वैज्ञानिक दृनटिकोण ......ज वनक द वषटक ए व...

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  • वैज्ञानिक दृनटिकोण एवं नवज्ञाि निक्ञा के मञायिे

    सविता प्रथमशे*

    हम विज्ञान आधञारित जीिन जी िह ेहैं। विज्ञान ने हमञािे जीिन को सिल बनञा वियञा ह।ै विज्ञान के वबनञा जीिन की कल्पनञा बेमञानी ह।ै िवैनक जीिन में हम विज्ञान के अनेक उ्पकिणों कञा उ्पयोग किते हैं। विज्ञान की महत्ञा समझते हुए ही प्ञाथवमक सति से ही विज्ञान की विक्ञा िी जञा िही ह,ै वकंत ुिवैनक जीिन से हम विज्ञान को जोड़ ्पञाने में असमथ्थ िह ेहैं। प्ञाकृवतक घटनञाए ँवकसी समय ज़रूि चमतकञाि समझी जञाती िही हों, वकंत ुआज विज्ञान की बिौलत हमें ज्ञात हो चकुञा ह ैवक चमतकञाि जैसञा कुछ भी नहीं होतञा। समसत घटनञाओ ंके ्पीछे कञािण होतञा ह।ै विज्ञान विक्ञा के द्ञािञा इन कञािणों को विद्ञावथ्थयों के समक् िखनञा ह।ै तञावक िे कयञा,कयों औि कैसे के चशम ेसे घटनञाओ ंको िखे सकें औि विज्ञान सममत एक वनण्थय ्पि ्पहुचँ सकें । विज्ञान विक्ण कञा उद्शेय भी यही ह।ै यह लेख असञामञावजक कुरूवतयों एिं अधंविशिञास ्पि आधञारित अनभुिों ्पि धयञान कें वरित किते हुए विक्ञा के मञाधयम से उनहें ििू कि िैज्ञावनक दृवटटकोण विकवसत किने ्पि भी ज़ोि ितेञा ह।ै

    यह विज्ान के चरम का यगु ह।ै लगता ह ैमानो कोई सखुद सिपन हो। चाँद-तारे धरती से दखेने िाली चीज़ें नहीं रहीं। समुदंर पार विदशे अजबूा नहीं रहा। धरती की अतल गहराई से लेकर अतंररक्ष कया, आकाश कया, जल कया, थल कया, भतू कया, भविषय कया, आप बता सकते हैं वक विज्ान कहाँ नहीं ह?ै हमारा सारा जीिन ही विज्ान से संचावलत ह।ै हम विज्ानमय हो चकेु हैं, कहना अवतरेक नहीं ह।ै विर भी कभी आपने सोचा वक इतने गहरे पैठने के बािजदू विज्ान कहाँ नहीं ह?ै सामानय तौर पर हमारा एक ही उत्तर होगा वक विज्ान सि्वत्र ह।ै विर भी यवद आपको कोई कह ेवक विज्ान अभी भी कुछ क्षेत्ररों में अपनी दखल

    नहीं बना पाया ह ैतब? शायद ही कोई विशिास करे, पर यह कटु सतय ह ैवक विज्ान को जहाँ जाना चावहए था, िहाँ यह पहुचँा ही नहीं, कयरोंवक अगर पहुचँा होता तो हम कुछ और होते और हमारा समाज कुछ और। विज्ान वजस सथान से शरुू होता ह,ै िहाँ नहीं पहुचँ पाया ह।ै मानि की समसत प्रावियरों में श्षेठता उसके उि्वर मवसतषक की िजह से ह।ै विज्ान के सारे आविषकाररों के पीछे यह हमारा मवसतषक ही ह।ै यह विडंबना ही ह ै वक विज्ान जो मवसतषक से आरंभ हुआ, वजज्ासा से वजसकी नींि पडी, उसी मवसतषक में घर करने में वििल रहा ह।ै हमारा जीिन और समसत जैविक प्रवरियाए,ँ यह

    * वनसग्थ नीड़, 11 आर.के. रेज़ीडेंसी, घरुुरोड, वतफ़रा, वबलासपरु, छत्तीसगढ़ 495223

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  • 113वैज्ञानिक दृन्टिकोण एवं नवज्ञाि निक्ञा के मञायिे

    ब्रहांड, प्रकृवत सभी विज्ान के वनयमरों से संचावलत हैं। गरुुतिाकर्वि नहीं होता तो हमारा पथृिी पर रहना असंभि था। विज्ान की खोजरों ने हमारे जीिन को आसान, सवुिधाजनक और वनरापद बना वदया ह।ै यह तो हम मानते हैं, पर विर भी हममें िैज्ावनक दृवषटकोि पैदा नहीं हो पाया ह,ै यह अफ़सोस की बात ह।ै विज्ान वनरीक्षि से आरंभ होकर वनषकर्व पर समापत होता ह।ै अगं्ेज़ी का साइसं शबद लैवटन शबद िञाइवंटयञा से वनकला ह,ै वजसका अथ्व होता ह ै‘ज्ान’। नयटून का गरुुतिाकर्वि का वनयम भी ऐसे ही वनरीक्षि या अिलोकन से आरंभ हुआ वक सेब नीच ेवगरता ह,ै वदमाग में घटंी बजी। “नीच ेही कयरों?” बस वदमाग ने और भी अिलोकन करना शरुू कर वदया। पररिाम ह ैगरुुतिाकर्वि का वनयम। इससे यह वसद्ध होता ह ैवक जहाँ पर भी कया? कयरों? कैसे? जैसे प्रशन उठते हैं, िहीं विज्ान ह।ै हम प्राथवमक सतर से लेकर अवनिाय्वतः दसिीं कक्षा तक विज्ान पढ़ते और पढ़ाते हैं। अगर आगे चलकर बचच ेने विज्ान एक विरय के रूप में पढ़ने का वनशचय वकया ह,ै तब तो विर और भी लंबे समय तक िह विज्ान के गढ़ू रहसयरों को पढ़ता और समझता ह।ै पर कया इतना विज्ान पढ़ने के बाद भी बचच ेमें िैज्ावनक दृवषटकोि आ पाता ह?ै वशक्षक वशक्षा महाविद्ालयरों में विद्ाथथी-वशक्षकरों को विज्ान वशक्षि के उद्शेयरों में सि्वप्रथम यही बताया जाता ह ै वक विद्ावथ्वयरों में िैज्ावनक दृवषटकोि विकवसत करना विज्ान वशक्षि के अनेक उद्शेयरों में से एक और सि्वप्रमखु ह।ै

    विज्ान वशक्षि का अधययन प्राथवमक सतर से ही आरंभ हो जाता ह।ै छोटे बचचरों को गवतविवधयरों

    के माधयम से दवैनक जीिन में विज्ान के वनयमरों को समझाया जाता ह।ै जैसे-जैसे कक्षाओ ंका सतर बढ़ता जाता ह,ै विज्ान की पढ़ाई कवठन होती जाती ह ैऔर एक समय ऐसा आता ह ैजब बचचरों को विरय चयन करना होता ह ैतो िे ही बचच ेविज्ान लेना चाहते हैं, जो सचमचु इसे पढ़ना चाहते हैं, कयरोंवक आगे की पढ़ाई और भी कवठन होती ह।ै वकसी ने विज्ान को चाह ेवजस भी सतर तक पढ़ा हो, चूवँक प्राथवमक सतर से ही िह विज्ान को इतना अवधक पढ़ चकुा होता ह ैवक विज्ान कया ह?ै यह िह अचछे से समझ चकुा होता ह ैऔर यह काफ़ी होता ह,ै कयरोंवक विज्ान की आगे की पढ़ाई तो कररयर के वलए अवधक होती ह।ै

    ऐसी वसथवत जहाँ पर बचच े प्राथवमक सतर से उचच सतर यानी कक्षा दस तक अवनिाय्वतः विज्ान पढ़ते हरों, िहाँ पर हमारे दवैनक जीिन की अनेक घटनाओ ंके प्रवत सिाभाविक रूप से विज्ान सममत विचार और दृवषटकोि होना चावहए, कयरोंवक विचार वनवम्वत होने और दृवषटकोि बनने के वलए दस िर्व का समय बहुत होता ह।ै लेवकन दवैनक जीिन में हम अनभुि कर रह े हैं वक ऐसा कतई नहीं हो रहा ह,ै कुछ बानगी ही काफ़ी ह।ै कुछ वदनरों पिू्व लेवखका की एक नाक, कान, गला विशरेज् से चचा्व हो रही थी, िे सियं डॉकटर के साथ-साथ विवभनन सामावजक संगठनरों से जडुी हैं और अपनी सामावजक वज़ममदेारी बखबूी वनभा रही हैं। वकसी दपंवत्त को वििाह के दस बरस बाद भी संतान सखु प्रापत नहीं हुआ था। उनहरोंने कहा वक मैंने उनहें अमकु मवंदर में जाने के वलए कहा था, पर िे नहीं गए, अगर जाते तो आज उनके आगँन में बचच ेखले रह ेहोते। इधर हमारे पडोस में बाहर

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    से एक नया पररिार आया हुआ ह।ै पतनी ने शायद अवधक औपचाररक वशक्षा नहीं ली ह।ै रोज़ाना गरुुद्ारे जाना उनकी वदनचया्व में शावमल ह।ै बातरों ही बातरों में उनहरोंने भी कहा वक उनके पास एक मतं्र ह,ै वजसके पाठ से वनःसंतानरों को संतान प्रावपत हो जाती ह।ै जब िे मझु ेबता रही थीं तो मरेे ज़हन में उस डॉकटर की याद ताज़ा हो गई। आप समझ सकते हैं कयरों?

    वशक्षा का उद्शेय कया ह?ै इन दोनरों प्रकरिरों से तो यही लगता ह ैवक यह मात्र अक्षर ज्ान के अलािा और कुछ नहीं। कयरोंवक अगर इससे इतर यह होती तो इन दोनरों के दृवषटकोि में इस कदर समानता नहीं होती। दोनरों ने ही ऐसी बातरों पर विशिास वकया, वजस पर विज्ान नहीं करता। हम सभी शालाओ ंमें पढ़ते ही हैं वक जीिरों की िंश िवृद्ध के वलए प्रजनन वरिया होती ह।ै अगर वकसी मवंदर में जाने या मतं्रोचचार से बचच ेहोते हरों तो वििाह जैसी संसथाओ ंकी आिशयकता ही नहीं पडती या डॉकटर की ज़रूरत ही नहीं पडती।

    सामानय वयवकत जो अवधक पढ़ा-वलखा नहीं ह,ै ईशिरीय शवकत पर भोलेपन से विशिास करता ह,ै उसका इन बातरों पर विशिास एकबारगी क्षमय ह।ै वकंत ुविज्ान की सिवोचच पढ़ाई कर चकेु वचवकतसक से इस तरह के आधारहीन सझुाि भला वकस ओर इशारा कर रह ेहैं? ऐसे ही वदलली के एक डॉकटर की खबर से कुछ िर्व पिू्व रूबरू हुए थे, उन वदनरों जब शरुू-शरुू में लौकी का रस पीने का चलन शबाब पर था और वजसने लौकी जैसी सि्वसलुभ सबज़ी को भी आसमान पर पहुचँा कर सामानय लोगरों की थाली से गायब कर वदया था। उस समय वदलली के इन डॉकटर महोदय ने भी लौकी का रस वलया। जो िे कुछ समय

    से ले रह े थे। वकंत ु इस बार रस ने धोखा द े वदया। उनकी तवबयत वबगड गई यहाँ तक वक उनकी मौत भी हो गई। वजसकी िजह लौकी का कडिा रस था। हमें मालमू ह ैवक लौकी, खीरा, ककडी यहाँ तक वक कई बार गाजर या कुछ अनय सवबज़यरों और िलरों का सिाद कडिा और मलू सिाद से हटकर होता ह,ै वजसका सीधा-सा अथ्व होता ह ै वक इनमें कुछ ऐसे विरलेै तति आ जाते हैं, वजससे इनका सेिन हावनकारक हो सकता ह।ै

    हमारे दवैनक जीिन में हमें ऐसी अनेक घटनाए ँदखेने-सनुने को वमलती हैं, जब तथयरों या सतय को नज़रअदंाज़ कर हम वयिहार करते हैं। माना जाता ह ैवक पीवलया जैसी बीमारी झाड-िँूक से ही ठीक होती ह ैऔर लकिा ठीक करने के वलए कबतूररों की बवल आिशयक ह।ै दःुखद बात यह ह ैवक सबसे अवधक और लगातार अतंररक्ष में उपग्ह भजेने िाले दशे का, िैज्ावनक उपकरि एिं गैजट्स रखने िाला भारी भरकम पढ़ाई वकया हुआ भारतीय भी िही कर रहा ह,ै जो अवशवक्षत वयवकत करता ह।ै विर वशवक्षत एिं अवशवक्षत में कया फ़क्व रहा? 

    कहा जाता ह,ै वशक्षा िही ह ै जो वयिहार में पररित्वन करे, जो हमें बदले। हम जो कल थे, वशवक्षत होने के बाद िही न रह जाए।ँ बदलने का अथ्व ह ैहमारी सोच, वकसी घटना को दखेने के प्रवत नज़ररए में अतंर। कल तक वजस घटना को हम सहज बवुद्ध से सिीकार लेते थे, अगर आज उसे लेकर हमारे मन में कया, कयरों और कैसे जैसा प्रशन नहीं उठ रहा ह ैतो वशक्षा विशरेकर विज्ान वशक्षा, के ित्वमान सिरूप पर प्रशन वचह््न लगता ह।ै

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    आज की नवज्ञाि निक्ञा बच्चों को कयञा निखञा रही है? कया विज्ान वशक्षा िह सीखा रही ह ैजो इसका उद्शेय ह ैवजसे वशक्षक-प्रवशक्षि में वसखाया जाता ह?ै यानी विद्ावथ्वयरों में िजै्ावनक दृवषटकोि का वनमा्वि करना या मात्र वकताबी ज्ान ही द ेपा रही ह?ै विज्ान की पसुतकें कया इस तरह से वलखी गई हैं वक ि ेज्ान चक्ष ुखोलकर बचचरों को एक नयी दवुनया की सैर कराए?ँ विज्ान की पसुतकें कया महज़ सतू्ररों, भारी-भरकम वनयमरों में ही इतनी उलझकर रह गई हैं वक बचचा ऑकसीजन बनाने की वजस प्रयोगशाला विवध को पढ़ता ह,ै िह इतनी समझ तो विकवसत कर शाला से वनकले वक ऑकसीजन के वलए िकृ्षरों का रहना वकतना ज़रूरी ह ैया हिा और पानी जसेै प्रािदायक घटक हम नहीं बना सकते। पर यह हो नहीं रहा ह,ै कयरोंवक यवद ऐसा होता तो नीवत-वनधा्वरक और इससे जडेु लोग िकृ्षरों की अधँाधुधँ बवल लेकर तथाकवथत विकास का विंिोरा नहीं पीटा करते या सरकार को वििश होकर “बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ” का नारा दकेर अलग से अवभयान नहीं शरुू करना पडता, कनया भ्िू की हतया नहीं होती और लडवकयाँ पैदा होने पर मवहलाओ ंको प्रतावडत नहीं वकया जाता।

    हमारे समाज में घोर अवयिसथा ह।ै गाँि-गाँि में सरकार ने प्राथवमक और माधयवमक शालाए ँखोल रखी हैं, आगँनबावडयाँ हैं, दरूदश्वन बहुत पहले से पहुचँ चकुा ह,ै इटंरनेट भी कुछ सथानरों तक पहुचँ गया ह,ै पर िरोंगी बाबाओ ं का साम्ाजय अभी भी अवडग ह ै एिं िल-िूल रहा ह।ै उनका मवहलाओ ंके साथ कभी भतू-पे्रत उतारने के नाम पर, तो कभी

    बचच ेहोने के नाम पर, तो कभी बीमारी दरू करने के नाम पर वघनौना खले जारी ह।ै आशचय्व की बात ह ैवक अवधकतर मामलरों में घर िाले ही मवहलाओ ंको इन बाबाओ ंके पास लेकर जाते हैं। इसका अथ्व ह ैवक वशक्षा ि संचार के इन सशकत माधयमरों ने िह नहीं वकया जो करना था। अधंविशिास, जाद-ूटोना, काला जाद,ू नज़र लगना पर विशिास मात्र अलप या अवशवक्षत लोग ही करते हैं या िरोंवगयरों के चककर में यही िग्व ही नहीं आता, बवलक उचच वशवक्षत िग्व भी इसमें शावमल ह।ै छत्तीसगढ़ की “टोनही प्रथा” ने अनेक मवहलाओ ंका जीिन ले वलया, अमानिीय वयिहार सहने के वलए वििश वकया, सामावजक बवहषकार पर मजबरू वकया। विज्ान की तमाम वकताबें जो प्राथवमक से उचच सतर तक वक होती हैं, में तथयरों, वनयमरों का विशलेरि, सतू्र, उनका प्रवतपादन आवद सारी तथयातमक जानकारी होती ह ैजो सिाभाविक रूप से विज्ान के एक विद्ाथथी को जाननी चावहए, पर वजस िैज्ावनक दृवषटकोि के वनमा्वि की बात विज्ान वशक्षि कहता ह,ै उसका नामो-वनशान भी नहीं होता। िैसे भी जहाँ भौवतकी, रसायनशासत्र के भारी-भरकम सतू्र और गढ़ू वनयमरों की पढ़ाई हो जहाँ वकताबरों से विद्ाथथी को सर उठाने की ि़ुरसत न हो, िहाँ कया िैज्ावनक दृवषटकोि वनमा्वि के वलए कहीं कोई सथान ह ैभी? इससे भी महतिपिू्व बात यह वक हमारी वयिसथा में इस बात की जाँच-परख के वलए कहीं सथान ही नहीं ह ैवक विद्ाथथी ने विरयगत उद्शेयरों को प्रापत वकया भी ह ैवक नहीं? इसीवलए हम प्राथवमक सतर से लेकर उचच और उचचतर वशक्षा तो ग्हि कर लेते हैं, बवलक अचछे अकंरों के साथ और बहुत

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    बार तो सिि्व पदक के साथ। जब वकसी सामावजक या धावम्वक परंपराओ ंया कुरीवतयरों पर भी िैज्ावनक दृवषटकोि अपनाने की बात होती ह ैतो हम वकसी भी कोि से िैज्ावनक दृवषटकोि आधाररत नज़ररया नहीं रखते। िैज्ावनक दृवषटकोि कोई अलग-सा नज़ररया नहीं, अवपत ु केिल सतय को जानना और उसे सिीकारना तथा उसे दवैनक जीिन में अमल में लाना ह।ै विज्ान का एक विद्ाथथी वजसने परीक्षा में यह उत्तर वलखकर अचछे अकं प्रापत वकए वक वलंग वनधा्वरि हते ुपरुुर का गिुसतू्र वज़ममदेार ह,ै जब िह सियं एक लडकी का वपता बनता ह ैतो इस तथय को भलूकर िह पतनी को वज़ममदेार ठहराता ह।ै

    नबबे के दशक में जब हमारा बैच विज्ान सनातक हुआ, उस दौरान छत्तीसगढ़ में लगभग हम सभी की वशक्षक की नौकरी लग गई, हम सभी आज की तारीख में चालीस से साठ हज़ार तक का मावसक िेतन प्रापत कर रह ेहैं। इसका तातपय्व यह ह ैवक हमारे दशे में विज्ान की वशक्षा रोज़गार के वलए तो अवत उत्तम ह,ै पर यह दवैनक जीिन की वशक्षा नहीं बन पाई ह।ै यह बरसरों से हमारे मवसतषक में घर जमाए कूडे को साफ़ नहीं कर पाई ह,ै वजसका खावमयाज़ा दशे आज भी भगुत रहा ह।ै

    विशि के सबसे खशुहाल दशेरों में भारत 122िें नंबर पर ह,ै गरीबी में हम बांगलादशे और पावकसतान को धकेल अगिुा बने हुए हैं, सिासथय और वशक्षा में भी हम वपछडे हैं। सिासथय में हम 195 दशेरों में 154िें पायदान पर हैं। विशिसतरीय विशिविद्ालय बीते ज़माने की बात हो चकेु हैं। बचपन में जब रेवडयो पर समाचार सनुते थे, तब और कुछ याद हुआ हो

    या नहीं, पर विकवसत और विकासशील दो शबद ज़रूर याद हो चकेु थे और यह भी वक भारत एक विकासशील दशे ह।ै हम सोचा करते थे वक जैसे हम बडे हरोंगे, हमारा दशे भी विकवसत दशेरों की श्िेी में आ जाएगा। कया खशुहाल दशेरों की श्िेी में हमारे दशे की कमज़ोर वसथवत का कारि, गरीबी, वशक्षा और सिासथय में वपछडापन हमारी वशक्षा वयिसथा विशरेकर विज्ान वशक्षा के सही तरीके से लाग ूनहीं होने का पररिाम ह?ै वकसी घटना के प्रवत हमारा िैज्ावनक नज़ररया कया हमें खशु रख सकता ह ैया गरीबी दरू करने में मददगार सावबत हो सकता ह ैया जेंडर असमानता, लडवकयरों और मवहलाओ ंके प्रवत अतयाचार, पशओु ंके साथ रूिरता और पया्विरि जैसे मदु्रों को सही तरह की विज्ान वशक्षा से हल वकया जा सकता ह?ै वनवशचत ही इसका उत्तर हाँ होगा।

    हम एक परंपरािादी दशे में रहने िाले हैं, वजनमें से अनेक परंपराओ ं ने रूवढ़यरों, कुरीवतयरों और अधंविशिास का रूप ले वलया ह,ै वजनकी िजह से दशे अपेवक्षत प्रगवत नहीं कर पाया ह ैऔर हम आज तक ऐसे मदु्रों पर ही उलझ ेहुए हैं, वजनका कोई आधार नहीं ह,ै जो औवचतयहीन हैं। अभी कुछ वदनरों पिू्व नोबेल परुसकार विजतेा िेंकटरमि रामाकृषिन ने कहा वक ‘भारत को मांस पर बहस छोड विज्ान और गवित की वशक्षा पर धयान दनेा चावहए, अगर िह ऐसा नहीं करता ह ैतो चीन से और वपछड जाएगा।’ ज़रूर इसके कुछ मायने हरोंग।े इस महतिपिू्व सलाह पर वकतनरों की वनगाह गई और वकतनी बहस हुई?

    कया हमने सही मायनरों में विज्ान की वशक्षा का अथ्व जाना और समझा ह?ै आज भी विज्ान विरय

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    की वशक्षा बचचरों और माता-वपता के वलए सटेटस वसबंल ह।ै मरेा िासता बारहिीं तक के विद्ावथ्वयरों से ह।ै दसिीं कक्षा में ततृीय श्िेी में उत्तीि्व विद्ाथथी भी आग ेकी पढ़ाई विज्ान विरय से ही करना चाहता ह।ै लाख काउंसवलंग के बाद बमवुशकल कुछ बचच ेसमझ पाते हैं, बावक को बारहिीं में एक साल खराब करने के बाद समझ आती ह।ै ऐसे हालातरों में विज्ान के सही विद्ाथथी दशे को वमल रह ेहैं, कहना मवुशकल ह।ै इससे भी अवधक महतिपिू्व बात यह ह ैवक जो वमल रह ेहैं कया उनमें िजै्ावनक दृवषटकोि और समझ ह?ै

    मैंने सियं विज्ान विरय तक की सनातकोत्तर वडग्ी प्रापत की ह।ै मैंने वसफ़्व रसायनरों के नाम, सतू्र, प्रयोगशाला विवध, भौवतकी के वनयम, जीिरों तथा पेड-पौधरों के बारे में खबू अचछे से पढ़ा ह,ै पर वकसी ने भी मझुमें िजै्ावनक दृवषटकोि पैदा नहीं वकया, न ही हमारे जीिन में घसुपैठ कर चकेु अधंविशिासरों से पदा्व उठाया। वबलली का राह से गज़ुरना हमारे वलए रासता काटना ही रहा। अगंाररों पर नंग ेपैर चलना वकसी चमतकार से कम नहीं रहा। बाबाओ ंका भभवूत वनकालना अजबेू से कम नहीं रहा। हमें विज्ान के वकसी विरय में नहीं पढ़ाया गया वक हिा में हाथ घमुाने से ताबीज़ नहीं आ जाता। आवदमानि जसेै तो हमारे वलए सभी घटनाए ँचमतकार ही रहीं। जबवक हम वदगबंर से िसत्रधारी अिसथा में आ चकेु थे, पर वदमागी तौर पर हम आज भी चमतकार को ही सब कुछ मान बैठे। दवैनक जीिन में होने िाली घटनाओ ंऔर पीवढ़यरों से वकए जा रह ेवरियाकलापरों पर हमारे ज़हन में कया? कयरों? और कैसे? न तो भौवतक विज्ान ने उठाया, न रसायन और न ही जीिविज्ान ने, तब विर हमने वकस तरह की विज्ान की पढ़ाई की?

    समझ से परे ह।ै विज्ान की उचच वशक्षा ग्हि करने के बाद भी अगर मैं शारीररक अपंगता को पिू्वजनम का िल मान,ू वनःसतंान होने पर पीर बाबाओ,ं मवंदर, मवसजद के चककर लगाऊँ तो मरेी वशक्षा वयथ्व ह।ै आज के समय की विडंबना यही ह ै वक विज्ान की महगँी पढ़ाई करने के बाद भी वदमागी तौर पर हममें पररित्वन नहीं आया ह।ै 

    आज़ादी के समय हर वकसी ने आज़ाद भारत का सपना दखेा था। आज़ाद भारत की सभी की अपनी कलपना थी। गरुुदिे रविंद्रनाथ टैगोर ने भी अपनी कविता, ‘वहयेर द माइडं इज़ विदाउट फ़ीयर’ में वलखा ह,ै मैं ऐसे आज़ाद भारत की कलपना करता हू,ँ जहाँ मानि तक्व का उपयोग कर मवसतषक में मतृ आदतें जो पीवढ़यरों से जमा हैं, का सफ़ाया कर सके तावक मवसतषक में सिचछ, वनम्वल धारा प्रिावहत हो सके। एक ऐसा भारत जो अधंविशिासरों से मकुत हो। अतं में िे कहते हैं ‘ह ेमरेे वपता! मरेे दशे को जाग्त कर’ (ओ फ़ादर! लेट माई कंट्ी अिेक)।

    कोई भी दशे कैसे जाग्त होता ह?ै ऐसा कौन-सा िाद् यंत्र ह ैजो उसे जगा पाए? कया गरुुदिे ने कहीं इशारा वकया ह?ै इसी कविता के आरंभ में िे कहते हैं, मैं ऐसा समाज चाहता हू,ँ जहाँ लोगरों के मधय जावत, पंथ, धम्व, रंग की दीिार न हो।

    गरुुदिे की कलपना कैसे साकार होगी? ऐसी कौन-सी कूची ह ैजो इस दीिार को पोत कर सभी को एक कर सके? इसका उत्तर वनवशचत ही हाँ ह,ै िह यंत्र, िह कूची ह ैवशक्षा। वशक्षा ही िह माधयम ह ैजो वयवकत का सिाांगीि विकास कर सकती ह।ै वजन दशेरों ने वशक्षा के इस गढ़ू रहसय को जाना,

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  • 118 भारतीय आधिुनक िशक्ा – जनवरी 2018

    समझा और अपनाया वनससंदहे उनकी प्रगवत वमसाल ह ैऔर िे उन मसलरों में उलझ ेहुए नहीं हैं, वजनकी ओर नोबेल परुसकार विजेता िेंकटरमि रामाकृषिन ने इशारा वकया ह।ै

    अफ़सोसजनक बात यह ह ैवक हमारे दशे में वशक्षा को इतना महतिपिू्व कभी समझा ही नहीं गया और आज़ादी के सत्तर बरस बाद भी दशे की बबा्वदी के वलए लॉड्व मकैाले को कोसा जाता ह,ै जबवक कि्वधाररों के पास सत्तर बरस वजतना लंबा समय था। वजसमें मकैाले को वशक्षा वयिसथा से बाहर वनकालकर अपना कुछ द ेसकते थे, पर ऐसा कुछ नहीं हुआ, कयरोंवक हममें इचछाशवकत का अभाि था। हम करना ही नहीं चाहते थे, कयरोंवक करने के अपने नकुसान थे।

    कारि चाह ेजो रह ेहरों, यह बात तो तय ह ैवक आज़ादी के बाद नेहरूजी ने वजस िैज्ावनक दृवषटकोि और सोच के आधार पर कल-कारखाने, बांधरों आवद का वनमा्वि कराया, उसने एक उममीद बंधाई थी वक हो सकता ह ैहमें एक िैज्ावनक चतेना और मनोिवृत भी वमल जाए, पर यह हो न सका। आज भी हम अधंविशिासरों, बाबाओ,ं मलुला-मौलवियरों, ओझा, जात-पात, भदेभाि, रंगभदे, धम्व और संप्रदाय में ही उलझकर रह गए हैं।

    प्राथवमक सतर से विज्ान पढ़ने के बाद भी पीवलया जसैी बीमारी को झाड-िँूक से ही दरू होने का दृढ़ विशिास कया बताता ह?ै या भतू पकडना, दिेी आना, लडके की चाहत पररिार की िवृद्ध, पतनी को घर वनकाला या उसके साथ अमानिीय वयिहार, अगर अभी तक वकसी समाज में हो रहा ह ैतो वनवशचत ही यह उस दशे की वशक्षा वयिसथा पर प्रशन वचह््न ह।ै विशरेकर उस वसथवत में तो और भी जबवक हमें गि्व होता ह ैवक हमने विशि को शनूय वदया। सशु्तु, धनितंरर, आय्वभट्ट, भासकर जसेै िजै्ावनक वदए। वकंत ु हमें िजै्ावनक दृवषटकोि नहीं वदया, अगर वदया होता तो धम्व के नाम पर लडाई-झगडे हमारे वलए आम नहीं हो जाते। जावतगत भदेभाि दशे को खोखला न कर रहा होता।

    प्राथवमक सतर से विद्ालयरों में विज्ान वशक्षि अनय विरयरों की तरह सामानय रूप से पढ़ा वदया जाता ह।ै एक कक्षा में, बचचरों को िूल, पौधरों, जीि-जंतओु ंके बारे में प्रकृवत में रहकर ही बताया जा सकता ह।ै आपसी बातचीत से नए पहल ूउजागर होते हैं और इसी समय दृवषटकोि वनमा्वि भी होता ह।ै इस सतर पर वनवम्वत िैज्ावनक दृवषटकोि जीिनपयांत बचचरों के साथ रहता ह,ै जो एक अचछे नागररक के रूप में दशे के काम आते हैं।

    िदंर्भ

    https://thewire.in/178555/venkatraman-ramakrishnan-education-meat/

    http://www.tolstoytherapy.com/2014/06/let-my-country-awake-by-rabindranath-tagore-inspiration-change.html

    https://en.wikipedia.org/wiki/World_Happiness_Report

    http://www.firstpost.com/india/rajasthan-hc-judge-mahesh-sharmas-take-on-cows-and-peacocks-isnt-the-only-reason-hes-unforgettable-3505853.html

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  • शिक्षा में तकनीकी की समझ एवं नवीन प्रयोग

    विनोद कुमार कंिररया*

    यह लेख शकै्षिक प्रौद्योक्िकी अथवा शकै्षिक तकनीकी के क्वक्िनन आयामों की चचाचा से प्ारंि हयोकर क्शषिा की तकनीकी एवं क्शषिा में तकनीकी पर प्काश डालता ह।ै पारंपररक क्शषिण-अक्ििम में सीमाओ ंएवं पररसीमाओ ंपर क्वमशचा करता हुआ समय-पररसीमा, सथान-पररसीमा, अवसर-पररसीमा, लयोकतंत्र-पररसीमा या समान अवसर सीमा, सहययोिी एवं सहकारी पररसीमा, प्क्तक्लक्प-पररसीमा एवं अतं में सांसथाक्नक-पररसीमा कयो क्चह््क्नत कर क्शषिा के षिेत्र में आने वाली समसयाओ ंपर चचाचा करता ह।ै यह लेख केवल समसयाओ ंपर ही कें क्रित न हयोकर, ऐसे में समािान कया ह,ै के क्िंद ुकयो िी उठाता ह।ै वेि 2.0 उपकरण एवं मकुत-शकै्षिक संसािन कयो एक िड़े समािान के तरौर पर दखेता ये लेख, वेि 2.0 उपकरण एवं मकुत-शकै्षिक संसािन की संकलपना कयो समझाने के साथ उसके कुछ उदाहरण िी प्सततु करता ह।ै वेि 2.0 उपकरण एवं मकुत शकै्षिक संसािन शकै्षिक समसयाओ ंका समािान कैसे करते हैं, पर चचाचा कर इनके िारे में और अक्िक ज्ानवकृ्धि करने हते ुएक छयोटा-सा कायचा िी क्दया िया ह।ै अतं में ये लेख राष्ट्ीय आई.सी.टी. नीक्त एवं राष्ट्ीय पाठ्यचयाचा की रूपरेखा के शकै्षिक प्रौद्योक्िकी व आई.सी.टी. पर प्िाव की चचाचा कर क्शषिा में तकनीकी की समझ तथा नवीन प्ययोि के महतव कयो सदुृढ़ एवं प्चाररत करता ह।ै

    आजकल विक्ा के क्ेत्र में तकनीकी का प्रयोग लगातार बढ़ता ही जा रहा ह।ै िसततुः केिल उच्च सतर पर ही नहीं, बव्क प्रारंविक सतर पर िी इसके प्रयोग के बारे में लगातार संिािनाए ँअनिेवित की जा रही हैं एिं मनोनरुूप पररणामों की अपेक्ाए ँकी जा रही हैं। िासति में, विक्ा में तकनीकी, िवैक्क तकनीकी का ही एक अगं ह।ै िवैक्क तकनीकी, वजसे िवैक्क प्ररौद्ोवगकी के नाम से िी जाना जाता ह,ै के मलूतः दो अगं हैं — विक्ा की तकनीकी एिं विक्ा में तकनीकी।

    शिक्षा की तकनीकी विक्ा की तकनीकी काफी पुराना आयाम है। इसके अंतग्गत इस बात पर अविक बल वदया जाता है वक विक्ा-विक्ण एिं विक्ण-अविगम बेहतर कैसे हो, वजसमें विविनन प्रकार की अविगम-प्रिवृतियाँ एिं विक्ण पद्धवतयाँ िावमल हैं। इसमें विक्ा, विक्क, विक्ण-अविगम, कक्ा-वनददेि, मू्यांकन इतयावद को सिवोतिम बनाने की ्च्चा्ग की जाती है। यवद एक िाकय में कहा जाए तो विक्ा की तकनीकी में उपलबि

    * अक्ससटेंट प्योफे़सर, विक्ा संकाय, वद्ली विश्िविद्ालय, वद्ली 110007

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  • 106 भारतीय आधिुनक िशक्ा – जनवरी 2018

    संसािनों का सिवोव्चत उपयोग कर विक्ा को बेहतर बनाने की कोविि की जाती है।

    शिक्षा में तकनीकी विक्ा में तकनीकी तलुनातमक रूप से नतून संक्पना ह।ै इसका मखुय उद्शे्य विक्ा के क्ेत्र में तकनीकी एिं आिवुनक उपकरणों का प्रयोग ह।ै दखेा जाए तो इसका काय्गक्ेत्र िी विक्ा की तकनीकी िाला ही ह,ै उदाहरणतया, विक्ण-अविगम एिं मू् यांकन, विक्ा में तकनीकी के बढ़ते हुए महति का ही पररणाम ह ैवक आजकल अविकांि विद्ालयों में कंपयटूर एिं अनय तकनीकी उपकरणों का प्रयोग बढ़ता ही जा रहा ह।ै िायद यही िजह ह ैवक प्रतयेक विद्ालय, ्चाह ेिह सरकारी हो या वनजी, ग्ामीण क्ेत्र में हो या िहरी क्ेत्र में, उच्च माधयवमक सतर का हो या प्राथवमक सतर का, अपने विद्ावथ्गयों हते ुअविक-से-अविक कंपयटूर सवुििा उपलबि करिाने हते ु प्रयासरत ह।ै पहले की अपेक्ा विविनन सरकारे िी इस ओर अतयविक गंिीरतापिू्गक वि्चार कर साथ्गक प्रयास कर रही हैं।

    यूँ तो बहुत पहले से ही विक्ा के क्ेत्र में अलग-अलग उपकरणों का प्रयोग वकया जाता रहा ह,ै जैसे — रेवियो, टेलीविजन इतयावद। वकंत ुकंपयटूर के आने से इस क्ेत्र में आकवसमक एिं तीव्र पररित्गन आए हैं। कंपयटूर के बाद यवद ये क्ेत्र वकसी तकनीक से सिा्गविक प्रिावित हुआ ह ै तो िो ह ैइटंरनेट। इटंरनेट के प्रादुिा्गि ने इस क्ेत्र को लगिग परूा बदल-सा वदया ह।ै इटंरनेट के आने से पहले विक्ण-अविगम में बहुत सारी सीमाए ँएिं पररसीमाए ँथीं। आइए, पहले इनहीं की ्च्चा्ग करें।

    पषारंपररक शिक्ण-अशिगम में सीमषाए ँ एवं पररसीमषाएँसमय-परिसीमाकक्ा विक्ण-अविगम में समय सबसे बड़ी पररसीमा रहा ह।ै आमतरौर पर वकसी िी विद्ालय का दैवनक काय्ग-कालांि पाँ्च से आठ घंटे का होता ह ैऔर इस समय में लगिग छह से आठ कालांि होते हैं। एक कालांि लगिग 35 – 50 वमनट का होता ह।ै एक कालांि में यवद एक अधयापक आता ह ैऔर अगर कक्ा में लगिग 35 विद्ाथथी हैं तो अनुमान लगाएँ वक प्रतयेक विद्ाथथी को वकतना समय वमला, िासति में, बहुत ही कम। कया इतना समय अविगम के वलए काफी ह?ै यही समय-पररसीमा ह ैजो पारंपररक कक्ा विक्ण-अविगम की एक बड़ी कमी ह।ै

    स्ान-परिसीमा पारंपररक विक्ण में विक्ण-अविगम हतेु एक सथान वििेि वनिा्गररत होता ह,ै वजसे विद्ालय-ििन कहते हैं। इस ििन में िी विविनन सथानों की अपनी-अपनी सीमाएँ हैं। आमतरौर पर एक विद्ाथथी को वकसी एक अधयापक से वििय संबंिी बात्चीत हतेु केिल एक ही कक्ा-सथान वमलता ह ैिो िी वसफ्ग एक वििेि कालांि के दरौरान। विद्ालय-ििन में अनय सथानों पर िह अधयापक अनय िैवक्क गवतविवियों में वयसत होता ह,ै इसीवलए िह बात्चीत हतेु उपलबि नहीं हो पाता, ऐसे में संक्पना ये बन गई ह ै वक अविगम एिं विक्ण केिल उसी वनयत सथान में हो सकता ह,ै वजसे विद्ालय-ििन या कक्ा कहते हैं। अब प्रश्न यह खड़ा होता ह ै वक कया अविगम

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  • 107शिक्षा में तकनीकी की समझ एवं नवीन प्रयोग

    िासति में सथान वििेि से बँिा होना ्चावहए? या कया अविगम केिल सथान वििेि पर ही होता ह?ै

    अवसि-परिसीमा लगिग 35 विद्ावथ्गयों की एक कक्ा में एक कालांि में एक विद्ाथथी को अपनी बात कहने या पूछने के लगिग वकतने अिसर वमलते हैं? कया िासति में प्रतयेक विद्ाथथी को अिसर वमल िी पाता ह ैया नहीं? अिसर की ये कमी कया कहीं न कहीं अविगम में बािक नहीं ह?ै पारंपररक कक्ा की ये एक पररसीमा अविगम को न केिल काफी प्रिावित करती ह,ै बव्क अिसरों की कमी को उजागर करती ह।ै

    लोकतंत्र-परिसीमा या समान अवसि-सीमा कक्ा में कुछ विद्ाथथी अवत-उतसाही एिं अतयविक प्र्चवलत होते हैं, अगर दखेा जाए तो हर समय यही कुछेक विद्ाथथी ही या तो कुछ बताते रहते हैं या विर प्रश्न पछूते रहते हैं। कक्ा में विद्ावथ्गयों का एक बड़ा तबका ऐसा िी होता ह ैजो अविकतर िांत ही बैठा रहता ह।ै कया इनके मन में प्रश्न नहीं होते या ये कुछ कहना नहीं ्चाहते? या ये कक्ा गवतविवि में वहससा नहीं बनना ्चाहते? िासतविकता तो यह ह ैवक ये बड़ा वहससा िी कहना तो बहुत कुछ ्चाहता ह,ै परंत ुअनय के कारण कुछ कह नहीं पाता। कया िासति में हम कक्ा में सिी विद्ावथ्गयों को समान अिसर उपलबि करिा पा रह े हैं? कया सिी को सीखने के समान अिसर नहीं उपलबि होने ्चावहए? कया िासति में कक्ा में सही मायने में लोकतंत्र ह?ै यवद गरौर वकया जाए तो नहीं ्चाहते हुए िी हम सिी को समान अिसर नहीं उपलबि करिा पा रह ेहैं। ये

    समान अिसर सीमा िी अविगम में कहीं न कहीं एक बड़ी बािक ह।ै

    सहयोगी एवं सहकािी-परिसीमा पारंपररक कक्ा में हम विद्ावथ्गयों को सहयोगातमक एिं सहकारी गवतविवियों के अिसर नहीं के बराबर उपलबि करिा पा रह े हैं। बहुत सारे अधययन ये बताते हैं वक सहयोगी एिं सहकारी गवतविवियाँ न केिल सीखने-वसखाने में महतिपणू्ग हैं, बव्क वयवकतति के अनय आयामों के विकास में िी ये सहायक हैं। इनके महति को दखेते हुए ये काफी हद तक आिश्यक हो जाता ह ै वक विक्ण-अविगम में विद्ावथ्गयों को अविक-से-अविक सहयोगी एिं सहकारी गवतविवियों के अिसर उपलबि करिाए जाए ँि उनहें इस ओर पे्रररत वकया जाए।

    प्रतततलतप-परिसीमा यवद एक ही वििय-सामग्ी को कई विद्ावथ्गयों द्ारा उपयोग वकया जाना हो, जो वक आमतरौर पर आिश्यक होता ह,ै तो उसकी कई प्रवतवलवपयों की आिश्यकता पड़ती ह।ै उदाहरण के तरौर पर, यवद एक पनने की वििय-सामग्ी यवद कक्ा में 30 विद्ावथ्गयों द्ारा उपयोग की जानी ह ैतो कम से कम 15 प्रवतवलवपयों की आिश्यकता होगी। वकंतु यवद ये सामग्ी लेखक अथिा प्रकािक द्ारा सिा्गविकार सुरवक्त हुई तो इसकी प्रवतवलवप करना इतना आसान नहीं होगा और अकसर ऐसी सामग्ी जो उच्च गुणितिा िाली हो, काफी महगँी होती ह,ै ये प्रवतवलवप-पररसीमा िी विक्ण-अविगम को थोड़ा मवुश्कल बना देती ह।ै

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  • 108 भारतीय आधिुनक िशक्ा – जनवरी 2018

    सांस्ातनक-परिसीमा संसथान के विविनन वनयम, अनकु्रम ि सोपावनकी िी कहीं न कहीं विद्ाथथी एिं विक्क के मधय बात्चीत को प्रिावित करते हैं। वि्चारों के आदान-प्रदान में ये सोपावनकी अहम िवूमका तो वनिाती ही ह,ै वकंत ुइस आदान-प्रदान को कहीं न कहीं बावित िी करती ह।ै इससे विद्ाथथी सितंत्रतापिू्गक सियं को अविवयकत नहीं कर पाते हैं, तदिै, ये सांसथावनक-पररसीमा विक्ण एिं अविगम को प्रिावित कर बात्चीत एिं वि्चारों के आदान-प्रदान को सीवमत कर कुछ हद तक ऋणातमक असर उतपनन करती ह।ै

    ऐसे में समषािषान कयषा है?इन सब सीमाओ ंएिं पररसीमाओ ंके रहते यह प्रश्न उठना लाज़मी ह ै वक आवखर इसका समािान कया ह?ै विक्ा में तकनीकी के प्रयोग ने इनका हल दनेे की कोविि की ह।ै उनमें िी विििे तरौर पर विक्ा में नयी तकनीकी ने महतिपणू्ग िवूमका के वलए रासते खोले हैं। ऐसी ही दो नयी तकनीक हैं — िेब 2.0 उपकरण एिं मकुत िवैक्क संसािन। इनहें अगं्ेज़ी में िेब 2.0 टू्स एिं ओपन एजकेुिनल ररसोस्गज़ के लोकवप्रय नामों से जाना जाता ह।ै

    कया है वेब 2.0 उपकिण?िेब 2.0 ऑनलाइन िेबसाइट्स की एक श्णेी ह ैवजसकी तीन विििेताए ँहैं — पहली, इस िेबसाइट पर अविकतर सामग्ी इसके उपयोगकता्ग द्ारा वनवम्गत होती ह ैन वक इसके मावलक अथिा अविकारी द्ारा। अथा्गत ्कोई िी इसमें वििय-सामग्ी का वनमा्गण कर सकता ह।ै कुछ िी नया वनवम्गत करने की आज़ादी सिी को होती ह।ै दसूरी, इसमें हरेक को न केिल

    पढ़ने की सितंत्रता होती ह,ै बव्क वलखने की िी आज़ादी होती ह ैअथा्गत ्ये केिल दसूरों द्ारा वनवम्गत की गई सामग्ी पढ़ने के वलए ही नहीं ह,ै बव्क कोई िी इसमें कुछ वलख िी सकता ह।ै तीसरी और अवत महतिपणू्ग यह विििेता ह ैवक इसमें वनमा्गणकता्ग एिं उपयोगकता्ग के बी्च का ररकत सथान लगिग खतम हो जाता ह।ै जो एक समय वनमा्गणकता्ग ह,ै िहीं दसूरे समय उपयोगकता्ग ह ै और इसी प्रकार वकसी और समय ये िवूमका परसपर बदल जाती ह।ै

    वेब 2.0 उपकिण के कुछ उदाहिण िेब 2.0 के कुछ उदाहरणों पर ्च्चा्ग करें तो इनमें कुछ प्रमखु नाम गगूल एपलीकेिसं, ए््यवुमनेट, कलासरूम 2.0, विज़-आईकय,ू सकोप, लन्ग-सेंट्रल, बलैकबोि्ग एिं आइिेंवटका इतयावद के आते हैं। गगूल एपलीकेिसं विविनन प्रकार के वक्रयाकलापों हते ुविविनन विविष्ट एपलीकेिसं की सवुििा प्रदान करता ह।ै गगूल ग्पु उनहीं एपलीकेिसं में से एक ह,ै जो न केिल ऑनलाइन समहू बनाने की सवुििा प्रदान करता ह,ै बव्क समहू पर दसतािेज़ों, व्चत्र, ्चलव्चत्र इतयावद का आदान-प्रदान करने ि वि्चार-विमि्ग करने की िी सवुििा प्रदान करता ह।ै इसी प्रकार, गगूल ड्ाइि कई प्रकार के दसतािेजों का वनमा्गण करने, उनहें संपावदत करने ि समहू में उतपावदत करने की सवुििा प्रदान करता ह।ै ए््यवुमनेट, कलासरूम 2.0, विज़-आईकय,ू सकोप, लन्ग-सेंट्रल एिं बलैकबोि्ग इतयावद से विक्ण-अविगम हते ुन केिल ऑनलाइन कक्ाए ँ्चलाई जा सकती हैं, बव्क इनकी सहायता से वि्चार-विमि्ग कर जानकारी एिं ज्ान का विविनन रूपों में आदान-प्रदान िी वकया जा सकता ह।ै

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  • 109शिक्षा में तकनीकी की समझ एवं नवीन प्रयोग

    आइिेंवटका अपने वि्चारों को बहुत ही कम िबदों में अथिा एक लघ ुिबद-सीमा के साथ वयकत एिं दसूरों के साथ साझा करने की सवुििा प्रदान करता ह,ै जो सारगवि्गत अविवयवकत की संक्पना पर आिाररत ह।ै इनके विविनन उपयोगों को दखेते हुए कहा जा सकता ह ै वक विक्ण-अविगम में ये सिी बहुत सहायक वसद्ध हो सकते हैं।

    मुकत िैशक्क ससंषािन कयषा हैं?मकुत िवैक्क संसािन अथिा ओ.ई.आर. ऐसी कोई िी िकै्वणक, अविगम एिं िोि सामग्ी अथिा संसािन होते हैं, जो आम जन के क्ेत्राविकार में उपलबि हों ि इस प्रकार वितररत वकए जाए ँ वक दसूरों द्ारा वबना कोई मू् य ्चकुाए प्रयोग वकए जा सकते हों। यवद सारगवि्गत रूप से कहा जाए तो इसमें ्चार विििेताए ँहोती हैं — पनुरुपयोग (जो ह,ै जैसा ह,ै उसी रूप में वबना कोई पररित्गन वकए उपयोग की सितंत्रता), पनुका्गररत (आिश्यकता के आिार पर पररित्गन कर उपयोग की सितंत्रता), पनुवम्गश्ण (आिश्यकता के आिार पर मलू रूप में उपलबि सामग्ी या पररिवत्गत सामग्ी को अनय सामग्ी के साथ वमलाकर उपयोग की सितंत्रता), पनुवि्गतरण (मलू रूप में उपलबि सामग्ी या पररिवत्गत सामग्ी को अनय लोगों के साथ वितररत करने की सितंत्रता)। यही विििेताए ँ मकुत िवैक्क संसािन को विक्ण-अविगम के क्ेत्र में विििे एिं अतयविक लािकारी बनाती हैं। मकुत िवैक्क संसािनों में पणू्ग पाठ्यक्रम, पाठ्य सामग्ी, मॉि्यू् स, पाठ्यपसुतकें , िीवियो, जाँ्च-सामग्ी, विक्ण-अविगम सामग्ी, सॉफ़टिेयर, लाइसेंस, ऑनलाइन ि ऑफलाइन

    उपकरण और विक्ा के क्ेत्र में अनय सहायक-सामग्ी या तकनीकी इतयावद िावमल हैं अथा्गत ् इसका क्ेत्र अतयविक विसततृ ह ैऔर ऐसे सिी प्रकार के संसािन इसमें िावमल हैं वजनका प्रतयक् या परोक् रूप से विक्ा से कोई न कोई संबंि हो।

    मुकत शैतषिक ससंाधन के कुछ उदाहिण मकुत िवैक्क संसािन के कुछ प्रमखु उदाहरणों में एिमोिो, विवकसपेसेस, मिूल, महारा, जोरम, ओपन वकलपआट्ग, कोस्गरा, आर-कैमपस, एन.आर.ओ.ई.आर., सियम,् सियम ् प्रिा, ई-पाठिाला, ई-पीजी पाठिाला इतयावद आते हैं वजनके उपयोग ि प्रयोग विनन-विनन हो सकते हैं। एिमोिो एक प्रकार का ऑनलाइन कक्ा-कक् ह ैवजस पर िे सिी काय्ग वकए जा सकते हैं जो वक एक कक्ा में संिि ि अनमुावनत होते हैं। विवकसपेसेस एक पलैटफाॅम्ग प्रदान करता ह,ै जहाँ सिी वमलकर कुछ नया दसतािेज़ वनवम्गत, संपावदत ि साझा कर सकते हैं। मिूल एक अनय विविष्ट पलैटफाॅम्ग ह ैजो वक कोई पाठ्यक्रम ्चलाने अथिा ऑनलाइन कक्ा के वलए प्रयोग वकया जा सकता ह।ै महारा के द्ारा ऑनलाइन मू् यांकन बड़े ही सवुििाजनक ढंग से वकया जा सकता ह।ै जोरम पर विविनन प्रकार के एिं विविनन विियों से संबंवित जन्ग्स उपलबि हैं जो वक िोि हते ुएिं कुछ वनत-नया सीखने हते ुसहायक हो सकते हैं। ओपन वकलपआट्ग से विविनन व्चत्र वमल सकते हैं, वजनका आिश्यकतानसुार उपयोग वकया जा सकता ह।ै कोस्गरा पर अविगम हते ुविविनन पाठ्यक्रम उपलबि हैं एिं आर-कैमपस एक सि्ग-समािेिी ऑनलाइन पलैटफाॅम्ग ह,ै जहाँ पर

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  • 110 भारतीय आधिुनक िशक्ा – जनवरी 2018

    रूबररक से लेकर ई-पोट्गफोवलयो वनमा्गण तक सब कुछ संिि ह।ै एन.आर.ओ.ई.आर., एन.सी.ई.आर.टी. का निीन एिं लोकवप्रय पलैटफामॅ्ग ह ै वजस पर विविनन रूपों में लगिग हर प्रकार के मकुत िवैक्क संसािन उपलबि हैं। सियम ्ि सियम ्प्रिा सि-अधययन हते ुउपलबि सि्गशे्ष्ठ मकुत िवैक्क ससंािनों में से एक ह,ै वजन पर अनवगनत पाठ्यक्रम उपलबि हैं एिं प्रतयेक वदन के साथ इनमें लगातार िवृद्ध हो रही ह।ै ई-पाठिाला जहाँ विद्ालय सतर की विक्ा पर कें वरि त ह,ै िहीं ई-पीजी पाठिाला सनातकोतिर सतर हते ुमकुत िवैक्क अविगम-संसािन उपलबि कराती ह।ै

    वेब 2.0 उपकिण एवं मुकत शैतषिक ससंाधन शैतषिक समसयाओ ंका समाधान कैसे किते हैं?इनके द्ारा विद्ाथथी एिं अधयापक किी िी वबना वकसी समय-बािा के आपस में बात कर सकते हैं, किी िी, कहीं िी रहते हुए आपस में वि्चारों का आदान-प्रदान कर सकते हैं, इनके द्ारा सिी को अिसर ि समान अिसर उपलबि होते हैं, लोकतंत्र की अििारणा विक्ण-अविगम में िासति में वक्रयावनित होती ह।ै सहयोगातमक एिं सहकारी गवतविवियों के वलए अविक-से-अविक सथान, समय एिं अिसर उपलबि होते हैं। विद्ावथ्गयों को अविक-से-अविक अिसर उपलबि होते हैं वक िे अपनी बात सिी के साथ साझा कर सकें । विद्ाथथी एिं अधयापक दोनों के पास सितंत्रता उपलबि होती ह ै वक िे न केिल गुणितिापूण्ग सामग्ी का वनमा्गण एिं विकास कर सकें , अवपतु इसकी ्चाह े वजतनी प्रवतवलवपयाँ िी करिाकर वितररत कर सकें । अतः आप इटंरनेट की मदद से उपलबि विविनन प्रकार

    के िेब 2.0 उपकरण ि मकुत िैवक्क संसािनों की खोज करें, उनहें सू्चीबद्ध करें और इनमें से कम से कम दो उपकरणों एिं संसािनों का प्रयोग करने का प्रयास करें।

    रषाष्ट्ीय आई.सी.टी. नीशत व रषाष्ट्ीय पषाठ्यचयषाया की रूपरेखषा के िैशक्क प्ररौद्ोशगकी एवं आई.सी.टी. पर प्रभषावराष्ट्रीय आई.सी.टी. नीवत (2012) के तहत न केिल मकुत िवैक्क संसािन के वनमा्गण एिं प्रसार पर प्रयास वकए जा रह ेहैं, बव्क विद्ालय सतर पर िी आई.सी.टी. एिं मकुत िवैक्क संसािन के प्रसार हते ुराष्ट्रीय परुसकार एिं सममान िी प्रदान वकए जा रह ेहैं। यही कारण ह ैवक (मकुत िवैक्क संसािन) विद्ालय सतर पर िी वदनों-वदन लोकवप्रय, प्र्चाररत एिं प्रसाररत हो रह ेहैं एिं विक्ण-अविगम, विक्ा-मू् यांकन एिं विक्ा-प्रबंिन में इनकी महतिा समझी जा रही ह।ै इसी नीवत के पररणामसिरूप यिुािवकत अधयापक के रूप में विद्ालय में आई.सी.टी. के अविकाविक प्रयोग को खलेु वदल से सिीकार कर रही ह,ै वजसमें िेब 2.0 उपकरण िी िावमल ह ैऔर मकुत िवैक्क संसािन िी। राष्ट्रीय पाठ्य्चया्ग की रूपरेखा — 2005 खलेु वदल से सिीकार करती ह ै वक आई.सी.टी. िवैक्क प्ररौद्ोवगकी के अतंग्गत ही प्रारंि हुआ ह ैऔर ये इसी की एक िाखा मात्र ह,ै वकंत ु आने िाले समय में इसकी महतिा ि विक्ा में इसका अनपु्रयोग बहुत ही िहृत ्सतर पर वदखाई दनेे िाला ह ैएिं मकुत िवैक्क संसािन की इसमें अिश्यंिािी महतिपणू्ग िवूमका होने िाली ह।ै यह कहने में िी कोई अवतियोवकत नहीं होगी वक संसािनों की कमी से जझू रह ेअवंतम

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  • 111शिक्षा में तकनीकी की समझ एवं नवीन प्रयोग

    अविगमकता्ग तक विक्ण-अविगम यवद कोई पहु्ँचा सकता ह ैतो अपनी विविष्ट प्रकृवत के कारण िह मकुत िवैक्क संसािन ही ह ै और इसी से राष्ट्रीय पाठ्य्चया्ग की रूपरेखा का “िवैक्क प्ररौद्ोवगकी सिी के वलए” का सपना साकार हो सकता ह।ै िासति में, िेब 2.0 के रूप में हो या मकुत िवैक्क संसािन के रूप में, विक्ण-अविगम के क्ेत्र में दिे में िहृत ्सतर पर िवैक्क प्ररौद्ोवगकी ि आई.सी.टी. के अितूपिू्ग अनपु्रयोगों का श्ये मखुय रूप से इस नीवत ि रूपरेखा की दरूगामी सो्च को ही जाता ह।ै

    शनष्करयाविक्ा में बढ़ती तकनीकी, इसका अविकाविक नयायसंगत प्रयोग, इसमें निा्चार एि ं नयी-नयी

    प्ररौद्ोवगकी यथा िबे 2.0, मकुत िवैक्क संसािन, इतयावद ने विक्ण-अविगम को मानो पखं लगा वदए हैं। विक्ा के क्ते्र में वनत नयी संिािनाए ँखलु रही हैं, वनत नए रूप में तकनीकी विक्ा के क्ते्र में मदद कर रही हैं ि नए-नए सकारातमक पररणाम सामने आ रह ेहैं। इनहीं पररणामों से उतसावहत होकर न केिल राजय ि राष्ट्रीय सतर पर, बव्क अतंरा्गष्ट्रीय सतर पर िी विक्ा में तकनीकी पर अतयविक धयान वदया जा रहा ह।ै बदलते यगु में अब हमारी बारी ह ैवक हम विक्क एिं अविगमकता्ग के रूप में अपने विक्ण एि ंअविगम में तकनीकी का नयायसगंत रूप से अविकाविक प्रयोग कर अपना सकारातमक योगदान दें और विक्ा के नए यगु से कदम-से-कदम वमलाकर ्चलें।

    सदंभया

    कंिररया, िी.के. 2015. आई.सी.टी. ऑगमेंटेि एलीमेंट्री टीव्चगं एिं लवनिंग. प्ाइमरी टीचर. एन.सी.ई.आर.टी., नयी वद्ली.

    राष्ट्रीय िवैक्क अनसुंिान और प्रविक्ण पररिद.् 2006. राष्ट्ीय पाठ्यचयाचा की रूपरेखा — 2005. एन.सी.ई.आर.टी., नयी वद्ली.

    ———. 2012. राष्ट्ीय आई.सी.टी. नीक्त. एन.सी.ई.आर.टी., नयी वद्ली.

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  • भारतीय समाज में किन्नरों िी शैकषिि एवं सामाकजि अपवंच्न िी दशा एवं कदशा

    अभिषके श्रीवास्तव*

    प्राचीन कराल में ककननरों को समराज में किशषे सममरान प्राप्त थरा। इन्हें ब्र्््हमराजी की छरायरा से उत्पनन मरानरा जरातरा ्ह।ै ‘ म्हराभरारत’ में भी कशखडंी नरामक ककननर करा उललेख कमलतरा ्ह।ै भरारत में ककननरों की किसततृत �तृंखलरा क्हजड़रा, अरकिनी, कोठी, जोगराट, एिं कशिभक्त आकि के रू्प में ्ह।ै ित्तमरान समय में इन�