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िला ेचंद 1 www.hindustanbooks.com

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  • िनिर्मलर्मलापे्रमलचंद

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  • िनिर्मलर्मलायो तो बाबू उदयभानुलाल के परिरिवारि में बीसों ही प्राणी थ, कोई ममेरिा भाई था, कोई फुफेरिा, कोई भांजा

    था, कोई भतीजा, लेकिकन यहां हमें उनसे कोई प्रयोजन नही, वह अच्छे वकील थ, लक्ष्मी प्रसन्न थी औरि कुटुम्ब के दिरिद्र प्रािणयों को आश्रय देना उनका कत्तव्य ही था। हमारिा सम्बन्ध तो केवल उनकी दोनों कन्याआं से ह , िजनमें बड़ी का नाम िनमर्मला औरि छोटी का कृष्णा था। अभी कल दोनों साथ-साथ गुिड़या खेलती थी। िनमर्मला का परन्द्रहवां साल था, कृष्णा का दसवां, िफरि भी उनके स्वभाव में कोई िवशेष अन्तरि न था। दोनों चंचल, िखिलािड़न औरि सैरि-तमाशे पररि जान देती थी। दोनों गुिड़या का धूमधाम से ब्याह करिती थी, सदा काम से जी चुरिाती थी। मां परुकारिती रिहती थी, पररि दोनों कोठे पररि िछपरी बैठी रिहती थी िक न जाने िकस काम के िलए बुलाती हैं। दोनों अपरने भाइयों से लड़ती थी, नौकरिों को डांटती थी औरि बाजे की आवाज सुनते ही द्वारि पररि आकरि खिड़ी हो जाती थी पररि आज एकाएक एक ऐसी बात हो गई ह, िजसने बड़ी को बड़ी औरि छोटी को छोटी बना िदया ह। कृष्णा यही ह, पररि िनमर्मला बड़ी गम्भीरि, एकान्त-िप्रय औरि लज्जाशील हो गई ह। इधरि महीनों से बाबू उदयभानुलाल िनमर्मला के िववाह की बातचीत करि रिहे थ। आज उनकी मेहनत िठकाने लगी ह। बाबू भालचन्द्र िसन्हा के ज्येष्ठ परुत्र भुवन मोहन िसन्हा से बात परक्की हो गई ह। वरि के िपरता ने कह िदया ह िक आपरकी खिुशी ही दहेज दें , या न दें, मुझे इसकी पररिवाह नही; हां, बारिात में जो लोग जाएं उनका आदरि-सत्कारि अच्छी तरिह होना चिहए, िजसमें मेरिी औरि आपरकी जग-हंसाई न हो। बाबू उदयभानुलाल थ तो वकील, पररि संचय करिना न जानते थ। दहेज उनके सामने किठन समस्या थी। इसिलए जब वरि के िपरता ने स्वयं कह िदया िक मुझे दहेज की पररिवाह नही, तो मानों उन्हें आंखें िमल गई। डरिते थ, न जाने िकस-िकस के सामने हाथ फैलाना परड़े, दो-तीन महाजनों को ठीक करि रिखिा था। उनका अनुमान था िक हाथ रिोकने पररि भी बीस हजारि से कम खिचर्म न होंगे। यह आश्वासन पराकरि वे खिुशी के मारे फूलेक न समाये।

    इसकी सूचना ने अज्ञान बिलका को मुंह ढांपर करि एक कोने में िबठा रिखिा ह। उसके हृदय में एक िविचत्र शंका समा गई ह, रिो-रिोम में एक अज्ञात भय का संचारि हो गया ह, न जाने क्या होगा। उसके मन में वे उमंगें नही हैं, जो युवितयों की आंखिों में ितरिछी िचतवन बनकरि, आंठों पररि मधुरि हास्य बनकरि औरि अंगों में आलस्य बनकरि प्रकट होती ह। नही वहां अिभलाषाएं नही हैं वहां केवल शंकाएं , िचन्ताएं औरि भीरू कल्परनाएं हैं। यौवन का अभी तक परूणर्म प्रकाश नही हुआ ह।

    कृष्णा कुछ-कुछ जानती ह, कुछ-कुछ नही जानती। जानती ह, बहन को अच्छे-अच्छे गहने िमलेंगे, द्वारि पररि बाजे बजेंगे, मेहमान आयंेगे, नाच होगा-यह जानकरि प्रसन्न ह औरि यह भी जानती ह िक बहन सबके गलेक िमलकरि रिोयेगी, यहां से रिो-धोकरि िवदा हो जाएेगी, मैं अकेली रिह जाऊंगी- यह जानकरि द:खिी ह, पररि यह नही जानती िक यह इसिलए हो रिहा ह, माताजी औरि िपरताजी क्यों बहन को इस घरि से िनकालने को इतने उत्सुक हो रिहे हैं। बहन ने तो िकसी को कुछ नही कहा, िकसी से लड़ाई नही की, क्या इसी तरिह एक िदन मुझे भी ये लोग िनकाल देंगे? मैं भी इसी तरिह कोने में बैठकरि रिोऊंगी औरि िकसी को मुझ पररि दया न आयेगी? इसिलए वह भयभीत भी हैं।

    संध्या का समय था, िनमर्मला छत पररि जानकरि अकेली बैठी आकाश की औरि तृषिषत नेत्रों से ताक रिही थी। ऐसा मन होता था परंखि होते, तो वह उड़ जाती औरि इन सारे झंझटों से छूट जाती। इस समय बहुधा दोनों बहन कही सैरि करिने जाएा करिती थी। बग्घी खिाली न होती, तो बगीचे में ही टहला करिती, इसिलए कृष्णा उसे खिोजती

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  • िफरिती थी, जब कही न पराया, तो छत पररि आई औरि उसे देखिते ही हंसकरि बोली-तुम यहां आकरि िछपरी बैठी हो औरि मैं तुम्हें ढूंढती िफरिती हंू। चलो, बग्घी तैयारि करिा आयी हंू।

    िनमर्मला- ने उदासीन भाव से कहा-तू जा, मैं न जाऊंगी।

    कृष्णा-नही मेरिी अच्छी दीदी, आज जरूरि चलो। देखिो, कैसी ठण्डी-ठण्डी हवा चल रिही ह।

    िनमर्मला-मेरिा मन नही चाहता, तू चली जा।

    कृष्णा की आंखें डबडबा आई। कांपरती हुई आवाज से बोली- आज तुम क्यों नही चलती मुझसे क्यों नही बोलती क्यों इधरि-उधरि िछपरी-िछपरी िफरिती हो? मेरिा जी अकेलेक बैठे-बैठे घबड़ाता ह। तुम न चलोगी, तो मैं भी न जाऊगी। यही तुम्हारे साथ बैठी रिहंूगी।

    िनमर्मला-औरि जब मैं चली जाऊंगी तब क्या करेगी? तब िकसके साथ खेलेकगी औरि िकसके साथ घूमने जाएेगी, बता?

    कृष्णा-मैं भी तुम्हारे साथ चलूंगी। अकेलेक मुझसे यहां न रिहा जाऐगा।

    िनमर्मला मुस्करिाकरि बोली-तुझे अम्मा न जाने देंगी।

    कृष्णा-तो मैं भी तुम्हें न जाने दूंगी। तुम अम्मा से कह क्यों नही देती िक मैं न जाउंगी।

    िनमर्मला- कह तो रिही हंू, कोई सुनता ह!

    कृष्णा-तो क्या यह तुम्हारिा घरि नही ह?

    िनमर्मला-नही, मेरिा घरि होता, तो कोई क्यों जबदर्मस्ती िनकाल देता?

    कृष्णा-इसी तरिह िकसी िदन मैं भी िनकाल दी जाऊंगी?

    िनमर्मला-औरि नही क्या तू बैठी रिहेगी! हम लड़िकयां हैं, हमारिा घरि कही नही होता।

    कृष्णा-चन्दरि भी िनकाल िदया जाएेगा?

    िनमर्मला-चन्दरि तो लड़का ह, उसे कौन िनकालेकगा?

    कृष्णा-तो लड़िकयां बहुत खिरिाब होती होंगी?

    िनमर्मला-खिरिाब न होती, तो घरि से भगाई क्यों जाती?

    कृष्णा-चन्दरि इतना बदमाश ह, उसे कोई नही भगाता। हम-तुम तो कोई बदमाशी भी नही करिती।

    एकाएक चन्दरि धम-धम करिता हुआ छत पररि आ परहंुचा औरि िनमर्मला को देखिकरि बोला-अच्छा आपर यहां बैठी हैं। ओहो! अब तो बाजे बजेंगे, दीदी दल्हन बनगी, परालकी पररि चढ़ंगी, ओहो! ओहो!

    चन्दरि का परूरिा नाम चन्द्रभानु िसन्हा था। िनमर्मला से तीन साल छोटा औरि कृष्णा से दो साल बड़ा।

    िनमर्मला-चन्दरि, मुझे िचढ़ाओगे तो अभी जाकरि अम्मा से कह दूंगी।

    चन्द्र-तो िचढ़ती क्यों हो तुम भी बाजे सुनना। ओ हो-हो! अब आपर दल्हन बनगी। क्यों िकशनी, तू बाजे सुनेगी न वैसे बाजे तूने कभी न सुने होंगे।

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  • कृष्णा-क्या बैण्ड से भी अच्छे होंगे?

    चन्द्र-हां-हां, बैण्ड से भी अच्छे, हजारि गुने अच्छे, लाखि गुने अच्छे। तुम जानो क्या एक बैण्ड सुन िलया, तो समझने लगी िक उससे अच्छे बाजे नही होते। बाजे बजानेवालेक लाल-लाल विदयां औरि काली-काली टोिपरयां परहने होंगे। ऐसे खिबूसूरित मालूम होंगे िक तुमसे क्या कहंू आितशबािजयां भी होंगी, हवाइयां आसमान में उड़ जाएंगी औरि वहां तारिों में लगेंगी तो लाल, परीलेक, हरे, नीलेक तारे टूट-टूटकरि िगरेंगे। बड़ा बजा आयेगा।

    कृष्णा-औरि क्या-क्या होगा चन्दन, बता दे मेरे भैया?

    चन्द्र-मेरे साथ घूमने चल, तो रिास्ते में सारिी बातें बता दूं। ऐसे-ऐसे तमाशे होंगे िक देखिकरि तेरिी आंखें खिुल जाएंगी। हवा में उड़ती हुई परिरियां होंगी, सचमुच की परिरियां।

    कृष्णा-अच्छा चलो, लेकिकन न बताओगे, तो मारूंगी।

    चन्द्रभानू औरि कृष्णा चलेक गए, पररि िनमर्मला अकेली बैठी रिह गई। कृष्णा के चलेक जाने से इस समय उसे बड़ा क्षोभ हुआ। कृष्णा, िजसे वह प्राणों से भी अिधक प्यारि करिती थी, आज इतनी िनठुरि हो गई। अकेली छोड़करि चली गई। बात कोई न थी, लेकिकन द:खिी हृदय दखिती हुई आंखि ह, िजसमें हवा से भी परीड़ा होती ह। िनमर्मला बड़ी देरि तक बैठी रिोती रिही। भाई-बहन, माता-िपरता, सभी इसी भांित मुझे भूल जाएंगे, सबकी आंखें िफरि जाएंगी, िफरि शायद इन्हें देखिने को भी तरिस जाऊं।

    बाग में फूल िखिलेक हुए थ। मीठी-मीठी सुगन्ध आ रिही थी। चैत की शीतल मन्द समीरि चल रिही थी। आकाश में तारे िछटके हुए थ। िनमर्मला इन्ही शोकमय िवचारिों में परड़ी-परड़ी सो गई औरि आंखि लगते ही उसका मन स्वप्न-देश में, िवचरिने लगा। क्या देखिती ह िक सामने एक नदी लहरें मारि रिही ह औरि वह नदी के िकनारे नाव की बाठ देखि रिही ह। सन्ध्या का समय ह। अंधेरिा िकसी भयंकरि जन्तु की भांित बढ़ता चला आता ह। वह घोरि िचन्ता में परड़ी हुई ह िक कैसे यह नदी परारि होगी, कैसे परहंुचूंगी! रिो रिही ह िक कही रिात न हो जाऐ, नही तो मैं अकेली यहां कैसे रिहंूगी। एकाएक उसे एक सुन्दरि नौका घाट की ओरि आती िदखिाई देती ह। वह खिुशी से उछल परड़ती ह औरि ज्योही नाव घाट पररि आती ह, वह उस पररि चढ़ने के िलए बढ़ती ह, लेकिकन ज्योंही नाव के परटरे पररि परैरि रिखिना चाहती ह, उसका मल्लाह बोल उठता ह-तेरे िलए यहां जगह नही ह! वह मल्लाह की खिुशामद करिती ह, उसके परैरिों परड़ती ह, रिोती ह, लेकिकन वह यह कहे जाता ह, तेरे िलए यहां जगह नही ह। एक क्षण में नाव खिुल जाती ह। वह िचल्ला-िचल्लाकरि रिोने लगती ह। नदी के िनजर्मन तट पररि रिात भरि कैसे रिहेगी, यह सोच वह नदी में कूद करि उस नाव को परकड़ना चाहती ह िक इतने में कही से आवाज आती ह-ठहरिो, ठहरिो, नदी गहरिी ह, डूब जाओगी। वह नाव तुम्हारे िलए नही ह, मैं आता हंू, मेरिी नाव में बैठ जाओ। मैं उस परारि परहंुचा दूंगा। वह भयभीत होकरि इधरि-उधरि देखिती ह िक यह आवाज कहां से आई? थोड़ी देरि के बाद एक छोटी-सी डोंगी आती िदखिाई देती ह। उसमें न पराल ह, न परतवारि औरि न मस्तूल। परैंदा फटा हुआ ह, तख्ते टूटे हुए, नाव में परानी भरिा हुआ ह औरि एक आदमी उसमें से परानी उलीच रिहा ह। वह उससे कहती ह, यह तो टूटी हुई ह, यह कैसे परारि लगेगी? मल्लाह कहता ह- तुम्हारे िलए यही भेजी गई ह, आकरि बैठ जाओ! वह एक क्षण सोचती ह- इसमें बैठूं या न बैठूं? अन्त में वह िनश्चय करिती ह- बैठ जाऊं। यहां अकेली परड़ी रिहने से नाव में बैठ जाना िफरि भी अच्छा ह। िकसी भयंकरि जन्तु के पेट में जाने से तो यही अच्छा ह िक नदी में डूब जाऊं। कौन जाने, नाव परारि परहंुच ही जाएे। यह सोचकरि वह प्राणों की मुट्ठी में िलए हुए नाव पररि बैठ जाती ह। कुछ देरि तक नाव डगमगाती हुई चलती ह, लेकिकन प्रितक्षण उसमें परानी भरिता जाता ह। वह भी मल्लाह के साथ दोनों हाथों से परानी उलीचने

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  • लगती ह। यहां तक िक उनके हाथ रिह जाते हैं, पररि परानी बढ़ता ही चला जाता ह, आिखिरि नाव चक्करि खिाने लगती ह, मालूम होती ह- अब डूबी, अब डूबी। तब वह िकसी अदृषश्य सहारे के िलए दोनों हाथ फैलाती ह, नाव नीचे जाती ह औरि उसके परैरि उखिड़ जाते हैं। वह जोरि से िचल्लाई औरि िचल्लाते ही उसकी आंखें खिुल गई। देखिा, तो माता सामने खिड़ी उसका कन्धा परकड़करि िहला रिही थी।

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  • भाग २बाबू उदयभानुलाल का मकान बाजारि बना हुआ ह। बरिामदे में सुनारि के हथौड़े औरि कमरे में दजी की

    सुईयां चल रिही हैं। सामने नीम के नीचे बढ़ई चारिपराइयां बना रिहा ह। खिपररैिल में हलवाई के िलए भट्ठा खिोदा गया ह। मेहमानों के िलए अलग एक मकान ठीक िकया गया ह। यह प्रबन्ध िकया जा रिहा ह िक हरेक मेहमान के िलए एक-एक चारिपराई, एक-एक कुसी औरि एक-एक मेज हो। हरि तीन मेहमानों के िलए एक-एक कहारि रिखिने की तजवीज हो रिही ह। अभी बारिात आने में एक महीने की देरि ह, लेकिकन तैयािरियां अभी से हो रिही हैं। बारिाितयों का ऐसा सत्कारि िकया जाएे िक िकसी को जबान िहलाने का मौका न िमलेक। वे लोग भी याद करें िक िकसी के यहां बारिात में गये थ। परूरिा मकान बतर्मनों से भरिा हुआ ह। चाय के सेट हैं, नाश्ते की तश्तिरियां, थाल, लोटे, िगलास। जो लोग िनत्य खिाट पररि परड़े हुक्का परीते रिहते थ, बड़ी तत्पररिता से काम में लगे हुए हैं। अपरनी उपरयोिगता िसद्ध करिने का ऐसा अच्छा अवसरि उन्हें िफरि बहुत िदनों के बाद िमलेकगा। जहां एक आदमी को जाना होता ह, परांच दौड़ते हैं। काम कम होता ह, हुल्लड़ अिधक। जरिा-जरिा सी बात पररि घण्टों तकर-िवतकर होता ह औरि अन्त में वकील साहब को आकरि िनणर्मय करिना परड़ता ह। एक कहता ह, यह घी खिरिाब ह, दूसरिा कहता ह, इससे अच्छा बाजारि में िमल जाएे तो टांग की रिाह से िनकल जाऊं। तीसरिा कहता ह, इसमें तो हीक आती ह। चौथा कहता ह, तुम्हारिी नाक ही सड़ गई ह, तुम क्या जानो घी िकसे कहते हैं। जब से यहां आये हो, घी िमलने लगा ह, नही तो घी के दशर्मन भी न होते थ! इस पररि तकरिारि बढ़ जाती ह औरि वकील साहब को झगड़ा चुकाना परड़ता ह।

    रिात के नौ बजे थ। उदयभानुलाल अन्दरि बैठे हुए खिचर्म का तखिमीना लगा रिहे थ। वह प्राय: रिोज ही तखिमीना लगते थ पररि रिोज ही उसमें कुछ-न-कुछ परिरिवतर्मन औरि परिरिवधर्मन करिना परड़ता था। सामने कल्याणी भौंहे िसकोड़े हुए खिड़ी थी। बाबू साहब ने बड़ी देरि के बाद िसरि उठाया औरि बोलेक-दस हजारि से कम नही होता, बिल्क शायद औरि बढ़ जाएे।

    कल्याणी-दस िदन में परांच से दस हजारि हुए। एक महीने में तो शायद एक लाखि नौबत आ जाएे।

    उदयभानु-क्या करूं, जग हंसाई भी तो अच्छी नही लगती। कोई िशकायत हुई तो लोग कहेंगे, नाम बड़े दशर्मन थोड़े। िफरि जब वह मुझसे दहेज एक पराई नही लेकते तो मेरिा भी कतर्मव्य ह िक मेहमानों के आदरि-सत्कारि में कोई बात उठा न रिखिूं।

    कल्याणी- जब से ब्रह्मा ने सृषिष्टि रिची, तब से आज तक कभी बारिाितयों को कोई प्रसन्न नही रिखि सकता। उन्हें दोष िनकालने औरि िनन्दा करिने का कोई-न-कोई अवसरि िमल ही जाता ह। िजसे अपरने घरि सूखिी रिोिटयां भी मयस्सरि नही वह भी बारिात में जाकरि तानाशाह बन बैठता ह। तेल खिुशबूदारि नही, साबुन टके सेरि का जाने कहां से बटोरि लाये, कहारि बात नही सुनते, लालटेन धुआं देती हैं, कुिसयों में खिटमल ह, चारिपराइयां ढीली हैं, जनवासे की जगह हवादारि नही। ऐसी-ऐसी हजारिों िशकायतें होती रिहती हैं। उन्हें आपर कहां तक रिोिकयेगा? अगरि यह मौका न िमला, तो औरि कोई ऐब िनकाल िलये जाएंगे। भई, यह तेल तो रंििडयों के लगाने लायक ह, हमें तो सादा तेल चािहए। जनाब ने यह साबुन नही भेजा ह, अपरनी अमीरिी की शान िदखिाई ह, मानो हमने साबुन देखिा ही नही। ये कहारि नही यमदूत हैं, जब देिखिये िसरि पररि सवारि! लालटेन ऐसी भेजी हैं िक आंखें चमकने लगती हैं, अगरि दस-परांच िदन इस रिोशनी में बैठना परड़े तो आंखें फूट जाएं। जनवासा क्या ह, अभागे का भाग्य ह, िजस पररि चारिों तरिफ से झोंके आते रिहते हैं। मैं तो िफरि यही कहंूगी िक बारिितयों के नखिरिों का िवचारि ही छोड़ दो।

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  • उदयभानु- तो आिखिरि तुम मुझे क्या करिने को कहती हो?

    कल्याणी-कह तो रिही हंू, परक्का इरिादा करि लो िक मैं परांच हजारि से अिधक न खिचर्म करूंगा। घरि में तो टका ह नही, कजर्म ही का भरिोसा ठहरिा, तो इतना कजर्म क्यों लें िक िजन्दगी में अदा न हो। आिखिरि मेरे औरि बच्चे भी तो हैं, उनके िलए भी तो कुछ चािहए।

    उदयभानु- तो आज मैं मरिा जाता हंू?

    कल्याणी- जीने-मरिने का हाल कोई नही जानता।

    कल्याणी- इसमें िबगड़ने की तो कोई बात नही। मरिना एक िदन सभी को ह। कोई यहां अमरि होकरि थोड़े ही आया ह। आंखें बन्द करि लेकने से तो होने-वाली बात न टलेकगी। रिोज आंखिों देखिती हंू, बापर का देहान्त हो जाता ह, उसके बच्चे गली-गली ठोकरें खिाते िफरिते हैं। आदमी ऐसा काम ही क्यों करे?

    उदयभानु न जलकरि कहा- जो अब समझ लूं िक मेरे मरिने के िदन िनकट आ गये, यही तुम्हारिी भिवष्यवाणी ह! सुहाग से िस्त्रियों का जी ऊबते नही सुना था, आज यह नई बात मालूम हुई। रंिडापे में भी कोई सुखि होगा ही!

    कल्याणी-तुमसे दिनया की कोई भी बात कही जाती ह, तो जहरि उगलने लगते हो। इसिलए न िक जानते हो, इसे कही िटकना नही ह, मेरिी ही रिोिटयों पररि परड़ी हुई ह या औरि कुछ! जहां कोई बात कही, बस िसरि हो गये, मानों मैं घरि की लौंडी हंू, मेरिा केवल रिोटी औरि कपरड़े का नाता ह। िजतना ही मैं दबती हंू, तुम औरि भी दबाते हो। मुफ्तखिोरि माल उड़ायंे, कोई मुंह न खिोलेक, शरिाब-कबाब में रूपरये लुटंे, कोई जबान न िहलाये। वे सारे कांटे मेरे बच्चों ही के िलए तो बोये जा रिहे ह।

    उदयभानु लाल- तो मैं क्या तुम्हारिा गुलाम हंू?

    कल्याणी- तो क्या मैं तुम्हारिी लौंडी हंू?

    उदयभानु लाल- ऐसे मदर्म औरि होंगे, जो औरितों के इशारिों पररि नाचते हैं।

    कल्याणी- तो ऐसी िस्त्रियों भी होंगी, जो मदों की जूितयां सहा करिती हैं।

    उदयभानु लाल- मैं कमाकरि लाता हंू, जैसे चाहंू खिचर्म करि सकता हंू। िकसी को बोलने का अिधकारि नही।

    कल्याणी- तो आपर अपरना घरि संभिलये! ऐसे घरि को मेरिा दूरि ही से सलाम ह, जहां मेरिी कोई परूछ नही घरि में तुम्हारिा िजतना अिधकारि ह, उतना ही मेरिा भी। इससे जौ भरि भी कम नही। अगरि तुम अपरने मन के रिाजा हो, तो मैं भी अपरने मन को रिानी हंू। तुम्हारिा घरि तुम्हें मुबारिक रिहे, मेरे िलए पेट की रिोिटयों की कमी नही ह। तुम्हारे बच्चे हैं, मारिो या िजलाओ। न आंखिों से देखिूंगी, न परीड़ा होगी। आंखें फूटी, परीरि गई!

    उदयभानु- क्या तुम समझती हो िक तुम न संभालेकगी तो मेरिा घरि ही न संभलेकगा? मैं अकेलेक ऐसे-ऐसे दस घरि संभाल सकता हंू।

    कल्याणी-कौन? अगरि ‘आज के महीने िदन िमट्टी में न िमल जाऐ ’, तो कहना कोई कहती थी!

    यह कहते-कहते कल्याणी का चेहरिा तमतमा उठा, वह झमककरि उठी औरि कमरे के द्वारि की ओरि चली। वकील साहब मुकदमें में तो खिूब मीन-मेखि िनकालते थ, लेकिकन िस्त्रियों के स्वभाव का उन्हें कुछ यों ही-सा ज्ञान

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  • था। यही एक ऐसी िवद्या ह, िजसमें आदमी बूढ़ा होने पररि भी कोरिा रिह जाता ह। अगरि वे अब भी नरिम परड़ जाते औरि कल्याणी का हाथ परकड़करि िबठा लेकते, तो शायद वह रूक जाती, लेकिकन आपरसे यह तो हो न सका, उल्टे चलते-चलते एक औरि चरिका िदया।

    बोल-मैके का घमण्ड होगा?

    कल्याणी ने द्वारिा पररि रूक करि परित की ओरि लाल-लाल नेत्रों से देखिा औरि िबफरिकरि बोल- मैके वालेक मेरे तकदीरि के साथी नही ह औरि न मैं इतनी नीच हंू िक उनकी रिोिटयों पररि जा परडूं।

    उदयभानु-तब कहां जा रिही हो?

    कल्याणी-तुम यह परूछने वालेक कौन होते हो? ईश्वरि की सृषिष्टि में असंख्य प्रािणयों के िलए जगह ह, क्या मेरे ही िलए जगह नही ह?

    यह कहकरि कल्याणी कमरे के बाहरि िनकल गई। आंगन में आकरि उसने एक बारि आकाश की ओरि देखिा , मानो तारिागण को साक्षी दे रिही ह िक मैं इस घरि में िकतनी िनदर्मयता से िनकाली जा रिही हंू। रिात के ग्यारिह बज गये थ। घरि में सन्नाटा छा गया था, दोनों बेटों की चारिपराई उसी के कमरे में रिहती थी। वह अपरने कमरे में आई, देखिा चन्द्रभानु सोया ह, सबसे छोटा सूयर्मभानु चारिपराई पररि उठ बैठा ह। माता को देखिते ही वह बोला-तुम तहां दई ती अम्मां?

    कल्याणी दूरि ही से खिड़े-खिड़े बोली- कही तो नही बेटा, तुम्हारे बाबूजी के परास गई थी।

    सूयर्म-तुम तली दई, मुधे अतेलेक दरि लदता था। तुम क्यों तली दई ती, बताओ?

    यह कहकरि बच्चे ने गोद में चढ़ने के िलए दोनों हाथ फैला िदये। कल्याणी अब अपरने को न रिोक सकी। मातृष-स्नेह के सुधा-प्रवाह से उसका संतप्त हृदय परिरिपर्लािवत हो गया। हृदय के कोमल परौधे, जो क्रोध के तापर से मुरिझा गये थ, िफरि हरे हो गये। आंखें सजल हो गई। उसने बच्चे को गोद में उठा िलया औरि छाती से लगाकरि बोली-तुमने परुकारि क्यों न िलया, बेटा?

    सूयर्म-परुतालता तो ता, तुम थुनती न ती, बताओ अब तो कबी न दाओगी।

    कल्याणी-नही भैया, अब नही जाऊंगी।

    यह कहकरि कल्याणी सूयर्मभानु को लेककरि चारिपराई पररि लेकटी। मां के हृदय से िलपरटते ही बालक िन:शंक होकरि सो गया, कल्याणी के मन में संकल्पर-िवकल्पर होने लगे, परित की बातें याद आती तो मन होता-घरि को ितलांजिल देकरि चली जाऊं, लेकिकन बच्चों का मुंह देखिती, तो वासल्य से िचत्त गद्रगद्र हो जाता। बच्चों को िकस पररि छोड़करि जाऊं? मेरे इन लालों को कौन परालेकगा, ये िकसके होकरि रिहेंगे? कौन प्रात:काल इन्हें दूध औरि हलवा िखिलायेगा, कौन इनकी नीद सोयेगा, इनकी नीद जागेगा? बेचारे कौड़ी के तीन हो जाएंगे। नही प्यारिो, मैं तुम्हें छोड़करि नही जाऊंगी। तुम्हारे िलए सब कुछ सह लूंगी। िनरिादरि-अपरमान, जली-कटी, खिोटी-खिरिी, घुड़की-िझड़की सब तुम्हारे िलए सहंूगी।

    कल्याणी तो बच्चे को लेककरि लेकटी, पररि बाबू साहब को नीद न आई उन्हें चोट करिनेवाली बातें बड़ी मुिश्कल से भूलती थी। उफ, यह िमजाज! मानों मैं ही इनकी स्त्रिी हंू। बात मुंह से िनकालनी मुिश्कल ह। अब मैं इनका गुलाम होकरि रिहंू। घरि में अकेली यह रिहें औरि बाकी िजतने अपरने बेगाने हैं, सब िनकाल िदये जाएं। जला करिती

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  • हैं। मनाती हैं िक यह िकसी तरिह मरें, तो मैं अकेली आरिाम करूं। िदल की बात मुंह से िनकल ही आती ह, चाहे कोई िकतना ही िछपराये। कई िदन से देखि रिहा हंू ऐसी ही जली-कटी सुनाया करिती हैं। मैके का घमण्ड होगा, लेकिकन वहां कोई भी न परूछेगा, अभी सब आवभगत करिते हैं। जब जाकरि िसरि परड़ जाएंगी तो आटे-दाल का भाव मालूम हो जाएेगा। रिोती हुई जाएंगी। वाह रे घमण्ड! सोचती हैं-मैं ही यह गृषहस्थी चलाती हंू। अभी चारि िदन को कही चला जाऊं, तो मालूम हो जाएेगा, सारिी शेखिी िकरििकरिी हो जाएेगा। एक बारि इनका घमण्ड तोड़ ही दूं। जरिा वैधव्य का मजा भी चखिा दूं। न जाने इनकी िहम्मत कैसे परड़ती ह िक मुझे यों कोसने लगत हैं। मालूम होता ह, प्रेम इन्हें छू नही गया या समझती हैं, यह घरि से इतना िचमटा हुआ ह िक इसे चाहे िजतना कोसूं , टलने का नाम न लेकगा। यही बात ह, पररि यहां संसारि से िचमटनेवालेक जीव नही हैं! जहन्नुम में जाएे यह घरि, जहां ऐसे प्रािणयों से पराला परड़े। घरि ह या नरिक? आदमी बाहरि से थका-मांदा आता ह, तो उसे घरि में आरिाम िमलता ह। यहां आरिाम के बदलेक कोसने सुनने परड़ते हैं। मेरिी मृषत्यु के िलए व्रत रिखे जाते हैं। यह ह परचीस वषर्म के दाम्परत्य जीवन का अन्त! बस, चल ही दूं। जब देखि लूंगा इनका सारिा घमण्ड धूल में िमल गया औरि िमजाज ठण्डा हो गया, तो लौट आऊंगा। चारि-परांच िदन काफी होंगे। लो, तुम भी याद करिोगी िकसी से पराला परड़ा था।

    यही सोचते हुए बाबू साहब उठे, रेशमी चादरि गलेक में डाली, कुछ रूपरये िलये, अपरना काडर्म िनकालकरि दूसरे कुतर्ते की जेब में रिखिा, छड़ी उठाई औरि चुपरके से बाहरि िनकलेक। सब नौकरि नीद में मस्त थ। कुत्ता आहट पराकरि चौंक परड़ा औरि उनके साथ हो िलया।

    पररि यह कौन जानता था िक यह सारिी लीला िविध के हाथों रिची जा रिही ह। जीवन-रंिगशाला का वह िनदर्मय सूत्रधारि िकसी अगम गुप्त स्थान पररि बैठा हुआ अपरनी जिटल क्रूरि क्रीड़ा िदखिा रिहा ह। यह कौन जानता था िक नकल असल होने जा रिही ह, अिभनय सत्य का रूपर ग्रहण करिने वाला ह।

    िनशा ने इन्दू को पररिास्त करिके अपरना साम्राज्य स्थािपरत करि िलया था। उसकी परैशािचक सेना ने प्रकृित पररि आतंक जमा रिखिा था। सद्रवृषित्तयां मुंह िछपराये परड़ी थी औरि कुवृषित्तयां िवजय-गवर्म से इठलाती िफरिती थी। वन में वन्यजन्तु िशकारि की खिोज में िवचारि रिहे थ औरि नगरिों में नरि-िपरशाच गिलयों में मंडरिाते िफरिते थ।

    बाबू उदयभानुलाल लपरके हुए गंगा की ओरि चलेक जा रिहे थ। उन्होंने अपरना कुत्ता घाट के िकनारे रिखिकरि परांच िदन के िलए िमजापरुरि चलेक जाने का िनश्चय िकया था। उनके कपरड़े देखिकरि लोगों को डूब जाने का िवश्वास हो जाएेगा, काडर्म कुतर्ते की जेब में था। परता लगाने में कोई िदक्कत न हो सकती थी। दम-के-दम में सारे शहरि में खिबरि मशहूरि हो जाएेगी। आठ बजते-बजते तो मेरे द्वारि पररि सारिा शहरि जमा हो जाएेगा, तब देखिूं, देवी जी क्या करिती हैं?

    यही सोचते हुए बाबू साहब गिलयों में चलेक जा रिहे थ, सहसा उन्हें अपरने परीछे िकसी दूसरे आदमी के आने की आहट िमली, समझे कोई होगा। आगे बढ़े, लेकिकन िजस गली में वह मुड़ते उसी तरिफ यह आदमी भी मुड़ता था। तब बाबू साहब को आशंका हुई िक यह आदमी मेरिा परीछा करि रिहा ह। ऐसा आभास हुआ िक इसकी नीयत साफ नही ह। उन्होंने तुरिन्त जेबी लालटेन िनकाली औरि उसके प्रकाश में उस आदमी को देखिा। एक बिरिष्ष्ठ मनुष्य कन्धे पररि लाठी रिखे चला आता था। बाबू साहब उसे देखिते ही चौंक परड़े। यह शहरि का छटा हुआ बदमाश था। तीन साल परहलेक उस पररि डाके का अिभयोग चला था। उदयभानु ने उस मुकदमे में सरिकारि की ओरि से परैरिवी की थी औरि इस बदमाश को तीन साल की सजा िदलाई थी। सभी से वह इनके खिून का प्यासा हो रिहा था। कल ही वह छूटकरि आया था। आज दैवात् साहब अकेलेक रिात को िदखिाई िदये, तो उसने सोचा यह इनसे दाव चुकाने का

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  • अच्छा मौका ह। ऐसा मौका शायद ही िफरि कभी िमलेक। तुरिन्त परीछे हो िलया औरि वारि करिने की घात ही में था िक बाबू साहब ने जेबी लालटेन जलाई। बदमाश जरिा िठठककरि बोला-क्यों बाबूजी परहचानते हो? मैं हंू मतई।

    बाबू साहब ने डपरटकरि कहा- तुम मेरे िपरछे-िपरछे क्यों आ रिहे हो?

    मतई- क्यों, िकसी को रिास्ता चलने की मनाही ह? यह गली तुम्हारे बापर की ह?

    बाबू साहब जवानी में कुश्ती लड़े थ, अब भी हृष्टि-परुष्टि आदमी थ। िदल के भी कच्चे न थ। छड़ी संभालकरि बोलेक-अभी शायद मन नही भरिा। अबकी सात साल को जाओगे।

    मतई-मैं सात साल को जाऊंगा या चौदह साल को, पररि तुम्हें िजद्दा न छोडूंगा। हां, अगरि तुम मेरे परैरिों पररि िगरिकरि कसम खिाओ िक अब िकसी को सजा न करिाऊंगा, तो छोड़ दूं। बोलो मंजूरि ह?

    उदयभानु-तेरिी शामत तो नही आई?

    मतई-शामत मेरिी नही आई, तुम्हारिी आई ह। बोलो खिाते हो कसम-एक!

    उदयभानु-तुम हटते हो िक मैं परुिलसमैन को बुलाऊं।

    मतई-दो!

    उदयभानु-(गरिजकरि) हट जा बादशाह, सामने से!

    मतई-तीन!

    मुंह से ‘तीन’ शब्द िनकालते ही बाबू साहब के िसरि पररि लाठी का ऐसा तुला हाथ परड़ा िक वह अचेत होकरि जमीन पररि िगरि परड़े। मुंह से केवल इतना ही िनकला-हाय! मारि डाला!

    मतई ने समीपर आकरि देखिा, तो िसरि फट गया था औरि खिून की घारि िनकल रिही थी। नाड़ी का कही परता न था। समझ गया िक काम तमाम हो गया। उसने कलाई से सोने की घड़ी खिोल ली, कुतर्ते से सोने के बटन िनकाल िलये, उंगली से अंगूठी उतारिी औरि अपरनी रिाह चला गया, मानो कुछ हुआ ही नही। हां, इतनी दया की िक लाश रिास्ते से घसीटकरि िकनारे डाल दी। हाय, बेचारे क्या सोचकरि चलेक थ, क्या हो गया! जीवन, तुमसे ज्यादा असारि भी दिनया में कोई वस्तु ह? क्या वह उस दीपरक की भांित ही क्षणभंगुरि नही ह, जो हवा के एक झोंके से बुझ जाता ह! परानी के एक बुलबुलेक को देखिते हो, लेकिकन उसे टूटते भी कुछ देरि लगती ह, जीवन में उतना सारि भी नही। सांस का भरिोसा ही क्या औरि इसी नश्वरिता पररि हम अिभलाषाआं के िकतने िवशाल भवन बनाते हैं! नही जानते, नीचे जानेवाली सांस ऊपररि आयेगी या नही, पररि सोचते इतनी दूरि की हैं, मानो हम अमरि हैं।

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  • अध्याय-२िववाह का िवलापर औरि अनाथों का रिोना सुनाकरि हम पराठकों का िदल न दखिायंेगे। िजसके ऊपररि परड़ती ह ,

    वह रिोता ह, िवलापर करिता ह, परछाड़ं खिाता ह। यह कोई नयी बात नही। हां, अगरि आपर चाहें तो कल्याणी की उस घोरि मानिसक यातना का अनुमान करि सकते हैं, जो उसे इस िवचारि से हो रिही थी िक मैं ही अपरने प्राणाधारि की घाितका हंू। वे वाक्य जो क्रोध के आवेश में उसके असंयत मुखि से िनकलेक थ, अब उसके हृदय को वाणों की भांित छेद रिहे थ। अगरि परित ने उसकी गोद में करिाह-करिाहकरि प्राण-त्याग िदए होते, तो उसे संतोष होता िक मैंने उनके प्रित अपरने कतर्मव्य का परालन िकया। शोकाकुल हृदय को इससे ज्यादा सान्त्वना औरि िकसी बात से नही होती। उसे इस िवचारि से िकतना संतोष होता िक मेरे स्वामी मुझसे प्रसन्न गये, अिन्तम समय तक उनके हृदय में मेरिा प्रेम बना रिहा। कल्याणी को यह सन्तोष न था। वह सोचती थी-हा! मेरिी परचीस बरिस की तपरस्या िनष्फल हो गई। मैं अन्त समय अपरने प्राणपरित के प्रेम के वंिचत हो गयी। अगरि मैंने उन्हें ऐसे कठोरि शब्द न कहे होते , तो वह कदािपर रिात को घरि से न जाते।न जाने उनके मन में क्या-क्या िवचारि आये हों? उनके मनोभावों की कल्परना करिके औरि अपरने अपररिाध को बढ़ा-बढ़ाकरि वह आठों परहरि कुढ़ती रिहती थी। िजन बच्चों पररि वह प्राण देती थी, अब उनकी सूरित से िचढ़ती। इन्ही के कारिण मुझे अपरने स्वामी से रिारि मोल लेकनी परड़ी। यही मेरे शत्रु हैं। जहां आठों परहरि कचहरिी-सी लगी रिहती थी, वहां अब खिाक उड़ती ह। वह मेला ही उठ गया। जब िखिलानेवाला ही न रिहा, तो खिानेवालेक कैसे परड़े रिहते। धीरे-धीरे एक महीने के अन्दरि सभी भांजे-भतीजे िबदा हो गये। िजनका दावा था िक हम परानी की जगह खिून बहानेवालों में हैं, वे ऐसा सरिपरट भागे िक परीछे िफरिकरि भी न देखिा। दिनया ही दूसरिी हो गयी। िजन बच्चों को देखिकरि प्यारि करिने को जी चाहता था उनके चेहरे पररि अब मिक्खियां िभनिभनाती थी। न जाने वह कांित कहां चली गई?

    शोक का आवेग कम हुआ, तो िनमर्मला के िववाह की समस्या उपरिस्थत हुई। कुछ लोगों की सलाह हुई िक िववाह इस साल रिोक िदया जाएे, लेकिकन कल्याणी ने कहा- इतनी तैयिरियों के बाद िववाह को रिोक देने से सब िकया-धरिा िमट्टी में िमल जाएेगा औरि दूसरे साल िफरि यही तैयािरियां करिनी परड़ंगी, िजसकी कोई आशा नही। िववाह करि ही देना अच्छा ह। कुछ लेकना-देना तो ह ही नही। बारिाितयों के सेवा-सत्कारि का काफी सामान हो चुका ह, िवलम्ब करिने में हािन-ही-हािन ह। अतएव महाशय भालचन्द्र को शोक-सूचना के साथ यह सन्देश भी भेज िदया गया। कल्याणी ने अपरने परत्र में िलखिा-इस अनािथनी पररि दया कीिजए औरि डूबती हुई नाव को परारि लगाइये। स्वामीजी के मन में बड़ी-बड़ी कामनाएं थी, िकतु ईश्वरि को कुछ औरि ही मंजूरि था। अब मेरिी लाज आपरके हाथ ह। कन्या आपरकी हो चुकी। मैं लोगों के सेवा-सत्कारि करिने को अपरना सौभाग्य समझती हंू, लेकिकन यिद इसमें कुछ कमी हो, कुछ त्रुिट परड़े, तो मेरिी दशा का िवचारि करिके क्षमा कीिजयेगा। मुझे िवश्वास ह िक आपर इस अनािथनी की िनन्दा न होने देंगे, आिद।

    कल्याणी ने यह परत्र डाक से न भेजा, बिल्क परुरिोिहत से कहा-आपरको कष्टि तो होगा, पररि आपर स्वयं जाकरि यह परत्र दीिजए औरि मेरिी ओरि से बहुत िवनय के साथ किहयेगा िक िजतने कम आदमी आयंे, उतना ही अच्छा। यहां कोई प्रबन्ध करिनेवाला नही ह।

    परुरिोिहत मोटेरिाम यह सन्देश लेककरि तीसरे िदन लखिनऊ जा परहँुचे।

    संध्या का समय था। बाबू भालचन्द्र दीवानखिाने के सामने आरिामकुसी पररि नंग-धड़ंग लेकटे हुए हुक्का परी रिहे थ। बहुत ही स्थूल, ऊंचे कद के आदमी थ। ऐसा मालूम होता था िक काला देव ह या कोई हब्शी अफ्रीका से

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  • परकड़करि आया ह। िसरि से परैरि तक एक ही रंिग था-काला। चेहरिा इतना स्याह था िक मालूम न होता था िक माथ का अंत कहां ह िसरि का आरिम्भ कहां। बस, कोयलेक की एक सजीव मूित थी। आपरको गमी बहुत सताती थी। दो आदमी खिड़े परंखिा झल रिहे थ, उस पररि भी परसीने का तारि बंधा हुआ था। आपर आबकारिी के िवभाग में एक ऊंचे ओहदे पररि थ। परांच सौ रूपरये वेतन िमलता था। ठेकेदारिों से खिूब िरिश्वत लेकते थ। ठेकेदारि शरिाब के नाम परानी बेच, चौबीसों घंटे दकान खिुली रिखें, आपरको केवल खिुश रिखिना काफी था। सारिा कानून आपरकी खिुशी थी। इतनी भयंकरि मूित थी िक चांदनी रिात में लोग उन्हें देखि करि सहसा चौंक परड़ते थ-बालक औरि िस्त्रियां ही नही, परुरूष तक सहम जाते थ। चांदनी रिात इसिलए कहा गया िक अंधेरिी रिात में तो उन्हें कोई देखि ही न सकता था-श्यामलता अन्धकारि में िवलीन हो जाती थी। केवल आंखिों का रंिग लाल था। जैसे परक्का मुसलमान परांच बारि नमाज परढ़ता ह, वैसे ही आपर भी परांच बारि शरिाब परीते थ, मुफ्त की शरिाब तो काजी को हलाल ह, िफरि आपर तो शरिाब के अफसरि ही थ, िजतनी चाहें िपरयंे, कोई हाथ परकड़ने वाला न था। जब प्यास लगती शरिाब परी लेकते । जैसे कुछ रंिगों में पररिस्पररि सहानुभूित ह, उसी तरिह कुछ रंिगों में पररिस्पररि िवरिोध ह। लािलमा के संयोग से कािलमा औरि भी भयंकरि हो जाती ह।

    बाबू साहब ने परंिडतजी को देखिते ही कुसी से उठकरि कहा-अख्खिाह! आपर हैं? आइए-आइए। धन्य भाग! अरे कोई ह। कहां चलेक गये सब-के-सब, झगडू, गुरिदीन, छकौड़ी, भवानी, रिामगुलाम कोई ह? क्या सब-के-सब मरि गये! चलो रिामगुलाम, भवानी, छकौड़ी, गुरिदीन, झगडू। कोई नही बोलता, सब मरि गये! दजर्मन-भरि आदमी हैं, पररि मौके पररि एक की भी सूरित नही नजरि आती, न जाने सब कहां गायब हो जाते हैं। आपरके वास्ते कुसी लाओ।

    बाबू साहब ने ये परांचों नाम कई बारि दहरिाये, लेकिकन यह न हुआ िक परंखिा झलनेवालेक दोनों आदिमयों में से िकसी को कुसी लाने को भेज देते। तीन-चारि िमनट के बाद एक काना आदमी खिांसता हुआ आकरि बोला-सरिकारि, ईतना की नौकरिी हमारि कीन न होई ! कहां तक उधारि-बाढ़ी लै-लै खिाई मांगत-मांगत थथरि होय गयेना।

    भाल- बको मत, जाकरि कुसी लाओ। जब कोई काम करिने की कहा गया, तो रिोने लगता ह। किहए परिडतजी, वहां सब कुशल ह?

    मोटेरिाम-क्या कुशल कहंू बाबूजी, अब कुशल कहां? सारिा घरि िमट्टी में िमल गया।

    इतने में कहारि ने एक टूटा हुआ चीड़ का सन्दूक लाकरि रिखि िदया औरि बोला-कसी-मेज हमारे उठाये नाही उठत ह।

    परंिडतजी शमाते हुए डरिते-डरिते उस पररि बैठे िक कही टूट न जाएे औरि कल्याणी का परत्र बाबू साहब के हाथ में रिखि िदया।

    भाल-अब औरि कैसे िमट्टी में िमलेकगा? इससे बड़ी औरि कौन िवपरित्त परड़ेगी? बाबू उदयभानु लाल से मेरिी परुरिानी दोस्ती थी। आदमी नही, हीरिा था! क्या िदल था, क्या िहम्मत थी, (आंखें परोंछकरि) मेरिा तो जैसे दािहना हाथ ही कट गया। िवश्वास मािनए, जबसे यह खिबरि सुनी ह, आंखिों में अंधेरिा-सा छा गया ह। खिाने बैठता हंू, तो कौरि मुंह में नही जाता। उनकी सूरित आंखिों के सामने खिड़ी रिहती ह। मुंह जूठा करिके उठ जाता हंू। िकसी काम में िदल नही लगता। भाई के मरिने का रंिज भी इससे कम ही होता ह। आदमी नही, हीरिा था!

    मोटे- सरिकारि, नगरि में अब ऐसा कोई रिईस नही रिहा।

    भाल- मैं खिूब जानता हंू, परंिडतजी, आपर मुझसे क्या कहते हैं। ऐसा आदमी लाखि-दो-लाखि में एक होता ह।

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  • िजतना मैं उनको जानता था, उतना दूसरिा नही जान सकता। दो-ही-तीन बारि की मुलाकात में उनका भक्त हो गया औरि मरिने दम तक रिहंूगा। आपर समिधन साहब से कह दीिजएगा, मुझे िदली रंिज ह।

    मोटे-आपरसे ऐसी ही आशा थी! आज-जैसे सज्जनों के दशर्मन दलर्मभ हैं। नही तो आज कौन िबना दहेज के परुत्र का िववाह करिता ह।

    भाल-महारिाज, देहज की बातचीत ऐसे सत्यवादी परुरूषों से नही की जाती। उनसे सम्बन्ध हो जाना ही लाखि रूपरये के बरिाबरि ह। मैं इसी को अपरना अहोभाग्य समझता हंू। हा! िकतनी उदारि आमत्मा थी। रूपरये को तो उन्होंने कुछ समझा ही नही, ितनके के बरिाबरि भी पररिवाह नही की। बुरिा िरिवाज ह, बेहद बुरिा! मेरिा बस चलेक, तो दहेज लेकनेवालों औरि दहेज देनेवालों दोनों ही को गोली मारि दूं, हां साहब, साफ गोली मारि दूं, िफरि चाहे फांसी ही क्यों न हो जाए! परूछो, आपर लड़के का िववाह करिते हैं िक उसे बेचते हैं? अगरि आपरको लड़के के शादी में िदल खिोलकरि खिचर्म करिने का अरिमान ह, तो शौक के खिचर्म कीिजए, लेकिकन जो कुछ कीिजए, अपरने बल पररि। यह क्या िक कन्या के िपरता का गला रेितए। नीचता ह, घोरि नीचता! मेरिा बस चलेक, तो इन परािजयों को गोली मारि दूं।

    मोटे- धन्य हो सरिकारि! भगवान् ने आपरको बड़ी बुिद्ध दी ह। यह धमर्म का प्रतापर ह। मालिकन की इच्छा ह िक िववाह का मुहूतर्म वही रिहे औरि तो उन्होंने सारिी बातें परत्र में िलखि दी हैं। बस, अब आपर ही उबारें तो हम उबरि सकते हैं। इस तरिह तो बारिात में िजतने सज्जन आयंेगे, उनकी सेवा-सत्कारि हम करेंगे ही, लेकिकन परिरििस्थित अब बहुत बदल गयी ह सरिकारि, कोई करिने-धरिनेवाला नही ह। बस ऐसी बात कीिजए िक वकील साहब के नाम पररि बट्टा न लगे।

    भालचन्द्र एक िमनट तक आंखें बन्द िकये बैठे रिहे, िफरि एक लम्बी सांस खिीच करि बोलेक-ईश्वरि को मंजूरि ही न था िक वह लक्ष्मी मेरे घरि आती, नही तो क्या यह वज्र िगरिता? सारे मनसूबे खिाक में िमल गये। फूला न समाता था िक वह शुभ-अवसरि िनकट आ रिहा ह, पररि क्या जानता था िक ईश्वरि के दरिबारि में कुछ औरि षड्यन्त्र रिचा जा रिहा ह। मरिनेवालेक की याद ही रूलाने के िलए काफी ह। उसे देखिकरि तो जख्म औरि भी हरिा जो जाएेगा। उस दशा में न जाने क्या करि बैठूं। इसे गुण समिझए, चाहे दोष िक िजससे एक बारि मेरिी घिनष्ठता हो गयी, िफरि उसकी याद िचत्त से नही उतरिती। अभी तो खिैरि इतना ही ह िक उनकी सूरित आंखिों के सामने नाचती रिहती ह , लेकिकन यिद वह कन्या घरि में आ गयी, तब मेरिा िजन्दा रिहना किठन हो जाएेगा। सच मािनए, रिोते-रिोते मेरिी आंखें फूट जाएंगी। जानता हंू, रिोना-धोना व्यथर्म ह। जो मरि गया वह लौटकरि नही आ सकता। सब्र करिने के िसवाय औरि कोई उपराय नही ह, लेकिकन िदल से मजबूरि हंू। उस अनाथ बािलका को देखिकरि मेरिा कलेकजा फट जाएेगा।

    मोटे- ऐसा न किहए सरिकारि! वकील साहब नही तो क्या, आपर तो हैं। अब आपर ही उसके िपरता-तुल्य हैं। वह अब वकील साहब की कन्या नही, आपरकी कन्या ह। आपरके हृदय के भाव तो कोई जानता नही, लोग समझंगे, वकील साहब का देहान्त हो जाने के कारिण आपर अपरने वचन से िफरि गये। इसमें आपरकी बदनामी ह। िचत्त को समझाइए औरि हंस-खिुशी कन्या का परािणग्रहण करिा लीिजए। हाथी मरे तो नौ लाखि का। लाखि िवपरित्त परड़ी ह, लेकिकन मालिकन आपर लोगों की सेवा-सत्कारि करिने में कोई बात न उठा रिखेंगी।

    बाबू साहब समझ गये िक परंिडत मोटेरिाम कोरे परोथी के ही परंिडत नही, वरिन व्यवहारि-नीित में भी चतुरि हैं। बोलेक-परंिडतजी, हलफ से कहता हंू, मुझे उस लड़की से िजतना प्रेम ह, उतना अपरनी लड़की से भी नही ह, लेकिकन जब ईश्वरि को मंजूरि नही ह, तो मेरिा क्या बस ह? वह मृषत्यु एक प्रकारि की अमंगल सूचना ह, जो िवधाता की ओरि से हमें िमली ह। यह िकसी आनेवाली मुसीबत की आकाशवाणी ह िवधाता स्परष्टि रिीित से कह रिहा ह िक

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  • यह िववाह मंगलमय न होगा। ऐसी दशा में आपर ही सोिचये, यह संयोग कहां तक उिचत ह। आपर तो िवद्वान आदमी हैं। सोिचए, िजस काम का आरिम्भ ही अमंगल से हो, उसका अंत अमंगलमय हो सकता ह? नही, जानबूझकरि मक्खिी नही िनगली जाती। समिधन साहब को समझाकरि कह दीिजएगा, मैं उनकी आज्ञापरालन करिने को तैयारि हंू, लेकिकन इसका परिरिणाम अच्छा न होगा। स्वाथर्म के वंश में होकरि मैं अपरने पररिम िमत्र की सन्तान के साथ यह अन्याय नही करि सकता।

    इस तकर ने परिडतजी को िनरुत्तरि करि िदया। वादी ने यह तीरि छोड़ा था, िजसकी उनके परास कोई काट न थी। शत्रु ने उन्ही के हिथयारि से उन पररि वारि िकया था औरि वह उसका प्रितकारि न करि सकते थ। वह अभी कोई जवाब सोच ही रिहे थ, िक बाबू साहब ने िफरि नौकरिों को परुकारिना शुरू िकया- अरे, तुम सब िफरि गायब हो गये- झगडू, छकौड़ी, भवानी, गुरूदीन, रिामगुलाम! एक भी नही बोलता, सब-के-सब मरि गये। परंिडतजी के वास्ते परानी-वानी की िफक्र ह? ना जाने इन सबों को कोई कहां तक समझये। अक्ल छू तक नही गयी। देखि रिहे हैं िक एक महाशय दूरि से थके-मांदे चलेक आ रिहे हैं, पररि िकसी को जरिा भी पररिवाह नही। लाआं, परानी-वानी रिखिो। परिडतजी, आपरके िलए शबर्मत बनवाऊं या फलाहारिी िमठाई मंगवा दूं।

    मोटेरिामजी िमठाइयों के िवषय में िकसी तरिह का बन्धन न स्वीकारि करिते थ। उनका िसद्धान्त था िक घृषत से सभी वस्तुएं परिवत्र हो जाती हैं। रिसगुल्लेक औरि बेसन के लड्डू उन्हें बहुत िप्रय थ, पररि शबर्मत से उन्हें रुिच न थी। परानी से पेट भरिना उनके िनयम के िवरूद्ध था। सकुचाते हुए बोलेक-शबर्मत परीने की तो मुझे आदत नही, िमठाई खिा लूंगा।

    भाल- फलाहारिी न?

    मोटे- इसका मुझे कोई िवचारि नही।

    भाल- ह तो यही बात। छूत-छात सब ढकोसला ह। मैं स्वयं नही मानता। अरे, अभी तक कोई नही आया? छकौड़ी, भवानी, गुरुदीन, रिामगुलाम, कोई तो बोलेक!

    अबकी भी वही बूढ़ा कहारि खिांसता हुआ आकरि खिड़ा हो गया औरि बोला-सरिकारि, मोरि तलब दै दीन जाए। ऐसी नौकरिी मोसे न होई। कहां लो दौरिी दौरित-दौरित गोड़ िपररिाय लागत ह।

    भाल-काम कुछ करिो या न करिो, पररि तलब परिहलेक चिहए! िदन भरि परड़े-परड़े खिांसा करिो, तलब तो तुम्हारिी चढ़ रिही ह। जाकरि बाजारि से एक आने की ताजी िमठाई ला। दौड़ता हुआ जा।

    कहारि को यह हुक्म देकरि बाबू साहब घरि में गये औरि स्त्रिी से बोलेक-वहां से एक परंिडतजी आये हैं। यह खित लाये हैं, जरिा परढ़ो तो।

    परत्नी जी का नाम रंिगीलीबाई था। गोरे रंिग की प्रसन्न-मुखि मिहला थी। रूपर औरि यौवन उनसे िवदा हो रिहे थ, पररि िकसी प्रेमी िमत्र की भांित मचल-मचल करि तीस साल तक िजसके गलेक से लगे रिहे, उसे छोड़ते न बनता था।

    रंिगीलीबाई बैठी परान लगा रिही थी। बोली-कह िदया न िक हमें वहां ब्याह करिना मंजूरि नही।

    भाल-हां, कह तो िदया, पररि मारे संकोच के मुंह से शब्द न िनकलता था। झूठ-मूठ का होला करिना परड़ता।

    रंिगीली-साफ बात करिने में संकोच क्या? हमारिी इच्छा ह, नही करिते। िकसी का कुछ िलया तो नही ह?

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  • जब दूसरिी जगह दस हजारि नगद िमल रिहे ह; तो वहा क्यों न करें ? उनकी लडकी कोई सोने की थोडे ही ह। वकील साहब जीते होते तो शरिमाते-शमाते परनदह-बीस हजारि दे मरिते। अब वहा क्या रिखिा ह?

    भाल- एक दफा जबान देकरि मुकरि जाना अचछी बात नही। कोई मुखि से कुछ न कहे, पररि बदनामी हुए िबना नही रिहती। मगरि तुमहारिी िजद से मजबूरि हंू।

    रंिगीलीबाई ने परान खिाकरि खित खिोला औरि परढने लगी। िहन्दी का अभ्यास बाबू साहब को तो िबलकुल न था औरि यद्यिपर रंिगीलीबाई भी शायद ही कभी िकताब परढती हो, पररि खित-वत परढ लेकती थी। परहली ही पराित परढकरि उनकी आंखे सजल हो गयी औरि परत्र समाप्त िकया। तो उनकी आंखिो से आंसू बह रिहे थ-एक-एक शब्द करूणा के रिस मे डूबा हुआ था। एक-एक अक्षरि से दीनता टपरक रिही थी। र॑िगलीबाई की कठोरिता परत्थरि की नही, लाखि की थी, जो एक ही आचं से िपरघल जाती ह। कलयाणी के करूणातोपरादक शब्दो ने उनके स्वाथर्म-मंिडत हृदय को िपरंघला िदया। रू॑धे हुए कंठ से बोली-अभी ब्राह्मण बैठा ह न?

    भालचन्द परत्नी के आंसुआं को देखि-देखिकरि सूखे जाते थ। अपरने ऊपररि झलला रिहे थ िक नाहक मैने यह खित इसे िदखिाया। इसकी जरूरित क्या थी? इतनी बडी भूल उनसे कभी न हुई थी। संिदगध भाव से बोलेक-शायद बैठा हो, मैने तो जाने को कह िदया था। रंिगीली ने िखिडकी से झांककरि देखिा। परंिडत मोटेरिाम जी बगुलेक की तरिह धयान लगाये बाजारि के रिास्ते की ओरि ताक रिहे थ। लालसा मे वय्ग्र होकरि कभी यह परहलू बदलते, कभी वह परहलू। ‘एक आने की िमठाई’ ने तो आशा की कमरि ही तोड दी थी, उसमे भी यह ि�