय सांड का पीछा करने के वसिा और कोई सुध न

थी। र्ांि पर र्ांि आते थे और वनकल जाते थे। मथुरा ने

वनश्चय कर वलया वक इसे नदी पार भर्ाये वबना दम न लंूर्ा।

उसका कंठ सूि र्या था और आंिें लाल हो र्यी थी, रोम-

रोम से वचनर्ाररयां सी वनकल रही थी, दम उिड र्या था ;

लेवकन िह एक क्षि के वलए भी दम न लेता था। दो ढाई

घंटो के बाद जाकर नदी आयी। यही हार-जीत का फैसला

होने िाला था, यही से दोनो ंज्जिलावडयो ंको अपने दांि-पेंच

के जौहर वदिाने थे। सांड सोचता था, अर्र नदी में उतर

र्या तो यह मार ही डालेर्ा, एक बार जान लडा कर लौटने

की कोवशश करनी चावहए। मथुरा सोचता था, अर्र िह

लौट पडा तो इतनी मेहनत व्यथग हो जाएर्ी और र्ांि के

लोर् मेरी हंसी उडायेर्ें। दोनो ं अपने – अपने घात में थे।

सांड ने बहुत चाहा वक तेज दौडकर आरे् वनकल जाऊं

और िहां से पीछे को वफरंू, पर मथुरा ने उसे मुडने का

मौका न वदया। उसकी जान इस िक्त सुई की नोक पर

थी, एक हाथ भी चूका और प्ाि भी र्ए, जरा पैर वफसला

और वफर उठना नशीब न होर्ा। आज्जिर मनुष्य ने पशु पर

विजय पायी और सांड को नदी में घुसने के वसिाय और

109

कोई उपाय न सूझा। मथुरा भी उसके पीछे नदी मे पैठ

र्या और इतने डंडे लर्ाये वक उसकी लाठी टूट र्यी।

ब मथुरा को जोरो से प्यास लर्ी। उसने नदी में मंुह

लर्ा वदया और इस तरह हौकं-हौकं कर पीने लर्ा

मानो सारी नदी पी जाएर्ा। उसे अपने जीिन में कभी पानी

इतना अच्छा न लर्ा था और न कभी उसने इतना पानी

पीया था। मालूम नही, पांच सेर पी र्या या दस सेर लेवकन

पानी र्रम था, प्यास न बंुझी ; जरा देर में वफर नदी में मंुह

लर्ा वदया और इतना पानी पीया वक पेट में सांस लेने की

जर्ह भी न रही। तब र्ीली धोती कंधे पर डालकर घर की

ओर चल वदया।

लेवकन दस की पांच पर् चला होर्ा वक पेट में मीठा-

मीठा ददग होने लर्ा। उसने सोचा, दौड कर पानी पीने से

ऐसा ददग अकसर हो जाता है, जरा देर में दूर हो जाएर्ा।

लेवकन ददग बढने लर्ा और मथुरा का आरे् जाना कवठन हो

र्या। िह एक पेड के नीचे बैठ र्या और ददग से बैचेन

होकर जमीन पर लोटने लर्ा। कभी पेट को दबाता, कभी

िडा हो जाता कभी बैठ जाता, पर ददग बढता ही जाता था।

अन्त में उसने जोर-जोर से कराहना और रोना शुरू वकया;

पर िहां कौन बैठा था जो, उसकी िबर लेता। दूर तक

कोई र्ांि नही, न आदमी न आदमजात। बेचारा दोपहरी के

सन्नाटे में तडप-तडप कर मर र्या। हम कडे से कडा घाि

सह सकते है लेवकन जरा सा-भी व्यवतक्रम नही सह

सकते। िही देि का सा जिान जो कोसो तक सांड को

भर्ाता चला आया था, तत्वो ंके विरोध का एक िार भी न

सह सका। कौन जानता था वक यह दौड उसके वलए मौत

110

की दौड होर्ी ! कौन जानता था वक मौत ही सांड का रूप

धरकर उसे यो ं नचा रही है। कौरन जानता था वक जल

वजसके वबना उसके प्ाि ओठो ंपर आ रहे थे, उसके वलए

विष का काम करेर्ा।

संध्या समय उसके घरिाले उसे ढंूढते हुए आये। देिा

तो िह अनंत विश्राम में मग्न था।

क महीना रु्जर र्या। र्ांििाले अपने काम-धंधे में

लरे् । घरिालो ं ने रो-धो कर सब्र वकया; पर

अभावर्नी विधिा के आंसू कैसे पंुछते । िह हरदम रोती

रहती। आंिे चांहे बन्द भी हो जाती, पर ह्रदय वनत्य रोता

रहता था। इस घर में अब कैसे वनिागह होर्ा ? वकस आधार

पर वजऊंर्ी ? अपने वलए जीना या तो महात्माओ ंको आता

है या लम्पटो ंही को । अनूपा को यह कला क्ा मालूम ?

उसके वलए तो जीिन का एक आधार चावहए था, वजसे िह

अपना सिगर्स् समझे, वजसके वलए िह वलये, वजस पर िह

घमंड करे । घरिालो ं को यह र्िारा न था वक िह कोई

दूसरा घर करे। इसमें बदनामी थी। इसके वसिाय ऐसी

सुशील, घर के कामो ं में कुशल, लेन-देन के मामलो में

इतनी चतुर और रंर् रूप की ऐसी सराहनीय स्त्री का

वकसी दूसरे के घर पड जाना ही उन्हें असह्रय था। उधर

अनूपा के मैककिाले एक जर्ह बातचीत पक्की कर रहे

थे। जब सब बातें तय हो र्यी, तो एक वदन अनूपा का भाई

उसे विदा कराने आ पहंुचा ।

अब तो घर में िलबली मची। इधर कहा र्या, हम

विदा न करेर्ें । भाई ने कहा, हम वबना विदा कराये मानेंरे्

नही। र्ांि के आदमी जमा हो र्ये, पंचायत होने लर्ी। यह

111

वनश्चय हुआ वक अनूपा पर छोड वदया जाय, जी चाहे रहे।

यहां िालो को विश्वास था वक अनूपा इतनी जल्द दूसरा घर

करने को राजी न होर्ी, दो-चार बार ऐसा कह भी चुकी

थी। लेवकन उस िक्त जो पूछा र्या तो िह जाने को तैयार

थी। आज्जिर उसकी विदाई का सामान होने लर्ा। डोली आ

र्ई। र्ांि-भर की ज्जस्त्रया उसे देिने आयी।ं अनूपा उठ कर

अपनी सांस के पैरो में वर्र पडी और हाथ जोडकर बोली—

अम्मा, कहा-सुनाद माफ करना। जी में तो था वक इसी घर

में पडी रहं, पर भर्िान को मंजूर नही है।

यह कहते-कहते उसकी जबान बन्द हो र्ई।

सास करूिा से विहृिल हो उठी। बोली—बेटी, जहां

जाओ ंिहां सुिी रहो। हमारे भाग्य ही फूट र्ये नही तो क्ो ं

तुम्हें इस घर से जाना पडता। भर्िान का वदया और सब

कुछ है, पर उन्होने जो नही वदया उसमें अपना क्ा बस ;

बस आज तुम्हारा देिर सयाना होता तो वबर्डी बात बन

जाती। तुम्हारे मन में बैठे तो इसी को अपना समझो : पालो-

पोसो बडा हो जायेर्ा तो सर्ाई कर दंूर्ी।

यह कहकर उसने अपने सबसे छोटे लडके िासुदेि से

पूछा—क्ो ंरे ! भौजाई से शादी करेर्ा ?

िासुदेि की उम्र पांच साल से अवधक न थी। अबकी उसका

ब्याह होने िाला था। बातचीत हो चुकी थी। बोला—तब तो

दूसरे के घर न जायर्ी न ?

मा—नही, जब तेरे साथ ब्याह हो जायर्ी तो क्ो ं

जायर्ी ?

िासुदेि-- तब मैं करंूर्ा

मां—अच्छा, उससे पूछ, तुझसे ब्याह करेर्ी।

112

िासुदेि अनूप की र्ोद में जा बैठा और शरमाता हुआ

बोला—हमसे ब्याह करोर्ी ?

यह कह कर िह हंसने लर्ा; लेवकन अनूप की आंिें

डबडबा र्यी,ं िासुदेि को छाती से लर्ाते हुए बोली ---

अम्मा, वदल से कहती हो ?

सास—भर्िान् जानते है !

अनूपा—आज यह मेरे हो र्ये ?

सास—हां सारा र्ांि देि रहा है ।

अनूपा—तो भैया से कहला भैजो, घर जायें, मैं उनके

साथ न जाऊंर्ी।

अनूपा को जीिन के वलए आधार की जरूरत थी। िह

आधार वमल र्या। सेिा मनुष्य की र्स्ाभाविक िृवत्त है। सेिा

ही उस के जीिन का आधार है।

अनूपा ने िासुदेि को लालन-पोषि शुरू वकया।

उबटन और तैल लर्ाती, दूध-रोटी मल-मल के ज्जिलाती।

आप तालाब नहाने जाती तो उसे भी नहलाती। िेत में

जाती तो उसे भी साथ ले जाती। थौडे की वदनो ं में उससे

वहल-वमल र्या वक एक क्षि भी उसे न छोडता। मां को

भूल र्या। कुछ िाने को जी चाहता तो अनूपा से मांर्ता,

िेल में मार िाता तो रोता हुआ अनूपा के पास आता।

अनूपा ही उसे सुलाती, अनूपा ही जर्ाती, बीमार हो तो

अनूपा ही र्ोद में लेकर बदलू िैध के घर जाती, और दिायें

वपलाती।

र्ांि के स्त्री-पुरूष उसकी यह पे्म तपस्या देिते और

दांतो उंर्ली दबाते। पहले वबरले ही वकसी को उस पर

विश्वास था। लोर् समझते थे, साल-दो-साल में इसका जी

ऊब जाएर्ा और वकसी तरफ का रास्ता लेर्ी; इस दुधमंुहे

113

बालक के नाम कब तक बैठी रहेर्ी; लेवकन यह सारी

आशंकाएं वनमूलग वनकली।ं अनूपा को वकसी ने अपने व्रत

से विचवलत होते न देिा। वजस ह्रदय मे सेिा को स्रोत बह

रहा हो—र्स्ाधीन सेिा का—उसमें िासनाओ ंके वलए कहां

स्थान ? िासना का िार वनमगम, आशाहीन, आधारहीन

प्ावियो ं पर ही होता है चोर की अंधेरे में ही चलती है,

उजाले में नही।

िासुदेि को भी कसरत का शोक था। उसकी शक्

सूरत मथुरा से वमलती-जुलती थी, डील-डौल भी िैसा ही

था। उसने वफर अिाडा जर्ाया। और उसकी बांसुरी की

तानें वफर िेतो ंमें रू्जने लर्ी।ं

इस भाॉँवत १३ बरस रु्जर र्ये। िासुदेि और अनूपा में

सर्ाई की तैयारी होने लर्ी।ं

वकन अब अनूपा िह अनूपा न थी, वजसने १४ िषग

पहले िासुदेि को पवत भाि से देिा था, अब उस

भाि का स्थान मातृभाि ने वलया था। इधर कुछ वदनो ंसे िह

एक र्हरे सोच में डूबी रहती थी। सर्ाई के वदन ज्यो-ज्यो ं

वनकट आते थे, उसका वदल बैठा जाता था। अपने जीिन में

इतने बडे पररितगन की कल्पना ही से उसका कलेजा

दहक उठता था। वजसे बालक की भ वत पाला-पोसा, उसे

पवत बनाते हुए, लिा से उसका मंुि लाल हो जाता था।

द्वार पर नर्ाडा बज रहा था। वबरादरी के लोर् जमा

थे। घर में र्ाना हो रहा था ! आज सर्ाई की वतवथ थी :

ले

114

सहसा अनूपा ने जा कर सास से कहा—अम्मां मै तो

लाज के मारे मरी जा रही हं।

सास ने भौचंक्की हो कर पूछा—क्ो ंबेटी, क्ा है ?

अनूपा—मैं सर्ाई न करंूर्ी।

सास—कैसी बात करती है बेटी ? सारी तैयारी हो

र्यी। लोर् सुनेंरे् तो क्ा कहेर्ें ?

अनूपा—जो चाहे कहें, वजनके नाम पर १४ िषग बैठी

रही उसी के नाम पर अब भी बैठी रहंर्ी। मैंने समझा था

मरद के वबना औरत से रहा न जाता होर्ा। मेरी तो भर्िान

ने इित आबरू वनबाह दी। जब नयी उम्र के वदन कट र्ये

तो अब कौन वचन्ता है ! िासुदेि की सर्ाई कोई लडकी

िोजकर कर दो। जैसे अब तक उसे पाला, उसी तरह अब

उसके बाल-बच्चो ंको पालंूर्ी।

115

एक आंच की कसर

रे नर्र में महाशय यशोदानन्द का बिान हो रहा

था। नर्र ही में नही, समस्त प्ान्त में उनकी कीवतग

की जाती थी, समाचार पत्रो ंमें वटप्पवियां हो रही थी, वमत्रो

से प्शंसापूिग पत्रो ं का तांता लर्ा हुआ था। समाज-सेिा

इसको कहते है ! उन्नत विचार के लोर् ऐसा ही करते है।

महाशय जी ने वशवक्षत समुदाय का मुि उििल कर

वदया। अब कौन यह कहने का साहस कर सकता है वक

हमारे नेता केिल बात के धनी है, काम के धनी नही है !

महाशय जी चाहते तो अपने पुत्र के वलए उन्हें कम से कम

बीज हतार रूपये दहेज में वमलते, उस पर िुशामद घाते में

! मर्र लाला साहब ने वसद्वांत के सामने धन की रत्ती

बराबर परिा न की और अपने पुत्र का वििाह वबना एक

पाई दहेज वलए र्स्ीकार वकया। िाह ! िाह ! वहम्मत हो तो

ऐसी हो, वसद्वांत पे्म हो तो ऐसा हो, आदशग-पालन हो तो

ऐसा हो । िाह रे सचे्च िीर, अपनी माता के सचे्च सपूत, तूने

िह कर वदिाया जो कभी वकसी ने वकया था। हम बडे र्िग

से तेरे सामने मस्तक निाते है।

महाशय यशोदानन्द के दो पुत्र थे। बडा लडका पढ

वलि कर फावजल हो चुका था। उसी का वििाह तय हो

रहा था और हम देि चुके है, वबना कुछ दहेज वलये।

आज का वतलक था। शाहजहांपुर र्स्ामीदयाल वतलक

ले कर आने िाले थे। शहर के र्िमान्य सिनो ं को

वनमत्रय ि दे वदये र्ये थे। िे लोर् जमा हो र्ये थे। महवफल

सजी7 हुई थी। एक प्िीि वसताररया अपना कौशल

सा

116

वदिाकर लोर्ो को मुग्ध कर रहा था। दाित को सामान भी

तैयार था ? वमत्रर्ि यशोदानन्द को बधाईयां दे रहे थे।

एक महाशय बोले—तुमने तो कमाल कर वदया !

दूसरे—कमाल ! यह कवहए वक झणे्ड र्ाड वदये। अब

तक वजसे देिा मंच पर व्याख्यान झाडते ही देिा। जब

काम करने का अिसर आता था तो लोर् दुम लर्ा लेते थे।

तीसरे—कैसे-कैसे बहाने र्ढे जाते है—साहब हमें तो

दहेज से सि नफरत है यह मेरे वसद्वांत के विरुद्व है, पर

क्ा करंु क्ा, बचे्च की अम्मीजान नही ंमानती। कोई अपने

बाप पर फें कता है, कोई और वकसी िरागट पर।

चौथे—अजी, वकतने तो ऐसे बेहया है जो साफ-साफ

कह देते है वक हमने लडके को वशक्षा – दीक्षा में वजतना

िचग वकया है, िह हमें वमलना चावहए। मानो उन्होने यह

रूपये उन्होन वकसी बैंक में जमा वकये थे।

पांचिें—िूब समझ रहा हं, आप लोर् मुझ पर छीटें

उडा रहे है।

इसमें लडके िालो ंका ही सारा दोष है या लडकी िालो ंका

भी कुछ है।

पहले—लडकी िालो ंका क्ा दोष है वसिा इसके वक

िह लडकी का बाप है।

दूसरे—सारा दोष ईश्वर का वजसने लडवकयां पैदा की ं

। क्ो ं?

पांचिे—मैं चयह नही कहता। न सारा दोष लडकी

िालो ंका हैं, न सारा दोष लडके िालो ंका। दोनो ंकी दोषी

है। अर्र लडकी िाला कुछ न दे तो उसे यह वशकायत

करने का कोई अवधकार नही है वक डाल क्ो ंनही लायें,

117

संुदर जोडे क्ो ंनही लाये, बाजे-र्ाजे पर धूमधाम के साथ

क्ो ंनही आये ? बताइए !

चौथे—हां, आपका यह प्श्न र्ौर करने लायक है। मेरी

समझ में तो ऐसी दशा में लडकें के वपता से यह वशकायत

न होनी चावहए।

पांचिें---तो यो ंकवहए वक दहेज की प्था के साथ ही

डाल, र्हनें और जोडो की प्था भी त्याज्य है। केिल दहेज

को वमटाने का प्यत्न करना व्यथग है।

यशोदानन्द----यह भी Lame excuse1 है। मैंने

दहेज नही वलया है।, लेवकन क्ा डाल-र्हने ने ले जाऊंर्ा।

पहले---महाशय आपकी बात वनराली है। आप अपनी

वर्नती हम दुवनयां िालो ं के साथ क्ो ं करते हैं ? आपका

स्थान तो देिताओ ंके साथ है।

दूसरा----20 हजार की रकम छोड दी ? क्ा बात है।

______________________

१------थोथी दलील

यशोदानन्द---मेरा तो यह वनश्चय है वक हमें सदैि

principles 1 पर ज्जस्थर रहना चावहए। principal 2 के

सामने money3 की कोई value4 नही है। दहेज की

कुप्था पर मैंने िुद कोई व्याख्यान नही वदया, शायद कोई

नोट तक नही वलिा। हां, conference5 में इस प्स्ताि

को second6 कर चुका हं। मैं उसे तोडना भी चाहं तो

आत्मा न तोडने देर्ी। मैं सत्य कहता हं, यह रूपये लंू तो

मुझे इतनी मानवसक िेदना होर्ी वक शायद मैं इस आघात

स बच ही न सकंू।

118

पांचिें---- अब की conference आपको सभापवत

न बनाये तो उसका घोर अन्याय है।

यशोदानन्द—मैंने अपनी duty 7 कर दीउसका

recognition8 हो या न हो, मुझे इसकी परिाह नही।

इतने में िबर हुई वक महाशय र्स्ामीदयाल आ पंहुचे

। लोर् उनका अवभिादन करने को तैयार हुए, उन्हें मसनद

पर ला वबठाया और वतलक का संस्कार आरंम्भ हो र्या।

र्स्ामीदयाल ने एक ढाक के पत्तल पर नाररयल, सुपारी,

चािल पान आवद िसु्तएं िर के सामने रिी।ं ब्राहृमिो ंने मंत्र

पढें हिन हुआ और िर के माथे पर वतलक लर्ा वदया

र्या। तुरन्त घर की ज्जस्त्रयो ने मंर्लाचरि र्ाना शुरू

वकया। यहां पहवफल में महाशय यशोदानन्द ने एक चौकी

पर िडे होकर दहेज की कुप्था पर व्याख्यान देना शुरू

वकया। व्याख्यान पहले से वलिकर तैयार कर वलया र्या

था। उन्होनें दहेज की ऐवतहावसक व्याख्या की थी।

पूिगकाल में दहेज का नाम भी न थ। महाशयो ं ! कोई

जानता ही न था वक दहेज या ठहरोनी वकस वचवडया का

नाम है। सत्य मावनए, कोई जानता ही न था वक ठहरौनी है

क्ा चीज, पशु या पक्षी, आसमान में या जमीन में, िाने में

या पीने में । बादशाही जमाने में इस प्था की बंुवनयाद

पडी। हमारे युिक सेनाओ ं में सज्जम्मवलत होने लरे् । यह

िीर लोर् थें, सेनाओ ंमें जाना र्िग समझते थे। माताएं अपने

दुलारो ंको अपने हाथ से शस्त्रो ंसे सजा कर रिके्षत्र भेजती

थी।ं इस भ ॉँवत युिको ं की संख्या कम होने लर्ी और

लडको ंका मोल-तोल शुरू हुआ। आज यह नौित आ र्यी

है वक मेरी इस तुच्छ –महातुच्छ सेिा पर पत्रो ंमें वटप्पवियां

हो रही है मानो ं मैंने कोई असाधारि काम वकया है। मै

119

कहता हं ; अर्र आप संसार में जीवित रहना चाहते हो तो

इस प्था क तुरन्त अन्त कीवजए।

---------------------------------------

१----वसद्वांतो ं। २----वसद्वांत 3-----धन । 4-----मूल्य ।

5--- सभा । 6---अनुमोदन । ७ कतगव्य । ८----कदर ।

एक महाशय ने शंका की----क्ा इसका अंत वकये

वबना हम सब मर जायेर्ें ?

यशोदानन्द-अर्र ऐसा होता है तो क्ा पूछना था,

लोर्ो को दंड वमल जाता और िास्ति में ऐसा होना चावहए।

यह ईश्वर का अत्याचार है वक ऐसे लोभी, धन पर वर्रने

िाले, बुदाग-फरोश, अपनी संतान का विक्रय करने िाले

नराधम जीवित है। और समाज उनका वतरस्कार नही

करता । मर्र िह सब बुदग-फरोश है------इत्यावद।

व्याख्यान बहंुतद लम्बा ओर हास्य भरा हुआ था। लोर्ो ं

ने िूब िाह-िाह की । अपना िक्तव्य समाप्त करने के बाद

उन्होने अपने छोटे लडके परमानन्द को, वजसकी अिस्था

७ िषग की थी, मंच पर िडा वकया। उसे उन्होनें एक छोटा-

सा व्याख्यान वलिकर दे रिा था। वदिाना चाहते थे वक

इस कुल के छोटे बालक भी वकतने कुशाग्र बुवद्व है। सभा

समाजो ं में बालको ं से व्याख्यान वदलाने की प्था है ही,

वकसी को कुतूहल न हुआ।बालक बडा सुन्दर, होनहार,

हंसमुि था। मुस्कराता हुआ मंच पर आया और एक जेब

से कार्ज वनकाल कर बडे र्िग के साथ उच्च र्स्र में पढने

लर्ा------

वप्य बंधुिर,

नमस्कार !

120

आपके पत्र से विवदत होता है वक आपको मुझ पर

विश्वास नही है। मैं ईश्वर को साक्षी करके धन आपकी सेिा

में इतनी रु्प्त रीवत से पहंुचेर्ा वक वकसी को लेशमात्र भी

सने्दह न होर्ा । हां केिल एक वजज्ञासा करने की धृिता

करता हं। इस व्यापार को रु्प्त रिने से आपको जो

सम्मान और प्वतष्ठा – लाभ होर्ा और मेरे वनकटिती में

मेरी जो वनंदा की जाएर्ी, उसके उपलक्ष्य में मेरे साथ क्ा

ररआयत होर्ी ? मेरा विनीत अनुरोध है वक २५ में से ५

वनकालकर मेरे साथ न्याय वकया जाय...........।

महाशय श्योदानन्द घर में मेहमानो ं के वलए भोजन

परसने का आदेश करने र्ये थे। वनकले तो यह बाक्

उनके कानो ं में पडा—२५ में से ५ मेरे साथ न्याय वकया

कीवजए ।‘ चेहरा फक हो र्या, झपट कर लडके के पास

र्ये, कार्ज उसके हाथ से छीन वलया और बौले---

नालायक, यह क्ा पढ रहा है, यह तो वकसी मुिज्जक्कल का

ित है जो उसने अपने मुकदमें के बारें में वलिा था। यह तू

कहां से उठा लाया, शैतान जा िह कार्ज ला, जो तुझे

वलिकर वदया र्या था।

एक महाशय-----पढने दीवजए, इस तहरीर में जो

लुत्फ है, िह वकसी दूसरी तकरीर में न होर्ा।

दूसरे---जादू िह जो वसर चढ के बोलें !

तीसरे—अब जलसा बरिास्त कीवजए । मैं तो चला।

चौथै—यहां भी चलतु हुए।

यशोदानन्द—बैवठए-बैवठए, पत्तल लर्ाये जा रहे है।

पहले—बेटा परमानन्द, जरा यहां तो आना, तुमने यह

कार्ज कहां पाया ?

121

परमानन्द---बाबू जी ही तो वलिकर अपने मेज के

अन्दर रि वदया था। मुझसे कहा था वक इसे पढना। अब

नाहक मुझसे िफा रहे है।

यशोदानन्द---- िह यह कार्ज था वक सुअर ! मैंने तो

मेज के ऊपर ही रि वदया था। तूने डर ाअर में से क्ो ंयह

कार्ज वनकाला ?

परमानन्द---मुझे मेज पर नही वमला ।

यशोदान्नद---तो मुझसे क्ो ं नही कहा, डर ाअर क्ो ं

िोला ? देिो, आज ऐसी िबर लेता हं वक तुम भी याद

करोरे्।

पहले यह आकाशिािी है।

दूसरे----इस को लीडरी कहते है वक अपना उलू्ल

सीधा करो और नेकनाम भी बनो।

तीसरे----शरम आनी चावहए। यह त्यार् से वमलता है,

धोिेधडी से नही।

चौथे---वमल तो र्या था पर एक आंच की कसर रह

र्यी।

पांचिे---ईश्वर पांिंवडयो ंको यो ंही दण्ड देता है

यह कहते हुए लोर् उठ िडे हुए। यशोदानन्द समझ

र्ये वक भंडा फूट र्या, अब रंर् न जमेर्ा। बार-बार

परमानन्द को कुवपत नेत्रो ं से देिते थे और डंडा तौलकर

रह जाते थे। इस शैतान ने आज जीती-वजताई बाजी िो दी,

मंुह में कावलि लर् र्यी, वसर नीचा हो र्या। र्ोली मार देने

का काम वकया है।

उधर रासे्त में वमत्र-िर्ग यो ंवटप्पवियां करते जा रहे थे-

------

122

एक ईश्वर ने मंुह में कैसी कावलमा लर्ायी वक हयादार

होर्ा तो अब सूरत न वदिाएर्ा।

दूसरा--ऐसे-ऐसे धनी, मानी, विद्वान लोर् ऐसे पवतत हो

सकते है। मुझे यही आश्चयग है। लेना है तो िुले िजाने लो,

कौन तुम्हारा हाथ पकडता है; यह क्ा वक माल चुपके-

चुपके उडाओ ंऔर यश भी कमाओ ं!

तीसरा--मक्कार का मंुह काला !

चौथा—यशोदानन्द पर दया आ रही है। बेचारी ने

इतनी धूतगता की, उस पर भी कलई िुल ही र्यी। बस एक

आंच की कसर रह र्ई।

123

माता का ह्रदय

धिी की आंिो ंमें सारा संसार अंधेरा हो रहा था ।

काई अपना मददर्ार वदिाई न देता था। कही ं

आशा की झलक न थी। उस वनधगन घर में िह अकेली पडी

रोती थी और कोई आंसू पोछंने िाला न था। उसके पवत को

मरे हुए २२ िषग हो र्ए थे। घर में कोई सम्पवत्त न थी। उसने

न- जाने वकन तकलीफो ंसे अपने बचे्च को पाल-पोस कर

बडा वकया था। िही जिान बेटा आज उसकी र्ोद से छीन

वलया र्या था और छीनने िाले कौन थे ? अर्र मृतु्य ने

छीना होता तो िह सब्र कर लेती। मौत से वकसी को दे्वष

नही ंहोता। मर्र र्स्ावथगयो ंके हाथो ंयह अत्याचार असहृ हो

रहा था। इस घोर संताप की दशा में उसका जी रह-रह कर

इतना विफल हो जाता वक इसी समय चलंू और उस

अत्याचारी से इसका बदला लंू वजसने उस पर वनषु्ठर

आघात वकया है। मारंू या मर जाऊं। दोनो ंही में संतोष हो

जाएर्ा।

वकतना संुदर, वकतना होनहार बालक था ! यही उसके

पवत की वनशानी, उसके जीिन का आधार उसकी अमं्र भर

की कमाई थी। िही लडका इस िक्त जेल मे पडा न जाने

क्ा-क्ा तकलीफें झेल रहा होर्ा ! और उसका अपराध

क्ा था ? कुछ नही। सारा मुहल्ला उस पर जान देता था।

विधालय के अध्यापक उस पर जान देते थे। अपने-बेर्ाने

सभी तो उसे प्यार करते थे। कभी उसकी कोई वशकायत

सुनने में नही ं आयी।ऐसे बालक की माता होन पर उसे

बधाई देती थी। कैसा सिन, कैसा उदार, कैसा परमाथी !

िुद भूिो सो रहे मर्र क्ा मजाल वक द्वार पर आने िाले

मा

124

अवतवथ को रूिा जबाब दे। ऐसा बालक क्ा इस योग्य था

वक जेल में जाता ! उसका अपराध यही था, िह कभी-कभी

सुनने िालो ं को अपने दुिी भाइयो ं का दुिडा सुनाया

करता था। अत्याचार से पीवडत प्ावियो ंकी मदद के वलए

हमेशा तैयार रहता था। क्ा यही उसका अपराध था?

दूसरो की सेिा करना भी अपराध है ? वकसी अवतवथ

को आश्रय देना भी अपराध है ?

इस युिक का नाम आत्मानंद था। दुभागग्यिश उसमें िे

सभी सदु्गि थे जो जेल का द्वार िोल देते है। िह वनभीक

था, स्पििादी था, साहसी था, र्स्देश-पे्मी था, वन:र्स्ाथग था,

कतगव्यपरायि था। जेलल जाने के वलए इन्ही ं रु्िो की

जरूरत है। र्स्ाधीन प्ावियो ंके वलए िे रु्ि र्स्र्ग का द्वार

िोल देते है, पराधीनो के वलए नरक के ! आत्मानंद के

सेिा-कायग ने, उसकी िकृ्ततताओ ं ने और उसके

राजनीवतक लेिो ने उसे सरकारी कमगचाररयो ंकी नजरो ंमें

चढा वदया था। सारा पुवलस-विभार् नीचे से ऊपर तक

उससे सतगक रहता था, सबकी वनर्ाहें उस पर लर्ी ंरहती

थी।ं आज्जिर वजले में एक भयंकर डाके ने उने्ह इज्जच्छत

अिसर प्दान कर वदया।

आत्मानंद के घर की तलाशी हुई, कुछ पत्र और लेि

वमले, वजन्हें पुवलस ने डाके का बीजक वसद्व वकया। लर्भर्

२० युिको ंकी एक टोली फांस ली र्यी। आत्मानंद इसका

मुज्जिया ठहराया र्या। शहादतें हुई । इस बेकारी और

वर्रानी के जमाने में आत्मा सस्ती और कौन िसु्त हो सकती

है। बेचने को और वकसी के पास रह ही क्ा र्या है। नाम

मात्र का प्लोभन देकर अच्छी-से-अच्छी शहादतें वमल

सकती है, और पुवलस के हाथ तो वनकृि-से- वनकृि

125

र्िावहयां भी देििािी का महत्व प्ाप्त कर लेती है।

शहादतें वमल र्यी,ं महीनें-भर तक मुकदमा क्ा चला एक

र्स्ांर् चलता रहा और सारे अवभयुक्तो ं को सजाएं दे दी

र्यी।ं आत्मानंद को सबसे कठोर दंड वमला ८ िषग का

कवठन कारािास। माधिी रोज कचहरी जाती; एक कोने में

बैठी सारी कायगिाई देिा करती।

मानिी चररत्र वकतना दुबगल, वकतना नीच है, इसका

उसे अब तक अनुमान भी न हुआ था। जब आत्मानंद को

सजा सुना दी र्यी और िह माता को प्िाम करके

वसपावहयो ंके साथ चला तो माधिी मूवछग त होकर वर्र पडी

। दो-चार सिनो ं ने उसे एक तांरे् पर बैठाकर घर तक

पहंुचाया। जब से िह होश में आयी है उसके हृदय में शूल-

सा उठ रहा है। वकसी तरह धैयग नही होता । उस घोर

आत्म-िेदना की दशा में अब जीिन का एक लक्ष्य वदिाई

देता है और िह इस अत्याचार का बदला है।

अब तक पुत्र उसके जीिन का आधार था। अब

शतु्रओ ंसे बदला लेना ही उसके जीिन का आधार होर्ा।

जीिन में उसके वलए कोई आशा न थी। इस अत्याचार का

बदला लेकर िह अपना जन्म सफल समझर्ी। इस अभारे्

नर-वपशाच बर्ची ने वजस तरह उसे रक्त के आसंू रॅलाये हैं

उसी भांवत यह भी उस रूलायेर्ी। नारी-हृदय कोमल है

लेवकन केिल अनुकूल दशा में: वजस दशा में पुरूष दूसरो ं

को दबाता है, स्त्री शील और विनय की देिी हो जाती है।

लेवकन वजसके हाथो ंमें अपना सिगनाश हो र्या हो उसके

प्वत स्त्री की पुरूष से कम घ्ज्जृ्ञिा ओर क्रोध नही ं होता

अंतर इतना ही है वक पुरूष शास्त्रो ं से काम लेता है, स्त्री

कौशल से ।

126

रा भीर्ती जाती थी और माधिी उठने का नाम न लेती

थी। उसका दु:ि प्वतकार के आिेश में विलीन होता जाता

था। यहां तक वक इसके वसिा उसे और वकसी बात की

याद ही न रही। उसने सोचा, कैसे यह काम होर्ा? कभी

घर से नही ं वनकली।िैधव्य के २२ साल इसी घर कट र्ये

लेवकन अब वनकूलंूर्ी।ं जबरदस्ती वनकलंूर्ी, वभिाररन

बनूर्ी,ं टहलनी बनूर्ी, झठू बोलंूर्ी, सब कुकमग करंूर्ी।

सत्कमग के वलए संसार में स्थान नही।ं ईश्वर ने वनराश होकर

कदावचत् इसकी ओर से मंुह फेर वलया है। जभी तो यहां

ऐसे-ऐसे अत्याचार होते है। और पावपयो ं को दडं नही ं

वमलता। अब इन्ही ंहाथो ंसे उसे दंड दूर्ी।

2

ध्या का समय था। लिनऊ के एक सजे हुए बंर्ले

में वमत्रो ंकी महवफल जमी हुई थी। र्ाना-बजाना हो

रहा था। एक तरफ आतशबावजयां रिी हुई थी।ं दूसरे

कमरे में मेजो ंपर िना चुना जा रहा था। चारो ंतरफ पुवलस

के कमगचारी नजर आते थें िह पुवलस के सुपररंटेंडेंट वमस्टर

बर्ीची का बंर्ला है। कई वदन हुए उन्होने एक माके का

मुकदमा जीता था।अफसरो ने िुश होकर उनकी तरक्की

की दी थी। और उसी की िुशी में यह उत्सि मनाया जा

रहा था। यहां आये वदन ऐसे उत्सि होते रहते थे। मुफ्त के

र्िैये वमल जाते थे, मुफ्त की अतशबाजी; फल और मेिे

और वमठाईयां आधे दामो ंपर बाजार से आ जाती थी।ं और

चट दाितो हो जाती थी। दूसरो ं के जहो ं सौ लर्ते, िहां

इनका दस से काम चल जाता था। दौड-धूप करने को

वसपावहयो ं की फौज थी ही।ं और यह माके का मुकदमा

सं

127

क्ा था? िह वजसमें वनरपराध युिको ंको बनािटी शहादत

से जेल में ठूस वदया र्या था।

र्ाना समाप्त होने पर लोर् भोजन करने बैठें । बेर्ार

के मजदूर और पले्लदार जो बाजार से दाित और सजािट

के सामान लाये थे, रोते या वदल में र्ावलयां देते चले र्ये थे;

पर एक बुवढ़या अभी तक द्वार पर बैठी हुई थी। और अन्य

मजदूरो ंकी तरह िह भूनभुना कर काम न करती थी। हुक्म

पाते ही िुश-वदल मजदूर की तरह हुक्म बजा लाती थी।

यह मधिी थी, जो इस समय मजूरनी का िेष धारि करके

अपना घतक संकल्प पूरा करने आयी। थी।

मेहमान चले र्ये। महवफल उठ र्यी। दाित का

समान समेट वदया र्या। चारो ंओर सन्नाटा छा र्या; लेवकन

माधिी अभी तक िही ंबैठी थी।

सहसा वमस्टर बार्ची ने पूछा—बुड्ढी तू यहां क्ो ंबैठी

है? तुझे कुछ िाने को वमल र्या?

माधिी—हां हुजूर, वमल र्या। बार्ची—तो जाती क्ो ं

नही?ं

माधिी—कहां जाऊं सरकार , मेरा कोई घर-द्वार थोडे

ही है। हुकुम हो तो यही ं पडी रहं। पाि-भर आटे की

परिस्ती हो जाय हुजुर।

बर्ची –नौकरी करेर्ी?2

माधिी—क्ो न करंूर्ी सरकार, यही तो चाहती हं।

बार्ची—लडका ज्जिला सकती है?

माधिी—हां हजूर, िह मेरे मन का काम है।

बर्ची—अच्छी बात है। तु आज ही से रह। जा घर में

देि, जो काम बतायें, िहा कर।

3

128

क महीना रु्जर र्या। माधिी इतना तन-मन से काम

करती है वक सारा घर उससे िुश है। बह जी का

मीजाज बहुम ही वचडवचडा है। िह वदन-भर िाट पर पडी

रहती है और बात-बात पर नौकरो ंपर झल्लाया करती है।

लेवकन माधिी उनकी घुडवकयो ंको भी सहषग सह लेती है।

अब तक मुज्जिल से कोई दाई एक सप्ताह से अवधक

ठहरी थी। माधिी का कलेजा है वक जली-कटी सुनकर भी

मुि पर मैल नही ंआने देती।

वमस्टर बार्ची के कई लडके हो चुके थे, पर यही

सबसे छोटा बच्चा बच रहा था। बचे्च पैदा तो हृि-पृि होते,

वकनु्त जन्म लेते ही उने्ह एक –न एक रोर् लर् जाता था

और कोई दो-चार महीनें, कोई साल भर जी कर चल देता

था। मां-बाप दोनो ं इस वशशु पर प्ाि देते थे। उसे जरा

जुकाम भी हो तो दोनो विकल हो जाते। स्त्री-पुरूष दोनो

वशवक्षत थे, पर बचे्च की रक्षा के वलए टोना-टोटका ,

दुआता-बीच, जन्तर-मंतर एक से भी उन्हें इनकार न था।

माधिी से यह बालक इतना वहल र्या वक एक क्षि के

वलए भी उसकी र्ोद से न उतरता। िह कही ंएक क्षि के

वलए चली जाती तो रो-रो कर दुवनया वसर पर उठा लेता।

िह सुलाती तो सोता, िह दूध वपलाती तो वपता, िह ज्जिलाती

तो िेलता, उसी को िह अपनी माता समझता। माधिी के

वसिा उसके वलए संसार में कोई अपना न था। बाप को तो

िह वदन-भर में केिल दो-नार बार देिता और समझता

यह कोई परदेशी आदमी है। मां आलस्य और कमजारी के

मारे र्ोद में लेकर टहल न सकती थी। उसे िह अपनी रक्षा

का भार संभालने के योग्य न समझता था, और नौकर-

चाकर उसे र्ोद में ले लेते तो इतनी िेददी से वक उसके

129

कोमल अंर्ो मे पीडा होने लर्ती थी। कोई उसे ऊपर

उछाल देता था, यहां तक वक अबोध वशशु का कलेजा मंुह

को आ जाता था। उन सबो ंसे िह डरता था। केिल माधिी

थी जो उसके र्स्भाि को समझती थी। िह जानती थी वक

कब क्ा करने से बालक प्सन्न होर्ा। इसवलए बालक को

भी उससे पे्म था।

माधिी ने समझाया था, यहां कंचन बरसता होर्ा;

लेवकन उसे देिकर वकतना वििय हुआ वक बडी मुज्जिल

से महीने का िचग पूरा पडता है। नौकरो ं से एक-एक पैसे

का वहसाब वलया जाता था और बहुधा आिश्यक िसु्तएं भी

टाल दी जाती थी।ं एक वदन माधिी ने कहा—बचे्च के वलए

कोई तेज र्ाडी क्ो ंनही ंमंर्िा देती।ं र्ोद में उसकी बाढ़

मारी जाती है।

वमसेज बार्जी ने कुवठंत होकर कहा—कहां से मर्िां

दंू? कम से कम ५०-६० रुपयं में आयेर्ी। इतने रुपये कहां

है?

माधिी—मलवकन, आप भी ऐसा कहती है!

वमसेज बर्ची—झठू नही ंकहती। बाबू जी की पहली

स्त्री से पांच लडवकयां और है। सब इस समय इलाहाबाद

के एक सू्कल में पढ रही हैं। बडी की उम्र १५-१६ िषग से

कम न होर्ी। आधा िेतन तो उधार ही चला जाता है। वफर

उनकी शादी की भी तो वफक्र है। पांचो के वििाह में कम-

से-कम २५ हजार लर्ेंरे्। इतने रूपये कहां से आयेर्ें। मै

वचंता के मारे मरी जाती हं। मुझे कोई दूसरी बीमारी नही ंहै

केिल वचंता का रोर् है।

माधिी—घूस भी तो वमलती है।

130

वमसेज बार्ची—बूढ़ी, ऐसी कमाई में बरकत नही ं

होती। यही क्ो ंसच पूछो तो इसी घूस ने हमारी यह दुर्गती

कर रिी है। क्ा जाने औरो ंको कैसे हजम होती है। यहां

तो जब ऐसे रूपये आते है तो कोई-न-कोई नुकसान भी

अिश्य हो जाता है। एक आता है तो दो लेकर जाता है।

बार-बार मना करती हं, हराम की कौडी घर मे न लाया

करो, लेवकन मेरी कौन सुनता है।

बात यह थी वक माधिी को बालक से से्नह होता जाता

था। उसके अमंर्ल की कल्पना भी िह न कर सकती थी।

िह अब उसी की नीदं सोती और उसी की नीदं जार्ती थी।

अपने सिगनाश की बात याद करके एक क्षि के वलए

बार्ची पर क्रोध तो हो आता था और घाि वफर हरा हो

जाता था; पर मन पर कुज्जत्सत भािो ं का आवधपत्य न था।

घाि भर रहा था, केिल ठेस लर्ने से ददग हो जाता था।

उसमें रं्स्य टीस या जलन न थी। इस पररिार पर अब उसे

दया आती थी। सोचती, बेचारे यह छीन-झपट न करें तो

कैसे रु्जर हो। लडवकयो ंका वििाह कहां से करेर्ें! स्त्री को

जब देिो बीमार ही रहती है। उन पर बाबू जी को एक

बोतल शराब भी रोज चावहए। यह लोर् र्स्यं अभारे् है।

वजसके घर में ५-५क्वारी कन्याएं हो,ं बालक हो-हो कर मर

जाते हो,ं घरनी दा बीमार रहती हो, र्स्ामी शराब का तली

हो, उस पर तो यो ं ही ईश्वर का कोप है। इनसे तो मैं

अभावर्न ही अच्छी!

बगल बलको ं के वलए बरसात बुरी बला है। कभी

िांसी है, कभी ज्वर, कभी दस्त। जब हिा में ही

शीत भरी हो तो कोई कहां तक बचाये। माधिी एक वदन

दु

131

आपने घर चली र्यी थी। बच्चा रोने लर्ा तो मां ने एक

नौकर को वदया, इसे बाहर बहला ला। नौकर ने बाहर ले

जाकर हरी-हरी घास पर बैठा वदया,। पानी बरस कर

वनकल र्या था। भूवम र्ीली हो रही थी। कही-ंकही ं पानी

भी जमा हो र्या था। बालक को पानी में छपके लर्ाने से

ज्यादा प्यारा और कौन िेल हो सकता है। िूब पे्म से

उमंर्-उमंर् कर पानी में लोटने लर्ां नौकर बैठा और

आदवमयो ंके साथ र्प-शप करता घंटो रु्जर र्ये। बचे्च ने

िूब सदी िायी। घर आया तो उसकी नाक बह रही थी ं

रात को माधिी ने आकर देिा तो बच्चा िांस रहा था।

आधी रात के करीब उसके र्ले से िुरिुर की आिाज

वनकलने लर्ी। माधिी का कलेजा सन से हो र्या। र्स्ावमनी

को जर्ाकर बोली—देिो तो बचे्च को क्ा हो र्या है। क्ा

सदी-िदी तो नही ंलर् र्यी। हां, सदी ही मालूम होती है।

र्स्ावमनी हकबका कर उठ बैठी और बालक की

िुरिराहट सुनी तो पांि तलेजमीन वनकल र्यी ं यह

भंयकर आिाज उसने कई बार सुनी थी और उसे िूब

पहचानती थी। व्यग्र होकर बोली—जरा आर् जलाओ।

थोडा-सा तंर् आ र्यी। आज कहार जरा देर के वलए बाहर

ले र्या था, उसी ने सदी में छोड वदया होर्ा।

सारी रात दोनंो बालक को सेंकती रही।ं वकसी तरह

सिेरा हुआ। वमस्टर बार्ची को िबर वमली तो सीधे डाक्टर

के यहां दौडे। िैररयत इतनी थी वक जल्द एहवतयात की

र्यी। तीन वदन में अच्छा हो र्या; लेवकन इतना दुबगल हो

र्या था वक उसे देिकर डर लर्ता था। सच पूछो ं तो

माधिी की तपस्या ने बालक को बचायां। माता-वपता सो

जाता, वकंतु माधिी की आंिो ं में नीदं न थी। िना-पीना

132

तक भूल र्यी। देिताओ ंकी मनौवतयां करती थी, बचे्च की

बलाएं लेती थी, वबिुल पार्ल हो र्यी थी, यह िही माधिी

है जो अपने सिगनाश का बदला लेने आयी थी। अपकार की

जर्ह उपकार कर रही थी।विष वपलाने आयी थी, सुधा

वपला रही थी। मनुष्य में देिता वकतना प्बल है!

प्ात:काल का समय था। वमस्टर बार्ची वशशु के झलेू

के पास बैठे हुए थे। स्त्री के वसर में पीडा हो रही थी। िही ं

चारपाई पर लेटी हुई थी और माधिी समीप बैठी बचे्च के

वलए दुध र्रम कर रही थी। सहसा बार्ची ने कहा—बूढ़ी,

हम जब तक वजयेंरे् तुम्हारा यश र्येंरे्। तुमने बचे्च को

वजला वलयां

स्त्री—यह देिी बनकर हमारा कि वनिारि करने के

वलए आ र्यी। यह न होती तो न जाने क्ा होता। बूढ़ी,

तुमसे मेरी एक विनती है। यो ंतो मरना जीना प्ारब्ध के हाथ

है, लेवकन अपना-अपना पौरा भी बडी चीज है। मैं

अभावर्नी हं। अबकी तुम्हारे ही पुण्य-प्ताप से बच्चा संभल

र्या। मुझे डर लर् रहा है वक ईश्वर इसे हमारे हाथ से छीन

ने ले। सच कहती ं हं बूढ़ी, मुझे इसका र्ोद में लेते डर

लर्ता हैं। इसे तुम आज से अपना बच्चा समझो। तुम्हारा

होकर शायद बच जाय। हम अभारे् हैं, हमारा होकर इस

पर वनत्य कोई-न-कोई संकट आता रहेर्ा। आज से तुम

इसकी माता हो जाआ। तुम इसे अपने घर ले जाओ। जहां

चाहे ले जाओ, तुम्हारी र्ोदं मे देर मुझे वफर कोई वचंता न

रहेर्ी। िास्ति में तुम्ही ंइसकी माता हो, मै तो राक्षसी हं।

माधिी—बह जी, भर्िान् सब कुशल करेर्ें, क्ो ंजी

इतना छोटा करती हो?

133

वमस्टर बार्ची—नही-ंनही ं बूढ़ी माता, इसमें कोई

हरज नही ंहै। मै मज्जस्तष्क से तो इन बांतो को ढकोसला ही

समझता हं; लेवकन हृदय से इन्हें दूर नही ंकर सकता। मुझे

र्स्यं मेरी माता जीने एक धावबन के हाथ बेच वदया था। मेरे

तीन भाई मर चुके थे। मै जो बच र्या तो मां-बाप ने समझा

बेचने से ही इसकी जान बच र्यी। तुम इस वशशु को पालो-

पासो। इसे अपना पुत्र समझो। िचग हम बराबर देते रहेंर्ें।

इसकी कोई वचंता मत करना। कभी –कभी जब हमारा जी

चाहेर्ा, आकर देि वलया करेर्ें। हमें विश्वास है वक तुम

इसकी रक्षा हम लोरं्ो ंसे कही ंअच्छी तरह कर सकती हो।

मैं कुकमी हं। वजस पेशे में हं, उसमें कुकमग वकये बरै्र

काम नही ंचल सकता। झठूी शहादतें बनानी ही पडती है,

वनरपराधो ंको फंसाना ही पडता है। आत्मा इतनी दुबगल हो

र्यी है वक प्लोभन में पड ही जाता हं। जानता ही हं वक

बुराई का फल बुरा ही होता है; पर पररज्जस्थवत से मजबूर हं।

अर्र न करंू तो आज नालायक बनाकर वनकाल वदया

जाऊं। अगे्रज हजारो ं भूलें करें , कोई नही ं पूछता।

वहनदूस्तानी एक भूल भी कर बैठे तो सारे अफसर उसके

वसर हो जाते है। वहंदुस्तावनयत को दोष वमटाने केवलए

वकतनी ही ऐसी बातें करनी पडती है वजनका अग्रेंज के

वदल में कभी ख्याल ही नही ं पैदा हो सकता। तो बोलो,

र्स्ीकार करती हो?

माधिी र्द्गद् होकर बोली—बाबू जी, आपकी इच्छा है

तो मुझसे भी जो कुछ बन पडेर्ा, आपकी सेिा कर दंूर्ी ं

भर्िान् बालक को अमर करें , मेरी तो उनसे यही विनती

है।

134

माधिी को ऐसा मालूम हो रहा था वक र्स्र्ग के द्वार

सामने िुले हैं और र्स्र्ग की देवियां अंचल फैला-फैला कर

आशीिागद दे रही हैं, मानो उसके अंतस्तल में प्काश की

लहरें-सी उठ रही ं है। से्नहमय सेिा में वक वकतनी शांवत

थी।

बालक अभी तक चादर ओढे़ सो रहा था। माधिी ने

दूध र्रम हो जाने पर उसे झलेू पर से उठाया, तो वचल्ला

पडी। बालक की देह ठंडी हो र्यी थी और मंुह पर िह

पीलापन आ र्या था वजसे देिकर कलेजा वहल जाता है,

कंठ से आह वनकल आती है और आंिो ं से आसंू बहने

लर्ते हैं। वजसने इसे एक बारा देिा है वफर कभी नही ंभूल

सकता। माधिी ने वशशु को र्ोदं से वचपटा वलया, हालावकं

नीचे उतार दोना चावहए था।

कुहराम मच र्या। मां बचे्च को र्ले से लर्ाये रोती थी;

पर उसे जमीन पर न सुलाती थी। क्ा बातें हो रही रही थी ं

और क्ा हो र्या। मौत को धोिा दोने में आन्नद आता है।

िह उस िक्त कभी नही ंआती जब लोर् उसकी राह देिते

होते हैं। रोर्ी जब संभल जाता है, जब िह पर्थ् लेने लर्ता

है, उठने-बैठने लर्ता है, घर-भर िुवशयां मनाने लर्ता है,

सबको ं विश्वास हो जाता है वक संकट टल र्या, उस िक्त

घात में बैठी हुई मौत वसर पर आ जाती है। यही उसकी

वनठुर लीला है।

आशाओ ंके बार् लर्ाने में हम वकतने कुशल हैं। यहां

हम रक्त के बीज बोकर सुधा के फल िाते हैं। अवग्न से

पौधो ंको सीचंकर शीतल छांह में बैठते हैं। हां, मंद बुज्जद्ध।

वदन भर मातम होता रहा; बाप रोता था, मां तडपती

थी और माधिी बारी-बारी से दोनो को समझाती थी।यवद

135

अपने प्ाि देकर िह बालक को वजला सकती तो इस

समया अपना धन्य भार् समझती। िह अवहत का संकल्प

करके यहां आयी थी और आज जब उसकी मनोकामना

पूरी हो र्यी और उसे िुशी से फूला न समाना चावहए था,

उस उससे कही ं घोर पीडा हो रही थी जो अपने पुत्र की

जेल यात्रा में हुई थी। रूलाने आयी थी और िुद राती जा

रही ंथी। माता का हृदय दया का आर्ार है। उसे जलाओ

तो उसमें दया की ही सुरं्ध वनकलती है, पीसो तो दया का

ही रस वनकलता है। िह देिी है। विपवत्त की कू्रर लीलाएं भी

उस र्स्च्छ वनमगल स्रोत को मवलन नही ंकर सकती।ं

136

परीक्षा

वदरशाह की सेना में वदल्ली के कते्लआम कर रिा

है। र्वलयो ं मे िून की नवदयां बह रही हैं। चारो

तरफ हाहाकार मचा हुआ है। बाजार बंद है। वदल्ली के

लोर् घरो ंके द्वार बंद वकये जान की िैर मना रहे है। वकसी

की जान सलामत नही ंहै। कही ंघरो ंमें आर् लर्ी हुई है,

कही ं बाजार लुट रहा है; कोई वकसी की फररयाद नही ं

सुनता। रईसो ंकी बेर्में महलो से वनकाली जा रही है और

उनकी बेहुरती की जाती है। ईरानी वसपावहयो ं की रक्त

वपपासा वकसी तरह नही ं बुझती। मानि हृदया की कू्ररता,

कठोरता और पैशावचकता अपना विकरालतम रूप धारि

वकये हुए है। इसी समया नावदर शाह ने बादशाही महल में

प्िेश वकया।

वदल्ली उन वदनो ं भोर्-विलास की कें द्र बनी हुई थी।

सजािट और तकलु्लफ के सामानो ंसे रईसो ंके भिन भरे

रहते थे। ज्जस्त्रयो ं को बनाि-वसर्ांर के वसिा कोई काम न

था। पुरूषो ंको सुि-भोर् के वसिा और कोई वचन्ता न थी।

राजीनवत का स्थान शेरो-शायरी ने ले वलया था। समस्त

प्न्तो से धन ज्जिंच-ज्जिंच कर वदल्ली आता था। और पानी

की भांवत बहाया जाता था। िेश्याओ ं की चादी ं थी। कही ं

तीतरो ं के जोड होते थे, कही ं बटेरो और बुलबुलो ं की

पवलयां ठनती थी।ं सारा नर्र विलास –वनद्रा में मग्न था।

नावदरशाह शाही महल में पहंुचा तो िहां का सामान

देिकर उसकी आंिें िुल र्यी।ं उसका जन्म दररद्र-घर में

हुआ था। उसका समसत जीिन रिभूवम में ही कटा था।

भोर् विलास का उसे चसका न लर्ा था। कहां रि-के्षत्र के

ना

137

कि और कहां यह सुि-साम्राज्य। वजधर आंि उठती थी,

उधर से हटने का नाम न लेती थी।

संध्या हो र्यी थी। नावदरशाह अपने सरदारो ंके साथ

महल की सैर करता और अपनी पसंद की सचीजो ं को

बटोरता हुआ दीिाने-िास में आकर कारचोबी मसनद पर

बैठ र्या, सरदारो ंको िहां से चले जाने का हुक्म दे वदया,

अपने सबहवथयार रि वदये और महल के दरार्ा को

बुलाकर हुक्म वदया—मै शाही बेर्मो ं का नाच देिना

चाहता हं। तुम इसी िक्त उनको संुदर िस्त्राभूषिो ं से

सजाकर मेरे सामने लाओ ंिबरदार, जरा भी देर न हो! मै

कोई उज्र या इनकार नही ंसुन सकता।

रोर्ा ने यह नावदरशाही हुक्म सुना तो होश उड

र्ये। िह मवहलएं वजन पर सूयग की दृवट भी नही ं

पडी कैसे इस मजवलस में आयेंर्ी! नाचने का तो कहना ही

क्ा! शाही बेर्मो ंका इतना अपमान कभी न हुआ था। हा

नरवपशाच! वदल्ली को िून से रंर् कर भी तेरा वचत्त शांत

नही ंहुआ। मर्र नावदरशाह के समु्मि एक शब् भी जबान

से वनकालना अवग्न के मुि में कूदना था! वसर झुकाकर

आदार् लाया और आकर रवनिास में सब िेर्मो ं को

नादीरशाही हुक्म सुना वदया; उसके साथ ही यह इत्त्ला भी

दे दी वक जरा भी तामु्मल न हो , नावदरशाह कोई उज्र या

वहला न सुनेर्ा! शाही िानदोन पर इतनी बडी विपवत्त कभी

नही ं पडी; पर अस समय विजयी बादशाह की आज्ञा को

वशरोधायग करने के वसिा प्ाि-रक्षा का अन्य कोई उपाय

नही ंथा।

दा

138

बेर्मो ं ने यह आज्ञा सुनी तो हतबुज्जद्ध-सी हो र्यी।ं

सारेरवनिास में मातम-सा छा र्या। िह चहल-पहल र्ायब

हो र्यी।ं सैकडो हृदयो ंसे इस सहायता-याचक लोचनो ं से

देिा, वकसी ने िुदा और रसूल का सुवमरन वकया; पर ऐसी

एक मवहला भी न थी वजसकी वनर्ाह कटार या तलिार की

तरफ र्यी हो। यद्यपी इनमें वकतनी ही बेर्मो ंकी नसो ं में

राजपूतावनयो ंका रक्त प्िावहत हो रहा था; पर इंवद्रयवलप्सा

ने जौहर की पुरानी आर् ठंडी कर दी थी। सुि-भोर् की

लालसा आत्म सम्मान का सिगनाश कर देती है। आपस में

सलाह करके मयागदा की रक्षा का कोई उपाया सोचने की

मुहलत न थी। एक-एक पल भाग्य का वनिगय कर रहा था।

हताश का वनिगय कर रहा था। हताश होकर सभी

ललपाओ ंने पापी के समु्मि जाने का वनश्चय वकया। आंिो ं

से आसंू जारी थे, अशु्र-वसंवचत नेत्रो ंमें सुरमा लर्ाया जा रहा

था और शोक-व्यवथत हृदयां पर सुरं्ध का लेप वकया जा

रहा था। कोई केश रंु्थती ंथी, कोई मांर्ो में मोवतयो ंवपरोती

थी। एक भी ऐसे पके्क इरादे की स्त्री न थी, जो इश्वर पर

अथिा अपनी टेक पर, इस आज्ञा का उलं्लघन करने का

साहस कर सके।

एक घंटा भी न रु्जरने पाया था वक बेर्मात पूरे-के-

पूरे, आभूषिो ंसे जर्मर्ाती,ं अपने मुि की कांवत से बेले

और रु्लाब की कवलयो ं को लजाती,ं सुरं्ध की लपटें

उडाती, छमछम करती हुई दीिाने-िास में आकर

दनावदरशाह के सामने िडी हो र्यी।ं

वदर शाह ने एक बार कनज्जियो ं से पररयो ं के इस

दल को देिा और तब मसनद की टेक लर्ाकर लेट ना

139

र्या। अपनी तलिार और कटार सामने रि दी। एक क्षि

में उसकी आंिें झपकने लर्ी।ं उसने एक अर्डाई ली और

करिट बदल ली। जरा देर में उसके िरागटो ं की अिाजें

सुनायी देने लर्ी।ं ऐसा जान पडा वक र्हरी वनद्रा में मग्न हो

र्या है। आध घंटे तक िह सोता रहा और बेर्में ज्यो ंकी

त्यो ं वसर वनचा वकये दीिार के वचत्रो ंकी भांवत िडी रही।ं

उनमें दो-एक मवहलाएं जो ढीठ थी,ं घूघंट की ओट से

नावदरशाह को देि भी रही ंथी ंऔर आपस में दबी जबान

में कानाफूसी कर रही थी—ंकैसा भंयकर र्स्रूप है!

वकतनी रिोन्मत आंिें है! वकतना भारी शरीर है! आदमी

काहे को है, देि है।

सहसा नावदरशाह की आंिें िुल र्ई पररयो ंका दल

पूिगित् िडा था। उसे जार्ते देिकर बेर्मो ं ने वसर नीचे

कर वलये और अंर् समेट कर भेडो की भांवत एक दूसरे से

वमल र्यी।ं सबके वदल धडक रहे थे वक अब यह जावलम

नाचने-र्ाने को कहेर्ा, तब कैसे होर्ा! िुदा इस जावलम से

समझे! मर्र नाचा तो न जायेर्ा। चाहे जान ही क्ो ंन जाय।

इससे ज्यादा वजल्लत अब न सही जायर्ी।

सहसा नावदरशाह कठोर शब्ो ंमें बोला—ऐ िुदा की

बंवदयो, मैने तुम्हारा इम्तहान लेने के वलए बुलाया था और

अफसोस के साथ कहना पडता है वक तुम्हारी वनसबत मेरा

जो रु्मान था, िह हफग -ब-हफग सच वनकला। जब वकसी

कौम की औरतो ंमें रै्रत नही ंरहती तो िह कौम मुरदा हो

जाती है।

देिना चाहता था वक तुम लोर्ो ं में अभी कुछ

रै्रत बाकी है या नही।ं इसवलए मैने तुम्हें यहां बुलाया था।

मै तुमहारी बेहुरमली नही ंकरना चाहता था। मैं इतना ऐश

140

का बंदा नही ंहं , िरना आज भेडो के र्ले्ल चाहता होता। न

इतना हिसपरस्त हं, िरना आज फारस में सरोद और

वसतार की तानें सुनाता होता, वजसका मजा मै वहंदुस्तानी

र्ाने से कही ं ज्यादा उठा सकता हं। मुझे वसफग तुम्हारा

इम्तहान लेना था। मुझे यह देिकर सचा मलाल हो रहा है

वक तुममें रै्रत का जौहर बाकी न रहा। क्ा यह मुमवकन

न था वक तुम मेरे हुक्म को पैरो ंतले कुचल देती?ं जब तुम

यहां आ र्यी ंतो मैने तुम्हें एक और मौका वदया। मैने नीदं

का बहाना वकया। क्ा यह मुमवकन न था वक तुममें से

कोई िुदा की बंदी इस कटार को उठाकर मेरे वजर्र में

चुभा देती। मै कलामेपाक की कसम िाकर कहता हं वक

तुममें से वकसी को कटार पर हाथ रिते देिकर मुझे बेहद

िुशी होती, मै उन नाजुक हाथो ं के सामने र्रदन झुका

देता! पर अफसोस है वक आज तैमूरी िानदान की एक

बेटी भी यहां ऐसी नही ंवनकली जो अपनी हुरमत वबर्ाडने

पर हाथ उठाती! अब यह सल्लतनत वजंदा नही ंरह सकती।

इसकी हसती के वदन वर्ने हुए हैं। इसका वनशान बहुत

जल्द दुवनया से वमट जाएर्ा। तुम लोर् जाओ और हो सके

तो अब भी सल्तनत को बचाओ िरना इसी तरह हिस की

रु्लामी करते हुए दुवनया से रुिसत हो जाओर्ी।

141

तेंतर

ज्जिर िही हुआ वजसकी आंशका थी; वजसकी वचंता

में घर के सभी लोर् और विषेशत: प्सूता पडी हुई

थी। तीनो पुत्रो के पश्चात् कन्या का जन्म हुआ। माता सौर में

सूि र्यी, वपता बाहर आंर्न में सूि र्ये, और की िृद्ध

माता सौर द्वार पर सूि र्यी। अनथग, महाअनथग भर्िान् ही

कुशल करें तो हो? यह पुत्री नही ंराक्षसी है। इस अभावर्नी

को इसी घर में जाना था! आना था तो कुछ वदन पहले क्ो ं

न आयी। भर्िान् सातिें शतु्र के घर भी तेंतर का जन्म न

दें।

वपता का नाम था पंवडत दामोदरदत्त। वशवक्षत आदमी

थे। वशक्षा-विभार् ही में नौकर भी थे; मर्र इस संस्कार को

कैसे वमटा देते, जो परम्परा से हृदय में जमा हुआ था, वक

तीसरे बेटे की पीठ पर होने िाली कन्या अभावर्नी होती है,

या वपता को लेती है या वपता को, या अपने को।ं उनकी

िृद्धा माता लर्ी निजात कन्या को पानी पी-पी कर कोसने,

कलमंुही है, कलमुही! न जाने क्ा करने आयी हैं यहां।

वकसी बांझ के घर जाती तो उसके वदन वफर जाते!

दामोदरदत्त वदल में तो घबराये हुए थे, पर माता को

समझाने लरे्—अम्मा तेंतर-बेंतर कुछ नही,ं भर्िान् की

इच्छा होती है, िही होता है। ईश्वर चाहेंरे् तो सब कुशल ही

होर्ा; र्ानेिावलयो ंको बुला लो, नही ंलोर् कहेंरे्, तीन बेटे

हुए तो कैसे फूली वफरती थी,ं एक बेटी हो र्यी तो घर में

कुहराम मच र्या।

माता—अरे बेटा, तुम क्ा जानो इन बातो ंको, मेरे वसर

तो बीत चुकी हैं, प्ाि नही ंमें समाया हुआ हैं तेंतर ही के

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जन्म से तुम्हारे दादा का देहांत हुआ। तभी से तेंतर का नाम

सुनते ही मेरा कलेजा कांप उठता है।

दामोदर—इस कि के वनिारि का भी कोई उपाय

होर्ा?

माता—उपाय बताने को तो बहुत हैं, पंवडत जी से पूछो

तो कोई-न-कोई उपाय बता दें रे्; पर इससे कुछ होता

नही।ं मैंने कौन-से अनुष्ठान नही ंवकये, पर पंवडत जी की तो

मुवट्ठयां र्रम हुईं, यहां जो वसर पर पडना था, िह पड ही

र्या। अब टके के पंवडत रह र्ये हैं, जजमान मरे या वजये

उनकी बला से, उनकी दवक्षिा वमलनी चावहए। (धीरे से)

लकडी दुबली-पतली भी नही ं है। तीनो ंलकडो ंसे हृि-पुि

है। बडी-बडी आंिे है, पतले-पतले लाल-लाल ओठं हैं,

जैसे रु्लाब की पत्ती। र्ोरा-वचट्टा रंर् हैं, लम्बी-सी नाक।

कलमुही नहलाते समय रोयी भी नही,ं टुकुरटुकुर ताकती

रही, यह सब लच्छन कुछ अचे्छ थोडे ही है।

दामोदरदत्त के तीनो ं लडके सांिले थे, कुछ विशेष

रूपिान भी न थे। लडकी के रूप का बिान सुनकर

उनका वचत्त कुछ प्सन्न हुआ। बोले—अम्मा जी, तुम

भर्िान् का नाम लेकर र्ानेिावलयो ंको बुला भेजो,ं र्ाना-

बजाना होने दो। भाग्य में जो कुछ हैं, िह तो होर्ा ही।

माता-जी तो हुलसता नही,ं करंू क्ा?

दामोदर—र्ाना न होने से कि का वनिारि तो होर्ा

नही,ं वक हो जाएर्ा? अर्र इतने ससे्त जान छूटे तो न

कराओ र्ान।

माता—बुलाये लेती हं बेटा, जो कुछ होना था िह तो

हो र्या। इतने में दाई ने सौर में से पुकार कर कहा—

बहजी कहती हैं र्ानािाना कराने का काम नही ंहै।

143

माता—भला उनसे कहो चुप बैठी रहे, बाहर

वनकलकर मनमानी करेंर्ी, बारह ही वदन हैं बहुत वदन नही ं

है; बहुत इतराती वफरती थी—यह न करंूर्ी, िह न

करंूर्ी, देिी क्ा हैं, मरदो ंकी बातें सुनकर िही रट लर्ाने

लर्ी थी,ं तो अब चुपके से बैठती क्ो नही।ं मैं तो तेंतर को

अशुभ नही ं मानती,ं और सब बातो ं में मेमो ं की बराबरी

करती हैं तो इस बात में भी करे।

यह कहकर माता जी ने नाइन को भेजा वक जाकर

र्ानेिावलयो ंको बुला ला, पडोस में भी कहती जाना।

सिेरा होते ही बडा लडका सो कर उठा और आंिे

मलता हुआ जाकर दादी से पूछने लर्ा—बडी अम्मा, कल

अम्मा को क्ा हुआ?

माता—लडकी तो हुई है।

बालक िुशी से उछलकर बोला—ओ-हो-हो पैजवनयां

पहन-पहन कर छुन-छुन चलेर्ी, जरा मुझे वदिा दो दादी

जी?

माता—अरे क्ा सौर में जायर्ा, पार्ल हो र्या है

क्ा?

लडके की उतु्सकता न मानी।ं सौर के द्वार पर जाकर

िडा हो र्या और बोला—अम्मा जरा बच्ची को मुझे वदिा

दो।

दाई ने कहा—बच्ची अभी सोती है।

बालक—जरा वदिा दो, र्ोद में लेकर।

दाई ने कन्या उसे वदिा दी तो िहां से दौडता हुआ

अपने छोटे भाइयें के पास पहंुचा और उन्हें जर्ा-जर्ा कर

िुशिबरी सुनायी।

एक बोला—नन्ही-ंसी होर्ी।

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बडा—वबलकुल नन्ही ं सी! जैसी बडी रु्वडया! ऐसी

र्ोरी है वक क्ा वकसी साहब की लडकी होर्ी। यह लडकी

मैं लंूर्ा।

सबसे छोटा बोला—अमको बी वदका दो।

तीनो ं वमलकर लडकी को देिने आये और िहां से

बर्लें बजाते उछलते-कूदते बाहर आये।

बडा—देिा कैसी है!

मंझला—कैसे आंिें बंद वकये पडी थी।

छोटा—हमें हमें तो देना।

बडा—िूब द्वार पर बारात आयेर्ी, हाथी, घोडे, बाजे

आतशबाजी। मंझला और छोटा ऐसे मग्न हो रहे थे मानो िह

मनोहर दृश्य आंिो के सामने है, उनके सरल नेत्र

मनोल्लास से चमक रहे थे।

मंझला बोला—फुलिाररयां भी होरं्ी।

छोटा—अम बी पूल लेंरे्!

ट्ठी भी हुई, बरही भी हुई, र्ाना-बजाना, िाना-

वपलाना-देना-वदलाना सब-कुछ हुआ; पर रि पूरी

करने के वलए, वदल से नही,ं िुशी से नही।ं लडकी वदन-

वदन दुबगल और अर्स्स्थ होती जाती थी। मां उसे दोनो ंिक्त

अफीम ज्जिला देती और बावलका वदन और रात को नशे में

बेहोश पडी रहती। जरा भी नशा उतरता तो भूि से विकल

होकर रोने लर्ती! मां कुछ ऊपरी दूध वपलाकर अफीम

ज्जिला देती। आश्चयग की बात तो यह थी वक अब की उसकी

छाती में दूध नही ंउतरा। यो ंभी उसे दूध दे से उतरता था;

पर लडको ं की बेर उसे नाना प्कार की दूधिद्धगक

औषवधयां ज्जिलायी जाती, बार-बार वशशु को छाती से

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लर्ाया जाता, यहां तक वक दूध उतर ही आता था; पर अब

की यह आयोजनाएं न की र्यी।ं फूल-सी बच्ची कुम्हलाती

जाती थी। मां तो कभी उसकी ओर ताकती भी न थी। हां,

नाइन कभी चुटवकयां बजाकर चुमकारती तो वशशु के मुि

पर ऐसी दयनीय, ऐसी करूि बेदना अंवकत वदिायी देती

वक िह आंिें पोछंती हुई चली जाती थी। बहु से कुछ

कहने-सुनने का साहस न पडता। बडा लडका वसदु्ध बार-

बार कहता—अम्मा, बच्ची को दो तो बाहर से िेला लाऊं।

पर मां उसे वझडक देती थी।

तीन-चार महीने हो र्ये। दामोदरदत्त रात को पानी

पीने उठे तो देिा वक बावलका जार् रही है। सामने ताि

पर मीठे तेल का दीपक जल रहा था, लडकी टकटकी बांधे

उसी दीपक की ओर देिती थी, और अपना अंरू्ठा चूसने

में मग्न थी। चुभ-चुभ की आिाज आ रही थी। उसका मुि

मुरझाया हुआ था, पर िह न रोती थी न हाथ-पैर फें कती

थी, बस अंरू्ठा पीने में ऐसी मग्न थी मानो ंउसमें सुधा-रस

भरा हुआ है। िह माता के स्तनो ं की ओर मंुह भी नही ं

फेरती थी, मानो उसका उन पर कोई अवधकार है नही,ं

उसके वलए िहां कोई आशा नही।ं बाबू साहब को उस पर

दया आयी। इस बेचारी का मेरे घर जन्म लेने में क्ा दोष

है? मुझ पर या इसकी माता पर कुछ भी पडे, उसमें इसका

क्ा अपराध है? हम वकतनी वनदगयता कर रहे हैं वक कुछ

कज्जल्पत अवनि के कारि इसका इतना वतरस्कार कर रहे

है। मानो ंवक कुछ अमंर्ल हो भी जाय तो क्ा उसके भय

से इसके प्ाि ले वलये जायेंरे्। अर्र अपराधी है तो मेरा

प्ारब्ध है। इस नन्हें-से बचे्च के प्वत हमारी कठोरता क्ा

ईश्वर को अच्छी लर्ती होर्ी? उन्होनें उसे र्ोद में उठा

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वलया और उसका मुि चूमने लरे्। लडकी को कदावचत्

पहली बार सचे्च से्नह का ज्ञान हुआ। िह हाथ-पैर उछाल

कर ‘रंू्-रंू्’ करने लर्ी और दीपक की ओर हाथ फैलाने

लर्ी। उसे जीिन-ज्योवत-सी वमल र्यी।

प्ात:काल दामोदरदत्त ने लडकी को र्ोद में उठा

वलया और बाहर लाये। स्त्री ने बार-बार कहा—उसे पडी

रहने दो। ऐसी कौन-सी बडी सुन्दर है, अभावर्न रात-वदन

तो प्ाि िाती रहती हैं, मर भी नही ं जाती वक जान छूट

जाय; वकंतु दामोदरदत्त ने न माना। उसे बाहर लाये और

अपने बच्चो ंके साथ बैठकर िेलाने लरे्। उनके मकान के

सामने थोडी-सी जमीन पडी हुई थी। पडोस के वकसी

आदमी की एकबकरी उसमें आकर चरा करती थी। इस

समय भी िह चर रही थी। बाबू साहब ने बडे लडके से

कहा—वसदू्ध जरा उस बकरी को पकडो, तो इसे दूध

वपलायें, शायद भूिी है बेचारी! देिो, तुम्हारी नन्ही-ंसी

बहन है न? इसे रोज हिा में िेलाया करो।

वसदु्ध को वदल्लर्ी हाथ आयी। उसका छोटा भाई भी

दौडा। दोनो ने घेर कर बकरी को पकडा और उसका कान

पकडे हुए सामने लाये। वपता ने वशशु का मंुह बकरी थन में

लर्ा वदया। लडकी चुबलाने लर्ी और एक क्षि में दूध की

धार उसके मंुह में जाने लर्ी, मानो वटमवटमाते दीपक में

तेल पड जाये। लडकी का मंुह ज्जिल उठा। आज शायद

पहली बार उसकी कु्षधा तृप्त हुई थी। िह वपता की र्ोद में

हुमक-हुमक कर िेलने लर्ी। लडको ं ने भी उसे िूब

नचाया-कुदाया।

उस वदन से वसदु्ध को मनोरंजन का एक नया विषय

वमल र्या। बालको ंको बच्चो ं से बहुत पे्म होता है। अर्र

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वकसी घोसंनले में वचवडया का बच्चा देि पायं तो बार-बार

िहां जायेंरे्। देिेंर्ें वक माता बचे्च को कैसे दाना चुर्ाती है।

बच्चा कैसे चोचं िोलता हैं। कैसे दाना लेते समय परो ंको

फडफडाकर कर चें-चें करता है। आपस में बडे र्म्भीर

भाि से उसकी चरचा करें रे्, उपने अन्य सावथयो ं को ले

जाकर उसे वदिायेंरे्। वसदू्ध ताक में लर्ा देता, कभी वदन

में दो-दो तीन-तीन बा वपलाता। बकरी को भूसी चोकर

ज्जिलाकार ऐसा परचा वलया वक िह र्स्यं चोकर के लोभ से

चली आती और दूध देकर चली जाती। इस भांवत कोई एक

महीना रु्जर र्या, लडकी हृि-पुि हो र्यी, मुि पुष्प के

समान विकवसत हो र्या। आंिें जर् उठी,ं वशशुकाल की

सरल आभा मन को हरने लर्ी।

माता उसको देि-देि कर चवकत होती थी। वकसी से

कुछ कह तो न सकती; पर वदल में आशंका होती थी वक

अब िह मरने की नही,ं हमी ं लोर्ो ं के वसर जायेर्ी।

कदावचत् ईश्वर इसकी रक्षा कर रहे हैं, जभी तो वदन-वदन

वनिरती आती है, नही,ं अब तक ईश्वर के घर पहंुच र्यी

होती।

र्र दादी माता से कही ंजयादा वचंवतत थी। उसे भ्रम

होने लर्ा वक िह बचे्च को िूब दूध वपला रही हैं,

सांप को पाल रही है। वशशु की ओर आंि उठाकर भी न

देिती। यहां तक वक एक वदन कह बैठी—लडकी का बडा

छोह करती हो? हां भाई, मां हो वक नही,ं तुम न छोह

करोर्ी, तो करेर्ा कौन?

‘अम्मा जी, ईश्वर जानते हैं जो मैं इसे दूध वपलाती

होऊं?’

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‘अरे तो मैं मना थोडे ही करती हं, मुझे क्ा र्रज पडी

है वक मुफ्त में अपने ऊपर पाप लंू, कुछ मेरे वसर तो

जायेर्ी नही।ं’

‘अब आपको विश्वास ही न आये तो क्ा करें ?’

‘मुझे पार्ल समझती हो, िह हिा पी-पी कर ऐसी हो

रही है?’

‘भर्िान् जाने अम्मा, मुझे तो अचरज होता है।’

बह ने बहुत वनदोवषता जतायी; वकंतु िृद्धा सास को

विश्वास न आया। उसने समझा, िह मेरी शंका को वनमूगल

समझती है, मानो ंमुझे इस बच्ची से कोई बैर है। उसके मन

में यह भाि अंकुररत होने लर्ा वक इसे कुछ हो जोये तब

यह समझे वक मैं झठू नही ंकहती थी। िह वजन प्ावियो ंको

अपने प्ािो ं से भी अवधक समझती थी।ं उन्ही ं लोर्ो ं की

अमंर्ल कामना करने लर्ी, केिल इसवलए वक मेरी शंकाएं

सत्य हा जायं। िह यह तो नही ं चाहती थी वक कोई मर

जाय; पर इतना अिश्य चाहती थी वक वकसी के बहाने से मैं

चेता दंू वक देिा, तुमने मेरा कहा न माना, यह उसी का

फल है। उधर सास की ओर से ज्यो-ज्यो ं यह दे्वष-भाि

प्कट होता था, बह का कन्या के प्वत से्नह बढ़ता था। ईश्वर

से मनाती रहती थी वक वकसी भांवत एक साल कुशल से

कट जाता तो इनसे पूछती। कुछ लडकी का भोला-भाला

चेहरा, कुछ अपने पवत का पे्म-िात्सल्य देिकर भी उसे

प्ोत्साहन वमलता था। विवचत्र दशा हो रही थी, न वदल

िोलकर प्यार ही कर सकती थी, न समू्पिग रीवत से वनदगय

होते ही बनता था। न हंसते बनता था न रोते।

इस भांवत दो महीने और रु्जर र्ये और कोई अवनि न

हुआ। तब तो िृद्धा सासि के पेट में चूहें दौडने लरे्। बह

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को दो-चार वदन ज्वर भी नही ं जाता वक मेरी शंका की

मयागदा रह जाये। पुत्र भी वकसी वदन पैरर्ाडी पर से नही ं

वर्र पडता, न बह के मैके ही से वकसी के र्स्र्गिास की

सुनािनी आती है। एक वदन दामोदरदत्त ने िुले तौर पर

कह भी वदया वक अम्मा, यह सब ढकोसला है, तेंतेर

लडवकयां क्ा दुवनया में होती ही नही,ं तो सब के सब मां-

बाप मर ही जाते है? अंत में उसने अपनी शंकाओ ं को

यथाथग वसद्ध करने की एक तरकीब सोच वनकाली। एक

वदन दामोदरदत्त सू्कल से आये तो देिा वक अम्मा जी िाट

पर अचेत पडी हुई हैं, स्त्री अंर्ीठी में आर् रिे उनकी

छाती सेंक रही हैं और कोठरी के द्वार और ज्जिडवकयां बंद

है। घबरा कर कहा—अम्मा जी, क्ा दशा है?

स्त्री—दोपहर ही से कलेजे में एक शूल उठ रहा है,

बेचारी बहुत तडफ रही है।

दामोदर—मैं जाकर ड क्टर साहब को बुला लाऊं न.? देर

करने से शायद रोर् बढ़ जाय। अम्मा जी, अम्मा जी कैसी

तवबयत है?

माता ने आंिे िोली ं और कराहते हुए बोली—बेटा

तुम आ र्ये?

अब न बचंूर्ी, हाय भर्िान्, अब न बचंूर्ी। जैसे कोई

कलेजे में बरछी चुभा रहा हो। ऐसी पीडा कभी न हुई थी।

इतनी उम्र बीत र्यी, ऐसी पीडा कभी न हुई।

स्त्री—िह कलमुही छोकरी न जाने वकस मनहस घडी

में पैदा हुई।

सास—बेटा, सब भर्िान करते है, यह बेचारी क्ा

जाने! देिो मैं मर जाऊं तो उसे कश्ट मत देना। अच्छा

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हुआ मेरे वसर आयी ं वकसी कके वसर तो जाती ही, मेरे ही

वसर सही। हाय भर्िान, अब न बचंूर्ी।

दामोदर—जाकर ड क्टर बुला लाऊं? अभ्भी लौटा

आता हं।

माता जी को केिल अपनी बात की मयागदा वनभानी थी,

रूपये न िच्र कराने थे, बोली—नही ंबेटा, ड क्टर के पास

जाकर क्ा करोरे्? अरे, िह कोई ईश्वर है। ड क्टर के पास

जाकर क्ा करोर्ें? अरे, िह कोई ईश्वर है। ड क्टर अमृत

वपला देर्ा, दस-बीस िह भी ले जायेर्ा! ड क्टर-िैद्य से

कुछ न होर्ा। बेटा, तुम कपडे उतारो, मेरे पास बैठकर

भार्ित पढ़ो। अब न बचंूर्ी। अब न बचंूर्ी, हाय राम!

दामोदर—तेंतर बुरी चीज है। मैं समझता था वक

ढकोसला है।

स्त्री—इसी से मैं उसे कभी नही ंलर्ाती थी।

माता—बेटा, बच्चो ंको आराम से रिना, भर्िान तुम

लोर्ो ं को सुिी रिें। अच्छा हुआ मेरे ही वसर र्यी, तुम

लोर्ो ंके सामने मेरा परलोक हो जायेर्ा। कही ंवकसी दूसरे

के वसर जाती तो क्ा होता राम! भर्िान् ने मेरी विनती सुन

ली। हाय! हाय!!

दामोदरदत्त को वनश्चय हो र्या वक अब अम्मा न

बचेंर्ी। बडा दु:ि हुआ। उनके मन की बात होती तो िह

मां के बदले तेंतर को न र्स्ीकार करते। वजस जननी ने

जन्म वदया, नाना प्कार के कि झेलकर उनका पालन-

पोषि वकया, अकाल िैधव्य को प्ाप्त होकर भी उनकी

वशक्षा का प्बंध वकया, उसके सामने एक दुधमुही ंबच्ची का

कया मूल्य था, वजसके हाथ का एक वर्लास पानी भी िह न

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जानते थे। शोकातुर हो कपडे उतारे और मां के वसरहाने

बैठकर भार्ित की कथा सुनाने लरे्।

रात को बह भोजन बनाने चली तो सास से बोली—

अम्मा जी, तुम्हारे वलए थोडा सा साबूदाना छोड दंू?

माता ने वं्यग्य करके कहा—बेटी, अन्य वबना न मारो,

भला साबूदाना मुझसे िया जायेर्ा; जाओ,ं थोडी पूररयां

छान लो। पडे-पडे जो कुछ इच्छा होर्ी, िा लंूर्ी, कचौररयां

भी बना लेना। मरती हं तो भोजन को तरस-तरस क्ो ं

मरंू। थोडी मलाई भी मंर्िा लेना, चौक की हो। वफर थोडे

िाने आऊंर्ी बेटी। थोडे-से केले मंर्िा लेना, कलेजे के

ददग में केले िाने से आराम होता है।

भोजन के समय पीडा शांत हो र्यी; लेवकन आध घंटे

बाद वफर जोर से होने लर्ी। आधी रात के समय कही ं

जाकर उनकी आंि लर्ी। एक सप्ताह तक उनकी यही

दशा रही, वदन-भर पडी कराहा करती ं बस भोजन के

समय जरा िेदना कम हो जाती। दामोदरदत्त वसरहाने बैठे

पंिा झलते और मातृ़वियोर् के आर्त शोक से रोते। घर

की महरी ने मुहले्ल-भर में एक िबर फैला दी; पडोवसनें

देिने आयी,ं तो सारा इलजाम बावलका के वसर र्या।

एक ने कहा—यह तो कहो बडी कुशल हुई वक बुवढ़या

के वसर र्यी; नही ंतो तेंतर मां-बाप दो में से एक को लेकर

तभी शांत होती है। दैि न करे वक वकसी के घर तेंतर का

जन्म हो।

दूसरी बोली—मेरे तो तेंतर का नाम सुनते ही रोयें िडे

हो जाते है। भर्िान् बांझ रिे पर तेंतर का जन्म न दें।

एक सप्ताह के बाद िृद्धा का कि वनिारि हुआ, मरने

में कोई कसर न थी, िह तो कहो ं पुरूिाओ ं का पुण्य-

152

प्ताप था। ब्राह्मिो ंको र्ोदान वदया र्या। दुर्ाग-पाठ हुआ,

तब कही ंजाके संकट कटा।

153

नैराश्य

ज आदमी अपनी स्त्री से इसवलए नाराज रहते हैं वक

उसके लडवकयां ही क्ो ंहोती हैं, लडके क्ो ंनही ं

होते। जानते हैं वक इनमें स्त्री को दोष नही ं है, या है तो

उतना ही वजतना मेरा, वफर भी जब देज्जिए स्त्री से रूठे

रहते हैं, उसे अभावर्नी कहते हैं और सदैि उसका वदल

दुिाया करते हैं। वनरुपमा उन्ही अभावर्नी ज्जस्त्रयो ं में थी

और घमंडीलाल वत्रपाठी उन्ही ं अत्याचारी पुरुषो ं में।

वनरुपमा के तीन बेवटयां लर्ातार हुई थी ंऔर िह सारे घर

की वनर्ाहो ंसे वर्र र्यी थी। सास-ससुर की अप्सन्नता की

तो उसे विशेष वचंता न थी, िह पुराने जमाने के लोर् थे, जब

लडवकयां र्रदन का बोझ और पूिगजन्मो ं का पाप समझी

जाती थी।ं हां, उसे दु:ि अपने पवतदेि की अप्सन्नता का

था जो पढे़-वलिे आदमी होकर भी उसे जली-कटी सुनाते

रहते थे। प्यार करना तो दूर रहा, वनरुपमा से सीधे मंुह बात

न करते, कई-कई वदनो ंतक घर ही में न आते और आते

तो कुछ इस तरह ज्जिंचे-तने हुए रहते वक वनरुपमा थर-थर

कांपती रहती थी, कही ंर्रज न उठें । घर में धन का अभाि

न था; पर वनरुपमा को कभी यह साहस न होता था वक

वकसी सामान्य िसु्त की इच्छा भी प्कट कर सके। िह

समझती थी, में यथाथग में अभावर्नी हं, नही ंतो भर्िान् मेरी

कोि में लडवकयां ही रचते। पवत की एक मृदु मुस्कान के

वलए, एक मीठी बात के वलए उसका हृदय तडप कर रह

जाता था। यहां तक वक िह अपनी लडवकयो ं को प्यार

करते हुए सकुचाती थी वक लोर् कहेंरे्, पीतल की नथ पर

इतना रु्मान करती है। जब वत्रपाठी जी के घर में आने का

बा

154

समय होता तो वकसी-न-वकसी बहाने से िह लडवकयो ंको

उनकी आंिो ंसे दूर कर देती थी। सबसे बडी विपवत्त यह

थी वक वत्रपाठी जी ने धमकी दी थी वक अब की कन्या हुई

तो घर छोडकर वनकल जाऊंर्ा, इस नरक में क्षि-भर न

ठहरंूर्ा। वनरुपमा को यह वचंता और भी िाये जाती थी।

िह मंर्ल का व्रत रिती थी, रवििार, वनजगला

एकादसी और न जाने वकतने व्रत करती थी। स्नान-पूजा तो

वनत्य का वनयम था; पर वकसी अनुष्ठान से मनोकामना न

पूरी होती थी। वनत्य अिहेलना, वतरस्कार, उपेक्षा, अपमान

सहते-सहते उसका वचत्त संसार से विरक्त होता जाता था।

जहां कान एक मीठी बात के वलए, आंिें एक पे्म-दृवि के

वलए, हृदय एक आवलंर्न के वलए तरस कर रह जाये, घर

में अपनी कोई बात न पूछे, िहां जीिन से क्ो ंन अरुवच हो

जाय?

एक वदन घोर वनराशा की दशा में उसने अपनी बडी

भािज को एक पत्र वलिा। एक-एक अक्षर से असह्य िेदना

टपक रही थी। भािज ने उत्तर वदया—तुम्हारे भैया जल्द

तुम्हें विदा कराने जायेंरे्। यहां आजकल एक सचे्च महात्मा

आये हुए हैं वजनका आशीिाद कभी वनष्फल नही ं जाता।

यहां कई संतानहीन ज्जस्त्रयां उनक आशीिाद से पुत्रिती हो

र्यी।ं पूिग आशा है वक तुम्हें भी उनका आशीिाद

कल्यािकारी होर्ा।

वनरुपमा ने यह पत्र पवत को वदिाया। वत्रपाठी जी

उदासीन भाि से बोले—सृवि-रचना महात्माओ ंके हाथ का

काम नही,ं ईश्वर का काम है।

वनरुपमा—हां, लेवकन महात्माओ ंमें भी तो कुछ वसज्जद्ध

होती है।

155

घमंडीलाल—हां होती है, पर ऐसे महात्माओ ंके दशगन

दुलगभ हैं।

वनरुपमा—मैं तो इस महात्मा के दशगन करंुर्ी।

घमंडीलाल—चली जाना।

वनरुपमा—जब बांवझनो ंके लडके हुए तो मैं क्ा उनसे

भी र्यी-रु्जरी हं।

घमंडीलाल—कह तो वदया भाई चली जाना। यह

करके भी देि लो। मुझे तो ऐसा मालूम होता है, पुत्र का

मुि देिना हमारे भाग्य में ही नही ंहै।

2

ई वदन बाद वनरुपमा अपने भाई के साथ मैके र्यी।

तीनो ंपुवत्रयां भी साथ थी।ं भाभी ने उन्हें पे्म से र्ले

लर्ाकर कहा, तुम्हारे घर के आदमी बडे वनदगयी हैं। ऐसी

रु्लाब –फूलो ंकी-सी लडवकयां पाकर भी तकदीर को रोते

हैं। ये तुम्हें भारी हो ंतो मुझे दे दो। जब ननद और भािज

भोजन करके लेटी ंतो वनरुपमा ने पूछा—िह महात्मा कहां

रहते हैं?

भािज—ऐसी जल्दी क्ा है, बता दंूर्ी।

वनरुपमा—है नर्ीच ही न?

भािज—बहुत नर्ीच। जब कहोर्ी, उन्हें बुला दंूर्ी।

वनरुपमा—तो क्ा तुम लोर्ो ंपर बहुत प्सन्न हैं?

भािज—दोनो ं िक्त यही ं भोजन करते हैं। यही ं रहते

हैं।

वनरुपमा—जब घर ही में िैद्य तो मररये क्ो?ं आज

मुझे उनके दशगन करा देना।

भािज—भेंट क्ा दोर्ी?

वनरुपमा—मैं वकस लायक हं?

156

भािज—अपनी सबसे छोटी लडकी दे देना।

वनरुपमा—चलो, र्ाली देती हो।

भािज—अच्छा यह न सही, एक बार उन्हें पे्मावलंर्न

करने देना।

वनरुपमा—चलो, र्ाली देती हो।

भािज—अच्छा यह न सही, एक बार उन्हें पे्मावलंर्न

करने देना।

वनरुपमा—भाभी, मुझसे ऐसी हंसी करोर्ी तो मैं चली

आऊंर्ी।

भािज—िह महात्मा बडे रवसया हैं।

वनरुपमा—तो चूले्ह में जायं। कोई दुि होर्ा।

भािज—उनका आशीिाद तो इसी शतग पर वमलेर्ा।

िह और कोई भेंट र्स्ीकार ही नही ंकरते।

वनरुपमा—तुम तो यो ं बातें कर रही हो मानो उनकी

प्वतवनवध हो।

भािज—हां, िह यह सब विषय मेरे ही द्वारा तय वकया

करते हैं। मैं भेंट लेती हं। मैं ही आशीिाद देती हं, मैं ही

उनके वहताथग भोजन कर लेती हं।

वनरुपमा—तो यह कहो वक तुमने मुझे बुलाने के वलए

यह हीला वनकाला है।

भािज—नही,ं उनके साथ ही तुम्हें कुछ ऐसे रु्र दंूर्ी

वजससे तुम अपने घर आराम से रहा।

इसके बाद दोनो ंसज्जियो ंमें कानाफूसी होने लर्ी। जब

भािज चुप हुई तो वनरुपमा बोली—और जो कही ंवफर क्ा

ही हुई तो?

भािज—तो क्ा? कुछ वदन तो शांवत और सुि से

जीिन कटेर्ा। यह वदन तो कोई लौटा न लेर्ा। पुत्र हुआ तो

157

कहना ही क्ा, पुत्री हुई तो वफर कोई नयी युज्जक्त वनकाली

जायेर्ी। तुम्हारे घर के जैसे अक् के दुश्मनो ंके साथ ऐसी

ही चालें चलने से रु्जारा है।

वनरुपमा—मुझे तो संकोच मालूम होता है।

भािज—वत्रपाठी जी को दो-चार वदन में पत्र वलि देना

वक महात्मा जी के दशगन हुए और उन्होनें मुझे िरदान वदया

है। ईश्वर ने चाहा तो उसी वदन से तुम्हारी मान-प्वतष्ठा होने

लर्ी। घमंडी दौडे हुए आयेंरे् और तम्हारे ऊपर प्ाि

वनछािर करें रे्। कम-से-कम साल भर तो चैन की िंशी

बजाना। इसके बाद देिी जायेर्ी।

वनरुपमा—पवत से कपट करंू तो पाप न लरे्र्ा?

भािज—ऐसे र्स्ावथगयो ंसे कपट करना पुण्य है।

3

न चार महीने के बाद वनरुपमा अपने घर आयी।

घमंडीलाल उसे विदा कराने र्ये थे। सलहज ने

महात्मा जी का रंर् और भी चोिा कर वदया। बोली—ऐसा

तो वकसी को देिा नही ंवक इस महात्मा जी ने िरदान वदया

हो और िह पूरा न हो र्या हो। हां, वजसका भाग्य फूट जाये

उसे कोई क्ा कर सकता है।

घमंडीलाल प्त्यक्ष तो िरदान और आशीिाद की

उपेक्षा ही करते रहे, इन बातो ंपर विश्वास करना आजकल

संकोचजनक मालूम होता ह; पर उनके वदल पर असर

जरूर हुआ।

वनरुपमा की िावतरदाररयां होनी शुरू हुईं। जब िह

र्भगिती हुई तो सबके वदलो ं में नयी-नयी आशाएं वहलोरें

लेने लर्ी। सास जो उठते र्ाली और बैठते वं्यग्य से बातें

करती थी ंअब उसे पान की तरह फेरती—बेटी, तुम रहने

ती

158

दो, मैं ही रसोई बना लंूर्ी, तुम्हारा वसर दुिने लरे्र्ा। कभी

वनरुपमा कलसे का पानी या चारपाई उठाने लर्ती तो सास

दौडती—बह,रहने दो, मैं आती हं, तुम कोई भारी चीज मत

उठाया करा। लडवकयो ं की बात और होती है, उन पर

वकसी बात का असर नही ंहोता, लडके तो र्भग ही में मान

करने लर्ते हैं। अब वनरुपमा के वलए दूध का उठौना वकया

र्या, वजससे बालक पुि और र्ोरा हो। घमंडी िस्त्राभूषिो ं

पर उतारू हो र्ये। हर महीने एक-न-एक नयी चीज लाते।

वनरुपमा का जीिन इतना सुिमय कभी न था। उस समय

भी नही ंजब निेली िधू थी।

महीने रु्जरने लरे्। वनरूपमा को अनुभूत लक्षिो ं से

विवदत होने लर्ा वक यह कन्या ही है; पर िह इस भेद को

रु्प्त रिती थी। सोचती, सािन की धूप है, इसका क्ा

भरोसा वजतनी चीज धूप में सुिानी हो सुिा लो, वफर तो

घटा छायेर्ी ही। बात-बात पर वबर्डती। िह कभी इतनी

मानशीला न थी। पर घर में कोई चंू तक न करता वक कही ं

बह का वदल न दुिे, नही ं बालक को कि होर्ा। कभी-

कभी वनरुपमा केिल घरिालो ंको जलाने के वलए अनुष्ठान

करती, उसे उन्हें जलाने में मजा आता था। िह सोचती, तुम

र्स्ावथगयो ंको वजतना जलाऊं उतना अच्छा! तुम मेरा आदर

इसवलए करते हो न वक मैं बच्च जनंूर्ी जो तुम्हारे कुल का

नाम चलायेर्ा। मैं कुछ नही ं हं, बालक ही सब-कुछ है।

मेरा अपना कोई महत्व नही,ं जो कुछ है िह बालक के

नाते। यह मेरे पवत हैं! पहले इन्हें मुझसे वकतना पे्म था, तब

इतने संसार-लोलुप न हुए थे। अब इनका पे्म केिल र्स्ाथग

का र्स्ांर् है। मैं भी पशु हं वजसे दूध के वलए चारा-पानी

वदया जाता है। िैर, यही सही, इस िक्त तो तुम मेरे काबू में

159

आये हो! वजतने र्हने बन सकें बनिा लंू, इन्हें तो छीन न

लोरे्।

इस तरह दस महीने पूरे हो र्ये। वनरुपमा की दोनो ं

ननदें ससुराल से बुलायी र्यी।ं बचे्च के वलए पहले ही सोने

के र्हने बनिा वलये र्ये, दूध के वलए एक सुन्दर दुधार र्ाय

मोल ले ली र्यी, घमंडीलाल उसे हिा ज्जिलाने को एक

छोटी-सी सेजर्ाडी लाये। वजस वदन वनरूपमा को प्सि-

िेदना होने लर्ी, द्वार पर पंवडत जी मुहतग देिने के वलए

बुलाये र्ये। एक मीरवशकार बंदूक छोडने को बुलाया र्या,

र्ायनें मंर्ल-र्ान के वलए बटोर ली र्यी।ं घर से वतल-वतल

कर िबर मंर्ायी जाती थी, क्ा हुआ? लेडी ड क्टर भी

बुलायी र्यी।ं बाजे िाले हुक्म के इंतजार में बैठे थे। पामर

भी अपनी सारंर्ी वलये ‘जच्चा मान करे नंदलाल सो’ं की

तान सुनाने को तैयार बैठा था। सारी तैयाररयां; सारी

आशाएं, सारा उत्साह समारोह एक ही शब् पर अिलज्जम्ब

था। ज्यो-ंज्यो ंदेर होती थी लोर्ो ंमें उतु्सकता बढ़ती जाती

थी। घमंडीलाल अपने मनोभािो ं को वछपाने के वलए एक

समाचार –पत्र देि रहे थे, मानो उन्हें लडका या लडकी

दोनो ं ही बराबर हैं। मर्र उनके बूढे़ वपता जी इतने

सािधान न थे। उनकी पीछें ज्जिली जाती थी,ं हंस-हंस कर

सबसे बात कर रहे थे और पैसो ंकी एक थैली को बार-बार

उछालते थे।

मीरवशकार ने कहा—मावलक से अबकी पर्डी दुपट्टा

लंूर्ा।

वपताजी ने ज्जिलकर कहा—अबे वकतनी पर्वडयां

लेर्ा? इतनी बेभाि की दंूर्ा वक सर के बाल रं्जे हो

जायेंरे्।

160

पामर बोला—सरकार अब की कुछ जीविका लंू।

वपताजी ज्जिलकर बोले—अबे वकतनी िायेर्ा; ज्जिला-

ज्जिला कर पेट फाड दंूर्ा।

सहसा महरी घर में से वनकली। कुछ घबरायी-सी थी।

िह अभी कुछ बोलने भी न पायी थी वक मीरवशकार ने

बनू्दक फैर कर ही तो दी। बनू्दक छूटनी थी वक रोशन

चौकी की तान भी वछड र्यी, पामर भी कमर कसकर

नाचने को िडा हो र्या।

महरी—अरे तुम सब के सब भंर् िा र्ये हो र्या?

मीरवशकार—क्ा हुआ?

महरी—हुआ क्ा लडकी ही तो वफर हुई है?

वपता जी—लडकी हुई है?

यह कहते-कहते िह कमर थामकर बैठ र्ये मानो िज्र

वर्र पडा। घमंडीलाल कमरे से वनकल आये और बोले—

जाकर लेडी डाक्टर से तो पूछ। अच्छी तरह देि न ले।

देिा सुना, चल िडी हुई।

महरी—बाबूजी, मैंने तो आंिो ंदेिा है!

घमंडीलाल—कन्या ही है?

वपता—हमारी तकदीर ही ऐसी है बेटा! जाओ रे सब

के सब! तुम सभी के भाग्य में कुछ पाना न वलिा था तो

कहां से पाते। भार् जाओ। सैंकडो ं रुपये पर पानी वफर

र्या, सारी तैयारी वमट्टी में वमल र्यी।

घमंडीलाल—इस महात्मा से पूछना चावहए। मैं आज

डाक से जरा बचा की िबर लेता हं।

वपता—धूतग है, धूतग!

घमंडीलाल—मैं उनकी सारी धूतगता वनकाल दंूर्ा। मारे

डंडो ंके िोपडी न तोड दंू तो कवहएर्ा। चांडाल कही ंका!

161

उसके कारि मेरे सैंकडो ं रुपये पर पानी वफर र्या। यह

सेजर्ाडी, यह र्ाय, यह पलना, यह सोने के र्हने वकसके

वसर पटकंू। ऐसे ही उसने वकतनो ंही को ठर्ा होर्ा। एक

दफा बचा ही मरम्मत हो जाती तो ठीक हो जाते।

वपता जी—बेटा, उसका दोष नही,ं अपने भाग्य का

दोष है।

घमंडीलाल—उसने क्ो ंकहा ऐसा नही ंहोर्ा। औरतो ं

से इस पािंड के वलए वकतने ही रुपये ऐठें होरें्। िह सब

उन्हें उर्लना पडेर्ा, नही ं तो पुवलस में रपट कर दंूर्ा।

कानून में पािंड का भी तो दंड है। मैं पहले ही चौकंा था

वक हो न हो पािंडी है; लेवकन मेरी सलहज ने धोिा वदया,

नही ंतो मैं ऐसे पावजयो ंके पंजे में कब आने िाला था। एक

ही सुअर है।

वपताजी—बेटा सब्र करो। ईश्वर को जो कुछ मंजूर था,

िह हुआ। लडका-लडकी दोनो ं ही ईश्वर की देन है, जहां

तीन हैं िहां एक और सही।

वपता और पुत्र में तो यह बातें होती रही।ं पामर,

मीरवशकार आवद ने अपने-अपने डंडे संभाले और अपनी

राह चले। घर में मातम-सा छा र्या, लेडी ड क्टर भी विदा

कर दी र्यी, सौर में जच्चा और दाई के वसिा कोई न रहा।

िृद्धा माता तो इतनी हताश हुई वक उसी िक्त अटिास-

िटिास लेकर पड रही।ं

जब बचे्च की बरही हो र्यी तो घमंडीलाल स्त्री के

पास र्ये और सरोष भाि से बोले—वफर लडकी हो र्यी!

वनरुपमा—क्ा करंू, मेरा क्ा बस?

घमंडीलाल—उस पापी धूतग ने बडा चकमा वदया।

162

वनरुपमा—अब क्ा कहें, मेरे भाग्य ही में न होर्ा, नही ं

तो िहां वकतनी ही औरतें बाबाजी को रात-वदन घेरे रहती

थी।ं िह वकसी से कुछ लेते तो कहती वक धूतग हैं, कसम ले

लो जो मैंने एक कौडी भी उन्हें दी हो।

घमंडीलाल—उसने वलया या न वलया, यहां तो वदिाला

वनकल र्या। मालूम हो र्या तकदीर में पुत्र नही ंवलिा है।

कुल का नाम डूबना ही है तो क्ा आज डूबा, क्ा दस साल

बाद डूबा। अब कही ं चला जाऊंर्ा, रृ्हस्थी में कौन-सा

सुि रिा है।

िह बहुत देर तक िडे-िडे अपने भाग्य को रोते रहे;

पर वनरुपमा ने वसर तक न उठाया।

वनरुपमा के वसर वफर िही विपवत्त आ पडी, वफर िही

ताने, िही अपमान, िही अनादर, िही छीछालेदार, वकसी

को वचंता न रहती वक िाती-पीती है या नही,ं अच्छी है या

बीमार, दुिी है या सुिी। घमंडीलाल यद्यवप कही ं न र्ये,

पर वनरूपमा को यही धमकी प्ाय: वनत्य ही वमलती रहती

थी। कई महीने यो ंही रु्जर र्ये तो वनरूपमा ने वफर भािज

को वलिा वक तुमने और भी मुझे विपवत्त में डाल वदया।

इससे तो पहले ही भली थी। अब तो काई बात भी नही ं

पूछता वक मरती है या जीती है। अर्र यही दशा रही तो

र्स्ामी जी चाहे संन्यास लें या न लें, लेवकन मैं संसार को

अिश्य त्यार् दंूर्ी।

4

भी य पत्र पाकर पररज्जस्थवत समझ र्यी। अबकी

उसने वनरुपमा को बुलाया नही,ं जानती थी वक लोर्

विदा ही न करें रे्, पवत को लेकर र्स्यं आ पहंुची। उसका

नाम सुकेशी था। बडी वमलनसार, चतुर विनोदशील स्त्री

भा

163

थी। आते ही आते वनरुपमा की र्ोद में कन्या देिी तो

बोली—अरे यह क्ा?

सास—भाग्य है और क्ा?

सुकेशी—भाग्य कैसा? इसने महात्मा जी की बातें भुला

दी होरं्ी। ऐसा तो हो ही नही ं सकता वक िह मंुह से जो

कुछ कह दें , िह न हो। क्ो ंजी, तुमने मंर्ल का व्रत रिा?

वनरुपमा—बराबर, एक व्रत भी न छोडा।

सुकेशी—पांच ब्राह्मिो ं को मंर्ल के वदन भोजन

कराती रही?

वनरुपमा—यह तो उन्होनें नही ंकहा था।

सुकेशी—तुम्हारा वसर, मुझे िूब याद है, मेरे सामने

उन्होनें बहुत जोर देकर कहा था। तुमने सोचा होर्ा,

ब्राह्मिो ं को भोजन कराने से क्ा होता है। यह न समझा

वक कोई अनुष्ठान सफल नही ं होता जब तक विवधित्

उसका पालन न वकया जाये।

सास—इसने कभी इसकी चचाग ही नही ं की;नही;ंपांच

क्ा दस ब्राह्मिो ंको वजमा देती। तुम्हारे धमग से कुछ कमी

नही ंहै।

सुकेशी—कुछ नही,ं भूल हो र्यी और क्ा। रानी, बेटे

का मंुह यो ं देिना नसीब नही ं होता। बडे-बडे जप-तप

करने पडते हैं, तुम मंर्ल के व्रत ही से घबरा र्यी?ं

सास—अभावर्नी है और क्ा?

घमंडीलाल—ऐसी कौन-सी बडी बातें थी,ं जो याद न

रही?ं िह हम लोर्ो ंको जलाना चाहती है।

सास—िही तो कहं वक महात्मा की बात कैसे वनष्फल

हुई। यहां सात बरसो ंते ‘तुलसी माई’ को वदया चढ़ाया, जब

जा के बचे्च का जन्म हुआ।

164

घमंडीलाल—इन्होनें समझा था दाल-भात का कौर है!

सुकेशी—िैर, अब जो हुआ सो हुआ कल मंर्ल है,

वफर व्रत रिो और अब की सात ब्राह्मिो ं को वजमाओ,

देिें, कैसे महात्मा जी की बात नही ंपूरी होती।

घमंडीलाल-व्यथग है, इनके वकये कुछ न होर्ा।

सुकेशी—बाबूजी, आप विद्वान समझदार होकर इतना

वदल छोटा करते हैं। अभी आपककी उम्र क्ा है। वकतने

पुत्र लीवजएर्ा? नाको ंदम न हो जाये तो कवहएर्ा।

सास—बेटी, दूध-पूत से भी वकसी का मन भरा है।

सुकेशी—ईश्वर ने चाहा तो आप लोर्ो ं का मन भर

जायेर्ा। मेरा तो भर र्या।

घमंडीलाल—सुनती हो महारानी, अबकी कोई

र्ोलमोल मत करना। अपनी भाभी से सब ब्योरा अच्छी

तरह पूछ लेना।

सुकेशी—आप वनवशं्चत रहें, मैं याद करा दंूर्ी; क्ा

भोजन करना होर्ा, कैसे रहना होर्ा कैसे स्नान करना

होर्ा, यह सब वलिा दंूर्ी और अम्मा जी, आज से अठारह

मास बाद आपसे कोई भारी इनाम लंूर्ी।

सुकेशी एक सप्ताह यहां रही और वनरुपमा को िूब

वसिा-पढ़ा कर चली र्यी।

5

रुपमा का एकबाल वफर चमका, घमंडीलाल अबकी

इतने आश्वावसत से रानी हुई, सास वफर उसे पान की

भांवत फेरने लर्ी, लोर् उसका मंुह जोहने लरे्।

वदन रु्जरने लरे्, वनरुपमा कभी कहती अम्मां जी,

आज मैंने र्स्प्न देिा वक िृद्ध स्त्री ने आकर मुझे पुकारा

और एक नाररयल देकर बोली, ‘यह तुम्हें वदये जाती हं;

वन

165

कभी कहती,’अम्मां जी, अबकी न जाने क्ो ं मेरे वदल में

बडी-बडी उमंर्ें पैदा हो रही हैं, जी चाहता है िूब र्ाना

सुनंू, नदी में िूब स्नान करंू, हरदम नशा-सा छाया रहता

है। सास सुनकर मुस्कराती और कहती—बह ये शुभ

लक्षि हैं।

वनरुपमा चुपके-चुपके माजूर मंर्ाकर िाती और

अपने असल नेत्रो ंसे ताकते हुए घमंडीलाल से पूछती-मेरी

आंिें लाल हैं क्ा?

घमंडीलाल िुश होकर कहते—मालूम होता है, नशा

चढ़ा हुआ है। ये शुभ लक्षि हैं।

वनरुपमा को सुरं्धो ंसे कभी इतना पे्म न था, फूलो ंके

र्जरो ंपर अब िह जान देती थी।

घमंडीलाल अब वनत्य सोते समय उसे महाभारत की

िीर कथाएं पढ़कर सुनाते, कभी रु्रु र्ोविंदवसंह कीवतग का

ििगन करते। अवभमनु्य की कथा से वनरुपमा को बडा पे्म

था। वपता अपने आने िाले पुत्र को िीर-संस्कारो ं से

पररपूररत कर देना चाहता था।

एक वदन वनरुपमा ने पवत से कहा—नाम क्ा रिोरे्?

घमंडीलाल—यह तो तुमने िूब सोचा। मुझे तो इसका

ध्यान ही न रहा। ऐसा नाम होना चावहए वजससे शौयग और

तेज टपके। सोचो कोई नाम।

दोनो ंप्ािी नामो ंकी व्याख्या करने लरे्। जोरािरलाल

से लेकर हररश्चन्द्र तक सभी नाम वर्नाये र्ये, पर उस

असामान्य बालक के वलए कोई नाम न वमला। अंत में पवत

ने कहा तेर्बहादुर कैसा नाम है।

वनरुपमा—बस-बस, यही नाम मुझे पसन्द है?

166

घमंडी लाल—नाम ही तो सब कुछ है। दमडी,

छकौडी, घुरह, कतिारू, वजसके नाम देिे उसे भी ‘यथा

नाम तथा रु्ि’ ही पाया। हमारे बचे्च का नाम होर्ा

तेर्बहादुर।

6

सि-काल आ पहंुचा। वनरुपमा को मालूम था वक

क्ा होने िाली है; लेवकन बाहर मंर्लाचरि का पूरा

सामान था। अबकी वकसी को लेशमात्र भी संदेह न था।

नाच, र्ाने का प्बंध भी वकया र्या था। एक शावमयाना

िडा वकया र्या था और वमत्रर्ि उसमें बैठे िुश-र्ज्जप्पयां

कर रहे थे। हलिाई कडाई से पूररयां और वमठाइयां

वनकाल रहा था। कई बोरे अनाज के रिे हुए थे वक शुभ

समाचार पाते ही वभकु्षको ंको बांटे जायें। एक क्षि का भी

विलम्ब न हो, इसवलए बोरो ंके मंुह िोल वदये र्ये थे।

लेवकन वनरुपमा का वदल प्वतक्षि बैठा जाता था। अब

क्ा होर्ा? तीन साल वकसी तरह कौशल से कट र्ये और

मजे में कट र्ये, लेवकन अब विपवत्त वसर पर मंडरा रही है।

हाय! वनरपराध होने पर भी यही दंड! अर्र भर्िान् की

इच्छा है वक मेरे र्भग से कोई पुत्र न जन्म ले तो मेरा क्ा

दोष! लेवकन कौन सुनता है। मैं ही अभावर्नी हं मैं ही

त्याज्य हं मैं ही कलमंुही हं इसीवलए न वक परिश हं! क्ा

होर्ा? अभी एक क्षि में यह सारा आनंदात्सि शोक में डूब

जायेर्ा, मुझ पर बौछारें पडने लर्ेंर्ी, भीतर से बाहर तक

मुझी को कोसेंरे्, सास-ससुर का भय नही,ं लेवकन र्स्ामी

जी शायद वफर मेरा मंुह न देिें, शायद वनराश होकर घर-

बार त्यार् दें। चारो ंतरफ अमंर्ल ही अमंर्ल हैं मैं अपने

घर की, अपनी संतान की दुदगशा देिने के वलए क्ो ंजीवित

प्

167

हं। कौशल बहुत हो चुका, अब उससे कोई आशा नही।ं मेरे

वदल में कैसे-कैसे अरमान थे। अपनी प्यारी बज्जच्चयो ं का

लालन-पालन करती, उन्हें ब्याहती, उनके बच्चो ं को

देिकर सुिी होती। पर आह! यह सब अरमान झाक में

वमले जाते हैं। भर्िान्! तुम्ही अब इनके वपता हो, तुम्ही ं

इनके रक्षक हो। मैं तो अब जाती हं।

लेडी ड क्टर ने कहा—िेल! वफर लडकी है।

भीतर-बाहर कुहराम मच र्या, वपट्टस पड र्यी।

घमंडीलाल ने कहा—जहनु्नम में जाये ऐसी वजंदर्ी, मौत भी

नही ंआ जाती!

उनके वपता भी बोले—अभावर्नी है, िज्र अभावर्नी!

वभकु्षको ं ने कहा—रोओ अपनी तकदीर को हम कोई

दूसरा द्वार देिते हैं।

अभी यह शोकादर्ार शांत न होने पाया था वक ड क्टर

ने कहा मां का हाल अच्छा नही ं है। िह अब नही ं बच

सकती। उसका वदल बंद हो र्या है।

168

दण्ड

संध्या का समय था। कचहरी उठ र्यी थी। अहलकार

चपरासी जेबें िनिनाते घर जा रहे थे। मेहतर कूडे टटोल

रहा था वक शायद कही ं पैसे वमल जायें। कचहरी के

बरामदो ंमें सांडो ं ने िकीलो ंकी जर्ह ले ली थी। पेडो ं के

नीचे मुहररग रो ंकी जर्ह कुते्त बैठे नजर आते थे। इसी समय

एक बूढ़ा आदमी, फटे-पुराने कपडे पहने, लाठी टेकता

हुआ, जंट साहब के बंर्ले पर पहंुचा और सायबान में िडा

हो र्या। जंट साहब का नाम था वमस्टर जी0 वसनहा।

अरदली ने दूर ही से ललकारा—कौन सायबान में िडा है?

क्ा चाहता है।

बूढ़ा—र्रीब बाम्हान हं भैया, साहब से भेंट होर्ी?

अरदली—साहब तुम जैसो ंसे नही ंवमला करते।

बूढे़ ने लाठी पर अकड कर कहा—क्ो ं भाई, हम

िडे हैं या डाकू-चोर हैं वक हमारे मंुह में कुछ लर्ा हुआ

है?

अरदली—भीि मांर् कर मुकदमा लडने आये होरें्?

बूढ़ा—तो कोई पाप वकया है? अर्र घर बेचकर नही ं

लडते तो कुछ बुरा करते हैं? यहां तो मुकदमा लडते-लडते

उमर बीत र्यी; लेवकन घर का पैसा नही ंिरचा। वमयां की

जूती वमयां का वसर करते हैं। दस भलेमानसो ंसे मांर् कर

एक को दे वदया। चलो छुट्टी हुई। र्ांि भर नाम से कांपता

है। वकसी ने जरा भी वटर-वपर की और मैंने अदालत में

दािा दायर वकया।

अरदली—वकसी बडे आदमी से पाला नही ंपडा अभी?

169

बूढ़ा—अजी, वकतने ही बडो ंको बडे घर वभजिा वदया,

तूम हो वकस फेर में। हाई-कोटग तक जाता हं सीधा। कोई

मेरे मंुह क्ा आयेर्ा बेचारा! र्ांि से तो कौडी जाती नही,ं

वफर डरें क्ो?ं वजसकी चीज पर दांत लर्ाये, अपना करके

छोडा। सीधे न वदया तो अदालत में घसीट लाये और ररे्द-

ररे्द कर मारा, अपना क्ा वबर्डता है? तो साहब से

उत्तला करते हो वक मैं ही पुकारंू?

अरदली ने देिा; यह आदमी यो ं टलनेिाला नही ं तो

जाकर साहब से उसकी इत्तला की। साहब ने हुवलया पूछा

और िुश होकर कहा—फौरन बुला लो।

अरदली—हजूर, वबलकुल फटेहाल है।

साहब—रु्दडी ही में लाल होते हैं। जाकर भेज दो।

वमस्टर वसनहा अधेड आदमी थे, बहुत ही शांत, बहुत

ही विचारशील। बातें बहुत कम करते थे। कठोरता और

असभ्यता, जो शासन की अंर् समझी जाती हैं, उनको छु

भी नही ंर्यी थी। न्याय और दया के देिता मालूम होते थे।

डील-डौल देिो ं का-सा था और रंर् आबनूस का-सा।

आराम-कुसी पर लेटे हुए पेचिान पी रहे थे। बूढे़ ने जाकर

सलाम वकया।

वसनहा—तुम हो जर्त पांडे! आओ बैठो। तुम्हारा

मुकदमा तो बहुत ही कमजोर है। भले आदमी, जाल भी न

करते बना?

जर्त—ऐसा न कहें हजूर, र्रीब आदमी हं, मर

जाऊंर्ा।

वसनहा—वकसी िकील मुिार से सलाह भी न ले ली?

जर्त—अब तो सरकार की सरन में आया हं।

170

वसनहा—सरकार क्ा वमवसल बदल दें रे्; या नया

कानून र्ढ़ें रे्? तुम र्च्चा िा र्ये। मैं कभी कानून के बाहर

नही ंजाता। जानते हो न अपील से कभी मेरी तजिीज रद्द

नही ंहोती?

जर्त—बडा धरम होर्ा सरकार! (वसनहा के पैरो ंपर

वर्वन्नयो ंकी एक पोटली रिकर) बडा दुिी हं सरकार!

वसनहा—(मुस्करा कर) यहां भी अपनी चालबाजी से

नही ं चूकते? वनकालो अभी और, ओस से प्यास नही ं

बुझती। भला दहाई तो पूरा करो।

जर्त—बहुत तंर् हं दीनबंधु!

वसनहा—डालो-डालो कमर में हाथ। भला कुछ मेरे

नाम की लाज तो रिो।

जर्त—लुट जाऊंर्ा सरकार!

वसनहा—लुटें तुम्हारे दुश्मन, जो इलाका बेचकर लडते

हैं। तुम्हारे जजमानो ंका भर्िान भला करे, तुम्हें वकस बात

की कमी है।

वमस्टर वसनहा इस मामले में जरा भी ररयायत न करते

थे। जर्त ने देिा वक यहां काइयांपन से काम चलेर्ा तो

चुपके से 4 वर्वन्नयां और वनकाली।ं लेवकन उन्हें वमस्टर

वसनहा के पैरो ं रिते समय उसकी आंिो ं से िून वनकल

आया। यह उसकी बरसो ं की कमाई थी। बरसो ं पेट

काटकर, तन जलाकर, मन बांधकर, झुठी र्िावहयां देकर

उसने यह थाती संचय कर पायी थी। उसका हाथो ं से

वनकलना प्ाि वनकलने से कम दुिदायी न था।

जर्त पांडे के चले जाने के बाद, कोई 9 बजे रात को,

जंट साहब के बंर्ले पर एक तांर्ा आकर रुका और उस

171

पर से पंवडत सत्यदेि उतरे जो राजा साहब वशिपुर के

मुिार थे।

वमस्टर वसनहा ने मुस्कराकर कहा—आप शायद

अपने इलाके में र्रीबो ंको न रहने दें रे्। इतना जुल्म!

सत्यदेि—र्रीब परिर, यह कवहए वक र्रीबो ंके मारे

अब इलाके में हमारा रहना मुज्जिल हो रहा है। आप

जानते हैं, साधी उंर्ली से घी नही ं वनकलता। जमीदंार को

कुछ-न-कुछ सिी करनी ही पडती है, मर्र अब यह हाल

है वक हमने जरा चंू भी की तो उन्ही ं र्रीबो ं की त्योररयां

बदल जाती हैं। सब मुफ्त में जमीन जोतना चाहते हैं।

लर्ान मांवर्ये तो फौजदारी का दािा करने को तैयार! अब

इसी जर्त पांडे को देज्जिए, रं्र्ा कसम है हुजूर सरासर

झठूा दािा है। हुजूर से कोई बात वछपी तो रह नही ंसकती।

अर्र जर्त पांडे मुकदमा जीत र्या तो हमें बोररयां-बंधना

छोडकर भार्ना पडेर्ा। अब हुजूर ही बसाएं तो बस सकते

हैं। राजा साहब ने हुजूर को सलाम कहा है और अजग की है

हक इस मामले में जर्त पांडे की ऐसी िबर लें वक िह भी

याद करे।

वमस्टर वसनहा ने भिें वसकोड कर कहा—कानून मेरे

घर तो नही ंबनता?

सत्यदेि—आपके हाथ में सब कुछ है।

यह कहकर वर्वन्नयो ं की एक र्ड्डी वनकाल कर मेज

पर रि दी। वमस्टर वसनहा ने र्ड्डी को आंिो ं से वर्नकर

कहा—इन्हें मेरी तरफ से राजा साहब को नजर कर

दीवजएर्ा। आज्जिर आप कोई िकील तो करें रे्। उसे क्ा

दीवजएर्ा?

172

सत्यदेि—यह तो हुजूर के हाथ में है। वजतनी ही

पेवशयां होरं्ी उतना ही िचग भी बढे़र्ा।

वसनहा—मैं चाहं तो महीनो ंलटका सकता हं।

सत्यदेि—हां, इससे कौन इनकार कर सकता है।

वसनहा—पांच पेवशयां भी हुयी ंतो आपके कम से कम

एक हजार उड जायेंरे्। आप यहां उसका आधा पूरा कर

दीवजए तो एक ही पेशी में िारा-न्यारा हो जाए। आधी रकम

बच जाय।

सत्यदेि ने 10 वर्वन्नयां और वनकाल कर मेज पर रि

दी ंऔर घमंड के साथ बोले—हुक्म हो तो राजा साहब कह

दंू, आप इत्मीनान रिें, साहब की कृपादृवि हो र्यी है।

वमस्टर वसनहा ने तीव्र र्स्र में कहा ‘जी नही,ं यह

कहने की जरूरत नही।ं मैं वकसी शतग पर यह रकम नही ं

ले रहा। मैं करंूर्ा िही जो कानून की मंशा होर्ी। कानून

के ज्जिलाफ जौ-भर भी नही ं जा सकता। यही मेरा उसूल

है। आप लोर् मेरी िावतर करते हैं, यह आपकी शरारत है।

उसे अपना दुश्मन समझूंर्ा जो मेरा ईमान िरीदना चाहे।

मैं जो कुछ लेता हं, सच्चाई का इनाम समझ कर लेता हं।‘

2

र्त पांडे को पूरा विश्वास था वक मेरी जीत होर्ी;

लेवकन तजबीज सुनी तो होश उड र्ये! दािा िाररज

हो र्या! उस पर िचग की चपत अलर्। मेरे साथ यह चाल!

अर्र लाला साहब को इसका मजा न चिा वदया, तो

बाम्हन नही।ं हैं वकस फेर में? सारा रोब भुला दंूर्ा। िहां

र्ाढ़ी कमाई के रुपये हैं। कौन पचा सकता है? हाड फोड-

फोड कर वनकलेंरे्। द्वार पर वसर पटक-पटक कर मर

जाऊंर्ा।

173

उसी वदन संध्या को जर्त पांडे ने वमस्टर वसनहा के

बंर्ले के सामने आसन जमा वदया। िहां बरर्द का घना

िृक्ष था। मुकदमेिाले िही ंसतू्त, चबेना िाते ओर दोपहरी

उसी की छांह में काटते थे। जर्त पांडे उनसे वमस्टर

वसनहा की वदल िोलकर वनंदा करता। न कुछ िाता न

पीता, बस लोर्ो ंको अपनी रामकहानी सुनाया करता। जो

सुनता िह जंट साहब को चार िोटी-िरी कहता—आदमी

नही ंवपशाच है, इसे तो ऐसी जर्ह मारे जहां पानी न वमले।

रुपये के रुपये वलए, ऊपर से िरचे समेत वडग्री कर दी!

यही करना था तो रुपये काहे को वनकले थे? यह है हमारे

भाई-बंदो ंका हाल। यह अपने कहलाते हैं! इनसे तो अंगे्रज

ही अचे्छ। इस तरह की आलोचनाएं वदन-भर हुआ करती।ं

जर्त पांडे के आस-पास आठो ंपहर जमघट लर्ा रहता।

इस तरह चार वदन बीत र्ये और वमस्टर वसनहा के

कानो ंमें भी बात पहंुची। अन्य ररश्वती कमगचाररयो ंकी तरह

िह भी हेकड आदमी थे। ऐसे वनदं्वद्व रहते मानो उन्हें यह

बीमारी छू तक नही ंर्यी है। जब िह कानून से जौ-भर भी

न टलते थे तो उन पर ररश्वत का संदेह हो ही क्ोकंर

सकता था, और कोई करता भी तो उसकी मानता कौन!

ऐसे चतुर ज्जिलाडी के विरुद्ध कोई जाबे्त की कारगिाई कैसे

होती? वमस्टर वसनहा अपने अफसरो ं से भी िुशामद का

व्यिहार न करते। इससे हुक्काम भी उनका बहुत आदर

करते थे। मर्र जर्त पांडे ने िह मंत्र मारा था वजसका

उनके पास कोई उत्तर न था। ऐसे बांर्ड आदमी से आज

तक उन्हें सावबका न पडा था। अपने नौकरो ं से पूछते—

बुड्ढा क्ा कर रहा है। नौकर लोर् अपनापन जताने के वलए

झठू के पुल बांध देते—हुजूर, कहता था भूत बन कर

174

लरंू्र्ा, मेरी िेदी बने तो सही, वजस वदन मरंूर्ा उस वदन

के सौ जर्त पांडे होरें्। वमस्टर वसनहा पके्क नाज्जस्तक थे;

लेवकन ये बातें सुन-सुनकर सशंक हो जाते, और उनकी

पत्नी तो थर-थर कांपने लर्ती।ं िह नौकरो ं से बार-बार

कहती उससे जाकर पूछो, क्ा चाहता है। वजतना रुपया

चाहे ले, हमसे जो मांरे् िह देंरे्, बस यहां से चला जाय,

लेवकन वमस्टर वसनहा आदवमयो ंको इशारे से मना कर देते

थे। उन्हें अभी तक आशा थी वक भूि-प्यास से व्याकुल

होकर बुड्ढा चला जायर्ा। इससे अवधक भय यह था वक मैं

जरा भी नरम पडा और नौकरो ंने मुझे उलू्ल बनाया।

छठे वदन मालूम हुआ वक जर्त पांडे अबोल हो र्या

है, उससे वहला तक नही ंजाता, चुपचाप पडा आकाश की

ओर देि रहा है। शायद आज रात दम वनकल जाय।

वमस्टर वसनहा ने लंबी सांस ली और र्हरी वचंता में डूब

र्ये। पत्नी ने आंिो ं में आंसू भरकर आग्रहपूिगह कहा—

तुम्हें मेरे वसर की कसम, जाकर वकसी इस बला को टालो।

बुड्ढा मर र्या तो हम कही ंके न रहेंरे्। अब रुपये का मंुह

मत देिो। दो-चार हजार भी देने पडें तो देकर उसे

मनाओ। तुमको जाते शमग आती हो तो मैं चली जाऊं।

वसनहा—जाने का इरादा तो मैं कई वदन से कर रहा

हं; लेवकन जब देिता हं िहां भीड लर्ी रहती है, इससे

वहम्मत नही ंपडती। सब आदवमयो ं के सामने तो मुझसे न

जाया जायर्ा, चाहे वकतनी ही बडी आफत क्ो ंन आ पडे।

तुम दो-चार हजार की कहती हो, मैं दस-पांच हजार देने

को तैयार हं। लेवकन िहां नही ं जा सकता। न जाने वकस

बुरी साइत से मैंने इसके रुपये वलए। जानता वक यह इतना

वफसाद िडा करेर्ा तो फाटक में घुसने ही न देता। देिने

175

में तो ऐसा सीधा मालूम होता था वक र्ऊ है। मैंने पहली

बार आदमी पहचानने में धोिा िाया।

पत्नी—तो मैं ही चली जाऊं? शहर की तरफ से

आऊंर्ी और सब आदवमयो ं को हटाकर अकेले में बात

करंुर्ी। वकसी को िबर न होर्ी वक कौन है। इसमें तो

कोई हरज नही ंहै?

वमस्टर वसनहा ने संवदग्ध भाि से कहा-ताडने िाले

ताड ही जायेंरे्, िाहे तुम वकतना ही वछपाओ।

पत्नी—ताड जायेंरे् ताड जायें, अब वकससे कहां तक

डरंु। बदनामी अभी क्ा कम हो रही है,जो और हो

जायर्ी। सारी दुवनया जानती है वक तुमने रुपये वलए। यो ंही

कोई वकसी पर प्ाि नही ं देता। वफर अब व्यथग ऐथं क्ो ं

करो?

वमस्टर वसनहा अब ममगिेदना को न दबा सके। बोले—

वप्ये, यह व्यथग की ऐठं नही ं है। चोर को अदालत में बेंत

िाने से उतनी लिा नही ंआती, वजतनी वकसी हावकम को

अपनी ररश्वत का परदा िुलने से आती है। िह जहर िा

कर मर जायर्ा; पर संसार के सामने अपना परदा न

िोलेर्ा। अपना सिगनाश देि सकता है; पर यह अपमान

नही ंसह सकता, वजंदा िाल िीचंने, या कोलू्ह में पेरे जाने

के वसिा और कोई ज्जस्थवत नही ं है, जो उसे अपना अपराध

र्स्ीकार करा सके। इसका तो मुझे जरा भी भय नही ंहै वक

ब्राह्मि भूत बनकर हमको सतायेर्ा, या हमें उनकी िेदी

बनाकर पूजनी पडेर्ी, यह भी जानता हं वक पाप का दंड

भी बहुधा नही ंवमलता; लेवकन वहंदू होने के कारि संस्कारो ं

की शंका कुछ-कुछ बनी हुई है। ब्रह्महत्या का कलंक वसर

पर लेते हुए आत्मा कांपती है। बस इतनी बात है। मैं आज

176

रात को मौका देिकर जाऊंर्ा और इस संकट को काटने

के वलए जो कुछ हो सकेर्ा, करंुर्ा। वतर जमा रिो।

3

धी रात बीत चुकी थी। वमस्टर वसनहा घर से वनकले

और अकेले जर्त पांडे को मनाने चले। बरर्द के

नीचे वबलकुल सन्नाटा था। अिकार ऐसा था मानो

वनशादेिी यही ं शयन कर रही हो।ं जर्त पांडे की सांस

जोर-जोर से चल रही थी मानो मौत जबरदस्ती घसीटे वलए

जाती हो। वमस्टर वसनहा के रोएं िडे हो र्ये। बुड्ढा कही ं

मर तो नही ंरहा है? जेबी लालटेन वनकाली और जर्त के

समीप जाकर बोले—पांडे जी, कहो क्ा हाल है?

जर्त पांडे ने आंिें िोलकर देिा और उठने की

असफल चेिा करके बोला—मेरा हाल पूछते हो? देिते

नही ंहो, मर रहा हं?

वसनहा—तो इस तरह क्ो ंप्ाि देते हो?

जर्त—तुम्हारी यही इच्छा है तो मैं क्ा करंू?

वसनहा—मेरी तो यही इच्छा नही।ं हां, तुम अलबत्ता

मेरा सिगनाश करने पर तुले हुए हो। आज्जिर मैंने तुम्हारे डेढ़

सौ रूपये ही तो वलए हैं। इतने ही रुपये के वलए तुम इतना

बडा अनुष्ठान कर रहे हो!

जर्त—डेढ़ सौ रुपये की बात नही ंहै। जो तुमने मुझे

वमट्टी में वमला वदया। मेरी वडग्री हो र्यी होती तो मुझे दस

बीघे जमीन वमल जाती और सारे इलाके में नाम हो जाता।

तुमने मेरे डेढ़ सौ नही ं वलए, मेरे पांच हजार वबर्ाड वदये।

पूरे पांच हजार; लेवकन यह घमंड न रहेर्ा, याद रिना कहे

देता हं, सत्यानाश हो जायर्ा। इस अदालत में तुम्हारा राज्य

177

है; लेवकन भर्िान के दरिार में विप्ो ंही का राज्य है। विप्

का धन लेकर कोई सुिी नही ंरह सकता।

वमस्टर वसनहा ने बहुत िेद और लिा प्कट की,

बहुत अनुनय-से काम वलया और अन्त में पूछा—सच

बताओ पांडे, वकतने रुपये पा जाओ तो यह अनुष्ठान छोड

दो।

जर्त पांडे अबकी जोर लर्ाकर उठ बैठे और बडी

उतु्सकता से बोले—पांच हजार से कौडी कम न लंूर्ा।

वसनहा—पांच हजार तो बहुत होते हैं। इतना जुल्म न

करो।

जर्त—नही,ं इससे कम न लंूर्ा।

यह कहकर जर्त पांडे वफर लेट र्या। उसने ये शब्

वनश्चयात्मक भाि से कहे थे वक वमस्टर वसनहा को और

कुछ कहने का साहस न हुआ। रुपये लाने घर चले; लेवकन

घर पहंुचते-पहंुचते नीयत बदल र्यी। डेढ़ सौ के बदले

पांच हजार देते कलंक हुआ। मन में कहा—मरता है जाने

दो, कहां की ब्रह्महत्या और कैसा पाप! यह सब पािंड है।

बदनामी न होर्ी? सरकारी मुलावजम तो यो ंही बदनाम होते

हैं, यह कोई नई बात थोडे ही है। बचा कैसे उठ बैठे थे।

समझा होर्ा, उलू्ल फंसा। अर्र 6 वदन के उपिास करने

से पांच हजार वमले तो मैं महीने में कम से कम पांच

मरतबा यह अनुष्ठान करंू। पांच हजार नही,ं कोई मुझे एक

ही हजार दे दे। यहां तो महीने भर नाक रर्डता हं तब

जाके 600 रुपये के दशगन होते हैं। नोच-िसोट से भी

शायद ही वकसी महीने में इससे ज्यादा वमलता हो। बैठा

मेरी राह देि रहा होर्ा। लेना रुपये, मंुह मीठ हो जायर्ा।

178

िह चारपाई पर लेटना चाहते थे वक उनकी पत्नी जी

आकर िडी हो र्यी।ं उनक वसर के बाल िुले हुए थे।

आंिें सहमी हुई, रह-रहकर कांप उठती थी।ं मंुह से शब्

न वनकलता था। बडी मुज्जिल से बोली—ंआधी रात तो हो

र्ई होर्ी? तुम जर्त पांडे के पास चले जाओ। मैंने अभी

ऐसा बुरा सपना देिा है वक अभी तक कलेजा धडक रहा

है, जान संकट में पडी हुई है। जाके वकसी तरह उसे टालो।

वमस्टर वसनहा—िही ं से तो चला आ रहा हं। मुझे

तुमसे ज्यादा वफक्र है। अभी आकर िडा ही हुआ था वक

तुम आयी।

पत्नी—अच्छा! तो तुम र्ये थे! क्ा बातें हुईं, राजी

हुआ।

वसनहा—पांच हजार रुपये मांर्ता है!

पत्नी—पांच हजार!

वसनहा—कौडी कम नही ं कर सकता और मेरे पास

इस िक्त एक हजार से ज्यादा न होरें्।

पत्नी ने एक क्षि सोचकर कहा—वजतना मांर्ता है

उतना ही दे दो, वकसी तरह र्ला तो छूट। तुम्हारे पास

रुपये न हो ंतो मैं दे दंूर्ी। अभी से सपने वदिाई देन लरे्

हैं। मरा तो प्ाि कैसे बचेंरे्। बोलता-चालता है न?

वमस्टर वसनहा अर्र आबनूस थे तो उनकी पत्नी चंदन;

वसनहा उनके रु्लाम थे, उनके इशारो ंपर चलते थे। पत्नी

जी भी पवत-शासन में कुशल थी।ं सौदंयग और अज्ञान में

अपिाद है। संुदरी कभी भोली नही ं होती। िह पुरुष के

ममगस्थल पर आसन जमाना जानती है!

वसनहा—तो लाओ देता आऊं; लेवकन आदमी बडा

चग्घड है, कही ंरुपये लेकर सबको वदिाता वफरे तो?

179

पत्नी—इसको यहां से इसी िक्त भार्ना होर्ा।

वसनहा—तो वनकालो दे ही दंू। वजंदर्ी में यह बात भी

याद रहेर्ी।

पत्नी—ने अविश्वास भाि से कहा—चलो, मैं भी चलती

हं। इस िक्त कौन देिता है?

पत्नी से अवधक पुरुष के चररत्र का ज्ञान और वकसी को

नही ंहोता। वमस्टर वसनहा की मनोिृवत्तयो ंको उनकी पत्नी

जी िूब जानती थी।ं कौन जान रासे्त में रुपये कही ंवछपा दें ,

और कह दें दे आए। या कहने लर्ें, रुपये लेकर भी नही ं

टलता तो मैं क्ा करंू। जाकर संदूक से नोटो ं के पुवलंदे

वनकाले और उन्हें चादर में वछपा कर वमस्टर वसनहा के

साथ चली।ं वसनहा के मंुह पर झाडू-सी वफरी थी। लालटेन

वलए पछताते चले जाते थे। 5000 रु0 वनकले जाते हैं। वफर

इतने रुपये कब वमलेंरे्; कौन जानता है? इससे तो कही ं

अच्छा था दुि मर ही जाता। बला से बदनामी होती, कोई

मेरी जेब से रुपये तो न छीन लेता। ईश्वर करे मर र्या हो!

अभी तक दोनो ंआदमी फाटक ही तकम आए थे वक

देिा, जर्त पांडे लाठी टेकता चला आता है। उसका

र्स्रूप इतना डरािना था मानो श्मशान से कोई मुरदा

भार्ा आता हो।

पत्नी जी बोली—महाराज, हम तो आ ही रहे थे, तुमने

क्ो ंकि वकया? रुपये ले कर सीधे घर चले जाओरे् न?

जर्त—हां-हां, सीधा घर जाऊंर्ा। कहां हैं रुपये देिंू!

पत्नी जी ने नोटो ं का पुवलंदा बाहर वनकाला और

लालटेन वदिा कर बोली—ंवर्न लो। 5000 रुपये हैं!

पांडे ने पुवलंदा वलया और बैठ कर उलट-पुलट कर

देिने लर्ा। उसकी आंिें एक नये प्काश से चमकने

180

लर्ी। हाथो ंमें नोटो ंको तौलता हुआ बोला—पूरे पांच हजार

हैं?

पत्नी—पूरे वर्न लो?

जर्त—पांच हजार में दो टोकरी भर जायर्ी! (हाथो ंसे

बताकर) इतने सारे पांच हजार!

वसनहा—क्ा अब भी तुम्हें विश्वास नही ंआता?

जर्त—हैं-हैं, पूरे हैं पूरे पांच हजार! तो अब जाऊं,

भार् जाऊं?

यह कह कर िह पुवलंदा वलए कई कदम लडिडाता

हुआ चला, जैसे कोई शराबी, और तब धम से जमीन पर

वर्र पडा। वमस्टर वसनहा लपट कर उठाने दौडे तो देिा

उसकी आंिें पथरा र्यी हैं और मुि पीला पड र्या है।

बोले—पांडे, क्ा कही ंचोट आ र्यी?

पांडे ने एक बार मंुह िोला जैसे मरी हुई वचवडया वसर

लटका चोचं िोल देती है। जीिन का अंवतम धार्ा भी टूट

र्या। ओठं िुले हुए थे और नोटो ंका पुवलंदा छाती पर रिा

हुआ था। इतने में पत्नी जी भी आ पहंुची और शि को

देिकर चौकं पडी!ं

पत्नी—इसे क्ा हो र्या?

वसनहा—मर र्या और क्ा हो र्या?

पत्नी—(वसर पीट कर) मर र्या! हाय भर्िान्! अब

कहां जाऊं?

यह कह कर बंर्ले की ओर बडी तेजी से चली।ं

वमस्टर वसनहा ने भी नोटो का पुवलंदा शि की छाती पर से

उठा वलया और चले।

पत्नी—ये रुपये अब क्ा होरें्?

वसनहा—वकसी धमग-कायग में दे दंूर्ा।

181

पत्नी—घर में मत रिना, िबरदार! हाय भर्िान!

4

सरे वदन सारे शहर में िबर मशहर हो र्यी—जर्त

पांडे ने जंट साहब पर जान दे दी। उसका शि उठा

तो हजारो ं आदमी साथ थे। वमस्टर वसनहा को िुल्लम-

िुल्ला र्ावलयां दी जा रही थी।ं

संध्या समय वमस्टर वसनहा कचहरी से आ कर मन

मार बैठे थे वक नौकरो ं ने आ कर कहा—सरकार, हमको

छुट्टी दी जाय! हमारा वहसाब कर दीवजए। हमारी वबरादरी

के लोर् धमकते हैं वक तुम जंट साहब की नौकरी करोरे् तो

हुक्का-पानी बंद हो जायर्ा।

वसनहा ने झल्ला कर कहा—कौन धमकाता है?

कहार—वकसका नाम बताएं सरकार! सभी तो कह

रहे हैं।

रसोइया—हुजूर, मुझे तो लोर् धमकाते हैं वक मज्जन्दर

में न घुसने पाओरे्।

साईस—हुजूर, वबरादरी से वबर्ाड करक हम लोर्

कहां जाएंरे्? हमारा आज से इस्तीफा है। वहसाब जब चाहे

कर दीवजएर्ा।

वमस्टर वसनहा ने बहुत धमकाया वफर वदलासा देने

लरे्; लेवकन नौकरो ं ने एक न सुनी। आध घणे्ट के अन्दर

सबो ं ने अपना-अपना रास्ता वलया। वमस्टर वसनहा दांत

पीस कर रह र्ए; लेवकन हावकमो ंका काम कब रुकता है?

उन्होनें उसी िक्त कोतिाल को िबर कर दी और कई

आदमी बेर्ार में पकड आए। काम चल वनकला।

उसी वदन से वमस्टर वसनहा और वहंदू समाज में

िीचंतान शुरु हुई। धोबी ने कपडे धोन बंद कर वदया।

दू

182

ग्वाले ने दूध लाने में आना-कानी की। नाई ने हजामत

बनानी छोडी। इन विपवत्तयो ं पर पत्नी जी का रोना-धोना

और भी र्जब था। इन्हें रोज भयंकर र्स्प्न वदिाई देते। रात

को एक कमरे से दूसरे में जाते प्ाि वनकलते थे। वकसी को

जरा वसर भी दुिता तो नही ंमें जान समा जाती। सबसे बडी

मुसीबत यह थी वक अपने सम्बज्जियो ं ने भी आना-जाना

छोड वदया। एक वदन साले आए, मर्र वबना पानी वपये चले

र्ए। इसी तरह एक बहनोई का आर्मन हुआ। उन्होनें पान

तक न िाया। वमस्टर वसनहा बडे धैयग से यह सारा

वतरस्कार सहते जाते थे। अब तक उनकी आवथगक हावन न

हुई थी। र्रज के बािले झक मार कर आते ही थे और

नजर-नजराना वमलता ही था। वफर विशेष वचंता का कोई

कारि न था।

लेवकन वबरादरी से िैर करना पानी में रह कर मर्र से

िैर करने जैसे है। कोई-न-कोई ऐसा अिसर ही आ जाता

है, जब हमको वबरादरी के सामने वसर झुकाना पडता है।

वमस्टर वसनहा को भी साल के अन्दर ही ऐसा अिसर आ

पडा। यह उनकी पुत्री का वििाह था। यही िह समस्या है

जो बडे-बडे हेकडो ंका घमंड चूर कर देती है। आप वकसी

के आने-जाने की परिा न करें , हुक्का-पानी, भोज-भात,

मेल-जोल वकसी बात की परिा न करे; मर्र लडकी का

वििाह तो न टलने िाली बला है। उससे बचकर आप कहां

जाएंरे्! वमस्टर वसनहा को इस बात का दर्दर्ा तो पवहले

ही था वक वत्रिेिी के वििाह में बाधाएं पडेर्ी; लेवकन उन्हें

विश्वास था वक द्रव्य की अपार शज्जक्त इस मुज्जिल को हल

कर देर्ी। कुछ वदनो ंतक उन्होनें जान-बूझ कर टाला वक

शायद इस आंधी का जोर कुछ कम हो जाय; लेवकन जब

183

वत्रिेिी को सोलहिां साल समाप्त हो र्या तो टाल-मटोल

की रंु्जाइश न रही। संदेशे भेजने लरे्; लेवकन जहां

संदेवशया जाता िही ंजिाब वमलता—हमें मंजूर नही। वजन

घरो ं में साल-भर पहले उनका संदेशा पा कर लोर् अपने

भाग्य को सराहते, िहां से अब सूिा जिाब वमलता था—

हमें मंजूर नही।ं वमस्टर वसनहा धन का लोभ देते, जमीन

नजर करने को कहते, लडके को विलायत भेज कर ऊंची

वशक्षा वदलाने का प्स्ताि करते वकंतु उनकी सारी

आयोजनाओ ं का एक ही जिाब वमलता था—हमें मंजूर

नही।ं ऊंचे घरानो ंका यह हाल देिकर वमस्टर वसनहा उन

घरानो ं में संदेश भेजने लरे्, वजनके साथ पहले बैठकर

भोजन करने में भी उन्हें संकोच होता था;लेवकन िहां भी

िही जिाब वमला—हमें मंजूर नही। यहां तक वक कई

जर्ह िे िुद दौड-दौड कर र्ये। लोर्ो ंकी वमन्नतें की,ं पर

यही जिाब वमला—साहब, हमें मंजूर नही।ं शायद

बवहषृ्कत घरानो ंमें उनका संदेश र्स्ीकार कर वलया जाता;

पर वमस्टर वसनहा जान-बूझकर मक्खी न वनर्लना चाहते

थे। ऐसे लोर्ो ं से सम्बि न करना चाहते थे वजनका

वबरादरी में काई स्थान न था। इस तरह एक िषग बीत र्या।

वमसेज वसनहा चारपाई पर पडी कराह रही थी,ं वत्रिेिी

भोजन बना रही थी और वमस्टर वसनहा पत्नी के पास वचंता

में डूबे बैठे हुए थे। उनके हाथ में एक ित था, बार-बार

उसे देिते और कुछ सोचने लर्ते थे। बडी देर के बाद

रोवर्िी ने आंिें िोली ंऔर बोली—ंअब न बचंूर्ी पांडे मेरी

जान लेकर छोडेर्ा। हाथ में कैसा कार्ज है?

वसनहा—यशोदानंदन के पास से ित आया हैं। पाजी

को यह ित वलिते हुए शमग नही ंआती, मैंने इसकी नौकरी

184

लर्ायी। इसकी शादी करिायी और आज उसका वमजाज

इतना बढ़ र्या है वक अपने छोटे भाई की शादी मेरी

लडकी से करना पसंद नही ंकरता। अभारे् के भाग्य िुल

जाते!

पत्नी—भर्िान्, अब ले चलो। यह दुदगशा नही ं देिी

जाती। अंरू्र िाने का जी चाहता है, मंर्िाये है वक नही?ं

वसनाह—मैं जाकर िुद लेता आया था।

यह कहकर उन्होनें तश्तरी में अंरू्र भरकर पत्नी के

पास रि वदये। िह उठा-उठा कर िाने लर्ी।ं जब तश्तरी

िाली हो र्यी तो बोली—ंअब वकसके यहां संदेशा भेजोरे्?

वसनहा—वकसके यहां बताऊं! मेरी समझ में तो अब

कोई ऐसा आदमी नही ंरह र्या। ऐसी वबरादरी में रहने से

तो यह हजार दरजा अच्छा है वक वबरादरी के बाहर रहं।

मैंने एक ब्राह्मि से ररश्वत ली। इससे मुझे इनकार नही।ं

लेवकन कौन ररश्वत नही ं लेता? अपने र्ौ ं पर कोई नही ं

चूकता। ब्राह्मि नही ं िुद ईश्वर ही क्ो ंन हो,ं ररश्वत िाने

िाले उन्हें भी चूस लेंरे्। ररश्वत देने िाला अर्र कोई वनराश

होकर अपने प्ाि देता है तो मेरा क्ा अपराध! अर्र कोई

मेरे फैसले से नाराज होकर जहर िा ले तो मैं क्ा कर

सकता हं। इस पर भी मैं प्ायवश्चत करने को तैयार हं।

वबरादरी जो दंड दे, उसे र्स्ीकार करने को तैयार हं। सबसे

कह चुका हं मुझसे जो प्ायवश्चत चाहो करा लो पर कोई

नही ंसुनता। दंड अपराध के अनुकूल होना चावहए, नही ंतो

यह अन्याय है। अर्र वकसी मुसलमान का छुआ भोजन

िाने के वलए वबरादरी मुझे काले पानी भेजना चाहे तो मैं

उसे कभी न मानंूर्ा। वफर अपराध अर्र है तो मेरा है। मेरी

185

लडकी ने क्ा अपराध वकया है। मेरे अपराध के वलए

लडकी को दंड देना सरासर न्याय-विरुद्ध है।

पत्नी—मर्र करोरे् क्ा? और कोई पंचायत क्ो ंनही ं

करते?

वसनहा—पंचायत में भी तो िही वबरादरी के मुज्जिया

लोर् ही होरें्, उनसे मुझे न्याय की आशा नही।ं िास्ति में

इस वतरस्कार का कारि ईष्याग है। मुझे देिकर सब जलते

हैं और इसी बहाने िे मुझे नीचा वदिाना चाहते हैं। मैं इन

लोर्ो ंको िूब समझता हं।

पत्नी—मन की लालसा मन में रह र्यी। यह अरमान

वलये संसार से जाना पडेर्ा। भर्िान् की जैसी इच्छा।

तुम्हारी बातो ं से मुझे डर लर्ता है वक मेरी बच्ची की न-

जाने क्ा दशा होर्ी। मर्र तुमसे मेरी अंवतम विनय यही है

वक वबरादरी से बाहर न जाना, नही ंतो परलोक में भी मेरी

आत्मा को शांवत न वमलेर्ी। यह शोक मेरी जान ले रहा है।

हाय, बच्ची पर न-जाने क्ा विपवत्त आने िाली है।

यह कहते वमसेज वसनहा की आंिें में आंसू बहने लरे्।

वमस्टर वसनहा ने उनको वदलासा देते हुए कहा—इसकी

वचंता मत करो वप्ये, मेरा आशय केिल यह था वक ऐसे भाि

मन में आया करते हैं। तुमसे सच कहता हं, वबरादरी के

अन्याय से कलेजा छलनी हो र्या है।

पत्नी—वबरादरी को बुरा मत कहो। वबरादरी का डर न

हो तो आदमी न जाने क्ा-क्ा उत्पात करे। वबरादरी को

बुरा न कहो। (कलेजे पर हाथ रिकर) यहां बडा ददग हो

रहा है। यशोदानंद ने भी कोरा जिाब दे वदया। वकसी

करिट चैन नही ंआता। क्ा करंु भर्िान्।

वसनहा—डाक्टर को बुलाऊं?

186

पत्नी—तुम्हारा जी चाहे बुला लो, लेवकन मैं बचंूर्ी

नही।ं जरा वतब्बो को बुला लो, प्यार कर लंू। जी डूबा जाता

है। मेरी बच्ची! हाय मेरी बच्ची!!

187

विक्कार

रान और यूनान में घोर संग्राम हो रहा था। ईरानी

वदन-वदन बढ़ते जाते थे और यूनान के वलए संकट

का सामना था। देश के सारे व्यिसाय बंद हो र्ये थे, हल

की मुवठया पर हाथ रिने िाले वकसान तलिार की मुवठया

पकडने के वलए मजबूर हो र्ये, डंडी तौलने िाले भाले

तौलते थे। सारा देश आत्म-रक्षा के वलए तैयार हो र्या था।

वफर भी शतु्र के कदम वदन-वदन आरे् ही बढ़ते आते थे।

वजस ईरान को यूनान कई बार कूचल चुका था, िही ईरान

आज क्रोध के आिेर् की भांवत वसर पर चढ़ आता था। मदग

तो रिके्षत्र में वसर कटा रहे थे और ज्जस्त्रयां वदन-वदन की

वनराशाजनक िबरें सुनकर सूिी जाती थी।ं क्ोकंर लाज

की रक्षा होर्ी? प्ाि का भय न था, सम्पवत्त का भय न था,

भय था मयागदा का। विजेता र्िग से मतिाले होकर यूनानी

ललनाओ ं को घूरें रे्, उनके कोमल अंर्ो ं को स्पशग करें रे्,

उनको कैद कर ले जायेंरे्! उस विपवत्त की कल्पना ही से

इन लोर्ो ंके रोयें िडे हो जाते थे।

आज्जिर जब हालत बहुत नाजुक हो र्यी तो वकतने ही

स्त्री-पुरुष वमलकर डेल्फी के मंवदर में र्ये और प्श्न

वकया—देिी, हमारे ऊपर देिताओ ंकी यह िक्र-दृवि क्ो ं

है? हमसे ऐसा कौन-सा अपराध हुआ है? क्ा हमने वनयमो ं

का पालन नही ं वकया, कुरबावनयां नही ंकी,ं व्रत नही ंरिे?

वफर देिताओ ं ने क्ो ंहमारे वसरो ं से अपनी रक्षा का हाथ

उठा वलया?

पुजाररन ने कहा—देिताओ ंकी असीम कृपा भी देश

को द्रोही के हाथ से नही ंबचा सकती। इस देश में अिश्य

188

कोई-न-कोई द्रोही है। जब तक उसका िध न वकया

जायेर्ा, देश के वसर से यह संकट न टलेर्ा।

‘देिी, िह द्रोही कौन है?

‘वजस घर से रात को र्ाने की ध्ववन आती हो, वजस घर

से वदन को सुरं्ध की लपटें आती हो,ं वजस पुरुष की आंिो ं

में मद की लाली झलकती हो, िही देश का द्रोही है।‘

लोर्ो ंने द्रोही का पररचय पाने के वलए और वकतने ही

प्श्न वकये; पर देिी ने कोई उत्तर न वदया।

2

नावनयो ंने द्रोही की तलाश करनी शुरू की। वकसके

घर में से रात को र्ाने की आिाजें आती हैं। सारे

शहर में संध्या होते स्यापा-सा छा जाता था। अर्र कही ं

आिाजें सुनायी देती थी ं तो रोने की; हंसी और र्ाने की

आिाज कही ंन सुनायी देती थी।

वदन को सुरं्ध की लपटें वकस घर से आती हैं? लोर्

वजधर जाते थे, वकसे इतनी फुरसत थी वक घर की सफाई

करता, घर में सुरं्ध जलाता; धोवबयो ं का अभाि था

अवधकांश लडने के वलए चले र्ये थे, कपडे तक न धुलते

थे; इत्र-फुलेल कौन मलता!

वकसकी आंिो ं में मद की लाली झलकती है? लाल

आंिें वदिाई देती थी; लेवकन यह मद की लाली न थी, यह

आंसुओ ं की लाली थी। मवदरा की दुकानो ं पर िाक उड

रही थी। इस जीिन ओर मृतु्य के संग्राम में विलास की

वकसे सूझती! लोर्ो ंने सारा शहर छान मारा लेवकन एक भी

आंि ऐसी नजर न आयी जो मद से लाल हो।

कई वदन रु्जर र्ये। शहर में पल-पल पर रिके्षत्र से

भयानक िबरें आती थी ंऔर लोर्ो ंके प्ाि सूि जाते थे।

यू

189

आधी रात का समय था। शहर में अंधकार छाया हुआ

था, मानो श्मशान हो। वकसी की सूरत न वदिाई देती थी।

वजन नाट्यशालाओ ंमें वतल रिने की जर्ह न वमलती थी,

िहां वसयार बोल रहे थे। वजन बाजारो ं में मनचले जिान

अस्त्र-शस्त्र सजायें ऐठंते वफरते थे, िहां उलू्ल बोल रहे थे।

मंवदरो ंमें न र्ाना होता था न बजाना। प्ासादो ंमें अंधकार

छाया हुआ था।

एक बूढ़ा यूनानी वजसका इकलौता लडका लडाई के

मैदान में था, घर से वनकला और न-जाने वकन विचारो ंकी

तरंर् में देिी के मंवदर की ओर चला। रासे्त में कही ंप्काश

न था, कदम-कदम पर ठोकरें िाता था; पर आरे् बढ़ता

चला जाता। उसने वनश्चय कर वलया वक या तो आज देिी से

विजय का िरदान लंूर्ा या उनके चरिो ंपर अपने को भेंट

कर दंूर्ा।

3

हसा िह चौकं पडा। देिी का मंवदर आ र्या था।

और उसके पीछे की ओर वकसी घर से मधुर संर्ीत

की ध्ववन आ रही थी। उसको आश्चयग हुआ। इस वनजगन

स्थान में कौन इस िक्त रंर्रेवलयां मना रहा है। उसके पैरो ं

में पर लर् र्ये, मंवदर के वपछिाडे जा पहंुचा।

उसी घर से वजसमें मंवदर की पुजाररन रहती थी, र्ाने

की आिाजें आती थी!ं िृद्ध विज्जित होकर ज्जिडकी के

सामने िडा हो र्या। वचरार् तले अंधेरा! देिी के मंवदर के

वपछिाडे य अंधेर?

बूढे़ ने द्वार झांका; एक सजे हुए कमरे में मोमबवत्तयां

झाडो ंमें जल रही थी,ं साफ-सुथरा फशग वबछा था और एक

आदमी मेज पर बैठा हुआ र्ा रहा था। मेज पर शराब की

190

बोतल और प्यावलयां रिी हुई थी।ं दो रु्लाम मेज के सामने

हाथ में भोजन के थाल िडे थे, वजसमें से मनोहर सुरं्ध की

लपटें आ रही थी।ं

बूढे़ यूनानी ने वचल्लाकर कहा—यही देशद्रोही है, यही

देशद्रोही है!

मंवदर की दीिारो ंने दुहराया—द्रोही है!

बर्ीचे की तरफ से आिाज आयी—द्रोही है!

मंवदर की पुजाररन ने घर में से वसर वनकालकर

कहा—हां, द्रोही है!

यह देशद्रोही उसी पुजाररन का बेटा पासोवनयस था।

देश में रक्षा के जो उपाय सोचे जाते, शतु्रओ ंका दमन करने

के वलए जो वनश्चय वकय जाते, उनकी सूचना यह ईरावनयो ं

को दे वदया करता था। सेनाओ ंकी प्ते्यक र्वत की िबर

ईरावनयो ं को वमल जाती थी और उन प्यत्नो ं को विफल

बनाने के वलए िे पहले से तैयार हो जाते थे। यही कारि था

वक यूनावनयो ंको जान लडा देने पर भी विजय न होती थी।

इसी कपट से कमाये हुये धन से िह भोर्-विलास करता

था। उस समय जब वक देश में घोर संकट पडा हुआ था,

उसने अपने र्स्देश को अपनी िासनाओ ं के वलए बेच

वदया। अपने विलास के वसिा और वकसी बात की वचंता न

थी, कोई मरे या वजये, देश रहे या जाये, उसकी बला से।

केिल अपने कुवटल र्स्ाथग के वलए देश की र्रदन में

रु्लामी की बेवडयां डलिाने पर तैयार था। पुजाररन अपने

बेटे के दुराचरि से अनवभज्ञ थी। िह अपनी अंधेरी कोठरी

से बहुत कम वनकलती, िही ं बैठी जप-तप वकया करती

थी। परलोक-वचंतन में उसे इहलोक की िबर न थी,

मनेज्जन्द्रयो ं ने बाहर की चेतना को शून्य-सा कर वदया था।

191

िह इस समय भी कोठरी के द्वार बंद वकये, देिी से अपने

देश के कल्याि के वलए िन्दना कर रही थी वक सहसा

उसके कानो ंमें आिाज आयी—यही द्रोही है, यही द्रोही है!

उसने तुरंत द्वार िोलकर बाहर की ओर झांका,

पासोवनयम के कमरे से प्काश की रेिाएं वनकल रही थी ं

और उन्ही ं रेिाओ ं पर संर्ीत की लहरें नाच रही थी।ं

उसके पैर-तले से जमीन-सी वनकल र्यी, कलेजा धक्-से

हो र्या। ईश्वर! क्ा मेरा बेटा देशद्रोही है?

आप-ही-आप, वकसी अंत:पे्रिा से पराभूत होकर िह

वचल्ला उठी—हां, यही देशद्रोही है!

नानी स्त्री-पुरूषो ं के झंुड-के-झंुड उमड पडे और

पासोवनयस के द्वार पर िडे होकर वचल्लाने लरे्-

यही देशद्राही है!

पासोवनयस के कमरे की रोशनी ठंडी हो र्यी, संर्ीत भी

बंद था; लेवकन द्वार पर प्वतक्षि नर्रिावसयो ं का समूह

बढ़ता जाता था और रह-रह कर सहस्त्रो ं कंठो से ध्ववन

वनकलती थी—यही देशद्रोही है!

लोर्ो ं ने मशालें जलायी और अपने लाठी-डंडे संभाल

कर मकान में घुस पडे। कोई कहता था—वसर उतार लो।

कोई कहता था—देिी के चरिो ंपर बवलदान कर दो। कुछ

लोर् उसे कोठे से नीचे वर्रा देने पर आग्रह कर रहे थे।

पासोवनयस समझ् र्या वक अब मुसीबत की घडी वसर

पर आ र्यी। तुरंत जीने से उतरकर नीचे की ओर भार्ा।

और कही ंशरि की आशा न देिकर देिी के मंवदर में जा

घुसा।

यू

192

अब क्ा वकया जाये? देिी की शरि जाने िाले को

अभय-दान वमल जाता था। परम्परा से यही प्था थी? मंवदर

में वकसी की हत्या करना महापाप था।

लेवकन देशद्रोही को इसने ससे्त कौन छोडता? भांवत-

भांवत के प्स्ताि होने लरे्—

‘सूअर का हाथ पकडकर बाहर िीचं लो।’

‘ऐसे देशद्रोही का िध करने के वलए देिी हमें क्षमा

कर देंर्ी।’

‘देिी, आप उसे क्ो ंनही ंवनर्ल जाती?’

‘पत्थरो ंसे मारो,ं पत्थरो से; आप वनकलकर भारे्र्ा।’

‘वनकलता क्ो ंनही ंरे कायर! िहां क्ा मंुह में कावलि

लर्ाकर बैठा हुआ है?’

रात भर यही शोर मचा रहा और पासोवनयस न

वनकला। आज्जिर यह वनश्चय हुआ वक मंवदर की छत

िोदकर फें क दी जाये और पासोवनयस दोपहर की धूप

और रात की कडाके की सरदी में आप ही आप अकड

जाये। बस वफर क्ा था। आन की आन में लोर्ो ं ने मंवदर

की छत और कलस ढा वदये।

अभर्ा पासोवनयस वदन-भर तेज धूप में िडा रहा।

उसे जोर की प्यास लर्ी; लेवकन पानी कहां? भूि लर्ी, पर

िाना कहां? सारी जमीन तिे की भांवत जलने लर्ी; लेवकन

छांह कहां? इतना कि उसे जीिन भर में न हुआ था।

मछली की भांवत तडपता था ओर वचल्ला-वचल्ला कर लोर्ो ं

को पुकारता था; मर्र िहां कोई उसकी पुकार सुनने िाला

न था। बार-बार कसमें िाता था वक अब वफर मुझसे ऐसा

अपराध न होर्ा; लेवकन कोई उसके वनकट न आता था।

बार-बार चाहता था वक दीिार से टकरा कर प्ाि दे दे;

193

लेवकन यह आशा रोक देती थी वक शायद लोर्ो ंको मुझ

पर दया आ जाये। िह पार्लो ंकी तरह जोर-जोर से कहने

लर्ा—मुझे मार डालो, मार डालो, एक क्षि में प्ाि ले लो,

इस भांवत जला-जला कर न मारो। ओ हत्यारो,ं तुमको जरा

भी दया नही।ं

वदन बीता और रात—भयंकर रात—आयी। ऊपर

तारार्ि चमक रहे थे मानो उसकी विपवत्त पर हंस रहे हो।ं

ज्यो-ंज्यो ं रात बीतती थी देिी विकराल रूप धारि करती

जाती थी। कभी िह उसकी ओर मंुह िोलकर लपकती,

कभी उसे जलती हुई आंिो से देिती। उधर क्षि-क्षि

सरदी बढती जाती थी, पासोवनयस के हाथ-पांि अकडने

लरे्, कलेजा कांपने लर्ा। घुटनो ंमें वसर रिकर बैठ र्या

और अपनी वकित को रोने लर्ा। कुरते की िीचंकर

कभी पैरो ंको वछपाता, कभी हाथो ंको, यहां तक वक इस

िीचंातानी में कुरता भी फट र्या। आधी रात जाते-जाते

बफग वर्रने लर्ी। दोपहर को उसने सोचा र्रमी ही सबसे

किदायक है। ठंड के सामने उसे र्रमी की तकलीफ भूल

र्यी।

आज्जिर शरीर में र्रमी लाने के वलए एक वहमकत

सूझी। िह मंवदर में इधर-उधर दौडने लर्ा। लेवकन

विलासी जीि था, जरा देर में हांफ कर वर्र पडा।

त:काल लोर्ो ं ने वकिाड िोले तो पासोवनसय को

भूवम पर पडे देिा। मालूम होता था, उसका शरीर

अकड र्या है। बहुत चीिने-वचल्लाने पर उसने आिें

िोली; पर जर्ह से वहल न सका। वकतनी दयनीय दशा थी,

वकंतु वकसी को उस पर दया न आयी। यूनान में देशद्रोह

प्ा

194

सबसे बडा अपराध था और द्रोही के वलए कही ंक्षमा न थी,

कही ंदया न थी।

एक—अभी मरा है?

दूसरा—द्रोवहयो ंको मौत नही ंआती!

तीसरा—पडा रहने दो, मर जायेर्ा!

चौथा—मक्र वकये हुए है?

पांचिा—अपने वकये की सजा पा चुका है, अब छोड

देना चावहए!

सहसा पासोवनयस उठ बैठा और उद्दण्ड भाि से

बोला—कौन कहता है वक इसे छोड देना चावहए! नही,ं मुझे

मत छोडना, िरना पछताओरे्! मैं र्स्ाथी दंू; विषय-भोर्ी हं,

मुझ पर भूलकर भी विश्वास न करना। आह! मेरे कारि तुम

लोर्ो ं को क्ा-क्ा झेलना पडा, इसे सोचकर मेरा जी

चाहता है वक अपनी इंवद्रयो ंको जलाकर भि कर दंू। मैं

अर्र सौ जन्म लेकर इस पाप का प्ायवश्चत करंू, तो भी

मेरा उद्धार न होर्ा। तुम भूलकर भी मेरा विश्वास न करो।

मुझे र्स्यं अपने ऊपर विश्वास नही।ं विलास के पे्मी सत्य

का पालन नही ंकर सकते। मैं अब भी आपकी कुछ सेिा

कर सकता हं, मुझे ऐसे-ऐसे रु्प्त रहस्य मालूम हैं, वजन्हें

जानकर आप ईरावनयो ं का संहार कर सकते है; लेवकन

मुझे अपने ऊपर विश्वास नही ंहै और आपसे भी यह कहता

हं वक मुझ पर विश्वास न कीवजए। आज रात को देिी की

मैंने सचे्च वदल से िंदना की है और उन्होनें मुझे ऐसे यंत्र

बताये हैं, वजनसे हम शतु्रओ ं को परास्त कर सकते हैं,

ईरावनयो ं के बढते हुए दल को आज भी आन की आन में

उडा सकते है। लेवकन मुझे अपने ऊपर विश्वास नही ंहै। मैं

यहां से बाहर वनकल कर इन बातो ंको भूल जाऊंर्ा। बहुत

195

संशय हैं, वक वफर ईरावनयो ंकी रु्प्त सहायता करने लरंू्।

इसवलए मुझ पर विश्वास न कीवजए।

एक यूनानी—देिो-देिो क्ा कहता है?

दूसरा—सच्चा आदमी मालूम होता है।

तीसरा—अपने अपराधो ंको आप र्स्ीकार कर रहा है।

चौथा—इसे क्षमा कर देना चावहए और यह सब बातें

पूछ लेनी चावहए।

पांचिा—देिो, यह नही ं कहता वक मुझे छोड दो।

हमको बार-बार याद वदलाता जाता है वक मुझ पर विश्वास

न करो!

छठा—रात भर के कि ने होश ठंडे कर वदये, अब

आंिे िुली है।

पासोवनयस—क्ा तुम लोर् मुझे छोडने की बातचीत

कर रहे हो? मैं वफर कहता हं, मैं विश्वास के योग्य नही ंहं।

मैं द्रोही हं। मुझे ईरावनयो ं के बहुत-से भेद मालूम हैं, एक

बार उनकी सेना में पहंुच जाऊं तो उनका वमत्र बनकर

सिगनाश कर दंू, पर मुझे अपने ऊपर विश्वास नही ंहै।

एक यूनानी—धोिेबाज इतनी सच्ची बात नही ं कह

सकता!

दूसरा—पहले र्स्ाथांध हो र्या था; पर अब आंिे

िुली हैं!

तीसरा—देिद्रोही से भी अपने मतलब की बातें मालूम

कर लेने में कोई हावन नही ंहै। अर्र िह अपने िचन पूरे

करे तो हमें इसे छोड देना चावहए।

चौथा—देिी की पे्रिा से इसकी कायापलट हुई है।

पांचिां—पावपयो ं में भी आत्मा का प्काश रहता है

और कि पाकर जाग्रत हो जाता है। यह समझना वक

196

वजसने एक बार पाप वकया, िह वफर कभी पुण्य कर ही

नही ं सकता, मान-चररत्र के एक प्धान तत्व का अपिाद

करना है।

छठा—हम इसको यहां से र्ाते-बजाते ले चलेंरे्। जन-

समूह को चकमा देना वकतना आसान है। जनसत्तािाद का

सबसे वनबगल अंर् यही है। जनता तो नेक और बद की

तमीज नही ं रिती। उस पर धूतों, रंरे्-वसयारो ं का जादू

आसानी से चल जाता है। अभी एक वदन पहले वजस

पासोवनयस की र्रदन पर तलिार चलायी जा रही थी, उसी

को जलूस के साथ मंवदर से वनकालने की तैयाररयां होने

लर्ी,ं क्ोवंक िह धूतग था और जानता था वक जनता की

कील क्ोकंर घुमायी जा सकती है।

एक स्त्री—र्ाने-बजाने िालो ं को बुलाओ, पासोवनयस

शरीफ है।

दूसरी—हां-हां, पहले चलकर उससे क्षमा मांर्ो, हमने

उसके साथ जरूरत से ज्यादा सिी की।

पासोवनयस—आप लोर्ो ं ने पूछा होता तो मैं कल ही

कल ही सारी बातें आपको बता देता, तब आपको मालूम

होता वक मुझे मार डालना उवचत है या जीता रिना।

कई स्त्री-पुरूष—हाय-हाय हमसे बडी भूल हुई।

हमारे सचे्च पासोवनयस!

सहसा एक िृद्धा स्त्री वकसी तरफ से दौडती हुई आयी और

मंवदर के सबसे ऊंचे जीने पर िडी होकर बोली—तुम

लोर्ो ं को क्ा हो र्या है? यूनान के बेटे आज इतने

ज्ञानशून्य हो र्ये हैं वक झठेू और सचे्च में वििेक नही ंकर

सकते? तुम पासोवनयस पर विश्वास करते हो? वजस

पासोवनयस ने सैकडो ं ज्जस्त्रयो ंऔर बालको ंको अनाथ कर

197

वदया, सैकडो ं घरो ं में कोई वदया जलाने िाला न छोडा,

हमारे देिताओ ंका, हमारे पुरूषो ंका, घोर अपमान वकया,

उसकी दो-चार वचकनी-चुपडी बातो ं पर तुम इतने फूल

उठे। याद रिो, अब की पासोवनयस बाहर वनकला तो वफर

तुम्हारी कुशल नही। यूनान पर ईरान का राज्य होर्ा और

यूननी ललनाएं ईरावनयो ंकी कुदृवि का वशकार बनेंर्ी। देिी

की आज्ञा है वक पासोवनयस वफर बाहर न वनकलने पाये।

अर्र तुम्हें अपना देश प्यारा है, अपनी माताओ ंऔर बहनो ं

की आबरू प्यारी है तो मंवदर के द्वार को वचन दो।ं वजससे

देशद्रोही को वफर बाहर न वनकलने और तुम लोर्ो ं को

बहकाने का मौका न वमले। यह देिो, पहला पत्थर मैं अपने

हाथो ंसे रिती हं।

लोर्ो ंने विज्जित होकर देिा—यह मंवदर की पुजाररन

और पासोवनयस की माता थी।

दम के दम में पत्थरो ंके ढेर लर् र्ये और मंवदर का

द्वार चुन वदया र्या। पासोवनयस भीतर दांत पीसता रह

र्या।

िीर माता, तुम्हें धन्य है! ऐसी ही माता से देश का मुि

उज्ज्वल होता है, जो देश-वहत के सामने मातृ-से्नह की धूल-

बराबर परिाह नही ंकरती!ं उनके पुत्र देश के वलए होते हैं,

देश पुत्र के वलए नही ंहोता।

198

लैला

यह कोई न जानता था वक लैला कौन है, कहां है, कहां

से आयी है और क्ा करती है। एक वदन लोर्ो ं ने एक

अनुपम संुदरी को तेहरान के चौक में अपने डफ पर

हावफज की एक र्जल झमू-झमू कर र्ाते सुना –

रसीद मुजरा वक ऐयामें र्म न ख्वाहद मांद,

चुनां न मांद, चुनी ं नीज हम न ख्वाहद मांद।

और सारा तेहरान उस पर वफदा हो र्या। यही लैला

थी।

लैला के रुप-लावलत्य की कल्पना करनी हो तो ऊषा

की प्फुल्ल लावलमा की कल्पना कीवजए, जब नील र्र्न,

र्स्िग-प्काश से संवजत हो जाता है, बहार की कल्पना

कीवजए, जब बार् में रंर्-रंर् के फूल ज्जिलते हैं और

बुलबुलें र्ाती हैं।

लैला के र्स्र-लावलत्य की कल्पना करनी हो, तो उस

घंटी की अनिरत ध्ववन की कल्पना कीवजए जो वनशा की

वनस्तब्धता में ऊंटो ंकी र्रदनो ंमें बजती हुई सुनायी देती हैं,

या उस बांसुरी की ध्ववन की जो मध्यान्ह की आलस्यमयी

शांवत में वकसी िृक्ष की छाया में लेटे हुए चरिाहे के मुि से

वनकलती है।

वजस िक्त लैला मस्त होकर र्ाती थी, उसके मुि पर एक

र्स्र्ीय आभा झलकने लर्ती थी। िह काव्य, संर्ीत सौरभ

और सुषमा की एक मनोहर प्वतमा थी, वजसके सामने छोटे

और बडे, अमीर और र्रीब सभी के वसर झुक जाते थे।

सभी मंत्रमुग्ध हो जाते थे, सभी वसर धुनते थे। िह उस

आनेिाले समय का संदेश सुनाती थी, जब देश में संतोष

199

और पे्म का साम्राज्य होर्ा, जब दं्वद्व और संग्राम का अन्त

हो जायर्ा। िह राजा को जर्ाती और कहती, यह

विलावसता कब तक, ऐश्वयग-भोर् कब तक? िह प्जा की

सोयी हुई अवभलाषाओ ं को जर्ाती, उनकी हृत्तवत्रयो ं को

अपने र्स्र से कज्जम्पत कर देती। िह उन अमर िीरो ं की

कीवतग सुनाती जो दीनो ंकी पुकार सुनकर विकल हो जाते

थे, उन विदुवषयो ंकी मवहमा र्ाती जो कुल-मयागदा पर मर

वमटी थी।ं उसकी अनुरक्त ध्ववन सुन कर लोर् वदलो ं को

थाम लेते थे, तडप जाते थे।

सारा तेहरान लैला पर वफदा था। दवलतो ंके वलए िह

आशा की दीपक थी, रवसको ंके वलए जन्नत की हर, धवनयो ं

के वलए आत्मा की जाग्रवत और सत्ताधाररयो ं के वलए दया

और धमग का संदेश। उसकी भौहो ं के इशारे पर जनता

आर् में कूद सकती थी। जैसे चैतन्य जड को आकवषगत कर

लेता है, उसी भांवत लैला ने जनता को आकवषगत कर वलया

था।

और यह अनुपम सौदंयग सुविधा की भांवत पवित्र, वहम

के समान वनष्कलंक और नि कु सुम की भांवत अवनंद्य था।

उसके वलए पे्म कटाक्ष, एक भेदभरी मुस्कान, एक रसीली

अदा पर क्ा न हो जाता–कंचन के पिगत िडे हो जाते,

ऐश्वयग उपासना करता, ररयासतें पैर की धूल चाटती,ं कवि

कट जाते, विद्वान घुटने टेकते; लेवकन लैला वकसी की ओर

आंि उठाकर भी न देिती थी। िह एक िृक्ष की छांह में

रहती वभक्षा मांर् कर िाती और अपनी हृदयिीिा के रार्

अलापती थी। िह कवि की सूज्जक्त की भांवत केिल आनंद

और प्काश की िसु्त थी, भोर् की नही।ं िह ऋवषयो ं के

आशीिागद की प्वतमा थी, कल्याि में डूबी हुई, शांवत में रंर्ी

200

हुई, कोई उसे स्पशग न कर सकता था, उसे मोल न ले

सकता था।

क वदन संध्या समय तेहरान का शहजादा नावदर

घोडे पर सिार उधर से वनकला। लैला र्ा रही थी।

नावदर ने घोडे की बार् रोक ली और देर तक आत्म–

वििृत की दशा में िडा सुनता रहा। र्जल का पहला शेर

यह था–

मरा ददेस्त अंदर वदल, र्ोयम जिां सोजद,

बरै्र दम दरकशम, तरसन वक मर्जी ईस्तख्वां

सोजद।

वफर िह घोडे से उतर कर िही ं जमीन पर बैठ र्या

और वसर झुकाये रोता रहा। तब िह उठा और लैला के

पास जाकर उसके कदमो ंपर वसर रि वदया। लोर् अदब

से इधर-उधर हट र्ये।

लैला ने पूछा -तुम कौन हो?

नावदर—तुम्हारा रु्लाम।

लैला—मुझसे क्ा चाहते हो?

नावदर –आपकी ज्जिदमत करने का हुक्म। मेरे झोपडे को

अपने कदमो ंसे रोशन कीवजए।

लैला—यह मेरी आदत नही ं

शहजादा वफर िही ं बैठ र्या और लैला वफर र्ाने

लर्ी। लेवकन र्ला थरागने लर्ा, मानो िीिा का कोई तार

टूट र्या हो। उसने नावदर की ओर करुि नेत्रो ंसे देि कर

कहा- तुम यहां मत बैठो।

कई आदवमयो ं ने कहा- लैला, हमारे हुजूर शहजादा

नावदर हैं।

201

लैला बेपरिाही से बोली–बडी िुशी की बात है।

लेवकन यहां शहजादो ंका क्ा काम? उनके वलए महल है,

महवफलें हैं और शराब के दौर हैं। मैं उनके वलए र्ाती हॉँ,

वजनके वदल में ददग है, उनके वलए नही ं वजनके वदल में

शौक है।

शहजादा न उन्मत्त भाि से कहा–लैला, तुम्हारी एक

तान पर अपना सब-कुछ वनसार कर सकता हं। मैं शौक

का रु्लाम था, लेवकन तुमने ददग का मजा चिा वदया।

लैला वफर र्ाने लर्ी, लेवकन आिाज काबू में न थी,

मानो िह उसका र्ला ही न था।

लैला ने डफ कंधे पर रि वलया और अपने डेरे की

ओर चली। श्रोता अपने-अपने घर चले। कुछ लोर् उसके

पीछे-पीछे उस िृक्ष तक आये, जहां िह विश्राम करती थी।

जब िह अपनी झोपंडी के द्वार पर पहंुची, तब सभी आदमी

विदा हो चुके थे। केिल एक आदमी झोपडी से कई हाथ

पर चुपचाप िडा था।

लैला ने पूछा–तुम कौन हो?

नावदर ने कहा–तुम्हारा रु्लाम नावदर।

लैला–तुम्हें मालूम नही ंवक मैं अपने अमन के र्ोशे में

वकसी को नही ंआने देती?

नावदर—यह तो देि ही रहा हं।

लैला –वफर क्ो ंबैठे हो?

नावदर–उम्मीद दामन पकडे हुए हैं।

लैला ने कुछ देर के बाद वफर पूछा- कुछ िाकर आये

हो?

नावदर–अब तो न भूि है ना प्यास

202

लैला–आओ, आज तुम्हें र्रीबो ं का िाना ज्जिलाऊं,

इसका मजा भी चिा लो।

नावदर इनकार न कर सका। बाज उसे बाजरे की

रोवटयो ंमें अभूत-पूिग र्स्ाद वमला। िह सोच रहा था वक विश्व

के इस विशाल भिन में वकतना आनंद है। उसे अपनी

आत्मा में विकास का अनुभि हो रहा था।

जब िह िा चुका तब लैला ने कहा–अब जाओ।

आधी रात से ज्यादा रु्जर र्यी।

नावदर ने आंिो में आंसू भर कर कहा- नही ं लैला,

अब मेरा आसन भी यही जमेर्ा।

नावदर वदन–भर लैला के नर्मे सुनता र्वलयो ं में,

सडको पर जहां िह जाती उसके पीछे पीछे घूमता

रहाता। रात को उसी पेड के नीचे जा कर पडा रहता।

बादशाह ने समझाया मलका ने समझाया उमर ने वमन्नतें

की, लेवकन नावदर के वसर से लैला का सौदा न र्या वजन

हालो लैला रहती थी उन हालो िह भी रहता था। मलका

उसके वलए अचे्छ से अचे्छ िाने बनाकर भेजती, लेवकन

नावदर उनकी ओर देिता भी न था--

लेवकन लैला के संर्ीत में जब िह कु्षधा न थी। िह टूटे

हुए तारो ंका रार्,था वजसमें न िह लोच थ न िह जादू न

िह असर। िह अब भी र्ाती थीर सुननेिाले अब भी आते

थे। लेवकन अब िह अपना वदल िुश करने को र्ाती थी

और सुननेिाले विह्वल होकर नही, उसको िुशकरने के

वलए आते थे।

इस तरह छ महीने रु्जर र्ये।

एक वदन लैला र्ाने न र्यी। नावदर ने कहा–क्ो ं

लैला आज र्ाने न चलोर्ी?

203

लैला ने कहा-अब कभी न जाउंर्ा। सच कहना, तुम्हें

अब भी मेरे र्ाने में पहले ही का-सा मजा आता है?

नावदर बोला–पहले से कही ंज्यादा।

लैला- लेवकन और लोर् तो अब पंसद नही ंकरते।

नावदर–हां मुझे इसका तािुब है।

लैला–तािुब की बात नही।ं पहले मेरा वदल िुला

हुआ

था उसमें सबके वलए जर्ह थी। िह सबको िुश कर

सकता था। उसमें से जो आिाज वनकलती थी, िह सबके

वदलो में पहुचती थी। अब तुमने उसका दरिाजा बंद कर

वदया। अब िहां तुम्हारे वसिा और वकसी के काम का नही ं

रहा। चलो मै तुम्हारे पीछे पीछे चलुर्ी। आज से तुम मेरे

मावलक हो होती हं चलो मै तुम्हारे पीछे पीछे चलूर्ा।

आज से तूम मेरे मावलक हो। थोडी सी आर् ले कर इस

झोपडी में लर्ा दो। इस डफ को उसी में जला दंुर्ी।

3

हरान में घर-घर आनंदोत्सि हो रहा था। आज

शहजादा नावदर लैला को ब्याह कर लाया था। बहुत

वदनो ं के बाद उसके वदल की मुराद पुरी हुई थी सारा

तेहरान शहजादे पर जान देता था। और उसकी िुशी में

शरीक था। बादशाह ने तो अपनी तरफ से मुनादी करिा

दी थी वक इस शुभ अिसर पर धन और समय का

अपव्यय न वकया जाय, केिल लोर् मसवजदो में जमा

होकर िुदा से दुआ मांरे् वक िह और बधू वचरंजीिी हो

और सुि से रहें। लेवकन अपने प्यारे शहजादे की शदी में

धन और धन से अवधक मूल्यिान समय का मंुह देिना

वकसी को र्िारा न था।

ते

204

रईसो ने महवफलें सजायी। वचरार्। जलो बाजे बजिाये

र्रीबो ं ने अपनी डफवलयां संभाली और सडको ं पर घूम

घूम कर उछलते कूदते। वफरे।

संध्या के समय शहर के सारे अमीर और रईस

शहजादे को बधाई से चमकता और मनोल्लास से ज्जिलता

हुआ आ कर िडा हो र्या।

काजी ने अजग की–हुजुर पर िुडस की बरकत हो।

हजारो ं आदवमयो ं ने कहा- आमीन!

शहर की ललनाएं भी लैला को मुबारकिाद देने

आयी। लैला वबिुल सादे कपडे पहने थी। आभूषिो ंका

कही ंनाम न था।

एक मवहला ने कहा–आपका सोहार् सदा सलामत

रहे।

हजारो ंकंठो ं से ध्ववन वनकली–आमीन!’

ई साल रु्जर र्ये। नावदर अब बादशाह था। और

लैला। उसकी मलका। ईरान का शासन इतने

सुचारु रूप से कभी न हुआ था। दोनो ंही प्जा के वहतैषी

थे, दोनो ंही उसे सुिी और सम्पन्न देिना चाहते थे। पे्म ने

िे सभी कवठनाइयां दूर कर दी जो लैला को पहले शंवकत

करती रहती थी। नावदर राजसता का िकील था, लैला

प्जा–सत्ता की लेवकन व्यािाररक रुप से उनमें कोई भेद न

पडता था। कभी यह दब जाता, कभी िह हट जाती।

उनका दाम्पत्य जीिन आदगश था। नावदर लैला का रुि

देिता था, लैला नावदर का। काम से अिकाश वमलता तो

दोनो बैठ कर र्ाते बजाते, कभी नावदयो ं को सैर करते

कभी वकसी िृक्ष की छांि में बैठे हुए हावफज की र्जले

205

पढते और झुमते। न लैला में अब उतनी सादर्ी थी न

नावदर में अब उतना तकलु्लफ था। नावदर का लैला पर

एकावधपत्य थ जो साधारि बात न थी। जहां बादशाहो की

महलसरा में बेर्मो ं के मुहले्ल बसते,थे, दरजनो और

कैवडयो से उनकी र्िना होती थीिहा लैला अकेली थी।

उन महलो में अब शफिाने, मदरसे और पुस्तकालय थे।

जहां महलसरो का िावषगक व्यय करोडो ंतक पहंुचता था,

यहां अब हजारो ं से आरे् न बढता था। शेष रुपये प्जा

वहत के कामो ंमें िचग कर वदये जाते,थे। यह सारी कतर

व्योत लैला ने की थी। बादशाह नावदर था, पर अज्जियार

लैला के हाथो ंमें था।

सब कंुछ था, वकंतु प्जा संतुि न थी उसका असंतोष

वदन वदन बढता जाता था। राजसत्तािावदयो ं को भय था।

वक अर्र यही हाल रहा तो बादशाहत के वमट जाने में

संदेह नही।ं जमशेद का लर्ाया हुआ िृक्ष वजसने हजारो ं

सवदयें से आधी और तुफान का मुकावबला वकया। अब

एक हसीना के नाजुक पर कावतल हाथो ंजड से उिाडा

जा रहा है। उधर प्जा सत्तािावदयो ं कोलैला से वजतनी

आशाएं,थी सभी दुराशांएं वसद्ध हो रही थी ं िे कहते अर्र

ईरान इस चाल से तरक्की केरासे्त पर चलेर्ा तो इससे

पहलेवक िह मंवजले मकसूद पर पहंुचे, कयामत आ

जायर्ी। दुवनया हिाई जहाजपर बैठी उडी जा रही है।

और हम अभी ठेलो पर बैठते भी डरते है वक कही ं

इसकी हरकत से

दुवनया में भूचाल न आ जाय। दोनो दलो में आये वदन

लडाइयो ं होती रहती थी। न नावदर के समझाने का असर

अमीरो पर होता था, न लैला के समझाने का र्रीबो ं पर।

206

सामंत नावदर के िून के प्यासे हो र्ये, प्ज्ञा लैला की जानी

दुश्मन।

5

ज्य में तो यह अशांवत फैली हुईथी, विद्रोह की

आर् वदलो ंमें सुलर् रही थीा। और राजभिन में

पे्म का शांवतमय राज्य था, बादशाह और मलका दोनो

प्जा -संतोष की कल्पना में मग्न थे।

रात का समय था। नावदर और लैला आरामर्ाह में

बैठे हुए, शतरंज की बाजी िेाल रहे थे। कमरे में कोाई

सजािट न थी, केिल एक जावजम विछी हुई थी।

नावदर ने लैला का हाथ पकडकर कहा- बस अब

यह ज्यादती नही,ंउ तुम्हारी चाल हो चंुकी। यह देिो,ं

तुम्हारा एक प्यादा वपट र्या।

लैला ‘ अच्छा यह शह। आपके सारे पैदल रिे रह

र्ये और बादशाह को शह पड र्यी। इसी पर दािा था।

नावदर –तुम्हारे हाथ हारने मे जो मजा है, िह

जीतने में नही।ं

लैला-अच्छा, तो र्ोया आप वदल िुश कर रहे है।‘

शह बचाइए, नही ंदूसरी चाल में मात होती।

नावदर–(अदगब देकर) अच्छा अब संभल जाना, तुमने

मेरे बादशाह की तौहीन की है। एक बार मेरा फजी उठा

तो तुम्हारे प्यादो ंका सफाया कर देर्ा।

लैला-बसंत की भी िबर है। आपको दो बार छोड

वदया, अबकी हवर्गज न छोडंूर्ी।

नावदर-अब तक मेरे पास वदलराम (घोडा) है, बादशाह

को कोई र्म नही ं

रा

207

लैला – अच्छा यह शह? लाइए अपने वदलराम को।’

कवहए अब तो मात हुई?

नावदर-हां जानेमन अब मात हो र्यी। जब मैही

तुम्हारी आदाओ ं पर वनसार हो र्या तब मेरा बादशाह

कब बच सकता था।

लैला–बातें न बनाइए, चुपके से इस फरमान पर

दस्तित कर दीवजए जैसा आपने िाद वकया था।

यह कह कर लैला ने फरमान वनकाला वजसे उसने

िुद अपने मोती के से अक्षरो से वलिा था। इसमे अन्न का

आयात कर घटाकर आधा कर वदया र्या, था। लैला प्जा

को भूली न थी, िह अब भी उनकी वहत कामना में संलग्न

रहती थी। नावदर ने इस शतग पर फरमान पर दस्तित

करने का िचन वदया था वक लैला उसे शतरंज में तीन बार

मात करे। िह वसद्धहस्त ज्जिलाडी था इसे लैला जानती थी,

पर यह शतरंज की बाजी न थी, केिल विनोद था। नावदर

ने मुस्कारते हुए फरमान पर हस्ताक्षर कर वदये कलम के

एक एक वचन्ह से प्जा की पांच करोड िावषगक दर से

मुज्जक्त हो र्यी। लैला का मुि र्िग से आरक्त हो र्या। जो

काम बरसो ं के आन्दोलन से न हो सकता था, िह पे्म

कटाक्षो ंसे कुछ ही वदनो ं में पुरा होर्या।

यह सोचकर िह फूली न समाती थी वक वजस िक्त

िह फरमान सरकारी पते्र मं प्कावशत हो जायेर्ा। और

व्यिस्थावपका सभा के लोर्ो को इसके दशगन होरं्ें, उस

िक्त प्जािावदयो ंको वकतना आनंद होर्ा। लोर् मेरा यश

र्ायेर्ें और मुझे आशीिादग देरे्।

208

नावदर पे्म मुग्ध होकर उसके चंद्रमुि की ओर देि

रहा था, मानो उसका िश होता तो सौदंयग की इस प्वतमा

को हृदय में विठा लेता।

हसा राज्य–भिन के द्वार पर शोर मचने लर्ा।

एक क्षि में मालूम हुआ वक जनता का टीडी दल;

अस्त्र शस्त्र से सृसज्जित राजद्वार पर िडा दीिरो को

तोडने की चेिा कर रहा हे। प्वतक्षि शारे बढता जाता था

और ऐसी आशंका होती थी वक क्रोधोन्मत्त जनता द्वारो ंको

तोडकर भीतर घूस आयेर्ी। वफर ऐसा मालूम हुआ वक

कुछ लोर् सीवढया लर्ाकर दीिार पर चढ़ रहे है। लैला

लिा और ग्लावन से वसर झुकाय िडी थी उसके मुि से

एक शब् भी न वनकलता था। क्ा यही िह जनता है,

वजनके किो ंकी कथा कहते हुए उसकी िािी उन्मत्त हो

जाती थी? यही िह अशक्त, दवलत कु्षधा पीवडत अत्याचार

की िेदा से तडपती हुई जनता है वजस पर िह अपने को

अपगि कर चुकी थी।

नावदर भी मौन िडा था; लेवकन लिा से नही, क्रोध

स उसका मुि तमतमा उठा था, आंिो से वचरर्ाररयां

वनकल रही थी बार बार ओठ चबाता और तलिार के

कबे्ज पर हाथ रिकर रह जाता था िह बार बार लैला की

ओर संतप्त नेत्रो से देिता था। जरा इशारे की देर थी।

उसका हुक्म पाते ही उसकी सेना इस विद्रोही दल को यो

भर्ा देर्ी जैसे आंधी। पतो ं को उडा देती है पर लैला से

आंिे न वमलती थी।

आज्जिर िह अधीर होकर बोला-लैला, मै राज सेना को

बुलाना चाहता हं क्ा कहती हो?

209

लैला ने दीनतापूिग नेत्रो से देिकर कहा–जरा ठहर

जाइए पहले इन लोर्ो से पूवछए वक चाहते क्ा है।

आदेश पाते ही नावदर छत पर चढ़ र्या, लैला भी

उसक पीछे पीछे ऊपर आ पहंुची। दोनो ंअब जनता के

समु्मि आकर िडे हो र्ये। मशलो ंके प्काश में लोर्ो ंन

इन दोनो को छत पर िडे देिा मानो आकाश से देिता

उतर आयें हो,ं सहस्त्रो से ध्ववन वनकली–िह िडी है लैला

िह िडी।’ यह िह जनता थी जो लैला के मधुर संर्ीत पर

मस्त हो जाया करती थी।

नावदर ने उच्च र्स्र से विद्रोवहयो ंको सम्बोवधत वकया–

ऐ ईरान की बदनसीब ररआया। तुमने शाही महल को क्ो

घेर रिा है? क्ो ं बर्ाित का झंडा िडा वकया है? क्ा

तुमको मेरा और अपने िुदा का वबिुल िौफ वकया। है?

क्ा तुम नही ंजानतें वक मै अपनी आंिो ंके एक इशारे

से तुम्हारी हस्ती िाक में वमला सकता हं? मै तुमे्ह हुक्म

देता हंु वक एक लमे्ह के अन्दर यहां से चलो जाओ ं िरना

कलामे-पाक की कसम, मै तुम्हारे िून की नदी बहा दंूर्ा।

एक आदमी ने, जो विद्रोवहयो ंका नेता मालूम होता था,

सामने आकर कहा–हम उस िक्त तक न जायेरे्, जब तक

शाही महल लैला से िाली न हो जायेर्ा।

नावदर ने वबर्डकर कहा-ओ नाशुक्रो, िुदा से डरो!’

तूमे्ह अपनी मलका की शान में ऐसी बेअदबी करते हुए

शमग नही आती!’ जब से लैला तुम्हारी मलका हुई है, उसने

तुम्हारे साथ वकनती ररयायते की है।‘ क्ा उन्हें तुम

वबलकुल भूल र्ये? जावलमो िह मलका है, पर िही िना

िाती है जो तूम कुत्तो ं को ज्जिला देते हो, िही कपडे

पहनती है, जो तुम फकीरो को दे देते हो। आकर महलसरा

210

में देिो तुम इसे अपने झोपडो ही की तरह तकल्लफु और

सजािट से िाली पाओरे्। लैला तुम्हारी मलका होकर भी

फकीरो की वजंदर्ी बसर करती है, तुम्हारी ज्जिदमत में

हमेशा मस्त रहती है। तुम्हें उसके कदमो की िाक माथे

पर लर्ानी चावहए आिो का सुरमा बनाना चावहए। ईरान

के ति पर कभी ऐसी र्रीबो पर जान देने िाली उनके

ददग में शरीक होनेिाली र्रीबो पर अपने को वनसार करने

िाली मलकाने कदम नही रिे और उसकी शान में तुम

ऐसी बेहदा बातें करते हो।’ अफसोस मुझे मालूम हो र्या

वक तुम जावहल इन्सावनयत से िाली और कमीने हो।’ तुम

इसी कावबल हो वक तुम्हारी र्रदेन कुन्द छुरी से काटी

जायें तुम्हें पैरो तले रौदां जाये...

नावदर बात भी पूरी न कर पाया था वक विद्रोवहयो ं ने

एक र्स्र से वचल्लाकर कहा-लैला हमारी दुश्मन है, हम

उसे अपनी मलका की सुरत में नही देि सकते।

नावदर नेजोर से वचल्लाकर कहा-जावलमो, जरा

िामोश हो जाओ,ं यह देिो िह फरमान है वजस पर

लैला ने अभी अभी मुझसे जबरदस्तीर दस्तित कराये है।

आज से र्ले्ल का महसूल घटाकर आधा कर वदया र्या है

और तुम्हारे वसर से महसूल का बोझ पांच करोड कम हो

र्या है।

हजारो आदवमयो ं ने शोर मचाया–यह महसूल बहुत

पहले वबलकुल माफ हो जाना चावहए था। हम एक कौडी

नही दे सकते। लैला, लैला हम उसे अपनी मलका की सुरत

में नही देि सकते।

अब बादशाह क्रोध से कापंने लर्ा। लैला ने सजल

नेत्र होकर कहा-अर्र ररआया की यही मरजी है वक मैं

211

वफर डफ बजा-बजा कर र्ाती वफरंु तो मुझे उज्र नही,ं

मुझे यकीन है वक मै अपने र्ाने से एक बार वफर इनके

वदल पर हुकूमत कर सकती हं।

नावदर ने उते्तवजत होकर कहा- लैला, मैं ररआया की

तुनुक वमजावजयो ंका रू्लाम नही।ं इससे पहले वक मै तुमे्ह

अपने पहलू से जूदा करंु तेहरान की र्वलयां िून से लाल

हो जायेर्ी। मै इन बदमाशो को इनकी शरारत का मजा

चिाता हं।

नावदर ने मीनार पर चढकर ितरे का घंटा बजाया।

सारे तेहरान मे उसकी आिाज रंू्ज उठी, शाही फौज का

एक आदमी नजर न आया।

नावदर ने दोबारा घंटा बजाया, आकाश मंडल उसकी

झंकार से कज्जम्पत हो र्या। तारार्ि कापं उठे; पर एक भी

सैवनक न वनकला।

नावदर ने तीससी बार घंटा बजाया पर उसका भी उत्तर

केिल एक क्षीि प्वतध्ववन ने वदया मानो वकसी मरने िाले

की अवतंम प्ाथगना के शब् हो।ं

नावदर ने माथा पीट वलया। समझ र्या वक बुरे वदन

आ र्ये। अब भी लैला को जनता के दुराग्रह पर बवलदान

करके िह अपनी राजसत्ता की रक्षा कर सकता था, पर

लैला उसे प्ािो ं से वप्य थी उसने छत पर आकर लैला

का हाथ पकड वलया और उसे वलये हुए सदर फाटक से

वनकला विद्रोवहयो ं ने एक विजय ध्ववन क साथ उनका

र्स्ार्त वकया, पर सब के सब वकसी रु्प्त प्रेिा के िश

रासे्त से हट र्ये।

दोनो चुपचाप तेहरान की र्वलयो ं में होते हुए चले

जाते, थे। चारो ंओर अंधकार था। दुकाने बंदथी बाजारो ं

212

में सन्नाटा छाया हुआ था। कोई घर से बाहर न वनकलता

था। फकीरो ं ने भी मसवजदो में पनाह ले ली थी पर इन

दोनो प्ावियो के वलए कोई आश्रय न था। नावदर की कमर

में तलिार थी, लैला के हाथ में डफ था उनके विशाल

ऐश्वयग का विलुप्त वचह्न था।

7

रा साल रु्जर र्या। लैला और नावदर देश-विदेश की

िाक छानते वफरते थे। समरकंद और बुिारा,

बर्दाद और हलब, कावहरा और अदन ये सारे देश उन्होनें

छान डाले। लैला की डफ वफर जादू करने मेला लर्ी

उसकी आिाज सुनते ही शहर में हलचल मच जाती,

आदमीयो ं का मेला लर् जाता आिभर्त होने लर्ती;

लेवकन ये दोनो यात्री कही ंएक वदन से अवधक न ठहरते

थे। न वकसी से कुछ मारं्ते न वकसी के द्वार पर जाते।

केिल रुिा-सुिा भोजन कर लेते और कभी वकसी िृक्ष

के नीचे कभी पिगत की रु्फा में और कभी सडक के

वकनारे रात काट देते थे। संसार के कठोर व्यिहार ने

उन्हें विरक्त हर वदया था, उसके प्लोभन से कोसो ं दूर

भार्ते थे। उने्ह अनुभि हो र्या था वक यहां वजसके वलए

प्ाि अपगि कर दो िही,ं अपना शतु्र हो जाता है, वजसके

साथ भलाई करो, िही बुराई की कमर बांधता है, यहा

वकसी से वदल न लर्ाना चावहए। उसके पास बडे-बडे

रईसो के वनमंत्रि आते उने्ह एक वदन अपना मेहमान

बनाने केवलए हजारो वमन्नतें करते; पर लैला वकसी की न

सुनती। नावदर को अब तक कभी कभी बादशाहत की

सनक सिार हो जाती थी। िह चाहता था वक रु्प्त रुप से

शज्जक्त संग्रह करके तेहरान पर चढ़ जाऊं और बावर्यो ं

पू

213

को परास्त करके अिंड राज्य करंु; पर लैला की

उदासीनता देिकर उसे वकसी से वमलने जुलने का

साहस न होता था। लैला उसकी प्ािेश्वरी थी िह उसी के

इशारो ंपर चलता था।

उधर ईरान में भी अराजकता फैली हुई थी। जनसत्ता

से तंर् आकर रईसो ने भी फौजे जमा कर ली थी और

दोनो दलो मे आये वदन संग्राम होता रहता था। पूरा साल

रू्जर र्या और िेत न जुते देश में भीषि अकाल पडा

हुआ था,व्यापार वशवथल था, िजाना िाली। वदन–वदन

जनता की शज्जक्त घटती जाती थी और रईसो को जोर

बढता जाता था। आज्जिर यहां तक नौबत पहंुची वक

जनता ने हवथयार डाल वदये और रईसो ने राजभिन पर

अपना अवधकार जमा वलया। । प्जा के नेताओ को फांसी

दे दी र्यी, वकतने ही कैद कर वदये र्ये और जनसत्ता का

अंत हो र्या। शज्जक्तिावदयो ं को अब नावदर की याद

आयी। यह बात अनुभि से वसद्ध हो र्यी थी वक देश में

प्जातंत्र स्थावपत करने की क्षमता का अभाि है। प्त्यक्ष

के वलए प्माि की जरुरत न थी। इस अिसर पर

राजसत्ता ही देश का उद्धार कर सकती थी। िह भी

मानी हुई बात थी वक लैला और नावदर को जनमत से

विशेष पे्म न होर्ा। िे वसंहासन पर बैठकर भी रईसो ही

के हाथ में कठपुतली बने रहेर्ें और रईसो ंको प्जा पर

मनमाने अत्याचार करने का अिसर वमलेर्ा। अतएि

आपस में लोर्ो ं ने सलाह की और प्वतवनवध नावदर को

मना लाने के वलये रिाना हंुए।

214

ध्या का समय था। लैला और नावदर दवमि

में एक िृक्ष के नीचे बैठे हुए थे। आकाशा पर

लावलमा छायी हुई थी। और उससे वमली हुई पिगत

मालाओ ं की श्याम रेिा ऐसी मालूम हो रही थी मानो

कमल-दल मुरझा र्या हो। लैला उल्लवसत नेत्रो से प्कृवत

की यह शोभा देि रही थी। नावदर मवलन और वचंवतत भाि

से लेटा हुआ सामने के सुदुर प्ांत की ओर तृवषत नेत्रो ंसे

देि रहा था, मानो इस जीिन से तंर् आ र्या है।

सहसा बहुत दूर र्दग उडती हुई वदिाई दी और एक

क्षि में ऐसा मालूम हुआ वक कुछ आदमी घोडो पर

सिार चले आ रहे है। नावदर उठ बैठा और र्ौर से देिने

लर्ा वक ये कौन आदमी है। अकिात िह उठकर िडा

हो र्या। उसका मुि मंडल दीपक की भावत चमक उठा

जजगर शरीर में एक विवचत्र सु्फवतग दौड र्यी। िह

उतु्सकता से बोला–लैला, ये तो ईरान के आदमी, कलामे–

पाक की कसम, ये ईरान के आदमी है। इनके वलबास से

साफ जावहए हो रहा है।

लैला–पहले मै, भी उन यावत्रयो ं की ओर देिा और

सचेत होकर बोली–अपनी तलिार संभाल लो, शायद

उसकी जरुरत पडे,।

नावदर–नही ंलैला, ईरान केलोर् इतने कमीने नही ंहै

वक अपने बादशाह पर तलिार उठायें।

लैला- पहले मै भी यही समझती थी।

सिारो ं ने समीप आकर घोडे रोक वलये। उतकर बडे

अदब से नावदर को सलाम वकया। नावदर बहुत जब्त करने

पर भी अपने मनोिेर् को न रोक सका, दौडकर उनके

र्ले वलपट र्या। िह अब बादशाह न था, ईरान का एक

सं

215

मुसावफर था। बादशहत वमट र्यी थी, पर ईरावनयत रोम

रोम में भरी हुई थ्री। िे तीनो ंआदमी इस समय ईरान के

विधाता थे। इने्ह िह िूब पहचानता था। उनकी

र्स्ावमभज्जक्त की िह कई बार परीक्षा ले चुका था। उने्ह

लाकर अपने बोररये पर बैठाना चाहा, लेवकन िे जमीन

पर ही बैठे। उनकी दृवि से िह बोररया उस समय वसंहासन

था, वजस पर अपने र्स्ामी के समु्मि िे कदम न रि

सकते थे। बातें होने लर्ी,ं ईरान की दशा अतं्यत शोचनीय

थी। लूट मार का बाजार र्मग था, न कोई व्यिस्था थी न

व्यिस्थापक थे। अर्र यही दशा रही तो शायद बहुत

जल्द उसकी र्रदन में पराधीनता का जुआ पड जाये।

देश अब नावदर को ढंूढ रहा था। उसके वसिा कोई दूसरा

उस डुबते हुए बेडे को पार नही ं लर्ा सकता था। इसी

आशा से ये लोर् उसके पास आये थे।

नावदर ने विरक्त भाि से कहा- एक बार इित ली,

क्ा अबकी जान लेने की सोची है? मै बडे आराम से हं।’

आप मुझे वदक न करें ।

सरदारो ं ने आग्रह करना शुरु वकया–हम हुजूर का

दामन न छोडेरे्, यहां अपनी र्रदनो ंपर छुरी फेर कर

हुजूर के कदमो पर जान दे देरे्। वजन बदमाशो ंने आपकी

परेशान वकया। अब उनका कही ंवनशान भी नही ंरहा हम

लोर्ो उन्हें वफर कभी वसर न उठाने देर्ें ,वसफॅग हुजूर की

आड चावहए।

नावदर नेबात काटकर कहा-साहबो अर्र आप मुझे

इस इरादे से ईरान का बादशाह बनाना चाहते है, तो

माफ कीवजए। मैने इस सफर मे ररआया की हालत का र्ौर

से मुलाहजा वकया है और इस नतीजे पर पहंुचा हं वक

216

सभी मुिो में उनकी हालत िराब है। िे रहम के कवबल

है ईरान में मुझे कभी ऐसे मौके ने वमले थे। मैं ररआया को

अपने दरिाररयो ं की आिो ं से देिता था। मुझसे आप

लोर् यह उम्मीद न रिे वक ररआया को लूटकर आपकी

जेबें भरुर्ां। यह अजाब अपनी र्रदन पर नही ने

सकता। मैं इन्साफ का मीजान बराबर रिंूर्ा और इसी

शतग पर ईरान चल सकता हं।

लैला ने मुस्कराते कहा-तुम ररआया का कसूर माफ

कर सकते हो, क्ोवक उसकी तुमसे कोई दुश्मनी न थी।

उसके दांत तो मुझे पर थे। मै उसे कैसे माफ कर सकती

हं।

नावदर ने र्म्भीर भाि से कहा-लैला, मुझं यकीन

नही ंआता वक तुम्हारे मंुह से ऐसी बातें सुन रहा हं।

लोर्ो ने समझा अभी उन्हें भडकाने की जरुरत ही

क्ा है। ईरान में चलकर देिा जायेर्ा। दो चार मुिवबरो

से ररआया के नाम पर ऐसे उपद्रि िडे करा दें रे् वक इनके

सारे ख्याल पलट जायेर्ें। एक सरदार ने अजग की-

माजल्लाह; हुजूर यह क्ा फरमाते है? क्ा हम इतने

नादान है वक हुजूरं को इन्साफ के रासे्त से हटाना

चाहेर्ें? इन्साफ हीबादशाह का जौहर है और हमारी वदली

आरजू है वक आपका इन्साफ ही नौशेरिां को भी शवमगदां

कर दे,। हमारी मंशा वसफग यह थी वक आइंदा से हम

ररआया को कभी ऐसा मौका न देर्ें वक िह हुजूर की शान

में बेअदबी कर सके। हम अपनी जानें हुजूर पर वनसार

करने के वलए हावजर रहेंरे्।

सहसा ऐसा मालूम हुआ वक सारी प्कृवत संर्ीतमय

हो र्यी है । पिगत और िृक्ष, तारे, और च ॉँद िायु और जल

217

सभी एक र्स्र से र्ाने लरे्। च ॉँदनी की वनमगल छटा में िायु

के नीरि प्हार में संर्ीत की तरंर्ें उठने लर्ी। लैला अपना

डफ बजा बजा कर र्ा रही थी। आज मालूम हुआ, ध्ववन

ही सृवि का मूल है।द पिगतो ं पर देवियां वनकल वनकल

कर नाचने लर्ी ं अकाशा पर देिता नृत्य करने लरे्।

संर्ीत ने एक नया संसार रच डाला।

उसी वदन से जब वक प्जा ने राजभिन के द्वार पर

उपद्रि मचाया था और लैला के वनिागसन पर आग्रह वकया

था, लैला के विचारो ंमें क्रांवत हो रही थी जन्म से ही उसने

जनता के साथ साहनुभूवत करना सीिा था। िह

राजकमगचाररयें को प्जा पर अत्याचार करते देिती थी

और उसका कोमल हृदय तडप उठता था। तब धन ऐश्वयग

और विलास से उसे घृिा होने लर्ती थी। वजसके कारि

प्जा को इतने कि भोर्ने पडते है। िह अपने में वकसी

ऐशी शज्जक्त का आह्वाहन करना चाहती थी वक जो

आतताइयो ं के हृदय में दया और प्जा के हृदय में अभय

का संचार करे। उसकी बाल कल्पना उसे एक वसंहासन

पर वबठा देती, जहां िह अपनी न्याय नीवत से संसार में

युर्ातर उपज्जस्थत कर देती। वकतनी रातें उसने यही र्स्प्न

देिने में काटी थी। वकतनी बार िह अन्याय पीवडयो ं के

वसरहाने बैठकर रोयीथी लेवकन जब एक वदन ऐसा

आया वक उसके र्स्िग र्स्प्न आंवशक रीवत से पूरे होने लरे्

तब उसे एक नया और कठोर अनुभि हुआ! उसने देिा

प्जा इतनी सहनशील इतनी दीन और दुबगल नही ं है,

वजतना िह समझती थी इसकी अपेक्षा उसमें ओछेपन,

अविचार और अवशिता की मात्रा कही ंअवधक थी। िह

सद्व्यहार की कद्र करना नही जानती, शाज्जक्त पाकर

218

उसका सदुपयोर् नही ंकर सकती। उसी वदन से उसका

वदल जनता से वफर र्या था।

वजस वदन नावदर और लैला ने वफर तेहरान में

पदापगि वकया, सारा नर्र उनका अवभिादन करने के

वलए वनकल पडा शहर पर आतंक छाया हुआ था।, चारो

ओर करुि रुदन की ध्ववन सुनाई देती थी। अमीरो ंके

मुहले्ल में श्री लोटती वफरती थी र्रीबो के मुहले्ल उजडे

हुएथे, उने्ह देिकर कलेजा फटा जाता था। नावदर रो

पडा, लेवकन लैला के होठो ं पर वनषु्ठर वनदगय हास्य छटा

वदिा रहा था।

नावदर के सामने अब एक विकट समय्या थी। िह

वनत्य देिता वक मै जो करना चाहता हं िह नही होता

और जो नही ं करना चाहता िह होता है और इसका

कारि लैला है, पर कुछ कह न सकता था। लैला उसके

हर एक काम में हस्तके्षप करती रहती, थी। िह जनता के

उपकार और उद्धार के वलए विधान करता, लैला उसमे

कोई न कोई विध्न अिश्य डाल देती और उसे चुप रह

जाने के वसिा और कुछ न सुझता लैला के वलए उसने

एक बार राज्य का त्यार् कर वदया था तब आपवत-काल

ने लैला की परीक्षा की थी इतने वदनो ंकी विपवत में उसे

लैला के चररत्र का जो अनुभि प्ाप्त हुआ था, िह इतना

मनोहर इतना सरस था वक िह लैला मय हो र्या था।

लैला ही उसका र्स्र्ग थी, उसके पे्म में रत रहना ही

उसकी परम अवधलाषा थी। इस लैला के वलए िह अब

क्ा कुछ न कर सकता था? प्जा की ओर साम्राज्य की

उसके सामने क्ा हस्ती थी।

219

इसी भांवत तीन साल बीत र्ये प्जा की दशा वदन वदन

वबर्डती ही र्यी।

क वदन नावदर वशकर िेलने र्या। और सावथयो ं से

अलर् होकर जंर्ल में भटकता वफरा यहां तक वक

रात हो र्यी और सावथयो ंका पता न चला। घर लौटने का

भी रास्ता न जानता था। आज्जिर िुदा का नाम लेकर िह

एक तरफ चला वक कही ंतो कोई र्ांि या बस्ती का नाम

वनशान वमलेर्ा! िहां रात, भर पड रहंुर्ा सबेरे लौट

जाउंर्ा। चलते चलते जंर्ल के दूसरे वसरे पर उसे एक

र्ांि नजर आया। वजसमें मुज्जिल से तीन चार घर होर्ें हा,

एक मसवजद अलबत्ता बनी हुई थी। मसवजद मे एक

दीपक वटमवटमा रहा था पर वकसी आदमी या

आदमजात का वनशान न था। आधी रात से ज्यादा बीत

चुकी थी, इसवलए वकसी को कि देना भी उवचत न था।

नावदर ने घोडे का एक पेड स बाध वदया और उसी

मसवजद में रात काटने की ठानी। िहां एक फटी सी

चटाई पडी हुई थी। उसी पर लेट र्या। वदन भर तक सोता

रहा; पर वकसी की आहट पाकर चौका तो क्ा देिता है

वक एक बूढा आदमी बैठा नमाज पढ़ रहा है। उसे यह

िबर न थी वकरात रु्जर र्यी और यह फजर की नमाज

है। िह पडा–पडा देिता रहा। िृद्ध पुरुष ने नमाज अदा

कही वफर िह छाती के सामने अवजल फैलकर दुआ मांर्ने

लर्ा। दुआ के शब् सुनकर नावदर का िून सदग हो र्या।

िह दुआ उसके राज्यकाल की ऐसी तीव्र, ऐसी िाज्जस्तिक

ऐसी वशक्षाप्द आलोचना थी जो आज तक वकसी ने न की

थी उसे अपने जीिन में अपना अपयश सुनने का अिसर

220

प्ाप्त हुआ। िह यह तो जानता था वक मेरा शासन आदशग

नही ंहै, लेवकन उसने कभी यह कल्पना न की थी वक प्जा

की विपवत इतनी असत्य हो र्यी है। दुआ यह थी-

‘‘ए िुदा! तू ही र्रीबो का मददर्ार और बेकसो ंका

सहारा है।

तू इस जावलम बादशह के जुल्म देिता है और तेरा िहर

उस पर नही ं वर्रता। यह बेदीन कावफर एक हसीन

औरत की मुहब्बत में अपने को इतना भूल र्या है वक न

आिो ंसे, देिता है, न कानो से सुनता है। अर्र देिता है

तो उसी औरत की आंिें से सुनता है तो उसी औरत के

कानो से अब यह मुसीबत नही ंसही जाती। या तो तू उस

जावलम को जहनु्नम पहंुचा दे; या हम बेकसो ंको दुवनया से

उठा ले। ईरान उसके जुल्म से तंर् आ र्या है। और तू ही

उसके वसर से इस बाला को टाल सकता है।’

बूढें ने तो अपनी छ़डी संभाली और चलता हुआ,

लेवकन नावदर मृतक की भावतं िही ं पडा रहा मानो ंउसे

पर वबजली वर्र पडी हो।ं

१०

क सप्ताह तक नावदर दरबार में न आया, न वकसी

कमगचारी को अपने पास आने की आज्ञा दी। वदन

केवदन अन्दर पडा सोचा करता वक क्ा करंु। नाम मात्र

को कुछ िा लेता। लैला बार बार उसके पास जाती और

कभी उसका वसर अपनी जांघ पर रिकर कभी उसके

र्ले में बाहें डालकर पूछती–तुम क्ो ंइतने उदास और

मवलन हो। नावदरा उसे देिकर रोने लर्ता; पर मंुह से

कुछ न कहता। यश या लैला, यही उसके सामने कवठन

समस्या थी। उसक हृदय में भीषि द्वन्द्व रहाता और िह

221

कुद वनश्चय न कर सकता था। यश प्यारा था; पर लैला

उससे भी प्यारी थी िह बदनाम होकर वजंदा रह सकता

था। लैला उसके रोम रोम में व्याप्त थी।

अंत को उसने वनश्चय कर वलया–लैला मेरी है मै लैला

का हं। न मै उससे अलर् न िह मुझेस जुदा। जो कुछ िह

करती है मेरा है, जो मै करता ह। उसका है यहां मेरा

और तेरा का भेद ही कहां? बादशाहत नश्वार है पे्म

अमर । हम अनंत काल तक एक दूसरे के पहलू में बैठे

हुए र्स्र्ग के सुि भोरे्र्ें। हमारा पे्म अनंत काल तक

आकाश में तारे की भावत चमकेर्ा।

नावदर प्सन्न होकर उठा। उसका मुि मंडल विजय की

लावलमा से रंवजत हो रहा था। आंिो ंमें शौयग टपका पडता

था। िह लैला के पे्मका प्याला पीने जा रहा था। वजसे एक

सप्ताह से उसने मंुह नही ं लर्ाया था। उसका हृदय उसी

उमंर् से उछता पडताथा। जो आज से पांच साल पहले

उठा करती थी। पे्म का फूल कभी नही मुरझाता पे्म की

नीदं कभी नही ं उतरती।

लेवकन लैला की आरामर्ाह के द्वार बंद थे और

उसका उफ जो द्वार पर वनत्य एक िंूटी से लटका रहता

था, र्ायब था। नावदर का कलेजा सन्न-सा हो र्या। द्वार

बदं रहने का आशय तो यह हो सकता हे वक लैला बार् में

होर्ी; लेवकन उफ कहां र्या? सम्भि है, िह उफ लेकर

बार् में र्यी हो, लेवकन यह उदासी क्ो छायी है? यह

हसरत क्ो बरस रही है।’

नावदर ने कांपते हुए हाथो से द्वार िोल वदया। लैला

अंदर न थी पंर्ल वबछा हुआ था, शमा जल रही थी, िजू

का पानी रिा हुआथा। नावदर के पािं थरागने लरे्। क्ा

222

लैला रात को भी नही ंसोती? कमरे की एक एक बसु्त में

लैला की याद थी, उसकी तर्स्ीर थी ज्योवत-हीन नेत्र।

नावदर का वदल भर आया। उसकी वहम्मत न पडी वक

वकसी से कुछ पूछे। हृदय इतना कातर हो र्या वक

हतबुज्जद्ध की भांवत फशग पर बैठकर वबलि-वबलि कर

रोने लर्ा। जब जरा आंसू थमे तब उसने विस्तर को सूघां

वक शायद लैला के स्पशग की कुछ रं्ध आये; लेवकन िस

और रु्लाब की महक क वसिा और कोई सुरं्ध न थी।

साहसा उसे तवकये के नीचे से बाहर वनकला हुआ

एक कार्ज का पुजाग वदिायी वदया। उसने एक हाथ से

कलेजे को सभालकर पुजाग वनकाल वलया और सहमी हुई

आंिो से उसे देिा। एक वनर्ाह में सब कुछ मालूम हो

र्या। िह नावदर की वकित का फैसला था। नावदर के

मंुह से वनकला, हाय लैला; और िह मुवछग त होकर जमीन

पर वर्र पडा। लैला ने पुजे में वलिा था-मेरे प्यारे नावदर

तुम्हारी लैला तुमसे जुदा होती है। हमेशा के वलए । मेरी

तलाश मत करना तुम मेरा सुरार् न पाओरे् । मै तुम्हारी

मुहब्बत की लौडी थी, तुम्हारी बादशाहत की भूिी नही।ं

आज एक हफते से देि रही हं तुम्हारी वनर्ाह वफरी हुई

है। तुम मुझसे नही ंबोलते, मेरी तरफ आंि उठाकर नही ं

देिते। मुझेसे बेजार रहते हो। मै वकन वकन अरमानो ं से

तुम्हारे पास जाती हं और वकतनी मायूस होकर लौटती हं

इसका तुम अंदाज नही ं कर सकते। मैने इस सजा के

लायक कोई काम नही ंवकया। मैने जो कुछ है, तुम्हारी ही

भलाई केियाल से। एक हफता मुझे रोते रु्जर र्या।

मुझे मालूम हो रहा है वक अब मै तुम्हारी नजरो ं से वर्र

र्यी, तुम्हारे वदल से वनकाल दी र्यी। आह! ये पांच साल

223

हमेशा याद रहेर्ें, हमेशा तडपाते रहेंर्ें! यही डफ ले कर

आयी थी, िही लेकर जाती हं पांच साल मुहब्बत के मजे

उठाकर वजंदर्ी भर केवलए हसरत का दार् वलये जाती हं।

लैला मुहब्बत की लौडंी थी, जब मुहब्बत न रही, तब लैला

क्ोकंर रहती? रूिसत!’

224

नेउर

काश में चांदी के पहाड भार् रहे थे, टकरा रहे थे

र्ले वमल रहें थे, जैसे सूयग मेघ संग्राम वछडा हुआ

हो। कभी छाया हो जाती थी कभी तेज धूप चमक उठती

थी। बरसात के वदन थे। उमस हो रही थी । हिा बदं हो

र्यी थी।

र्ािं के बाहर कई मजूर एक िेत की मेड बांध रहे,

थे। नंरे् बदन पसीने में तर कछनी कसे हुए, सब के सब

फािडे से वमटटी िोदकर मेड पर रिते जाते थे। पानी से

वमट्टी नरम हो र्यी थी।

र्ोबर ने अपनी कानी आंि मटकाकर कहां-अब तो

हाथ नही ंचलता भाई र्ोल भी छूट र्या होर्ा, चबेना कर

ले।

नेउर ने हंसकर कहा-यह मेड तो पूरी कर लो वफर

चबेना कर लेना मै तो तुमसे पहले आया।

दोनो ने वसर पर झौिा उठाते हुए कहा-तुमने अपनी

जिानी में वजतनी घी िाया होर्ा नेउर दादा उतना तो

अब हमें पानी भी नही ं वमलता। नेउर छोटे डील का

र्ठीला काला, फुतीला आदमी,था। उम्र पचास से ऊपर

थी, मर्र अचे्छ अचे्छ नौजिान उसके बराबर मेहनत न

कर सकते थे अभी दो तीन साल पहले तक कुश्ती लडना

छोड वदया था।

र्ोबर–तुमने तमिू वपये वबना कैसे रहा जाता है नेउर

दादा? यहां तो चाहे रोटी ने वमले लेवकन तमािू के वबना

नही ं रहा जाता। दीना–तो यहां से आकर रोटी बनाओरे्

225

दादा? बुवछया कुछ नही ं करती? हमसे तो दादा ऐसी

मेहररय से एक वदन न पटे।

नेउर के वपचक ज्जिचडी मंूछो से ढके मुि परहास्य

की ज्जित-रेिा चमक उठी वजसने उसकी कुरुपता को

भी सुन्दर बनार वदया। बोला-जिानी तो उसी के साथ कटी

है बेटा, अब उससे कोई काम नही होता। तो क्ा करंु।

र्ोबर–तुमने उसे वसर चढा रिा है, नही ंतो काम क्ो

न करती? मजे से िाट पर बैठी वचलम पीती रहती है और

सारे र्ांि से लडा करती है तूम बूढे हो र्ये, लेवकन िह तो

अब भी जिान बनी है।

दीना–जिान औरत उसकी क्ा बराबरी करेर्ी? सेंदुर,

वटकुली, काजल, मेहदी में तो उसका मन बसाता है। वबना

वकनारदार रंर्ीन धोती के उसे कभी उदेिा ही नही ं उस

पर र्हानो ंसे भी जी नही ंभरता। तुम र्ऊ हो इससे वनबाह

हो जाता है, नही ंतो अब तक र्ली र्ली ठोकरें िाती होती।

र्ोबर – मुझे तो उसके बनाि वसंर्ार पर रु्स्सा

आताहै । कात कुछन करेर्ी; पर िाने पहनने को अच्छा

ही चावहए।

नेउर-तुम क्ा जानो बेटा जब िह आयी थी तो मेरे घर

सात हल की िेती होती थी। रानी बनी बैठी रहती थी।

जमाना बदल र्या, तो क्ा हुआ। उसका मन तो िही है।

घडी भर चूले्ह के सामने बैठ जाती है तो क्ा हुआ! उसका

मन तो िही है। घडी भर चूले्ह के सामने बैठ जाती है तो

आंिे लाल हो जाती है और मूड थामकर पड जाती है।

मझसे तो यह नही देिा जाता। इसी वदन रात के वलए तो

आदमी शादी ब्याह करता है और इसमे क्ा रिा है। यहां

से जाकर रोटी बनाउंर्ा पानी, लाऊर्ां, तब दो कौर

226

िायेर्ी। नही ं तो मुझे क्ा था तुम्हारी तरह चार फंकी

मारकर एक लोटा पानी पी लेता। जब से वबवटया मर र्यी।

तब से तो िह और भी लस्त हो र्यी। यह बडा भारी धक्का

लर्ा। मां की ममता हम–तुम क्ा समझेर्ें बेटा! पहले तो

कभी कभी डांट भी देता था। अबवकस मंुह से डांटंू?

दीना-तुम कल पेड काहे को चढे थे, अभी रू्लर कौन

पकी है?

नेउर-उस बकरी के वलए थोडी पत्ती तोड रहा था।

वबवटया को दूध वपलाने को बकरी ली थी। अब बुवढया हो

र्यी है। लेवकन थोडा दूध दे देती है। उसी का दूध और

रोटी बुवढया का आधार है।

घर पहंुचकर नेउर ने लोटा और डोर उठाया और

नहाने चला वक स्त्री ने िाट पर लेटे–लेटे कहा- इतनी देर

क्ो ंकर वदया करते हो? आदमी काम के पीछे परान थोडे

ही देता है? जब मजूरी सब के बराबर वमलती है तो क्ो

काम काम केपीछे मरते हो?

नेउर का अन्त:करि एक माधुयग से सराबोर हो र्या।

उसके आत्मसमपगि से भरे हुए पे्म में मैं की र्ि भी तो

नही ं थी। वकतनी से्नह! और वकसे उसके आराम की,

उसके मरने जीने की वचन्ता है? वफर यह क्ो ं न अपनी

बुवढया के वलए मरे? बोला–तू उन जनम में कोई देिी रही

होर्ी बुवढया,सच।

‘‘अच्छा रहने दो यह चापलूसी । हमारे आरे् अब कौन

बैठा हुआ है, वजसके वलए इतनी हाय–हाय करते हो?’’

नेउर र्ज भर की छाती वकये स्नान करने चला र्या।

लौटकर उसने मोटी मोटी रोवटयां बनायी। आलू चूले्ह में

227

डाल वदये। उनका भुरता बनाया, वफर बुवढया और िह

दोनो साथ िाने बैठे।

बुवढया–मेरी जात से तुमे्ह कोई सुि न वमला। पडे-पडे

िाती हं और तुमे्ह तंर् करती हं और इससे तो कही ं

अच्छा था वक भर्िान मुझे उठा लेते।’

‘भर्िान आयेंरे् तो मै कहंर्ा पहले मुझे ले चलो।ं तब

इस सूनी झोपडी में कौन रहेर्ा।’

‘तुम न रहोरे्, तो मेरी क्ा दशा होर्ी। यह सोचकर

मेरी आंिो में अंधेरा आ जाता है। मैने कोई बडा पुन वकया

था। वक तुम्हें पाया था। वकसी और के साथ मेरा भला क्ा

वनबाह होता?’

ऐसे मीठे संन्तोष के वलए नेउर क्ा नही ंकर डालना

चाहता था।

आलवसन लोवभन, र्स्ावथगन बुवढयांअपनी जीभ पर केिल

वमठास रिकर नेउर को नचाती थी जैसे कोई वशकारी

कंवटये में चारा लर्ाकर मछली को ज्जिलाता है।

पहले कौन मरे, इस विषय पर आज यह पहली ही

बार बातचीत न हुई थी। इसके पहले भी वकतनी ही बार

यह प्श्न उठा था और या ही छोड वदया र्या था;! लेवकन न

जाने क्ो ं नेउर ने अपनी वडग्री कर ली थी और उसे

वनश्चय था वक पहले मैं जाऊंर्ा। उसके पीछे भी बुवढया

जब तक रह आराम से रहे, वकसी के सामने हाथ न

फैलाये, इसीवलए िह मरता रहता था, वजसमे हाथ में चार

पैसे जमाहो जाये।‘ कवठन से कवठन काम वजसे कोई न

कर सके नेउर करता वदन भर फािडे कुदाल का काम

करने के बाद रात को िह ऊि के वदनो ंमें वकसी की ऊि

पेरता या िेतो ंकी रििाली करता, लेवकन वदन वनकलते

228

जाते थे और जो कुछ कमाता था िह भी वनकला जाता

था। बुवढया के बरै्र िह जीिन....नही,ं इसकी िह कल्पना

ही न कर सकता था।

लेवकन आज की बाते ने नेउर को सशंक कर वदया।

जल में एक बंूद रंर् की भावत यह शका उसके मन मे

समा कर अवतरवजतं होने लर्ी।

ि में नेउर को काम की कमी न थी, पर मजूरी तो

िही वमलती थी, जो अब तक वमलती आयी थी; इस

मन्दी में िह मजूरी भी नही रह र्यी थी। एकाएक र्ांि में

एक साधु कही ं से घूमते–वफरते आ वनकले और नेउर के

घर के सामने ही पीपल की छांह मे उनकी धुनी जल र्ई

र्ांि िालो ने अपना धन्य भाग्य समझा। बाबाजी का सेिा

स्त्कार करने के वलए सभी जमा हो र्ये। कही ं से लकडी

आ र्यी से कही ं से वबछाने को कम्बल कही ं से आटा–

दाल। नेउर के पास क्ा था।? बाबाजी के वलए भेजन

बनाने की सेिा उसने ली। चरस आ र्यी , दम लर्ने

लर्ा।

दो तीन वदन में ही बाबाजी की कीवतग फैलने लर्ी।

िह आत्मदशी है भूत भविष्य ब बात देते है। लोभ तो छू

नही ं र्या। पैसा हाथ से नही ं छूते और भोजन भी क्ा

करते है। आठ पहर में एक दो बावटयां िा ली; लेवकन

मुि दीपक की तरह दमक रहा है। वकतनी मीठी बानी

है।! सरल हृदय नेउर बाबाजी का सबसे बडा भक्त था।

उस पर कही ंबाबाजी की दया हो र्यी। तो पारस ही हो

जायर्ा। सारा दुि दवलद्दर वमट जायर्ा।

र्ां

229

भक्तजन एक-एक करके चले र्ये थे। िूब कडाके

की ठंड पड रही थी केिल नेउर बैठा बाबाजी के पांि

दबा रहा था।

बाबा जी ने कहा- बच्चा! संसार माया है इसमें क्ो ं

फंसे हो?

नेउर ने नत मस्तक होकर कहा-अज्ञानी हंु महाराज,

क्ा करंू?

स्त्री है उसे वकस पर छोडंू!

‘तू समझता है तू स्त्री का पालन करता है?’

‘और कौन सहारा है उसे बाबाजी?’

‘ईश्वर कुद नही है तू ही सब कुछ है?’

नेउर के मन में जैसे ज्ञान-उदय हो र्या। तु इतना

अवभमानी हो र्या है। तेरा इतना वदमार्! मजदूरी करते

करते जान जाती है और तू समझता है मै ही बुवढया का

सब कुछ हं। प्भु जो संसार का पालन करते है, तु उनके

काम में दिल देने का दािा करता है। उसके सरल करते

है। आस्था की ध्ववन सी उठकर उसे वधक्कारने लर्ी

बोला–अज्ञानी हं महाराज!

इससे ज्यादा िह और कुछ न कह सका। आिो ं से

दीन विषाद के आंसु वर्रने लरे्।

बाबाजी ने तेजज्जर्स्ता से कहा –‘देिना चाहता है ईश्वर

का चमत्कार! िह चाहे तो क्षि भर मे तुझे लिपवत कर

दे। क्षि भर में तेरी सारी वचन्ताएं। हर ले! मै उसका एक

तुच्छ भक्त हं काकवििा; लेवकन मुझेमें भी इतनी शज्जक्त है

वक तुझे पारस बना दूॉँ। तू साफ वदल का, सच्चा ईमानदार

आदमी है। मूझे तुझपर दया आती है। मैने इस र्ांि में

230

सबको ध्यान से देिा। वकसी में शज्जक्त नही ं विश्वास नही ं।

तुझमे मैने भक्त का हृदय पाया तेरे पास कुछ चांदी है?’’

नेउर को जान पड रहा था वक सामने र्स्र्ग का द्वार

है।

‘दस प ॉँच रुपये होरे् महाराज?’

‘कुछ चांदी के टूटे फूटे र्हने नही ंहै?’

‘घरिाली के पास कुछ र्हने है।’

‘कल रात को वजतनी चांद वमल सके यहां ला और

ईश्वर की प्भुता देि। तेरे सामने मै चांदी की हांडी में

रिकर इसी धुनी में रि दंूर्ा प्ात:काल आकर हांडी

वनकला लेना; मर्र इतना याद रिना वक उन अशवफग यो

को अर्र शराब पीने में जुआ िेलने में या वकसी दूसरे बुरे

काम में िचग वकया तो कोढी हो जाएर्ा। अब जा सो रह।

हां इतना और सुन ले इसकी चचाग वकसी से मत करना

घरिालो ंसे भी नही।ं’

नेउर घर चला, तो ऐसा प्सन्न था मानो ईश्वर का हाथ

उसके वसर पर है। रात-भर उसे नीदं नही आयी। सबेरे

उसने कई आदवमयो ंसे दो-दो चार चार रुपये उधार लेकर

पचास रुपये जोडे! लोर् उसका विश्वास करते थे। कभी

वकसी का पैसा भी न दबाता था। िादे का पक्का नीयत

का साफ। रुपये वमलने में वदक्कत न हुई। पचीस रुपये

उसके पास थे। बुवढया से र्हने कैसे ले। चाल चली। तेरे

र्हने बहुत मैले हो र्ये है। िटाई से साफ कर ले । रात

भर िटाई में रहने से नए हो जायेरे्। बुवढया चकमे में आ

र्यी। हांडी में िटाई डालकर र्हने वभर्ो वदए और जब

रात को िह सो र्यी तो नेउर ने रुपये भी उसी हांडी मे

डाला वदए और बाबाजी के पास पहंुचा। बाबाजी ने कुछ

231

मत्रय पढ़ा। हांडी को छूनी की राि में रिा और नेउर को

आशीिागद देकर विदा वकया।

रात भर करबटें बदलने के बाद नेउर मंुह अंधेरे

बाबा के दशगन करने र्या। मर्र बाबाजी का िहां पता न

था। अधीर होकर उसने धूनी की जलती हुई राि टटोली

। हांडी र्ायब थी। छाती धक-धक करने लर्ी। बदहिास

होकर बाबा को िोजने लर्ा। हाट की तरफ र्या। तालाब

की ओर पहंुचा। दस वमनट, बीस वमनट, आधा घंटा! बाबा

का कही ंवनशान नही।ं भक्त आने लरे्। बाबा कहां र्ए?

कम्बल भी नही बरतन भी नही!ं

भक्त ने कहा–रमते साधुओ ं का क्ा वठकाना! आज

यहां कल िहां, एक जर्ह रहे तो साधु कैसे? लोर्ो से हेल-

मेल हो जाए, बिन में पड जायें।

‘वसद्ध थे।’

‘लोभ तो छू नही ंर्या था।’

नेउर कहा है? उस पर बडी दया करते थे। उससे कह

र्ये होरे्।’

नेउर की तलाश होने लर्ी, कही ंपता नही।ं इतने में

बुवढया नेउर को पुकारती हुई घर में से वनकली। वफर

कोलाहल मच र्या। बुवढया रोती थी और नेउर को

र्ावलयां देती थी।

नेउर िेतो की मेडो से बेतहाशा भार्ता चला जाता

था। मानो उस पापी संसार इस वनकल जाएर्ा।

एक आदमी ने कहा- नेउर ने कल मुझसे पांच रुपये

वलये थे। आज सांझ को देने को कहा था।

दूसरा–हमसे भी दो रूपये आज ही के िादे पर

वलये थे।

232

बुवढ़या रोयी–दाढीजार मेरे सारे र्हने लेर्या। पचीस

रुपये रिे थे

िह भी उठा ले र्या।

लोर् समझ र्ये, बाबा कोई धूतग था। नेउर को साझा दे

र्या। ऐसे-ऐसे ठर् पडे है संसार में। नेउर के बारे में

बारे में वकसी को ऐसा संदेह नही ं थी। बेचारा सीधा

आदमी आ र्या पट्टी में। मारे लाज के कही ंवछपा बैठा

होर्ा

न महीने रु्जर र्ये।

झांसी वजले में धसान नदी के वकनारे एक छोटा सा

र्ांि है- काशीपुर नदी के वकनारे एक पहाडी टीला है।

उसी पर कई वदन से एक साधु ने अपना आसन जमाया

है। नाटे कद का आदमी है, काले तिे का-सा रंर् देह

र्ठी हुई। यह नेउर है जो साधु बेश में दुवनया को धोिा

दे रहा है। िही सरल वनष्कपट नेउर है वजसने कभी

पराये माल की ओर आंि नही ं उठायो जो पसीना की

रोटी िाकर मग्न था। घर की र्ािं की और बुवढया की

याद एक क्षि भी उसे नही ं भूलती इस जीिन में वफर

कोई वदन आयेर्ा। वक िह अपने घर पहंुचेर्ा और वफर

उस संसार मे हंसता- िेलता अपनी छोटी–छोटी

वचन्ताओ और छोटी–छोटी आशाओ के बीच आनन्द से

रहेर्ा। िह जीिन वकतना सुिमय था। वजतने थे। सब

अपने थे सभी आदर करते थे। सहानुभूवत रिते थे। वदन

भर की मजूरी, थोडा-सा अनाज या थोडे से पैसे लेकार

घर आता था, तो बुवधया वकतने मीठे से्नह से उसका

र्स्ार्त करती थी। िह सारी मेहनत, सारी थकािट जैसे

ती

233

उसे वमठास में सनकर और मीठी हो जाती थी। हाय िे

वदन वफर कब आयेरे्? न जाने बुवधया कैसे रहती होर्ी।

कौन उसे पान की तरह फेरेर्ा? कौन उसे पकाकर

ज्जिलायेर्ा? घर में पैसा भी तो नही ं छोडा र्हने तक

डबा वदये। तब उसे क्रोध आता। वक उस बाबा को पा

जाय, तो कच्च हीिा जाए। हाय लोभ! लोभ!

उनके अनन्य भक्तो में एक सुन्दरी युिती भी थी

वजसके पवत ने उसे त्यार् वदया था। उसका बाप फौजी-

पेंशनर था, एक पढे वलिे आदमी से लडकी का वििाह

वकया: लेवकन लडका म ॉँ के कहने में था और युिती की

अपनी सांस से न पटती। िह चा हती थी शौहर के साथ

सास से अलर् रहे शौहर अपनी मां से अलर् होने पर न

राजी हुआ। िह रुठकर मैके चली आयी। तब से तीन

साल हो र्ये थे और ससुराल से एक बार भी बुलािा न

आया न पवतदेि ही आये। युिती वकसी तरह पवत को

अपने िश में कर लेना चाहती थी। महात्माओ ं के वलए

तरह पवत को अपने िश में कर लेना चाहती थी

महात्माओ के वलए वकसी का वदल फेर देना ऐसा क्ा

मुवशकल है! हां, उनकी दया चावहए।

एक वदन उसने एकान्त में बाबाजी से अपनी विपवत

कह सुनायी। नेउर को वजस वशकार की टोह थी िह आज

वमलता हआ जान पडा रं्भीर भाि से बोला-बेटी मै न

वसद्ध हं न महात्मा न मै संसार के झमेलो में पडता हं पर

तेरी सरधा और परेम देिकर तुझ पर दया आती हौ।

भर्िान ने चाहा तो तेरा मनोरध पूरा हो जायेर्ा।

‘आप समथग है और मुझे आपके ऊपर विश्वास है।’

‘भर्िान की जो इच्छा होर्ी िही होर्ा।’

234

‘इस अभावर्नी की डोर्ी आप िही होर्ा।’

‘मेरे भर्िान आप ही हो।’

नेउर ने मानो धमग-सकटं में पडकर कहा-लेवकन

बेटी, उस काम में बडा अनुष्ठान करना पडेर्ा। और

अनुष्ठान में सैकडो हजारो ंका िचग है। उस पर भी तेरा

काज वसद्ध होर्ा या नही, यह मै नही ं कह सकता। हां

मुझसे जो कुछ हो सकेर्ा, िह मै कर दंूर्ा। पर सब कुछ

भर्िान के हाथ में है। मै माया को हाथ से नही ं छूता;

लेवकन तेरा दुि नही देिा जाता।

उसी रात को युिती ने अपने सोने के र्हनो ं की पेटारी

लाकर बाबाजी के चरिो ंपर रि दी बाबाजी ने कांपते

हुए हाथो ं से पेटारी िोली और चन्द्रमा के उििल

प्काश में आभूषिो को देिा । उनकी बाधे झपक र्यी ं

यह सारी माया उनकी है िह उनके सामने हाथ बाधे िडी

कह रही है मुझे अंर्ीकार कीवजए कुछ भी तो करना

नही है केिल पेटारी लेकर अपने वसरहाने रि लेना है और

युिती को आशीिागद देकर विदा कर देना है। प्ात काल

िह आयेर्ी उस िक्त िह उतना दूर होर्ें जहां उनकी

टारे् ले जायेर्ी। ऐसा आशातीत सौभाग्य! जब िह रुपये

से भरी थैवलयां वलए र्ांि में पहंुचेरे् और बुवधया के सामने

रि देरे्! ओह! इससे बडे आनन्द की तो िह कल्पना भी

नही ंकर सकते।

लेवकन न जाने क्ो ं इतना जरा सा काम भी उससे

नही ं हो सकता था। िह पेटारी को उठाकर अपने

वसरहाने कंबल के नीचे दबाकर नही ंरि सकता। है।

कुछ नही;ं पर उसके वलए असूझ है, असाध्य है िह उस

पेटारी की ओर हाथ भी नही बढा सकता है इतना कहने

235

मे कौन सी दुवनया उलटी जाती है। वक बेटी इसे उठाकर

इस कम्बल के नीचे रि दे। जबान कट तो न जायर्ी,

;मर्र अब उसे मालूम होता वक जबान पर भी उसका

काबू नही है। आंिो के इशारे से भी यह काम हो सकता

है। लेवकन इस समय आंिे भीड बर्ाित कर रही है।

मन का राजा इतने मवत्रयो ंऔर सामन्तो के होते हुए भी

अशक्त है वनरीह है लाि रुपये की थैली सामने रिी

हो नंर्ी तलिार हाथ में हो र्ाय मजबूत रस्सी के सामने

बंधी हो, क्ा उस र्ाय की र्रदन पर उसके हाथ उठेर्ें।

कभी नही ं कोई उसकी र्रदन भले ही काट ले। िह

र्ऊ की हत्या नही कर सकता। िह पररत्याक्ता उसे

उसी र्उ की हत्या नही कर सकता िह पवपत्याक्ता

उसे उसी र्ऊ की तरह लर्र ही थी। वजस अिसर को

िह तीन महीने िोज रहा है उसे पाकर आज उसकी

आत्मा कांप रही है। तृष्णा वकसी िन्य जनु्त की भांवत अपने

संस्कारे से आिेटवप्य है लेवकन जंजीरो से बधे–बधे

उसके नि वर्र र्ये है और दातं कमजोर हो र्ये हैं।

उसने रोते हंुए कहा–बेटी पेटारी उठा ले जाओ। मै

तुम्हारी परीक्षा कर रहा था। मनोरथ पूरा हो जायेर्ा।

च ॉँद नदी के पार िृक्षो की र्ोद में विश्राम कर चुका

था। नेउर धीरे से उठा और धसान मे स्नान करके एक

ओर चल वदया। भभूत और वतलक से उसे घृिा हो रही

थी उसे आश्चयग हो रहा था वक िह घर से वनकला ही

कैसे? थोडे उपहास के भय से! उसे अपने अन्दर एक

विवचत्र उल्लास का अनुभि हो रहा था मानो िह बेवडयो

से मुक्त हो र्या हो कोई बहुत बडी वचजय प्ाप्त की हो।

4

236

ठिे वदन नेउर र्ांि पहंुच र्या। लडको ने दौठकर

उछल कुछकर, उसकी लकडी उसके हाथ

उसका र्स्ार्त वकया।

एक लडके ने कहा काकी तो मरर्यी दादा।

नेउर के पांि जैसे बंध र्ये मंुह के दोनो कोने नीचे

झुके र्ये। दीनविषाद आिो ंमें चमक उठा कुछ बोला नही,ं

कुछ पूछा भी नही।ं पल्भर जैसे वनसं्सज्ञ िडा रहा वफर

बडी तेजी से अपनी झोपडी की ओर चला। बालकिृनद

भी उसके पीछे दौडे मर्र उनकी शरारत और चंचलता

भार्चली थी। झोपडी िुली पडी थी बुवधया की चारपाई

जहा की तहां थी। उसकी वचलम और नाररयल ज्यो के

ज्यो धरे हुए थे। एक कोने में दो चार वमटटी और पीतल

के बरतन पडे हंुए थे लडेक बाहर ही िडे रह र्ये

झेपडी के अन्दर कैसे जाय िहां बुवधया बैठी है।

र्ांि मे भर्दड मच र्यी। नेउर दादा आ र्ये। झोपडी

के द्वार पर भीड लर् र्यी प्शनो कातांता बध र्या।–तूम

इतने वदनोकहां थे। दादा? तुम्हारे जाने के बाद तीसरे ही

वदन काकी चल बसी ंरात वदन तुम्हें र्ावलयां देती थी। मरते

मरते तुमे्ह र्ररयाती ही रही। तीसरे वदन आये तो मेरी पडी

क्थी। तुम इतने वदन कहा रहे?

नेउर ने कोई जिाब न वदया। केिल शुन्य वनराश

करुि आहत नेत्रो से लोर्ो की ओर देिता रहा मानो

उसकी िािी हर लीर्यी है। उस वदन से वकसी ने उसे

बोलते या रोते-हंसते नही ंदेिा।

र्ांि से आध मील पर पक्की सडक है। अच्छी

आमदरफत है। नेउर बेड सबेरे जाकर सडक के

वकनारे एक पेड के नीचे बैठ जाता है। वकसी से कुछ

237

मांर्ता नही पर राहर्ीर कूछ न कुछ दे ही देते है।– चेबना

अनाज पैसे। सध्यां सयम िह अपनी झोपडी मे आ जाता

है, वचरार् जलाता है भोजन बनाता है, िाना है और उसी

िाट पर पडा रहता है। उसके जीिन, मै जो एक

संचालक शज्जक्त थी,िह लुप्त हो र्यी है ैै िह अब केिल

जीिधारी है। वकतनी र्हरी मनोव्यधा है। र्ांि में पे्लर्

आया। लोर् घर छोड छोडकर भार्ने लरे् नेउर को

अब वकसी की परिाह न थी। न वकसी को उससे भय था

न पे्म। सारा र्ांि भार् र्या। नेउर अपनी झोपडी से न

वनकला और आज भी िह उसी पेउ़ के नीचे सडक के

वकनारे उसी तरह मौन बैठा हुआ नजर आता है- वनशे्चि,

वनजीि।‘

238

शूद्रा

और बेटी एक झोपंडी में र्ांि के उसे वसरे पर

रहती थी।ं बेटी बार् से पवत्तयां बटोर लाती, मां

भाड-झोकंती। यही उनकी जीविका थी। सेर-दो सेर अनाज

वमल जाता था, िाकर पड रहती थी।ं माता विधिा था, बेटी

क्वांरी, घर में और कोई आदमी न था। मां का नाम रं्र्ा था,

बेटी का र्ौरा!

रं्र्ा को कई साल से यह वचन्ता लर्ी हुई थी वक कही ं

र्ौरा की सर्ाई हो जाय, लेवकन कही ंबात पक्की न होती

थी। अपने पवत के मर जाने के बाद रं्र्ा ने कोई दूसरा घर

न वकया था, न कोई दूसरा धिा ही करती थी। इससे लोर्ो ं

को संदेह हो र्या था वक आज्जिर इसका रु्जर कैसे होता

है! और लोर् तो छाती फाड-फाडकर काम करते हैं, वफर

भी पेट-भर अन्न मयस्सर नही ं होता। यह स्त्री कोई धंधा

नही ंकरती, वफर भी मां-बेटी आराम से रहती हैं, वकसी के

सामने हाथ नही ं फैलाती।ं इसमें कुछ-न-कुछ रहस्य

अिश्य है। धीरे-धीरे यह संदेह और भी दृ़ढ़ हो र्या और

अब तक जीवित था। वबरादरी में कोई र्ौरा से सर्ाई करने

पर राजी न होता था। शूद्रो ंकी वबरादरी बहुत छोटी होती

है। दस-पांच कोस से अवधक उसका के्षत्र नही ं होता,

इसीवलए एक दूसरे के रु्ि-दोष वकसी से वछपे नही ंरहते,

उन पर परदा ही डाला जा सकता है।

इस भ्रांवत को शान्त करने के वलए मां ने बेटी के साथ

कई तीथग-यात्राएं की।ं उडीसा तक हो आयी, लेवकन संदेह

न वमटा। र्ौरा युिती थी, सुन्दरी थी, पर उसे वकसी ने कुएं

पर या िेतो ं में हंसते-बोलते नही ं देिा। उसकी वनर्ाह

मां

239

कभी ऊपर उठती ही न थी। लेवकन ये बातें भी संदेह को

और पुि करती थी।ं अिश्य कोई- न- कोई रहस्य है। कोई

युिती इतनी सती नही ंहो सकती। कुछ रु्प-चुप की बात

अिश्य है।

यो ंही वदन रु्जरते जाते थे। बुवढ़या वदनोवंदन वचन्ता से घुल

रही थी। उधर सुन्दरी की मुि-छवि वदनोवंदन वनहरती

जाती थी। कली ज्जिल कर फूल हो रही थी।

क वदन एक परदेशी र्ांि से होकर वनकला। दस-

बारह कोस से आ रहा था। नौकरी की िोज में

कलकत्ता जा रहा था। रात हो र्यी। वकसी कहार का घर

पूछता हुआ रं्र्ा के घर आया। रं्र्ा ने उसका िूब आदर-

सत्कार वकया, उसके वलए रे्हं का आटा लायी, घर से

बरतन वनकालकर वदये। कहार ने पकाया, िाया, लेटा,

बातें होने लर्ी।ं सर्ाई की चचाग वछड र्यी। कहार जिान

था, र्ौरा पर वनर्ाह पडी, उसका रंर्-ढंर् देिा, उसकी

सजल छवि ऑंिो ंमें िुब र्यी। सर्ाई करने पर राजी हो

र्या। लौटकर घर चला र्या। दो-चार र्हने अपनी बहन के

यहां से लाया; र्ांि के बजाज ने कपडे उधार दे वदये। दो-

चार भाईबंदो ं के साथ सर्ाई करने आ पहंुचा। सर्ाई हो

र्यी, यही रहने लर्ा। रं्र्ा बेटी और दामाद को आंिो ंसे

दूर न कर सकती थी।

परनु्त दस ही पांच वदनो ं में मंर्रु के कानो ं में इधर-

उधर की बातें पडने लर्ी।ं वसफग वबरादरी ही के नही,ं अन्य

जावत िाले भी उनके कान भरने लरे्। ये बातें सुन-सुन कर

मंर्रु पछताता था वक नाहक यहां फंसा। पर र्ौरा को

छोडने का ख्याल कर उसका वदल कांप उठता था।

240

एक महीने के बाद मं र्रु अपनी बहन के र्हने

लौटाने र्या। िाने के समय उसका बहनोई उसके साथ

भोजन करने न बैठा। मंर्रु को कुछ संदेह हुआ, बहनोई

से बोला- तुम क्ो ंनही ंआते?

बहनोई ने कहा-तुम िा लो, मैं वफर िा लंूर्ा।

मंर्रु – बात क्ा है? तु िाने क्ो ंनही ंउठते?

बहनोई –जब तक पंचायत न होर्ी, मैं तुम्हारे साथ

कैसे िा सकता हं? तुम्हारे वलए वबरादरी भी नही ं छोड

दंूर्ा। वकसी से पूछा न र्ाछा, जाकर एक हरजाई से सर्ाई

कर ली।

मंर्रु चौके पर उठ आया, वमरजई पहनी और

ससुराल चला आया। बहन िडी रोती रह र्यी।

उसी रात को िह वकसी िह वकसी से कुछ कहे-सुने बरै्र,

र्ौरा को छोडकर कही ंचला र्या। र्ौरा नीदं में मग्न थी।

उसे क्ा िबर थी वक िह रत्न, जो मैंने इतनी तपस्या के

बाद पाया है, मुझे सदा के वलए छोडे चला जा रहा है।

ई साल बीत र्ये। मंर्रु का कुछ पता न चला। कोई

पत्र तक न आया, पर र्ौरा बहुत प्सन्न थी। िह

मांर् में सेंदुर डालती, रंर् वबरंर् के कपडे पहनती और

अधरो ं पर वमस्सी के धडे जमाती। मंर्रु भजनो ं की एक

पुरानी वकताब छोड र्या था। उसे कभी-कभी पढ़ती और

र्ाती। मंर्रु ने उसे वहन्दी वसिा दी थी। टटोल-टटोल कर

भजन पढ़ लेती थी।

पहले िह अकेली बैठली रहती। र्ांि की और ज्जस्त्रयो ं

के साथ बोलते-चालते उसे शमग आती थी। उसके पास िह

िसु्त न थी, वजस पर दूसरी ज्जस्त्रयां र्िग करती थी।ं सभी

241

अपने-अपने पवत की चचाग करती।ं र्ौरा के पवत कहां था?

िह वकसकी बातें करती! अब उसके भी पवत था। अब

िह अन्य ज्जस्त्रयो ंके साथ इस विषय पर बातचीत करने की

अवधकाररिी थी। िह भी मंर्रु की चचाग करती, मंर्रु

वकतना से्नहशील है, वकतना सिन, वकतना िीर। पवत

चचाग से उसे कभी तृज्जप्त ही न होती थी।

ज्जस्त्रयां- मंर्रु तुम्हें छोडकर क्ो ंचले र्ये?

र्ौरी कहती – क्ा करते? मदग कभी ससुराल में पडा

रहता है। देश –परदेश में वनकलकर चार पैसे कमाना ही

तो मदों का काम है, नही ं तो मान-मरजादा का वनिागह कैसे

हो?

जब कोई पूछता, वचट्ठ-पत्री क्ो ं नही ं भेजते? तो

हंसकर कहती- अपना पता-वठकाना बताने में डरते हैं।

जानते हैं न, र्ौरा आकर वसर पर सिार हो जायेर्ी। सच

कहती हं उनका पता-वठकाना मालूम हो जाये, तो यहां

मुझसे एक वदन भी न रहा जाये। िह बहुत अच्छा करते हैं

वक मेरे पास वचट्ठी-पत्री नही ंभेजते। बेचारे परदेश में कहां

घर वर्रस्ती संभालते वफरें रे्?

एक वदन वकसी सहेली ने कहा- हम न मानेंरे्, तुझसे

जरुर मंर्रु से झर्डा हो र्या है, नही ंतो वबना कुछ कहे-

सुने क्ो ंचले जाते ?

र्ौरा ने हंसकर कहा- बहन, अपने देिता से भी कोई

झर्डा करता है? िह मेरे मावलक हैं, भला मैं उनसे

झर्डा करंुर्ी? वजस वदन झर्डे की नौबत आयेर्ी, कही ं

डूब मरंुर्ी। मुझसे कहकर जाने पाते? मैं उनके पैरो ं से

वलपट न जाती।

242

क वदन कलकत्ता से एक आदमी आकर रं्र्ा के

घर ठहरा। पास ही के वकसी र्ांि में अपना घर

बताया। कलकत्ता में िह मंर्रु के पडोस ही में रहता था।

मंर्रु ने उससे र्ौरा को अपने साथ लाने को कहा था। दो

सावडयां और राह-िचग के वलये रुपये भी भेजे थे। र्ौरा

फूली न समायी। बूढे़ ब्राह्मि के साथ चलने को तैयार हो

र्यी। चलते िक्त िह र्ांि की सब औरतो ं से र्ले वमली।

रं्र्ा उसे से्टशन तक पहंुचाने र्यी। सब कहते थे, बेचारी

लडकी के भार् जर् र्ये, नही ंतो यहाॉँ कुढ़-कुढ़ कर मर

जाती।

रासे्त-भर र्ौरा सोचती – न जाने िह कैसे हो र्ये होरें्

? अब तो मूछें अच्छी तरह वनकल आयी होरं्ी। परदेश में

आदमी सुि से रहता है। देह भर आयी होर्ी। बाबू साहब

हो र्ये होरें्। मैं पहले दो-तीन वदन उनसे बोलंूर्ी नही।ं

वफर पूछंूर्ी-तुम मुझे छोडकर क्ो ंचले र्ये? अर्र वकसी

ने मेरे बारें में कुछ बुरा-भला कहा ही था, तो तुमने उसका

विश्वास क्ो ं कर वलया? तुम अपनी आंिो ं से न देिकर

दूसरो ंके कहने पर क्ो ंर्ये? मैं भली हं या बूरी हं, हं तो

तुम्हारी, तुमने मुझे इतने वदनो ंरुलाया क्ो? तुम्हारे बारे में

अर्र इसी तरह कोई मुझसे कहता, तो क्ा मैं तुमको

छोड देती? जब तुमने मेरी बांह पकड ली, तो तुम मेरे हो

र्ये। वफर तुममें लाि एब हो,ं मेरी बला से। चाहे तुम तुकग

ही क्ो ं न हो जाओ, मैं तुम्हें छोड नही ं सकती। तुम क्ो ं

मुझे छोडकर भारे्? क्ा समझते थे, भार्ना सहज है?

आज्जिर झि मारकर बुलाया वक नही?ं कैसे न बुलाते? मैंने

तो तुम्हारे ऊपर दया की, वक चली आयी, नही ंतो कह देती

वक मैं ऐसे वनदगयी के पास नही ं जाती, तो तुम आप दौडे

243

आते। तप करने से देिता भी वमल जाते हैं, आकर सामने

िडे हो जाते हैं, तुम कैसे न आते? िह धरती बार-बार

उवद्वग्न हो-होकर बूढे़ ब्राह्मि से पूछती, अब वकतनी दूर है?

धरती के छोर पर रहते हैं क्ा? और भी वकतनी ही बातें

िह पूछना चाहती थी, लेवकन संकोच-िश न पूछ सकती

थी। मन-ही-मन अनुमान करके अपने को सनु्ति कर लेती

थी। उनका मकान बडा-सा होर्ा, शहर में लोर् पके्क घरो ं

में रहते हैं। जब उनका साहब इतना मानता है, तो नौकर

भी होर्ा। मैं नौकर को भर्ा दंूर्ी। मैं वदन-भर पडे–पडे

क्ा वकया करंूर्ी?

बीच-बीच में उसे घर की याद भी आ जाती थी। बेचारी

अम्मा रोती होरं्ी। अब उन्हें घर का सारा काम आप ही

करना पडेर्ा। न जाने बकररयो ंको चराने ले जाती है। या

नही।ं बेचारी वदन-भर में-में करती होरं्ी। मैं अपनी

बकररयो ंके वलए महीने-महीने रुपये भेजंूर्ी। जब कलकत्ता

से लौटंूर्ी तब सबके वलए सावडयां लाऊंर्ी। तब मैं इस

तरह थोडे लौटंूर्ी। मेरे साथ बहुत-सा असबाब होर्ा।

सबके वलए कोई-न-कोई सौर्ात लाऊंर्ी। तब तक तो

बहुत-सी बकररयां हो जायेंर्ी।

यही सुि र्स्प्न देिते-देिते र्ौरा ने सारा रास्ता काट

वदया। पर्ली क्ा जानती थी वक मेरे मान कुछ और कत्ताग

के मन कुछ और। क्ा जानती थी वक बूढे़ ब्राह्मिो ंके भेष

में वपशाच होते हैं। मन की वमठाई िाने में मग्न थी।

सरे वदन र्ाडी कलकत्ता पहंुची। र्ौरा की छाती

धड-धड करने लर्ी। िह यही-ंकही ंिडे होरं्ें। अब

आते ही ंहोरें्। यह सोचकर उसने घंूघट वनकाल वलया और

ती

244

संभल बैठी। मर्र मर्रु िहां न वदिाई वदया। बूढ़ा ब्राह्मि

बोला-मंर्रु तो यहां नही ं वदिाई देता, मैं चारो ं ओर छान

आया। शायद वकसी काम में लर् र्या होर्ा, आने की छुट्टी

न वमली होर्ी, मालूम भी तो न था वक हम लोर् वकसी र्ाडी

से आ रहे हैं। उनकी राह क्ो ंदेिें, चलो, डेरे पर चलें।

दोनो ंर्ाडी पर बैठकर चले। र्ौरा कभी तांरे् पर सिार

न हुई थी। उसे र्िग हो रहा था वक वकतने ही बाबू लोर्

पैदल जा रहे हैं, मैं तांरे् पर बैठी हं।

एक क्षि में र्ाडी मंर्रु के डेरे पर पहंुच र्यी। एक विशाल

भिन था, आहाता साफ-सुथरा, सायबान में फूलो ंके र्मले

रिे हुए थे। ऊपर चढ़ने लर्ी, वििय, आनन्द और आशा

से। उसे अपनी सुवध ही न थी। सीवढ़यो ंपर चढ़ते–चढ़ते पैर

दुिने लरे्। यह सारा महल उनका है। वकराया बहुत देना

पडता होर्ा। रुपये को तो िह कुछ समझते ही नही।ं

उसका हृदय धडक रहा था वक कही ं मंर्रु ऊपर से

उतरते आ न रहें हो ं सीढ़ी पर भेंट हो र्यी, तो मैं क्ा

करंुर्ी? भर्िान करे िह पडे सोते रहे हो,ं तब मैं जर्ाऊं

और िह मुझे देिते ही हडबडा कर उठ बैठें । आज्जिर

सीवढ़यो ं का अन्त हुआ। ऊपर एक कमरें में र्ौरा को ले

जाकर ब्राह्मि देिता ने बैठा वदया। यही मंर्रु का डेरा था।

मर्र मंर्रु यहां भी नदारद! कोठरी में केिल एक िाट

पडी हुई थी। एक वकनारे दो-चार बरतन रिे हुए थे। यही

उनकी कोठरी है। तो मकान वकसी दूसरे का है, उन्होनें यह

कोठरी वकराये पर ली होर्ी। मालूम होता है, रात को

बाजार में पूररयां िाकर सो रहे होरें्। यही उनके सोने की

िाट है। एक वकनारे घडा रिा हुआ था। र्ौरा को मारे

प्यास के तालू सूि रहा था। घडे से पानी उडेल कर वपया।

245

एक वकनारे पर एक झाडू रिा था। र्ौरा रासे्त की थकी थी,

पर पे्म्मोल्लास में थकन कहां? उसने कोठरी में झाडू

लर्ाया, बरतनो ंको धो-धोकर एक जर्ह रिा। कोठरी की

एक-एक िसु्त यहां तक वक उसकी फशग और दीिारो ं में

उसे आत्मीयता की झलक वदिायी देती थी। उस घर में भी,

जहां उसे अपने जीिन के २५ िषग काटे थे, उसे अवधकार

का ऐसा र्ौरि-युक्त आनन्द न प्ाप्त हुआ था।

मर्र उस कोठरी में बैठे-बैठे उसे संध्या हो र्यी और

मंर्रु का कही ंपता नही।ं अब छुट्टी वमली होर्ी। सांझ को

सब जर्ह छुट्टी होती है। अब िह आ रहे होरें्। मर्र बूढे़

बाबा ने उनसे कह तो वदया ही होर्ा, िह क्ा अपने साहब

से थोडी देर की छुट्टी न ले सकते थे? कोई बात होर्ी, तभी

तो नही ंआये।

अंधेरा हो र्या। कोठरी में दीपक न था। र्ौरा द्वार पर

िडी पवत की बाट देि रही ं थी। जाने पर बहुत-से

आदवमयो ंके चढ़ते-उतरने की आहट वमलती थी, बार-बार

र्ौरा को मालूम होता था वक िह आ रहे हैं, पर इधर कोई

नही ंआता था।

नौ बजे बूढे़ बाबा आये। र्ौरी ने समझा, मंर्रु है।

झटपट कोठरी के बाहर वनकल आयी। देिा तो ब्राह्मि!

बोली-िह कहां रह र्ये?

बूढ़ा–उनकी तो यहां से बदली हो र्यी। दफ्तर में र्या

था तो मालूम हुआ वक िह अपने साहब के साथ यहां से

कोई आठ वदन की राह पर चले र्ये। उन्होनें साहब से

बहुत हाथ-पैर जोडे वक मुझे दस वदन की मुहलत दे

दीवजए, लेवकन साहब ने एक न मानी। मंर्रु यहां लोर्ो ंसे

कह र्ये हैं वक घर के लोर् आयें तो मेरे पास भेज देना।

246

अपना पता दे र्ये हैं। कल मैं तुम्हें यहां से जहाज पर बैठा

दंूर्ा। उस जहाज पर हमारे देश के और भी बहुत से होरें्,

इसवलए मार्ग में कोई कि न होर्ा।

र्ौरा ने पूछा- कै वदन में जहाज पहंुचेर्ा?

बूढ़ा- आठ-दस वदन से कम न लर्ेंरे्, मर्र घबराने

की कोई बात नही।ं तुम्हें वकसी बात की तकलीफ न होर्ी।

ब तक र्ौरा को अपने र्ांि लौटने की आशा थी।

कभी-न-कभी िह अपने पवत को िहां अिश्य िीचं

ले जायेर्ी। लेवकन जहाज पर बैठाकर उसे ऐसा मालूम

हुआ वक अब वफर माता को न देिंूर्ी, वफर र्ांि के दशगन

न होरें्, देश से सदा के वलए नाता टूट रहा है। देर तक घाट

पर िडी रोती रही, जहाज और समुद्र देिकर उसे भय हो

रहा था। हृदय दहल जाता था।

शाम को जहाज िुला। उस समय र्ौरा का हृदय एक

अक्षय भय से चंचल हो उठा। थोडी देर के वलए नैराश्य न

उस पर अपना आतंक जमा वलया। न-जाने वकस देश जा

रही हं, उनसे भेंट भी होर्ी या नही।ं उन्हें कहां िोजती

वफरंुर्ी, कोई पता-वठकाना भी तो नही ं मालूम। बार-बार

पछताती थी वक एक वदन पवहले क्ो ं न चली आयी।

कलकत्ता में भेंट हो जाती तो मैं उन्हें िहां कभी न जाने

देती।

जहाज पर और वकतने ही मुसावफर थे, कुछ ज्जस्त्रयां भी

थी।ं उनमें बराबर र्ाली-र्लौज होती रहती थी। इसवलए

र्ौरा को उनसें बातें करने की इच्छा न होती थी। केिल एक

स्त्री उदास वदिाई देती थी। र्ौरा ने उससे पूछा-तुम कहां

जाती हो बहन?

247

उस स्त्री की बडी-बडी आंिे सजल हो र्यी।ं बोली,ं

कहां बताऊं बहन कहां जा रही ंहं? जहां भाग्य वलये जाता

है, िही ं जा रही ंहं। तुम कहां जाती हो?

र्ौरा- मैं तो अपने मावलक के पास जा रही हं। जहां

यह जहाज रुकेर्ा। िह िही ंनौकर हैं। मैं कल आ जाती तो

उनसे कलकत्ता में ही भेंट हो जाती। आने में देर हो र्यी।

क्ा जानती थी वक िह इतनी दूर चले जायेंरे्, नही ंतो क्ो ं

देर करती!

स्त्री – अरे बहन, कही ं तुम्हें भी तो कोई बहकाकर

नही ंलाया है? तुम घर से वकसके साथ आयी हो?

र्ौरा – मेरे आदमी ने कलकत्ता से आदमी भेजकार

मुझे बुलाया था।

स्त्री – िह आदमी तुम्हारा जान–पहचान का था?

र्ौरा- नही,ं उस तरफ का एक बूढ़ा ब्राह्मि था।

स्त्री – िही लम्बा-सा, दुबला-पतला लकलक बूढ़ा,

वजसकी एक ऑंि में फूली पडी हुई है।

र्ौरा – हां, हां, िही। क्ा तुम उसे जानती हो?

स्त्री – उसी दुि ने तो मेरा भी सिगनाश वकया। ईश्वर करे,

उसकी सातो ंपुश्तें नरक भोर्ें, उसका वनिगश हो जाये, कोई

पानी देनेिाला भी न रहे, कोढ़ी होकर मरे। मैं अपना िृतान्त

सुनाऊं तो तुम समझेर्ी वक झठू है। वकसी को विश्वास न

आयर्ा। क्ा कहं, बस सही समझ लो वक इसके कारि मैं

न घर की रह र्यी, न घाट की। वकसी को मंुह नही ं वदिा

सकती। मर्र जान तो बडी प्यार होती है। वमररच के देश

जा रही हं वक िही ंमेहनत-मजदूरी करके जीिन के वदन

काटंू।

248

र्ौरा के प्ाि नही ं में समा र्ये। मालूम हुआ जहाज

अथाह जल में डूबा जा रहा है। समझ र्यी बूढे़ ब्राह्मि ने

दर्ा की। अपने र्ांि में सुना करती थी वक र्रीब लोर्

वमररच में भरती होने के वलए जाया करते हैं। मर्र जो िहां

जाता है, िह वफर नही ंलौटता। हे, भर्िान् तुमने मुझे वकस

पाप का यह दण्ड वदया? बोली- यह सब क्ो ंलोर्ो ंको इस

तरह छलकर वमररच भेजते हैं?

स्त्री- रुपये के लोभ से और वकसवलए? सुनती हं,

आदमी पीछे इन सभी को कुछ रुपये वमलते हैं।

र्ौरा – मजूरी

र्ौरा सोचने लर्ी – अब क्ा करंु? यह आशा –नौका

वजस पर बैठी हुई िह चली जा रही थी, टुट र्यी थी और

अब समुद्र की लहरो ंके वसिा उसकी रक्षा करने िाला कोई

न था। वजस आधार पर उसने अपना जीिन-भिन बनाया

था, िह जलमग्न हो र्या। अब उसके वलए जल के वसिा

और कहां आश्रय है? उसकी अपनी माता की, अपने घर

की अपने र्ांि की, सहेवलयो ंकी याद आती और ऐसी घोर

ममग िेदना होने लर्ी, मानो कोई सपग अन्तस्तल में बैठा

हुआ, बार-बार डस रहा हो। भर्िान! अर्र मुझे यही

यातना देनी थी तो तुमने जन्म ही क्ो ं वदया था? तुम्हें

दुज्जिया पर दया नही ं आती? जो वपसे हुए हैं उन्ही ं को

पीसते हो! करुि र्स्र से बोली – तो अब क्ा करना होर्ा

बहन?

स्त्री – यह तो िहां पहंुच कर मालूम होर्ा। अर्र

मजूरी ही करनी पडी तो कोई बात नही,ं लेवकन अर्र

वकसी ने कुदृवि से देिा तो मैंने वनश्चय कर वलया है वक या

तो उसी के प्ाि ले लंूर्ी या अपने प्ाि दे दंूर्ी।

249

यह कहते-कहते उसे अपना िृतान्त सुनाने की िह

उत्कट इच्छा हुई, जो दुज्जियो ंको हुआ करती है। बोली – मैं

बडे घर की बेटी और उससे भी बडे घर की बहं हं, पर

अभावर्नी ! वििाह के तीसरे ही साल पवतदेि का देहान्त हो

र्या। वचत्त की कुछ ऐसी दशा हो र्यी वक वनत्य मालूम

होता वक िह मुझे बुला रहे हैं। पहले तो ऑंि झपकते ही

उनकी मूवतग सामने आ जाती थी, लेवकन वफर तो यह दशा

हो र्यी वक जाग्रत दशा में भी रह-रह कर उनके दशगन

होने लरे्। बस यही जान पडता था वक िह साक्षात् िडे

बुला रहे हैं। वकसी से शमग के मारे कहती न थी, पर मन में

यह शंका होती थी वक जब उनका देहािसान हो र्या है तो

िह मुझे वदिाई कैसे देते हैं? मैं इसे भ्राज्जन्त समझकर वचत्त

को शान्त न कर सकती। मन कहता था, जो िसु्त प्त्यक्ष

वदिायी देती है, िह वमल क्ो ं नही ं सकती? केिल िह

ज्ञान चावहए। साधु-महात्माओ ंको वसिा ज्ञान और कौन दे

सकता है? मेरा तो अब भी विश्वास है वक अभी ऐसी

वक्रयाएं हैं, वजनसे हम मरे हुए प्ावियो ं से बातचीत कर

सकते हैं, उनको स्थूल रुप में देि सकते हैं। महात्माओ ंकी

िोज में रहने लर्ी। मेरे यहां अक्सर साधु-सन्त आते थे,

उनसे एकान्त में इस विषय में बातें वकया करती थी, पर िे

लोर् सदुपदेश देकर मुझे टाल देते थे। मुझे सदुपदेशो ंकी

जरुरत न थी। मैं िैधव्य-धमग िूब जानती थी। मैं तो िह

ज्ञान चाहती थी जो जीिन और मरि के बीच का परदा

उठा दे। तीन साल तक मैं इसी िेल में लर्ी रही। दो महीने

होते हैं, िही बूढ़ा ब्राह्मि संन्यासी बना हुआ मेरे यहां जा

पहंुचा। मैंने इससे िही वभक्षा मांर्ी। इस धूतग ने कुछ ऐसा

मायाजाल फैलाया वक मैं आंिे रहते हुए भी फंस र्यी। अब

250

सोचती हं तो अपने ऊपर आश्चयग होता है वक मुझे उसकी

बातो ं पर इतना विश्वास क्ो ं हुआ? मैं पवत-दशगन के वलए

सब कुछ झेलने को, सब कुछ करने को तैयार थी। इसने

रात को अपने पास बुलाया। मैं घरिालो ंसे पडोवसन के घर

जाने का बहाना करके इसके पास र्यी। एक पीपल से

इसकी धूईं जल रही थी। उस विमल चांदनी में यह

जटाधारी ज्ञान और योर् का देिता-सा मालूम होता था। मैं

आकर धूईं के पास िडी हो र्यी। उस समय यवद बाबाजी

मुझे आर् में कुद पडने की आज्ञा देते, तो मैं तुरन्त कूद

पडती। इसने मुझे बडे पे्म से बैठाया और मेरे वसर पर हाथ

रिकर न जाने क्ा कर वदया वक मैं बेसुध हो र्यी। वफर

मुझे कुछ नही ंमालूम वक मैं कहां र्यी, क्ा हुआ? जब मुझे

होश आया तो मैं रेल पर सिार थी। जी में आया वक

वचल्लाऊं, पर यह सोचकर वक अब र्ाडी रुक भी र्यी

और मैं उतर भी पडी तो घर में घुसने न पाऊंर्ी, मैं चुपचाप

बैठी रह र्ई। मैं परमात्मा की दृवि से वनदोष थी, पर संसार

की दृवि में कलंवकत हो चुकी थी। रात को वकसी युिती का

घर से वनकल जाना कलंवकत करने के वलए काफी था। जब

मुझे मालूम हो र्या वक सब मुझे टापू में भेज रहें हैं तो मैंने

जरा भी आपवत्त नही ंकी। मेरे वलए अब सारा संसार एक-

सा है। वजसका संसार में कोई न हो, उसके वलए देश-

परदेश दोनो ंबराबर है। हां, यह पक्का वनश्चय कर चूकी हं

वक मरते दम तक अपने सत की रक्षा करंुर्ी। विवध के

हाथ में मृतु्य से बढ़ कर कोई यातना नही।ं विधिा के वलए

मृतु्य का क्ा भय। उसका तो जीना और मरना दोनो ं

बराबर हैं। बज्जि मर जाने से जीिन की विपवत्तयो ंका तो

अन्त हो जाएर्ा।

251

र्ौरा ने सोचा – इस स्त्री में वकतना धैयग और साहस

है। वफर मैं क्ो ंइतनी कातर और वनराश हो रही हं? जब

जीिन की अवभलाषाओ ं का अन्त हो र्या तो जीिन के

अन्त का क्ा डर? बोली- बहन, हम और तुम एक जर्ह

रहेंर्ी। मुझे तो अब तुम्हारा ही भरोसा है।

स्त्री ने कहा- भर्िान का भरोसा रिो और मरने से

मत डरो।

सघन अिकार छाया हुआ था। ऊपर काला आकाश

था, नीचे काला जल। र्ौरा आकाश की ओर ताक रही थी।

उसकी संवर्नी जल की ओर। उसके सामने आकाश के

कुसुम थे, इसके चारो ं ओर अनन्त, अिण्ड, अपार

अिकार था।

जहाज से उतरते ही एक आदमी ने यावत्रयो ं के नाम

वलिने शुरु वकये। इसका पहनािा तो अंगे्रजी था, पर

बातचीत से वहनु्दस्तानी मालूम होता था। र्ौरा वसर झुकाये

अपनी संवर्नी के पीछे िडी थी। उस आदमी की आिाज

सुनकर िह चौकं पडी। उसने दबी आंिो ं से उसको ओर

देिा। उसके समस्त शरीर में सनसनी दौड र्यी। क्ा र्स्प्न

तो नही ंदेि रही हं। आंिो ंपर विश्वास न आया, वफर उस

पर वनर्ाह डाली। उसकी छाती िेर् से धडकने लर्ी। पैर

थर-थर कांपने लरे्। ऐसा मालूम होने लर्ा, मानो चारो ंओर

जल-ही-जल है और उसमें और उसमें बही जा रही हं।

उसने अपनी संवर्नी का हाथ पकड वलया, नही ंतो जमीन

में वर्र पडती। उसके समु्मि िही ं पुरुष िडा था, जो

उसका प्ािधार था और वजससे इस जीिन में भेंट होने की

उसे लेशमात्र भी आशा न थी। यह मंर्रु था, इसमें जरा भी

सने्दह न था। हां उसकी सूरत बदल र्यी थी। यौिन-काल

252

का िह काज्जन्तमय साहस, सदय छवि, नाम को भी न थी।

बाल ज्जिचडी हो र्ये थे, र्ाल वपचके हुए, लाल आंिो ं से

कुिासना और कठोरता झलक रही थी। पर था िह मंर्रु।

र्ौरा के जी में प्बल इच्छा हुई वक र्स्ामी के पैरो ंसे वलपट

जाऊं। वचल्लाने का जी चाहा, पर संकोच ने मन को रोका।

बूढे़ ब्राह्मि ने बहुत ठीक कहा था। र्स्ामी ने अिश्य मुझे

बुलाया था और आने से पहले यहां चले आये। उसने अपनी

संवर्नी के कान में कहा – बहन, तुम उस ब्राह्मि को व्यथग

ही बुरा कह रही ं थी।ं यही तो िह हैं जो यावत्रयो ं के नाम

वलि रहे हैं।

स्त्री – सच, िूब पहचानी हो?

र्ौरा – बहन, क्ा इसमें भी हो सकता है?

स्त्री – तब तो तुम्हारे भार् जर् र्ये, मेरी भी सुवध

लेना।

र्ौरा – भला, बहन ऐसा भी हो सकता है वक यहां तुम्हें

छोड दंू?

मंर्रु यावत्रयो ं से बात-बात पर वबर्डता था, बात-बात

पर र्ावलयां देता था, कई आदवमयो ं को ठोकर मारे और

कई को केिल र्ांि का वजला न बता सकने के कारि

धक्का देकर वर्रा वदया। र्ौरा मन-ही-मन र्डी जाती थी।

साथ ही अपने र्स्ामी के अवधकार पर उसे र्िग भी हो रहा

था। आज्जिर मंर्रु उसके सामने आकर िडा हो र्या और

कुचेिा-पूिग नेत्रो ंसे देिकर बोला –तुम्हारा क्ा नाम है?

र्ौरा ने कहा—र्ौरा।

मर्रू चौकं पडा, वफर बोला – घर कहां है?

मदनपुर, वजला बनारस।

253

यह कहते-कहते हंसी आ र्यी। मंर्रु ने अबकी

उसकी ओर ध्यान से देिा, तब लपककर उसका हाथ

पकड वलया और बोला –र्ौरा! तुम यहां कहां? मुझे

पहचानती हो?

र्ौरा रो रही थी, मुहसे बात न वनकलती।

मंर्रु वफर बोला—तुम यहां कैसे आयी?ं

र्ौरा िडी हो र्यी, आंसू पोछं डाले और मंर्रु की

ओर देिकर बोली – तुम्ही ंने तो बुला भेजा था।

मंर्रु –मैंने ! मैं तो सात साल से यहां हं।

र्ौरा –तुमने उसे बूढे़ ब्राह्मि से मुझे लाने को नही ं

कहा था?

मंर्रु – कह तो रहा हं, मैं सात साल से यहां हं। मरने

पर ही यहां से जाऊंर्ा। भला, तुम्हें क्ो ंबुलाता?

र्ौरा को मंर्रु से इस वनषु्ठरता का आशा न थी। उसने

सोचा, अर्र यह सत्य भी हो वक इन्होनें मुझे नही ंबुलाया,

तो भी इन्हें मेरा यो ंअपमान न करना चावहए था। क्ा िह

समझते हैं वक मैं इनकी रोवटयो ंपर आयी हं? यह तो इतने

ओछे र्स्भाि के न थे। शायद दरजा पाकर इन्हें मद हो

र्या है। नारीसुलभ अवभमान से र्रदन उठाकर उसने

कहा- तुम्हारी इच्छा हो, तो अब यहां से लौट जाऊं, तुम्हारे

ऊपर भार बनना नही ंचाहती?

मंर्रु कुछ लज्जित होकर बोला – अब तुम यहां से

लौट नही ंसकती ंर्ौरा ! यहां आकर वबरला ही कोई लौटता

है।

यह कहकर िह कुछ देर वचन्ता में मग्न िडा रहा,

मानो संकट में पडा हुआ हो वक क्ा करना चावहए।

उसकी कठोर मुिाकृवत पर दीनता का रंर् झलक पडा।

254

तब कातर र्स्र से बोला –जब आ ही र्यी हो तो रहो। जैसी

कुछ पडेर्ी, देिी जायेर्ी।

र्ौरा – जहाज वफर कब लौटेर्ा।

मंर्रु – तुम यहां से पांच बरस के पहले नही ं जा

सकती।

र्ौरा –क्ो,ं क्ा कुछ जबरदस्ती है?

मंर्रु – हां, यहां का यही हुक्म है।

र्ौरा – तो वफर मैं अलर् मजूरी करके अपना पेट

पालंूर्ी।

मंर्रु ने सजल-नेत्र होकर कहा—जब तक मैं जीता हं,

तुम मुझसे अलर् नही ंरह सकती।ं

र्ौरा- तुम्हारे ऊपर भार बनकर न रहंर्ी।

मंर्रु – मैं तुम्हें भार नही ंसमझता र्ौरा, लेवकन यह

जर्ह तुम-जैसी देवियो ंके रहने लायक नही ंहै, नही ंतो अब

तक मैंने तुम्हें कब का बुला वलया होता। िही ंबूढ़ा आदमी

वजसने तुम्हें बहकाया, मुझे घर से आते समय पटने में वमल

र्या और झांसे देकर मुझे यहां भरती कर वदया। तब से

यही ंपडा हुआ हं। चलो, मेरे घर में रहो, िहां बातें होरं्ी।

यह दूसरी औरत कौन है?

र्ौरा – यह मेरी सिी है। इन्हें भी बूढ़ा बहका लाया।

मंर्रु -यह तो वकसी कोठी में जायेंर्ी? इन सब

आदवमयो ंकी बांट होर्ी। वजसके वहसे्स में वजतने आदमी

आयेंरे्, उतने हर एक कोठी में भेजे जायेंरे्।

र्ौरा – यह तो मेरे साथ रहना चाहती हैं।

मंर्रु – अच्छी बात है इन्हें भी लेती चलो।

यवत्रयो ंरके नाम तो वलिे ही जा चुके थे, मंर्रु ने उन्हें एक

चपरासी को सौपंकर दोनंो ंऔरतो ंके साथ घर की राह ली।

255

दोनो ंओर सघन िृक्षो ंकी कतारें थी। जहां तक वनर्ाह जाती

थी, ऊि-ही-ऊि वदिायी देती थी। समुद्र की ओर से

शीतल, वनमगल िायु के झोकें आ रहे थे। अत्यन्त सुरम्य दृश्य

था। पर मंर्रु की वनर्ाह उस ओर न थी। िह भूवम की

ओर ताकता, वसर झुकाये, सज्जन्दग्ध चिाल से चला जा रहा

था, मानो मन-ही-मन कोई समस्या हल कर रहा था।

थोडी ही दूर र्ये थे वक सामने से दो आदमी आते हुए

वदिाई वदये। समीप आकर दानो ं रुक र्ये और एक ने

हंसकर कहा –मंर्रु, इनमें से एक हमारी है।

दूसरा बोला- और दूसरा मेरी।

मंर्रु का चेहरा तमतमा उठा था। भीषि क्रोध से

कांपता हुआ बोला- यह दोनो ंमेरे घर की औरतें है। समझ

र्ये?

इन दोनो ंने जोर से कहकहा मारा और एक ने र्ौरा के

समीप आकर उसका हाथ पकडने की चेिा करके कहा-

यह मेरी हैं चाहे तुम्हारे घर की हो, चाहे बाहर की। बचा,

हमें चकमा देते हो।

मंर्रु – कावसम, इन्हें मत छेडो, नही ं तो अच्छा न

होर्ा। मैंने कह वदया, मेरे घर की औरतें हैं।

मंर्री की आंिो ं से अवग्न की ज्वाला-सी वनकल रही

थी। िह दानो ंके उसके मुि का भाि देिकर कुछ सहम

र्ये और समझ लेने की धमकी देकर आरे् बढे़। वकनु्त

मंर्रु के अवधकार-के्षत्र से बाहर पहंुचते ही एक ने पीछे से

ललकार कर कहा- देिें कहां ले के जाते हो?

मंर्रू ने उधर ध्यान नही ं वदया। जरा कदम बढ़ाकर

चलने लर्ा, जेसे सन्ध्या के एकान्त में हम कवब्रस्तान के

पास से रु्जरते हैं, हमें पर्-पर् पर यह शंका होती है वक

256

कोई शब् कान में न पड जाय, कोई सामने आकर िडा

न हो जाय, कोई जमीन के नीचे से कफन ओढे़ उठ न

िडा हो।

र्ौरा ने कहा—ये दानो ंबडे शोहदे थे।

मंर्रु – और मैं वकसवलए कह रहा था वक यह जर्ह

तुम-जैसी ज्जस्त्रयो ंके रहने लायक नही ंहै।

सहसा दावहनी तरफ से एक अंगे्रज घोडा दौडाता आ

पहंुचा और मंर्रु से बोला- िेल जमादार, ये दोनो ं औरतें

हमारी कोठी में रहेर्ा। हमारे कोठी में कोई औरत नही ंहै।

मंर्रु ने दोनो ंऔरतो ंको अपने पीछे कर वलया और

सामने िडा होकर बोला--साहब, ये दोनो ं हमारे घर

की औरतें हैं।

साहब- ओ हो ! तुम झठूा आदमी। हमारे कोठी में कोई

औरत नही ंऔर तुम दो ले जाएर्ा। ऐसा नही ंहो सकता। (

र्ौरा की ओर इशारा करके) इसको हमारी कोठी पर

पहंुचा दो।

मंर्रु ने वसर से पैर तक कांपते हुए कहा- ऐसा नही ं

हो सकता।

मर्र साहब आरे् बढ़ र्या था, उसके कान में बात न

पहंुची। उसने हुक्म दे वदया था और उसकी तामील करना

जमादार का काम था।

शेष मार्ग वनविगघ्न समाप्त हुआ। आरे् मजूरो ंके रहने के

वमट्ठी के घर थे। द्वारो ंपर स्त्री-पुरुष जहां-तहां बैठे हुए थे।

सभी इन दोनो ं ज्जस्त्रयो ं की ओर घूरते थे और आपस में

इशारे करते हंसते थे। र्ौरा ने देिा, उनमें छोटे-बडे का

वलहाज नही ंहै, न वकसी के आंिो ंमें शमग है।

257

एक भदैसले और ने हाथ पर वचलम पीते हुए अपनी

पडोवसन से कहा- चार वदन की चांदनी, वफर अंधेरी पाि !

दूसरी अपनी चोटी रंू्थती हुई बोली – कलोर हैं न।

र्रु वदन-भर द्वार पर बैठा रहा, मानो कोई वकसान

अपने मटर के िेत की रििाली कर रहा हो।

कोठरी में दोनो ं ज्जस्त्रयां बैठी अपने नसीबो ं को रही थी।

इतनी देर में दोनो ं को यहां की दशा का पररचय कराया

र्या था। दोनो ंभूिी-प्यासी बैठी थी।ं यहां का रंर् देिकर

भूि प्यास सब भार् र्ई थी।

रात के दस बजे होरें् वक एक वसपाही ने आकर मंर्रु

से कहा- चलो, तुम्हें जण्ट साहब बुला रहे हैं।

मंर्रु ने बैठे-बैठे कहा – देिो नब्बी, तुम भी हमारे

देश के आदमी हो। कोई मौका पडे, तो हमारी मदद करोरे्

न? जाकर साहब से कह दो, मंर्रु कही ंर्या है, बहुत होर्ा

जुरमाना कर देंरे्।

नब्बी – न भैया, रु्से्स में भरा बैठा है, वपये हुए हैं, कही ं

मार चले, तो बस, चमडा इतना मजबूत नही ंहै।

मंर्रु – अच्छा तो जाकर कह दो, नही ंआता।

नब्बी- मुझे क्ा, जाकर कह दंूर्ा। पर तुम्हारी

िैररयत नही ं है के बंर्ले पर चला। यही िही साहब थे,

वजनसे आज मंर्रु की भेंट हुई थी। मंर्रु जानता था वक

साहब से वबर्ाड करके यहां एक क्षि भी वनिागह नही ंहो

सकता। जाकर साहब के सामने िडा हो र्या। साहब ने

दूर से ही डांटा, िह औरत कहां है? तुमने उसे अपने घर में

क्ो ंरिा है?

मंर्रु – हजूर, िह मेरी ब्याहता औरत है।

मं

258

साहब – अच्छा, िह दूसरा कौन है?

मंर्रु – िह मेरी सर्ी बहन है हजूर !

साहब – हम कुछ नही ंजानता। तुमको लाना पडेर्ा।

दो में से कोई, दो में से कोई।

मंर्रु पैरो ं पर वर्र पडा और रो-रोकर अपनी सारी

राम कहानी सुना र्या। पर साहब जरा भी न पसीजे! अन्त

में िह बोला – हुजूर, िह दूसरी औरतो ंकी तरह नही ं है।

अर्र यहां आ भी र्यी, तो प्ाि दे देंर्ी।

साहब ने हंसकर कहा – ओ ! जान देना इतना आसान

नही ंहै !

नब्बी – मंर्रु अपनी दांि रोते क्ो ंहो? तुम हमारे घर

नही ं घुसते थे! अब भी जब घात पाते हो, जा पहंुचते हो।

अब क्ो ंरोते हो?

एजेण्ट – ओ, यह बदमाश है। अभी जाकर लाओ, नही ं

तो हम तुमको हण्टरो ंसे पीटेर्ा।

मंर्रु – हुजूर वजतना चाहे पीट लें, मर्र मुझसे यह

काम करने को न कहें, जो मैं जीते –जी नही ंकर सकता !

एजेण्ट- हम एक सौ हण्टर मारेर्ा।

मंर्रु – हुजूर एक हजार हण्टर मार लें, लेवकन मेरे

घर की औरतो ंसे न बोलें।

एजेण्ट नशे में चूर था। हण्टर लेकर मंर्रु पर वपल

पडा और लर्ा सडासड जमाने। दस बाहर कोडे मंर्रु ने

धैयग के साथ सहे, वफर हाय-हाय करने लर्ा। देह की िाल

फट र्ई थी और मांस पर चाबुक पडता था, तो बहुत जब्त

करने पर भी कण्ठ से आत्तग-ध्ववन वनकल आती थी टौर

अभी एक सौ ंमें कुछ पन्द्रह चाबुक पडे थें।

259

रात के दस बज र्ये थे। चारो ंओर सन्नाटा छाया था

और उस नीरि अंधकार में मंर्रु का करुि-विलाप वकसी

पक्ष की भांवत आकाश में मंुडला रहा था। िृक्षो ं के समूह

भी हतबुज्जद्ध से िडे मौन रोन की मूवतग बने हुए थे। यह

पाषािहृदय लम्पट, वििेक शून्य जमादार इस समय एक

अपररवचत स्त्री के सतीत्व की रक्षा करने के वलए अपने

प्ाि तक देने को तैयार था, केिल इस नाते वक यह उसकी

पत्नी की संवर्नी थी। िह समस्त संसार की नजरो ंमें वर्रना

रं्िारा कर सकता था, पर अपनी पत्नी की भज्जक्त पर अिंड

राज्य करना चाहता था। इसमें अिुमात्र की कमी भी उसके

वलए असह्य थी। उस अलौवकक भज्जक्त के सामने उसके

जीिन का क्ा मूल्य था?

ब्राह्मिी तो जमीन पर ही सो र्यी थी, पर र्ौरा बैठी पवत की

बाट जोह रही थी। अभी तक िह उससे कोई बात नही ंकर

सकी थी। सात िषों की विपवत्त–कथा कहने और सुनने के

वलए बहुत समय की जरुरत थी और रात के वसिा िह

समय वफर कब वमल सकता था। उसे ब्राह्मिी पर कुछ

क्रोध-सा आ रहा था वक यह क्ो ं मेरे र्ले का हार हुई?

इसी के कारि तो िह घर में नही ंआ रहे हैं।

यकायक िह वकसी का रोना सुनकर चौकं पडी।

भर्िान्, इतनी रात र्ये कौन दु:ि का मारा रो रहा है।

अिश्य कोई कही ंमर र्या है। िह उठकर द्वार पर आयी

और यह अनुमान करके वक मंर्रु यहां बैठा हुआ है, बोली

– िह कौन रो रहा है ! जरा देिो तो।

लेवकन जब कोई जिाब न वमला, तो िह र्स्यं कान

लर्ाकर सुनने लर्ी। सहसा उसका कलेजा धक् से हो

र्या। तो यह उन्ही ं की आिाज है। अब आिाज साफ

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सुनायी दे रही थी। मंर्रु की आिाज थी। िह द्वार के बाहर

वनकल आयी। उसके सामने एक र्ोली के अम्पें पर एजेंट

का बंर्ला था। उसी तरफ से आिाज आ रही थी। कोई

उन्हें मार रहा है। आदमी मार पडने पर ही इस तरह रोता

है। मालूम होता है, िही साहब उन्हें मार रहा है। िह िहां

िडी न रह सकी, पूरी शज्जक्त से उस बंर्ले की ओर दौडी,

रास्ता साफ था। एक क्षि में िह फाटक पर पहंुच र्यी।

फाटक बंद था। उसने जोर से फाटक पर धक्का वदया,

लेवकन िह फाटक न िुला और कई बार जोर-जोर से

पुकारने पर भी कोई बाहर न वनकला, तो िह फाटक के

जंर्लो ंपर पैर रिकर भीतर कूद पडी और उस पार जाते

ही ं उसने एक रोमांचकारी दृश्य देिा। मंर्रु नंरे् बदन

बरामदे में िडा था और एक अंगे्रज उसे हण्टरो ंसे मार

रहा था। र्ौरा की आंिो ं के सामने अंधेरा छा र्या। िह

एक छलांर् में साहब के सामने जाकर िडी हो र्ई और

मंर्रु को अपने अक्षय- पे्म-सबल हाथो ंसे ढांककर बोली

–सरकार, दया करो, इनके बदले मुझे वजतना मार लो, पर

इनको छोड दो।

एजेंट ने हाथ रोक वलया और उन्मत्त की भांवत र्ौरा

की ओर कई कदम आकर बोला- हम इसको छोड दें , तो

तुम मेरे पास रहेर्ा।

मंर्रु के नथने फडकने लरे्। यह पामर, नीच, अंगे्रज

मेरी पत्नी से इस तरह की बातें कर रहा है। अब तक िह

वजस अमूल्य रत्न की रक्षा के वलए इतनी यातनांए सह रहा

था, िही िसु्त साहब के हाथ में चली जा रही है, यह

असह्य था। उसने चाहा वक लपककर साहब की र्दगन