प्रोचॎद ानसॆव -...

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हदीकोश www.hindikosh.in ेमचद मानसरोवर भाग 8

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ह िंदीकोश

www.hindikosh.in

पे्रमचिंद

मानसरोवर

भाग 8

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Manasarovar – Part 8

By Premchand

य पुस्तक प्रकाशनाधिकार मुक्त ै क्योंकक इसकी प्रकाशनाधिकार अवधि समाप्त ो चुकी ैं।

This work is in the public domain in India because its term of copyright

has expired.

यूनीकोड सिंस्करण: सिंजय खत्री. 2012

Unicode Edition: Sanjay Khatri, 2012

आवरण धचत्र: ववककपीडडया (पे्रमचिंद, मानसरोवर झील)

Cover image: Wikipedia.org (Premchand, Manasarovar Lake).

ह िंदीकोश

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Contents खून सफेद .................................................................................................... 5

गरीब का ाय ............................................................................................ 18

बेटी का िन ............................................................................................... 32

िमम-सिंकट .................................................................................................. 43

सेवा-मागम ................................................................................................... 53

शशकारी राजकुमार ....................................................................................... 62

बशलदान ..................................................................................................... 72

बोि ........................................................................................................... 83

सचाई का उप ार ........................................................................................ 92

ज्वालामुखी ............................................................................................... 103

पशु से मनुष्य .......................................................................................... 118

मूठ .......................................................................................................... 132

ब्रह्म का स्वािंग ......................................................................................... 151

ववमाता .................................................................................................... 160

बूढी काकी ................................................................................................ 166

ार की जीत ............................................................................................ 177

दफ्तरी ..................................................................................................... 196

ववध्विंस .................................................................................................... 203

स्वत्व-रक्षा ................................................................................................ 209

पूवम-सिंस्कार ............................................................................................... 216

दसु्सा स .................................................................................................. 225

बौड़म ....................................................................................................... 236

गुप् त िन ................................................................................................. 246

आदशम ववरोि ............................................................................................ 255

ववषम समस्या .......................................................................................... 266

अननष् ट शिंका ............................................................................................ 273

सौत ........................................................................................................ 281

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सज्जनता का दिंड ..................................................................................... 295

नमक का दारोगा ...................................................................................... 304

उपदेश...................................................................................................... 315

परीक्षा ...................................................................................................... 341

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खून सफेद

चैत का म ीना था, लेककन वे खशल ान, ज ााँ अनाज की ढेररयााँ लगी र ी थीिं, पशुओिं को शरणस्थल बने ुए थे, ज ााँ घरों से फाग और बसिंत की अलाप सुनाई पड़ती थी, व ााँ आज भाग्य का रोना था। सारा चौमासा बीत गया पानी की एक बूाँद न धगरी। जेठ में एक बार मूसलािार वषृ्ष्ट ुई थी, ककसान फूले न समाए,

खरीफ की फसल बो दी, लेककन इिंद्रदेव ने अपना सवमस्व शायद एक बार ी बार लुटा हदया था। पौिे उगे, बढे और सूख गए। गोचर भूशम में घास जमी! बादल आते, घटाएाँ उमड़ती, ऐसा मालमू ोता कक जल-थल एक ो जाएगा, परिंतु वे आशा की न ीिं, दुुःख की घटाएाँ थी। ककसानों ने ब ुतरेे जप-तप ककए, ईट और पत्थर देवी-देवताओिं के नाम से पुजाए, बशलदान ककए, पानी की अशभलाषा में रक्त के पनाले ब गए, लेककन इिंद्रदेव ककसी तर न पसीजे। न खेतों में पौिे थे, न गोचरों में घास, न तालाबों में पानी, बड़ी मुसीबत का सामना था। ष्जिर देखखए िूल उड़ र ी थी। दररद्रता और क्षुिा-पीड़ा के दारुण दृश्य हदखाई देत ेथे। लोगों ने प ले तो ग ने और बरतन धगरवी रखे, और अिंत में बेच डाले। कफर जानवरों की बारी आई और जब जीववका का अनय कोई स ारा न र ा तब जन्मभूशम पर जान देनेवाले ककसान बाल-बच्चों को लेकर मजदरूी करने ननकल पड़।े अकाल-पीडड़तों की स ायता के शलए क ीिं-क ीिं सरकार की स ायता से काम खुल गया था। ब ुतरेे व ीिं जाकर जमे। ज ााँ ष्जसको सुभीता ुआ, व उिर ी जा ननकला।

2

सिंध्या का समय था। जादोराय थका-मााँदा आ कर बैठ गया और स्त्री से उदास ोकर बोला - दरखास्त नामिंजूर ो गई। य क ते-क त ेव आाँगन में जमीन पर लेट गया। उसका मुख पीला पड़ र ा था और आाँतें शसकुड़ी जा र ी थीिं। आज दो हदन से उसने दाने की सूरत न ीिं देखी। घर में जो कुछ ववभूनत थी - ग ने, कपड़े, बरतन, भााँड़ ेसब पेट में समा गए। गााँव का सा ूकार भी पनतव्रता ष्स्त्रयों की भााँनत आाँखें चुराने लगा। केवल तकाबी का स ारा था, उसी के शलए

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दरखास्त दी थी, लेककन आज व भी नामिंजूर ो गई, आशा का खझलशमलाता ुआ दीपक बुझ गया।

देवकी ने पनत को करुण दृष्ष्ट से देखा। उसकी आाँखों में आाँसू उमड़ आए। पनत हदन भर का थका-मााँदा घर आया ै। उसे क्या खखलावे? लज्जा के मारे व ाथ-पैर िोने का शलए पानी भी न लाई। जब ाथ-पैर िो कर आशा-भरी धचतवन से व उसकी ओर देखेगा तब व उसे क्या खाने को देगी? उसने आज कई हदन से दाने की सूरत न ीिं देखी थी। लेककन इस समय उसे जो दुुःख ुआ, व क्षुिातुरता के कष्ट से कई गुना अधिक था। स्त्री घर की लक्ष्मी ै। घर के प्राखणयों को खखलाना-वपलाना व अपना कतमव्य समझती ै। और चा े य उसका अन्याय ी क्यों न ो, लेककन अपनी दीन- ीन दशा पर जो मानशसक वेदना उसे ोती ै, व पुरुषों को न ीिं ो सकती।

ठात उसका बच्चा सािो नीिंद से चौंका और शमठाई के लालच में आ कर व बाप से शलपट गया। इस बच्च ेने आज प्रातुःकाल चने की रोटी का एक टुकड़ा खाया था, और तब से कई बार उठा और कई बार रोते-रोते सो गया। चार वषम का नादान बच्चा, उसे वषाम और शमठाइयों में कोई सिंबिंि न ीिं हदखाई देता था। जादोराय ने उसे गोद में उठा शलया, उसकी ओर दुुःखभरी दृष्ष्ट से देखा। गदमन झुक गई और हृदय-पीड़ा आाँखों में न समा सकी।

3

दसूरे हदन य पररवार भी घर से बा र ननकला। ष्जस तर पुरुषों के धचत्त में अशभमान और स्त्री की आाँख से लज्जा ननकलती, उसी तर अपनी मे नत से रोटी कमाने वाला ककसान भी मजदरूी की खोज में घर से बा र न ीिं ननकलता। लेककन ा पापी पेट, तू सब कुछ कर सकता ै! मान और अशभमान, ग्लानन और लज्जा ये सब चमकत े ुए तारे तरेी काली घटाओिं में नछप जात े ै।

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प्रभात का समय था। वे दोनों ववपष्त्त के सताए ुए घर से ननकले। जादोराय ने लड़के को पीठ पर शलया। देवकी ने फटे-पुराने कपड़ों की व गठरी शसर पर रखी, ष्जस पर ववपष्त्त को भी तरस आता। दोनों की आाँखें आाँसुओिं से भरी थीिं। देवकी रोती थी। जादोराय चुपचाप था। गााँव के दो-चार आदशमयों से रास्तें में भेंट ुई, ककिं तु ककसी ने इतना भी न पूछा कक क ााँ जात े ो? ककसी के हृदय में स ानुभूनत का वास न था।

जब ये लोग लालगिंज प ुाँचे, उस समय सूयम ठीक शसर पर था। देखा, मीलों तक आदमी ी आदमी हदखाई देत े थे। लेककन र चे रे पर दीनता और दुुःख के धचह्न झलक र े थे।

बैसाख की जलती ुई िूप थी। आग के झोंके जोर-जोर से र रात े ुए चल र े थे। ऐसे समय में ड्डडयों के अगखणत ढााँच े ष्जनके शरीर पर ककसी प्रकार का कपड़ा न था, शमट्टी खोदने में लगे ुए थे। मानों व मरघट भूशम थी, ज ााँ मुदे अपने ाथों अपनी कब्रें खोद र े थे। बूढे और जवान, मदम और बच्चे, सब के सब ऐसे ननराश और वववश ोकर काम में लगे ुए थे, मानो मतृ्यु और भूख उसके सामने बैठी घूर र ी ै। इस आफत में न कोई ककसी का शमत्र था न ह तू। दया, सहृदयता और पे्रम ये सब मानवीय भाव ैं, ष्जनका कत्ताम मनुष्य ै। प्रकृनत ने म को केवल एक भाव प्रदान ककया ै और व स्वाथम ै। मानवीय भाव ब ुिा कपटी शमत्रों की भााँनत मारा साथ छोड़ देत े ै, पर य ईश्वरप्रदत्त गुण कभी मारा गला न ीिं छोड़ता।

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आठ हदन बीत गए थे। सिंध्या समय काम समाप्त ो चुका था। डरेे से कुछ दरू आम का एक बाग था। व ीिं एक पेड़ के नीच ेजादोराय और देवकी बैठी ुई थी। दोनों ऐसे कृश ो र े थे कक उनकी सूरत न ीिं प चानी जाती थी। अब व स्वािीन कृषक न ीिं र े। समय के ेरफेर से आज दोनों मजदरू बने बैठे ैं।

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जादोराय ने बच्च ेको जमीन पर सुला हदया। उसे कई हदन से बुखार आ र ा था। कमल-सा च ेरा मुरझा गया। देवकी ने िीरे से ह ला कर क ा - बेटा! आाँखें खोलो। देखो सााँझ ो गई।

सािो ने आाँखें खोल दीिं, बुखार उतर गया था। बोला - क्या म घर आ गए मााँ?

घर की याद आ गई। देवकी की आाँखें डबडबा आई। उसने क ा - न ीिं बेटा! तुम अच्छे ो जाओगे, तो घर चलेंगे। उठकर देखो, कैसा अच्छा बाग ै।

सािो मााँ के ाथ के स ारे उठा, और बोला - मााँ! मुझ ेबड़ी भूख लगी ै, लेककन तुम् ारे पास तो कुछ न ीिं ै। मुझ ेक्या खाने को दोगी?

देवकी के हृदय पर चोट लगी, पर िीरज िर के बोली - न ीिं बेटा, तुम् ारे खाने को मेरे पास सब कुछ ै। तुम् ारे दादा पानी लात े ै तो मैं नरम-नरम रोहटयााँ अभी बनाए देती ूाँ।

सािो ने मााँ की गोद में शसर रख शलया और बोला - मााँ! मैं न ोता तो तुम् ें इतना दुुःख तो न ोता। य क कर व फूट-फूट कर रोने लगा। य व ी बेसमझ बच्चा ै, जो दो सप्ता प ले शमठाइयों के शलए दनुनया शसर पर उठा लेता था। दुुःख और धचिंता ने कैसा अनथम कर हदया ै। य ववपष्त्त का फल ै। ककतना दुुःखपूणम, ककतना करुणाजनक व्यापार ै।

इसी बीच में कई आदमी लालटेन शलये ुए व ााँ आए। कफर गाडड़यााँ आई। उन पर डरेे और खेमे लदे ुए थे। दम के दम व ााँ खेमे गड़ गए। सारे बाग में च ल-प ल नजर आने लगी। देवकी रोहटयााँ सेंक र ी थी, सािो िीरे-िीरे उठा और आश्चयम से देखता ुआ एक डरेे के नजदीक जा कर खड़ा ो गया!

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पादरी मो नदास खेमे से बा र ननकले तो सािो उन् ें खड़ा हदखाई हदया। उसकी सूरत पर उन् ें तरस आ गया। पे्रम की नदी उमड़ आई। बच्च ेको गोद में लेकर खेमे में एक गद्देदार कोच पर बैठा हदया और तब उसे बबस्कुट और केले खाने को हदए। लड़के ने अपनी ष्जिंदगी में इन स्वाहदष्ट चीजों को कभी न खाया था। बुखार की बेचैन करनेवाली भूख अलग मार र ी थी। उसने खूब मनभर खाया और तब कृतज्ञ नेत्रों से देखत े ुए पादरी सा ब के पास जाकर बोला - तुम मको रोज ऐसी चीजें खखलाओगे।

पादरी सा ब इस भोलेपन पर मुस्करा के बोले - मेरे पास इससे भी अच्छी-अच्छी चीजें ै। इस पर सािोराय ने क ा - अब मैं रोज तुम् ारे पास आऊाँ गा। मााँ के पास ऐसी अच्छी चीजें क ााँ? व तो मुझ ेचने की रोहटयााँ खखलाती ै।

उिर देवकी ने रोहटयााँ बनाई और सािो को पुकारने लगी। सािो ने मााँ के पास जाकर क ा - मुझ े सा ब ने अच्छी-अच्छी चीजें खाने को दी ै। सा ब बड़ ेअच्छे ै।

देवकी ने क ा - मैंने तुम् ारे शलए नरम-नरम रोहटयााँ बनाई ै। आओ तुम् ें खखलाऊाँ ।

सािो बोला - अब मैं न खाऊाँ गा। सा ब क त ेथे कक मैं तुम् ें रोज अच्छी-अच्छी चीजें खखलाऊाँ गा। मैं अब उनके साथ र ा कराँ गा। मााँ ने समझा कक लड़का ाँसी कर र ा ै। उसे छाती से लगाकर बोली - क्यों बेटा, मको भूल जाओगो? देखो मैं तुम् ें ककतता प्यार करती ूाँ।

सािो तुतलाकर बोला - तुम तो मुझ े रोज चने की रोहटयााँ हदया करती ो। तुम् ारे पास तो कुछ न ीिं ै। सा ब मुझ ेकेले और आम खखलावेंगे। य क कर व कफर खेमे की ओर भागा और रात को व ी सो र ा!

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पादरी मो नदास का पड़ाव व ााँ तीन हदन र ा। सािो हदन भर उन् ीिं के पास र ता। सा ब ने उसे मीठी दवाइयााँ दी। उसका बुखार जाता र ा। व भोले-भाले ककसान य देखकर सा ब को आशीवामद देने लगे। लड़का भला-चिंगा ो गया और आराम से ै। सा ब को परमात्मा सुखी रखे। उन् ोंने बच्च ेकी जान रख ली।

चौथे हदन रात को ी व ााँ से पादरी सा ब ने कूच ककया। सुब को जब देवकी उठी तो सािो का व ााँ पता न था। उसने समझा, क ीिं टपके ढूाँढने गया ोगा, ककिं तु थोड़ी देर देखकर उसने जादोराय से क ा - लल्ल ूय ााँ न ीिं ै। उसने भी य ी क ा - य ीिं क ीिं टपके ढूाँढता ोगा।

लेककन जब सूरज ननकल आया और काम पर चलने का वक्त ुआ तब जादोराय को कुछ सिंशय ुआ। उसने क ा - तुम य ीिं बैठी र ना, मैं अभी उसे शलये आता ूाँ।

जादोराय ने आस-पास के सब बागों को छान डाला और अिंत में जब दस बज गए तो ननराश लौट आया। सािो न शमला, य देखकर देवकी ढाढें मारकर रोने लगी।

कफर दोनों अपने लाल की तलाश में ननकले। अनेक ववचार धचत्त में आने-जाने लगे। देवकी को पूरा ववश्वास था कक सा ब ने उस पर कोई मिंत्र डालकर वश में कर शलया। लेककन जादो को इस कल्पना के मान लेने में कुछ सिंदे था। बच्चा इतनी दरू अनजान रास्त ेपर अकेला न ीिं आ सकता। कफर दोनों गाड़ी के पह यों और घोड़ ेकी टापों के ननशान देखते चले जात ेथे। य ााँ तक कक एक सड़क पर आ प ुाँच।े व ााँ गाड़ी के ब ुत से ननशान थे। उस ववशेष लीक की प चान न ो सकती थी। घोड़ ेके टाप भी एक झाड़ी की तरफ जाकर गायब ो गए। आशा का स ारा टूट गया। दोप र ो गई थी। दोनों िूप के मारे बेचैन और ननराशा से पागल ो र े थे। व ीिं एक वकृ्ष की छाया में बैठ गए। देवकी ववलाप करने लगी। जादोराय ने समझाना शुर ककया।

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जब जरा िूप की तजेी कम ुई तो दोनों कफर आगे बढे। ककिं तु अब आशा की जग ननराशा साथ थी। घोड़ ेकी टापों के साथ उम्मीद का िुाँिला ननशान गायब ो गया था।

शाम ो गई। इिर-उिर गायों-बैलों के झुिंड ननजीव से पड़ ेहदखाई देत ेथे। य दोनों दखुखया ह म्मत ारकर एक पेड़ के नीच ेहटक र े। उसी वकृ्ष पर मैने का एक जोड़ा बसेरा शलये था। उनका नन् ा-सा शावक आज ी एक शशकारी के चिंगुल में फाँ स गया था। दोनों हदन भर उसे खोजत े कफरे। इस समय ननराश ोकर बैठ र े। देवकी और जादो को अभी तक आशा की झलक हदखाई देती थी, इसशलए वे बेचैन थे।

तीन हदन तक ये दोनों खोये ुए लाल की तलाश करत ेर े। दाने से भेंट न ीिं, प्यास से बेचैन ोत ेतो दो-चार घूाँट पानी गले से नीच ेउतार लेगे।

आशा की जग ननराशा का स ारा था। दुुःख और करुणा के शसवाय और कोई वस्तु न ीिं। ककसी बच्च ेके परैों के ननशान देखत ेतो उनके हदलों में आशा और भय की ल रें उठने लगती थी।

लेककन प्रत्येक पग उन् ें अभीष्ट स्थान से दरू शलये जाता था।

6

इस घटना को ुए चौद वषम बीत गए। इन चौद वषों में सारी काया पलट गई। चारों ओर रामराज्य हदखाई देने लगा। इिंद्रदेव ने कभी उस तर अपनी ननदमयता न हदखाई और न जमीन ने ी। उमड़ी ुई नहदयों की तर अनाज से ढेककयााँ भर चलीिं। उजड़ े ुए गााँव बस गए। मजदरू ककसान बन बैठे और ककसान जायदाद की तलाश में नजरें दौड़ाने लगे। व ी चैत के हदन थे। खशल ानों में अनाज के प ाड़ खड़ ेथे। भाट और शभखमिंगे ककसानों की बढती के तराने गा र े

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थे। सुनारों के दरवाजे पर सारे हदन और सारी रात गा कों का जमघट बना र ा था। दरजी को शसर उठाने की फुरसत न थी। इिर-उिर दरवाजों पर घोड़ ेह नह ना र े थे। देवी के पुजाररयों को अजीणम ो र ा था। जादोराय के हदन भी कफरे। उसके घर पर छप्पर की जग खपरैल ो गया। दरवाजे पर अच्छे बैलों की जोड़ी बाँिी ुई ै। व अब अपनी ब ली पर सवार ोकर बाजार जाया करता ै। उसका बदन अब उतना सडुौल न ीिं ै। पेट पर इस सुदशा का ववशेष प्रभाव पड़ा ै और बाल भी सफेद ो चले ै। देवकी की धगनती भी गााँव की बढूी औरतों में ोने लगी ै। व्याव ाररक बातों में उसकी बड़ी पूछ ुआ करती ै। जब व ककसी पड़ोशसन के घर जाती ै तो व ााँ की ब ुएाँ भय के मारे थरथराने लगती ै। उसके कटु-वाक्य, तीव्र आलोचना की सारे गााँव में िाक बाँिी ुई ै। म ीन कपड़ े अब उसे अच्छे न ीिं लगत,े लेककन ग नों के बारे में व इतनी उदासीन न ीिं ै।

उसके जीवन का दसूरा भाग उससे कम उज्जवल न ीिं। उनकी दो सिंतानें ै। लड़का मािोशसिं अब खेती-बारी के काम में बाप की मदद करता ै। लड़की का नाम शशवगौरी ै। व भी मााँ को चक्की पीसने में स ायता हदया करती ै और खूब गाती ै। बतमन िोना उसे पसिंद न ीिं, लेककन चौका लगाने में ननपुण ै। गुडड़यों के ब्या करने से उसका जी कभी न ीिं भरता। आये हदन गुडड़यों के वववा ोते र त े ैं। ााँ, इनमें ककफायत का पूरा ध्यान र ता ै। खोये ुए सािो की याद अभी तक बाकी ै। उसकी चचाम ननत्य ुआ करती ै और कभी बबना रुलाए न ीिं र ती। देवकी कभी-कभी सारे हदन उस लाड़ले बेटे की सुि में अिीर र ा करती ै।

सााँझ ो गई थी। बैल हदन भर के थके-मााँदे शसर झुकाए चले आत ेथे। पुजारी ने ठाकुरद्वार का घिंटा बजाना शुर ककया। आजकल फसल के हदन थे। रोज पूजा ोती ै। जादोराय खाट पर बैठे नाररयल पी र े थे। शशवगौरी रास्त ेमें खड़ी उन बैलों को कोस र ी थी, जो उसके भूशमस्थ ववशाल भवन का ननरादर करके उसे रौंदत ेचले जात े थे। घडड़याल और घिंटे की आवाज सुनत े ी जादोराय भगवान

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का चरणामतृ लेने के शलए उठे ी थे कक उन् ें अकस्मात एक नवयुवक हदखाई पड़ा, जो भूाँकत े ुए कुत्तों को दतुकारता बाइशसकल को आगे बढाता ुआ चला आ र ा था। उसने उनके चरणों पर अपना शसर रख हदया। जादोराय ने गौर से देखा और तब दोनों एक दसूरे से शलपट गए। मािो भौंचक ोकर बाइशसकल देखने लगा। शशवगौरी रोती ुई घर में भागी और देवकी से बोली - दादा को सा ब ने पकड़ शलया ै। देवकी घबराई ुई बा र आई। सािो उसे देखत े ी उसके पैरों पर धगर पड़ा। देवकी लड़के को छाती से लगाकर रोने लगी। गााँव में मदम, औरतें और बच्च ेसब जमा ो गए। मेला-सा लग गया।

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सािो ने अपने माता-वपता से क ा - मझु अभागे से जो कुछ अपराि ुआ ो, उसे क्षमा कीष्जए। मैंने अपनी नादानी से स्वयिं ब ुत कष्ट उठाए और आप लोगों को भी दुुःख हदया, लेककन अब मुझ े अपनी गोद में लीष्जए। देवकी ने रोकर क ा - जब तुम मको छोड़कर भागे थे तो म लोग तुम् ें तीन हदन तक बेदाना-पानी के ढूाँढत ेर े, पर जब ननराश ो गए तब अपने भाग्य को रोकर बैठ र े। तब से आज तक कोई ऐसा हदन न गया ोगा कक तुम् ारी सुधि न आई ो। रोत-ेरोत ेएक युग बीत गया अब तुमने खबर ली ै! बताओ बेटा! उस हदन तुम कैसे भागे और क ााँ जाकर र े? सािो ने लष्ज्जत ोकर उत्तर हदया - माता जी, अपना ाल क्या क ूाँ? मैं प र रात र े आपके पास से उठकर भागा। पादरी सा ब के पड़ाव का पता शाम को ी पूछ शलया था। बस, पूछता ुआ दोप र को उनके पास प ुाँच गया। सा ब ने मुझ ेप ले समझाया कक अपने घर लौट जाओ,

लेककन जब मैं ककसी तर राजी न ुआ तो उन् ोंने मुझ ेपूना भेज हदया। मेरी तर व ााँ सैकड़ो लड़के थे। व ााँ बबस्कुट और नारिंधगयों का भला क्या ष्जक्र! अब मुझ ेआप लोगों की याद आती, मैं अक्सर रोया करता। मगर बचपन की उम्र थी, िीरे-िीरे उन् ीिं लोगों में ह ल-शमल गया। ााँ, जब से कुछ ोश ुआ और अपना-पराया समझने लगा ूाँ तब से अपनी नादानी पर ाथ मलता र ा ूाँ। रात-हदन आप लोगों की रट लगी ुई थी। आज आप लोगों के आशीवामद से य शुभ हदन

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देखने को शमला। दसूरों में ब ुत हदन काटे, ब ुत हदनों तक अनाथ र ा। अब मुझ ेअपनी सेवा में रखखए। मुझ ेअपनी गोद में लीष्जए। मैं पे्रम का भूखा ूाँ। बरसों से मुझ ेजो सौभाग्य न ीिं शमला, व सब दीष्जए।

गााँव के ब ुत से बूढे जमा थे। उनमें से जगतशसिं बोले - तो क्यों बेटा, तुम इतने हदनों तक पादररयों के साथ र े। उन् ोंने तुमको पादरी बना शलया ोगा?

सािो ने शसर झुकाकर क ा - जी ााँ, य तो उनका दस्तूर ी ै।

जगतशसिं ने जादोराय की तरफ देखकर क ा - य बड़ी कहठन बात ै।

सािो बोला - बबरादरी मुझ ेजो प्रायष्श्चत बतलाएगी, मैं उसे कराँ गा। मुझसे जो कुछ बबरादरी का अपराि ुआ ै, नादानी से ुआ ै, लेककन मैं उसका दिंड भोगन ेके शलए तैयार ूाँ।

जगतशसिं ने कफर जादोराय की तरफ कनखखयों से देखा और गिंभीरता से बोले - ह िंद ूिमम में ऐसा कभी न ीिं ुआ ै। यों तुम् ारे मााँ-बाप तुम् ें अपने घर में रख लें, तुम उनके लड़के ो, मगर बबरादरी कभी इस काम में शरीक न ोगी। बोलो जादोराय, क्या क त े ो, कुछ तुम् ारे मन की भी तो सुन लें।

जादोराय बड़ी दवुविा में था। एक ओर तो अपने प्यारे बेटे की प्रीनत थी, दसूरी ओर बबरादरी का भय मारे डालता था। ष्जस लड़के के शलए रोते-रोत ेआाँखें फूट गई, आज व ी सामने खड़ा आाँखों में आाँसू भरे क ता ै, वपता जी! मुझ ेअपनी गोद में लीष्जए और मैं पत्थर की तर अचल खड़ा ूाँ। शोक! इन ननदमयी भाइयों को ककस तर समझाऊाँ , क्या कराँ क्या न कराँ ।

लेककन मााँ की ममता उमड़ आई, देवकी से न र ा गया। उसने अिीर ोकर क ा - मैं अपने लाल को अपने घर रखूाँगी और कलेजे से लगाऊाँ गी। इतने हदनों के बाद मैंने उसे पाया ै, अब उसे न ीिं छोड़ सकती।

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जगतशसिं रुष्ट ोकर बोले - चा े बबरादरी छूट ी क्यों न जाए?

देवकी ने गरम ोकर जवाब हदया - ााँ, चा े बबरादरी छूट ी जाए। लड़के बालों ी के शलए आदमी आड़ पकड़ता ै। जब लड़का ी न र ा तो भला बबरादरी ककस काम आवेगी?

इस पर कई ठाकुर लाल-लाल आाँखें ननकालकर बोले - ठकुराइन? बबरादरी की तो तुम खूब मयामदा करती ो। लड़का चा े ककसी रास्त ेपर जाए, लेककन बबरादरी चूाँ तक न करे! ऐसी बबरादरी क ीिं और ोगी! म साफ-साफ क देत े ै कक अगर य लड़का तुम् ारे घर में र ा तो बबरादरी भी बता देगी कक व क्या कर सकती ै?

जगतशसिं कभी-कभी जादोराय से रुपए उिार शलया करत ेथे। मिुर स्वर से बोले - भाभी! बबरादरी थोड़ े ी क ती ै कक तुम लड़के को घर से ननकाल दो। लड़का इतने हदनों के बाद घर आया ै, मारे शसर आाँखों पर र े। बस, जरा खाने-पीने और छूत-छात का बचाव बना र ना चाह ए। बोलो, जादो भाई अब बबरादरी को क ााँ तक दबाना चा त े ो?

जादोराय ने सािो की तरफ करुणा-भरे नेत्रों से देखकर क ा - बेटा! ज ााँ तुमने मारे साथ इतना सलूक ककया ै, व ााँ जगत भाई की इतनी क ी और मान लो।

सािो ने कुछ तीक्ष्ण शब्दों में क ा - क्या मान लूाँ? य ीिं कक अपनों में गैर बनकर र ूाँ, अपमान स ूाँ, शमट्टी का घड़ा भी मेरे छूने से अशुद्ध ो जाए! न य मेरा ककया न ोगा, मैं इतना ननलमज्ज न ीिं ूाँ।

जादोराय को पुत्र की य कठोरता अवप्रय मालूम ुई। वे चा त ेथे कक इस वक्त बबरादरी के लोग जमा ै, उनके सामने ककसी तर समझौता ो जाए, कफर कौन देखता ै कक म उसे ककस तर रखत े ै। धचढकर बोले - इतनी बात तो तुम् ें माननी ी पड़गेी।

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सािोराय इस र स्य को न समझ सका। बाप की इस बात में उसे ननष्ठुरता की झलक हदखाई पड़ी। बोला - मैं आपका लड़का ूाँ। आपके लड़के की तर र ूाँगा। आपके पे्रम और भष्क्त की पे्ररणा मुझ ेय ााँ तक लाई ै। मैं अपने घर में र ने आया ूाँ। अगर य न ीिं ै तो मेरे शलए इसके शसवा और कोई उपाय न ीिं ै कक मैं ष्जतनी जल्दी ो सके, य ााँ से भाग जाऊाँ । ष्जनका खून सफेद ै, उनके बीच र ना व्यथम ै।

देवकी ने रोकर क ा - लल्लू, मैं तुम् ें अब न जाने दूाँगी।

सािो की आाँखें भर आई, पर मुस्करा कर बोला - मै तो तरेी थाली में खाऊाँ गा।

देवकी ने उसे ममता और पे्रम की दृष्ष्ट से देखकर क ा - मैंने तो तुझ ेछाती से दिू वपलाया ै, तू मेरी थाली में खाएगा तो क्या? मेरा बेटा ी तो ै, कोई और तो न ीिं ो गया!

सािो इन बातों को सुनकर मतवाला ो गया। इनमें इतना स्ने , ककतना अपनापन था। बोला - मााँ, आया तो मैं इसी इरादे से था कक अब क ीिं न जाऊाँ गा, लेककन बबरादरी ने मेरे कारण यहद तुम् ें जानत-च्युत कर हदया तो मुझसे न स ा जाएगा। मुझसे इन गाँवारों का कोरा अशभमान न देखा जाएगा, इसशलए इस वक्त मुझ ेजाने दो। जब मुझ ेअवसर शमला करेगा, तुम् ें देख जाया कराँ गा। तुम् ारा पे्रम मेरे धचत्त से न ीिं जा सकता। लेककन य असिंभव ै कक मैं इस घर में र ूाँ और अलग खाना खाऊाँ , अलग बैठूाँ । इसके शलए मुझ ेक्षमा करना।

देवकी घर मे से पानी लाई। सािो ाथ-मुाँ िोने लगा। शशवगौरी ने मााँ का इशारा पाया तो डरते-डरत ेसािो के पास गई। सािो को आदरपूवमक दिंडवत की। सािो ने प ले उन दोनों को आश्चयम से देखा, कफर अपनी मााँ को मसु्करात ेदेखकर समझ गया। दोनों लड़कों को छाती से लगा शलया और तीनों भाई-ब न

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पे्रम से ाँसने-खेलने लगे। मााँ खड़ी य दृश्य देखती थी और उमिंग से फूली न समाती थी।

जलपान करके सािो ने बाइशसकल साँभाली और मााँ-बाप के सामने शसर झुकाकर चल खड़ा ुआ। व ीिं, ज ााँ से तिंग ोकर आया था, उसी क्षेत्र में, ज ााँ कोई अपना न था! देवकी फूट-फूटकर रो र ी थी और जादोराय आाँखों में आाँसू भरे, हृदय में एक ऐिंठन-सी अनुभव करता ुआ सोचता था, ाय! मेरे लाल, तू मुझसे अलग ुआ जाता ै। ऐसा योग्य और ोन ार लड़का ाथ से ननकला जाता ै और केवल इसशलए कक अब मारा खून सफेद ो गया ै।

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गरीब की हाय

मुिंशी रामसेवक भौं े चढाए ुए घर से ननकले और बोले - इस जीने से तो मरना भला ै। मतृ्यु को प्रायुः इस तर के ष्जतने ननमिंत्रण हदए जात े ै, यहद व सबको स्वीकार करती तो आज सारा सिंसार उजाड़ हदखाई देता।

मुिंशी रामसेवक चााँदपुर गााँव के एक बड़ े रईस थे। रईसों के सभी गुण इनमें भरपूर थे। मानव चररत्र की दबुमलताएाँ उनके जीवन का आिार थी। व ननत्य मुिंशसफी कच री के ात ेमें एक नीम के पेड़ के नीच ेकागजों का बस्ता खोले एक टूटी-सी चौकी पर बैठे हदखाई देत ेथे। ककसी ने कभी उन् ें ककसी इजलास पर कानूनी ब स या मुकदमे की पैरवी करत ेन ीिं देखा। परिंतु उन् ें सब लोग मुख्तार सा ब क कर पुकारत ेथे। चा े तूफान आए, पानी बरसे, ओले धगरें , पर मुख्तार सा ब व ााँ से टस से मस न ोत।े जब व कच री चलत ेतो दे ानतयों के झुिंड के झुिंड उनके साथे ो लेत।े चारों ओर से उन पर ववश्वास और आदर की दृष्ष्ट पड़ती। सब में प्रशसद्ध था नत उनकी जीभ पर सरस्वती ववराजती ै। इसे वकालत क ो, य मुख्तारी, परिंतु य केवल कुल-मयामदा की प्रनतष्ठा का पालन था। आमदनी अधिक न ोती थी। चााँदी के शसक्कों की तो चचाम ी क्या; कभी-कभी तााँबे के शसक्के भी ननभमय उनके पास आने में ह चकत ेथे। मुिंशी जी की कानूनदानी में कोई सिंदे न था। परिंतु पास के बखेड़े ने उन् ें वववश कर हदया था। खैर जो ो, उनका य पेशा केवल प्रनतष्ठा-पालन के ननशमत्त थी। न ीिं तो उनके ननवाम का मुख्य सािन आस-पास की अनाथ पर खाने-पीने में सुखी वविवाओिं और भोले-भाले ककिं तु िनी वदृ्धों की श्रद्धा थी। वविवाएाँ अपना रुपया उनके य ााँ अमानत रखतीिं। बूढे अपने कपूतों के डर से अपना िन उन् ें सौंप देत।े पर रुपया एक बार मुट्ठी में जा कर कफर ननकलना भूल जाता था। व जररत पड़ने पर कभी-कभी कजम ले लेत े थे। भला, बबना कजम शलये ककसी का काम चल सकता ै? भोर को सााँझ के करार पर रुपया लेते, पर सााँझ कभी न ीिं आती थी। सारािंश, मुिंशी जी कजम ले कर देना सीखे न ीिं थे। य उनकी कुल प्रथा थी। य ी सब मामले ब ुिा मुिंशी जी के सुख-चैन में ववघ्न डालत े थे। कानून

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और अदालत का तो उन् ें कोई डर न था। इस मैदान में उनका सामना करना पानी में मगर से लड़ना था। परिंतु जब कोई दषु्ट शभड़ जाता, उनकी ईमानदारी पर सिंदे करता और उनके मुाँ पर बुरा-भला करने पर उतार ो जाता, तो मुिंशी जी के हृदय पर बड़ी चोट लगती। इस प्रकार की दघुमटनाएाँ प्रायुः ोती र ती थीिं। र जग ऐसे ओछे र त े ै, ष्जन् ें दसूरों को नीचा हदखाने में ी आनिंद आता ै। ऐसे ी लोगों का स ारा पा कर कभी-कभी छोटे आदमी मुिंशी जी के मुाँ लग जात े थे। न ीिं तो, कुिं जडड़न की इतनी मजाल न ीिं थी कक उनके आाँगन में जा कर उन् ें बुरा-भला क े। मुिंशी जी उसके पुराने गा क थे, बरसों तक उससे साग-भाजी ली थी। यहद दाम न हदया तो कुिं जडड़न को सिंतोष करना चाह ए था। दाम जल्दी या देर से शमल ी जाता। परिंतु व मुाँ फट कुिं जडड़न दो ी बरसों में घबरा गई, और उसने कुछ आने-पैसों के शलए एक प्रनतष्ष्ठत आदमी का पानी उतार शलया। झुाँझला कर मुिंशी जी अपने को मतृ्यु का कलेवा बनाने पर उतार ो गए तो उनका कुछ दोष न था।

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इसी गााँव में मूाँगा नाम की एक वविवा ब्राह्मणी र ती थी। उसका पनत बमाम की काली पलटन में वलदार था और लड़ाई में व ीिं मारा गया। सरकार की ओर से उसके अच्छे कामों के बदले मूाँगा को पााँच सौ रुपए शमले थे। वविवा स्त्री, जमाना नाजुक था, बेचारी ने ये सब रुपए मुिंशी रामसेवक को सौंप हदए, और म ीने-म ीने थोड़ा-थोड़ा उसमें से मााँग कर अपना ननवाम करती र ी।

मुशी जी ने य कतमव्य कई वषम तक तो बड़ी ईमानदारी के साथ पूरा ककया। पर जब बूढी ोने पर मूाँगा न ीिं मरी और मुिंशी जी को य धचिंता ुई कक शायद उसमें से आिी रकम भी स्वगम-यात्रा के शलए न ीिं छोड़ना चा ती, तो एक हदन उन् ोंने क ा - मूाँगा! तुम् ें मरना ै या न ीिं! साफ-साफ क दो कक मैं ी अपने मरने की कफक्र कराँ । उस हदन मूाँगा की आाँखें खुली, उसकी नीिंद टूटी, बोली - मेरा

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ह साब कर दो। ह साब का धचट्ठा तैयार था। अमानत में अब एक कौड़ी बाकी न थी। मूाँगा ने बड़ी कड़ाई से मुिंशी जी का ाथ पकड़ शलया और क ा - अभी मेरे ढाई सौ रुपए तुमने दबा रखे ै। मैं एक कौड़ी भी न छोडूाँगी।

परिंतु अनाथों का क्रोि पटाखे की आवाज ै, ष्जससे बच्च ेडर जात े ै और असर कुछ न ीिं ोता। अदालत में उसका कुछ जोर न था। न शलखा-पढी थी, न ह साब-ककताब। ााँ, पिंचायत से कुछ आसरा था। पिंचायत बठैी। कई गााँव के लोग इकटे्ठ ुए। मुिंशी जी नीयत और मामले के साफ थे! सभा में खड़ े ोकर पिंचों से क ा -

भाइयों! आप सब लोग सत्यपरायण और कुलीन ै। मैं आप सब सा बों का दास ूाँ। आप सब सा बों की उदारता और कृपा से, दया और पे्रम से, मेरा रोम-रोम कृतज्ञ ै। क्या आप लोग सोचत े ै कक मैं इस अनाधथनी और वविवा स्त्री के रुपए ड़प कर गया ूाँ?

पिंचों ने एक स्वर में क ा - न ीिं, न ीिं! आपसे ऐसा न ीिं ो सकता।

रामसेवक - यहद आप सब सज्जनों का ववचार ो कक मैंने रुपए दबा शलये, तो मेरे शलए डूब मरने के शसवा और कोई उपाय न ीिं। मैं िनाढ्य न ीिं ूाँ, न मुझ ेउदार ोने का घमिंड़ ै। पर अपनी कलम की कृपा से, आप लोगों की कृपा से ककसी की मु ताज न ीिं ूाँ। क्या मैं ऐसा ओछा ो जाऊाँ गा कक एक अनाधथनी के रुपए पचा लूाँ?

पिंचों ने एक स्वर से कफर क ा - न ीिं-न ीिं, आप से ऐसा न ीिं ो सकता। मुाँ से देखकर टीका काढा जाता ै। पिंचों ने मुिंशी जी को छोड़ हदया। पिंचायत उठ गई। मूाँगा ने आ भर कर सिंतोष ककया और मन में क ा - अच्छा! य ााँ न शमला तो स ी, व ााँ क ााँ जाएगा।

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अब कोई मूाँगा का दुुःख सुननेवाला और स ायक न था। दररद्रता से जो कुछ दुुःख भोगने पड़त े ै, व उसे झलेने पड़।े व शरीर से पुष्ट थी, चा ती तो पररश्रम कर सकती थी। पर ष्जस हदन पिंचायत पूरी ुई, उसी हदन से उसने काम करने की कसम खा ली। अब उसे रात-हदन रुपए की रट लगी र ती। उठते-बैठते, सोत-ेजागत े उसे केवल एक काम था, और व मुिंशी रामसेवक का भला मनाना। झोपड़ े के दरवाजे पर बैठी ुई रात-हदन, उन् ें सच्च े मन से असीसा करती। ब ुिा अपनी असीम के वाक्यों में ऐसे कववता के भाव और उपमाओिं का व्यव ार करती कक लोग सुन कर अचिंभे में आ जात।े िीरे-िीरे मूाँगा पगली ो चली। निंगे शसर, निंगे शरीर, ाथ में एक कुल् ारी शलये ुए सुनसान स्थानों में जा बैठती। झोपड़ े के बदले अब व मरघट पर नदी के ककनारे खिंड रों में घूमती हदखाई देती। बबखरी ुई लटें , लाल-लाल आाँखें, पागलों-सा च ेरा, सूखे ुए ाथ-पााँव। उसका य स्वरप देखकर लोग डर जात ेथे। अब कोई उसे ाँसी में भी न ीिं छेड़ता। यहद व कभी गााँव में ननकल जात ेतो ष्स्त्रयााँ घरों के ककवाड़ बिंद कर लेती। परुुष कतरा कर इिर-उिर से ननकल जात ेऔर बच्च ेचीख मारकर भागत।े यहद कोई लड़का भागता न था तो व मुिंशी रामसेवक का सुपुत्र रामगुलाम था। बाप में जो कुछ कोर कसर र गई थी, व बेटे से पूरी ो गई थी। लड़कों का उसके मारे नाक में दम था। गााँव के काने औऱ लाँगड़ ेआदमी उसकी सूरत से धचढत ेथे। और गाशलयााँ खाने में तो शायद ससुराल में आनेवाले दामाद को भी इतना आनिंद न आता था। व मूाँगा के पीछे ताशलयााँ बजाता, कुत्तों को साथ शलए ुए उस समय ततक र ता जब तक व बेचारी तिंग आकर गााँव से ननकल न जाती। रुपया-पैसा, ोश- वाश खोकर पगली की पदवी शमली। और अब बस सचमुच पगली थी। अकेली बैठी अपने आप घिंटों बातें ककया करती ष्जसमें रामसेवक के मािंस, ड्डी, चमड़े, आाँखें, कलेजा आहद को खाने, मसलने,

नोचने-खसोटने की बड़ी उत्कट इच्छा प्रकट की जाती थी और जब उसकी य इच्छा सीमा तक प ुाँच जाती तो व रामसेवक के घर की ओर मुाँ करके खूब धचल्लाकर और डरावने शब्दों में ााँक लगाती - तरेा ल ू पीऊाँ गी।

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प्रायुः रात के सन्नाटे में य गरजती ुई आवाज सुनकर ष्स्त्रयााँ चौंक पड़ती थीिं। परिंतु इस आवाज से भयानक उसका ठठाकर ाँसना था। मुिंशी जी के ल ू पीने की कष्ल्पत खुशी से व जोर से ाँसा करती थी। इस ठठाने से ऐसी आसुररक उद्दिंडता, ऐसी पाष्श्वक उग्रता टपकती थी कक रात को सुनकर लोगों का खून ठिंड़ा ो जाता था। मालूम ोता, मानों सैकड़ो उल्ल ू एक साथ ाँस र े ैं। मुिंशी रामसेवक बड़ े ौसले औऱ कलेजे के आदमी थे। न उन् ें दीवानी का डर था, न फौजदारी का, परिंतु मूाँगा के इन डरावने शब्दों को सुन व भी स म जात।े में मनुष्य के न्याय का डर न ो, परिंतु ईश्वर के न्याय का डर प्रत्येक मनुष्य के मन में स्वभाव से र ता ै। मूाँगा का भयानक रात का घूमना रामसेवक के मन में कभी-कभी ऐसी ी भावना उत्पन्न कर देता - उनसे अधिक उनकी स्त्री के मन में। उनकी स्त्री बड़ी चतुर थी। व इनको इन सब बातों में प्रायुः सला हदया करती थी। उन लोगों की भूल थी, जो लोग क त ेथे कक मुिंशी जी की जीभ पर सरस्वती ववराजती ै। व गुण तो उनकी स्त्री को प्राप्त था। बोलने में व इतनी तजे थी ष्जतना मुिंशी शलखने में थे। और य दोनों स्त्री पुरुष प्रायुः अपनी अवश दशा में सला करत ेकक अब क्या करना चाह ए।

आिी रात का समय था। मुिंशी जी ननत्य ननयम के अनुसार अपनी धचिंता दरू करने के शलए शराब के दो-चार घूाँट पी कर सो गए थे। यकायक मूाँगा ने उनके दरवाजे पर आकर जोर से ााँक लगाई, तरेा ल ूाँ पीऊाँ गी और खूब खखल-खखलाकर ाँसी।

मुिंशी जी य भयानक ठ ाका सुनकर चौंक पड़ें। डर के मारे पैर थर-थर कााँपने लगे। कलेजा िक-िक करने लगा। हदल पर ब ुत जोर डालकर उन् ोंने दरवाजा खोला, जाकर नाधगन को जगाया। नाधगन ने झुाँझलाकर क ा - क्या क त े ो?

मुिंशी ने दबी आवाज से क ा - व दरवाजे पर आकर खड़ी ै।

नाधगन उठ बैठी - क्या क ती ै?

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'तुम् ारा शसर।'

'क्या दरवाजे पर आ गई?'

' ााँ, आवाज न ीिं सुनती ो।'

नाधगन मूाँगा से तो न ीिं, परिंतु उसके ध्यान से ब ुत डरती थी, तो भी उसे ववश्वास था कक मैं बोलने में उसे जरर नीचा हदखा सकती ूाँ। साँभलकर बोली - क ो तो मैं उससे दो-दो बातें कर लूाँ। परिंतु मुिंशी जी ने मना ककया।

दोनों आदमी पैर दबाए ुए ड्योढी में गए और दरवाज े से झााँककर देखा, मूाँगा की िुाँिली मूरत िरती पर पड़ी थी और उसकी सााँस तजेी से चलती ुई सुनाई देती थी। रामसेवक के ल ू और मािंस की भूख से व अपना ल ू और मािंस सूखा चुकी थी। एक बच्चा भी उसे धगरा सकता था; परिंतु उससे सारा गााँव थर-थर कााँपता। म जीत ेमनुष्य से न ीिं डरते, पर मुरदे से डरत े ै। रात गुजरी। दरवाजा बिंद था; पर मुिंशी जी और नाधगन ने बैठकर रात काटी। मूाँगा भीतर न ीिं घुस सकती थी, पर उसकी आवाज को कौन रोक सकता था। मूाँगा से अधिक डरावनी उसकी आवाज थी।

भोर को मुिंशी जी बा र ननकले और मूाँगा से बोले - य ााँ क्यों पड़ी ै।

मूाँगा बोली - तरेा ल ू पीऊाँ गी।

नाधगन ने बल खाकर क ा - तरेा मुाँ झुलस दूाँगी।

पर नाधगन के ववष ने मूाँगा पर कुछ असर न ककया। उसने जोर से ठ ाका लगाया, नाधगन खखशसयानी-सी ो गई। ाँसी के सामने मुाँ बिंद ो जाता ै। मुिंशी जी कफर बोले - य ााँ से उठ जा।

'न उठूाँगी।'

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'कब तक पड़ी र ेगी?'

'तरेा ल ू पीकर जाऊाँ गी।'

मुिंशी जी की प्रखर लेखनी का य ााँ कुछ जोर न चला और नाधगन की आग भरी बातें सदम ो गई। दोनों घर में जाकर सला करने लगे, य बला कैसे टलेगी। इस आपष्त्त से कैसे छुटकारा ोगा।

देवी आती ै तो बकरे का खून पीकर चली जाती ै; पर य डाइन मनुष्य का खून पीने आई ै। व खून, ष्जसकी अगर एक बूाँद भी कलम बनाने के समय ननकल पड़ती थी, तो अठवारों और म ीनों सारे कुनबे को अफसोस र ता, और य घटना गााँव के घर-घर फैल जाती थी। क्या य ी ल ू पीकर मूाँगा का सूखा शरीर रा ो जाएगा।

गााँव में य चचाम फैल गई, मूाँगा मुिंशी जी के दरवाजे पर िरना हदये बैठी ै। मुिंशी जी के अपमान में गााँववालों को बड़ा मजा आता था। देखत-ेदेखत ेसैकड़ों आदशमयों की भीड़ लग गई। इस दरवाजे पर कभी-कभी भीड़ लगी र ती थी। य भीड़ रामगुलाम को पसिंद न थी। मूाँगा पर उसे ऐसा क्रोि आ र ा था कक यहद उसका बस चलता तो व उसे कुएाँ में ढकेल देता। इस तर का ववचार उठत े ी रामगुलाम के मन में एक गुदगुदी समा गई, और व बड़ी कहठनता से अपनी ाँसी रोक सका! अ ा! व कुएाँ में धगरती तो क्या मजे की बात ोती। परिंतु य चुडलै य ााँ से टलती ी न ीिं, क्या कराँ ? मुिंशी जी के घर में एक गाय थी, ष्जसे खली, दाना और भूसा तो खूब खखलाया जाता; पर व सब उसकी ड्डडयों में शमल जाता, उसका ढााँचा पुष्ट ोता जाता था। रामगुलाम ने उसी गाय का गोबर एक ााँड़ी मे घोला और सब का सब बेचारी मूाँगा पर उाँ डले हदया। उसके थोड़ े ब ुत छीिंटे दशमकों पर भी डाल हदए। बेचारी मूाँगा लदफद ो गई और लोग भाग खड़ े ुए। क ने लगे, य मुिंशी रामगुलाम का दरवाजा ै। य ााँ इसी प्रकार का शशष्टाचार ककया जाता ै। जल्द भाग चलो। न ीिं तो अबके इससे

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भी बढकर खानतर की जाएगी। इिर भीड़ कम ुई, उिर रामगुलाम घर में जाकर खूब ाँसा और ताशलयााँ बजाई। मुिंशी जी ने इस व्यथम की भीड़ को ऐसे स ज और ऐसे सुिंदर रप से टा देने के उपाय पर अपने सुशील लड़के की पीठ ठोंकी। सब लोग तो चिंपत ो गए, पर बेचारी मूाँगा ज्यों की त्यों बैठी र गई।

दोप र ुई। मूाँगा ने कुछ न ीिं खाया। सााँझ ुई। जार क ने-सुनने से भी उसने खाना न ीिं खाया। गााँव के चौिरी ने बड़ी खुशामद की। य ााँ तक की मुिंशी जी ने ाथ तक जोड़े, पर देवी प्रसन्न न ुई। ननदान मुिंशी जी उठकर भीतर चले गए। व क त ेथे कक रठने वाले को भूख आप ी मना शलया करती ै। मूाँगा ने य रात भी बबना दाना-पानी के काट दी। लाला जी और ललाइन ने आज कफर जाग-जागकर भोर ककया। आज मूाँगा की गरज और ाँसी ब ुत कम सुनाई पड़ती थी। घरवालों ने समझा, बला टली। सबेरा ोत े ी जो दरवाजा खोलकर देखा तो व अचेत पड़ी थी, मुाँ पर मष्क्खयााँ शभनशभना र ी थी और उसके प्राणपखेर उड़ चुके थे। व इस दरवाजे पर मरने ी आई थी। ष्जसने उसके जीवन की जमा-पूाँजी र ली थी, उसी को अपनी जान भी सौंप दी थी। अपने शरीर की शमट्टी तक उसकी भेंट कर दी। िन से मनुष्य को ककतना पे्रम ोता ै। िन अपनी जान से भी ज्यादा प्यारा ोता ै। ववशेषकर बुढापे में। ऋण चुकाने के हदन ज्यों-ज्यों पास आत-ेजात े ै, त्यों-त्यों उसका ब्याज बढता जाता ै।

य क ना य ााँ व्यथम ै कक गााँव में इस घटना से कैसी लचल मची और मुिंशी रामसेवक कैसे अपमाननत ुए! एक छोटे-से गााँव में ऐसी असािारण घटना ोने पर ककतनी लचल ो सकती उससे अधिक ुई। मुिंशी जी की अपमान ष्जतना ोना चाह ए था, उससे बाल बराबर भी कम न ुआ। उनका बचा-खुचा पानी भी इस घटना से चला गया। अब गााँव का चमार भी उनके ाथ का पानी पीने या उन् ें छूने का रवादार न था। यहद ककसी के घर में कोई गाय खूाँटे पर मर जाती ै तो व आदमी म ीनों द्वार-द्वार भीख मााँगता कफरता ै। न नाई उसकी जामत बनावे, न क ार उसका पानी भरे, न कोई उसे छुए। य गो त्या का प्रायष्श्चत! ब्रह्म त्या का दिंड तो इससे भी कड़ा ै और इसमें अपमान भी ब ुत

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ै। मूाँगा य जानती थी और इसीशलए इस दरवाजे पर आकर मरी थी। व जानती थी कक मैं जीत ेजी जो कुछ न ीिं कर सकती, मर कर उससे ब ुत कुछ कर सकती ूाँ। गोबर का उपला जल कर खाक ो जाता ै, तब सािु-सिंत उसे माथे पर चढात े ै। पत्थर का ढेला आग में जल कर आग से अधिक तीखा और मारक ो जाता ै।

4

मुिंशी रामसेवक कानूनदााँ थे। कानून ने उन पर कोई दोष न ीिं लगाया था। मूाँगा ककसी कानूनी दफा के अनुसार न ीिं मरी थी। ताजीरात ह िंद में उसका कोई उदा रण न ीिं शमलता था। इसशलए जो लोग उनसे प्रायष्श्चत करवाना चा त ेथे,

उनकी भारी भलू थी। कुछ जम न ीिं, क ार पानी न भरे, व आप पानी भर लेंगे। अपना काम आप करने में भला लाज ी क्या? बजा से नाई बाल न बनावेगा। जामत बनाने का काम ी क्या ै? दाढी ब ुत सुिंदर वस्तु ै। दाढी मदम की शोभा और शसिंगार ै। और जो कफर बालों से नघन ोगी तो एक-एक आने में तो अस्तुरे शमलत े ै। िोबी कपड़ा न िोवेगा, इसकी भी कुछ परवा न ीिं। साबुन तो गली-गली कौडड़यों के मोल आता ै। एक बट्टी साबुन में दजमनों कपड़ े ऐसे साफ ो जात े ै जैसे बगुले के पर। िोबी क्या खाकर ऐसा साफ कपड़ा िोवेगा? पत्थर पर पटक-पटक कर कपड़ों का लत्ता ननकाल लेता ै। आप प ने, दसूरे को भाड़ ेपर प नावे, भट्टी में चढावे; रे में शभगावे - कपड़ों की तो दगुमत कर डालता ै। जभी तो कुरत े दो-तीन साल से अधिक न ीिं चलत।े न ीिं तो दादा र पााँचवे बरस दो अचकन और दो कुरत ेबनवाया करत े थे। मुिंशी रामसेवक और उनकी स्त्री ने हदन भर तो यों ी क कर मन को समझाया। सााँझ ोत े ी उनकी तकम नाएाँ शशधथल ो गई।

अब उनके मन पर भय ने चढाई की। जैसे-जैसे रात बीतती थी, भय भी बढता जाता था। बा र का दरवाजा भूल से खुला र गया था, पर ककसी की ह म्मत न पड़ती थी कक जाकर बिंद तो कर आए। ननदान नाधगन ने ाथ में दीया शलया,

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मुिंशी जी ने कुल् ाड़ा, रामगुलाम ने गाँड़ासा, इस ढिंग से तीनों चौंकते-ह चकते दरवाजे पर आए। य ााँ मुिंशी जी ने बड़ी ब ादरुी से काम शलया। उन् ोंने ननिड़क दरवाजे से बा र ननकलने की कोशशश की। कााँपत े ुए, पर ऊाँ ची आवाज में नाधगन से बोले - तुम व्यथम डरती ो, व क्या य ााँ बैठी ै? पर उनकी प्यारी नाधगन ने उन् ें अिंदर खीिंच शलया और झुाँझलाकर बोली - तुम् ारा य ी लड़कपन तो अच्छा न ीिं। य दिंगल जीतकर तीनों आदमी रसोई के कमरे में आए और खाना पकने लगा।

परिंतु मूाँगा उनकी आाँखों में घुसी ुई थी। अपनी परछाई को देखकर मूाँगा का भय ोता था। अाँिेरे कोनों में बैठी मालूम ोती थी। व ी ड्डडयों का ढााँचा, व ी बबखरे बाल, व ी पागलपन, व ी डरावनी आाँखें, मूाँगा का नखशशख हदखाई देता था। इस कोठरी में आटे-दाल के कई मटके रखे ुए थे, व ीिं कुछ पुराने धचथड़ ेभी पड़े ुए थे। एक चू े को भूख ने बेचैन ककया (मटकों ने कभी अनाज की सूरत न ीिं देखी थी, पर सारे गााँव में मश ूर था कक इस घर के गजब के डाकू ै) तो व उन दानों की खोज में जो मटकों में कभी न ीिं धगरे थे, रेंगता ुआ इस धचथड़ ेके नीच ेआ ननकला। कपड़ों में खनखडा ट ुई। फैले ुए धचथड़ े पतली टााँगे बन गई, नाधगन देखकर खझझकी और चीख उठी। मुिंशी जी बद वास ोकर दरवाजे की ओर लपके, रामगुलाम दौड़कर उनकी टााँगों से शलपट गया। चू ा बा र ननकल आया। उसे देखकर इन लोगों के ोश हठकाने ुए। अब मुिंशी जी सा स करके मटके की ओर चले। नाधगन ने क ा - र ने भी दो, देख ली तुम् ारी मरदानगी।

मुिंशी जी अपने वप्रया नाधगन के इस अनादर पर ब ुत बबगड़ े - क्या तुम समझती ो मैं डर गया? भला डर की क्या बात थी। मूाँगा मर गई। क्या व बैठी ै? मैं कल न ीिं दरवाजे के बा र ननकल गया था - तुम रोकती र ी, मैं न माना।

मुिंशी जी की इस दलील ने नाधगन को ननरुत्तर कर हदया। कल दरवाजे के बा र ननकल जाना या ननकलने की कोशशश करना सािारण काम न था। ष्जसके

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सा स का ऐसा प्रमाण शमल चुका ै, उसे डरपोक कौन क सकता ै? य नाधगन की ठिमी थी।

खाना खाकर तीनों आदमी सोने के कमरे में आए; परिंतु मूाँगा ने य ााँ भी पीछा न छोड़ा; बातें करत े थे, हदल को ब लात े थे। नाधगन ने राजा रदौल और रानी सारिंिा की क ाननयााँ क ी। मुिंशी जी ने फौजदारी के कई मुकदमों का ाल क सुनाया। परिंतु तो भी इन उपायों से भी मूाँगा की मूनतम उनकी आाँखों के सामने से न टती थी। जरा भी खटखटा ट ोती कक तीनों चौंक पड़त।े इिर पष्त्तयों की सनसना ट ुई कक उिर तीनों के रोंगटे खड़ े ो गए? र -र कर एक िीमी आवाज िरती के भीतर से उनके कानों में आती थी - 'तरेा खून पीऊाँ गी।'

आिी रात को नाधगन नीिंद से चौंक पड़ी। व इन हदनों गभमवती थी। लाल-लाल आाँखोंवाली, तजे और नोकीले दााँतोंवाली मूाँगा उसकी छाती पर बैठी ुई जान पड़ती थी। नाधगन चीख उठी। बावली की तर आाँगन में भाग आई और यकायक िरती पर धगर धचत्त धगर पड़ी। सारा शरीर पसीने-पसीने ो गया। मुिंशी जी उसकी चीख सुनकर चौंके, पर डर के मारे आाँखें न खुलीिं। अिंिों की तर दरवाजा टटोलत े र े। ब ुत देर के बाद उन् ें दरवाजा शमला। आाँगन में आए। नाधगन जमीन पर पड़ी ाथ-पााँव पटक र ी थी। उसे उठाकर भीतर लाए, पर रात भर उसने आाँखें न खोली। भोर को अक-बक बकने लगी। थोड़ी देर में ज्वर ो आया। बदन लाल तवा-सा ो गया। सााँझ ोत-े ोत ेउसे सष्न्नपात ो गया और आिी रात के समय जब सिंसार में सन्नाटा छाया ुआ था नाधगन इस सिंसार से चल बसी। मूाँगा के डर ने उसकी जान ली। जब तक मूाँगा जीती र ी, व नाधगन की फुफकार से सदा डरती र ी। पगली ोने पर भी उसने कभी नाधगन का सामना न ीिं ककया पर अपनी जान देकर उसने आज नाधगन की जान ली। भय में बड़ी शष्क्त ै। मनुष्य वा में एक धगर भी न ीिं लगा सकता, पर इसने वा में एक सिंसार रच डाला ै।

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रात बीत गई। हदन चढता आता था, पर गााँव को कोई आदमी नाधगन की लाश उठाने को आता न हदखाई हदया। मुिंशी जी घर-घर घूमे, पर कोई न ननकला। भला त्यारे के दरवाजे पर कौन जाए? त्यारे की लाश कौन उठावे? इस समय मुिंशी जी का रोब-दाब, उनकी प्रबल लेखनी का भय और उनकी कानूनी प्रनतभा एक भी काम न आई। चारों ओर से ार कर मुिंशी जी कफर अपने घर आ गए। य ााँ उन् ें अिंिकार दीखता था। दरवाज ेतक तो आए, पर भीतर पैर न ीिं रखा जाता था। न बा र ी खड़ ेर सकत ेथे। बा र मूाँगा थी, भीतर नाधगन। जी को कड़ा करके नुमान चालीसा का पाठ करत े ुए घर में घुसे। उस समय उनके मन पर जो बीतती थी, व ी जानत ेथे। उसका अनुमान मुष्श्कल ै। घर में लाश पड़ी ुई ै; न कोई आगे, न पीछे। दसूरा ब्या तो ो सकता था। अभी इसी फागुनी में तो पचासवााँ लगा ै; पर ऐसे सुयोग्य और मीठी बोलवाली स्त्री क ााँ शमलेगी? अफसोस! अब तगादा करनेवालों से ब स कौन करेगा, कौन उन् ें ननरुत्तर करेगा? लेन-देन का ह साब-ककताब कौन इतनी खूबी से करेगा? ककसकी बड़ी आवाज तीर की तर तगादेदारों की छाती में चुभेगी? य नुकसान अब पूरा न ीिं ो सकता। दसूरे हदन मुिंशी जी लाश को ठेलेगाड़ी पर लादकर गिंगा जी की तरफ चले।

5

शव के साथ जानेवालों की सिंख्या कुछ भी न थी। एक स्वयिं मुिंशी जी, दसूरे उनके पुत्ररत्न रामगुलाम थे! इस बेइज्जती से मूाँगा की लाश भी न ीिं उठी थी।

मूाँगा ने नाधगन की जान लेकर भी मुिंशी जी का वप िंड न छोड़ा। उनके मन में र घड़ी मूाँगा की मूनतम ववराजमान र ती थी। क ीिं र ते, उनका ध्यान इसी ओर र ा करता था। यहद हदल-ब लाव का कोई उपाय ोता तो शायद व इतने बेचैन न ोते, पर गााँव का एक पुतला भी उनके दरवाजे की ओर न झााँकता था। बेचारे अपने ाथों पानी भरते, आप ी बरतन िोत।े सोच और क्रोि, धचिंता और भय,

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इतने शत्रुओिं के सामने एक हदमाग कब तक ठ र सकता था। ववशेषकर व हदमाग जो रोज कानून की ब सों में खचम ो जाता था।

अकेले कैदी की तर उनके दस-बार हदन तो ज्यों-त्यों कर कटे। चौद वें हदन मुिंशी जी ने कपड़ ेबदले और बोररया-बस्ता शलए ुए कच री चले। आज उनका च ेरा कुछ खखला ुआ था। जात े ी मुवष्क्कल मुझ े घेर लेंगे। मेरी मातमपुसी करेंगे। मैं आाँसुओिं को दो-चार बूाँदें धगरा दूाँगा। कफर बनैामों, रे ननामों और सुल नामों की भरमार ो जाएगी। मुट्ठी गरम ोगी; शाम को जरा नशे-पानी का रिंग जम जाएगा, ष्जसके छूट जाने से जी और भी उचाट र ा था। इन् ीिं ववचारों में मग्न मुिंशी जी कच री प ुाँच।े

पर व ााँ रे ननामों की भरमार और बैनामों की बाढ और मुवष्क्कलों की च ल-प ल के बदले ननराशा की रेतीली भूशम नजर आई। बस्ता खोलें घिंटों बैठे र े, पर कोई नजदीक भी न आया। ककसी ने इतना भी न पूछा कक आप कैसे ै! नए मुवष्क्कल तो खैर, बड़े-बड़ ेपुराने मुवष्क्कल ष्जनका मुिंशी जी से कई पीहढयों से सरोकार था, आज उनसे मुाँ नछपाने लगे। व नालायक और अनाड़ी रमजान,

ष्जसकी मुिंशी जी ाँसी उड़ात ेथे और ष्जसे शुद्ध शलखना भी न आता था, आज गोवपयों का कन् ैया बना ुआ था। वा रे भाग्य? मुवष्क्कल यों मुाँ फेरे चले जात े ै मानो ककसी की जान-प चान ी न ीिं। हदन भर कच री की खाक छाने के बाद मुिंशी जी घर चले। ननराशा और धचिंता में डूबे ुए। ज्यों-ज्यों घर के ननकट आत ेथे, मूाँगा का धचत्र सामने आता जाता था। य ााँ तक कक जब घर का द्वार खोला और दो कुत्तें, ष्जन् ें रामगुलाम ने बिंद रखा था, झपटकर बा र ननकले तो मुिंशी जी के ोश उड़ गएष एक चीख मारकर जमीन पर धगर पड़।े

मनुष्य के मन और मष्स्तष्क पर भय का ष्जतना प्रभाव ोता ै उतना और ककसी शष्क्त का न ीिं। पे्रम, धचिंता, ननराशा, ानन, य सब मन को अवश्य दुुःखखत करत े ै, पर य वा के लके झोंके ै और भय प्रचिंड़ आाँिी ै। मुिंशी जी पर इसके बाद क्या बीती, मालूम न ीिं। कई हदनों तक लोगों ने उन् ें कच री जात े

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और व ााँ से मुरझाए ुए लौटत े देखा। कच री जाना उनका कतमव्य था, और यद्यवप व ााँ मुवष्क्कलों का अकाल था, तो भी तगादेदारों से गला छुड़ाने और उनको भरोसा हदखाने के शलए अब य ी एक लटका र गया था। इसके बाद कई म ीने तक देख न पड़।े बद्रीनाथ चले गए। एक हदन गााँव में एक सािु आया। भभूत रमाए, लिंबी जटाएाँ, ाथ में कमिंडल। उनका च ेरा मुिंशी रामसेवक से ब ुत शमलता-जुलता था। बोलचाल में भी अधिक भेद न था। व एक पेड़ के नीच ेिूनी रमाए बैठा र ा। उसी रात को मुिंशी रामसेवक के घर से िुआाँ उठा, कफर आग की ज्वाला दीखने लगी और आग भड़क उठी। गााँव के सैकड़ों आदमी दौड़।े आग बुझाने के शलए न ीिं, तमाशा देखने के शलए। एक गरीब की ाय में ककतना प्रभाव ै। रामगुलाम मुिंशी जी के गायब ो जाने पर अपने मामा के य ााँ चला गया और व ााँ कुछ हदनों र ा। पर व ााँ उसकी चाल-ढाल ककसी को पसिंद न आई।

एक हदन उसने ककसी के खेत से मूली नोची। उसने दो-चार िौल लगाए। उस पर व इस कदर बबगड़ा कक जब उसके चने खशल ान में आए तो उसने आग लगा थी। सारा का सारा खशल ान जलकर खाक ो गया। जारों रुपयों का नुकसान ुआ। पुशलस ने त कीकाक की, रामगुलाम पकड़ा गया। इसी अपराि में व चुनार के ररफामेटरी स्कूल में मौजूद ै।

***

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बेटी का धन

बेतवा नदी के ऊाँ च ेकगारों के बीच इस तर मुाँ नछपाए ुए थी जैसे ननममल हृदयों में सा स और उत्सा की मद्धम ज्योनत नछपी र ती ै। इसके एक कगार पर एक छोटा-सा गााँव बसा ै जो अपने भग्न जातीय धचह्नों के शलए ब ुत ी प्रशसद्ध ै। जातीय गाथाओिं और धचह्नों पर मर शमटने वाले लोग इस भावनस्थान पर बड़ ेपे्रम और श्रद्धा के साथ आत ेऔर गााँव का बूढा केवट सुक्खू चौिरी उन् ें उसकी पररक्रमा करता और रानी के म ल, राजा का दरबार और कुाँ वर के बैठक के शमटे ुए धचह्नों को हदखाता। व एक उच््वास लेकर रुाँ िे ुए गले से क ता, म ाशय! व एक समय था कक केवटों को मछशलयों के इनाम में अशकफम यााँ शमलती थी। क ार म ल में झाडू देत े ुए अशकफम यााँ बटोर ले जात ेथे। बेतवा नदी रोज चढ कर म ाराज के चरण िूने आती थी। य प्रताप और य तजे था, परिंतु आज य दशा ै। इन सुिंदर उष्क्तयों पर ककसी का ववश्वास जमाना चौिरी के वश की बात न थी, पर सुननेवाले उसकी सहृदयता और अनुराग के जरर कायल ो जात ेथे।

सुक्खू चौिरी उदार पुरुष थे, परिंतु ष्जतना बड़ा मुाँ था, उतना बड़ा ग्रास न था। तीन लड़के, तीन ब ुएाँ और कई पौत्र-पौबत्रयााँ थीिं। लड़की केवल एक गिंगाजली थी ष्जसका अभी तक गौना न ीिं ुआ था। चौिरी की य सबसे वपछली सिंतान थी। स्त्री के मर जाने पर उसने इसको बकरी का दिू वपला-वपलाकर पाला था। पररवार में खानेवाले तो इतने थे, पर खेती शसफम एक ल की ोती थी। ज्यों-त्यों कर ननवाम ोता था, परिंतु सुक्खू की वदृ्धावस्था और पुरातत्त्वज्ञान ने उसे गााँस में व मान और प्रनतष्ठा प्रदान कर रक्खी थी, ष्जसे देखकर झगडू सा ु भीतर ी भीतर जलत ेथे। सुक्खू जब गााँववालों के समक्ष, ाककमों से ाथ फें क-फें ककर बातें करने लगता और खिंड रों को घुमा-कफराकर हदखाने लगता था तो झगडू सा ु - जो चपराशसयों के िक्के खाने के डर से करीब न ीिं फटकत ेथे - तड़प-

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तड़पकर र जात ेथे। अतुः वे सदा इस शुभ अवसर की प्रतीक्षा करत ेर त ेथे,

जब सुक्खू पर अपने िन द्वारा प्रभुत्व जमा सकें ।

2

इस गााँव के जमीिंदार ठाकुर जीतनशसिं थे, ष्जनकी बेगार के मारे गााँववालों का नाकों दम था। उस साल जब ष्जला मष्जस्रेट का दौरा और व य ााँ के पुरातन धचह्नों की सैर करने के शलए पिारे, तो सुक्खू चौिरी ने दबी जबान में अपने गााँववालों की दुुःख-क ानी उन् ें सुनाई। ाककमों से वातामलाप करने में उसे तननक भी भय न ोता था। सुक्खू चौिरी को खूब मालूम था कक जीतनशसिं से रार मचाना शसिं के मुाँ में शसर देना ै। ककिं तु जब गााँववाले क त े थे कक चौिरी तुम् ारी ऐसे-ऐसे ाककमों से शमताई ै और म लोगों को रात-हदन रोत ेकटता ै तो कफर तुम् ारी य शमत्रता ककस हदन काम आवेगी। परोपकाराय सताम ्ववभूतयुः। तब सुक्खू का शमजाज आसमान पर चढ जाता था। घड़ी भर के शलए व जीतनशसिं को भूल जाता था। मष्जस्रेट ने जीतनशसिं से इसका उत्तर मााँगा। उिर झगडू सा ु ने चौिरी के इस सा सपूणम स्वामीद्रो की ररपोटम जीतनशसिं को दी। ठाकुर सा ब जलकर आग ो गए। अपने काररिंदे से बकाया लगान की व ी मााँगी। सिंयोगवश चौिरी के ष्जम्मे इस साल का कुछ लगान बाकी था। कुछ तो पदैावार कम ुई; उस पर गिंगाजली का ब्या करना पड़ा। छोटी ब ू नथ की रट लगाए ुए थी; व बनवानी पड़ी। इस सब खचों ने ाथ बबलकुल खाली कर हदया था। लगान के शलए कुछ अधिक धचिंता न ीिं थी। व इस अशभमान में भूला ुआ था कक ष्जस जबान में ाककमों को प्रसन्न करने की शष्क्त ै, क्या व ठाकुर सा ब को अपना लक्ष्य न बना सकेगी। बूढे चौिरी इिर तो अपने गवम से ननष्श्चिंत थे और उिर उन पर बकाया लगान की वसूली की नाशलश ठुक गई। सम्मन आ प ुाँचा। दसूरे पेशी की तारीख पड़ गई। चौिरी को अपना जाद ूचलाने का अवसर न शमला।

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ष्जन लोगों के बढावे में आकर सुक्खू ने ठाकुर से छेड़छाड़ की थी, उनका दशमन शमलना दलुमभ ो गया। ठाकुर सा ब के स ने और प्यादे गााँव में चील की तर माँडराने लगे। उनके भय से ककसी को चौिरी को परछाई काटने का सा स न ोता था। कच री व ााँ से तीन मील पर थी। बरसात के हदन थे, रास्त ेमें ठौर-ठौर पानी, उमड़ी ुई नहदयााँ, रास्ता कच्चा, बैलगाड़ी का ननबा न ीिं, पैरो में बल न ीिं, अतुः अदमपैरवी में मुकदमा एकतरफा फैसला ो गया।

3

कुकी का नोहटस प ुाँचा तो चौिरी के ाथ-पााँव फूल गए। सारी चतुराई भूल गए। चुपचाप अपनी खाट पर पड़ा-पड़ा नदी की ओर ताकता और अपने मन में क ता, क्या मेरे जीत ेजी घर शमट्टी में शमल जाएगा। मेरे इन बैलों की सुिंदर जोड़ी के गले में आ ! क्या दसूरों का जुआ पड़गेा? य सोचत-ेसोचत े उसकी आाँखें भर आती। वे बैलों से शलपटकर रोने लगा, परिंतु बैलों की आाँखों में क्यों आाँसू जारी थे? वे नााँद में मुाँ क्यों न ीिं डालत ेथे? क्या उनके हृदय पर भी अपने स्वामी के दुुःख की चोट प ुाँच र ी थी।

कफर व अपने झोपड़ े को ववकल नयनों से नन ार कर देखता। और मन में सोचता, क्या मको इस घर से ननकलना पड़गेा? य पूवमजों की ननशानी क्या मारे जीत ेजी नछन जाएगी?

कुछ लोग परीक्षा में दृढ र त े ै और कुछ लोग इसकी ल्की आाँच भी न ीिं स सकत।े चौिरी अपनी खाट पर उदास पड़ ेघिंटों कुलदेव म ावीर और म ादेव को मनया करता और उसका गुण गाया करता। उसकी धचिंतादग्ि आत्मा को और कोई स ारा न था।

इसमें कोई सिंदे न था कक चौिरी की तीनों ब ूओिं के पास ग ने थे, पर स्त्री का ग ना ऊख का रस ै, जो पेरने ी से ननकलता ै। चौिरी जानत का ओछा पर

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स्वभाव का ऊाँ चा था। उसे ऐसी नीच बात ब ुओिं से क त े सिंकोच ोता था। कदाधचत य नीच ववचार उसके हृदय में उत्पन्न ी न ीिं ुआ था, ककिं तु तीनों बेटे यहद जरा भी बुवद्ध से काम लेत े तो बूढे को देवताओिं की शरण लेने की आवश्यकता न ोती। परिंतु य ााँ तो बात ी ननराली थी। बड़ ेलड़के को घाट के काम से फुरसत न थी। बाकी दो लड़के इस जहटल प्रश्न की ववधचत्र रप से ल करने के मिंसूबे बााँि र े थे।

माँझले झीिंगुर ने मुाँ बनाकर क ा - ऊाँ ! इस गााँव में क्या िरा ै। ज ााँ भी कमाऊाँ गा, व ी खाऊाँ गा पर जीतनशसिं की मूाँछें एक-एक करके चुन लूाँगा।

छोटे फक्कड़ ऐिंठकर बोले - मूाँछे तुम चुन लेना! नाक मैं उड़ा दूाँगा! नकटा बना घूमेगा।

इस बात पर दोनों खूब ाँसे और मछली मारने लगे।

इस गााँव में एक बूढे ब्राह्मण भी र त े थे। मिंहदर में पूजा करत ेऔर ननत्य अपने यजमानों को दशमन देने नदी पार जाते, पर खेवे के पैसे न देते। तीसरे हदन व जमीिंदार के गुप्तचरों से आाँख बचाकर सुक्खू के पास आए और स ानुभूनत के स्वर में बोले - चौिरी! कल ी तक शमयाद ै और तुम अभी तक पड़े-पड़ ेसो र े ो। क्यों न ीिं घर की चीज ढूाँढ-ढााँढ कर ककसी और जग भेज देते? न ो समधियाने पठवा दो। जो कुछ बच र े, व ी स ी। घर की शमट्टी खोदकर थोड़ े ी कोई ले जाएगा।

चौिरी लेटा था, उठ बैठा और आकाश की ओर नन ार कर बोला - जो कुछ उसकी इच्छा ै, व ोगा। मुझसे य जाल न ोगा।

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इिर कई हदन की ननरिंतर भष्क्त और उपासना के कारण चौिरी का मन शुद्ध और पववत्र ो गया था। उसे छल-प्रपिंच से घणृा ो गई थी। पिंडडत जी जो इस काम में शसद्ध स्त थे, लष्ज्जत ो गए।

परिंतु चौिरी के घर के अन्य लोगों को ईश्वरेच्छा पर इतना भरोसा न था। िीरे-िीरे घर के वतमन-भााँड़ े खखसकाए जात े थे। अनाज का एक दाना भी घर में न र ने पाया। रात को नाव लदी ुई जाती थी और उिर से खाली लौटती थी। तीन हदन तक घर में चूल् ा न जला। बूढे चौिरी के मुाँ में अन्न की कौन क े पानी का एक बूाँद भी न पड़ा। ष्स्त्रयााँ भाड़ से चने भुनाकर चबाती, और लड़के मछशलयााँ भून-भूनकर उड़ात।े परिंतु बूढे की इस एकादशी में यहद कोई शरीक था तो व उसकी बेटी गिंगाजली थी। व बेचारी अपने बूढे बाप को चारपाई पर ननजमल छटपटात ेदेख बबलख-बबलखकर रोती।

लड़कों को अपने माता-वपता से व पे्रम न ीिं ोता जो लड़ककयों को ोता ै। गिंगाजली इस सोच-ववचार में मग्न र ती थी कक दादा की ककस भााँनत स ायता कराँ । यहद म सब भाई-ब न शमलकर जीतनशसिं के पास जाकर दया-शभक्षा की प्राथमना करें तो वे अवश्य मान जाएाँगे; पर दादा को कब य स्वीकार ोगा। व यहद एक हदन बड़ ेसा ब के पास चले जाएाँ तो सब कुछ बात की बात में बन जाए। ककिं तु उनकी तो जैसे बुवद्ध ी मारी गई ै। इसी उिेड़बुन में उसे एक उपाय सूझ पड़ा, कुम् लाया ुआ मुखारवव िंद खखल उठा।

पुजारी जी सुक्खू चौिरी के पास से उठकर चले गए थे और चौिरी उच्च स्वर में अपने सोए ुए देवताओिं को पुकार-पुकारकर बुला र े थे। ननदान गिंगाजली उनके पास जाकर खड़ी ो गई। चौिरी ने उसे देखकर ववष्स्मत स्वर में पूछा - क्यों बेटी? इतनी रात गए क्यों बा र आई?

गिंगाजली ने क ा - बा र र ना तो भाग्य में शलखा ै, घर में कैसे र ूाँ।

सुक्खू ने जोर से ााँक लगाई, क ााँ गए तुम कृष्णमुरारी, मेरे दुुःख रो।

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गिंगाजली खड़ी थी, बैठ गई और िीरे से बोली - भजन गात ेतो आज तीन हदन ो गए। घर बचाने का भी कुछ उपाय सोचा कक इसे यों ी शमट्टी में शमला दोगे?

म लोगों को क्या पेड़ तले रखोगे?

चौिरी ने व्यधथत स्वर से क ा - बेटी, मुझ ेतो कोई उपाय न ीिं सूझता। भगवान जो चा ेगें , ोगा। वेग चलो, धगरिर गोपाल, का े ववलिंब करो।

गिंगाजली ने क ा - मैंने एक उपाय सोचा ै, क ो तो क ूाँ।

चौिरी उठकर बैठ गए और पूछा - कौन उपाय ै बेटी?

गिंगाजली ने क ा - मेरे ग ने झगडू सा ु के य ााँ धगरों रख दो। मैंने जोड़ शलया ै। देने भर के रुपए ो जाएाँगे।

चौिरी ने ठिंडी सााँस लेकर क ा - बेटी! तुमको मुझसे य बात क त ेलाज न ीिं आती। वेद-शास्त्र में मुझ े तुम् ारे गााँव के कुएाँ का पानी भी मना ै। तुम् ारी ड्योढी में भी पैर रखना ननषेि ै। क्या तुम मुझ ेनरक में ढकेलना चा ती ो?

गिंगाजली उत्तर के शलए प ले ी से तैयार थी। बोली - मैं अपने ग ने तुम् ें हदए थोड़ े ी देती ूाँ। इस समय लेकर काम चलाओ, चैत में छुड़ा देना।

चौिरी ने कड़क कर क ा - य मुझसे न ोगा।

गिंगाजली उत्तषे्जत ोकर बोली - तुमसे य न ोगा तो मैं आप ी जाऊाँ गी, मुझसे घर की ददुमशा न ीिं देखी जाती।

चौिरी ने झुाँझलाकर क ा - बबरादरी में कौन मुाँ हदखाऊाँ गा?

गिंगाजली ने धचढकर क ा - बबरादरी में कौन हढिंढोरा पीटने जाता ै।

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चौिरी ने अपना फैसला सुनाया - जग ाँसाई के शलए मैं अपना िमम न बबगाडूाँगा।

गिंगाजली बबगड़कर बोली - मेरी बात न ीिं मानोगे तो तुम् ारे ऊपर मेरी त्या पड़गेी। मैं आज ी इस बेतवा नदी में कूद पडूाँगी। तुमसे चा े घर में आग लगत ेदेखा जाए, पर मुझसे तो न देखा जाएगा।

चौिरी ने ठिंडी सााँस लेकर कातर स्वर में क ा - बेटी, मेरा िमम नाश मत करो। यहद ऐसा ी ै तो अपनी ककसी भावज के ग ने मााँगकर लाओ।

गिंगाजली ने गिंभीर स्वर से क ा - भावजों से कौन अपना मुाँ नोचवाने जाएगा। उनको कफकर ोती तो क्या मुाँ में द ी जमा था, क ती न ीिं।

चौिरी ननरुत्तर ो गए। गिंगाजली घर में जाकर ग नों की वपटारी लाई और एक-एक करके सब ग ने चौिरी के अाँगोछे में बााँि हदए। चौिरी ने आाँखों में आाँसू भर कर क ा - ाय राम, इस शरीर की क्या गनत शलखी ै! य क कर उठे। ब ुत सम् ालने पर भी आाँखों में आाँसू न नछपे।

4

रात का समय था। बेतवा नदी के ककनारे-ककनारे मागम को छोड़कर सुक्खू चौिरी ग नों की गठरी कााँख में दबाए इस तर चुपके-चुपके चल र े थे मानो पाप की गठरी शलये जात े ै। जब व झगडू सा ु के मकान के पास प ुाँच ेतो ठ र गए,

आाँखें खूब साफ की, ष्जसमें ककसी को य न बोि ै कक चौिरी रोता था।

झगडू सा ु िागे की कमानी की एक मोटी ऐनक लगाए ब ीखाता फैलाए ुक्का पी र े थे, और दीपक के िुाँिले प्रकाश में उन अक्षरों को पढने की व्यथम चषे्ठा में लगे ुए थे ष्जनमें स्या ी की ककफायत की गई थी। बार-बार ऐनक साफ

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करत ेऔर आाँख मलत,े पर धचराग की बत्ती उकसाना या दो री बत्ती लगाना शायद इसशलए उधचत न ीिं समझत ेथे कक तले का अपव्यय ोगा। इसी समय सुक्खू चौिरी ने आकर क ा - जै राम जी।

झगडू सा ु ने देखा। प चान कर बोले - जय राम चौिरी! क ो मुकदमे में क्या ुआ? य लेन-देन बड़ ेझिंझट का काम ै। हदन भर शसर उठाने की छुट्टी न ीिं शमलती।

चौिरी ने अपनी पोटली को खूब साविानी से नछपाकर लापरवा ी के साथ क ा - अभी तक तो कुछ न ीिं ुआ। कल इजरायडडगरी ोनेवाली ै। ठाकुर सा ब ने न जाने कब का बैर ननकाला ै। मको दो-तीन हदन की भी मु लत ोती तो डडगरी न जारी ोने पाती। छोटे सा ब और बड़ ेसा ब दोनों मको अच्छी तर जानत े ै। अभी इसी साल मैंने उनसे नदी ककनारे घिंटों बातें की, ककिं तु एक तो बरसात के हदन, दसूरे एक हदन की भी मु ल्लत न ीिं, क्या करता। इस समय मुझ ेरुपयों की धचिंता ै।

झगडू सा ु ने ववष्स्मत ोकर पूछा - तुमको रुपयों की धचिंता! घर में भरा ै, व ककस हदन काम आवेगा। झगडू सा ु ने य व्यिंग्यबाण न ीिं छोड़ा था। वास्तव में उन् ें और सारे गााँव को ववश्वास था कक चौिरी के घर में लक्ष्मी म ारानी का अखिंड राज्य ै।

चौिरी का रिंग बदलने लगा। बोले - सा ु जी! रुपया ोता तो ककस बात की धचिंता थी? तुमसे कौन नछपाव ै। आज तीन हदन से घर में चूल् ा न ीिं जला, रोना-पीटना पड़ा ै। अब तो तुम् ारे बसाये बसूाँगा। ठाकुर सा ब ने तो उजाड़ने में कोई कसर न छोड़ी।

झगडू सा ु जीतनशसिं को खुश रखना जरर चा त ेथे, पर साथ ी चौिरी को भी नाखुश करना मिंजूर न था। यहद सूद-दर-सूद छोड़ कर मलू और ब्याज स ज वसूल ो जाए तो उन् ें चौिरी पर मुफ्त का ए सान लादने में कोई आपष्त्त न

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थी। यहद चौिरी के अफसरों की जान-प चान के कारण सा ु जी का टैक्स से गला छूट जाए, तो अनेकों उपाय करने - अल कारों की मुट्ठी गरम करने - पर भी ननत्य प्रनत उनके तोंद की तर बढता ी जा र ा था तो क्या पूछना! बोले - क्या क ें चौिरी जी, खचम के मारे आजकल म भी तबा ै। ल ने वसूल न ीिं ोत।े टैक्स का रुपया देने पड़ा। ाथ बबलकुल खाली ो गया। तुम् ें ककतना रुपया चाह ए?

चौिरी ने क ा - सौ रुपये तो डडगरी के ै। खचम-वचम शमलाकर दो सौ के लगभग समझो।

झगडू अब अपने दााँव खेलने लगे। पूछा - तुम् ारे लड़को ने तुम् ारी कुछ भी मदद न की। व सब भी तो कुछ न कुछ कमात े ी ैं।

सा ु जी का य ननशाना ठीक पड़ा - लड़कों ने लापरवा ी से चौिरी के मन में जो कुष्त्सत भाव भरे थे य सजीव ो गए। बोले - भाई, लड़के ककसी काम के ोत ेतो य हदन क्यों देखना पड़ता। उन् ें तो अपने भोग-ववलास से मतलब। घर-ग ृस्थी का बोझ तो मेरे शसर पर ै। मैं इसे जैसे चा ूाँ, साँभालूाँ उनके कुछ सरोकार न ीिं, मरत ेदम भी गला न ीिं छूटता। मराँ गा तो सब खाल में भसूा भरा कर रख छोड़गेे। 'ग ृ कारज नाना जिंजाला।'

झगडू ने तीसरा तीर मारा - क्या ब ुओिं से भी कुछ न बन पड़ा।

चौिरी ने उत्तर हदया - ब ू-बेटे सब अपनी-अपनी मौज में मस्त ै। मैं तीन हदन तक द्वार पर बबना अन्न-जल के पड़ा था, ककसी ने बात भी न ीिं पूछी। क ााँ की सला , क ााँ की बातचीत। ब ुओिं के पास रुपए न ों, पर ग ने तो ै और वे भी मेरे बनाए ुए। इस दहुदमन के समय यहद दो-दो थान उतार देती तो क्या मैं छुड़ा न देता? सदा य ी हदन थोड़ े ी र ेंगे।

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झगडू समझ गए कक य ल ज जबान का सौदा ै और व जबान का सौदा भूलकर भी न करत ेथे। बोले - तुम् ारे घर के लोग भी अनूठे ै। क्या इतना भी न ीिं जानत ेकक बूढा रुपए क ााँ से लावेगा? अब समय बदल गया। या तो कुछ जायदाद शलखो या ग ने धगरों रखो तब जाकर रुपया शमले। इसने बबना रुपए क ााँ। इसमें भी जायदाद में सकैड़ो बखेड़ े ै। सुभीता धगरों रखने में ी ै। ााँ, तो जब घरवालों को कोई इसकी कफक्र न ीिं तो तुम क्यों व्यथम जान देत े ो। य ी न ोगा कक लोग ाँसेगे सो य लाज क ााँ तक ननबा ोगे?

चौिरी ने अत्यिंत ववनीत ोकर क ा - सा ु जी, य लाज तो मारे डालती ै। तुमसे क्या नछपा ै। एक व हदन था कक मारे दादा-बाबा म ाराज की सवारी के साथ चलत ेथे अब एक हदन य कक घर-घर की दीवार तक बबकने की नौबत आ गई ै। क ीिं मुाँ हदखाने को भी जी न ीिं चा ता। य लो ग नों की पोटली। यहद लोकलाज न ोती तो इसे लेकर कभी य ााँ न आता, परिंतु य अिमम इसी लाज ननबा ने के कारण करना पड़ा ै।

झगडू ने आश्चयम में ोकर पूछा - य ग ने ककसके ै?

चौिरी ने शसर झुकाकर बड़ी कहठनता से क ा - मेरी बेटी गिंगाजली के।

झगडू सा ु स्तिंशभत ो गए। बोले - अरे! राम-राम।

चौिरी ने कातर स्वर में क ा - डूब मरने को जी चा ता ै।

झगडू ने बड़ी िाशममकता के साथ ष्स्थर ोकर क ा - शास्त्र में बेटी के गााँव का पेड़ देखना मना ै।

चौिरी ने दीिम ननुःश्वास छोड़कर करुण स्वर में क ा - न जाने नारायण कब मौत देंगे। भाई की तीन लड़ककयााँ ब्या ीिं। कभी भूल कर भी उनके द्वार का मुाँ

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न ीिं देखा। परमात्मा ने अब तक तो टेक ननबा ी ै, पर अब न जाने शमट्टी की क्या ददुमशा ोने वाली ै।

झगडू सा ु 'लेखा जौ-जौ बखशीश सौ-सौ' के शसद्धािंत पर चलत ेथे। सूद की एक कौड़ी भी छोड़ना उनके शलए राम था। यहद एक म ीने का एक हदन भी लग जाता तो पूरे म ीने का सूद वसूल कर लेत।े परिंतु नवरात्र में ननत्य दगुाम-पाठ करवात े थे। वपतपृक्ष में रोज ब्राह्मणों को सीिा बााँटत े थे। बननयों की िमम में बड़ी ननष्ठा ोता ै। यहद कोई दीन ब्राह्मण लड़की ब्या ने के शलए उनके सामने ाथ पसारता तो व खाली ाथ न लौटता, भीख मााँगने वाले ब्राह्मणों को चा े व ककतने ी सिंडे-मुसिंड े ों, उनके दरवाजे पर फटकार न ीिं सुननी पड़ती थी। उनके िमम-शास्त्र में कन्या के गााँव के कुएाँ का पानी पीने से प्यासों मर जाना अच्छा ै। व स्वयिं इस शसद्धािंत के भक्त थे और इस शसद्धािंत के अन्य पक्षपाती उनके शलए म ामान्य देवता थे। वे वपघल गए। मन में सोचा, मनुष्य तो कभी ओछे ववचारों को मन में न ीिं लाया। ननदमय काल की ठोकर से अिमम मागम पर उतर आया ै, तो उसके िमम की रक्षा करना मारा कतमव्य-िमम ै। य ववचार मन में आत े ी झगडू सा ु गद्दी से मनसद के स ारे उठ बैठे और दृढ स्वर से क ा - व ी परमात्मा ष्जसने अब तक तुम् ारी टेक ननबा ी ै, अब भी ननबा ेंगे। लड़की के ग ने लड़की को दे दो। लड़की जैसी तुम् ारी ै वैसी मेरी भी ै। य लो रुपए। आज काम चलाओ। जब ाथ में रुपए आ जाएाँ, दे देना।

चौिरी पर इस स ानुभूनत का ग रा असर पड़ा। व जोर-जोर से रोने लगा। उसे अपने भावों की िुन में कृष्ण भगवान की मोह नी मूनतम सामने ववराजमान हदखाई दी। व ी झगडू जो सारे गााँव में बदनाम था, ष्जसकी उसके खुद कई बार ाककमों से शशकायत की थी, आज साक्षात देवता जान पड़ता था। रुाँ िे ुए किं ठ से गद्गद ोकर बोला - झगडू, तुमने इस समय मेरी बात, मेरी लाज, मेरा िमम क ााँ तक क ूाँ मेरा सब कुछ रख शलया। मेरी डूबती नाव पार लगा दी। कृष्ण मुरारी तुम् ारे इस उपकार का फल देंगे और मैं तो तुम् ारा गुण जब तक जीऊाँ गा, गाता र ूाँगा।

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धर्म-संकट

'पुरुषों और ष्स्त्रयों में बड़ा अिंतर ै। तुम लोगों का हृदय शीशे की तर कठोर ोता ै और मारा हृदय नरम। व ववर की आाँच न ीिं स सकता।'

'शीशा ठेस लगत े ी टूट जाता ै। नरम वस्तुओिं में लचक ोती ै।'

'चलो बातें न बनाओ। हदन भर तुम् ारी रा देखूाँ, रात भर घड़ी की सुइयााँ। तब क ीिं आपके दशमन ोत े ै।'

'मैं तो सदैव तुम् ें हृदय-मिंहदर में नछपाए रखता ूाँ।'

'ठीक बतलाओ, कब आओगे?'

'ग्यार बजे, परिंतु वपछला दरवाजा खुला रखना।'

'उसे मेरे नयन समझो।'

'अच्छा तो अब ववदा।'

2

पिंडडत कैलाशनाथ लखनऊ के प्रनतष्ष्ठत बैररस्टरों में से थे। कई सभाओिं के मिंत्री, कई सशमनतयों के सभापनत, पत्रों में अच्छे लेख शलखते, प्लेटफामम पर सारगशभमत व्याख्यान देत।े प ले-प ल जब व यूरप से लौटे थे तो य उत्सा अपनी पूरी उमिंग में था, परिंतु ज्यों-ज्यों बैररस्टरी चमकने लगी, इस उत्सा में कमी आने लगी। और य ठीक भी था; क्योंकक अब बेकार न थे जो बेगार करत।े ााँ, कक्रकेट का शौक अब तक ज्यों का ज्यों बना था। व कैसर क्लब के सिंस्थापक और कक्रकेट के प्रशसद्ध खखलाड़ी थे।

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यहद शम. कैलाश को कक्रकेट की िुन थी तो उनकी ब न काशमनी को टेननस का शौक था। इन् ें ननत नवीन आमोद-प्रमोद की चा र ती थी। श र में क ीिं नाटक ो, कोई धथयेटर आवे, कोई सरकस, कोई बायसकोप ो काशमनी उसमें न सष्म्मशलत ो, य असम्भव बात थी। मनोववनोद की कोई सामग्री उसके शलए उतनी ी आवश्यक थी ष्जतनी वायु और प्रकाश।

शम. कैलाश पष्श्चमीय सभ्यता के प्रवा में ब नेवाले अपने अन्य स योधगयों की भााँनत ह िंद ूजानत, ह िंद ूसभ्यता, ह िंदी भाषा और ह िंदसु्तान के कट्टर ववरोिी थे। ह िंद ूसभ्यता उन् ें दोषपूणम हदखाई देती थी। अपने इन ववचारों को व ेअपने तक पररशमत न रखत ेथे, बष्ल्क बड़ी ी ओजष्स्वनी भाषा में इन ववचारों पर शलखत ेऔर बोलत ेथे। ह िंद ूसभ्यता के वववेकी भगत उनके इन वववेकशून्य ववचारों पर ाँसत ेथे; पर उप ास और ववरोिी तो सुिारक के पुरस्कार ैं! शम. कैलाश उनकी कुछ परवा न करत ेथे। वे कोरे वाक्यवीर ी न थे, कममवीर भी पूरे थे। काशमनी की स्वतिंत्रता उनके ववचारों का प्रत्क्षय स्वरप थी। सौभाग्यवश काशमनी के पनत गोपालनारायण भी इन् ीिं ववचारों में रिंगे ुए थे। वे साल भर से अमेररका में ववद्याध्ययन करत े थे। काशमनी, भाई और पनत के उपदेशों से पूरा-पूरा लाभ उठाने में कमी न करती थी।

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लखनऊ में अलफे्रड धथयेटर किं पनी आई ुई थी, श र में ज ााँ देखखए उसी के तमाशे की चचाम थी। काशमनी की रातें बड़ ेआनिंद से कटती थीिं। रात भर धथयेटर देखती। हदन को सोती और कुछ देर व ी धथयेटर के गीत अलापती। सौंदयम और प्रीनत के नव रमणीय सिंसार में रमण करती थी, ज ााँ का दुुःख और क्लेश भी सिंसार के सुख और आनिंद से बढकर मोददायी ै। य ााँ तक कक तीन म ीने बीत गए। प्रणय की ननत्य नई मनो र शशक्षा और पे्रम के आनिंदमय अलाप-ववलाप

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का हृदय पर कुछ न कुछ असर ोना चाह ए था सो भी इस बढती जवानी में। व असर ुआ। इसका श्रीगणेश उसी तर ुआ जैसा कक ब ुिा ुआ करता ै।

धथयेटर ॉल में एक सुघर सजीले युवक की आाँखें काशमनी की ओर उठने लगी। व रपवती और चिंचला थी, अतएव प ले उसे इस धचतवन में ककसी र स्य का ज्ञान न ुआ। नेत्रों का सुिंदरता से बड़ा घना सिंबिंि ै। घूरना पुरुषों का और लजाना ष्स्त्रयों का स्वभाव ै। कुछ हदनों के बाद काशमनी को इस धचतवन में कुछ गुप्त भाव झलकने लगे। मिंत्र अपना काम करने लगा। कफर नयनों में परस्पर बातें ोने लगीिं। नयन शमल गए। प्रीनत गाढी ो गई। काशमनी एक हदन के शलए भी यहद ककसी दसूरे उत्सव में चली जाती तो व ााँ उसका मन न लगता। जी उचटने लगता। आाँखें ककसी को ढूाँढा करतीिं।

अिंत में लज्जा का बााँि टूट गया। हृदय के ववचार स्वरपवान ुए। मौन का ताला टूटा। पे्रमालाप ोने लगा। पद्य के बाद गद्य की बारी आई और कफर दोनों शमलन-मिंहदर के द्वार पर आ प ुाँच।े इसके पश्चात जो कुछ ुआ, उसकी झलक म प ले ी देख चुके ै।

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इस नवयुवक का नाम रपचिंद था। पिंजाब का र ने वाला, सिंस्कृत का शास्त्री, ह िंदी साह त्य का पूणम पिंडडत, अिंगरेजी का एम. ए., लखनऊ के एक बड़ ेलो े का कारखाने का मैनेजर था। घर में रपवती स्त्री, दो प्यारे बच्च ेथे। अपने साधथयों में सदाचरण के शलए प्रशसद्ध था। न जवानी की उमिंग, न स्वभाव का नछछोरापन। घर ग ृस्थी में जकड़ा ुआ था। मालूम न ीिं व कौन-सा आकषमण था, ष्जसने इसे इस नतशलस्म में फाँ सा शलया, ज ााँ की भूशम, अष्ग्न और आकाश ज्वाला ै,

ज ााँ घणृा और पाप ै। औऱ अभागी काशमनी को क्या क ा जाए, ष्जसकी प्रीनत

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की बाढ ने वीरता और वववेक का बााँि तोड़ कर अपनी तरल तरिंग में नीनत और मयामदा की टूटी-फूटी झोंपड़ी को डूबो हदया। य पूवम जन्म के सिंस्कार थे।

रात के दस बज गए थे। काशमनी लैम्प के सामने बैठी ुई धचहट्ठयााँ शलख र ी थी। प ला पत्र रपचिंद के नाम था।

कैलाश भवन,

लखनऊ।

प्राणािार!

तुम् ारे पत्र को पढ कर प्राण ननकल गए। उफ! अभी एक म ीना लगेगा। इतने हदनों में कदाधचत तुम् ें मेरी राख भी न शमलेगी। तुमसे अपने दुुःख क्या रोऊाँ । बनावट के दोषारोपण से डरती ूाँ। जो कुछ बीत र ी ै, व मैं ी जानती ूाँ। लेककन बबना ववर -कथा सनुाए हदल की जलन कैसे जाएगी? य आग कैसे ठिंडी ोगी? अब मुझ ेमालूम ुआ कक यहद पे्रम द कती ुई आग ै तो ववयोग उसके शलए घतृ ै। धथयेटर अब भी जाती ूाँ, पर ववनोद के शलए न ीिं, रोने और बबसूरने के शलए। रोने में ी धचत्त को कुछ शािंनत शमलती ै। आाँस ूउमड़ ेचले आत े ै। मेरा जीवन शुष्क और नीरस ो गया ै। न ककसी से शमलने को जी चा ता ै,

न आमोद-प्रमोद में मन लगता ै। परसों डाक्टर केलकर का व्याख्यान था, भाई सा ब ने ब ुत आग्र ककया, पर मैं न जा सकी। प्यारे, मौत से प ले मत मारो। आनिंद के इन धगने-धगनाए क्षणों में ववयोग का दुुःख मत दो। आओ, यथासाध्य शीघ्र आओ, और गले से लग कर मेरे हृदय की ताप बुझाओ। अन्यथा आश्चयम न ीिं कक ववर का य अथा सागर मुझ ेननगल जाए।

तुम् ारी - काशमनी

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इसके बाद काशमनी ने दसूरा पत्र पनत को शलखा।

कैलाश भवन,

लखनऊ।

माई डडयर गोपाल!

अब तक तुम् ारे दो पत्र आए, परिंतु खेद ै कक मैं उनका उत्तर न दे सकी। दो सप्ता से शसर की पीड़ा से असह्य वेदना स र ी ूाँ। ककसी भााँनत धचत्त को शािंनत न ीिं शमलती; पर अब स्वस्थ ूाँ। कुछ धचिंता मत करना। तुमने जो नाटक भेजे, उनके शलए मैं ाहदमक िन्यवाद देती ूाँ। स्वस्थ ो जाने पर पढना आरिंभ कराँ गी। तुम व ााँ के मनो र दृश्यों का वणमन मत ककया करो। मुझ ेतुम से ईष्याम ोती ै। यहद मैं आग्र कराँ तो भाई सा ब व ााँ तक प ुाँचा तो देंगे, परिंतु इनके खचम इतने अधिक ै कक इनसे ननयशमत रप से सा ाव्य शमलना कहठन ै और इस समय तुम पर भार देना भी ठीक न ीिं ै। ईश्वर चा ेगा तो व हदन शीघ्र देखने में आवेगास दब मैं तुम् ारे साथ आनिंदपूवमक व ााँ की सैर कराँ गी। मैं इस समय तुम् ें कोई कष्ट न ीिं देना चा ती; पर अपनी आवश्यकताएाँ ककससे क ूाँ! मेरे पास अब कोई अच्छा गाउन न ीिं र ा। ककसी उत्सव में जात ेलजाती ूाँ। यहद तुमसे ो सके तो मेरे शलए एक अपने पसिंद का गाउन बनवा कर भेज दो। आवश्यकता तो और भी कई चीजों की ै, परिंतु इस समय तुम् ें अधिक कष्ट न ीिं देना चा ती। आशा ै, तुम सकुशल ोगे।

तुम् ारी- काशमनी

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लखनऊ के सेशन जज के इजलास में बड़ी भीड़ थी। अदालत के कमरे ठसाठस भर गए थे। नतल रखने की जग न थी। सबकी दृष्ष्ट बड़ी उत्सुकता के साथ जज के सम्मुख खड़ी एक सुिंदर लावण्यमयी मूनतम पर लगी ुई थी। य काशमनी थी। उसका मुाँ िूशमल ो र ा था। ललाट पर स्वदे-बब िंद ुझलक र े थे! कमरे में घोर ननुःस्तब्िता थी। केवल वकीलों की कानाफूसी और सैन कभी-कभी इस ननुःस्तब्िता को भिंग कर देती थी। अदालत का ाता आदशमयों से इस तर भर गया थी जान पड़ता था मानों सारा श र शसमट कर य ी आ गया ै। था भी ऐसा ी। श र की प्रायुः दकूानें बिंद थी और जो एक-आि खुली भी थीिं, उन पर लड़के बैठे ताश खेल र े थे। क्योंकक कोई ग्रा क न था। श र से कच री तक आदशमयों का तााँता लगा ुआ था। काशमनी को ननशमषमात्र देखने के शलए, उसके मुाँ से एक बात सुनने के शलए, इस समय प्रत्येक आदमी अपना सवमस्व ननछावर करने पर तैयार था। व े लोग जो कभी पिं. दातादयाल शमाम जैसे प्रभावशाली वक्ता की वक्ततृा सुनने के शलए घर से बा र न ीिं ननकले, वे ष्जन् ोंने नवजवान मनचले बेटों को अलफे्रड धथयेटर में जाने की आज्ञा न ीिं दी, वे एकािंतवप्रय ष्जन् ें वायसराय के शुभागम तक की खबर न ुई थी, शािंनत के उपासक जो मु रमम की च ल-प ल देखने को अपनी कुहटया से बा र न ननकलत े थे, वे सभी आज धगरते-पड़ते; उठते-बैठत े कच री की ओर दौड़ चले जा र े थे। बेचारी ष्स्त्रयााँ अपने भाग्य को कोसती ुई अपनी-अपनी अटाररयों पर चढ वववशतापूणम उत्सुक दृष्ष्ट से उस तरफ ताक र ी थी ष्जिर उनके ववचार में कच री थी। पर उनकी गरीब आाँखें ननदमय अट्टाशलकाओिं की दीवारों से टकरा कर लौट आती थीिं। य सब इस शलए ो र ा था कक आज अदालत में एक बड़ा मनो र, अद्भुत अशभनय ोने वाला था, ष्जस पर अलफे्रड धथयेटर के जारों अशभनय बशलदान थे। आज एक गुप्त र स्य खुलने वाला था, जो अाँिेरे में राई ै पर प्रकाश में पवमताकार ो जाता ै। इस घटना के सिंबिंि में लोग टीका-हटप्पणी कर र े थे। कोई क ता था, य असिंभव ै कक रपचिंद जैसा शशक्षक्षत व्यष्क्त ऐसा दवूषत काम करे। पुशलस का बयान ै तो ुआ करे। गवा पुशलस के बयान का समथमन करत े ैं तो ककया करें। पुशलस का अत्याचार ै, अन्याय ै; कोई क ता था, भाई सत्य तो य ै कक य रप-लावण्य, य 'खिंजन गिंजन नयन' और य हृदय- ाररणी सुिंदर सलोनी

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छवव जो कुछ न करे व थोड़ा ै। श्रोता इन बातों को बड़ ेचाव से इस तर आश्चयमष्न्वत ो मुाँ बा कर सुनत ेथे मानों देववाणी ो र ी ै। सब की जीभ पर य ी चचाम थी। खूब नमक-शमरच लपेटा जाता था। परिंतु इसमें स ानुभूनत या समवेदना के शलए जरा भी स्थान न था।

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पिंडडत कैलाशनाथ का बयान खत्म ो गया। और काशमनी इजलास पर पिारी। इसका बयान ब ुत सिंक्षक्षप्त था, मैं अपने कमरे में रात को सो र ी थी। कोई एक बजे के करीब चोर-चोर का ल्ला सुन कर मैं चौंक पड़ी और अपनी चारपाई के पास चार आदशमयों को ाथापाई करत ेदेखा। मेरे भाई सा ब अपने दो चौकीदारों के साथ अशभयुक्त को पकड़ते थे और व जान छुड़ा कर भागना चा ता था। मैं शीघ्रता से उठ कर बरामदे में ननकल आई। इसके बाद मैंने चौकादारों को अपरािी के साथ पुशलस स्टेशन की ओर जात ेदेखा।

रपचिंद ने काशमनी का बयान सुना और एक ठिंडी सााँस ली। नेत्रों के आगे से परदा ट गया। काशमनी, तू ऐसी कृतध्न, ऐसी वपशाधचनी, ऐशी दरुात्मा ै। क्या तरेी व प्रीनत, व ववर -वेदना, व पे्रमाद्गार, सब िोखे की टट्टी थी? तूने ककतनी बार क ा ै कक ढृढता पे्रम मिंहदर की प ली सीढी ै। तूने ककतनी बार नयनों में आाँसू भर कर इस गोद में मुाँ नछपा कर मुझसे क ा ै कक मैं तुम् ारी ो गई। मेरी लाज अब तुम् ारे ाथ ै। परिंतु ाय! आज पे्रम-परीक्षा के समय तरेी व सब बातें खोटी उतरीिं। आ ! तूने दगा हदया और मेरा जीवन शमट्टी में शमला हदया।

रपचिंद ववचार-तरिंगों में ननमग्न था। उसके वकील ने काशमनी से ष्जर करना प्रारम्भ ककया।

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वकील - क्या तुम सत्यननष्ठा के साथ क सकती ो कक रपचिंद तुम् ारे मकान पर अकसर न ीिं जाया करता था!

काशमनी - मैंने कभी उसे अपने घर पर न ीिं देखा।

वकील - क्या तुम शपथ-पूवमक क सकती ो कक तुम उसके साथ कभी धथयेटर देखने न ीिं गई?

काशमनी - मैंने उसे कभी न ीिं देखा।

वकील - क्या तुम शपथ लेकर क सकती ो कक तुमने उसे पे्रम-पत्र न ीिं शलखे?

शशकारी के चिंगुल में फाँ से ुए पक्षी की तर पत्र का नाम सुनत े ी काशमनी के ोश- वास उड़ गए, ाथ-पैर फूल गए। मुाँ न खुल सका। जज ने, वकील ने और दो स स्र आाँखों ने उसकी तरफ उत्सुकता से देखा।

रपचिंद का मुाँ खखल गया। उसके हृदय में आशा का उदय ुआ। ज ााँ फूल था व ााँ कााँटा पैदा ुआ। मन में क ने लगा, कुलटा काशमनी! अपने सुख और अपने कपट मान-प्रनतष्ठा पर मेरे और मेरे पररवार का त्या करने वाली काशमनी!! तू अब भी मेरे ाथ में ै। मैं अब भी तुझ ेइस कृतध्नता और कपट का दिंड दे सकता ूाँ। तरेे पत्र ष्जन् ें तूने हृदय से शलखा ै या न ीिं, मालूम न ीिं, परिंतु जो मेरे हृदय के ताप को शीतल करने के शलए मोह नी मिंत्र थे, व सब मेरे पास ै। और व इसी समय तरेा सब भेद खोलेंगे। इस क्रोि से उन्मत्त ो कर रपचिंद ने अपने कोट के पाकेट में ाथ डाला! जज ने, वकीलों ने, और दो स स्र नेत्रों ने उसकी तरफ चातक की भााँनत देखा।

तब काशमनी की ववकल आाँखें चारों ओर से ताश ो कर रपचिंद की ओर प ुाँची। उनमें इस समय लज्जा थी; दया-शभक्षा की प्राथमना थी और व्याकुलता थी,

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व मन ी मन क ती थी, मैं स्त्री ूाँ, अबला ूाँ, ओछी ूाँ। तुम पुरुष ो, बलवान ो, सा सी ो; य तुम् ारे स्वभाव के ववपरीत ै। मैं कभी तुम् ारी थी और यद्यवप समझ मुझ े तुमसे अलग ककए देती ै ककिं तु मेरी लाज तुम् ारे ाथ में ै। तुम मेरी रक्षा करो। आाँख शमलत े ी रपचिंद उसके मन की बात ताड़ गए। उनके नेत्रों ने उत्तर हदया - यहद तुम् ारी लाज मेरे ाथों में ै तो इस पर कोई आाँच न ीिं आने पावेगी। तुम् ारी लाज पर आज मेरा सवमस्व ननछावर ै।

अशभयुक्त के वकील ने काशमनी से पुनुः व ी प्रश्न ककया - क्या तुम शपथपूवमक क सकती ो कक तुम रपचिंद को पे्रम-पत्र न ीिं शलखी?

काशमनी ने कातर स्वर में उत्तर हदया - मैं शपथपूवमक क ती ूाँ मैंने कभी कोई पत्र न ीिं शलखा और अदालत से अपील करती ूाँ कक व मुझ े इन घणृास्पद अश्लील आक्रमणों से बचावे।

अशभयोग की कायमवाई समाप्त ो गई। अब अपरािी के बयान की बारी आई। इसकी तरफ से कोई गवा न थी। परिंतु वकीलों को, जज को और अिीर जनता को पूरा-पूरा ववश्वास था कक अशभयुक्त का बयान पुशलस के मायावी म ल को क्षणमात्र में नछन्न-शभन्न कर देगा। रपचिंद इजलास के सम्मुख आया। उसके मुखारवव िंद पर आत्म-बल का तजे झलक र ा था और नेत्रों में सा स और शािंनत। दशमक-मिंडली उतावली ो कर अदालत के कमरे में घुस पड़ी। रपचिंद इस समय का चााँद था या देवलोक का दतू, स स्रों नयन उसकी ओर लगे ुए थे। ककिं तु हृदय को ककतना कौतू ल ुआ जब रपचिंद ने अत्यिंत शािंतधचत्त से अपना अपराि स्वीकार कर शलया! लोग एक दसूरे का मुाँ ताकने लगे।

अशभयुक्त का बयान समाप्त ोत े ी कोला ल मच गया। सभी इसकी आलोचना-प्रत्यालोचना करने लगे। सबके मुाँ पर आश्चयम था, सिंदे था, और ननराशा थी। काशमनी की कृतघ्नता और ननष्ठुरता पर धिक्कार ो र ी थी। प्रत्येक मनुष्य शपथ खाने पर तैयार था कक रपचिंद सवमथा ननदोष ै। पे्रम ने उसके मुाँ पर ताला लगा हदया ै। पर कुछ ऐसे भी दसूरे के दुुःख में प्रसन्न

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ोने वाले स्वभाव के लोग थे जो उसके इस सा स पर ाँसत ेऔर मजाक उड़ाते थे।

दो घिंटे बीत गए। अदालत में पुनुः एक बार शािंनत का राज्य ुआ। जज सा ब फैसला सुनाने के शलए खड़ े ुए। फैसला ब ुत सिंक्षक्षप्त था। अशभयुक्त जवान ै,

शशक्षक्षत ै और सभ्य ै। अतएव आाँखों वाला अिंिा ै। उसे शशक्षाप्रद दिंड देना आवश्यक ै। अपराि स्वीकार करने से उसका दिंड कम न ीिं ोता ै। अतुः मैं उसे पााँच वषम के सपररश्रम कारावास की सजा देता ूाँ।

दो जार मनुष्य ने हृदय थाम कर फैसला सुना। मालूम ोता था कक कलेजे में भाले चुभ गए ैं! सभी का मुाँ ननराशाजनक क्रोि से रक्त-वणम ो र ा था। य अन्याय ै, कठोरता और बेर मी ै। परिंतु रपचिंद के मुाँ पर शािंनत ववराज र ी थी।

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सेवा-र्ागम

तारा ने बार वषम तक दगुाम की तपस्या की। न पलिंग पर सोई, न केशों को साँवारा और न नेत्रों में सुमाम लगाया। पथृ्वी पर सोती, गेरआ वस्त्र प नती और रखी रोहटयााँ खाती, उसका मखु मुरझाई कली की भााँनत थी, नेत्र ज्योनत ीन और हृदय एक शून्य बी ड़ मैदान। उसे केवल य ी लौ लगी थी कक दगुाम के दशमन पाऊाँ । शरीर मोमबत्ती की तर घुलता था। पर, य लौ हदल से न जाती थी। य ी उसकी इच्छा थी, य ी उसका जीवनोद्देश। घर के लोग उसे पागल क त।े माता समझाती - बेटी, तुझे क्या ो गया ै? क्या तू सारा जीवन रो-रोकर काटेगी? इस समय के देवता पत्थर के ोत े ै। पत्थर को भी कभी ककसी ने वपघलत ेदेखा ै? देख तरेी सखखयााँ पुष्प की भााँनत ववकशसत ो र ी ै, नदी की तर बढ र ी ैं; क्या तुझ ेमुझ पर दया न ीिं आती? तारा क ती - माता, अब तो जो लगन लगी, व लगी। या तो देवी के दशमन पाऊाँ गी, या य ी इच्छा शलये ुए सिंसार से पलान कर जाऊाँ गी। तुम समझ लो मैं मर गई।

इस प्रकार पूरे बार वषम व्यतीत ो गए और तब देवी प्रसन्न ई। राबत्र का समय था। चारों ओर सन्नाटा छाया ुआ था। मिंहदर में एक िुाँिला-सी घी का दीपक जल र ा था। तारा दगुाम के पैरों पर माथा नवाए सच्ची भष्क्त का पररचय दे र ी थी। यकायक उस पाषणमूनतम देवी के तन में स्फूनतम प्रकट ुई। तारा के रोंगटे खड़ े ो गए। य िुाँिला दीपक देदीप्यमान ो गया, मिंहदर में धचत्ताकषमक सुगिंि फैल गई और वायु में सजीवता प्रतीत ोने लगी। देवी का उज्जवल रप पूणम चिंद्रमा की भााँनत चमकने लगा। ज्योनत ीन नेत्र जगमगा उठे। ोंठ खुल गए। आवाज आई - तारा, मैं तुझसे प्रसन्न ूाँ, मााँग, क्या वर मााँगती ै?

तारा खड़ी ो गई। उसका शरीर इस भााँनत कााँप र ा था जैसे प्रातुःकाल के समय किं वपत स्वर में ककसी कृषक के गाने की ध्वनन। उसे मालूम ो र ा था मानों व वायु में उड़ी जा र ी ै! उसे अपने हृदय में उच्च ववचार पूणम प्रकाश का आभास ो र ा था। उसने दोनों ाथ जोड़कर भष्क्त-भाव से क ा, भगवती, तुमने मेरी

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बार वषम की तपस्या पूरी की; ककस मुख से तुम् ारा गुणानुवाद गाऊाँ । मुझ ेसिंसार की वे अलभ्य वस्तुएाँ प्रदान ों जो इच्छाओिं की सीमा और मेरी अशभलाषाओिं का अिंत ै। मैं व ऐश्वयम चा ती ूाँ जो सूयम को भी मात कर दे।

देवी ने मुस्कराकर क ा - स्वीकृत ै।

तारा - व िन जो कालचक्र को भी लष्ज्जत करे।

देवी ने मुस्कराकर क ा - स्वीकृत ै।

तारा - व सौंदयम जा अद्ववतीय ो।

देवी ने मुस्कराकर क ा - य भी स्वीकृत ै।

2

तारा कुाँ वरर ने शेष राबत्र जाग कर व्यतीत की। प्रभात काल के समय उसकी आाँखें, क्षण भर के शलए, झपक गई। जागी तो देखा कक मैं शसर से पााँव तक ीरे व जवाह रों से लदी ूाँ। उसके ववशाल भवन के कलश आकाश से बातें कर र े थे - सारा भवन सिंगमरमर से बना ुआ, अमूल्य पत्थरों से जड़ा ुआ। द्वार पर नौबत बज र ी थी। उसके आनिंददायक सु ावने शब्द आकाश में गूाँज र े थे। द्वार तक मीलों तक ररयाली छाई थी। दाशसयााँ स्वणामभूषणम से लदी ुई, सुन रे कपड़ ेप ने ुए चारों ओर दौड़ती थीिं। तारा को देखत े ी वे स्वगम के लोटे और कटोरे लेकर दौड़ी। तारा ने देखा कक मेरा पलिंग ाथी-दााँत का ै। भूशम पर बड़ ेकोमल बबछौने बबछे ुए ै। शसर ाने की ओर एक बड़ा सुिंदर ऊाँ चा शीशा रखा ुआ ै। तारा ने उसमें अपना रप देखा, चककत र गई। उसका सुिंदर रप चिंद्रमा को भी लष्ज्जत करता था। दीवार पर अनेकानेक सुप्रशसद्ध धचत्रकारों के मनमो क धचत्र टिंगे थे। पर, ये सब के सब तारा की सुिंदरता के आगे तुच्छ थे। तारा को अपनी सुिंदरता का गवम ुआ। व कई दाशसयों को लेकर वाहटका में गई। व ााँ की

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छटा देखकर व मुग्ि ो गई। वायु में गुलाब और केसर घुले ुए थे, रिंग-बबरिंग के पुष्प, वायु के मिंद-मिंद झोंकों से, मतवालों की तर झूम र े थे। तारा ने एक गुलाब का फूल तोड़ शलया और उसके रिंग और कोमलता की अपने अिर-पल्लव से समानता करने लगी। गुलाब में व कोमलता न थी। वाहटका के मध्य में एक बबल्लौर जहटत ौज था। इससे िंस और बत्तख ककलोंल कर र े थे। यकायक तारा को ध्यान आया, मेरे घर के लोग क ााँ ै। दाशसयों से पूछा। उन् ोंने क ा - श्रीमती, वे लोग पुराने घर में ैं। तारा ने अपनी अटारी पर जाकर देखा। उसे अपना प ला घर एक सािारण झोपड़ ेकी तर दृष्ष्टगोचर ुआ। उसकी ब नें उसकी सािारण दाशसयों के समान भी न थीिं। मााँ को देखा, व आाँगन में बैठी चरखा कात र ी थी। तारा प ले सोचा करती थी कक जब मेरे हदन चमकें गे तब मैं इन लोगों को भी अपने साथ रखूाँगी और उनकी भली-भााँनत सेवा कराँ गी। पर इस समय िन के गवम ने उसकी पववत्र ाहदमक इच्छा को ननबमल बना हदया था। उसने घरवालों को स्ने -रह त दृष्ष्ट से देखा और तब व उस मनो र गान को सुनने चली गई ष्जसकी प्रनतध्वनन उसके कानों में आ र ी थी।

एकबारगी जोर से िड़ाका ुआ; बबजली चमकी और बबजली की छटाओिं में से एक ज्योनतस्वरप नवयुवक ननकलकर तारा के सामने नम्रता से खड़ा ो गया। तारा ने पूछा - तुम कौन ो? नवयुवक ने क ा - श्रीमती मुझ े ववद्युत शसिं क त े ै। मैं श्रीमती का आज्ञाकारी सेवक ूाँ।

उसके ववदा ोत े ी वायु के उष्ण झोंके चलने लगे। आकाश में एक प्रकाश दृष्ष्टगोचर ुआ। व क्षणमात्र में उतर कर तारा कुाँ वरर के समीप ठ र गया। उसमें से एक ज्वालामुखी मनुष्य ने ननकल कर तारा के पदों को चूमा। तारा ने पूछा - तुम कौन ो? उत्तर हदया - श्रीमती, मेरा नाम अष्ग्नशसिं ै। मैं श्रीमनत का आज्ञाकारी सेवक ूाँ।

व अभी जाने भी न पाया था कक एकबारगी सारा म ल ज्योनत से प्रकाशमान ो गया। जान पड़ता था, सैकड़ों बबजशलयााँ शमलकर चमक र ी ैं। वायु सेवक ो

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गई। एक जगमगाता ुआ शसिं ासन आकाश पर दीख पड़ा। व शीघ्रता से पथृ्वी की ओर चला और तारा कुाँ वरर के पास जाकर ठ र गया। उससे एक प्रकाशमय रप का बालक, ष्जसके रप से गिंभीरता प्रकट ोती थी, ननकलकर तारा के सामने शशष्ट भाव से खड़ा ो गया। तारा ने पूछा - तुम कौन ो? बालक ने उत्तर हदया - श्रीमती, मुझ ेशमस्टर रेडडयम क त े ै। मैं श्रीमती का आज्ञापालक ूाँ।

3

िनी लोग तारा के भय से थरामने लगे। उसके आश्चयमजनक सौंदयम ने सिंसार को चककत कर हदया। बड़-ेबड़ ेम ीपनत उसकी चौखट पर माथा रगड़ने लगे। ष्जसकी ओर उसकी कृपा-दृष्ष्ट ो जाती, व अपना अ ोभाग्य समझता - सदैव के शलए उसका बेदाम का गुलाम बन जाता।

एक हदन तारा अपनी आनिंदवाहटका में ट ल र ी थी। अचानक ककसी के गाने का मनो र शब्द सुनाई हदया। तारा ववक्षक्षप्त ो गई। उसके दरबार में सिंसार के अच्छे-अच्छे गवैये मौजूद थे, पर धचत्ताकषमकता, जो इन सुरों में थी, कभी अवगत न ुई थी। तारा ने गायक को बुला भेजा।

एक क्षण के अनिंतर वाहटका में एक सािु आया, शसर पर जटाएाँ, शरीर में भस्म रमाये। उसके साथ एक टूटा ुआ बीन था। उसी से व प्रभावशाली स्वर ननकालता जो हृदय के अनुरक्त स्वरों से क ीिं वप्रय था। सािु आकर ौज के ककनारे बैठ गया। उसने तारा के सामने शशष्ट-भाव न ीिं हदखाया। आश्चयम से इिर-उिर दृष्ष्ट न ीिं डाली। उस रमणीय स्थान पर व अपना सुर अलापने लगा। तारा का धचत्त ववचशलत ो उठा। हदल में अपार अनुराग का सिंचार ुआ। मदमत्त ोकर ट लने लगी। सािु के सुमनो र मिुर अलाप से पक्षी मग्न ो गए। पानी में ल रें उठने लगी। वकृ्ष झूमने लगे। तारा ने उन धचत्ताकषमण सुरों से एक धचत्र खखिंचत े ुए देखा। िीरे-िीरे धचत्र प्रकट ोने लगा। उसमें स्फूनतम आई। और तब व खड़ी ोकर नतृ्य करने लगी। तारा चौंक पड़ी। उसने देखा

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कक य मेरा ी धचत्र ै। न ीिं, मैं ी ूाँ। मैं ी बीन की तान पर नतृ्य कर र ी ूाँ। उसे आश्चयम ुआ कक मैं सिंसार की अलभ्य वस्तुओिं की रानी ूाँ अथवा एक स्वर धचत्र! व शसर िुनने लगी और मतवाली ोकर सािु के पैरों से जा लगी। उसकी दृष्ष्ट में आश्चयमजनक पररवतमन ो गया। सामने के फले-फूले वकृ्ष और तरिंगें मारता ुआ ौज, और मनो र कुिं ज सब लोप ो गए। केवल व ी सािु बैठा बीन बजा र ा था, और व स्वयिं उसकी तालों पर धथरक र ी थी। व सािु अब प्रकाशमय तारा और अलौककक सौंदयम की मूनतम बन गया था। जब मिुर अलाप बन्द ुआ तब तारा ोश में आई। उसका धचत्त ाथ से जा चुका था। व उस ववलक्ष्ण सािु के ाथों बबक चुकी थी।

तारा बोली - स्वामी जी! य म ल, य िन, य सुख और सौंदयम सब आपके चरण-कमल पर ननछावर ै। इस अाँिेरे म ल को अपने कोमल चरणों से प्रकाशमान कीष्जए।

सािु - सािुओिं को म ल और िन से क्या काम? मैं इस घर में न ीिं ठ र सकता।

तारा - सिंसार के सारे सुख आपके शलए उपष्स्थत ै।

सािु - मुझ ेसुखों की कामना न ीिं।

तारा - मैं आजीवन आपकी दासी र ूाँगी। य क कर तारा ने आईने में अपने अलौककक सौंदयम की छटा देखी और उसके नेत्रों में चिंचलता आ गई।

सािु - न ीिं तारा कुाँ वरर, मैं इस योग्य न ीिं ूाँ। य क कर सािु ने बीन उठाया और द्वार की ओर चला। तारा का गवम टूक-टूक ो गया। लज्जा से शसर झुक गया। व मूष्च्छमत ो कर भूशम पर धगर पड़ी। मन में सोचा, मैं िन में, ऐश्वयम में, सौंदयम में, जो अपनी समता न ीिं रखती, एक सािु की दृष्ष्ट में इतनी तुच्छ!!

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4

तारा को अब ककसी प्रकार का चैन न ीिं था। उसे अपना भवन, ऐश्वयम भयानक मालूम ोने लगा। बस, सािु का एक चिंद्रस्वरप उसकी आाँखों में नाच र ा था, और उसका स्वगीय गान कानों में गूाँज र ा था। उसने अपने गुप्तचरों को बुलाया और सािु का पता लगाने की आज्ञा दी। ब ुत छानबीन करने के पश्चात उसकी कुटी का पता लगा। तारा ननत्यप्रनत, वायुयान पर बैठकर सािु के पास जाती। कभी उस पर लाल, जवा र लुटाती, कभी रत्न और आभूषण की छटा हदखाती। पर, सािु इससे तननक भी ववचशलत न ुआ। तारा के मायाजाल का उस पर कुछ भी असर न ुआ।

तब, तारा कुाँ वरर कफर दगुाम के मिंहदर में गई और देवी के चरणों पर शसर रखकर बोली - माता, तुमने सिंसार के सारे सिंसार के सारे दलुमभ पदाथम प्रदान ककए। मैंने समझा था कक ऐश्वयम में सिंसार को दास बना लेने की शष्क्त ै। पर मुझ ेअब ज्ञान ुआ कक पे्रम का ऐश्वयम, सौंदयम और वैभव का कुछ भी अधिकार न ीिं। अब एक बार मुझ पर कफर व ी कृपादृष्ष्ट ो। कुछ ऐसा कीष्जए कक ष्जस ननष्ठुर के पे्रम में मैं मरी जा र ी ूाँ, उसे भी मुझ ेदेखे बबना चैन न आवे - उनकी आाँखों में भी नीिंद राम ो जाए, व भी मेरे पे्रम-मद में चूर ो जाए।

देवी के ोंठ खुले। व मुस्काराई, उसके अिर-पल्लव ववकशसत ुए। बोली सुनाई दी - तारा, मैं सिंसार के सारे पदाथम प्रदान कर सकती ूाँ, पर स्वगमसुख मेरी शष्क्त से बा र ै। 'पे्रम' स्वगमसुख का मूल ै।

तारा - माता, सिंसार के सारे ऐश्वयम मुझ ेजिंजाल जान पड़त े ै। बताइए, मैं अपने प्रीतम को कैसे पाऊाँ गी?

देवी - उसका एक ी मागम ै। पर ै व ब ुत कहठन। भला, तुम उस पर चल सकोगी?

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तारा - व ककतना ी कहठन ो, मैं उस मागम का अवलिंबन अवश्य कराँ गी।

देवी - अच्छा तो सुनो, व सेवा-मागम ै। सेवा करो, पे्रम सेवा ी से शमल सकता ै।

5

तारा ने अपने ब ुमूल्य आभूषणों और रिंगीन वस्त्रों को उतार हदया। दाशसयों से ववदा ुई। राजभवन त्याग हदया, अकेले, निंगे पैर सािु की कुटी में चली आई और सेवा-मागम का अवलिंबन ककया।

व कुछ रात र े उठती। कुटी में झाडू देती। सािु के शलए गिंगा से जल लाती। जिंगलों से पषु्प चुनती। सािु नीिंद में ोत ेतो व उन् ें पिंखा झलती। जिंगली फूल तोड़ लाती और केले के पत्तल बनाकर सािु के सम्मुख रखती। सािु नदी में स्नान करने जाया करत ेथे। तारा रास्त ेके किं कड़ चुनती। उसने कुटी के चारों ओर पुष्प लगाए। गिंगा से पानी लाकर सीिंचती। उन् ें रा-भरा देखकर प्रसन्न ोती। उसने मदार की रुई बटोरी, सािु के शलए नमम गद्दे तैयार ककए। अब और कोई कामना न थी। सेवा स्वयिं अपना पुरस्कार और फल थी।

तारा को कई-कई हदन उपवास करना पड़ता था। ाथों में गटे्ठ पड़ गए। पैर कााँटों से छलनी ो गए। िूप से कोमल गात मुरझा गया; पर उसके हृदय में अब स्वाथम और गवम का शासन न था। व ााँ अब पे्रम का राज था; व ााँ अब उसे सेवा का लगन थी - ष्जससे कलुषता ता जग नेत्रों से अमतृजल की वषाम ोती और दुुःख-ववलाप की जग आनिंद के राग ननकलत े ैं, ज ााँ पत्थर रुई से ज्यादा कोमल ैं और शीतल वायु से भी मनो र। तारा भूल गई कक मैं सौंदयम में अद्ववतीय ूाँ। िन-ववलाशसनी तारा अब केवल पे्रम की दासी थी।

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सािु को वन के खगों और मगृों से पे्रम था। व ेकुटी के पास एकबत्रत ो जात।े तारा उन् ें पानी वपलाती, दाने चुगाती, गोद लेकर उनका दलुार करती। ववषिर सााँप और भयानक जिंतु उसके पे्रम के प्रभाव से उसके सेवक ो गए।

ब ुिा रोगी मनुष्य सािु के पास आशीवामद लेने आत ेथे। तारा रोधगयों की सेवा-शुशू्रषा करती, जिंगल से जड़ी-बहूटयााँ ढूाँढ लाती । उनके शलए औषधि बनाती, उनके घाव िोती, घावों पर मर म रखती, रात भर बैठी उन् ें पिंखा झलती। सािु के आशीवामद को उसकी सेवा प्रभावयुक्त बना देती थी।

इस प्रकार ककतने ी वषम बीत गए। गमी के हदन थे, पथृ्वी तवे की तर जल र ी थी। रे-भरे वकृ्ष सूखे जात ेथे। गिंगा गमी से शसमट गई थी। तारा को पानी लेने के शलए ब ुत दरू रेत में चलना पड़ता। उसका कोमल अिंग चूर-चूर ो जाता। जलती ुई रेत में तलवे भुन जात।े इसी दशा में एक हदन व ताश ोकर एक वकृ्ष के नीच ेक्षण भर दम लेने के शलए बैठे गई। उसके नेत्र बिंद ो गए। उसने देखा, देवी मेरे सम्मुख खड़ी, कृपादृष्ष्ट से मुझ ेदेख र ी ै। तारा ने दौड़कर उनके पदों को चूमा।

देवी ने पूछा - तारा, तरेी अशभलाषा पूरी ुई?

तारा - ााँ माता, मेरी अशभलाषा पूरी ुई।

देवी - तुझ ेपे्रम शमल गया?

तारा - न ीिं माता, मुझ ेउससे भी उत्तम पदाथम शमल गया। मुझ ेपे्रम के ीरे के बदले सेवा का पारस शमल गया। मुझ ेज्ञान ुआ कक पे्रम सेवा का चाकर ै। सेवा के सामने शसर झुकाकर अब मैं पे्रम-शभक्षा न ीिं चा ती। अब मुझ े ककसी दसूरे सुख की अशभलाषा न ीिं। सेवा ने मुझ ेपे्रम, आदर, सुख सबसे ननवतृ्त कर हदया।

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देवी इस बार मुस्कराई न ीिं। उसने तारा को हृदय से लगाया और दृष्ष्ट से ओझल ो गई।

6

सिंध्या का समय था। आकाश में तारे ऐसे चमकत ेथे जैसे कमल पर पानी की बूाँदें। वायु में धचत्ताकषमण शीतलता आ गई थी। तारा एक वकृ्ष के नीच ेखड़ी धचडड़यों को दाना चुगाती थी कक यकायक सािु ने आकर उसके चरणों पर शसर झुकाया और बोला - तारा, तुमने मुझ े जीत शलया। तुम् ारा ऐश्वयम, िन और सौंदयम, िन और सौंदयम जो कुछ न कर सका, व तुम् ारी सेवा ने कर हदखाया। तुमने मुझ ेअपने पे्रम में आसक्त कर शलया। अब मैं तुम् ारा दास ूाँ। बोलो, तुम मुझसे क्या चा ती ो? तुम् ारे सिंकेत पर अब मैं अपना योग और वैराग्य सब कुछ न्योछावर कर देने के शलए प्रस्तुत ूाँ।

तारा - स्वामी जी, मुझ ेअब कोई इच्छा न ीिं। मैं केवल सेवा की आज्ञा चा ती ूाँ।

सािु - मैं हदखा दूाँगा कक योग साि कर भी मनुष्य का हृदय ननजीव न ीिं ोता। मैं भाँवरे के सदृश तुम् ारे सौंदयम पर माँडराऊाँ गा। पपी े की तर तुम् ारे पे्रम की रट में लगाऊाँ गा। म दोनों पे्रम की नौका पर ऐश्वयम और वैभव-नदी की सैर करेंगे, पे्रम-कुिं जों में बैठ कर पे्रम-चचाम करेंगे, और आनिंद के मनो र राग गावेंगे।

तारा ने क ा - स्वामी जी, सेवा-मागम पर चलकर मैं अब अशभलाषाओिं से पूरी ो गई। अब हृदय में और कोई इच्छा शेष न ीिं।

सािु ने इन शब्दों को सुना, तारा के चरणों पर माथा नवाया और गिंगा की ओर चल हदया।

***

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शिकारी राजकुर्ार

मई का म ीना और मध्याह्न का समय था। सूयम की आाँखें सामने से टकर शसर पर जा प ुाँची थीिं, इसशलए उनमें शील न था। ऐसा ववहदत ोता था मानो पथृ्वी उसके भय से थर-थर कााँप र ी थी। ठीक ऐसे ी समय एक मनुष्य एक ह रन के पीछे उन्मत्त भाव से घोड़ा फें के चला आता था। उसका मुाँ लाल ो र ा था और घोड़ा पसीने से लथ-पथ। ककिं तु मगृ भी ऐसा भागता था मानो वायुवेग से जा र ा था। ऐसा प्रतीत ोता था कक उसके पद स्पशम न ीिं करत।े इसी दौड़ की जीत- ार पर उसका जीवन ननभमर था।

पछुवा वा बड़ ेजोर से चल र ी थी। ऐसा जान पड़ता था मानो अष्ग्न और िूल की वषाम ो र ी ो। घोड़ ेके नेत्र रक्तवणम ो र े थे और अश्वारो ी के सारे शरीर का रुधिर उबल-सा र ा था। ककिं तु मगृ का भागना उसे इस बात का अवसर न देता था कक व अपनी बिंदकू को सम् ाले। ककतने ी ऊख के खेत, ढाक के वन और प ाड़ पड़ ेऔर तुरिंत ी 'सपने की सिंपष्त्त' की भााँनत अदृश्य ो गए।

क्रमशुः मगृ पीछे की ओर मुड़ा। सामने एक नदी का बड़ा ी ऊाँ चा कगार, दीवार की भााँनत खड़ा था। आगे भागने की रा बिंद थी, और उस पर से कूदना मानो मतृ्यु के मुख में कूदना था। ह रन का शरीर शशधथल पड़ गया। उसने एक करुणा-भरी दृष्ष्ट चारों ओर फेरी। ककिं तु उसे र तरफ मतृ्यु ी मतृ्यु दृष्ष्टगोचर ोती थी। अश्वारो ी के शलए इतना समय ब ुत था। उसकी बिंदकू से गोली क्या छूटी मानो मतृ्यु ने एक म ा भयिंकर जयध्वनन के साथ अष्ग्न की एक प्रचिंड ज्वाला उगल दी। ह रन भूशम पर लोट गया।

2

मगृ पथृ्वी पर पड़ा तड़प र ा था और अश्वारो ी की भयिंकर और ह िंसावप्रय आाँखों से प्रसन्नता की ज्योनत ननकल र ी थी। ऐसा जान पड़ता था कक उसने

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असाध्य सािन कर शलया। उसने उस पशु के शव को नापने के बाद उसके सीिंगों को बड़ ेध्यान से देखा और मन ी मन प्रसन्न ो र ा था कक इससे कमरे की सजावट दनूी ो जाएगी और नेत्र सवमदा उस सजावट का आनिंद सुख से भोगेंगे।

जब तक व इस ध्यान मिं मग्न था उसको सूयम की प्रचिंड ककरणों का लेशमात्र भी ध्यान न था; ककिं तु ज्यों ी उसका ध्यान उिर से कफरा, व उष्णता से ववह्वल ो उठा और करुणापूणम आाँखें नदी की ओर डाली; लेककन व ााँ तक प ुाँचने का कोई भी मागम न देख पड़ा और न कोई वकृ्ष ी देख पड़ा, ष्जसकी छााँ में जरा ववश्राम करता।

इसी धचिंतावस्था में एक अनत दीघमकाय पुरुष नीच े से उछलकर कगारे के ऊपर आया और अश्वारो ी के सम्मुख खड़ा ो गया। अश्वारो ी उसको देख ब ुत अिंचशभत ुआ। नवागिंतुक एक ब ुत ी सुिंदर और हृष्ट-पुष्ट मनुष्य था। मुख के भाव उसके हृदय की स्वच्छता और चररत्र की ननममलता का पता देत े थे। व ब ुत ी दृढप्रनतज्ञ, आशा-ननराशा तथा भय से बबलकुल बेपरवा -सा जान पड़ता था।

मगृ को देखकर उस सिंन्यासी ने बड़ ेस्वािीन भाव से क ा - राजकुमार, तुम् ें आज ब ुत ी अच्छा शशकार ाथ लगा। इतना बड़ा मगृ इस सीमा में कदाधचत ी हदखाई पड़ता ै।

राजकुमार के अचिंभे की सीमा न र ी। उसने देखा कक सािु उसे प चानता ै।

राजकुमार बोला - जी ााँ, मैं भी य ी खयाल करता ूाँ। मैंने भी आज तक इतना बड़ा ह रन न ीिं देखा। लेककन उसके पीछे आज ब ुत ैरान ोना पड़ा।

सिंन्यासी ने दयापूवमक क ा- ननुःसिंदे तुम् ें दुुःख उठाना पड़ा ोगा। तुम् ारा मुख लाल ो र ा ै और घोड़ा भी बेदम ो गया ै। क्या तुम् ारे सिंगी ब ुत पीछे र गए?

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इसका उत्तर राजकुमार ने बबलकुल बेपरवा ी से हदया, मानो उसे इसकी कुछ भी धचिंता न थी।

सिंन्यासी ने क ा - य ााँ ऐसी कड़ी िूप और आाँिी में खड़ ेतुम कब तक उनकी रा देखोगे? मेरी कुटी में चलकर जरा ववश्राम कर लो। तुम् ें परमात्मा ने ऐश्वयम हदया ै, लेककन कुछ देर के शलए सिंन्यासाश्रम का रिंग भी देखो और वनस्पनतयों और नदी के शीतल जल का स्वाद लो।

य क कर सिंन्यासी ने उस मगृ के रक्तमय मतृ शरीर को ऐसी सुगमता से उठा कर किं िे पर िर शलया मानो व एक घास का गट्ठा था, और राजकुमार से क ा - मैं तो प्रायुः कगार से ी नीच ेउतर जाया करता ूाँ, ककिं तु तुम् ारा घोड़ा सिंभव ै, न उतर सके। अतएव एक हदन की रा छोड़कर छ मा की रा चलेंगे। घाट य ााँ से थोड़ी ी दरू ै और व ीिं मेरी कुटी ै।

राजकुमार सिंन्यासी के पीछे चला। उसे सिंन्यासी के शारीररक बल पर अचिंभा ो र ा था। आि घिंटे तक दोनों चुपचाप चलत ेर े। इसके बाद ढाल ूभूशम शमलनी शुर ुई और थोड़ी देर में घाट आ प ुाँचा। व ीिं कदिंबकुिं ज की घनी छाया में ज ााँ सवमदा मगृों की सभा सुशोशभत र ती, नदी की तरिंगों का मिुर स्वर सवमदा सुनाई हदया करता ै, ज ााँ ररयाली पर मयूर धथरकता, कपोताहद पक्षी मस्त ोकर झूमते, लता-द्रमुाहद से सुशोशभत सिंन्यासी की एक छोटी-सी कुटी थी।

3

सिंन्यासी की कुटी रे-भरे वकृ्षों के नीच ेसरलता और सिंतोष का धचत्र बन र ी थी। राजकुमार की अवस्था व ााँ प ुाँचत े ी बदल गई थी। य ााँ की शीतल वायु का प्रभाव उस पर ऐसा पड़ा जैसा मुरझात े ुए वकृ्ष पर वषाम का। उसे आज ववहदत ुआ कक तषृ्प्ट कुछ स्वाहदष्ट व्यिंजनों ी पर ननभमर न ीिं ै और न ननद्रा सुन रे तककयों की ी आवश्यकता रखती ै।

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शीतल, मिंद, सुगिंि वायु चल र ी थी। सूयम भगवान अस्ताचल को पयान करत े ुए इस लोक को तवृषत नेत्रों से देखत ेजात ेथे और सिंन्यासी एक वकृ्ष के नीच ेबैठा ुआ गा र ा था -

"उिो कममन की गनत न्यारी"

राजकुमार के कानों में स्वर की भनक पड़ी, उठ बैठा और सुनने लगा। उसने बड़े-बड़ ेकलाविंतों के गाने सुने थे, ककिं तु आज जैसा आनिंद उसे कभी प्राप्त न ीिं ुआ था। इस पद ने उसके ऊपर मानो मोह नी-मिंत्र का जाल बबछा हदया व बबलकुल बेसुि ो गया। सिंन्यासी की िुन में कोयल की कूक सरीखी मिुरता थी।

सम्मुख नदी का जल गुलाबी चादर की भााँनत प्रतीत ोता था। कूलद्वय की रेत चिंदन की चौकी-सी दीखती थी। राजकुमार को य दृश्य स्वगीय-सा जान पड़ने लगा। उस पर तैरने वाले जल-जिंतु ज्योनतममय आत्मा के सदृश देख पड़त ेथे, जो गाने का आनिंद उठाकर मत्त से ो गए थे।

जब गाना समाप्त ो गया, राजकुमार जाकर सिंन्यासी के सामने बैठ गया और भष्क्तपूवमक बोला - म ात्मन! आपका पे्रम और वैराग्य सरा नीय ै। मेरे हृदय पर इसका जो प्रभाव पड़ा ै; व धचरस्थायी र ेगा। यद्यवप सम्मुख प्रशिंसा करना सवमथा अनुधचत ै, ककिं तु इतना मैं अवश्य क ूाँगा कक आपके पे्रम की गम्भीरता सरा नीय ै। यहद मैं ग ृस्थी के बिंिन में न पड़ा ोता तो आपके चरणों से पथृक ोने का ध्यान स्वप्न में भी न करता।

इसी अनुरागवस्था में राजकुमार ककतनी ी ऐसी बातें क गया जो कक स्पष्ट रप से उसके आिंतररक भावों का ववरोि करती थीिं। सिंन्यासी मुस्कराकर बोला - तुम् ारी बातों से मैं ब ुत प्रसन्न ूाँ। और मेरी उत्कट इच्छा ै कक तुमको कुछ ठ राऊाँ , ककिं तु यहद मैं जाने भी दूाँ तो इस सूयामस्त के समय तुम जा न ीिं सकत।े तुम् ारा रीवााँ प ुाँचना दषु्कर ो जाएगा। तुम जैसे आखेट-वप्रय ो वैसा मैं भी ूाँ।

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म दोनों को अपने-अपने गुण हदखाने का अच्छा अवसर प्राप्त ुआ ै। कदाधचत तुम भय से न रुकते, ककिं तु शशकार के लालच से अवश्य र ोगे।

राजकुमार को तुरिंत मालूम ो गया कक जो बातें उन् ोंने अभी-अभी सिंन्यासी से क ी थीिं, वे बबलकुल ऊपरी और हदखावे की थीिं और ाहदमक भाव उनसे प्रकट न ीिं ुए थे। आजन्म सिंन्यासी के समीप र ना तो दरू, व ााँ एक रात बबताना उसको कहठन जान पड़ने लगा। घरवाले उद्ववग्न ो जाएाँगे और मालूम न ीिं क्या सोचेंगे। साधथयों की जान सिंकट में ोगी। घोड़ा बेदम ो र ा ै। उस पर चालीस मील जाना ब ुत ी कहठन और बड़ ेसा स का काम ै। लेककन य म ात्मा शशकार खेलत े ै - य बड़ी अजीब बात ै। कदाधचत य वेदािंती ै,

ऐसे वेदािंती जो जीवन और मतृ्यु मनुष्य के ाथ न ीिं मानत।े इनके साथ शशकार में बड़ा आनिंद आवेगा।

य य सोच-ववचार कर उन् ोंने सिंन्यासी का आनतथ्य स्वीकार ककया, उन् ें िन्यवाद हदया और अपने भाग्य की प्रशिंसा की, ष्जसने कुछ काल तक और सािु सिंग से लाभ उठाने का अवसर हदया।

4

रात दस बज ेका समय था। घनी अाँधियारी छाई ुई थी। सिंन्यासी ने क ा - अब मारे चलने का समय ो गया ै।

राजकुमार प ले ी से प्रस्तुत था! बिंदकू किं िे पर रखकर बोला - इस अिंिकार में शूकर अधिकतर शमलेंगे; ककिं तु ये पशु बड़ ेभयानक ै।

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सिंन्यासी ने एक सोटा ाथ में शलया और क ा - कदाधचत इससे भी अच्छे शशकार ाथ में आवें। मैं जब अकेला जाता ूाँ, तो खाली न ीिं लौटता। आज तो म दो ैं।

दोनो शशकारी नदी के तट पर नालों और रेतों के टीलों को पार करत े और झाडड़यों से अटकत ेचुपचाप चले जा र े थे। एक ओर श्यामवणम नदी थी, ष्जसमें नक्षत्रों का प्रनतबबिंब नाचता हदखाई देता था और ल रें गान कर र ी थी। दसूरी ओर घनघोर अिंिकार, ष्जसमें कभी-कभी केवल खद्योतों के चमकने से एक क्षण स्थाई प्रकाश पैल जाता था। मालूम ोता था कक वे भी अाँिेरे में ननकलने से डरत े ै।

ऐसी अवस्था में कोई एक घिंटा चलने के बाद व एक ऐसे स्थान पर प ुाँचे, ज ााँ एक ऊाँ च ेटीले पर घने वकृ्षों के नीच ेआग जलती ुई हदखाई पड़ी। उसी समय इन लोगों को मालूम ुआ कक सिंसार में इनके अनतररक्त और भी कई वस्तुएाँ ैं।

सिंन्यासी ने ठ रने का सिंकेत ककया। दोनों एक पेड़ की ओट में खड़ े ोकर ध्यानपूवमक देखने लगे। राजकुमार ने बिंदकू भर ली। टीले पर एक बड़ा छायादार वट-वकृ्ष था। उसी के नीच ेअिंिकार में दस-बार मनुष्य अस्त्र-शस्त्र से ससुष्ज्जत शमजमई प ने चरस का दम लगा र े थे। इनमें से प्रायुः सभी लिंबे थे। सभी के सीने चौड़ ेऔर सभी हृष्ट-पुष्ट। मालूम ोता था कक सैननकों का एक ववश्राम कर र ा ै।

राजकुमार ने क ा - य लोग शशकारी ैं? सिंन्यासी ने िीरे से क ा - बड़ ेशशकारी ैं। ये रा चलत ेयाबत्रयों का शशकार करत े ै। ये बड़ ेभयानक ह िंस्र पशु ैं; इनके अत्याचार से गााँव के गााँव बबामद ो गए थे और ष्जतनों को इन् ोंने मारा, उनका ह साब परमात्मा ी जानता ै। यहद आपको शशकार करना ो तो इनका शशकार कीष्जए। ऐसा शशकार आप ब ुत प्रयत्न करने पर भी न ीिं पा सकत।े य ी पशु ैं, ष्जनपर आपको शस्त्रों का प्र ार करना उधचत ै। राजाओिं और अधिकाररयों के शशकार य ी ैं। इससे आपका नाम और यश फैलेगा।

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राजकुमार के जी में आया कक दो-एक को मार डालें, ककिं तु सिंन्यासी ने रोका और क ा - इन् ें छेड़ना ठीक न ीिं ै। अगर य कुछ उपद्रव न करें , तो भी बच कर ननकल जाएाँगे। आगे चलो, सिंभव ै कक इससे भी अच्छे शशकार ाथ आवें।

नतधथ सप्तमी थी। चिंद्रमा भी उदय ो गया। इन लोगों ने नदी का ककनारा छोड़ हदया था। जिंगल भी पीछे र गया था। सामने एक कच्ची सड़क हदखाई पड़ी और थोड़ी देर में कुछ बस्ती भी देख पड़ने लगी। सिंन्यासी एक ववशाल प्रासाद के सामने आकर रुक गए और राजकुमार से बोले - आओ, इस मौलसरी के वकृ्ष पर बैठें । परिंतु देखो बोलना मत। न ीिं तो दोनों की जान के लाले पड़ जाएाँगे। इसमें एक बड़ा भयानक ह िंस्र जीव र ता ै, ष्जसने अनधगनत जीविाररयों का वि ककया ै। कदाधचत म लोग आज इसको सिंसार से मुक्त कर दें।

राजकुमार ब ुत प्रसन्न ुआ। सोचने लगा, चलो, रात भर की दौड़ ेतो सुफल ुई। दोनों मौलसरी पर चढ कर बठै गए। राजकुमार ने अपनी बिंदकू साँभाल ली। और शशकार की, ष्जसे व तेंदआु समझ े ुए था, बाट देखने लगा।

रात आिी से अधिक व्यतीत ो चुकी थी। यकायक म ल के समीप कुछ लचल मालूम ुई और बैठक के द्वार खुल गए। मोमबष्त्तयों के जलाने सा सारा ाता प्रकाशमान ो गया। कमरे के र कोने में सुख की सामग्री हदखाई दे र ी थी। बीच में एक हृष्ट-पुष्ट मनुष्य गले में रेशमी चादर डाले, माथे पर केसर का अिम लिंबाकार नतलक लगाए, मसनद के स ारे बैठा सुन री मुाँ नाल से लच्छेदार िुाँआ फें क र ा था। इतने ी में उन् ोंने देखा कक नतमककयों के दल के दल चले आ र े ै। उसके ाव-भाव व कटाक्ष के शर चलने लगे। समाष्जयों ने सुर शमलाया। गाना आरिंभ ुआ और साथ ी साथ मद्यपान भी चलने लगा।

राजकुमार ने अचिंशभत ोकर पूछा - य तो कोई ब ुत बड़ा रईस जान पड़ता ै?

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सिंन्यासी ने उत्तर हदया - न ीिं, रईस न ीिं ै, एक बड़ ेमिंहदर का म िंत ै, सािु ै। सिंसार का त्याग कर चुके ै। सािंसाररक वस्तुओिं की ओर आाँख न ीिं उठात,े पूणम ब्रह्मज्ञान की बातें करत े ै। य सब सामान इनकी आत्मा की प्रसन्नता के शलए ै। इिंहद्रयों को वश में ककए ुए इन् ें ब ुत हदन ुए। स स्रों सीिे-सादे मनुष्य इन पर ववश्वास करते ै। इनको अपना देवता समझत े ै - यहद आप शशकार करना चा त े ै तो इनका कीष्जए। य ी राजाओिं और अधिकाररयों के शशकार ै। ऐसे राँगे ुए शसयारों से सिंसार को मुक्त करना आपका परम िमम ै। इससे आपकी प्रजा का ह त ोगा और आपका नाम और यश फैलेगा।

5

दोनों शशकारी नीच ेउतरे। सिंन्यासी ने क ा - अब रात अधिक बीत चुकी ै। तुम ब ुत थक गए ोंगे। ककिं तु राजकुमारों के साथ आखेट करने का अवसर मुझ ेब ुत कम ी प्राप्त ोता ै। अतएव एक शशकार का पता और लगाकर तब लौटेंगे।

राजकुमार को इन शशकारों में सच्च ेउपदेश का सुख प्राप्त ो र ा था। बोला - स्वामी जी, थकने का नाम न लीष्जए। यहद मैं वषो आपकी सेवा मे र ता तो और न जाने ककतने ऐसे आखेट करना सीख जाता।

दोनों कफर आगे बढे। अब रास्ता स्वच्छ और चौड़ा था। ााँ, सड़क कदाधचत कच्ची ी थी। सड़क के दोनों ओर वकृ्षों की पिंष्क्तयााँ थीिं। ककसी-ककसी वकृ्ष के नीच े रखवाले सो र े थे। घिंटे भर बाद दोनों शशकाररयों ने एक ऐसी बस्ती में प्रवेश ककया ज ााँ की सड़कों, लालटेनों और अट्टाशलकाओिं से मालूम ोता था कक कोई बड़ा नगर ै। सिंन्यासी जी एक ववशाल भवन के सामने एक वकृ्ष के नीच ेठ र गए और राजकुमार से बोले - यय सरकारी कच री ै। य ााँ राज्य का एक बड़ा कममचारी र ता ै। उसे सूबेदार क त े ै। उसकी कच री हदन को भी लगती ै और रात को भी। य ााँ न्याय सुवणम और रत्नहदकों के मोल बबकता ै।

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य ााँ की न्यायवप्रयता द्रव्य पर ननभमर ै। िनवान द्रररदों को पैरों तले कुचलत े ै और उनकी गो ार कोई भी न ीिं सुनता।

य ीिं बातें ो र ी थीिं कक यकायक कोठे पर दो आदमी हदखलाई पड़।े दोनों शशकारी वकृ्ष की ओट में नछप गए। सिंन्यासी ने क ा - शायद सबेूदार सा ब कोई मामला ननपटा तय कर र े ैं।

ऊपर से आवाज आई, तुमने एक वविवा स्त्री की जायदाद ले ली ै, मैं इसे भली-भााँनत जानता ूाँ। य कोई छोटा मामला न ीिं ै। इसमें एक स स्र से कम पर मैं बातचीत करना न ीिं चा ता।

राजकुमार में इससे अधिक सुनने की शष्क्त न र ी। क्रोि के मारे नेत्र लाल ो गए। य ी जी चा ता था कक इस ननदमयी का अभी वि कर दें ; ककिं तु सिंन्यासी जी ने रोका। बोले - आज इस शशकार का समय न ीिं ै। यहद आप ढूाँढें गे तो ऐसे शशकार ब ुत शमलेंगे। मैंने इनके कुछ हठकाने बतला हदए ैं। अब प्रातुःकाल ोने में अधिक ववलिंब न ीिं ै। कुटी अभी य ााँ से दस मील ोगी। आइए, शीघ्र चलें।

6

दोनों शशकारी तीन बजते-बजत ेकफर कुटी में लौट आए। उस समय बड़ी सु ावनी रात थी। शीतल समीर ने ह ला-ह लाकर वकृ्षों और पत्तों की ननद्रा भिंग करना आरिंभ कर हदया था।

आि घिंटे में राजकुमार तैयार ो गए। सिंन्यासी को अपना ववश्वास और कृतज्ञता प्रकट करत े ुए उनके चरणों पर अपना मस्तक नवाया और घोड़ ेपर सवार ो गए।

सिंन्यासी ने उसकी पीठ पर कृपा-पूवमक ाथ फेरा। आशीवामद देकर बोले - राजकुमार तुमसे भेंट ोने से मेरा धचत्त ब ुत प्रसन्न ुआ। परमात्मा ने तुम् ें

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अपनी सषृ्ष्ट पर राज करने ेतु जन्म हदया ै। तुम् ारा िमम ै कक सदा प्रजापालक बनो। तुम् ें पशुओिं का वि करना उधचत न ीिं। दीन पशुओिं के वि करने में कोई ब ादरुी न ीिं, कोई सा स न ीिं। सच्चा सा स और सच्ची ब ादरुी दोनों की रक्षा और उनकी स ायता करने में ै। ववश्वास मानो, जो मनुष्य केवल धचत्त-ववनोदाथम जीव-ह िंसा करता ै, व ननदमयी घातक से भी कठोर-हृदय ै। व घातक के शलए जीववका ै, ककिं तु शशकारी के शलए केवल हदल ब लाने का एक सामान। तुम् ारें शलए ऐसे शशकारों की आवश्यकता ै, ष्जससे तुम् ारी प्रजा को सुख प ुाँच।े ननुःशब्द पशुओिं का वि न करके तुमको उन ह िंसकों के पीछे दौड़ना चाह ए, जो िोखािड़ी से दसूरों का वि करत े ै। ऐसे आखेट करो, ष्जससे तुम् ारी आत्मा को शािंनत शमले। तुम् ारी कीनतम सिंसार में फैले। तुम् ारा काम वि करना न ीिं, जीववत रखना ै। यहद वि करो तो केवल जीववत रखने के शलए। य ी तुम् ारी िमम ै। जाओ, परमात्मा तुम् ारा कल्याण करें।

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बशिदान

मनुष्य की आधथमक अवस्था का सबसे ज्यादा असर उसके नाम पर पड़ता ै। मौजे बेला के माँगर ठाकुर जब से कान्सहटबबल ो गए ै, उनका नाम मिंगलशसिं ो गया ै। अब उन् ें कोई माँगर करने का सा स न ीिं कर सकता। कल्लू अ ीर ने जब से लके के थानेदार से शमत्रता कर ली ै और गााँव का मुखखया ो गया ै, उसका नाम कशलकादीन ो गया ै। अब से कोई कल्लू क े तो आाँखें लाल-पीली करता ै। इसी प्रकार रखचिंद कुरमी अब रखू ो गया ै। आज से बीस साल प ले उसके य ााँ शक्कर बनती थी, कई ल की खेती ोती थी और कारोबार खूब फैला ुआ था। लेककन ववदेशी शक्कर की आमद ने उसे महटयामेट कर हदया। िीरे-िीरे कारखाना टूट गया, जमीन टूट गई, ग्रा क टूट गए और व भी टूट गया। सत्तर वषम का बूढा, जो एक तककयेदार माच े पर बैठा नाररयल वपया करता था, अब शसर पर टोकरी शलए खाद फें कने जाता ै। परिंतु उसके मुख पर भी एक प्रकार की गिंभीरता, बातचीत में अब भी एक प्रकार की अकड़, चाल-ढाल में अब भी एक प्रकार का स्वाशभमान भरा ुआ ै। इन पर काल की गनत का प्रभाव न ीिं पड़ा। रस्सी जल गया, पर बल न ीिं टूटा। भले हदन मनुष्य के चररत्र पर, सदैव के शलए अपना धचह्न छोड़ जाते ैं। रखू के पास अब केवल पााँच बीघा जमीन ै। केवल दो बैल ैं। एक ल की खेती ोती ै।

लेककन पिंचायतों में, आपस की कल में, उसकी सम्मनत अब भी सम्मान की दृष्ष्ट से देखी जाती ै। व जो बात क ता ै, बेलाग क ता ै और गााँव के अनपढे उसके सामने मुाँ न ीिं खोल सकत।े

रखू ने अपने जीवन में कभी दवा न ीिं खाई। व बीमार जरर पड़ता, कुआर मास में मलेररया से कभी न बचता था। लेककन दस-पााँच हदन में व बबना दवा खाए ी चिंगा ो जाता था। इस वषम भी कानतमक में बीमार पड़ा और य समझ कर कक अच्छा तो ो ी जाएगा, उसने कुछ परवा न की। परिंतु अब की ज्वर मौत का परवाना लेकर चला था। एक सप्ता बीता, दसूरा सप्ता बीता, पूरा

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म ीना बीत गया; पर रखू चारपाई से न उठा। अब उसे दवा की जररत मालूम ुई। उसका लड़का धगरिारी, कभी नीम के सीिंकें वपलाता, कभी गुचम का सत, कभी गदापूरना का जड़; पर इन औषधियों के कोई फायदा न ोता था। रखू को ववश्वास ो गया कक अब सिंसार से चलने के हदन आ गए।

एक हदन मिंगलशसिं उसे देखने गए, बेचारा टूटी खाट पर पड़ा राम-राम जप र ा था। मिंगलशसिं ने क ा - बाबा, बबना दवा खाए अच्छे न ोगे; कुनैन क्यों न ीिं खाते?

रखू ने उदासीन भाव से क ा - तो लेत ेआना।

दसूरे हदन काशलकादीन ने आकर क ा - बाबा, दो-चार हदन कोई दवा खा लो। अब तुम् ारी जवानी की दे थोड़ े ी ै कक बबना दवा-दपमण के अच्छे ो जाओगे।

रखू ने उसी मिंद भाव से क ा - तो लेत ेआना। लेककन रोगी को देख आना एक बात ै, दवा लाकर उसे देना दसूरी बात ै। प ली बात शशष्टाचार से ोती ै, दसूरी सच्ची समवेदना से। न मिंगलशसिं ने खबर ली; न काशलकादीन ने, न ककसी तीसरे ी ने। रखू दालान में खाट पर पड़ा र ता। मिंगलशसिं कभी नजर आ जात ेतो क ता - भैया, व दवा न ीिं लाए? मिंगलशसिं कतराकर ननकल जात।े काशलकादीन हदखाई देत ेतो उनसे भी य ी प्रश्न करता; लेककन व भी नजर बचा लेता। या तो उसे य सूझता ी न ीिं था कक दवा पैसों के बबना न ीिं आती, या पैसों को जान से भी वप्रय समझता था, अथवा व जीवन से ननराश ो गया था। उसने कभी दवा के दाम की बात न ीिं की। दवा न आई। उसकी दशा हदनों-हदन बबगड़ती गई। य ााँ तक कक पााँच म ीने कष्ट भोंगने के बाद उसने ठीक ोली के हदन शरीर त्याग हदया। धगरिारी ने उसका शव बड़ी िूमिाम से ननकाला। कक्रयाकमम बड़ े ौसले से ककया। कई गााँव के ब्राह्मणों को ननमिंबत्रत ककया।

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बेला में ोली न मनाई गई, न अबीर और गुलाल उड़ी, न डफली बजी, न भिंग की नाशलयााँ ब ी। कुछ लोग मन में रखू को कोसत ेजरर थे कक इस बुड्ढे का आज ी मरना था, दो-चार हदन बाद मरता।

लेककन इतना ननलमज्ज कोई न था कक शोक में आनिंद मनाता। व श र न ीिं था, ज ााँ कोई ककसी के काम में शरीक न ीिं ोता, ज ााँ पड़ोसी के रोने-पीटने की आवाज मारे कानों तक न ीिं प ुाँचती।

2

रखू के खेत गााँववालों की नजर पर चढे ुए थे पााँचों बीघा जमीन कुएाँ के ननकट, खाद-पााँस से लदी ुई मेड़ बााँि से ठीक थी। उनमें तीन-तीन फसलें पैदा ोती थीिं। रखू के मरत े ी उन पर चारों ओर से िावे ोने लगे। धगरिारी तो कक्रया-कमम में फाँ सा ुआ था। उिर गााँव के मनचले ककसान लाला ओिंकारनाथ को चैन न लेने देते थे, नजराने की बड़ी-बड़ी रकमें पेश ो र ी थीिं। कोई साल भर का लगान पेशगी देने पर तयैार था, कोई नजराने की दनूी रकम का दस्तावेज शलखने पर तुला ुआ था; लेककन ओिंकारनाथ सबको टालत े र त े थे। उनका ववचार था कक धगरिारी का क सबसे ज्यादा ै। व अगर दसूरों से कम भी नजराना दे तो खेत उसी को देने चाह ए। अस्तु, अब धगरिारी कक्रया-कमम से ननवतृ्त ो गया और चैत का म ीना भी समाप्त ोने आया, तब जमीिंदार साह ब ने धगरिारी को बुलाया और उससे पूछा - खेतों के बारे में क्या क त े ो?

धगरिानी ने रोकर क ा - उन् ीिं खेतों ी का आसरा जोतूाँगा तो न ीिं तो कराँ गा।

ओिंकारनाथ - न ीिं, जरर जोतो, खेत तुम् ारे ैं। मैं तुमसे छोड़ने को न ीिं क ता ूाँ। रखू ने उन् ें बीस साल तक जोता। उन पर तुम् ारा क ै। लेककन तुम देखत े ो अब जमीन की दर ककतनी बढ गई ै। तुम आठ रुपए बीघे पर जोतत ेथे, मुझ े 10 रु. शमल र े ैं। और नजराने के रुपए सौ अलग। तुम् ारे साथ ररआयत करके लगान व ी रखता ूाँ; पर नजराने के रुपए तुम् ें देने पड़गेे।

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धगरिारी - सरकार, मेरे घर में तो इस समय रोहटयों का भी हठकाना न ीिं ै। इतने रुपए क ााँ से लाऊाँ गा? जो कुछ जमा-जथा थी, दादा के काम से उठ गई। अनाज खशल ान में ै। लेककन दादा के बीमार ो जाने से उपज भी अच्छी न ीिं ुई ै। रुपए क ााँ से लाऊाँ ?

ओिंकारनाथ - य सच ै, लेककन मैं इससे ज्यादा ररआयत न ीिं कर सकता।

धगरिारी - न ीिं सरकार, ऐसा न कह ए। न ीिं तो म बबना मारे मर जाएाँगे। आप बड़ े ोकर क त े ैं तो मैं बैल-बनघया बेच कर पचास रुपए कर सकता ूाँ। इससे बेशी की ह म्मत न ीिं पड़ती।

ओिंकारनाथ धचढकर बोले - तुम समझत े ोंगे कक म ये रुपए लेकर अपने घर में रख लेत े ै और चैन की बिंशी बजात े ै। लेककन मारे ऊपर जो कुछ गुजरती ै, मीिं जानत े ै। क ीिं य चिंदा, क ीिं व इनाम। इनके मारे कचूमर ननकल जाता ै। बड़ ेहदन में सैकड़ों रुपए डाशलयााँ में उड़ जात े ै। ष्जसे डाली न दो, व ी मुाँ फुलाता ै। ष्जन चीजों के शलए लड़के तरसकर र जात े ै, उन् ें बा र से मााँगकर डाशलयों में सजाता ूाँ। उन पर कभी कानूनगो आ गए, कभी त सीलदार, कभी डडप्टी सा ब का लश्कर आ गया। सब मेरे मे मान ोत े ै। अगर न कराँ तो नक्कू बनूाँ और सब की आाँखों में कााँटा बन जाऊाँ । साल में जार-बार सौ मोदी को इस रसद खुराक के मद में देने पड़त े ैं। य सब क ााँ से आवे? बस, य ी जी चा ता ै कक छोड़कर ननकल जाऊाँ , लेककन में तो परमात्मा ने इसशलए बनाया ै कक एक से रुपया सताकर लें और दसूरों को रो-रोकर दें, य ी मारा काम ै। तुम् ारे साथ ररआयत कर र ा ूाँ। लेककन तुम इतनी ररआयत पर भी खुश न ीिं ोत ेतो रर इच्छा। नजराने में एक पैसे की भी ररआयत न ोगी। अगर एक फ्त े के अिंदर रुपए दाखखल करोगे तो खेत जोतने पाओगे, न ीिं तो न ीिं; मैं कोई दसूरा प्रबन्ि कर दूाँगा।

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3

धगरिारी उदास और ननराश ोकर घर आया। 100 रु. का प्रबिंि करना उसके काबू के बा र था। सोचने लगा - अगर दोनों बैल बेच दूाँ तो खेत ी लेकर क्या कराँ गा? घर बेचूाँ तो य ााँ उन् ें लेनेवाला ी कौन ै? और कफर बाप-दादा का नाम डूबता ै। चार-पााँच पेड़ ै, लेककन उन् ें बेच कर 25 रु. या 30 रु. से अधिक न शमलेंगे। उिार लूाँ तो देता कौन ै? अभी बननए के 50 रु. शसर पर चढे ैं। व एक पैसा भी न देगा। घर में ग ने भी तो न ीिं ै। न ीिं उन् ीिं को बेचता। ले-देकर एक ाँसली बनवाई थी, व भी बननए के घर पड़ी ुई ै। साल भर ो गया, छुड़ाने की नौबत न आई। धगरिारी और उसकी स्त्री सुभागी दोनों इसी धचिंता में पड़ े र ते, लेककन कोई उपाय न सूझता था। धगरिारी को खाना-पीना अच्छा न लगता, रात को नीिंद न आती। खेतों के ननकलने का ध्यान आत े ी उसके हृदय में ूक-सी उठने लगती। ाय! व भूशम ष्जसे मने वषों जोता, ष्जसे खाद से पाटा, ष्जसकी मेड़ें रक्खीिं, ष्जसकी मेड़ें बनाई उसका मजा अब दसूरा उठाएगा।

ये खेत धगरिारी की जीवन के अिंश ो गए थे। उनकी एक-एक अिंगुल भूशम उसके रक्त से राँगी ुई थी! उनका एक-एक परमाणु उसकी पसीने से तर ो गया था।

उनके नाम उसकी ष्जह्वा पर उसी तर आत े थे ष्जस तर अपने बच्चों के। कौई चौबीसों था, कोई बाइसों था, कोई नालेवाला, कौई तलैयावाला। इन नामों के स्मरण ोत े ी खेतों का धचत्र उसकी आाँखों के सामने खखिंच जाता था। व इन खेतों की चचाम इस तर करता मानो व ेसजीव ैं। मानों उसके भले-बुरे के साथी ै। उसकी जीवन की सारी आशाएाँ, सारी इच्छाएाँ, सारे मनसूबें, सारी मन की शमठाइयााँ, सारे वाई ककले इन् ीिं खेतों पर अवलिंबबत थे। इसके बबना व जीवन की कल्पना ी न ीिं कर सकता था। और वे ी अब ाथ से ननकले जात े ै। व घबराकर घर से ननकल जाता और घिंटों उन् ीिं खेतों की मेड़ों पर बैठा ुआ रोता, मानों उनसे ववदा ो र ा ो। इस तर एक सप्ता बीत गया और धगरिारी

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रुपए का कोई बिंदोबस्त न कर सका। आठवें हदन उसे मालूम ुआ कक काशलकादास ने 100 रुपए नजराने देकर 10 रु. बीघे पर खते ले शलए। धगरिारी ने एक ठिंड़ी सााँस ली। एक क्षण बाद व अपने दादा का नाम लेकर बबलख-बबलख रोने लगा। उस हदन घर में चूल् ा न ीिं जला। ऐसा मालूम ोता था मानो रखू आज ी मरा।

4

लेककन सुभागी यों चुपचाप बैठनेवाली स्त्री न थी। व क्रोि से भरी ुई काशलकादीन के घर गई और उसी स्त्री को खूब लथेड़ा - कल का बानी आज का सेठ, खेत जोतने चले ैं। देखें, कौन मेरे खेत में ल ले जाता ै? अपना और उसका लो एक कर दूाँ। पड़ोशसयों ने उसका पक्ष शलया, सब तो ै, आपस में य चढा ऊपरी न ीिं करना चाह ए। नारायण ने िन हदया, तो गरीबों को कुचलत ेकफरेंगे। सुभागी ने समझा, मैंने मैदान मार शलया। उसका धचत्त शािंत ो गया। ककिं तु व ी वायु जो पानी में ल रें पैदा करती ै, वकृ्षों को जड़ से उखाड़ डालती ै। सुभागी तो पड़ोशसयों की पिंचायत में अपने दखुड़ ेरोती और काशलकादीन की स्त्री से छेड़-छेड़ लड़ती। इिर धगरिारी अपने द्वार पर बैठा ुआ सोचता, अब मेरा क्या ाल ोगा? अब य जीवन कैसे कटेगा? ये लड़के ककसके द्वार जाएाँगे?

मजदरूी का ववचार करत े ी उसका हृदय व्याकुल ो जाता। इतने हदनों तक स्वािीनता और सम्मान का सुख भोगने के बाद अिम चाकरी की शरण लेने के बदले व मर जाना अच्छा समझता था। व अब तक ग ृस्थ था, उसकी गणना गााँव के भले आदशमयों में ोती थी, उसे गााँव के मामले में बोलने का अधिकार था। उसके घर में िन न था, पर मान था। नाई, बढई, कुम् ार, पुरोह त, भाट,

चौकीदार, ये सब उसका मुाँ ताकत ेथे। अब य मयामदा क ााँ! अब कौन उसकी बात पूछेगा! कौन उसके द्वार पर जावेगा? अब उसे ककसी के बराबर बैठन ेका, ककसी के बीच में बोलने का क न ीिं र ा। अब उसे पेट के शलए दसूरों की गुलामी करनी पड़गेी। अब प र रात र े कौन बैलों को नााँद में लगावेगा। व हदन अब क ााँ, जब गीत गा-गाकर ल चलाता था। चोटी का पसीना एड़ी तक

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आता था, पर जरा भी थकावट न आती थी। अपने ल ल ात े ुए खेतों को देखकर फूला न समाता था। खशल ान में अनाज का ढेर सामने रक्खे अपने को राजा समझता था। अब अनाज के टोकरे भर-भर कर कौन लावेगा? अब खत्ते क ााँ? खार क ााँ? य ी सोचते-सोचत े धगरिारी की आाँखों में आाँसू की झड़ी लग जाती थी। गााँव के दो-चार सज्जन, जो काशलकादीन से जलत े थे, कभी-कभी धगरिारी को तसल्ली देने आया करत ेथे, पर व उनसे भी खुल कर न बोलता। उसे मालूम ोता था कक मैं सबकी नजर में धगर गया ूाँ।

अगर कोई समझाता कक तुमने कक्रया-क्रम में व्यथम इतने रुपए उड़ा हदए, तो उसे बड़ा दुुःख ोता। व अपने उस काम पर जरा भी न पछताता। उन् ोंने अपनी ष्जिंदगी में चार बार खखलाकर खाया। क्या मरने के पीछे उन् ें वप िंडे-पानी को तरसाता।

इस प्रकार तीन मास बीत गए और असाढ आ प ुाँचा। आकाश में घटाएाँ आई,

पानी धगरा, ककसान ल-जुए ठीक करने लगे। बढई लों की मरम्मत करने लगा। धगरिारी पागल की तर कभी घर के भीतर जाता, कभी बा र आता, अपने लों को ननकाल-ननकाल देखता; उसकी मुहठया टूट गई ै, इसकी फाल ढीली ो गई ै,

जुए में सैला न ीिं ै। य देखते-देखत ेव एक क्षण अपने को भूल गया। दौड़ा ुआ बढई के य ााँ गया और बोला - रज्जू मेरे ल भी बबगड़ े ुए ै, चलो बना दो। रज्ज ू ने उसकी ओर करुणाभाव से देखा और अपना काम करने लगा। धगरिारी को ोश आ गया, नीिंद से चौंक पड़ा, ग्लानन भाव से उसका शसर झुक गया, आाँखें भर आई। चुपचाप घर चला आया।

गााँव के चारों और लचल मची ुई थी। कोई सन के बीज खोजता कफरता था, कोई जमीिंदार के चौपाल से िान के बीज शलए आता था, क ीिं सला ोती थी, ककस खेत में क्या बोना चाह ए, क ीिं चचाम ोती थी कक पानी ब ुत बरस गया, दो-चार हदन ठ र कर बोना चाह ए। धगरिारी ये बातें सुनता और जल ीन मछली की तर तड़पता था।

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एक हदन सिंध्या समय धगरिारी खड़ा अपने बैलों को खुजला र ा था कक मिंगलशसिं आए और इिर-उिर की बातें करके बोले - गोई को बााँिकर कब तक खखलाओगे? ननकाल क्यों न ीिं देत?े

धगरिारी ने मशलन भाव से क ा - ााँ, कोई गा क आवे तो ननकाल दूाँ।

मिंगलशसिं - एक गा क तो मीिं ै, मीिं को दे दो।

धगरिारी अभी कुछ उत्तर न देने पाया था कक तुलसी बननया आया और गरज कर बोला - धगरिर, तुम् ें रुपए देने ै या न ीिं वैसा क ो। तीन म ीने से ीला- वाला करत े चले आत े ो। अब कौन खेती करत े ो कक तुम् ारी फसल को अगोरे बैठे र ें।

धगरिारी ने दीनता से क ा - सा , जैसे इतने हदनों माने आज और माज जाओ। कल तुम् ारी एक-एक कौड़ी चुका दूाँगा।

मिंगल और तुलसी ने इशारे से बातें की और तुलसी भुनभुनाता ुआ चला गया। तब धगरिारी मिंगलशसिं से बोला - तुम इन् ें ले लो घर के घर ी में र जाए। कभी-कभी आाँख से देख तो शलया कराँ गा।

मिंगल - मुझ ेअभी तो ऐसा काम न ीिं न ीिं, लेककन घर पर सला कराँ गा।

धगरिारी - मुझ ेतुलसी के रुपए देने ै, न ीिं तो खखलाने को भूसा ै।

मिंगल - य बड़ा बदमाश ै, क ीिं नाशलश न कर दे।

सरल हृदय धगरिारी िमकी में आ गया। कायम-कुशल मिंगलशसिं को सस्ता सौदा करने का य अच्छा सुअवसर शमला। 80 रु. की जोड़ी 60 रु. में ठीक कर ली।

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धगरिारी ने अब बैलों को न जाने ककस आशा से बााँि कर खखलाया था। आज आशा का व कष्ल्पत सूत्र भी टूट गया। मिंगलशसिं धगरिारी की खाट पर बैठे रुपए धगन र े थे और धगरिारी बैलों के पास ववषादमय नेत्रों से उनके मुाँ की ओर ताक र ा था। आ ! य मेरे खेतों के कमाने वाले, मेरे जीवन का आिार,

मेरे अन्नदाता, मेरी मान-मयामदा की रक्षा करने वाले, ष्जनके प र रात से उठकर छााँटी काटता था, ष्जनके खली-दाने की धचिंता अपने खाने से ज्यादा र ती थी, ष्जनके शलए सारा हदन भर ररयाली उखाड़ा करता था। ये मेरी आशा की दो आाँखें, मेरे इरादे के दो तारे, मेरे अच्छे हदनों के दो धचह्न, मेरे दो ाथ, अब मुझसे ववदा ो र े ै।

अब मिंगलशसिं ने रुपए धगनकर रख हदए और बैलों को ले चले तब धगरिारी उनके किं िों पर शसर रखकर खूब फूट-फूटकर रोया। जैसे कन्या मायके से ववदा ोत ेसमय मााँ-बाप के पैरों को न ीिं छोड़ती, उसकी तर धगरिारी इन बैलों को न छोड़ता था। सुभागी भी दलान में खडी रो र ी थी और छोटा लड़का मिंगलशसिं को एक बााँस की छड़ी से मार र ा था।

रात को धगरिारी ने कुछ न ीिं खाया। चारपाई पर पड़ा र ा! प्रातुःकाल सुभागी धचलम-भर कर ले गई तो व चारपाई पर न था। उसने समझा क ीिं गए ोंगे। लेककन जब दो-तीन घड़ी हदन चढ आया और व न लौटा तो उसने रोना-िोना शुर ककया। गााँव के लोग जमा ो गए, चारों ओर खोज ोने लगी, पर धगरिारी का पता न चला।

6

सिंध्या ो गई। अाँिेरा छा र ा था। सुभागी ने दीया जलाकर धगरिारी के शसर ाने रख हदया था और बैठी द्वार की ओर ताक र ी थी कक स सा उसे पैरों की आ ट मालूम ुई। सुभागी का हृदय िड़क उठा। व दौड़कर बा र आई, और

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इिर-उिर ताकने लगी। उसने देखा कक धगरिारी बैलों की नाद के पास शसर झुकाए खड़ा ै।

सुभागी बोली - घर आओ, व ााँ खड़ ेक्या कर र े ो, आज सारा हदन क ााँ र े?

य क त े ुए व धगरिारी की ओर चली। धगरिारी ने कुछ उत्तर न हदया। व पीछे टने लगा और थोड़ी दरू जाकर गायब ो गया। सुभागी धचल्लाई और मूष्च्छमत ोकर धगर पड़ी।

दसूरे हदन काशलकादीन ल लेकर अपने खेत पर प ुाँचे, अभी कुछ अाँिेरा था। बैलों को ल में लगा र े थे कक यकायक उन् ोंने देखा की धगरिारी खेत की मेड़ पर खड़ा ै, व ी शमजमई, व ी पगड़ी, व ी सोंटा।

काशलकादीन ने क ा - अरे धगरिारी! मरदे आदमी, तुम य ााँ खड़ े ो, और बेचारी सुभागी ैरान ो र ी ै। क ााँ से आ र े ो? य क त े ुए बैलों को छोड़कर धगरिारी की ओर चले, धगरिारी पीछे टने लगा और पीछे वाले कुएाँ में कूद पड़ा। काशलकादीन ने चीख मारी और ल-बैल व ीिं छोड़कर भागा। सारे गााँव में शोर मच गया, और लोग नाना प्रकार की कल्पनाएाँ करने लगे। काशलकादीन को धगरिारी वाले खेतों में जाने की ह म्मत न पड़ी।

धगरिारी को गायब ुए 6 म ीने बीत चुके ै। उसका बड़ा लड़का अब एक ईंट के भटे्ठ परकाम करता ै और 20 रु. म ीना घर आता ै। अब व कमीज और अिंगरेजी जूता प नता ै; घर में दोनों जून तरकारी पकती ै और जौ के बदले गे ूाँ खाया जाता ै; लेककन गााँव में उसका कुछ भी आदर न ीिं ै। य अब मजूरा ै। सुभागी अब पराए गााँव में आए ुए कुत्त ेकी भााँनत दबुकती कफरती ै। व अब पिंचायत में न ीिं बैठती। व अब मजूर की मााँ ै। काशलकादीन ने धगरिारी के खेतों से इस्तीफा दे हदया ै, क्योंकक धगरिारी अभी तक अपने खेतों के चारों ओर माँडराया करता ै। अाँिेरा ोत े ी व मेड़ पर आकर बैठ जाता ै। और कभी-कभी रात को उिर से रोने की आवाज सुनाई देती ै। व ककसी से बोलता

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न ीिं, ककसी को छेड़ता न ीिं। उसे केवल अपने खेतों को देखकर सिंतोष ोता ै। दीया जलने के बाद उिर का रास्ता बिंद ो जाता ै।

लाला ओिंकारनाथ ब ुत चा ते ै कक ये खेत उठ जाएाँ, लेककन गााँव के लोग अब उन खेतों का नाम लेत ेडरत े ैं.

***

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बोध

पिंडडत चिंद्रिर ने एक अपर प्राइमरी में मुदररमसी तो कर ली थी, ककिं तु सदा ी पछताया करत ेकक क ााँ से इस जिंजाल में आ फाँ से। यहद ककसी अन्य ववभाग में नौकर ोत ेतो अब तक ाथ में चार पैसे ोते, आराम से जीवन व्यतीत ोता। य ााँ तो म ीने भर प्रतीक्षा करने के पीछे क ीिं पिंद्र रुपए देखने को शमलत े ैं। व भी इिर आए, उिर गायब। न खाने का सुख, न प नने का आराम। मसे तो मजूर ी भले।

पिंडडत जी के पड़ोस में दो म ाशय और र त े थे। एक ठाकुर अनतबलशसिं , व थाने में ेड कान्सटेबुल थे। दसूरे मुिंशी बैजनाथ, व त सील में शसला ेनवीस थे। इन दोनों आदशमयों का वेतन पिंडडत जी से अधिक न था, तब भी उनको चैन से गुजरती थी। सिंध्या को व कच री से आते, बच्चों को पैसे और शमठाइयााँ देते। दोनों आदशमयों के पास ट लत ेथे। घर में कुरशसयााँ, मेजें, फशम आहद सामधग्रयााँ मौजूद थी। ठाकुर सा ब शाम को आराम कुरसी पर लेट जात ेऔर खुशबूदार खमीरा पीत।े मुिंशी जी को शराब-कबाब का व्यसन था। व अपने सुसष्ज्जत कमरे में बैठे ुए बोतल पर बोतल साफ कर देत।े जब कुछ नशा ोता तो ारमोननयम बजात।े सारे मु ल्ले में उनका रोबदाब था। उन दोनों म ाशयों को आते-जात े देख बननये उठकर सलाम करत।े उनके शलए बाजार में अलग भाव था। चार पैसे की चीज टके में लात।े लकड़ी-ईिन मुफ्त में शमलता। पिंडडत जी उनके ठाट-बाट देखकर कुढत ेऔर अपने भाग्य को कोसत।े व लोग इतना भी न जानत े थे कक पथृ्वी सूयम का चक्कर लगाती ै अथवा सूयम पथृ्वी का। सािारण प ाड़ों का भी ज्ञान न था, ष्जस पर भी ईश्वर ने उन् ें इतनी प्रभुता दे रखी थी। य लोग पिंडडत जी पर बड़ी कृपा रखत ेथे। कभी सेर आि सेर दिू भेज देत ेऔर कभी थोड़ी-सी तरकाररयााँ। ककिं तु इनके बदले में पिंडडत जी को ठाकुर सा ब के दो और मुिंशी जी के तीन लड़कों की ननगरानी करनी पड़ती। ठाकुर सा ब क ते, पिंडडत जी! य लड़के र घड़ी खेला करत े ैं, जरा इनकी खबर लेत े रह ए। मुिंशी जी क ते, य लड़के आवारा ुए जात े ै, जरा इनका

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खयाल रखखए। य बातें बड़ी अनुग्र पूणम रीनत के क ी जाती थीिं मानो पिंडडत जी उनके गुलाम ै। पिंडडत जी को य व्यव ार असह्य था, ककिं तु इन लोगों को नाराज करने का सा स न कर सकत ेथे, उनकी बदौलत कभी-कभी दिू-द ी के दशमन ो जात,े कभी अचार-चटनी चख लेत।े केवल इतना ी न ीिं, बाजार से चीजें भी सस्ती लात।े इसशलए बेचारे इस अनीनत को ववष के घूाँट के समान पीत।े इस दरुवस्था से ननकलने के शलए उन् ोंने बड़-ेबड़ ेयत्न ककए थे। प्राथमना-पत्र शलखे, अफसरों की खुशामदें कीिं, पर आशा पूरी न ुई। अिंत में ार कर बैठ र े। ााँ, इतना था कक अपने काम में त्रुहट न ोने देत।े ठीक समय पर जात,े देर करके आते, मन लगाकर पढात ेइससे उनके अफसर खुश थे। साल में कुछ इनाम देत ेऔर वेतन-ववृद्ध का जब कभी अवसर आता, उनका ववशेष ध्यान रखत।े परिंतु इस ववभाग की वेतन-ववृद्ध ऊसर की खेती ै। बड़ ेभाग से ाथ लगती ै। बस्ती के लोग उनसे सिंतुष्ट थे। लड़कों की सिंख्या बढ गई थी और पाठशाला के लड़के भी उन पर जान देत ेथे। कोई उनके घर आकर पानी भर देता, कोई उनकी बकरी के शलए पष्त्तयााँ तोड़ लाता। पिंडडत जी इसी को ब ुत समझत ेथे।

2

एक बार सावन के म ीने में मुिंशी बैजनाथ और ठाकुर अनतबलशसिं ने श्री अयोध्या जी की यात्रा की सला की। दरू की यात्रा थी। फ्तों प ले से तैयाररयााँ ोने लगी। बरसात के हदन, सपररवार जाने में अड़चन थी; ककिं तु ष्स्त्रयााँ ककसी भााँनत न मानती थीिं। अिंत में वववश ोकर दोनो म ाशयों ने एक-एक सप्ता की छुट्टी ली और अयोध्या जी चले। पिंडड़त जी को भी साथ चलने के शलए बाध्य ककया। मेले-ठेले में एक फालतू आदमी से बड़ े काम ननकलत े ै। पिंडडत जी असमिंजस में पड़े, परिंतु जब उन लोगों ने उनका व्यय देना स्वीकार ककया तो इनकार न कर सके और अयोध्या जी की यात्रा का ऐसा सुअवसर पाकर न रुक सके।

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बबल् ौर से एक बज ेरात को गाड़ी छूटती थी। य लोग खा-पीकर स्टेशन पर आ बैठे। ष्जस समय गाड़ी आई, चारों ओर भगदड़-सी पड़ गई - जारों यात्री जा र े थे। उस उतावली में मुिंशी जी प ले ननकल गए। पिंडडत जी और ठाकुर सा ब साथ थे। एक कमरे में बैठे। इस आफत में कौन ककसका रास्ता देखता ै।

गाडड़यों में जग की बड़ी कमी थी, परिंतु ष्जस कमरे में ठाकुर सा ब थे उसमे केवल चार मनुष्य थे। व सब लेटे ुए थे। ठाकुर सा ब चा त ेथे कक व उठ जाए तो जग ननकल आए। उन् ोंने एक मनुष्य को डााँटकर क ा - उठ बैठो जी, देखत ेन ीिं म लोग खड़ े ै।

मुसाकफर लेटे-लेटे बोला - क्यों उठ बैठे जी? कुछ तुम् ारे बैठने का ठेका शलया ै?

ठाकुर - क्या मने ककराया न ीिं हदया ै?

मुसाकफर - ष्जसे ककराया हदया ो, उससे जाकर जग मााँगो।

ठाकुर - जरा ोश की बातें करो। इस डब्बे में दस याबत्रयों के बैठने की आज्ञा ै।

मुसाकफर - य थाना न ीिं ै, जरा जबान साँभाल कर बातें कीष्जए।

ठाकुर - तुम कौन ो जी?

मुसाकफर - म व ी ै ष्जस पर आपने खुकफया फरोसी का अपराि लगाया था और ष्जसके द्वार से आप नकद 25 रु. लेकर टले थे।

ठाकुर - अ ा! अब प चाना। परिंतु मैंने तो तुम् ारे साथ ररयायत की थी। चालान कर देता तो तुम सजा पा जात।े

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मुसाकफर - और मैं भी तुम् ारे साथ ररयायत की कक गाड़ी में खड़ा र ने हदया। ढकेल देता तो तुम नीच ेजात ेऔर तुम् ारी ड्डी-पसली का पता न लगता।

इतने में दसूरा लेटा ुआ यात्री जोर से ठट्ठा मारकर ाँसा और बोला - और क्यों दारोगा सा ब, मुझ ेक्यों न ीिं उठात?े

ठाकुर सा ब क्रोि से लाल ो र े थे। सोचत े थे कक अगर थाने में ोता तो इनकी जबान खीिंच लेता, पर इस समय बुरे फाँ से थे। व बलवान मनुष्य थे पर य दोनों मनुष्य भी टे्ट-कटे्ट देख पड़त ेथे।

ठाकुर - सिंदकू नीच ेरख दो, बस जग ो जाए।

दसूरा मुसाकफर बोला - और आप ी क्यों न नीच ेबैठ जाएाँ। इसमें कौन-सी ेठी ुई जाती ै। य थाना थोड़ े ी कक आपके रोब में फकम पड़ जाएगा।

ठाकुर सा ब ने उसकी ओर भी ध्यान से देखकर पूछा - क्या तुम् ें भी मुझसे कोई बैर ै?

'जी ााँ, मैं तो आपके खून का प्यासा ूाँ।'

'मैंने तुम् ारा क्या बबगाड़ा ै, तुम् ारी तो सूरत भी न ीिं देखी।'

दसूरा मनुष्य - आपने मेरी सूरत न देखी ोगी, पर आपके डिंड ेने देखी ै। इसी कल के मेले में आपने मुझ ेकई डिंड ेलगाए। मैं चुपचाप तमाशा देखता था पर आपने आकर मेरा कचूमर ननकाल हदया। मैं चुप र गया, घाव हदल पर लगा ुआ ै। आज उसकी दवा शमलेगी।

य क कर उसने और भी पााँव फैला हदया और क्रोिपूणम नेत्रों से देखने लगा। पिंडडत जी अब तक चुपचाप खड़ े थे। डरत े थे कक क ीिं मार-पीट न ो जाए। अवसर पाकर ठाकुर सा ब को समझाया। ज्यों ी तीसरा स्टेशन आया, ठाकुर

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सा ब ने बाल-बच्चों को व ााँ से ननकालकर दसूरे कमरे में बैठाया। इन दोनों दषु्टों ने उनका असबाब उठा-उठाकर जमीन पर फें क हदया। जब ठाकुर गाड़ी से उतरने लगे तो उन् ोंने उनको ऐसा िक्का हदया कक बेचारे प्लेटफामम पर धगर पड़।े गाड़म से क ने दौड़ ेथे कक इिंष्जन ने सीटी दी, जाकर गाड़ी में बैठ गए।

उिर मुिंशी बैजनाथ की और भी बुरी दशा थी। सारी रात जागत ेगुजारी। जरा पैर फैलाने की जग न थी। आज उन् ोंने जेब में बोतल भर कर रख ली थी। प्रत्येक स्टेशन पर कोयला-पानी ले लेत े थे। फल य ुआ कक पाचन-कक्रया में ववध्न पड़ गया। एक बार उल्टी ुई और पेट में मरोड़ ोने लगी। बेचारे बड़ी मुष्श्कल में पड़।े चा त ेथे कक ककसी भााँनत लेट जाएाँ, पर व ााँ पैर ह लाने की भी जग न थी। लखनऊ तक तो उन् ोंने ककसी तर जब्त ककया। आगे चलकर वववश ो गए। एक स्टेशन पर उतर पड़।े प्लेटफामम पर लेट गए। पत्नी भी घबराई। बच्चों को लेकर उतर पड़ी। असबाब उतारा परिंतु जल्दी में रिंक उतारना भूल गई। गाड़ी चल दी। दारोगा जी ने अपने शमत्र को इस दशा में देखा तो व भी उतर पड़।े समझ गए कक जरत आज ज्यादा चढा गए। देखा तो मुिंशी जी की दशा बबगड़ गई थी। ज्वर, पेट में ददम, नसों में तनाव, कै और दस्त। बड़ा खटका ुआ। स्टेशनमास्टर ने य ाल देखा तो समझ े ैजा ो गया ै। ुक्म हदया रोगी को अभी बा र ले जाओ। वववश ोकर लोग मुिंशी जी को लेकर एक पेड़ के नीच ेउठा लाए। उनकी पत्नी रोने लगी। कीम-डाक्टर की तलाश ुई। पता लगा कक डडष्स्रक्ट बोडम की तरफ से व ााँ एक छोटा अस्पताल ै। लोगों की जान में जान आई। ककसी से य भी मालूम ुआ कक डाक्टर सा ब बबल् ौर के र ने वाले ै। ढाढस बाँिा। दारोगा जी अस्पताल दौड़।े डाक्टर सा ब से समाचार क सुनाया और क ा - आप चलकर जरा उन् ें भी देख तो लीष्जए।

डाक्टर का नाम था चोखेलाल। किं पौंडर थे, लोग आदर से डाक्टर क ा करत ेथे। सब वतृ्तािंत सुनकर रुखाई से बोले - सबेरे के समय मुझ ेबा र जाने की आज्ञा न ीिं ै।

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दारोगा - तो क्या मुिंशी जी को य ााँ लावें?

चोखेलाल - ााँ, आपका जी चा े लाइए।

दारोगा जी ने दौड़-िूप कर एक डोली का प्रबिंि ककया। मुिंशी जी जो लाद कर अस्पताल लाए। ज्यों ी बरामदे में पैर रखा चोखेलाल ने डााँटकर क ा - ैजे (ववसूधचका) के रोगी को ऊपर लाने की आज्ञा न ीिं ै।

बैजनाथ अचेत तो थे न ीिं, आवाज सुनी, प चाना, िीरे से बोले - अरे य तो बबल् ौर ी के ै - भला-सा नाम ै। त सील मे आया-जाया करत े ैं। क्यों म ाशय। मुझ ेप चानत े ै?

चोखेलाल - जी ााँ, खूब प चानता ूाँ।

बैजनाथ - प चान कर भी इतनी ननष्ठुरता। मेरी जान ननकल र ी ै। जरा देखखए, मुझ ेक्या ो गया?

चोखेलाल - ााँ, य सब कर दूाँगा और मेरा काम ी क्या? फीस?

दारोगा जी - अस्पताल मे कैसी फीस जनाबेमन।

चोखेलाल - वैसे ी जैसी इन मुिंशी जी ने मुझ से वसूल की थी जमाबेमन।

दारोगा जी - आप क त े ै, मेरी समझ में न ीिं आता।

चोखेलाल - मेरा घर बबल् ौर में ै। व ााँ मेरी थोडी-सी जमीन ै। साल में दो-बार उसकी देखभाल में जाना पड़ता ै। जब त सील में लगान जमा करने जाता ूाँ मुिंशी जी डााँटकर अपना क वसूल कर लेत े ै। न दूाँ तो शाम तक खड़ा र ना पड़।े स्या ा न ो। कफर जनाब कभी गाड़ी नाव पर, कभी नाव गाड़ी पर। मेरी फीस दस रुपए ननकाशलए। देखूाँ, दवा दूाँ तो अपनी रा लीष्जए।

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दारोगा - दस रुपए!!

चोखेलाल - जी ााँ, और य ााँ ठ रना चा े तो दस रुपए रोज।

दारोगा जी वववश ो गए। बजैनाथ की स्त्री से रुपए मााँगे। तब उसे अपने बक्स की याद आई। छाती पीट ली। दारोगा जी के पास भी अधिक रुपए न थे, ककसी तर दस रुपए ननकालकर चोखेलाल को हदए - उन् ोंने दवा दी। हदन भर कुछ फायदा न ुआ। रात को दशा साँभली। दसूरे हदन कफर दवा की आवश्यकता ुई। मुिंशशयाइन का एक ग ना जो 20 रु. से कम न था बाजार में बेचा गया तब काम चला। शाम तक मुिंशी जी चिंगे ुए। रात को गाड़ी पर बैठकर खूब गाशलयााँ दी।

श्री अयोध्या जी में प ुाँचकर स्थान की खोज ुई। पिंड़ों के घर जग न थी। घर-घर में आदमी भरे ुए थे। सारी बस्ती छान मारी पर क ीिं हठकाना न शमला। अिंत में य ननश्चय ुआ कक ककसी पेड़ के नीच ेडरेा जमाना चाह ए। ककिं तु ष्जस पेड के नीच ेजात ेथे व ीिं यात्री पड़ ेशमलत।े खुले मैदान में, रेत पर पड़ ेर ने के शसवा और कोई उपाय न था। एक स्वच्छ स्थान देखकर बबस्तरे बबछाए और लेटे। इतने में बादल नघर आए। बूाँदें धगरने लगी। बबजली चमकने लगी। गरज से कान के परदे फटे जात ेथे। लड़के रोत ेथे। ष्स्त्रयों के कलेजे कााँप र े थे। अब य ााँ ठ रना दसु्स था, पर जाएाँ क ााँ।

अकस्मात एक मनुष्य नदी की तरफ से लालटेन शलये आता ुआ हदखाई हदया - व ननकट प ुाँच गया तो पिंडडत जी ने उसे देखा। आकृनत कुछ प चानी ुई मालूम ुआ ककिं तु य ववचार न आया कक क ााँ देखा ै। पास जाकर बोले - क्यों भाई सा ब, य ााँ कोई याबत्रयों को ठ रने के शलए जग न शमलेगी? व मनुष्य रुक गया। पिंडडत जी की ओर ध्यान से देखकर बोला - आप पिंडडत चिंद्रिर तो न ीिं ै?

पिंडडत जी प्रसन्न ोकर बोले - जी ााँ। आप मुझ ेकैसे जानत े ै?

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उस मनुष्य ने सादर पिंडडत जी के चरण छुए और बोला - मैं आपका पुराना शशष्य ूाँ। मेरा नाम कृपाशिंकर ै। मेरे वपता कुछ समय बबल् ौर में डाक-मुिंशी र े थे। उन् ीिं हदनों मैं आपकी सेवा में पढता था।

पिंडडत जी की स्मनृत जागी, बोले - ओ ो, तुम् ीिं ो कृपाशिंकर! तब तो तुम दबुले-पतले लड़के थे कोई आठ-नौ साल ुए ोंगे।

कृपाशिंकर - जी ााँ, नवााँ साल था। मैंने व ााँ से आकर इिंरेस पास ककया, अब य ााँ म्युननशसवपल्टी में नौकर ूाँ। कह ए आप तो अच्छी तर र े। सौभाग्य था कक आपके दशमन ो गए।

पिंडडत - मुझ ेभी तुमसे शमलकर बड़ा आनिंद ुआ। तुम् ारे वपता अब क ााँ ै?

कृपाशिंकर - उनका तो दे ािंत ो गया। माता साथ ै। आप य ााँ कब आए।

पिंडडत - आज ी आया ूाँ। पिंडों के घर जग न शमली। वववश ोकर य ीिं रात काटने की ठ री।

कृपाशिंकर - बाल-बच्च ेभी साथ ैं?

पिंडडत - न ीिं, मैं तो अकेले ी आया ूाँ। पर मेरे साथ दरोगा जी और शसया ेनवीस सा ब ै - उनके बाल-बच्च ेभी साथ ै।

कृपाशिंकर - कुल ककतने मनुष्य ोंगे?

पिंडडत जी - ैं तो दस ककिं तु थोड़ी-सी जग में ननवाम कर लेंगे।

कृपाशिंकर - न ीिं सा ब, ब ुत-सी जग लीष्जए। मेरा बड़ा मकान खाली पड़ा ै। चशलए, आराम से एक, दो, तीन हदन रह ए। मेरा परम सौभाग्य ै कक आपकी कुछ सेवा करने का अवसर शमला।

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कृपाशिंकर ने कुली बुलाए। असबाब उठवाया और सबको अपने मकान पर ले गया। साफ-सुथरा घर था। नौकर ने चटपट चारपाइयााँ बबछा दी। घर में पूररया पकने लगीिं। कृपाशिंकर ाथ बााँिे सेवक की भााँनत दौड़ता था। हृदयोल्लास से उसका मुख-कमल चमक र ा था। उसकी ववनय और नम्रता ने सबको मुग्ि कर शलया।

और सब लोग तो खा-पीकर सोए। ककिं तु पिंडडत चिंद्रिर को नीिंद न ीिं आई। उनकी ववचार शष्क्त की घटनाओिं का उल्लेख कर र ी थी। रेलगाड़ी की रगड़-झगड़ और धचककत्सालय की नोच-खसोट के सम्मुख कृपाशिंकर की स ायता और शालीनता प्रकाशमय हदखाई देती थी।

पिंडडत दी ने आज शशक्षक का गौरव समझा।

उन् ें आज इस पद की म ानता ज्ञात ुई।

य लोग तीन हदन अयोध्या में र े। ककसी बात का कष्ट न ुआ। कृपाशिंकर ने उनके साथ जाकर प्रत्येक िाम का दशमन कराया।

तीसरे हदन जब लोग चलने लगे तो व स्टेशन तक प ुाँचाने आया। जब गाड़ी ने सीटी दी तो उसने सजल नेत्रों से पिंडडत जी के चरण छुए और बोला, कभी-कभी इस सेवक को याद करत ेरह एगा।

पिंडडत जी घर प ुाँच ेतो उनके स्वभाव में बड़ा पररवतमन ो गया था। उन् ोंने कफर ककसी दसूरे ववभाग में जाने की चषे्टा न ीिं की।

***

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सचाई का उपहार

त सीली मदरसा बरााँव के प्रथमाध्यापक मुिंशी भवानीस ाय को बागवानी का कुछ व्यसन था। क्याररयों में भााँनत-भााँनत के फूल और पष्त्तयााँ लगा रखी थीिं। दरवाजों पर लताएाँ चढा दी थीिं। इससे मदरसे की शोभा अधिक ो गई थी। व शमडडल कक्षा के लड़कों से भी अपने बगीच ेके सीिंचने और साफ करने में मदद शलया करत े थे। अधिकािंश लड़के इस काम को रुधचपूवमक करत।े इससे उनका मनोरिंजन ोता था ककिं तु दरजे में चार-पााँच लड़के जमीिंदारों के थे। उनमें कुछ ऐसी दजुमनता थी कक य मनोरिंजक कायम भी उन् ें बेगार प्रतीत ोती। उन् ोंने बाल्यकाल से आलस्य में जीवन व्यतीत ककया था। अमीरी का झूठा अशभमान हदल में भरा ुआ था। व ाथ से कोई काम करना ननिंदा की बात समझत ेथे। उन् ें इस बगीच ेसे घणृा थी। जब उनके काम करने की बारी आती तो कोई-न-कोई ब ाना करके उड़ जात।े इतना ी न ीिं, दसूरे लड़कों को भी ब कात ेऔक क ते, वा ! पढे फारसी बेच ेतले! यहद खुरपी, कुदाल ी करना ै तो मदरसे में ककताबों से शसर मारने की क्या जररत? य ााँ पढने आत े ैं, कुछ मजदरूी करने न ीिं आत।े मुिंशी जी इस अवज्ञा के शलए उन् ें कभी-कभी दिंड भी दे देत े थे। इससे उनका द्वेष और भी बढता था। अिंत में य ााँ तक नौबत प ुाँची की एक हदन उन लड़कों ने सला करके उस पुष्प-वाहटका को ववध्विंस करने का ननश्चय ककया। दस बजे मदरसा लगता था, ककिं तु उस हदन व आठ बजे आ गए, और बगीच ेमें घुसकर उसे उजाड़ने लगे। क ीिं पौिे उखाड़ फें के, क ीिं क्याररयों को रौंद डाला, पानी की नाशलयााँ तोड़ डाली, क्याररयों की मेड़ ेखोद डालीिं। मारे भय के छाती िड़क र ी थी कक कोई देखता न ो। लेककन एक छोटी-सी फुलवारी को उजाड़त ेककतने देर लगती ै। दस शमननट में रा-भरा बाग नष्ट ो गया। तब व लड़के शीघ्रता से ननकले, लेककन दरवाजे तक आए थे कक उन् ें अपने एक स पाठी की सूरत हदखाई दी। य एक दबुला-पतला दररद्र और चतुर लड़का था। उसका नाम बाजब ादरु था। बड़ा गिंभीर, शािंत लड़का था। ऊिम पाटी के लड़के उससे जलत ेथे। उसे देखत े ी रक्त सूख गया। ववश्वास ो गया कक इसने जरर देख शलया। य मुिंशी से क े बबना न र ेगा। बुरे फाँ से, आज कुशल न ीिं ै। य

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राक्षस इस समय य ााँ क्या करने आया था। आपस में इशारे ुए। य सला ुई कक इसे शमला लेना चाह ए। जगत शसिं उनका मुखखया था। आगे बढकर बोला, बाजब ादरु! सबेरे कैसे गए? मने तो आज तुम लोगों के गले की फााँसी छुड़ा दी। लाल ब ुत हदक ककया करत े थे, य करो, व करो। मगर यार देखो क ीिं मुिंशी जी से मत जड़ देना, न ीिं तो लेने के देने पड़ जाएाँगे।

जयराम ने क ा - क क्या देंगे, अपने ी तो ैं, मने जो कुछ ककया ै। व सबके शलए ककया ै, केवल अपनी भलाई के शलए न ीिं। चलो यार तुम् ें बाजार की सैर करा दें, मुाँ मीठा करा दें।

बाजब ादरु ने क ा - न ीिं, मुझ ेआज घर पर पाठ याद करने का अवकाश न ीिं शमला। य ीिं बैठकर पढूाँगा।

जगतशसिं - अच्छा मुिंशी जी से क ोगे तो न?

बाजब ादरु - मैं स्वयिं कुछ न क ूाँगा, लेककन उन् ोंने मुझसे पूछा तो?

जगतशसिं - क देना मुझ ेन ीिं मालूम।

बाजब ादरु - य झूठ मुझसे न बोला जाएगा।

जयराम - अगर तुमने चुगली खाई और मारे ऊपर मार पड़ी तो म तुम् ें पीटे बबना न छोड़गेे।

बाजब ादरु - मने क हदया कक चुगली न खाएिंगे, लेककन मुिंशी जी ने पूछा तो झूठ भी न बोलेंगे।

जयराम - तो म तुम् ारी ड्डडयााँ भी तोड़ देंगे।

बाजब ादरु - इसका तुम् ें अधिकार ै।

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2

दस बजे जब मदरसा लगा और मुिंशी भवानीस ाय ने बाग की य ददुमशा देखी तो क्रोि से आग ो गए। बाग के उजड़ने का इतना खेद न था ष्जतना लड़कों की शरारत का। यहद ककसी सााँड ने य दषु्कृत्य ककया ोता तो व केवल ाथ मल कर र जात।े ककिं तु लड़कों के इस अत्याचार को स न न कर सकें । ज्यों ी लड़के दरजे में बैठ गए, व तीवर बदले ुए आए और पूछा - य बाग ककसने उजाड़ा ै?

कमरे में सन्नाटा छा गया। अपराधियों के चे रे पर वाइयााँ उड़ने लगी। शमडडल कक्षा के पच्चीस ववद्याधथमयों में कोई ऐसा न था जो इस घटना को न जानता ो ककिं तु ककसी में य सा स न था कक उठकर साफ-साफ क दें। सब शसर झुकाए मौन िारण ककए ुए थे।

मुिंशी जी का क्रोि और भी प्रचिंड ुआ। धचल्लाकर बोले - मुझ े ववश्वास ै कक तुम् ीिं लोगों में से ककसी की शरारत ै। ष्जसे मालूम ो स्पष्ट क दे, न ीिं तो मैं एक शसरे से पीटना शुर कराँ गा। कफर कोई य न क े कक ननरपराि मारे गए।

एक लड़का भी न बोला। व ी सन्नाटा!

मुिंशी - देवीप्रसाद तुम जानत े ो?

देवी - जी न ीिं, मुझ ेकुछ न ीिं मालूम।

'शशवदास तुम जानत े ो?'

'जी न ीिं, मुझ ेकुछ न ीिं मालमू।'

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'बाजब ादरु तुम कभी झूठ न ीिं बोलत,े तुम् ें मालूम ै?'

बाजब ादरु खड़ा ो गया, उसके मुख-मिंडल पर वीरत्व का प्रकाश था। नेत्रों में सा स झलक र ा था। बोला - जी ााँ!

मुिंशी जी ने क ा - शाबाश!

अपराधियों ने बाजब ादरु की ओर रक्त-वणम आाँखों से देखा और मन में क ा - अच्छा!

3

भवानीस ाय बड़ ेिैयमवान मनुष्य थे। यथाशष्क्त लड़कों को यातना न ीिं देत ेथे। ककिं तु ऐसी दषु्टता का दिंड देने में व लेशमात्र भी दया न हदखात े थे। छड़ी माँगाकर पााँचों अपराधियों को दस-दस छडड़यााँ लगाई, सारे हदन बेंच पर खड़ा रखा और चाल-चलन के रष्जस्टर में उनके नाम के सामने काले धचह्न बना हदए।

बाजब ादरु से शरारत पाटी के लड़के यों ी जला करत ेथे, आज उसकी सचाई के कारण उसके खून के प्यासे ो गए। यिंत्रणा में स ानुभूनत पैदा करने की शष्क्त ोती ै। इस समय दरजे के अधिकािंश लड़के अपराधियों के शमत्र ो र े थे। उनमें षड्यिंत्र रचा जाने लगा कक आज बाजब ादरु की खबर ली जाए। ऐसा मारो कक कफर मदरसे मे मुाँ न हदखावे। य मारे घर का भेदी ै। दगाबाज! बड़ा सच्च ेकी दमु बना ै! आज सचाई का ाल मालूम ो जाएगा! बेचारे बाजब ादरु को इस गुप्त-लीला की जरा भी खबर न थी। ववद्रोह यों ने उसे अिंिकार में रखने का पूरा यत्न ककया था।

छुट्टी ोने के बाद बाजब ादरु घर की तरफ चला। रास्त ेमें एक अमरद का बाग था। व ााँ जगतशसिं और जयराम कई लड़कों के साथ खड़ ेथे। बाजब ादरु चौंका, समझ गया कक य लोग मुझ ेछेड़ने पर उतार ैं ककिं तु बचने का कोई उपाय न

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था। कुछ ह चकता ुआ आगे बढा। जगतशसिं बोला - आओ लालो! ब ुत रा हदखाई। आओ सचाई का इनाम लेत ेजाओ।

बाजब ादरु - रास्त ेसे ट जाओ, मुझ ेजाने दो।

जयराम - जरा सचाई का मचा तो चखत ेजाइए।

बाजब ादरु - मैंने तुमसे क हदया था कक जब मेरा नाम लेकर पूछें गे तो मैं बता दूाँगा।

जयराम - मने भी तो क हदया था कक तुम् ें इस काम का इनाम हदए बबना न छोड़गेे।

य क त े ी व बाजब ादरु की तरफ घूाँसा तान कर बढा। जगतशसिं ने उसके दोनों ाथ पकड़ने चा े। जयराम का छोटा भाई शशवराम अमरद की एक ट नी लेकर झपटा। शेष लड़के चारों तरफ खड़ े ोकर तमाशा देखने लगे। य 'ररजवम' सेना थी जो आवश्यकता ोने पर शमत्रदल की स ायता के शलए तैयार थी। बाजब ादरु दबुमल लड़का था। उसकी मरम्मत करने को व तीन मजबूत लड़के काफी थे। सब लोग य ी समझ र े थे कक क्षण भर में व तीनों उसे धगया लेंगे। बाजब ादरु ने जब देखा कक शत्रुओिं से शस्त्र-प्रकार करना शुर कर हदया तो उसने कनखखयों से इिर-उिर देखा, तब तजेी से झपट कर शशवराम के ाथ से अमरद की ट नी छीन ली, और दो कदम पीछे टकर ट नी ताने ुए बोला - तुम मुझ ेसचाई का इनाम या सजा देने वाले कौन ोत े ो?

दोनों ओर से दााँव-पेंच ोने लगे। बाजब ादरु था तो कमजोर, पर अत्यिंत चपल और सतकम , उस पर सत्य का ववश्वास हृदय को और भी बलवान बनाए ुए था। सत्य चा े शसर कटा दे, लेककन कदम पीछे न ीिं टाता। लेककन अमरद की ट नी क ााँ तक थाम सकत। जरा देर में उसकी िष्ज्जयााँ उड़ गई। जब तक व उसके ाथ में र ी तलवार र ी। कोई उसके ननकट आने की ह म्मत न करता था।

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नन त्था ोने पर व ठोकरों और घूाँसों से जवाब देता र ा। मगर अिंत में अधिक सिंख्या ने ववजय पाई। बाजब ादरु की पसली में जयराम का एक घूाँसा ऐसा पड़ा कक व बेदम ोकर धगर पड़ा। आाँखें पथरा गई; और मूछाम-सी आ गई। शत्रुओिं ने य दशा देखी तो उनके ाथों के तोत ेउड़ गए। समझ ेइसकी जान ननकल गई। बेत ाशा भागे।

कोई दस शमननट के पीछे बाजब ादरु सचते ुआ। कलेजे पर चोट लग गई। घाव ओछा पड़ा था, नतस पर भी खड़ े ोने की शष्क्त न थी। सा स करके उठा और लाँगड़ाता ुआ घर की ओर चला।

उिर ववजय दल भागते-भागत ेजयराम के मकान पर प ुाँचा। रास्त ेमें ी सारा दल नततर-बबतर ो गया। कोई इिर से ननकल भागा, कोई उिर से, कहठन समस्या आ पड़ी थी। जयराम के घर तक केवल तीन सुदृढ लड़के प ुाँच।े व ााँ प ुाँच कर उनकी जान में जान आई।

जयराम - क ीिं मर न गया ो। मेरा घूाँसा बैठ गया था।

जगतशसिं - तुम् ें पसली में न ीिं मारना था। अगर नतल्ली फट गई ोगी तो न बचगेा!

जयराम - यार मैंने जान से थोड़ े ी मारा था। सिंजोग ी था। अब बताओ क्या ककया जाए?

जगत - करना क्या ै, चुपचाप बैठे र ो।

जयराम - क ीिं मैं अकेला तो न फाँ सूाँगा?

जगत - अकेले कौन फाँ सेगा, सबके साथ चलेंगे।

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जयराम - अगर बाजब ादरु मरा न ीिं ै तो उठकर सीिे मुिंशी जी के पास जाएगा।

जगत - और मुिंशी जी कल म लोगों की खाल अवश्य उिेड़ेंगे।

जयराम - इसशलए मेरा सला ै कक कल मदरसे जाओ ी न ीिं। नाम कटा तो दसूरी जग चले चलें। न ीिं तो बीमारी का ब ाना करके बैठे र ें। म ीने दो म ीने में बाद जब मामला ठिंडा पड़ जाएगा तो देखा जाएगा।

शशवराम - और जो परीक्षा ोने वाली ै।

जयराम - ओ ो! इसका तो खयाल ी न था। एक ी म ीना तो और र गया ै।

जगत - तुम् ें अबकी जरर वजीफा शमलता।

जयराम - ााँ, मैंने ब ुत पररश्रम ककया था। तो कफर?

जगत - कुछ न ीिं तरक्की तो ो ी जाएगी। वजीफे से ाथ िोना पड़गेा?

जयराम - बाजब ादरु के ाथ लग जाएगा।

जगत - ब ुत अच्छा ोगा! बेचारे ने मार भी तो खायी ै।

दसूरे हदन मदरसा लगा। जगतशसिं , जयराम और शशवराम तीनों गायब थे। वली मु म्मद पैर में पट्टी बााँिे आए थे, लेककन भय के मारे बुरा ाल था। कल के दशमकगण भी थरथरा र े थे कक क ीिं म लोग भी गे ूाँ के साथ घुन की तर न वपस जाएाँ। बाजब ादरु ननयमानुसार अपने काम में लगा ुआ था। ऐसा मालूम ोता था मानो उसे कल की बातें याद ी न ीिं ैं। ककसी से उनकी चचाम न की। ााँ, आज व अपने स्वभाव के प्रनतकूल कुछ प्रसन्नधचत्त देख पड़ता था।

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ववशेषतुः कल के योद्धाओिं से व अधिक ह लाशमला ुआ था। व चा ता था कक य लोग मेरी ओर से ननुःशिंक ो जाएाँ। रात भर की वववेचना के पश्चात उसने य ी ननश्चय ककया था। और जब सिंध्या समय व घर चला तो उसे अपनी उदारता का फल शमल चुका था। उसके शत्रु लष्ज्जत थे और उसकी प्रशिंसा करत ेथे।

मगर व तीनों अपरािी दसूरे हदन भी न आए। तीसरे हदन भी उनका क ीिं पता न था। व घर से मदरसे को चलत ेलेककन दे ात की तरफ ननकल जात।े व ााँ हदन भर ककसी वकृ्ष के नीचे बैठे र ते, अथवा गुल्ली डिंडे खेलत।े शाम को घर चले आत।े

उन् ोंने य पता भी लगा शलया था कक इस समर के अन्य सभी योद्धागण मदरेसे आत े ैं और मुिंशी जी उनसे कुछ न ीिं बोलत,े ककिं तु धचत्त से शिंका दरू न ोती थी। बाजब ादरु ने जरर क ा ोगा। म लोगों के जाने की देर ै। गए और बेभाव की पड़ी। य ीिं सोचकर मदरसे आने का सा स न कर सकत।े

4

चौथे हदन प्रातुःकाल तीनों अपरािी बैठे सोच र े थे कक आज ककिर चलना चाह ए। इतने में बाजब ादरु आता ुआ हदखाई हदया। इन लोगों को आश्चयम तो ुआ परिंतु उसे अपने द्वार पर आत ेदेखकर कुछ आशा बाँि गई। य लोग अभी बोलने भी न पाए थे कक बाजब ादरु ने क ा - क्यों शमत्रों, तुम लोग मदरसे क्यों न ीिं आते? तीन हदन से गैर ाष्जरी ो र ी ै।

जगत - मदरसे क्या जाएाँ, जान भारी पड़ी ै? मुिंशी जी एक ड्डी भी न छोड़गेे।

बाजब ादरु - क्यों, वली मु म्मद, दगुाम, सभी तो जात े ैं, मुिंशी जी ने ककसी से भी कुछ क ा?

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जयराम - तुमने उन लोगों को छोड़ हदया ोगा, लेककन में भला तुम क्यों छोड़ने लगे। तुमने एक-एक की तीन-तीन जड़ी ोगी।

बाजब ादरु - आज मरदसे चलकर इसकी परीक्षा ी कर लो।

जगत - य झााँसे र ने दीष्जए। में वपटवाने की चाल ै।

बाजब ादरु - तो मैं क ीिं भागा तो न ीिं जाता? उस हदन सच्चाई की सजा दी थी, आज झूठ का इनाम दे देना।

जयराम - सच क त े ो तुमने शशकायत न ीिं की।

बाजब ादरु - शशकायत की कौन बात थी। तुमने मुझ े मारा, मैंने तुम् ें मारा। अगर तुम् ारा घूाँसा न पड़ता तो मैं तुम लोगों को रणक्षेत्र से भगा कर दम लेता। आपस के झगड़ों की शशकायत करने की मेरी आदत न ीिं ै।

जगत - चलूाँ तो यार लेककन ववश्वास न ीिं आता! तुम में झााँसे दे र े ो, कचूमर ननकलवा दोगे।

बाजब ादरु - तुम जानत े ो झूठ बोलने की मेरी बान न ीिं ै!

य शब्द बाजब ादरु ने ऐसी ववश्वासोत्पादक रीनत से क े कक उन लोगों का भ्रम दरू ो गया! बाजब ादरु के चले जाने के पश्चात तीनों देर तर उसकी बातों की वववेचना करत ेर े। अिंत में य ी ननश्चय ुआ कक आज चलना चाह ए!

ठीक दस बजे तीनों शमत्र मदरसे प ुाँच गए, ककिं तु धचत्त में आशिंककत थे! च ेरे का रिंग उड़ा ुआ था।

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मुिंशी जी कमरे में आए। लड़कों ने खड़ े ोकर उनका स्वागत ककया, उन् ोंने तीनों शमत्रों की ओर तीव्र दृष्ष्ट से देखकर केवल इतना क ा - तुम लोग तीन हदन से गैर ाष्जर ो। देखो दरजे में जो इम्त ानी सवाल ुए ैं उन् ें नकल कर लो।

कफर पढने में मग्न ो गए!

5

जब पानी पीने के शलए लड़कों को आि घिंटे का अवकाश शमला तो तीनों शमत्र और उनके स योगी जमा ोकर बातें करने लगे।

जयराम - म तो जान पर खेलकर मदरसे आत ेथे, मगर बाजब ादरु ै बात का िनी।

वलीमु म्मद - मुझ े तो ऐसा मालूम ोता ै व आदमी न ीिं देवता ै। य आाँखों देखी बात न ोती तो मुझ ेकभी इस पर ववश्वास न आता।

जगत - भलमनसी इसी को क त े ै। मसे बड़ी भूल ुई कक उसके साथ ऐसा अन्याय ककया।

दगुाम - चलो उससे क्षमा मााँगें।

जयराम - ााँ, य तुम् ें खूब सूझी। आज ी।

जब मदरसा बिंद ुआ तो दरजे के सब लड़के शमलकर बाजब ादरु के पास गए। जगतशसिं उनका नेता बनकर बोला - भाई सा ेब! म सब-के-सब तुम् ारे अपरािी ैं। तुम् ारे साथ म लोगों ने जो अत्याचार नतया ै उस पर म हृदय से लष्ज्जत ै। मारा अपराि क्षमा करो। तुम सज्जनता की मूनतम ो, म लोग उजड्ड, गाँवार और मूखम ैं; में अब क्षमा प्रदान करो।

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बाजब ादरु की आाँखों ने आाँसू भर आए। बोला - मैं प ले भी तुम लोगों को अपना भाई समझता था और अब भी समझता ूाँ। भाइयों के झगड़े में क्षमा कैसी?

सब-के-सब उसके गले शमले। इसकी चचाम सारे मदरसे में फैल गई। सारा मदरसा बाजब ादरु की पूजा करने लगा। व अपने मदरसे का मुखखया, नेता और शसरमौर बन गया।

प ले उसे सचाई का दिंड शमला, अबकी सचाई का उप ार शमला।

***

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ज्वािार्ुखी

डडग्री लेने के बाद मैं ननत्य लाइबे्ररी जाया करता! पत्रों या ककताबों का अवलोकन करने के शलए न ीिं। ककताबों को तो मैंने छूने का कसम खा ली थी। ष्जस ष्जन गजट में अपना नाम देखा उसी हदन शमल और कैं ट को उठा कर ताक पर रख हदया। मैं केवल अिंगरेजी के पत्रों के 'वािंटेड' कालमों को देखा करता। जीवन-यात्रा की कफक्र सवार थी। मेरे दादा या परदादा ने ककसी अिंगरेज को गदर के हदन बचाया ोता, अथवा ककसी इलाके का जमीिंदार ोता तो क ीिं 'नाशमनेशन' के शलए उद्योग करता। पर मेरे पास कोई शसफाररश न थी। शोक! कुत्ते, बबल्लयों और मोटरों की मााँग सबको थी। पर बी.ए. पास का कोई पुरसााँ ाल न था। म ीनों इसी तर दौड़त े गुजर गए, पर अपनी रुधच के अनुसार कोई जग न नजर आई। मुझ े अक्सर अपने बी.ए. ोने पर क्रोि आता था। ड्राइवर, फायरमैन,

शमस्त्री, खानसामा या बावची ोता तो मुझ े इतने हदनों तक बेकार न बैठना पड़ता।

एक हदन मैं चारपाई पर लेटा ुआ एक पत्र पढ र ा था कक मुझ े एक मााँग अपनी इच्छा के अनुसार हदखाई दी। ककसी रईस को एक ऐसे प्राइवेट सके्रटरी की जररत थी जो ववद्वान, रशसक, सहृदय और रपवान ो। वेतन एक जार माशसक! मैं उछल पड़ा। क ीिं मेरा भाग्य उदय ो जाता और य पद मुझ ेशमल जाता तो ष्जिंदगी चैन से कट जाती। उसी हदन अपना ववनय-पत्र अपने फोटो के साथ रवाना कर हदया। पर अपने आत्मीयगणों में ककसी से इसका ष्जक्र न ककया कक क ीिं लोग मेरी ाँसी न उड़ाएाँ। मेरे शलए 30रु. माशसक भी ब ुत थे। एक जार कौन देगा? पर हदल से य खयाल दरू न ोता। बैठे-बैठे शेखधचल्ली के मन्सूबे बााँिा करता। कफर ोश में आकर अपने को समझाता कक मुझ ेमें ऐसे उच्च ेपद के शलए कौन-सी योग्यता ै। मैं अभी काशलज से ननकला ुआ पुस्तकों का पुतला ूाँ। दनुनया से बेखबर। इस पद के शलए एक से एक ववद्वान, अनुभवी पुरुष मुाँ फैलाए बैठे ोंगे। मैं रपवान स ी, सजीला स ी मगर पदों के शलए

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रपवान ोना काफी न ीिं ोता। ववज्ञापन में इसकी चची करने से केवल अशभप्राय ोगा कक कुरप आदमी की जररत न ीिं, और य उधचत भी ै। बष्ल्क ब ुत सजीलापन तो ऊाँ च ेपदों के शलए कुछ शोभा न ीिं देता। मध्यम शे्रणी का तोंद,

भरा ुआ शरीर, फूले ुए गाल, और गौरवयुक्त वाक्य-शैली, य उच्च पदाधिकाररयों के लक्षण ै और मुझ ेइनमें से एक भी मयस्यर न ीिं। इसी आशा और भय में एक सप्ता गुजर गया। और मैं ननराश ो गया - मैं भी कैसा ओछा ूाँ कक एक बेशसर-पैर की बात के पीछे ऐसा फूल उठा; इसी को बड़कपन क त े ै। ज ााँ तक मेरा खयाल ै ककसी हदल्लगीबाज ने आज के शशक्षक्षत समाज की मूखमता की परीक्षा करने के शलए य स्वााँग रचा ै। मुझ ेइतना भी न सूझा। मगर आठवें हदन प्रातुःकाल तार के चपरासी ने मुझ ेआवाज दी। मेरे हृदय में गुदगुदी-सी ोने लगी। लपका ुआ आया। तार खोलकर देखा, शलखा था - स्वीकार ै, शीघ्र आओ ऐशगढ।

मगर य सुख सिंवाद पाकर मुझ ेव आनिंद न ुआ ष्जसकी आशा थी। मैं कुछ देर तक सोचता र ा। ककसी तर ववश्वास न आता था। जरर ककसी हदल्लगीबाज की शरारत ै। मगर कोई मजुायका न ीिं, मुझ े भी इसका मुाँ तोड़ जवाब देना चाह ए। तार दे दूाँ कक एक म ीने की तनख्वा भेज दो। आप ी सारी कलई खुल जाएगी। मगर कफर ववचार ककया क ीिं वास्तव में नसीब जागा ो तो उद्दिंडचा से बना-बनाया खेल बबगड़ जाएगा। चलो हदल्लगी ी स ी! जीवन में य घटना भी स्मरणीय र ेंगी। इस नतशलस्म को खोल ी डालूाँ! य ननश्चय करके तार द्वारा आने की सूचना दे दी और सीिे रेलवे स्टेशन पर प ुाँचा। पूछने पर मालूम ुआ कक व स्थान दष्क्खन की ओर ै। टाइमटेबबल में उसका वतृ्तािंत ववस्तार के साथ शलखा ुआ था। स्थान अनत रमणीय ै, पर जलवायु स्वास्थ्यकर न ीिं। ााँ हृष्ट-पुष्ट नवयुवकों पर उनका असर शीघ्र न ीिं ोता। दृश्य ब ुत मनो र ै पर ज रीले जानवर ब ुत शमलत े ै। यथासाध्य अाँिेरे घाहटयों में न जाना चाह ए। वतृ्तािंत पढकर उत्सुकता और भी बढी। ज रीले जानवर ै तो ुआ करें , क ााँ न ीिं ैं। मैं अाँिेरी घाहटयों के पास भूल कर भी न जाऊाँ गा। आकर सफर का सामान ठीक ककया और ईश्वर का नाम लेकर ननयत समय पर स्टेशन

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की तरफ चला। पर अपने अलापी शमत्रों से इसका कुछ ष्जक्र न ककया, क्योंकक मुझ ेपूरा ववश्वास था कक दो ी चार हदन में कफर अपना-सा मु लेकर लौटना पड़गेा।

2

गाड़ी पर बैठा तो शाम ो गई थी। कुछ देर तर तो शसगार और पत्रों से हदल ब लाता र ा। कफर मालूम न ीिं कब नीिंद आ गई। आाँखें खुली और खखड़की से बा र की तरफ झााँका तो उषाकाल का मनो र दृश्य हदखाई हदया। दोनों ओर रे वकृ्षों से ढाँकी ुई पवमत शे्रखणयााँ उन पर चरती ुई उजली-उजली गायें और भेड़ें सूयम की सुन री ककरणों में राँगी ुई ब ुत सुिंदर मालूम ोती थीिं। जी चा ता था कक क ीिं मेरी कुहटयााँ भी इन् ीिं सुखद प ाडड़यों में ोती, जिंगल के फल खाता, झरनों का ताजा पानी पीता और आनिंद के गीत गाता, यकायक दृश्य बदला एक ववस्ततृ झील हदखाई दी ष्जसमें काँ वल खखले ुए थे। क ीिं उजले-उजले पक्षी तैरत ेथे और क ीिं छोटी-छोटी डोंधगयााँ ननबमल आत्माओिं के सदृश डगमगाती चली जाती थीिं य दृश्य भी बदला। प ाडड़यों के दामन में एक गााँव नजर आया, झाडड़यों और वकृ्षों से ढका ुआ मानों शािंनत और सिंतोष ने य ााँ अपना ननवास-स्थान बनाया ो। क ीिं बच्च ेखेलत ेथे, क ीिं गाय के बछड़ ेककलोल करत ेथे। कफर एक घना जिंगल शमला। झुिंड के झुिंड ह रन हदखाई हदये जो गाड़ी की कार सुनत े ी चौकडड़यााँ भरत ेदरू भाग जात ेथे य सब दृश्य स्वप्न के धचत्रों के समान आाँखों के सामने आत ेथे और एक क्षण में गायब ो जात े थे। उनमें एक अवणमनीय शािंनतदानयनी शोभा थी ष्जससे दृश्य में आकािंक्षाओिं के आवेग उठने लगत ेथे।

आखखर ऐशगढ ननकट आया। मैंने बबस्तर साँभाला। जरा देर में शसग्नल हदखाई हदया। मेरी छाती िड़कने लगी। गाड़ी रुकी। मैंने उतर कर इिर-उिर देखा, कुशलयों को पुकारने लगा कक इतने में दो वरदी प ने ुए आदशमयों ने आकर मुझ ेसादर सलाम ककया और पूछा - आप ... से आ र े ै न, चशलए मोटर तैयार ै। मेरी बाछें खखल गई। अब तक कभी मोटर पर बठैने का सौभाग्य न

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ुआ था। शान के साथ जा बैठा। मन में ब ुत लष्ज्जत था कक ऐसे फटे ाल क्यों आया, अगर जानता कक सचमुच सौभाग्य-सूयम चमका ै तो ठाट-बाट से आता। खैर मोटर चली। दोनों तरफ मौलसरी के सघन वकृ्ष थे। सड़क पर लाल बजरी बबछी ुई थी। सड़क रे-भरे मैदान में ककसी सुरम्य जलिारा के सदृश बल खाती चली गई थी। दस शमनट भी न गुजरे ोंगे कक सामने एक शािंनतमय सागर हदखाई हदया। सागर के उस पार प ाड़ी पर एक ववशाल भवन बना ुआ था। भवन अशभमान से शसर उठाए ुए था, सागर सिंतोष से नीच ेलेटा ुआ, सारा दृश्य काव्य, शृिंगार और आमोद से भरा ुआ था।

म सदर दरवाजे पर प ुाँच,े कई आदशमयों ने दौड़कर मेरा स्वागत ककया। इनमें से एक शौकीन मुिंशी जी थे, जो बाल साँवारे आाँखों में सुमाम लगाए ुए थे। मेरे शलए जो कमरा सजाया गया था उसके द्वार पर मुझ ेप ुाँचा कर बोले - सरकार ने फरमाया ै, इस समय आप आराम करें। सिंध्या समय मलुाकात कीष्जएगा।

मुझ ेअब तक इसकी कुछ खबर न थी कक य 'सरकार' कौन ै, न मुझ ेककसी से पूछने का सा स ुआ, क्योंकक अपने स्वामी के नाम से अनशभज्ञ ोने का पररचय न ीिं देना चा ता था। मगर इसमें कोई सिंदे न ीिं कक मेरा स्वामी बड़ा सज्जन मनुष्य था। मुझ ेइतने आदर-सत्कार की कदावप आशा न थी। अपने सुसष्ज्जत कमरे में जा कर मैं एक आराम कुरसी पर बैठा तो षम से ववह्वल ो गया। प ाडड़यों की तरफ से शीतल वायु के मिंद-मिंद झोंके आ र े थे। सामने छज्जा था। नीच ेझील थी, सााँप के कें चुले के सदृश छाया और प्रकाश से पूणम, और मैं, ष्जसे भाग्यदेवी ने सदैव अपना सौतलेा लड़का समझा था इस समय जीवन में प ली बार ननववमध्न आनिंद का सुख उठा र ा था।

तीसरे प र उन् ीिं शौकीन मुिंशी जी ने आकर इत्तला दी कक सरकार ने याद ककया ै। मैंने इस बीच में बाल बना शलये थे। तुरिंत अपना सवोत्तम सूट प ना और मुिंशी जी से साथ सरकार की सेवा में चला। उस समय मेरे मन में य शिंका उठ र ी थी कक क ीिं मेरी बातचीत से स्वामी असिंतुष्ट न ो जाएाँ। और

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उन् ोंने मेरे ववषय में जो ववचार ष्स्थर ककए ों उनमें कोई अिंतर न पड़ जाए। तथावप में अपनी योग्यता का पररचय देने के शलये खूब तैयार था। म कई बरामदों से ोत े ुए अिंत में सरकार के कमरे के दरवाजे पर प ुाँच।े रेशमी परदा पड़ा ुआ था। मुिंशी जी ने परदा उठाकर मुझ ेइशारे से बुलाया। मैंने कााँपत े ुए हृदय से कमरे में कदम रक्खा और आश्चयम से चककत ो गया! मेरे सामने सौंदयम की ज्वाला दीष्प्तमान थी।

3

फूल भी सुिंदर ै और दीपक भी सुिंदर ै। फूल में ठिंडक और सुगिंि ै,

दीपक में प्रकाश और उद्दीपन। फूल पर भ्रमर उड़-उड़कर उसका रस लेता ै,

दीपक पर पतिंग जल कर राख ो जाता ै। मेरे सामने कारचोबी मसनद पर जो सुिंदरी ववराजमान थी, व सौंदयम की प्रकाशमय ज्वाला थी। फूल की पिंखुडड़यााँ ो सकती ै, ज्वाला को ववभक्त करना असिंभव ै। उसके एक-एक अिंग की प्रशिंसा करना ज्वाला को काटना ै। व नख-शशख तक एक ज्वाला थी, व ी दीपन, व ी चमक, व ी लाशलमा, व ी प्रभा। कोई धचत्रकार प्रनतभा सौंदयम का इससे अच्छा धचत्र न ीिं खीिंच सकता था। रमणी ने मेरी तरफ वात्सल्य दृष्ष्ट से देखकर क ा - आपको सफर में कोई ववशेष कष्ट तो न ीिं ुआ?

मैंने साँभलकर उत्तर हदया - जी न ीिं, कोई कष्ट न ीिं ुआ।

रमणी - य स्थान पसिंद आया?

मैंने सा सपूणम उत्सा से जवाब हदया - ऐसा सुिंदर स्थान पथृ्वी पर न ोगा। ााँ, गाइड बुक देखने से ववहदत ुआ कक य ााँ का जलवायु जैसा सुखद प्रकट ोता ै, यथाथम में वैसा न ीिं, ववषैले पशुओिं की भी शशकायत थी।

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य सुनत े ी रमणी का मुखसूयम कािंनत ीन ो गया। मैंने तो य चचाम इसशलए कर दी थी ष्जससे प्रकट ो जाए कक य ााँ आने में मुझ ेभी कुछ त्याग करना पड़ा ै। पर मुझ ेऐसा मालूम ुआ कक इस चचाम से उसे कोई ववशेष दुुःख ुआ। पर क्षण भर में सूयम मेघमिंडल से बा र ननकल आया, बोली - य स्थान अपनी रमणीयता के कारण ब ुिा लोगों की आाँखों में खटकता ै। गुण का ननरादार करने वाले सभी ोत े ैं। और यहद जलवायु कुछ ाननकर ो भी तो आप जैसे बलवान मनुष्य को इसकी क्या धचिंता ो सकती ै। र े ववषैले जीव-जिंतु, व आपके नेत्रों के सामने ववचर र े ैं। अगर मोर, ह रन और िंस ववषैले जीव ैं तो ननस्सिंदे य ााँ ववषैले जीव ब ुत ैं।

मुझ ेसिंशय ुआ कक क ीिं मेरे कथन से उसका धचत्त खखन्न ो गया ो, गवम से बोला - गाइड बुकों पर ववश्वास करना सवमथा भूल ै।

इस वाक्य से सुिंदरी का हृदय खखल गया, बोली - आप स्पष्टवादी मालूम ोत े ै,

और य मनुष्य का एक उच्च गुण ै। मैं आपका धचत्र देखत े ी इतना समझ गई थी। आपको य सुनकर आश्चयम ोगा कक इस पद के शलए मेरे पास एक लाख से अधिक प्राथमना-पत्र आए थे। ककतने ी एम.ए. थे, कोई डी.एस.सी. था, कोई जममनी से पी-एच.डी. की उपाधि प्राप्त ककए ुए था, मानो य ााँ मुझ ेककसी दाशमननक ववषय की जााँच करानी थी। मुझ ेअबकी य अनुभव ुआ कक देश में उच्चशशक्षक्षत मनुष्यों की इतनी भरमार ै। कई म ाशयों ने स्वरधचत ग्रिंथों की नामावली शलखी थी मानो देश में लेखकों और पिंडडतों ी की आवश्यकता ै। कालगनत का लेशमात्र भी पररचय न ीिं ै। प्राचीन कममकथाएाँ अब केवल अिंिभक्तों के रसास्वादन के शलए ी ैं, उनसे और कोई लाभ न ीिं ै। य भौनतक उन्ननत का समय ै। आजकल लोग भौनतक सुख पर अपने प्राण अपमण कर देत े ैं। ककतने ी लोगों ने अपने धचत्र भी भेज े थे। कैसी-कैसी ववधचत्र मूनतमयााँ थी, ष्जन् ें देखकर घिंटों ाँशसए। मैंने उन सभी को एक अलबम में लगा शलया ै और अवकाश शमलने पर जब ाँसने की इच्छा ोती ै तो उन् ें देखा करती ूाँ। मैं उस ववद्या को रोग समझती ूाँ जो मनुष्य को वनमानुष बना दे।

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आपका धचत्र देखत े ी आाँखें मुग्ि ो गई, तत्क्षण आपको बुलाने को तार दे हदया।

मालूम न ीिं क्यों, अपने गुणस्वभाव की प्रशिंसा की अपेक्षा म अपने बाह्य गुणों की प्रशिंसा से अधिक सिंतुष्ट ोत े ै और एक सुिंदरी के मुखकिं ठ से तो व चलते ुए जाद ू के समान ै। बोला - यथासाध्य आपको मुझसे असिंतुष्ट ोने का अवसर न शमलेगा!

सुिंदरी ने मेरी ओर प्रशिंसापणूम नेत्रों से देखकर क ा - इसका मुझ े प ले ी ववश्वास ै। आइए, अब कुछ काम की बातें ो जाएाँ। इस घर को आप अपना ी समखझए और सिंकोच छोड़कर आनिंद से रह ए। मेरे भक्तों की सिंख्या ब ुत ै। व सिंसार के प्रत्येक भाग में उपष्स्थत ैं और ब ुिा मुझसे अनेक प्रकार की ष्जज्ञासा ककया करत े ैं। उन सबको मैं आपके सुपुदम करती ैँ। आपको उनमें शभन्न-शभन्न स्वभाव के मनुष्य शमलेंगे। कोई मुझसे स ायता मााँगता ै, कोई मेरी ननिंदा करता ै, कोई सरा ता ै, कोई गाशलयााँ देता ै। इन सब प्राखणयों को सिंतुष्ट रखना आपका काम ै। देखखए य आज के पत्रों का ढेर ै। एक म ाशय क त े ै, ब ुत हदन ुए आपकी पे्ररणा से मैं अपने बड़ ेभाई की मतृ्यु के बाद उनकी सिंपष्त्त का अधिकारी बन बैठा था। अब उनका पुत्र वयस प्राप्त कर चुका ै और मुझसे अपने वपता गी जायदाद लौटाना चा ता ै। इतने हदनों तक उस सिंपष्त्त का उपयोग करने के पश्चात अब उसका ाथ से ननकलना अखर र ा ै,

आपकी इस ववषय में क्या सम्मनत ै? इनको उत्तर दीष्जए कक इस कूटनीनत से काम लो, अपने भतीजे को कपट-पे्रम से शमला लो और जब व ननुःशिंक ो जाए तो उससे एक सादे स्टािंप पर स्ताक्षर करा लो। इसके पीछे पटवारी और अन्य कममचाररयों की मदद से इसी स्टािंप पर जायदाद का बेनामा शलखा लो। यहद एक लगाकर दो शमलत े ो तो आगा-पीछा मत करो।

य उत्तर सुनकर मुझ े बड़ा कौतू ल ुआ। नीनत-ज्ञान को िक्का-सा लगा। सोचने लगा, य रमणी कौन ै और क्यों ऐसे अनथम का परामशम देती ै। ऐसे

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खुल्लम-खुल्ला तो कोई वकील भी ककसी को य राय न देगा। उसकी ओर सिंदे ात्मक भाव से देखकर बोला - य तो सवमथा न्याय-ववरुद्ध प्रतीत ोता ै।

रमणी खखलखखलकर ाँस पड़ी और बोली - न्याय की आपने भली क ी। य केवल िमाांि मनुष्यों के मन का समझौता ै, सिंसार में इसका अष्स्तत्व न ीिं। आप ऋण लेकर मर जाएाँ, लड़का कौड़ी-कौड़ी भरे। ववद्वान लोग इसे न्याय क ते ै, मैं घोर अत्याचार समझती ूाँ। इस न्याय के परदे में गााँठ के पूरे म ाजन की ेकड़ी साफ झलक र ी ै। एक डाकू ककसी भद्र पुरुष के घर में डाका मारता ै,

लोग उसे पकड़कर कैद कर देत े ैं। िमामत्मा लोग इसे भी न्याय क त े ैं, ककिं तु य ााँ भी व ी िन और अधिकार की प्रचिंडता ै। भद्र पुरुष ने ककतने ी घरों को लूटा, ककतनों ी का गला दबाया और इस प्रकार िन सिंचय ककया, ककसी को भी उन् ें आाँख हदखाने का सा स न ुआ। डाकू ने जब उनका गला दबाया तो व अपने िन और प्रभुत्व के बल से उस पर वज्रप्र ार कर बैठे। मैं इसे न्याय न ीिं क ती। सिंसार में िन, छल, कपट, िूत्तमता का राज्य ै, य ी जीवन-सिंग्राम ै, य ााँ प्रत्येक सािन ष्जससे मारा काम ननकले, ष्जससे म अपने शत्रुओिं पर ववजय पा सकें , न्यायानुकूल और उधचत ै। िमम युद्ध के हदन अब न ीिं र े। य देखखए,

य एक दसूरे सज्जन का पत्र ै। व क त े ैं मैंने प्रथम शे्रणी में एम.ए. पास ककया, प्रथम शे्रणी में कानून की परीक्षा पास की पर अब कोई बात भी न ीिं पूछता। अब तक य आशा थी कक योग्यता और पररश्रम का अवश्य ी कुछ फल शमलेगा, पर तीन साल के अनुभव से ज्ञात ुआ कक य केवल िाशममक ननयम ै। तीन साल में घर की पूाँजी भी खा चुका। अब वववश ोकर आपकी शरण लेता ूाँ। मुझ तभाग्य मनुष्य पर दया कीष्जए और मेरा बेड़ा पार लगाइए। इनको उत्तर दीष्जए कक जाली दस्तावेजें बनवाइए और झूठे दावे चलाकर उनकी डडगरी करा लीष्जए। थोड़ े ी हदनों में आपका क्लेश ननवारण ो जाएगा। य देखखए एक सज्जन और क त े ै, लड़की सयानी ो गई ै, ज ााँ जाता ूाँ लोग दायज की गठरी मााँगत े ै। य ााँ पेट की रोहटयों का भी हठकाना न ीिं, ककसी तर भलमनसी ननभा र ा ूाँ, चारों ओर से ननिंदा ो र ी ै, जो आज्ञा ो उसका पालन कराँ । इन् ें शलखखए कन्या का वववा ककसी बुड्ढे खुरामट सेठ से

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कर दीष्जए। व दायज लेने की तग उल्टे और दे जाएगा। अब आप समझ र े ोंगे कक ऐसे ष्जज्ञासुओिं को ककस ढिंग से उत्तर देने की आवश्यकता ै। उत्तर सिंक्षक्षप्त ोना चाह ए, ब ुत टीका-हटप्पणी व्यथम ोती ै। अभी कुछ हदनों में आपको य काम कहठन जान पड़गेा, पर आप चतुर मनुष्य ैं, शीध्र ी आपको इस काम का अभ्यास ो जाएगा। तब आपको मालूम ोगा कक इससे स ज और कोई काम न ीिं ै। आपके द्वारा सैकड़ो दारुण दुुःख भोगने वालों का कल्याण ोगा और व आजन्म आपका यश गाएिंगे।

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मुझ ेय ााँ र त ेएक म ीने से अधिक ो गया पर अब तक मुझ पर य र स्य न खुला कक य सुिंदरी कौन ै? मैं ककसका सेवक ूाँ? इसके पास इतना अतुल िन, ऐसी-ऐसी ववलास की सामधग्रयााँ क ााँ से आती ैं? ष्जिर देखता था ऐश्वयम ी का आडिंबर हदखाई देता था। मेरे आश्चयम की सीमा न थी मानो ककसी नतशलस्म में आ फाँ सा ूाँ। इन ष्जज्ञासुओिं का इस रमणी से क्या सिंबिंि ै, य भेद भी न खुलता था। मुझ े ननत्य उससे साक्षात ोता था, उसके सम्मुख आत े ी मैं अचते-सा ो जाता था। उसकी धचतवनों में एक प्रबल आकषमण था जो मेरे प्राणों को खीिंच शलया करता था। मैं वाक्य-शून्य ो जाता, केवल छुपी ुई आाँखों से उसे देखा करता था। पर मझु ेउसके मदृलु मुस्कान और रसमयी आलोचनाओिं तथा मिुर, काव्यमय भावों में पे्रमानिंद की जग एक प्रबल मानशसक शािंनत का अनुभव ोता था। उसकी धचतवनें केवल हृदय को वाणों के समान छेदती थी, उसके कटाक्ष धचत्त को व्यस्त करत े थे। शशकारी अपने शशकार खेलाने में जो आनिंद पाता ै, व ी उस परम सुिंदरी को मेरी पे्रमातुरता में प्राप्त ोता था। व एक सौंदयम-ज्वाला जलाने के शसवाय और क्या कर सकता ै। नतस पर भी मैं पतिंग की भााँनत उस ज्वाला पर अपने को समपमण करना चा ता था। य ी आकािंक्षा ोती थी कक उन पद-कमलों पर शसर रख कर प्राण दे दूाँ। य केवल एक उपासक की भष्क्त थी, काम और वासना से शून्य।

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कभी-कभी जब व सिंध्या-समय अपने मोटर-बोट पर बठैकर सागर की सैर करती तो ऐसा जान पड़ता था मानो चिंद्रमा आकाश लाशलमा में तैर र ा ै। मुझे इस दृश्य में अनुपम सुख प्राप्त ोता था।

मुझ ेअब अपने ननयत कायों का खूब अभ्यास ो गया था। मेरे पास प्रनतहदन पत्रों का एक पोथा प ुाँच जाता था। मालूम न ीिं कक डाक से आता था। शलफाफों पर कोई मो र न ोती थी। मुझ ेइन ष्जज्ञासुओिं में ब ुिा व लोग शमलत ेथे ष्जनका मेरी दृष्ष्ट में बड़ा आदर था, ककतने ी ऐसे म ात्मा थे ष्जनमें मुझ ेश्रद्धा थी। बड़-ेबड़ ेववद्वान लेखक और अध्यापक, बड़े-बड़ ेऐश्वयमवान रईस, य ााँ तक कक ककतने ी िमम के आचायम, ननत्य अपनी राम-क ानी सुनात े थे। उनकी दशा अत्यिंत करुणाजनक थी। व सब मुझ े राँगे ुए शसयार हदखाई देत े थे। ष्जन लेखकों को मैं अपनी भाषा का स्तिंभ समझता था, उनसे घणृा ोने लगी। व केवल उच्चके थे, ष्जनकी सारी कीनतम चोरी, अनुवाद और कतर-व्योंत पर ननभमर थी। ष्जन िमम के आचायों को मैं पूज्य समझता था, व स्वाथम, तषृ्णा और घोर नीचता के दलदल में फाँ से ुए हदखाई देत ेथे। मुझ ेिीरे-िीरे य अनुभव ो र ा था कक सिंसार की उत्पष्त्त से अब तक लाखों शताष्ब्दयााँ बीत जाने पर भी, मनुष्य वैसा कू्रर, वैसा ी वासनाओिं का गुलाम बना ुआ ै। बष्ल्क उस समय के लोग सरल प्रकृनत के कारण इतने कुहटल, दरुाग्र ों में इतने चालाक न ोत ेथे।

एक हदन सिंध्या समय उस रमणी ने मुझ े बुलाया। मैं अपने घमिंड में य समझता था कक मेरे बााँकेपन का कुछ न कुछ असर उस पर भी ोता ै। अपना सवोत्तम सूट प ना, बाल साँवारे और ववरक्त भाव से जाकर बैठ गया। यहद व मुझ े अपने शशकार बनाकर खेलती थी तो मैं भी शशकार बनकर उसे खेलाना चा ता था।

ज्यों ी मैं प ुाँचा, उस लावण्यमयी ने मुस्कराकर मेरा स्वागत ककया, पर मूखचिंद्र कुछ मशलन था। मैंने अिीर ोकर पूछा - सरकार का जी तो अच्छा ै।

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उसने ननराश भाव से उत्तर हदया - जी ााँ, एक म ीने से एक कहठन रोग में फाँ स गई ूाँ। अब तक ककसी भााँनत अपने को साँभाल सकी ूाँ, पर अब रोग असाध्य ोता जाता ै। उसकी औषधि एक ननदमय मनुष्य के पास ै। व मझु ेप्रनतहदन तड़पत ेदेखता ै, पर उसका पाषाण हृदय जरा भी न ीिं पसीजता।

मैं इशारा समझ गया। सारे शरीर में एक बबजली-सी दौड़ गई। सााँस, बड़ ेवेग से चलने लगी। एक उन्मत्तता का अनुभव ोने लगा। ननभमय ोकर बोला - सिंभव ै, ष्जसे आपने ननदमय समझ रखा ो, व भी आपको ऐसा समझता ो और भय से मुाँ खोलने का सा स न कर सकता ो।

सुिंदरी ने क ा - तो कोई ऐसा उपाय बताइए, ष्जससे दोनों ओर की आग बुझ।े वप्रयतम! अब मैं अपने हृदय की द कती ुई ववर ाष्ग्न को न ीिं नछपा सकती। मेरा सवमस्व आपकी भेंट ै। मेरे पास व खजाने ैं, जो कभी खाली न ोंगे। मेरे पास व सािन ैं, जो आपको कीनतम के शशखर पर प ुाँचा देंगे। समस्त सिंसार को आपके पैरों पर झुका सकती ूाँ। बड़े-बड़ े सम्राट भी मेरी आज्ञा को न ीिं टाल सकत।े मेरे पास व मिंत्र ै, ष्जससे मैं मनुष्य के मनोवेगों को क्षणमात्र में पलट सकती ूाँ। आइए मेरे हृदय से शलपट कर इस दा -क्रािंनत को शािंत कीष्जए।

रमणी के च ेरे पर जलती ुई आग की-सी कािंनत थी। व दोनों ाथ फैलाए कामोंमत्त ोकर मेरी ओर बढी। उसकी आाँखों से आग की धचनगाररयााँ ननकल र ी थी। परिंतु ष्जस प्रकार अष्ग्न से पारा दरू भागता ै, उसी प्रकार में भी उसके सामने से एक कदम पीछे ट गया। उसकी इस पे्रमातुरता से मैं भयभीत ो गया जैसे कोई ननिमन मनुष्य ककसी के ाथों सोने की ईंट लेत े ुए भयभीत ो जाए। मेरा धचत्त एर अज्ञात शिंका से कााँप उठा। रमणी ने मेरी ओर अष्ग्नमय नेत्रों से देखा मानो ककसी शसिं नी के मुाँ से उसका आ ार नछन जाए और सरोष बोली - य भीरता क्यों?

मैं - मैं आपका एक तुच्छ सेवक ूाँ, इस म ान आदर का पात्र न ीिं।

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रमणी - आप मुझसे घणृा करत े ैं।

मैं - य आपका मेरे साथ अन्याय ै। मैं इस योग्य भी न ीिं कक आपके तलुवों को आाँखों से लगाऊाँ । आप दीपक ै, मैं पतिंग ूाँ; मेरे शलए इतना ी ब ुत ै।

रमणी नैराश्यपूणम क्रोि के साथ बैठ गई और बोली - वास्तव में आप ननदमयी ै,

मैं ऐसा न समझती थी। आप में अभी तक अपनी शशक्षा के कुसिंस्कार शलपटे ुए ै, पुस्तकों और सदाचार की बेड़ी आपके पैरों से न ीिं ननकली।

मैं शीघ्र ी अपने कमरे में चला आया और धचत्त के ष्स्थर ोने पर जब मैं इस घटना पर ववचार करने लगा तो मुझ े ऐसा मालूम ुआ कक मैं अधग्रकुिं ड में धगरते-धगरत ेबचा। कोई गुप्त शष्क्त मेरी स ायक ो गई। य गुप्त शष्क्त क्या थी?

5

मैं ष्जस कमरे में ठ रा ुआ था, उसके सामने झील के दसूरी तरफ एक छोटा-सा झोपड़ा था। ष्जसमें एक वदृ्ध पुरुष र ा करत ेथे। उनकी कमर झुक गई थी, पर च ेरा तजेमय था। व कभी-कभी इस म ल में आया करत ेथे। रमणी न जाने क्यों उनसे घणृा करती थी, मन में उनसे कुछ डरती थी। उन् ें देखत े ी घबरा जाती, मानों ककसी असमिंजस में पड़ी ुई ैं, उसका मुख फीका पड़ जाता, जाकर अपने ककसी गुप्त स्थान में मुाँ नछपा लेती, मुझ े उसकी य दशा देखकर कौतू ल ोता था। कई बार उसने मुझसे उनकी चचाम की थी, पर अत्यिंत अपमान के भाव से व मुझ ेउनसे दरू-दरू र ने का उपदेश हदया करती, और यहद कभी उनसे बातें करत े देख लेती तो उसके माथे पर बल पड़ जात ेथे, कई-कई हदनों तक मुझसे खुलकर न बोलती थी।

उस रात को मुझ ेदेर तक नीिंद न ीिं आई। उिेड़बुन में पड़ा ुआ था। कभी जी चा ता - आओ आाँख बिंद करके पे्रम-रस पान करें। सिंसार के पदाथों का सुख

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भोगें, जो कुछ ोगा देखा जाएगा। जीवन में ऐसे हदव्य अवसर क ााँ शमलत े ै कफर आप ी आप मन कुछ खखिंच जाता था, घणृा उत्पन्न ो जाती थी।

रात के दस बज े ोंगे कक ठात मेरे कमरे का द्वार आप ी आप खुल गया और व ी तेजस्वी पुरुष अिंदर आए। यद्यवप मैं अपनी स्वाशमनी के भय से उनसे ब ुत कम शमलता था, पर उनके मुख पर ऐसी शािंनत थी और उनके भाव ऐसे पववत्र तथा कोमल थे कक हृदय में उनके सत्सिंग की उत्किं ठा ोती थी। मैंने उनका स्वागत ककया और लाकर एक कुरसी पर बैठा हदया। उन् ोंने मेरी ओर दयाभाव से देखकर क ा - मेरे आने से तुम् ें कष्ट तो न ीिं ुआ!

मैंने शसर झुकाकर उत्तर हदया - आप जैसे म ात्माओिं का दशमन मेरे सौभाग्य की बात ैं।

म ात्मा जी ननष्श्चिंत ोकर बोले - अच्छा तो सुनो और सचते ो जाओ, मैं तुम् ें य ी चेतावनी देने के शलए आया ूाँ। तुम् ारे ऊपर एक घोर ववपष्त्त आनेवाली ै। तुम् ारे शलए इस समय इसके शसवाय और कोई उपाय न ीिं ै कक य ााँ से चले जाओ। मेरी बात न मानोगे तो जीवनपयांत कष्ट झलेोगे और इस मायाजाल से कभी मुक्त न ो सकोगे। मेरा झोपड़ा तुम् ारे सामने था। मैं भी कभी-कभी य ााँ आया करता था, पर तुमने मुझसे शमलने की आवश्यकता न समझी। यहद प ले ी हदन तुम मुझसे शमलत ेतो स स्रों मनुष्यों का सवमनाश करने के अपराि से बच जात।े ननुःसिंदे य तुम् ारे पूवम कमों का फल था, ष्जसने आज तुम् ारी रक्षा की। अगर य वपशाचनी एक बार तुम् ें पे्रमाशलिंगन कर लेती तो कफर तुम उसी दम उसके अजायबखाने में भेज हदए जाते। व ष्जस पर रीझती ै, उसकी व ी गत बनाती ै। य ी इसका पे्रम ै। चलो जरा इस अजायबखाने की सैर करो तब तुम समझोगे कक आज तु ककस आफस से बच।े

य क कर म ात्मा जी ने दीवार में एक बटन दबाया। तुरिंत एक दरवाजा ननकल आया। य नीच ेउतरने की सीढी थी। म ात्मा उसमें घुसे और मुझ ेभी बुलाया। घोर अिंिकार में कई कदम उतरने के बाद एक बड़ा कमरा नजर आया।

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उसमें एक दीपक हटमहटमा र ा था। व ााँ मैंने जो घोर, वीभत्व और हृदय-ववदारक दृश्य देखें, उनका स्मरण करके आज भी रोंगटे खड़ े ो जाते ैं। इटली के अमर कवव 'डैंटी' ने नकम का जो दृश्य हदखाया ै, उससे क ीिं भयाव , रोमािंचकारी तथा नारकीय दृश्य मेरी आाँखों के सामने उपष्स्थत था। सैकड़ो ववधचत्र दे िारी नाना प्रकार की अशुद्धताओिं से शलपटे ुए, भूशम पर पड़ ेकरा र े थे। उनके शरीर तो मनुष्य के-से थे, लेककन चे रों का रपािंतर ो गया था। कोई कुत्त ेसे शमलता था, कोई गीदड़ से, कोई बनबबलाव से, कोई सााँप से। एक स्थान पर एक मोटा स्थूल मनुष्य एक दबुमल, शष्क्त ीन मनुष्य के गले में मुाँ लगाए उसका रक्त चूस र ा था। एक ओर दो धगद्ध की सरूत वाले मनुष्य एक सड़ी ुई लाश पर बैठ उसका मािंस नोच र े थे। एक जग एक अजगर की सूरत का मनुष्य एक बालक को ननगलना चा ता था, पर बालक उनके गले में अटका ुआ था। दोनों ी जमीन पर पड़ ेछटपड़ा र े थे। एक जग मैंने एक अत्यिंत पैशाधचक घटना देखी। दो नाधगन की सूरतवाली ष्स्त्रयााँ एक भेडडये की सूरतवाले मनुष्य के गले में शलपटी ुई उसे काट र ी थी। व मनुष्य घोर वेदना से धचल्ला र ा था। मुझसे अब और न देखा गया। तुरिंत व ााँ से भागा और धगरता पड़ता अपने कमरे में आकर दम शलया। म ात्मा जी मेरे साथ चले आए। जब मेरा धचत्त शािंत ुआ तो उन् ोंने क ा - इतनी जल्दी घबरा गए, अभी तो इस र स्य का एक भाग भी न ीिं देखा। य तुम् ारी स्वाशमनी के वव ार का स्थान ै और य ी उनके पालतू जीव ै। इन जीवों के वपशाचाशभनय देखने में उनका ववशषे मनोरिंजन ोता ै। य सभी मनुष्य ककसी समय तुम् ारे समान पे्रम और प्रमोद के पात्र थे, पर उनकी य दगुमनत ो र ी ै। अब तुम् ें मैं य ी सला देता ूाँ कक इसी दम य ााँ से भागो न ीिं तो रमणी के दसूरे वार से कदावप न बचोगे।

य क कर व म ात्मा अदृश्य ो गए। मैंने भी अपनी गठरी बााँिी और अिमराबत्र के सन्नाटे में चोरों की भााँनत कमरे से बा र ननकला। शीतल, आनिंदमय समीर चल र ी थी, सामने के सागर-सुख भोग का ऐसा सुअवसर छोड़त े ुए दुुःख ोता था। इतना देखने और म ात्मा को उपदेश सुनने पर भी धचत्त उस रमणी की ओर खखिंचता था। मैं कई बार चला, कई बार लौटा; पर अिंत में आत्मा ने

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इिंहद्रयों पर ववजय पाई। मैंने सीिा मागम छोड़ हदया और झील के ककनारे-ककनारे धगरता-पड़ता, कीचड़ में फाँ सता सड़क तक प ुाँचा। य ााँ आकर मुझ ेएक ववधचत्र उल्लास ुआ, मानो कोई धचडड़या बाज के चुिंगल से छूट गई ो।

यद्यवप मैं एक मास के बाद लौटा था, पर अब जो देखा तो अपनी चारपाई पर पड़ा ुआ था। कमरे में जरा भी गदम या िूल न थी। मैंने लोगों से इस घटना की चचाम की तो लोग खूब ाँसे और शमत्रगण तो अभी तक मुझ े'प्राइवेट सेके्रटरी' क कर बनाया क त े ैं! सभी क त े ै कक मैं एक शमनट के शलए भी कमरे से बा र न ीिं ननकला, म ीना भर की गायब र ने की तो बात ी क्या। इसशलए अब मुझ ेभी वववश ोकर य ी क ना पड़ता ै कक शायद मैंने कोई स्वप्न देखा ो। कुछ भी ो परमात्मा को कोहट-कोहट िन्यवाद देता ूाँ कक मैं इस पापकुिं ड से बचकर ननकल आया। व चा े स्वप्न ी ो, पर मैं उसे अपने जीवन का एक वास्तववक अनुभव समझता ूाँ, क्योंकक उसने सदैव के शलए मेरी आाँखें खोल दीिं।

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पिु से र्नुष्य

दगुाम माली डॉक्टर मे ता बार-ऐट-ला के य ााँ नौकर था। पााँच रुपए माशसक वेतन पाता था। उसके घर में स्त्री और दो-तीन छोटे बच्च ेथे। स्त्री पड़ोशसयों के शलए गे ूाँ पीसा करता थी। दो बच्च,े जो समझदार थे, इिर-उिर से लकडड़यााँ, गे ूाँ, उपले चुन लात ेथे। ककिं तु इतना यत्न करने पर भी व ेब ुत तकलीफ में र त ेथे। दगुाम, डॉक्टर सा ब की नजर बचाकर बगीच े से फूल चुन लेता और बाजार में पुजाररयों के ाथ बेच हदया करता था। कभी-कभी फलों पर भी ाथ साफ ककया करता। य ी उसकी ऊपरी आमदनी थी। इससे नोन-तले आहद का काम चल जाता था। उसने कई बार डॉक्टर म ोदय से वेतन बढाने के शलए प्राथमना की, परिंतु डॉक्टर सा ब नौकर की वेतन-ववृद्ध को छूत की बीमारी समझत ेथे, जो एक से अनेकों का ग्रस लेती ै। वे साफ क हदया करत ेकक भाई मैं तुम् ें बााँिे तो ूाँ न ीिं। तुम् ारा ननवाम य ााँ न ीिं ोता; तो और क ीिं चले जाओ, मेरे शलए माशलयों का अकाल न ीिं ै। दगुाम में इतना सा स न था कक व लगी ुई रोजी छोड़कर नौकरी ढूाँढने ननकलता। इससे अधिक वेतन पाने की आशा भी न ीिं। इसशलए इसी ननराशा में पड़ा ुआ जीवन के हदन काटता और अपने भाग्य को रोता था।

डॉक्टर म ोदय को बागवानी से ववशेष पे्रम था। नाना प्रकार के फूल-पत्त ेलगा रखे थे। अच्छे-अच्छे फलों के पौिे दरभिंगा, मली ाबाद, स ारनपुर आहद स्थानों से माँगवाकर लगाए थे। वकृ्षों को फलों से लदे ुए देखकर उन् ें ाहदमक आनिंद ोता था। अपने शमत्रों के य ााँ गुलदस्त ेऔर शाक-भाजी की डाशलयााँ तो फे के तौर पर शभजवात े र त े थे। उन् ें फलों को आप खाने का शौक न थी, पर शमत्रों को खखलाने में उन् ें असीम आनिंद प्राप्त ोता था। प्रत्येक फल के मौसम में शमत्रों की दावत करत ेऔर 'वपकननक पाहटमयााँ' उनके मनोरिंजन का प्रिान अिंग थी।

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एक बार गशममयों में उन् ोंने अपने शमत्रों को आम खाने की दावत दी। मली ाबाद में सुफेदे के फल खूब लगे ुए थे। डॉक्टर सा ब इन फलों को प्रनतहदन देखा करत ेथे। ये प ले ी फले थे, इसशलए वे शमत्रों से उनके शमठास और स्वाद का बखान सुनना चा त ेथे। इस ववचार से उन् ें व ी आमोद था, जो ककसी प लवान को अपने पट्ठों के करतब हदखाने से ोता ै। इतने बड़े सुिंदर और सुकोमल सुफेदे स्वयिं उनकी ननगा से न गुजरे थे। इन फलों के स्वाद का उन् ें इतना ववश्वास था कक वे एक फल चखकर उनकी परीक्षा करना आवश्यक न समझते थे, प्रिानतुः इसशलए कक एक फल की कमी एक शमत्र को रसास्वादन से विंधचत कर देगी।

सिंध्या का समय था, चैत का म ीना। शमत्र आकर बगीचे के ौज के ककनारे कुरशसयों पर बैठे थे। बफम और दिू का प्रबिंि प ले ी से ी कर शलया गया था, पर अभी तक फल न तोड़ ेगए थे। डॉक्टर सा ब प ले फलों को पेड़ में लगे हदखलाकर तब उन् ें तोड़ना चा त ेथे, ष्जससे ककसी को य सिंदे न ो कक फल इनके बाग के न ीिं ै। जब सब सज्जन जमा ो गए तब उन् ोंने क ा - आप लोगों को कष्ट ोगा, पर जरा चलकर फलों को पेड़ में लटकच े ुए देखखए। बड़ा ी मनो र दृश्य ै। गुलाब में भी ऐसी लोचनलाली न ोगी। रिंग से स्वाद टपक पड़ता ै। मैंने इसकी कलम खास मली ाबाद से माँगवाई थी।

शमत्रगण उठे। डॉक्टर सा ब आगे-आगे चले - रववशों के दोनों ओर गुलाब की क्याररयााँ थी। उनकी छटा हदखात े ुए वे अिंत में सुफेदे के पेड़ के सामने आ गए। मगर आश्चयम! व ााँ एक फल भी न था। डॉक्टर सा ब ने समझा, शायद व य पेड़ न ीिं ै। दो पग और आगे चले, दसूरा पेड़ शमल गया। और आगे बढे तीसरा पेड़ शमला। कफर पीछे लौटे और एक ववष्स्मत दशा में सुफेदे के वकृ्ष के नीच ेआकर रुक गए। इसमें सिंदे न ीिं कक वकृ्ष य ी ै, पर फल क्या ुए? बीस-पच्चीस आम थे, एक का भी पता न ीिं! शमत्रों की ओर अपरािपूणम नेत्रों से देखकर बोले - आश्चयम ै कक इस पेड़ में एक भी फल न ीिं ै। आज सुब ी मैंने देखा था, पेड़ फलों से लदा ुआ था। य देखखए, फलों की डिंठल ै। य

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अवश्य माली की शरारत ै। मैं आज उसकी ड्डडयााँ तोड़ दूाँगा। उस पाजी ने मुझ े इतना िोखा हदया! मैं ब ुत लष्ज्जत ूाँ कक आप लोगों को व्यथम कष्ट ुआ। मैं सत्य क ता ूाँ, इस समय मुझ े ष्जतना दुुःख ै, उसे प्रकट न ीिं कर सकता। ऐसे रिंगीले, कोमल, कमनीय फल मैंने अपने जीवन में कभी न देखे थे। उनके यों लुप्त ो जाने से मेरे हृदय के टुकड़ े ुए जात े ै।

य क कर वे नैराश्य-वेदना से कुरसी पर बैठ गए। शमत्रों ने सािंत्वना देत े ुए क ा - नौकरों का सब जग य ीिं ाल ै। य जानत ी पाजी ोती ै। आप म लोगों के कष्ट का खेद न करें। य सुफेदे न स ी दसूरे फल स ी।

एक सज्जन ने क ा - सा ब, मुझ े तो सब आम एक ी से मालूम ोत े ै। सुफेदे, मो नभोग, लाँगड़े, बिंबई, फजली, दश री इनमें कोई भेद ी न ीिं मालमू ोता, न जाने आप लोगों को कैसे उनके स्वाद में फकम मालमू ोता ै।

दसूरे सज्जन बोले - य ााँ भी व ी ाल ै। इस समय जो फल शमले, व ी माँगवाइए। जो गए उनका अफसोस क्या?

डॉक्टर ने व्यधथत भाव से क ा - आमों की क्या कमी ै, सारा बाग भरा पड़ा ै,

खूब शौक से खाइए और बााँिकर घर ले जाइए। वे ै ककस शलए? पर व रस और स्वाद क ााँ? आपको ववश्वास न ोगा, उन सुफेदों पर ऐसा ननखार था, कक वे सेव मालमू ोत े थे। सेव भी देखने में सुिंदर ोता ै, उसमें व रुधचवद्धमक लाशलत्य, व सुिामय मदृतुा क ााँ! इस माली ने आज य अनथम ककया ै कक जी चा ता ै, नमक राम को गोली मार दूाँ। इस वक्त सामने आ जाए तो अिमुआ कर दूाँ।

माली बाजार गया ुआ था। डॉक्टर सा ब ने साईस से कुछ आम तुड़वाए, शमत्रों ने आम खाए, दिू वपया और डॉक्टर सा ब को िन्यवाद देकर अपने-अपने घर की रा ली। लेककन शमस्टर मे ता व ााँ ौज के ककनारे ाथ में िंटर शलए माली

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की बाट जो त ेर े। आकृनत से जान पड़ता था मानो साक्षात क्रोि मूनतममान ो गया था।

2

कुछ रात गए दगुाम बाजार से लौटा। व चौकन्नी आाँखों से इिर-उिर देख र ा था। ज्यों ी उसने डॉक्टर सा ब को ौज के ककनारे िंटर शलये बैठे देखा, उसके ोश उड़ गए। समझ गया कक चोरी पकड़ ली गई। इसी भय से उसने बाजार में खूब देर की थी। उसने समझा था, डॉक्टर सा ब क ीिं सैर करने गए ोंगे, मैं चुपके कट ल के नीच ेअपने अपनी झोंपड़ी में जा बैठूाँगा, सबेरे जब पूछताछ भी ुई तो मुझ ेसफाई देने का अवसर शमल जाएगा। क दूाँगा, सरकार, मेरे झोंपड़े की तलाशी ले लें, इस प्रकार मामला दब जाएगा। समय सफल चोर का सबसे बड़ा शमत्र ै। एक-एक क्षण उसे ननदोष शसद्ध करता जाता ै। ककिं तु जब राँगे ाथों पकड़ा जाता ै तब उसे बच ननकलने की कोई रा न ीिं र ती। रुधिर के सूखे ुए िब्बे रिंग के दाग बन सकत े ै, पर ताजा लो आप ी आप पुकारता ै। दगुाम के पैर थम गए, छाती िड़कने लगी। डॉक्टर सा ब की ननगा उस पर पड़ गई थी। अब उल्टे पााँव लौटना व्यथम था।

डॉक्टर सा ब उसे दरू से देखत े ी उठे कक चलकर खूब मरम्मत कराँ । लेककन वकील थे, ववचार ककया कक इसका बयान लेना आवश्यक ै। इशारे से ननकच बुलाया और पूछा - सुफेदे के पेड़ में कई आम लगे ुए थे। एक भी न ीिं हदखाई देता। क्या ो गए?

दगुाम ने ननदोष भाव से उत्तर हदया - ुजूर, अभी मैं बाजार गया ूाँ तब तक तो सब आम लगे ुए थे। इतनी देर में कोई तोड़ ले गया ो तो मैं न ीिं क सकता।

डॉक्टर - तुम् ारा ककस पर सिंदे ै?

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दगुाम - सरकार, अब मैं ककसे बताऊाँ ! इतने नौकर-चाकर ै, न जाने ककसकी नीयत बबगड़ी ो।

डॉक्टर - मेरा सिंदे तुम् ारे ऊपर ै, अगर तोड़कर रखे ो तो लाकर दे दो या साफ-साफ क दो कक मैंने न ीिं तोड़ े ैं, न ीिं तो मैं बुरी तर पेश आऊाँ गा।

चोर केवल दिंड़ से ी बचना चा ता, व अपमान से भी बचना चा ता ै। व दिंड से उतना न ीिं डरता ष्जतना अपमान से। जब उसे सजा से बचने की कोई आशा न ीिं र ती, उस समय भी व अपने अपराि को स्वीकार न ीिं करता। व अपरािी बन कर छूट जाने से ननदोष बनकर दिंड भोगना बे तर समझता ै। दगुाम इस समय अपराि स्वीकार करके सजा से बच सकता था, पर उसने क ा - ुजूर माशलक ै, जो चा ें करें , पर मैंने आम न ीिं तोड़।े सरकार ी बताएाँ; इतने हदन मुझ ेआप की ताबेदारी करत े ो गए, मैंने एक पत्ती भी छुई ै।

डॉक्टर - तुम कसम खा सकत े ो?

दगुाम - गिंगा की कसम जो मैंने आमों को ाथ से छुआ भी ो।

डॉक्टर - मुझ ेइस कसम पर ववश्वास न ीिं ै। तुम प ले लोटे में पानी लाओ,

उसमें तुलसी की पष्त्तयााँ डालो, तब कसम खाकर क ो कक मैंने तोड़ े ो तो मेरा लड़का मेरे काम न आए। तब मुझ ेववश्वास आवेगा।

दगुाम - ुजूर सााँच को आाँच क्या, जो कसम कह ए खाऊाँ गा। जब मैंने काम ी न ीिं ककया तो मुझ पर कसम क्या पड़गेी।

डॉक्टर - अच्छा; बातें न बनाओ, जाकर पानी लाओ।

डॉक्टर म ोदय मानव-चररत्र के ज्ञाता थे। सदैव अपराधियों से व्यव ार र ता था। यद्यवप दगुाम जबान से ेकड़ी की बातें कर र ा था, पर उसके हृदय में भय समाया ुआ था। व अपने झोपड़ें में आया, लेककन लोटे में पानी लेकर जाने की

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ह म्मत न ुई। उसके ाथ थरथराने लगे। ऐसी घटनाएाँ याद आ गईं ष्जनमें झूठी गिंगा उठानेवाले पर दैवी कोप का प्र ार ुआ था। ईश्वर के सवमज्ञ ोने का ऐसा मममस्पशी ववश्वास उसे कभी न ीिं ुआ था। उसने ननश्चय ककया, मैं झूठी गिंगा न उठाऊाँ गा, य ी न ोगा, ननकाल हदया जाऊाँ गा नौकरी कफर क ीिं न क ीिं शमल जाएगी औऱ नौकरी भी न शमले तो मजूरी तो क ीिं न ीिं गई ै। कुदाल भी चलाऊाँ गा को सााँझ तक आि सेर आटे का हठकाना ो जाएगा। व िीरे-िीरे खाली ाथ डॉक्टर सा ब के सामने आकर खड़ा ो गया!

डॉक्टर सा ब ने कड़ ेस्वर से पूछा - पानी लाया?

दगुाम - ुजूर, मैं गिंगा न उठाऊाँ गा।

डॉक्टर - तो तुम् ारा आम तोड़ना साबबत ै!

दगुाम - अब सरकार जो चा ें, समझें। मान लीष्जए, मैंने ी आम तोड़ ेतो आपका गुलाम ी तो ूाँ। रात-हदन ताबेदारी करता ूाँ, बाल-बच्च ेआमों के शलए रोवें तो क ााँ जाऊाँ । अबकी जान बकसी जाए, कफर ऐसा कसूर न ोगा।

डॉक्टर म ोदय इतने उदार न थे। उन् ोंने य ी बड़ा उपकार ककया कक दगुाम को पुशलस के वाले न ककया और िंटर ी लगाए। उसकी इस िाशममक श्रद्धा ने उन् ें कुछ नमम कर हदया था। मगर ऐसे दबुमल हृदय को अपने य ााँ रखना असिंभव था। उन् ोंने उसी क्षण दगुाम को जवाब दे हदया और उसकी आिे म ीने की बाकी मजूरी जब्त कर ली।

3

कई मास के पश्चात एक हदन डॉक्टर मे रा बाबू पे्रमशिंकर के बाग की सैर करने गए। व ााँ से कुछ अच्छी-अच्छी कलमें लाना चा त े थे। पे्रमशिंकर को भी बागवानी से पे्रम था और दोनो मनुष्यों में य ीिं समानता थी, अन्य सभी ववषयों

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में एक-दसूरे से शभन्न थे। पे्रमशिंकर बड़ ेसिंतोषी, सरल सहृदय मनुष्य थे। वे कई साल अमेररका र चुके थे। व ााँ उन् ोंने कृवष-ववज्ञान का खूब अध्ययन ककया था और य ााँ आकर इस वषृ्त्त को अपनी जीववका का आिार बना शलया था। मानन-चररत्र और वतममान सामाष्जक सिंगठन के ववषय में उनके ववचार ववधचत्र थे। इसीशलए श र के सभ्य समाज में लोग उनकी उपेक्षा करत े थे और उन् ें झक्की समझत ेथे। इसमें कोई सिंदे न ीिं कक उनके शसद्धािंतों से लोगों को एक प्रकार की दाशमननक स ानुभूनत थी, पर उनके कक्रयात्मक ोने के ववषय में उन् ें बड़ी शिंका थी। सिंसार कममक्षते्र ै, मीमािंसा क्षेत्र न ीिं। य ााँ शसद्धािंत, शसद्धािंत ी र ेंगे, उनका प्रत्यक्ष घटनाओिं से सिंबिंि न ीिं।

डॉक्टर सा ब बगीचे में प ुाँच ेतो उन् ोंने पे्रमशिंकर को क्याररयों में पानी देत े ुए पाया। कुएाँ पर एक मनुष्य खड़ा पिंप से पानी ननकाल र ा था। मे रा ने उसे तुरिंत ी प चान शलया। व दगुाम माली था। डॉक्टर सा ब के मन में उस समय दगुाम के प्रनत एक ववधचत्र ईष्याम का भाव उत्पन्न ुआ। ष्जस नरािम को उन् ोंने दिंड देकर अपने य ााँ से अलग कर हदया था, उसे नौकरी क्यों शमल गई? यहद दगुाम इस वक्त फटे ाल रोनी सूरत बनाए हदखाई देता तो डॉक्टर सा ब को उस पर कुछ दया आ जाती। वे सिंभवतुः उस कुछ इनाम देत ेऔर पे्रमशिंकर से उसकी प्रशिंसा भी कर देत।े उनकी प्रकृनत में दया थी और अपने नौकरों पर उनकी कृपादृष्ष्ट र ती थी। परिंतु उनकी कृपा और दया में लेशमात्र भी भेद न था, जो अपने कुत्तों और घोड़ों से थी। इस कृपा का आिार न्याय न ीिं, दीन-पालन ै। दगुाम ने उन् ें देखा, कुएाँ पर खड़-ेखड़ ेसलाम ककया और कफर अपने काम में लग गया। उसका य अशभमान डॉक्टर सा ब के हृदय में भाले की भााँनत चुभ गया। उन् ें य ववचार कर अत्यिंत क्रोि आया कक मेरे य ााँ से ननकलना इसके शलए ह तकर ो गया। उन् ें अपनी सहृदयता पर जो घमिंड था, उसे बड़ा आघात लगा। पे्रमशिंकर ज्यों ी उनसे ाथ शमलाकर उन् ें क्याररयों की सैर कराने लगे, त्यों ी डॉक्टर सा ब ने उनसे पूछा - य आदमी आपके य ााँ ककतने हदनों से ै?

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पे्रमशिंकर - य ी 6 या 7 म ीने ोंगे।

डॉक्टर - कुछ नोच-खसोट तो न ीिं करता? य मेरे य ााँ माली था। इसके थलपकेपन से तिंग आकर मैंने इसे ननकाल हदया था। कभी फूल तोड़ कर बेच आता, कभी पौिे उखाड़ ले जाता था, और फलों का क ना ी क्या? वे इसके मारे बचत े ी न थे। एक बार मैंने शमत्रों की दावत की थी। मली ाबादी सुफेदे के खूब फल लगे ुए थे। जब सब आकर बैठ गए और मैं उन् ें फल हदखाने के शलए गया तो सारे फल गायब! कुछ न पूनछए, उस घड़ी ककतनी भद्द ुई! मैंने उसी क्षण इन म ाशय को दतु्कार बताई। बड़ा ी दगाबाज आदमी ै, और ऐसा चतुर ै कक इसको पकड़ना मुष्श्कल ै। कोई वकीलों ी जैसा काइयााँ आदमी ो तो इसे पकड़ सकता ै। ऐसी सफाई और हढठाई से ढुलकता ै कक इसका मुाँ देखत ेर जाइए। आपको भी तो कभी चरका न ीिं हदया?

पे्रमशिंकर - जी न ीिं, कभी न ीिं। मुझ ेइसने शशकायत का कोई अवसर न ीिं हदया। य ााँ तो खूब मे नत क ता ै, य ााँ तक दोप र की छुट्टी में भी आराम न ीिं करता। मुझ ेतो इस पर इतना भरोसा ो गया कक सारा बगीचा इस पर छोड़ रक्खा ै। हदन भर में जो कुछ आमदनी ोती ै, व शाम को मुझ ेदे देता ै और कभी एक पाई का भी अिंतर न ीिं पड़ता।

डॉक्टर - य ी तो इसका कौशल ै कक आपको उलटे छुरे मूाँड़ ेऔर आपको खबर भी न ीिं। आप इसे वेतन क्या देत े ैं?

पे्रमशिंकर - य ााँ ककसी को वेतन न ीिं हदया जाता। सब लोग लाभ में बराबर के साझदेार ै। म ीने भर में आवश्यक व्यय के पश्चात जो कुछ बचता ै उनमें से 10रु. प्रनत सैकड़ा िममखात ेमें डाल हदया जाता ै, शेष रुपए समान भागों में बााँट हदए जात े ै। वपछले म ीने में 140 रु. की आमदनी ुई थी। मुझ ेशमलाकर य ााँ सात आदमी ैं। 20रु. ह स्से पड़।े अबकी नारिंधगयााँ खूब ुई ै, मटर की फशलयााँ, गन्ने, गोभी आहद से अच्छी आमदनी ो र ी ै, 40 रु. से कम न पड़ेंगे।

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डॉक्टर मे रा ने आश्चयम से पूछा - इतने में आपका काम चल जाता ै?

पे्रमशिंकर - जी ााँ, बड़ी सुगमता से। मैं इन् ीिं आदशमयों के-से कपड़ ेप नता ूाँ, इन् ीिं का-सा खाना खाता ूाँ और मुझ ेकोई दसूरा व्यसन न ीिं ै। य ााँ 20रु. माशसक उन औषधियों का खचम ै, जो गरीबों को दी जाती ै। ये रुपये सिंयुक्त आय से अलग कर शलये जात े ै, ककसी को कोई आपष्त्त न ीिं ोती। य सायककल जो आप देखते ै सिंयुक्त आय से ी ली गई ै। ष्जसे जररत ोती ै इस पर सवार ोता ै। मुझ ेय सब अधिक कायमकुशल समझत े ै और मुझ पर पूरा ववश्वास रखत े ै। बस मैं इनका मुखखया ूाँ। जो कुछ सला देता ूाँ, उसे सब मानत े ै। कोई भी य न ीिं समझता कक मैं ककसी का नौकर ूाँ। सब के सब अपने को साझदेार समझत े ै और जी-तोड़कर शम नत करत े ै। ज ााँ कोई माशलक ोता ै और दसूरा उसका नौकर तो इन दोनों में तुरिंत द्वेष पैदा ो जाता ै। माशलक चा ता ै कक इससे ष्जतना काम लेत ेबने, लेना चाह ए। नौकर चा ता ै कक मैं कम से कम काम कराँ । उसमें स्ने या स ानुभुनत का नाम तक न ीिं ोता। दोनों यथाथम में एक दसूरे के शत्रु ोत े ै। इस प्रनतद्विंद्ववता का दषु्पररणाम म और आप देख ी र े ै। मोटे और पतले आदशमयों के पथृक-पथृक दल बन गए ै और उनमें घोर सिंग्राम ो र ा ै। कल-धचह्नों से ज्ञात ोता ै कक य प्रनतद्विंद्ववता अब कुछ ी हदनों की मे मान ै। इसकी जग अब स काररता का आगमन ोने वाला ै। मैंने अन्य देशों में इस घातक सिंग्राम के दृश्य देखे ै और मुझ ेघणृा ो गई ै। स काररता ी में इस सिंकट से मुक्त कर सकती ै।

डॉक्टर - तो य कह ए कक आप 'सोशशलस्ट' ै।

पे्रमशिंकर - जी न ीिं, मैं 'सोशशलस्ट' या 'डडमोके्रट' न ीिं ूाँ। मैं केवल न्याय और िमम का दीन सेवक ूाँ। मैं ननुःस्वाथम सेवा को ववद्या से शे्रष्ठ समझता ूाँ। मैं अपनी आष्त्मक और मानशसक-शष्क्तयों को, बुवद्ध सामथ्यम को, िन और वैभव का गुलाम न ीिं बनाना चा ता। मुझ ेवतममान शशक्षा और सभ्यता पर ववश्वास न ीिं।

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ववद्या का िमम ै - आष्त्मक उन्ननत का फल, उदारता, त्याग, सहदच्छा, स ानुभूनत, न्यायपरता और दयाशीलता। जो शशक्षा में ननबमलों को सताने के शलए तैयार करे, जो में िरती और िन का गुलाम बनाए, जो में भोग-ववलास में डूबाए, जो में दसूरों का रक्त पीकर मोटा ोने का इच्छुक बनाएिं, व शशक्षा न ीिं ै। अगर मूखम, लोभ और मो के पिंजे में फाँ स जाएाँ तो वे क्षम्य ै, परिंतु ववद्या और सभ्यता के उपासकों की स्वाथाांिता अत्यनत ्लज्जाजनक ै। मने ववद्या और बुवद्ध-बल की ववभनूत शशखर पर चढने का मागम बना शलया। वास्तव में व सेवा और पे्रम का सािन था। ककतनी ववधचत्र दशा ै कक जो ष्जतना ी बड़ा ववद्वान ै, व उतना ी बड़ा स्वाथम सेवी ै। बस, मारी सारी ववद्या और बुवद्ध, मारा सारा उत्सा और अनुराग, िनशलप्सा में ग्रशसत ै। मारे प्रोफेसर सा ब एक जार से कम वेतन पाएाँ तो उनका मुाँ ी सीिा न ीिं ोता। मारे दीवान और माल के अधिकारी लोग दो जार माशसक पाने पर भी अपने भाग्य को रोया करत े ै। मारे डॉक्टर सा ब चा त े ैं कक मरीज मरे या ष्जए, मेरी फीस में बािा न पड़ ेऔर मारे वकील सा ब (क्षमा कीष्जएगा) ईश्वर से मनाया करत े ैं कक ईष्याम और द्वेष का प्रकोप ो और सोने की दीवार खड़ी कर लूाँ। 'समय िन ै' इसी वाक्य को म ईश्वर-वाक्य समझ र ें। इन म ान पुरुषों में से प्रत्येक व्यष्क्त सैकड़ों न ीिं जारों-लाखों की जीववका ड़प जात े ै। और कफर भी उन् ें जानत का भक्त बनने का दावा ै। व अपने स्वजानत-पे्रम का डिंका बजाता कफरता ै। पैदा दसूरे करें , पसीना दसूरे ब ाएाँ, खाना और मोछों पर ताव देना इनका काम ै। मैं समस्त शशक्षक्षत समुदाय को केवल ननकम्मा ी न ीिं, वरन अनथमकारी भी समझता ूाँ।

डॉक्टर सा ब ने ब ुत िैयम से काम लेकर पूछा - तो क्या आप चा त े ै कक म सब के सब मजूरी करें?

पे्रमशिंकर - जी न ीिं, ालााँकक ऐसा ो तो मनुष्य-जानत का ब ुत उपकार ो। मुझ ेजो आपष्त्त ै, य केवल दशाओिं में इस अन्यायपूणम समता से ै। यहद एक मजूर 5 रुपया में अपना ननवाम कर सकता ै तो एक मानशसक काम करने वाले

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प्राणी के शलए इससे दगुनी-नतगनी आय काफी ोनी चाह ए और व अधिकता इसशलए कक उसे कुछ उत्तम भोजन-वस्त्र तथा सुख की आवश्यकता ोती ै। मगर पााँच और पााँच जार, पचास और पचास जार का अस्वाभाववक अिंतर क्यों ो? इतना न ीिं, मारा समाज पााँच और पााँच लाख के अिंतर का भी नतरस्कार न ीिं करता; वरन ् उसकी और भी प्रशिंसा करता ै। शासन-प्रबिंि, वकालत,

धचककत्सा, धचत्र-रचना, शशक्षा, दलाली, व्यापार, सिंगीत और इसी प्रकार की सैकड़ों अन्य कलाएाँ शशक्षक्षत समुदाय की जीवन-वषृ्त्त बनी ुई ै। पर इनमें से एक भी िनोपाजमन न ीिं करती। इनका आिार दसूरों की कमाई पर ै, मेरी समझ में न ीिं आता कक व उद्योग-ििंिे जो जीवन में सामधग्रयााँ पैदा करत े ै, ष्जन पर जीवन का अवलिंबन ै, क्यों उन पेशों से नीच ेसमझ ेजाएाँ, ष्जनका काम मनोरिंजन या अधिक-से-अधिक िनोपाजमन में स ायता करना ै। आज सारे वकीलों को देश ननकाला ो जाए, सारे अधिकारी वगम लुप्त ो जाए और सारे दलाल स्वगम शसिारें , तब भी सिंसार का काम चलता र ेगा, बष्ल्क और सरलता से। ककसान भूशम जोतेंगे, जुला े कपड़ े बुनेंगे, बढई, लो ार, राज, चममकार, सब-के-सब पूवमवत ्अपना-अपना काम करत ेर ेंगे। उनकी पिंचायतें उनके झगड़ों का ननबटारा करेंगे। लेककन यहद ककसान न ों तो सारा सिंसार क्षुिा-पीड़ा से व्याकुल ो जाए। परिंतु ककसान के शलए 5रु. ब ुत समझा जाता ै और वकील सा ब या डॉक्टर सा ब को पााँच जार भी काफी न ीिं।

डॉक्टर - आप अथमशास्त्र के उस म त्त्वपूणम शसद्धािंत को भलू जात े ै ष्जसे श्रम-ववभाजन (division of labour) क त े ै। प्रकृनत ने प्राखणयों को शभन्न-शभन्न शष्क्तयााँ प्रदान की ैं और उनके ववकास के शलए शभन्न-शभन्न दशाओिं की आवश्यकता ोती ै।

पे्रमशिंकर - मैं य कब क ता ूाँ कक प्रत्येक मनुष्य को मजूरी करने पर मजबरू ककय जाए! न ीिं ष्जसे परमात्मा ने ववचार की शष्क्त दी ै, व शास्त्रों की वववेचना करे। जो भावुक ो, व काव्य रचना करे। जो अन्याय से घणृा करता ो व वकालत करे। मेरा कथन य ै कक ववशभन्न कायों की ैशसयत मे इतना

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अिंतर न र ना चाह ए। मानशसक और औद्योधगक कामों में इतना फकम न्याय के ववरुद्ध ै। य प्रकृनत के ननयमों के प्रनतकूल ज्ञात ोता ै कक आवश्यक और अननवायम कायों पर अनावश्यक और अननवायम कायो की प्रिानता ो। कनतपय सज्जनों का मत ै कक इस साम्य से गुणी लोगों का अनादर ोगा और सिंसार को उनके सद्ववचारों और सत्कायों से लाभ न प ुाँच सकेगा! ककिं तु वे भूल जात े ै कक सिंसार के बड़े-से-बड़ ेपिंडडत, बड़े-से-बड़ ेकवव, बड़-ेसे-बड़े आववष्कारक, बड़े-से-बड़ ेशशक्षक िन और प्रभुता के लोभ से मुक्त थे। मारे अस्वाभाववक जीवन का एक कुपररणाम य भी ै कक म बलात ्कवव और शशक्षक बन जात े ै। सिंसार में आज अगखणत लेखक और कवव, वकील और शशक्षक उपष्स्थत ै। वे सब के सब पथृ्वी पर भार-रप ो र े ै। जब उन् ें मालूम ोगा कक इन हदव्य कलाओिं में कुछ लाभ न ीिं तो व ी लोग कवव ोंगे, ष्जन् ें कवव ोना चाह ए। सिंक्षेप में क ना य ी ै कक िन की प्रिानता ने मारे समस्त समाज को उलट-पुलट हदया ै।

डॉक्टर मे रा अिीर ो गए; बोले - म ाशय, समाज-सिंगठन का य रप देवलोक के शलए चा े उपयुक्त ो, पर भौनतक सिंसार के शलए और इस भौनतक काल में व कदावप उपयोगी न ीिं ो सकता।

पे्रमशिंकर - केवल इसी कारण से अभी तक िनवानों का, जमीिंदारों का और शशक्षक्षत समुदाय का प्रभुत्व जमा ुआ ै। पर इसके प ले भी, कई बार इस प्रभुत्व को िक्का लग चुका ै। और धचह्नों से ज्ञात ोता ै कक ननकट भववष्य में कफर इसकी पराजय ोन वाली ै। कदाधचत व ार ननणमयात्मक ोगी। समाज का चक्र साम्य से आरिंभ ोकर कफर साम्य पर ी समाप्त ोता ै। एकाधिपत्य, रईसों का प्रभुत्व और वाखणज्य-प्राबल्य, उसकी मध्यवती दशाएाँ ै। वतममान चक्र ने मध्यवती दशाओिं को भोग शलया ै और व अपने अिंनतम स्थान के ननकट आता-जाता ै। ककिं तु मारी आाँखें अधिकार और प्रभुता के मद में ऐसी भरी ुई ै कक में आगे-पीछे कुछ न ीिं सूझता। चारों ओर से जनतावाद का घोर नाद मारे कानों में आ र ा ै, पर म ऐसे ननष्श्चिंत ै मानो व सािारण मेघ

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की गरज ै। म अभी तक उन् ीिं ववद्याओिं और कलाओिं में लीन ै ष्जनका आश्रय दसूरों की मे नत ै। मारे ववद्यालयों की सिंख्या बढती जाती ैं, मारे वकीलखाने में पााँव रखने की जग बाकी न ीिं, गली-गली फोटो स्टूडडयों खुल र े ै, डॉक्टरों की सिंख्या मरीजों से भी अधिक ो गई ै, पर अब भी मारी आाँखें न ीिं खुलती। म इस अस्वाभाववक जीवन, इस सभ्यता के नतशलस्म से बा र ननकलने की चषे्टा न ीिं करते। म श रों मे कारखानें खोलते-कफरत े ै, इसशलए कक मजदरूों की मे नत से मोटे ो जाएाँ। 30 रु. और 40 रु. सैकड़ ेलाभ की कल्पना करके फूले न ीिं समात,े पर ऐसा क ीिं देखने में न ीिं आता कक ककसी शशक्षक्षत सज्जन ने कपड़ा बुनना या जमीन जोतना शुर ककया ो। यहद कोई दभुामग्यवश ऐसा करे भी तो उसकी ाँसी उड़ाई जाती ै। म उसी को मान-प्रनतष्ठा के योग्य समझता ै, जो तककयागद्दी लगाए बैठा र े, ाथ-पैर न ह लाए और लेन-देन पर, सूद-बटे्ट पर लाखों के वारे-न्यारे करता ो...।

य ी बातें ो र ी थी कक दगुाम माली एक डाली में नारिंधगयााँ, गोभी के फूल,

अमरद, मटर की फशलयााँ आहद सजाकर लाया और उसे डॉक्टर सा ब के सामने रख हदया। उसके च ेरे पर एक प्रकार का गवम था, मानो उसकी आत्मा जागररत ो गई ै। व डॉक्टर सा ब के समीप एक मोटे मोढे पर बैठ गया और बोला - ुजूर को कैसी कलमें चाह ए? आप बाबू जी को एक धचट पर उनके नाम शलखकर दे दीष्जए। मैं कल आपके मकान प ुाँचा दूाँगा। आपके बाल-बच्च े तो अच्छी तर ै।

डॉक्टर सा ब ने कुछ सकुचाकर क ा - ााँ, लड़के अच्छी तर ै, तुम य ााँ अच्छी तर ो?

दगुाम - जी ााँ, आपकी दया से ब ुत आराम से ूाँ।

डॉक्टर सा ब उठकर चले तो पे्रमशिंकर उन् ें ववदा करने साथ-साथ फाटक तक आए। डॉक्टर सा ब मोटर पर बैठे तो मुस्कराकर पे्रमशिंकर से बोले - मैं आपके शसद्धािंतों का कायल न ीिं ुआ, पर इसमें सिंदे न ीिं कक आपने एक पशु को

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मनुष्य बना हदया। य आपके सत्सिंग का फल ै। लेककन क्षमा कीष्जएगा, मैं कफर भी क ूाँगा कक आप इससे ोशशयार रह एगा। 'यूजेननक्स' (सुप्रजनन-शास्त्र) अभी तक ककसी ऐसे प्रयोग का आववष्कार न ीिं कर सका ै, जो जन्म के सिंस्कारों को शमटा दे!

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र्ूठ

डॉक्टर जयपाल ने प्रथम शे्रणी की सनद पाई थी, पर इसे भाग्य ी कह ए या व्यावसानयक शसद्धािंतों का अज्ञान कक उन् ें अपने व्यवसाय में कभी उन्नत अवस्था न शमली। उनका घर साँकरी गली में था; पर उनके जी में खुली जग में घर लेने का ववचार तक न उठा। औषिालय की अलमाररयााँ, शीशशयााँ और डॉक्टरी यिंत्र आहद भी साफ-सुथरे न थे। शमतव्यनयता के शसद्धािंत का व अपनी घरेलू बातों में भी ब ुत ध्यान रखत ेथे।

लड़का जवान ो गया, पर अभी उसकी शशक्षा का प्रश्न सामने न आया था। सोचत े थे कक इतने हदनों तक पुस्तकों से सर मारकर मैंने ऐसी कौन-सी बड़ी सिंपष्त्त पा ली, जो उसके पढाने-शलखाने में जारों रुपए बबामद कराँ । उनकी पत्नी अ ल्या िैयमवान मह ला थी, पर डॉक्टर सा ब ने उसके इस गुणों पर इतना बोझ रख हदया था कक उसकी कमर भी झुक जाती थी। मााँ भी जीववत थी, पर गिंगास्नान के शलए तरस-तरस कर र जाती थी; दसूरे पववत्र स्थानों की यात्रा चचाम ी क्या! इस कू्रर शमतव्यनयता का पररणाम य था कक घर में सुख और शािंनत का नाम न था। अगर कोई मद फुटकल थी तो व बुहढया म री जधगया थी। उसने डॉक्टर को गोद में खखलाया था और उसे इस घर से ऐसा पे्रम ो गया था कक सब प्रकार की कहठनाइयााँ झलेती थी, पर टलने का नाम न लेती थी।

2

डॉक्टर सा ब डॉक्टरी आय की कमी कपड़ ेऔर शक्कर के कारखानों में ह स्से लेकर पूरा करत ेथे। आज सिंयोगवश बिंबई कारखाने ने उनके पास वावषमक लाभ का साढे सात सौ रुपए भेजे। डॉक्टर सा ब ने बीमा खोला, नोट धगने, डाककये को ववदा ककया, पर डाककये के पास रुपए अधिक थे, बोझ से दबा जाता था। बोला - ुजूर रुपए ले ले और मुझ ेनोट दे दें तो बड़ा अ सान ो, बोझ लका ो जाए।

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डॉक्टर सा ब डाककये को प्रसन्न रखा करत ेथे, उन् ें मुफ्त दवाइयााँ हदया करत ेथे। सोचा कक ााँ, मुझ ेबैंक जाने के शलए तााँगा माँगाना ी पड़गेा, क्यों न बबन कौड़ी के उपकार वाले शसद्धािंत से काम लूाँ। रुपए धगन कर एक थैली में रख हदए और सोच ी र े थे कक चलूाँ उन् ें बैंक में रखता आऊाँ कक एक रोगी ने बुला भेजा। ऐसे अवसर य ााँ कदाधचत ी आत े थे। यद्यवप डॉक्टर सा ब को बक्स पर भरोसा न था, पर वववश ोकर थैली बक्स में रखी और रोगी को देखने चले गए। व ााँ से लौटे तो तीन बज चुके थे, बैंक बिंद ो चुका था। आज रुपए ककसी तर जमा न ो सकत ेथे। प्रनतहदन की भााँनत औषिालय में बैठ गए। आठ बज ेरात को जब घर के भीतर जाने लगे, तो थैली को घर ले जाने के शलए बक्स से ननकाला, थैली कुछ ल्की जान पड़ी, तत्काल उसे दवाइयों के तराजू पर तौला, ोश उड़ गए। पूरे पााँच सौ रुपए कम थे। ववश्वास न ुआ। थैली खोलकर रुपए धगने। पााँच सौ रुपए कम ननकले। ववक्षक्षप्त अिीरता के साथ बक्स के दसूरे खानों को टटोला परिंतु व्यथम। ननराश ोकर एक कुरसी पर बैठ गए और स्मरण-शष्क्त को एकत्र करने के शलए आाँखें बिंद कर दीिं और सोचने लगे, मैंने रुपए क ीिं अलग तो न ीिं रखे, डाककए ने रुपए कम तो न ीिं हदए, मैंने धगनने में भूल तो न ीिं की, मैंने पचीस-पचीस रुपए की गड्डडयााँ लगाई थी, पूरी तीस गड्डडयााँ थी, खूब याद ै। मैंने एक-एक गड्डी धगन कर थैली में रखी, स्मरण-शष्क्त मुझ ेिोखा न ीिं दे र ी ै। सब मुझ ेठीक-ठीक याद ै। बक्स का ताला भी बिंद कर हदया था, ककिं तु ओ , अब समझ में आ गया, कुिं जी मेज पर ी छोड़ दी, जल्दी के मारे उसे जेब में रखना भूल गया था, व अभी तक मेज पर पड़ी ै। बस य ी बात ै, कुिं जी जेब में डालने की याद न ीिं र ी, परिंतु ले कौन गया, बा र दरवाजे बिंद थे। घर में िरे रुपए-पैसे कोई छूता न ी, आज तक ऐसा अवसर न ीिं आया। अवश्य य ककसी बा री आदमी का काम ै। ो सकता ै कक कोई दरवाजा खुला र गया ो, कोई दवा लेने आया ो, कुिं जी मेज पर पड़ी देखी ो और बक्स खोलकर रुपए ननकाल शलयें ो।

इसी से मैं रुपए न ीिं शलया करता, कौन हठकाना डाककए की ी करतूत ो, ब ुत सिंभव ै, उसने मुझ ेबक्स में थैली रखत ेदेखा था। रुपए जमा ो जात ेतो मेरे

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पास पूरे जार रुपए ो जात,े ब्याज जोड़ने में सरलता ोती। क्या कराँ । पुशलस को खबर दूाँ? व्यथम बै ठे-बबठाये उलझन मोल लेनी ै। टोले-भर के आदशमयों की दरवाज े पर भीड़ ोगी। दस-पााँच आदशमयों को गाशलयााँ खानी पड़गेी और फल कुछ न ीिं! तो क्या िीरज िर कर बैठ र ूाँ? कैसे िीरज िराँ ! य कोई सेंतमेंत शमला िन तो था न ीिं, राम की कौड़ी ोती तो समझता कक जैसे आई, वैसे गई। य ााँ एक-एक पैसा अपने पसीने का ै। मैं जो इतनी शमतव्यनयता से र ता ूाँ, इतने कष्ट से र ता ूाँ, किं जूस प्रशसद्ध ूाँ, घर के आवश्यक व्यय में भी काट-छााँट करता ूाँ, क्या इसीशलए कक ककसी उच्चके के शलए मनोरिंजन का सामान जुटाऊाँ ? मुझ ेरेशम से घणृा न ीिं, न मेवे ी अरुधचकर ै, न अजीणम का रोग ै कक मलाई खाऊाँ और अपच ो जाए, न आाँखों की दृष्ष्ट कम ै कक धथयेटर और शसनेमा का आनिंद न उठा सकूाँ । मैं सब ओर से अपने मन को मारे र ता ूाँ, इसीशलए तो कक मेरे पास चार पैसे ो जाएाँ, काम पड़ने पर ककसी के आगे ाथ फैलाना न पड़।े कुछ जायदाद ले सकूाँ , और न ीिं तो अच्छा घर ी बनवा लूाँ। पर इस मन मारने का य फल! गाढे पररश्रम के रुपए लुट जाएाँ। अन्याय ै कक मैं यों हदनद ाड़ ेलुट जाऊाँ और उस दषु्ट का बाल भी टेढा न ो। उसके घर दीवाली ो र ी ोगी, आनिंद मनाया जा र ा ोगा, सब के सब बगलें बजा र े ोंगे।

डॉक्टर सा ब बदला लेने के शलए व्याकुल ो गए। मैंने कभी ककसी फकीर को, ककसी सािु को दरवाजे पर खड़ा ोने न ीिं हदया। अनेक बार चा ने पर भी मैंने कभी शमत्रों को अपने य ााँ ननमिंबत्रत न ीिं ककया, कुटुिंबबयों और सिंबिंधियों से सदा बचता र ा, क्या इसीशलए। उसका पता लग जाता तो मैं एक बबषैली सुई से उसके जीवन का अिंत कर देता।

ककिं तु कोई उपाय न ीिं ै। जुला े का गुस्सा दाढी पर। गुप्त पुशलसवाले भी बस नाम ी के ैं, पता लगाने की योग्यता न ीिं। इनकी सारी अक्ल राजनीनतक व्याख्यानों और झूठी ररपोटों के शलखने में समाप्त ो जाती ै। ककसी मेस्मेररज्म जानने वाले के पास चलूाँ , व इस उलझन को सुलझा सकता ै।

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सुनता ूाँ, यूरोप और अमेररका में ब ुिा चोररयों का पता इसी उपाय से लग जाता ै। पर य ााँ ऐसे मेस्मेररजम का पिंडडत कौन ै और कफर मेस्मेररजम के उत्तर सदा ववश्वसनीय न ीिं ोत।े ज्योनतवषयों के समान वे भी अनुमान और अटकल के अनिंत-सागर में डुबककयााँ लगात े लगत े ै। कुछ लोग नाम भी तो ननकालत े ैं। मैंने कभी उन क ाननयों पर ववश्वास न ीिं ककया, परिंतु कुछ न कुछ इसमें तत्त्व ै अवश्य, न ीिं तो इस प्रकृनत-उपासना के युग में इनका अष्स्तत्व ी न र ता। आजकल के ववद्वान भी तो आष्त्मक-बल का लो ा मानत ेजात े ै,

पर मान लो ककसी ने नाम बतला ी हदया तो मेरे ाथ में बदला चुकाने का कौन-सा उपाय ै, अिंतज्ञामन साक्षी का काम न ीिं दे सकता। एक क्षण के शलए मेरे जी को शािंनत शमल जाने के शसवाय और इनसे क्या लाभ ै?

ााँ, खूब याद आया। नदी की ओर जात े ुए व जो एक ओझा बैठता ै, उसके करतब की क ाननयााँ प्रायुः सुनने में आती ै। सुनता ूाँ, गए ुए िन का पता बतला देता ै, रोधगयों को बात की बात में चिंगा कर देता ै, चोरी के माल का पता लगा देता ै, मूठ चलाता ै। मूठ की बड़ी बड़ाई सुनी ै, मूठ चली और चोर के मुाँ से रक्त जारी ुआ, जब तक व माल न लौटा दे रक्त बिंद न ीिं ोता। य ननशाना बैठ जाए तो मेरी ाहदमक इच्छा पूरी ो जाए! मुाँ मााँगा फल पाऊाँ गा। रुपए भी शमल जाएाँ, चोर को शशक्षा भी शमल जाए! उसके य ााँ सदा लोगों की भीड़ लगी र ती ै। इसमें कुछ करतब न ोता तो इतने लोग क्यों जमा ोत?े

उसकी मुखाकृनत से एक प्रनतभा बरसती ै। आजकल के शशक्षक्षत लोगों को तो इन बातों पर ववश्वास न ीिं ैं, पर नीच और मूखम-मिंडली में उसकी ब ुत चचाम ै। भूत-पे्रत आहद की क ाननयााँ प्रनतहदन ी सुना करता ूाँ। क्यों न उसी ओझे के पास चलूाँ? मान लो कोई लाभ न ुआ तो ानन ी क्या ो जाएगी। ज ााँ पााँच सौ गए ैं, दो-चार रुपए का खून और स ी। य समय भी अच्छा ै। भीड़ कम ोगी, चलना चाह ए।

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जी में य ननश्चय करके डॉक्टर सा ब उस ओझ ेके घर की ओर चले, जाड़ ेकी रात थी। नौ बज गए थे। रास्ता लगभग बिंद ो गया था। कभी-कभी घरों से रामायण की ध्वनन कानों में आ जाती थी। कुछ देर के बाद बबलकुल सन्नाटा ो गया। रास्त ेके दोनों ओर रे-भरे खेत थे। शसयारों का ुाँआना सुन पड़ने लगा। जान पड़ता ै इनका दल क ीिं पास ी ै। डॉक्टर सा ब को प्रायुः दरू से इनका सुरीला स्वर सुनने का सौभाग्य ुआ था। पास से सुनने का न ीिं। इस समय इस सन्नाटे में और इतने पास से उनका चीखना सुनकर उन् ें डर लगा। कई बार अपनी छड़ी िरती पर पटकी, पैर िमिमाए। शसयार बड़ ेडरपोक ोत े ै, आदमी के पास न ीिं आत;े पर कफर सिंदे ुआ, क ीिं इनमें कोई पागल ो तो उसका काटा तो बचता ी न ीिं। य सिंदे ोत े ी कीटाणु, बैष्क्टररया, पास्टयार इिंष्स्टच्यूट और कसौली की याद उनके मष्स्तष्क में चक्कर काटने लगी। व जल्दी-जल्दी पैर बढाए चले जात ेथे। एकाएक ववचार उठा - क ीिं मेरे ी घर में ककसी ने रुपए उठा शलयें ो तो। वे तत्काल हठठक गए, पर एक ी क्षण में उन् ोंने इसका भी ननणमय कर शलया, क्या जम ै घरवालों को तो और भी कड़ा दिंड शमलना चाह ए। चोर की मेरे साथ स ानुभूनत न ीिं ो सकती, पर घरवालों की स ानुभूनत का मैं अधिकारी ूाँ। उन् ें जानना चाह ए कक मैं जो कुछ करता ूाँ उन् ीिं के शलए करता ूाँ। रात-हदन मरता ूाँ तो उन् ीिं के शलए मरता ूाँ। यहद इस पर भी मुझ ेयों िोखा देने के शलए तैयार ों तो उनसे अधिक कृतध्न, उनसे अधिक अकृतज्ञ, उनसे अधिक ननदमय और कौन ोगा? उन् ें और भी कड़ा दिंड शमलना चाह ए। इतना कड़ा, इतना शशक्षाप्रद कक कफर कभी ककसी को ऐसा करने का सा स न ो।

अिंत में ओझ ेके घर के पास जा प ुाँच।े लोगों की भीड़ न थी। उन् ें बड़ा सिंतोष ुआ। ााँ, उनकी चाल कुछ िीमी पड़ गई। कफर जी में सोचा, क ीिं य सब ढकोसला ी ढकोसला ो तो व्यथम लष्ज्जत ोना पड़।े जो सुने, मूखम बनाए। कदाधचत ओझा ी मुझ ेतुच्छबुवद्ध समझ।े पर अब तो आ गया, य तजरबा भी ो जाए। और कुछ न ोगा तो जााँच ी स ी। ओझा का नाम बुदू्ध था। लोग चौिरी करत े थे। जानत का चमार था। छोटा-सा घर और व भी गिंदा। छप्पर

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इतनी नीची थी कक झुकने पर भी शसर से टक्कर लगने का डर लगता था। दरवाजे पर एक नीम का पेड़ था। उनके नीच ेएक चौरा। नीम के पेड़ पर एक झिंड़ी ल राती थी। चौरा पर शमट्टी के सैकड़ों ाथी शसिंदरू से रिंगे ुए खड़ ेथे। कई लो े के नोकदार बत्रशूल भी गड़ ेथे, जो मानो इन मिंदगनत ाधथयों के शलए अिंकुश को काम दे र े थे। दस बजे थे। बुदू्ध जो एक काले रिंग का तोंहदला और रोबदार आदमी था, एक फटे ुए टाट पर बैठा नाररयल पी र ा था। बोतल और धगलास भी सामने रखे ुए।

बुदू्ध ने डॉक्टर सा ब को देखकर तुरिंत बोतल नछपा दी और नीच े उतर कर सलाम ककया। घर से एक बुहढया ने मोढा लाकर उनके शलए रख हदया। डॉक्टर सा ब ने कुछ झेंपत े ुए सारी घटना क सुनाई। बुदू्ध ने क ा - ुजूर, य कौन बड़ा काम ै। अभी इसी इतवार को दारोगा जी की घड़ी चोरी ो गई थी, ब ुत त कीकात की, पता न चला। मुझ े बुलाया। मैंने बात की बात में पता लगा हदया। पााँच रुपए इनाम हदए। कल की बात ै, जमादार सा ब की घोड़ी खो गई थी। चारों तरफ दौड़त ेकफरत ेथे। मैंने ऐसा पता बता हदया कक घोड़ी चरती ुई शमल गई। इसी ववद्या की बदौलत ुजूर ुक्काम सभी मानत े ैं।

डॉक्टर को दारोगा और जमादार की चचाम न रुची। इस सब गाँवारों की आाँखों में जो कुछ ै, व दारोगा और जमादार ी ैं। बोले - मैं केवल चोरी का पता लगाना न ीिं चा ता, मैं चोर को सजा देना चा ता ूाँ।

बुदू्ध ने एक क्षण के शलए आाँखें बिंद की, जमु ाइयााँ ली, चुटककयााँ बजाई और कफर क ा - य घर ी के ककसी आदमी का काम ै।

डॉक्टर - कुछ परवा न ीिं, कोई ो।

बुहढया - पीछे से कोई बात बने या बबगड़गेी तो जूर मीिं को बुरा क ेंगे।

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डॉक्टर - इसकी तुम कुछ धचिंता न करो, मैंने खूब सोच-ववचार शलया ै! बष्ल्क अगर घर के ककसी आदमी की शरारत ै तो मैं उसके साथ और भी कड़ाई करना चा ता ूाँ। बा र का आदमी मेरे साथ छल करे तो क्षमा के योग्य ै, पर घर के आदमी को मैं ककसी प्रकार क्षमा न ीिं कर सकता।

बुदू्ध - तो ुजूर क्या चा त े ै?

डॉक्टर - बस य ी कक मेरे रुपए शमल जाएाँ और चोर ककसी बड़ ेकष्ट में पड़ जाए।

बुदू्ध - मूठ चला दूाँ?

बुहढया - ना बेटा, मूठ के पास न जाना। न जाने कैसी पड़,े कैसी न पड़।े

डॉक्टर - तुम मूठ चला दो, इसका जो कुछ मे नताना और इनाम ो, मैं देने को तैयार ूाँ।

बुहढया - बेटा, मैं कफर क ती ूाँ, मूठ के फेर में मत पड़। कोई जोखम की बात आ पड़गेी तो व ी बाबूजी कफर तरेे शसर ोंगे और तरेे बनाए कुछ न बनेगी। क्या जानता न ीिं, मूठ का उतार ककतना कहठन ै?

बुदू्ध - ााँ बाबू जी! कफर एक बार अच्छी तर सोच लीष्जए। मूठ तो मैं चला दूाँगा, लेककन उसको उतारने का ष्जम्मा मैं न ीिं ले सकता।

डॉक्टर - अभी क तो हदया, मैं तुम् ें उतारने को न क ूाँगा, चलाओ भी तो।

बुदू्ध ने आवश्वयक सामान की लिंबी ताशलका बनाई। डॉक्टर सा ब ने सामान की अपेक्षा रुपए देना अधिक उधचत समझा। बुदू्ध राजी ो गया। डॉक्टर सा ब चलते-चलत ेबोले - ऐसा मिंतर चलाओ के सबेरा ोत-े ोत ेचोर मेरे सामने माल शलये ुए आ जाए।

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बुदू्ध ने क ा - आप ननसाखानतर र ें।

4

डॉक्टर सा ब व ााँ से चले तो ग्यार बजे थे। जाड़ ेकी रात, कड़ाके की ठिंड थी। उनकी मााँ और स्त्री दोनों बठैी ुई उनकी रा देख र ी थी। उन् ोंने जी को ब लाने के शलए बीच में एक अाँगीठी रख ली थी, ष्जसका प्रभाव शरीर की अपेक्षा ववचार पर अधिक पड़ता था। य ााँ कोयला ववलास्य पदाथम समझा जाता था। बुहढया म री जधगया व ीिं फटा टाट का टुकड़ा ओढे पड़ी थी। व बार-बार उठकर अपनी कोठरी में जाती, आले पर कुछ टटोलकर देखती और कफर अपनी जग पर आकर पड़ र ती। बार-बार पूछती, ककतनी रात गई ोगी। जरा भी खटका ोता तो चौंक पड़ती और धचिंनतत दृष्ष्ट से इिर-उिर देखने लगती। आज डॉक्टर सा ब ने ननयम के प्रनतकूल क्यों इतनी देर लगाई, इसका सबको आश्चयम था। ऐसे अवसर ब ुत कम आत े थे कक उन् ें रोधगयों को देखने के शलए रात को जाना पड़ता ो। यहद कुछ लोग उनकी डॉक्टरी के कायल भी थे, तो वे रात को उस गली में आने का सा स न करत े थे। सभा-सोसाइहटयों में जाने को उन् ें रुधच न थी। शमत्रों से भी उनका मेल-जोल न था। मााँ ने क ा - जाने क ााँ चला गया, खाना बबलकुल पानी ो गया।

अ ल्या - आदमी जाता ै तो क कर जाता ै, आिी रात से ऊपर ो गई।

मााँ - कोई ऐसी ी अटक ो गई ोगी, न ीिं तो व कब घर से बा र ननकलता ै?

अ ल्या - मैं तो अब सोने जाती ूाँ, उनका जब जी चा े आए। कोई सारी रात बैठा प रा देगा।

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य ी बातें ो र ी थी कक डॉक्टर सा ब घर आ प ुाँच।े अ ल्या साँभल बैठी; जधगया उठकर खड़ी ो गई और उनकी ओर स मी ुई आाँखों से ताकने लगी। मााँ ने पूछा - आज क ााँ इतनी देर लगा दी?

डॉक्टर - तुम लोग तो सुख से बैठी ो न! में देर ो गई, इसकी तुम् ें क्या धचिंता! जाओ, सुख से सोओ, इन ऊपरी हदखावटी बातों से मैं िोखे में न ीिं आता। अवसर पाओ तो गला काट लो, इस पर चली ो बात बनाने!

मााँ ने दुुःखी ो कर क ा - बेटा! ऐसी जी दखुाने वाली बातें क्यों करत े ो? घर में तुम् ारा कौन बैरी ै जो तुम् ारा बुरा चतेगेा?

डॉक्टर - मैं ककसी को अपना शमत्र न ीिं समझता, सभी मेरे बैरी ै, मेरे प्राणों के ग्रा क ै! न ीिं तो क्या आाँख ओझल ोत े ी मेरी मेज से पााँच सौ रुपए उड़ जाएाँ, दरवाजे बा र से बिंद थे, कोई गैर न ीिं आया, रुपए रखत े ी उड़ गए। जो लोग इस तर मेरा गला काटने पर उतार ो, क्योंकर अपना समझूाँ। मैंने खूब पता लगा शलया ै, अभी एक ओझ ेके पास से चला आ र ा ूाँ। उसने साफ क हदया ै कक घर के ी ककसी आदमी का काम ै। अच्छी बात ै, जैसी करनी वैसी भरनी। मैं भी बता दूाँगा कक मैं अपने बैररयों का शुभधचिंतक न ीिं ूाँ। यहद बा र का आदमी ोता तो कदाधचत मैं जाने भी देता। पर जब घर के आदमी ष्जनके शलए हदन-रात चक्की पीसता ूाँ, मेरे साथ छल करें तो वे इसी योग्य ै कक उनके साथ जरा भी ररआयत न की जाए। देखना सबेरे तक चोर की क्या दशा ोती ै। मैंने ओझ ेसे मूठ चलाने को क हदया ै। मूठ चली और उिर चोर के प्राण सिंकट में पड़।े

जधगया घबराकर बोली - भइया, मूठ में जान जोखम ै।

डॉक्टर - चोर की य ी सजा ै।

जधगया - ककस ओझ ेने चलाया ै?

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डॉक्टर - बुदू्ध चौिरी ने।

जधगया - अरे राम, उसकी मूठ का तो उतार ी न ीिं।

डॉक्टर अपने कमरे में चले गए, तो मााँ ने क ा - सूम का िन शैतान खाता ै। पााँच सौ रुपया कोई मुाँ मार कर ले गया। इतने में तो मेरे सातों िाम ो जात।े

अ ल्या बोली - किं गल के शलए बरसों से झीिंक र ी ूाँ, अच्छा ुआ, मेरी आ पड़ी ै।

मााँ - भला घर में उसके रुपए कौन लेगा?

अ ल्या - ककवाड़ खुले ोंगे, कोई बा री आदमी उड़ा ले गया ोगा।

मााँ - उसको ववश्वास क्योंकर आ गया कक घर ी के ककसी आदमी ने रुपए चुराए ै।

अ ल्या - रुपए का लोभ आदमी को शक्की बना देता ै।

5

रात का एक बजा था। डॉक्टर जयपाल भयानक स्वप्न देख र े थे। एकाएक अ ल्या ने आकर क ा - जरा चलकर देखखए, जधगया का क्या ाल ो र ा ै। जान पड़ता ै जीभ ऐिंठ गई ै। कुछ बोलती ी न ीिं, आाँखें पथरा गई ैं।

डॉक्टर चौंककर उठ बैठे। एक क्षण तक इिर-उिर ताकत ेर े; मानो सोच र े थे,

य स्वप्न तो न ीिं ै। तब बोले - क्या क ा! जधगया को क्या ो गया?

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अ ल्या ने कफर जधगया का ाल क ा। डॉक्टर के मुख पर ल्की-सी मुस्करा ट दौड़ गई। बोले - चोर पकड़ा गया! मूठ ने अपना काम ककया।

अ ल्या - और जो घर ी के ककसी आदमी ने ले शलये ोते?

डॉक्टर - तो उसकी भी य ी दशा ोती, सदा के शलए सीख जाता।

अ ल्या - पााँच सौ रुपए के पीछे प्राण ले लेते?

डॉक्टर - पााँच सौ रुपए के शलए न ीिं, आवश्यकता पड़ ेतो पााँच जार खचम कर सकता ूाँ, केवल छल-कपट का दिंड देने के शलए।

अ ल्या - बड़ ेननदमयी ो।

डॉक्टर - तुम् ें शसर से पैर तक सोने से लाद दूाँ तो मुझ े भलाई का पुतला समझने लगो, क्यो? खेद ै कक मैं तुमसे य सनद न ीिं ले सकता।

य क त े ुए व जधगया की कोठरी पर गए। उसकी ालत उससे क ीिं अधिक खराब थी जो अ ल्या ने बताई थी। मुख पर मुदमनी छाई ुई थी, ाथ-पैर अकड़ गए थे, नाड़ी का पता न था। उसकी मााँ उसे ोश में लाने के शलए बार-बार उसके मुाँ पर पानी के छीटें दे र ी थी। डॉक्टर ने य ालत देखी तो ोश उड़ गए। उन् ें अपने उपाय की सफलता पर प्रसन्न ोना चाह ए था। जधगया ने रुपए चुराए इसके शलए अब अधिक प्रमाण की आवश्यकता न थी; परिंतु मूठ इतनी जल्दी प्रभाव डालने वाली और घातक वस्तु ै, इसका उन् ें अनुमान भी न था। वे चोर से एडड़यााँ रगड़ते, पीड़ा से करा त ेऔर तड़पत े देखना चा त े थे। बदला लेने की इच्छा आशातीत सफल ो र ी थी; परिंतु व ााँ नमक की अधिकता थी, जो कौर को मुाँ के भीतर िाँसने न ीिं देती। य दुुःखमय दृश्य देखकर प्रसन्न ोने के बदले उनके हृदय पर चोट लगी। रोब में म अपनी ननदमयता और कठोरता का भ्रममूलक अनुमान कर शलया करत े ै। प्रत्यक्ष घटना ववचार से

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क ीिं अधिक प्रभावशाली ोती ै। रणस्थल का ववचार ककतना कववत्वमय ै। युद्धावेश का काव्य ककतनी गमी उत्पन्न करने वाला ै। परिंतु कुचले ुए शव के कटे ुए अिंग-प्रत्यिंग देख कर कौन मनुष्य ै, ष्जसे रोमािंच न ो आवे। दया मनुष्य का स्वाभाववक गुण ै।

इसके अनतररक्त इसका उन् ें अनुमान न था कक जधगया जैसी दबुमल आत्मा मेरे रोष पर बशलदान ोगी। व समझत ेथे, मेरे बदले का बार ककसी सजीव मनुष्य पर ोगा; य ााँ तक कक व ेअपनी स्त्री और लड़के को इस वार के योग्य समझत ेथे। पर मरे को मारना; कुचले को कुचना, उन् ें अपने प्रनतघात मयामदा के ववपरीत जान पड़ता। जधगया का य काम क्षमा का योग्य था। ष्जसे रोहटयों के लाले ों, कपड़ों को तरसे, ष्जसकी आकािंक्षा का भवन सदा अिंिकारमय र ा ो, ष्जसकी इच्छाएाँ कभी पूरी न ुई ो, उसकी नीयत बबगड़ जाए तो आश्चयम की बात न ीिं। वे तत्काल औिषालय में गए, ोश में लाने की जो अच्छी-अच्छी औषधियााँ थी, उनको शमलाकर एक शमधश्रत नई औषधि बना लाए, जधगया के गले में उतार दी। कुछ लाभ न ुआ। तब ववद्युत यिंत्र ले आए और उसकी स ायता से जधगया को ोश में लाने का प्रयत्न करने लगे। थोड़ी देर में जधगया की आाँखें खुल गई। उसने स मी ुई दृष्ष्ट से डॉक्टर को देखा, जैसे लड़का अपने अध्यापक की छड़ी की ओर देखता ै, और उखड़ े ुए स्वर में बोली - ाय राम, कलेजा फुाँ का जाता ै, अपने रुपए ले ले, आले पर एक ाड़ी ै, उसी में रखे ुए ै। मुझ ेअिंगारों से मत जला। मैंने तो य रुपए तीरथ करने के शलए चुराए थे। क्या तुझ ेतरस न ीिं आता, मुट्ठी भर रुपयों के शलए मुझ ेआग में जला र ा ै, मैं तुझ ेऐसा काला न समझती थी, ाय राम!

य क ते-क त ेव कफर मूनछमत ो गई, नाड़ी बिंद ो गई, ओठ नीले पड़ गए,

शरीर के अिंगों में खखचाव ोने लगा। डॉक्टर ने दीन भाव से अ ल्या की ओर देखा और बोले - मैं तो अपने सारे उपाय कर चुका, अब इसे ोश में लाना मेरी सामथ्यम के बा र ै। मैं क्या जानता था कक य अभागी मूठ इतनी घातक ोती

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ै। क ीिं इसकी जान पर बन गई तो जीवन भर पछताना पड़गेा। आत्मा की ठोकरें से कभी छुटकारा न शमलेगा। क्या कराँ बुवद्ध कुछ काम न ीिं करती।

अ ल्या - शसववल सजमन को बुलाओ, कदाधचत व कोई अच्छी दवा दे दे। ककसी को जान-बूझ कर आग में ढकेलना न चाह ए।

डॉक्टर - शसववल सजमन इससे अधिक और कुछ न ीिं कर सकता, जो मैं कर चुका। इस घड़ी इसकी दशा और धगरती जाती ै, न जाने त्यारे ने कौन-सा मिंत्र चला हदया। उसकी मााँ मुझ ेब ुत समझाती र ी, पर मैंने क्रोि में उसकी बातों की जरा भी परवा न की।

मााँ - बेटा, तुम उसी को बलुाओ ष्जसने मिंत्र चलाया ै; पर क्या ककया जाएगा। क ीिं मर गई तो त्या शसर पर पड़गेी। कुटुिंब को सदा सताएगी।

6

दो बजे र े थे, ठिंडी वा ड्डडयों में चुभी जाती थी। डॉक्टर लिंबे पााँवों बुदू्ध चौिरी के घर की ओर चले जाते थे। इिर-उिर व्यथम आाँखें दौड़ाते थे कक कोई ुक्का या तााँगा शमल जाए। उन् ें मालूम ोता था कक बुदू्ध का घर ब ुत दरू ो गया। कई बार िोखा ुआ, क ीिं रास्ता तो न ीिं भूल गया। कई बार इिर आया ूाँ, य बाग तो कभी न ीिं शमला, लेटर-बक्स भी सड़क पर कभी न ीिं देखा, य पुल तो कदावप न था, अवश्य रा भूल गया। ककससे पूछूाँ। वे अपनी स्मरण-शष्क्त पर झुाँझलात ेऔर उसी ओर थोड़ी दरू तक दौड़।े पता न ीिं, दषु्ट इस समय शमलेगा भी या न ीिं, शराब में मस्त पड़ा ोगा। क ीिं इिर बेचारी चल न बसी ो। कई बार इिर-उिर घूम जाने का ववचार ुआ पर अिंत-पे्ररणा ने सीिी रा से टने न हदया। य ााँ तक कक बुदू्ध का घर हदखाई पड़ा। डॉक्टर जयपाल की जान में जान आई। बुदू्ध के दरवाजे पर जाकर जोर से कुिं डी खटखटाई। भीतर से कुत्त े ने असभ्यतापूणम उत्तर हदया, पर ककसी आदमी का शब्द न सुनाई हदया। कफर

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जोर-जोर से ककवाड़ खटखटाए, कुत्ता और भी तजे पड़ा, बुहढया की नीिंद टूटी। बोली - य कौन इतनी रात गए ककवाड़ तोड़ ेडालता ै?

डॉक्टर - मैं ूाँ, जो कुछ देर ुई तुम् ारे पास आया था।

बुहढया ने बोली प चानी, समझ गई इनके घर के ककसी आदमी पर ववपद पड़ी, न ीिं तो इतना रात गए क्यों आते; पर अभी तो बुदू्ध ने मूठ चलाई न ीिं। उसका असर क्योंकर ुआ, समझाती थी तब न मानी। खूब फाँ से। उठकर कुप्पी जलाई और उसे शलये बा र ननकली। डॉक्टर सा ब न पूछा - बुदू्ध चौिरी सो र े ै। जरा उन् ें जगा दो।

बुहढया - न बाबू जी, इस बखत मैं न जगाऊाँ गी, मुझ ेकच्चा ी खा जाएगा, रात को लाट सा ब भी आवें तो न ीिं उठता।

डॉक्टर सा ब ने थोड़ ेशब्दों में पूरी घटना क सुनाई और बड़ी नम्रता के साथ क ा कक बुदू्ध को जगा दे। इतने में बुदू्ध अपने ी आप बा र ननकल आया और आाँखें मलता ुआ बोला - कह ए बाबू जी, क्या ुकुम ै।

बुहढया ने धचढकर क ा - तरेी नीिंद आज कैसे खुल गई, मैं जगाने गई ोती तो मारने उठता।

डॉक्टर - मैंने सब माजरा बुहढया से क हदया ै, इसी से पछूो।

बुहढया - कुछ न ीिं, तूने मूठ चलाई थी, रुपए इनके घर की म री ने शलये ै, अब उसका अब तब ो र ा ै।

डॉक्टर - बेचारी मर र ी ै, कुछ ऐसा उपाय करो कक उसके प्राण बच जाएाँ!

बुदू्ध - य तो आपने बुरी सुनाई, मूठ को फेरना स ज न ीिं ै।

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बुहढया - बेटा, जान जोखखम ै, क्या तू जानता न ीिं। क ीिं उल्टे फेरनेवाले पर ी पड़ ेतो जान बचना ी कहठन ो जाए।

डॉक्टर - अब इतनी जान तुम् ारे ी बचाए बचगेी, इतना िमम करो।

बुहढया - दसूरे की जान की खानतर कोई अपनी जान गढे में डालेगा?

डॉक्टर - तुम रात-हदन य ी काम करत े ो, तुम उसके दााँव-घात सब जानत े ो। मार भी सकत े ो, ष्जला भी सकत े ो। मेरा तो इन बातों पर बबलकुल ववश्वास ी न था, लेककन तुम् ारा कमाल देखकर दिंग र गया। तुम् ारे ाथों ककतने ी आदशमयों का भला ोता ै, उस गरीब बुहढया पर दया करो।

बुदू्ध कुछ पसीजा, पर उसकी मााँ मामलेदारी में उससे क ीिं अधिक चतुर थी। डरी, क ीिं य नरम ोकर मामला बबगाड़ न दे। उसने बुदू्ध को कुछ क ने का अवसर न हदया। बोली - य तो सब ठीक ै, पर मारे भी बाल-बच्च े ै। न जाने कैसी पड़ ेकैसी न पड़।े व मारे शसर आवेंगे? आप तो अपना काम ननकाल कर अलग ो जाएिंगे। मूठ फेरना ाँसी न ीिं ै।

बुदू्ध - ााँ बाबू जी, काम बड़ ेजोखखम का ै।

डॉक्टर - काम जोखखम का ै तो मुफ्त तो न ीिं करवाना चा ता।

बुहढया - आप ब ुत देंगे, सौ-पचास रुपए देंगे। इतने में म कै हदन तक खाएिंगे। मूठ फेरना सााँप के बबल में ाथ डालना ै, आग में कूदना ै। भगवान की ऐसी ी ननगा ो तो जान बचती ै।

डॉक्टर - तो माता जी मैं तुमसे बा र तो न ीिं ोता ूाँ। जो कुछ तुम् ारी मरजी ो व क ो। मुझ ेतो उस गरीब की जान बचानी ै। य ााँ बातों में देर ो र ी ै, व ााँ मालूम न ीिं, उसका क्या ाल ोगा।

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बुहढया - देर तो आप ी कर र े ै, आप बात पक्की कर दें तो य आपके साथ चला जाए। आपकी खानतर य जोखखम अपने शसर ले र ी ूाँ, दसूरा ोता तो झट इनकार कर जाती। आपके मुला जे में पड़कर जान-बूझ कर ज र पी र ी ूाँ।

डॉक्टर सा ब को एक क्षण एक वषम जान पड़ र ा था। बुदू्ध को उसी समय अपने साथ ले जाना चा त े थे। क ीिं उसका दम ननकल गया तो य जाकर क्या बनाएगा। उस समय उनकी आाँखों में रुपए का मूल्य न था। केवल य ीिं धचिंता थी कक जधगया मौत के मुाँ से ननकल आए। ष्जस रुपए पर व अपनी आवश्यकताएाँ और घरवालों की आकााँक्षाएाँ ननछावर करत ेउसे दया के आवेश ने बबलकुल तुच्छ बना हदया था। बोले - तुम् ीिं बतलाओ, अब मैं क्या क ूाँ, पर जो कुछ क ना ो झटपट क दो।

बुहढया - अच्छा तो पााँच सौ रुपए दीष्जए, इससे कम में काम न ोगा।

बुदू्ध ने मााँ की ओर आश्चयम से देखा, और डॉक्टर मूनछमत से ो गए, ननराशा से बोले - इतना तो मेरे बूत ेके बा र ै, जान पड़ता ै उसके भाग्य में मरना ी बदा ै।

बुहढया - तो जाने दीष्जए, में अपनी जान भार थोड़ े ी ै। मने तो आपके मुलाह जे से इस काम का बीड़ा उठाया था। जाओ बुदू्ध सोओ.

डॉक्टर - बूढी माता इतनी ननदमयता न करो, आदमी का काम आदमी से ननकलता ै।

बुदू्ध - न ीिं बाबूजी, मैं र तर से आपका काम करने को तैयार ूाँ इसने पााँच सै क े, आप कुछ कम कर दीष्जए। ााँ, जोखखम का ध्यान रखखएगा।

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बुहढया - तू जा के सोता क्यों न ीिं? इन् ें रुपए प्यारे ै तो क्या तुझ ेअपनी जान प्यारी न ीिं ै। कल तो ल ू को थूकने लगेगा तो कुछ बनाए न बनेगी, बाल-बच्चों को ककस पर छोड़गेा? ै घर में कुछ?

डॉक्टर सा ब ने सिंकोच करते ुए ढाई सौ रुपए क े। बुदू्ध राजी ो गया, मामला तय ुआ, डॉक्टर सा ब उसे साथ लेकर घर की ओर चले। उन् ें ऐसी आष्त्मक प्रसन्नता कभी न शमली थी। ारा ुआ मुकदमा जीत कर अदालत से लौटत ेवाला मुकदमेबाज भी इतना प्रसन्न न ोगा। लपके चले जात ेथे। बुदू्ध से बार-बार तजे चलने को क त।े घर प ुाँच ेतो जधगया को बबलकुल मरने के ननकट पाया। जान पड़ता था य ी सााँस अिंनतम सााँस ै। उनकी मााँ और स्त्री दोनों आाँस ूभरे ननराश बैठी थीिं। बुदू्ध को दोनों ने ववनम्र दृष्ष्ट से देखा। डॉक्टर सा ब के आाँसू भी न रुक सके। जधगया की ओर झुके तो आाँसू की बूाँदें उसके मुरझाए ुए पीले मुाँ पर टपक पड़ी। ष्स्थनत ने बुदू्ध को सजग कर हदया बुहढया के दे पर ाथ रखत े ुए बोला - बाब ूजी, अब मेरा ककया कुछ न ीिं ो सकता, य दम तोड़ र ी ै।

डॉक्टर सा ब ने धगड़धगड़ा कर क ा - न ीिं चौिरी, ईश्वर ने नाम पर अपना मिंत्र चलाओ, इसकी जान बच गई तो सदा के शलए मैं तुम् ारा गलुाम बना र ूाँगा।

बुदू्ध - आप मुझ ेजान-बूझकर ज र खाने को क त े ै। मुझ ेमालूम न था कक मूठ के देवता इस बखत इतने गरम ै। व मेरे मन में बैठे क र े ै, तुमने मारे शशकार छीना तो म तुम् ें ननगल जाएिंगे।

डॉक्टर - देवता को ककसी तर राजी कर लो।

बुदू्ध - राजी करना बड़ा कहठन ै, पााँच सौ रुपए दीष्जए तो इसकी जान बच।े उतारतने के शलए बड़े-बड़ ेजतन करने पड़ेंगे।

डॉक्टर - पााँच सौ रुपए दे दूाँ तो इसकी जान बचा दोगे।

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बुदू्ध - ााँ, शतम बद कर।

डॉक्टर ने बबजली की तर लपककर अपने कमरे में आ गए और पााँच सौ रुपयों की थैली लाकर बुदू्ध के सामन रख दी। बुदू्ध ने ववजय की दृष्ष्ट से थैली को देखा। कफर जधगया का सर अपनी गोद में रखकर उसपर ाथ फेरने लगा। कुछ बुदबुदाकर छू-छू करता जाता था। एक क्षण में उसकी सूरत डरावनी ो गई,

लपटें-सी ननकलने लगी। बार-बार अाँगड़ाइयााँ लेने लगा। इसी दशा में एक बेसुरा गाना आरिंभ ककया, पर ाथ जधगया के सर पर ी था। अिंत में कोई आि घिंटा बीतने पर जधगया ने आाँखें खोल दी, जैसे बुझत े ुए दीये में तले पड़ जाए। िीरे-िीरे उसकी अवस्था सुिरने लगी। उिर कौवे की बोली सनुाई जी, जधगया एक अाँगड़ाई लेकर उठ बैठी।

7

सात बजे थे जधगया मीठी नीिंद सो र ी थी; उसकी आकृनत ननरोग थी, बुदू्ध रुपयों की थैली लेकर अभी गया था। डॉक्टर सा ब की मााँ ने क ा - बात-की-बात में पााँच सौ रुपए मार ले गया।

डॉक्टर - य क्यों न ीिं क ती कक एक मुरदे को ष्जला गया। क्या उसके प्राण का मूल्य इतना भी न ीिं ै।

मााँ - देखो, आले पर पााँच सौ रुपए ैं या न ीिं?

डॉक्टर - न ीिं, उन रुपयों में ाथ मत लगाना, उन् ें व ी पड़ े र ने दो। उसने तीरथ करने के वास्त ेशलये थे, व उसी काम में लगेंगे।

मााँ - य सब रुपए उसी के भाग के थे।

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डॉक्टर - उसके भाग के तो पााँच सो ी थे, बाकी मेरे भाग के थे। उसकी बदौलत मुझ ेऐसी शशक्षा शमली, जो उम्र भर न भूलेगी। तुम मुझ ेअब आवश्यक कामों में मुट्ठी बिंद करत े ुए न पाओगी। ***

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ब्रह्र् का सवांग

सरी- मैं वास्तव में अभाधगन ूाँ, न ीिं तो क्या मुझ ेननत्य ऐसे-ऐसे घखृणत दृश्य देखने पड़त।े शोक की बात ै कक वे मुझ ेकेवल देखने ी न ीिं पड़ते, वरन दभुामग्य ने उन् ें मेरे जीवन का मुख्य भाग बना हदया ै। मैं उस सुपात्र ब्राह्मण की कन्या ूाँ, ष्जसकी व्यवस्था बड़-ेबड़ ेग न िाशममक ववषयों पर सवममान्य समझी जाती ै। मुझ ेयाद न ीिं, घर पर कभी बबना स्नान और देवोपासना ककए पानी की एक बूाँद भी मुाँ में डाली ो। मुझ ेएक बार कहठन ज्वर में स्नानाहद के बबना दवा पीनी पड़ी थी, उसका मुझ ेम ीनों खेद र ा। मारे घर में िोबी कदम न ीिं रखने पाता! चमाररन दालान में भी न ीिं बैठ सकती थी। ककिं तु य ााँ आकर मैं मानो भ्रष्टलोक में प ुाँच गई ूाँ। मेरे स्वामी बड़ ेदयालु, बड़ ेचररत्रवान और बड़ ेसुयोग्य पुरुष ै! उनके सद्गुण देखकर मेरे वपता जी उन पर मुग्ि ो गए थ। लेककन! वे क्या जानत ेथे कक य ााँ लोग अघोर-पिंथ के अनुयायी ै। सिंध्या और उपासना तो दरू र ी, कोई ननयशमत रप से स्नान भी न ीिं करता। बैठक में ननत्य मुसलमान,

कक्रस्तान सब आया-जाया करत ेथे और स्वामी जी व ीिं बठेै-बैठे पानी, दिू, चाय पी लेत े ै। इतना ी न ीिं, व व ीिं बैठे-बैठे शमठाइयााँ भी खा लेत े ै। अभी कल की बात ै, मैंने उन् ें लेमोनेड पीत ेदेखा था। साईस जो चमार ै, बेरोकटोक घर में चला आता ै। सुनती ूाँ वे अपने मुसलमान शमत्रों के घर दावतें खाने भी जात े ै। य भ्रष्टाचार मुझसे न ीिं देखा जाता। मेरा धचत्त घणृा से व्याप्त ो जाता ै। जब व ेमुस्करात े ुए मेरे समीप आ जात े ै और ाथ पकड़कर अपने समीप बैठा लेत े ै तो मेरा जी चा ता ै कक िरती फट जाए और मैं उसमें समा जाऊाँ । ा ह िंद ूजानत! तूने म ष्स्त्रयों को पुरुषों की दासी बनना ी क्या मारे जीवन का परम कतमव्य बना हदया! मारे ववचारों का, मारे शसद्धािंतों का, य ााँ तक कक मारे िमम का भी कुछ मलू्य न ीिं र ा।

अब मुझ ेिैयम न ीिं। आज मैं इस अवस्था का अिंत कर देना चा ती ूाँ। मैं इस आसुररक भ्रष्ट-जाल से ननकल जाऊाँ गी। मैंने अपने वपता की शरण में जाने का

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ननश्चय कर शलया ै। आज य ााँ स भोजन ो र ा ै, मेरे पनत उसमें सष्म्मशलत ी न ीिं, वरन उसके मुख्य पे्रषकों में ैं। इन् ीिं के उद्योग और पे्ररणा में य वविमीय अत्याचार ो र ा ै। समस्त जानतयों के लोग एक साथ बैठकर भोजन कर र े ै। सुनती ूाँ, मुसलमान भी एक ी पिंष्क्त में बैठे ुए ैं। आकाश क्यों न ीिं धगर पड़ता! क्या भगवान िमम की रक्षा के शलए अवतार न लेंगे। ब्राह्मण जानत अपने ननजी बिंिुओिं के शसवाय अन्य ब्राह्मणों का पकाया भी न ीिं करती, व ी म ान जानत इस अिोगनत को प ुाँच गई कक कायस्थों, बननयों, मुसलमानों के साथ बैठकर खाने में लेशमात्र भी सिंकोच न ीिं करती, बष्ल्क इसे जातीय गौरव, जातीय एकता का ेतु समझती ै।

पुरुष- व कौन शुभ घड़ी ोगी कक इस देश की ष्स्त्रयों में ज्ञान का उदय ोगा और वे राष्रीय सिंगठन में पुरुषों की स ायता करेंगी? म कब तक ब्राह्मणों के गोरखििंिे में फाँ से र ेंगे? मारे वववा -प्रवेश कब तक जानेंगे कक स्त्री और परुुषों के ववचारों की अनुकूलता और समानता गोत्र और वणम से क ीिं अधिक म त्त्व रखती ै। यहद ऐसा ज्ञात ोता तो मैं वृिंदा का पनत न ोता और न वृिंदा मेरी पत्नी। म दोनों के ववचारों में जमीन और आसमान का अिंतर ै। यद्यवप व प्रत्यक्ष न ीिं क ती, ककिं तु मुझ ेववश्वास ै कक व मेरे ववचारों को घणृा की दृष्ष्ट से देखती ै, मुझ ेऐसा ज्ञात ोता ै कक व मुझ ेस्पशम भी न ीिं करना चा ती। य उसका दोष न ीिं, य मारे माता-वपता को दोष ै, ष्जन् ोंने म दोनों पर ऐसा घोर अत्याचार ककया।

कल वृिंदा खुल पड़ी। मेरे कई शमत्रों ने स भोज का प्रस्ताव ककया था। मैंने उसका स णम समथमन ककया। कई हदन के वाद-वववाद के पश्चात अिंत को कल कुछ धगने-धगनाए सज्जनों ने स भोज का सामान कर ी डाला। मेरे अनतररक्त केवल चार और सज्जन ब्राह्मण थे, शेष अन्य जानतयों के लोग थे। य उदारता वृिंदा के शलए असह्य ो गई। जब मैं भोजन करके लौटा तो व ऐशा ववकल थी

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मानो उसके मममस्थल पर आघात ुआ ो। मेरी ओर ववषादपूणम नेत्रों से देखकर बोली - अब तो स्वगम का द्वार अवश्य खुल गया ोगी!

य कठोर शब्द मेरे हृदय पर तीर के समान लगे। ऐिंठकर बोला - स्वगम और नकम की धचिंता में वे र त े ै - जो अपाह ज ै - कत्तमव्य ीन ै, ननजीव ै। मारा स्वगम और नकम सब इसी पथृ्वी पर ै। म इस कममक्षेत्र में कुछ कर जाना चा त े ैं।

वृिंदा - िन्य ै आपके पुरुषाथम को, आपके सामथ्यम को। आज सिंसार में सुख और शािंनत का साम्राज्य ो जाएगा। आपने सिंसार का उद्धार कर हदया। इससे बढकर उसका कल्याण क्या ो सकता ै?

मैंने झुाँझलाकर क ा - अब तुम् ें इन ववषयों के समझने की ईश्वर ने बुवद्ध ी न ीिं दी, तो क्या समझाऊाँ । इस पारस्पररक भेदभाव से मारे राष्र को जो ानन ो र ी ै, उसे मोटी से मोटी बुवद्ध का मनुष्य भी समझ सकता ै। इस भेद को शमटाने से देश का ककतना कल्याण ोता ै, इसमें ककसी को सिंदे न ीिं। ााँ, जो जानकर भी अनजान बने उसकी बात दसूरी ै।

वृिंदा - बबना एक साथ भोजन ककए परस्पर पे्रम उत्पन्न न ीिं ो सकता?

मैंने इस वववाद में पड़ना अनुपयुक्त समझा। ककसी ऐसी नीनत की शरण लेनी आवश्यक जान पड़ी, ष्जसमें वववाद का स्थान ी न ो। वृिंदा की िमम पर बड़ी श्रद्धा ै, मैंने उसी के शास्त्र से उसे पराष्जत करना ननश्चय ककया। बड़ ेगिंभीर भाव से बोला - यहद असिंभव न ीिं तो कहठन अवश्य ै। ककिं तु सोचो तो य ककतना घोर अन्याय ै कक म सब एक ी वपता की सिंतान ोत े ुए, एक दसूरे से घणृा करें, ऊाँ च-नीच की व्यवस्था में मग्न र े। य सारा जगत उसी परमवपता का ववराट रप ै। प्रत्येक जीव में उसी परमात्मा की ज्योनत आलोककत ो र ी ै। केवल इसी भौनतक परदे ने में एक-दसूरे से पथृक कर हदया ै। यथाथम में म सब एक ै। ष्जस प्रकार सूयम का प्रकाश अलग-अलग घरों में जाकर शभन्न

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न ीिं ो जाता, उसी प्रकार ईश्वर की म ान आत्मा पथृक-पथृक जीवों में प्रकच ोकर ववशभन्न न ीिं ोती...।

मेरी इस ज्ञान-वषाम ने वृिंदा के शुष्क-हृदय को तपृ्त कर हदया। व तन्मय ोकर मेरी बात सुनती र ी जब मैं चुप ुआ तो उसने मुझ ेभष्क्त-भाव से देखा और रोने लगी।

सरी- स्वामी के ज्ञानोपदेश ने मुझे सजग कर हदया, मैं अाँिेरे कुएाँ में पड़ी थी। इस उपदेश ने मुझ ेउठा कर पवमत के ज्योनतममय शशखर पर बैठा हदया। मैंने अपनी कुलीनता से, झूठे अशभमान से, अपने वणम की पववत्रता के गवम में, ककतनी आत्माओिं का ननरादर ककया! परमवपता, तुम मुझ ेक्षमा करो, मैंने अपने पूज्यपाद पनत से इस अज्ञान के कारण, जो अश्रद्धा प्रकट की ै, जो कठोर शब्द क े ै,

उन् ें क्षमा करना!

जब से मैंने य अमतृ वाणी सुनी ै, मेरा हृदय अत्यिंत कोमल ो गया ै, नाना प्रकार की सद्कल्पनाएाँ धचत्त में उठती ैं। कल िोबबन कपड़ े लेकर आई थी। उसके शसर में बड़ा ददम था। प ले मैं उसे इस दशा में देखकर कदाधचत मौखखक सिंवेदना प्रकट करती, अथवा म री से उसे थोड़ा तेल हदलवा देती, पर कल मेरा धचत्त ववकल ो गया। मुझ ेप्रतीत ुआ, मानो य मेरी ब न ै। मैंने उसे अपने पास बैठा शलया और घिंटे भर तक उसके शसर में तले मलती र ी। उस समय मुझ े जो स्वगीय आनिंद ो र ा था, व अकथनीय ै। मेरा अतुःकरण ककसी प्रबल शष्क्त के वशीभूत ोकर उसकी ओर खखिंचा चला जाता था। मेरी ननद ने आकर मेरे इस व्यव ार पर कुछ नाक-भौं चढाई, पर मैंने लेशमात्र भी परवा न की। आज प्रातुःकाल कड़ाके की सदी थी। ाथ-पााँव गले जात े थे। म री काम करने आई तो कााँप र ी थी। मैं शल ाफ ओढे अाँगीठी के सामने बैठी ुई थी! नतस पर भी मुाँ बा र ननकालत े न बनता था। म री की सूरत देखकर मुझ ेअत्यिंत दुुःख ुआ। मुझ ेअपनी स्वाथमवषृ्त्त पर लज्जा आई। इसके और मेरे बीच

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में क्या भेद ै। इसकी आत्मा में उसी प्रकार की ज्योनत ै। य अन्याय क्यों?

क्यों इसीशलए कक माया ने म में भेद कर हदया ै? मुझ ेकुछ और सोचने का सा स न ीिं ुआ। मैं उठी, अपनी ऊनी चादर लाकर म री को ओढा दी और उसे ाथ पकड़कर अाँगीठी के पास बैठा हदया। इसके उपरािंत मैंने अपना शल ाफ रख हदया और उसके साथ बैठकर बतमन िोने लगी। व सरल हृदय मुझ ेबार-बार टाना चा ती थी। मेरी ननद ने आकर मुझ ेकौतू ल से देखा और इस प्रकार मुाँ बनाकर चली गई , मानों मैं क्रीड़ा कर र ी ूाँ। सारे घर में लचल मच गई और इस जरा-सी बात पर! मारी आाँखों पर ककतने मोटे परदे पड़ गए ैं। म परमात्मा का ककतना अपमान कर र े ैं?

पुरुष-

कदाधचत मध्य पथ पर र ना नारी-प्रकृनत ी में न ीिं ै - व केवल सीमाओिं पर ी र सकती ै। वृिंदा क ााँ तो अपनी कुलीनता और अपने कुल-मयामदा पर जान देती थी, क ााँ अब साम्य और सहृदयता की मूनतम बनी ुई ै। मेरे सामान्य उपदेश का य चमत्कार ै! अब मैं भी अपनी पे्ररक शष्क्तयों पर गवम कर सकता ूाँ। मुझ ेउसमें कोई आपष्त्त न ीिं ै कक व नीच जानत की ष्स्त्रयों के साथ बैठे, ाँसे और बोले। उन् ें कुछ पढकर सुनाए, लेककन उनके पीछे अपने को बबलकुल भूल जाना मैं कदावप पसिंद न ीिं कर सकता। तीन हदन ुए, मेरे पास एक चमार अपने जमीिंदार पर नाशलश करने आया था। ननस्सिंदे जमीिंदारों ने उसके साथ ज्यादती की थी, लेककन वकीलों का काम मुफ्त में मुकदमें दायर करना न ीिं। कफर एक चमार के पीछे एक बड़ ेजमीिंदार से बैर कराँ ! ऐसे तो वकालत कर चुका! उसके रोने की भनक वृिंदा के कान में भी पड़ गई। बस, व मेरे पीछे पड़ गई कक उस मकुदमे को जरर लो। मुझसे तकम -ववतकम करने पर उद्यत ो गई। मैंने ब ाना करके उसे ककसी प्रकार टालना चा ा, लेककन उसने मुझसे वकालतनामे पर स्ताक्षर कराकर तब वपिंड छोड़ा। उसका पररणाम य ुआ कक वपछले तीन हदन मेरे य ााँ मुफ्तखोर मुवष्क्कलों का तााँता लगा र ा

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और मुझ ेकई बार वृिंदा से कठोर शब्दों में बातें करनी पड़ी। इसी से प्राचीन काल के व्यवस्थाकारों ने ष्स्त्रयों को िाशममक उपदेशों का पात्र न ीिं समझा था। इनकी समझ में य न ीिं आता कक प्रत्येक शसद्धािंत का व्याव ाररक रप कुछ और ी ोता ै। म सभी जानत े ै कक ईश्वर न्यायशील ै, ककिं तु न्याय के पीछे अपनी पररष्स्थनत को कौन भूलता ै। आत्मा का व्यापकता को यहद व्यव ार में लाया जाए तो आज सिंसार में साम्य का राज्य ो जाए, ककिं तु उसी भााँनत साम्य जैसे दशमन का एक शसद्धािंत र ा और र ेगा, वैसे ी राजनीनत भी एक अलभ्य वस्तु ै और र ेगी। म इन दोनों शसद्धािंतों की मुक्त किं ठ से प्रशिंसा करेंगे, उन पर तकम करेंगे। अपने पक्ष को शसद्ध करने में उनसे स ायता लेंगे, ककिं तु उनका उपयोग करना असिंभव ै। मुझ े न ीिं मालूम था कक वृिंदा इतनी मोटी-सी बात भी न समझेंगी!

वृिंदा की बुवद्ध हदनों-हदन उलटी ी ोती जाती ै। आज रसोई में सबके शलए एक ी प्रकार के भोजन बने। अब तक घरवालों के शलए म ीन चावल पकत े थे,

तरकाररयााँ घी में बनती थी, दिू-मक्खन आहद हदया जाता था। नौकरों के शलए मोटा चावल, मटर की दाल और तले की भाष्जयााँ बनती थीिं। बड़े-बड़ ेरईसों के य ााँ भी य ी प्रथा चली आती थी। मारे नौकरों ने कभी इस ववषय में शशकायत न ीिं की। ककिं तु आज देखता ूाँ, वृिंदा ने सबके शलए एक ी भोजन बनाया ै। मैं कुछ बोल न सका, भौचक्का-सा ो गया। वृिंदा सोचती ोगी कक भोजन में भेद करना नौकरों पर अन्याय ै। कैसा बच्चों का-सा ववचार ै! नासमझ! य भेद सदा र ा ै और र ेगा। मैं राष्रीय ऐक्य का अनुरागी ूाँ। समस्त शशक्षक्षत-समुदाय राष्रीयता पर जान देता ै। ककिं तु कोई स्वप्न में भी कल्पना न ीिं करता कक म मजदरूों या सेवावषृ्त्तिाररयों को समता का स्थान देंगे। म उनमें शशक्षा का प्रचार करना चा त े ैं। उनको दीनावस्था से उठाना चा त े ै। य वा सिंसार भर में फैली ुई ै पर इसका ममम क्या ै, य हदल में भी समझत े ै, चा े कोई खोलकर न क े। इसका अशभप्राय य ी ै कक मारा राजनैनतक म त्त्व बढे,

मारा प्रभुत्व उदय ो, मारे राष्रीय आिंदोलन का प्रभाव अधिक ो, में य

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क ने का अधिकार ो जाए कक मारी ध्वनन केवल मुट्ठी-भर शशक्षक्षतवगम ी की न ीिं, वरन समस्त जानत की सिंयुक्त ध्वनन ै, पर वृिंदा को य र स्य कौन समझावे!

सरी-

कल मेरे पनत म ाशय खुल पड़।े इसीशलए मेरा धचत्त खखन्न ै। प्रभो! सिंसार में इतना हदखावा, इतनी स्वाथाांिता ै, म इतने दीन घातक ै। उनका उपदेश सुनकर मैं उन् ें देवतुल्य समझने लगी थी। आज मुझ ेज्ञान ो गया कक जो लोग एक साथ दो नाव पर बठैना चा त े ैं, वे ी जानत के ह तैषी क लात े ैं।

कल मेरी ननद की ववदाई थी। व ससुराल जा र ी थी। बबरादरी की ककतनी ी मह लाएाँ ननमिंबत्रत थी। वे उत्तम-उत्तम वस्त्राभूषण प ने कालीनों पर बैठी ुई थी। मैं उनका स्वागत कर र ी थी। ननदान मुझ ेद्वार के ननकट कई ष्स्त्रयााँ भूशम पर बैठी ुई हदखाई दीिं, ज ााँ इन मह लाओिं की जूनतयााँ और स्लीपरें रक्खी ुई थीिं। वे बेचारी भी ववदाई देखने आई थी। मुझ ेउनका व ााँ बैठना अनुधचत जान पड़ा। मैंने उन् ें भी लाकर कालीन पर बैठा हदया। इस पर मह लाओिं में मटककयााँ ोने लगी और थोड़ी देर में वे ककसी न ककसी ब ाने से एक-एक करके बा र चली गई। मेरे पनत म ाशय से ककसी ने य समाचार क हदया। वे बा र से क्रोि में भरे ुए आए और आाँखें लाल करके बोले - य तुम् ें क्या सूझी ै,

क्या मारे मुाँ पर काशलख लगवाना चा ती ो? तुम् ें ईश्वर ने इतनी भी बुवद्ध न ीिं दी कक ककसके साथ बैठना चाह ए। भले घर की मह लाओिं के साथ नीच ष्स्त्रयों को बैठा हदया! वे अपन मन में क्या क ती ोंगी! तुम् ें मुझ ेमुाँ हदखाने लायक न ीिं रखा। नछुः! नछुः!

मैंने सरल भाव से क ा - इससे मह लाओिं का तो क्या क्या अपमान ुआ?

आत्मा तो सबकी एक ी ै। आभूषणों से आत्मा तो ऊाँ ची न ीिं ो जाती!

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पनत म ाशय ने ोंठ चबाकर क ा - चुप भी र ो, बेसुरा राग अलाप र ी ो। बस व ी मुगी की एक टााँग। आत्मा एक ै, परमात्मा एक ै? न कुछ जानो न कुछ बूझो, सारे श र में नक्कू बना हदया, उस पर और बोलने को मरती ो। उन मह लाओिं की आत्मा को ककतना दुुःख ुआ, कुछ इस पर भी ध्यान हदया?

मैं ववष्स्मत ोकर उनका मुाँ ताकने लगी।

आज प्रातुःकाल उठी तो मैंने एक ववधचत्र दृश्य देखा। रात को मे मानों की जूठी पत्तलें, सकोरे, दोने आहद बा र मैंदान में फें क हदए गए थे। पचासों मनुष्य उन पत्तलों पर धगरे ुए उन् ें चाट र े थे! ााँ, मनुष्य थे, व ी मनुष्य जो परमात्मा के ननज स्वरप ै। ककतने ी कुत्तें भी उन पत्तलों पर झपट र े थे, पर वे किं गले कुत्तों को मार-मारकर भगा देत ेथे। उनकी दशा कुत्तों से भी गई-बीती थी। य कौतुक देखकर मुझ े रोमािंच ोने लगा, मेरी आाँखों से अशु्रिारा ब ने लगी। भगवान! ये भी मारे भाई-ब न ै, मारी आत्माएाँ ै। उनकी ऐसी शोचनीय, दीन दशा! मैंने तत्क्षण म री को भेजकर उन मनुष्यों को बुलाया और ष्जतनी शमठाइयााँ मे मानों के शलए रखी ुई थी, सब पत्तलों में रखकर उन् ें दे दी। म री थर-थर कााँप र ी थी, सरकार सुनेंगे तो मेरे शसर का बाल भी न छोड़ेंगे। लेककन मैंने उसे ढाढस हदया, तब उसकी जान में जान आई।

अभी ये बेचारे किं गले शमठाइयााँ खा ी र े थे कक पनत म ाशय मुाँ लाल ककए ुए आए और अत्यिंत कठोर स्वर में बोले - तुमने भिंग तो न ीिं खा ली? जब देखो, एक न एक उपद्रव खड़ा कर देती ो। मेरी तो समझ में न ीिं आता तुम् ें क्या ो गया ै। ये शमठाइयााँ डोमड़ों के शलए न ीिं बनाई गई थी। लवाइयों को दिू के िोए रुपए मजदरूी के हदए गए थे। तुमने उठाकर सब डोमड़ों को खखला दीिं। अब मे मानों को क्या खखलाया जाएगा? तुमने मेरी इज्जत बबगाड़ने का प्रण कर शलया ै क्या?

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मैंने गिंभीर भाव से क ा - आप व्यथम कु्रद्ध ोत े ै। आपकी ष्जतनी शमठाइयााँ खखला दी ैं, व मैं माँगवा दूाँगी। मुझसे य न ीिं देखा जाता कक कोई आदमी तो शमठाइयााँ खाए और कोई पत्तलें चाटें। डोमड़ ेभी तो मनुष्य ी ैं। उनके जीव में भी तो उसी...।

स्वामी ने बात काटकर क ा - र ने भी दो, मरी तुम् ारी आत्मा! बस तुम् ारी ी रक्षा से आत्मा की रक्षा ोगी। यहद ईश्वर की इच्छा ोती कक प्राखणमात्र को समान सुख प्राप्त ो तो उसे सबको एक दशा में रखने से ककसने रोका था? य ऊाँ च-नीच का भेद ोने ी क्यों देता ै? जब उसकी आज्ञा के बबना एक पत्ता भी न ीिं ह ल सकता, तो इतनी म ान सामाष्जक व्यवस्था उसकी आज्ञा के बबना क्योंकर भिंग ो सकती ैं? जब व स्वयिं सवमव्यापी ै तो व अपने ी को ऐसे-ऐसे घणृोत्पादक अवस्थाओिं में क्यों रखता ै? जब तुम इन प्रश्नों का कोई उत्तर न ीिं दे सकती तो उधचत ै कक सिंसार की वतममान रीनतयों के अनुसार चलो। इन बेशसर-पैर की बातों से ाँसी और ननिंदा के शसवाय और कुछ लाभ न ीिं।

मेरे धचत्त की क्या दशा ुई, वणमन न ीिं कर सकती। मैं अवाक् र गई। ा स्वाथम! ा मायािंिकार! म ब्रह्म का भी स्वााँग बनात े ैं।

उसी क्षण से पनतश्रद्धा और पनतभष्क्त का भाव मेरे हृदय से लुप्त ो गया!

य घर मुझ ेअब कारागार लगता ै; ककिं तु मैं ननराश न ीिं ूाँ। मुझ ेववश्वास ै कक जल्दी या देर ब्रह्म ज्योनत य ााँ अवश्य चमकेगी और व इस अिंिकार को नष्ट कर देगी।

***

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ववर्ाता

स्त्री की मतृ्यु के तीन ी मास बाद पुनववमवा करना मतृात्मा के साथ ऐसा अन्याय और उसकी आत्मा पर ऐसा आघात ै जो कदावप क्षम्य न ीिं ो सकता। मैं य क ूाँगा कक उस स्वगमवाशसनी की मुझसे अिंनतम पे्ररणा थी और न मेरा शायद य कथन ी मान्य समझा जाए कक मारे छोटे बालक के शलए 'मााँ' की उपष्स्थनत परमावश्यक थी। परिंतु इस ववषय में मेरी आत्मा ननबमल ै और मैं आशा करता ूाँ कक स्वगमलोक में मेरे इस कायम की ननदमय आलोचना न की जाएगी। सारािंश य ै कक मैंने वववा ककया और यद्यवप एक नव-वववाह ता विू को माततृ्व उपदेश बेसुरा राग था, पर मैंने प ले ी हदन अिंबा से क हदया कक मैंने तुमसे केवल इस अशभप्राय से वववा ककया ै कक तुम मेरे भोले बालक की मााँ बनो और उसके हृदय से उसकी मााँ की मतृ्यु का शोक भलुा दो।

2

दो मास व्यतीत ो गए। मैं सिंध्या मुन्नू को साथ लेकर वायु सेवन को जाया करता था। लौटत ेसमय कनतपय शमत्रों से भेंट भी कर शलया करता था। उन सिंगतों में मुन्नू श्यामा की भााँनत च कता। वास्तव में इस सिंगतों से मेरा अशभप्राय मनोववनोद न ीिं, केवल मुन्नू के असािारण बुवद्ध चमत्कार को प्रदशशमत करना था। मेरे शमत्रगण जब मुन्नू को प्यार करत ेऔर उसकी ववलक्षण बुवद्ध की सरा ना करत े तो मेरा हृदय बााँसों उछलने लगता था। एक हदन मैं मुन्नू के साथ ज्वालाशसिं के घर बैठा ुआ था। ये मेरे परम शमत्र थे। मुझमें और उनमें कुछ भेदभाव न था। इसका अथम य न ीिं ै कक म अपनी क्षुद्रताएाँ, अपने पाररवाररक कल ाहद और अपनी आधथमक कहठनाइयााँ ब्यान ककया करत ेथे। न ीिं म इन मुलाकतों में भी अपनी प्रनतष्ठा की रक्षा करत ेथे और अपनी दरुवस्था का ष्जक्र कभी मारी जबान पर न आता था। अपनी काशलमाओिं को नछपात ेथे। एकता में भेद था और घननष्ठता में भी अिंतर। अचानक बाबू ज्वालाशसिं ने मुन्नू से पूछा - क्यों तुम् ारी अम्मााँ तुम् ें खूब प्यार करती ै न? मैंने मुस्करात े ुए

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मुन्नू की ओर देखा। उसके उत्तर के ववषय में मुझ ेकोई सिंदे न था। मैं भली-भााँनत जानता था कक अम्मााँ उसे ब ुत प्यार करती ै। परिंतु मेरे आश्चयम का हठकाना न र ा जब मुन्नू ने इस प्रश्न का उत्तर मुख से न देकर नेत्रों से हदया। उसके नेत्रों से आाँसू की बूाँदें टपकने लगी। मैं लज्जा से गढ गया। इस अशु्र-जल ने अिंबा के उस सुिंदर धचत्र को नष्ट-भ्रष्ट कर हदया जो गत दो मास से मैंने हृदय में अिंककत कर रखा था। ज्वालाशसिं ने कुछ सिंशय की दृष्ष्ट से देखा और पुनुः मुन्नू से पूछा - क्यों रोत ो बेटा? मुन्नू बोला - रोता न ीिं ूाँ, आाँखों में िुआाँ लग गया था। ज्वालाशसिं का ववमाता की ममता पर सिंदे करना स्वाभाववक बात थी; परिंतु वास्तव में मुझ ेभी सिंदे ो गया! अिंबा सहृदता और स्ने की व देवी न ीिं ै, ष्जसकी सरा ना करत ेमेरी ष्जह्वा न थकती थी। व ााँ से उठा तो मेरा हृदय भरा ुआ था और लज्जा से माथा न उठता था।

3

मैं घर की ओर चला तो मन में ववचार करने लगा कक ककस प्रकार अपने क्रोि को प्रकट कराँ । क्यों न मुाँ ढााँक कर सो र ूाँ। अिंबा जब पूछे तो कठोरता से क दूाँ कक शसर में पीड़ा ै, मुझ ेतिंग मत करो। भोजन के शलए उठाए तो खझझक कर उत्तर दूाँ। अिंबा अवश्य समझ जाएगी कक कोई बात मेरी इच्छा के प्रनतकूल ुई ै। मेरे पााँव पकड़ने लगेगी। उस समय अपनी व्यिंग्यपूणम बातों से उसका हृदय बेि डालूाँगा। ऐसा रुलाऊाँ गा कक व भी याद करे। पुनुः ववचार आया कक उसका ाँसमुख च ेरा देखकर मैं अपने हृदय को वश में रख सकूाँ गा या न ीिं। उनकी एक पे्रम-पूणम दृष्ष्ट, एक मीठी बात, एक रसीली चुटकी मेरी शशलातुल्य रुष्टता के टुकड़े-टुकड़ ेकर सकती ै। परिंतु हृदय की इस ननबमलता पर मेरा मन झुाँझला उठा। य मेरी क्या दशा ै, क्यों इतनी जल्दी मेरे धचत्त की काया पलट गई?

मुझ ेपूणम ववश्वास था कक मैं इन मदृलु वाक्यों की आाँिी और लशलत कटाक्षों के ब ाव में भी अचल र सकता ूाँ और क ााँ अब य दशा ो गई कक मुझमें सािारण झोंके को भी स न करने की सामथ्यम न ीिं! इन ववचारों से हृदय में कुछ दृढता आई, नतस पर क्रोि की लगाम पग-पग पर ढीली ोती जाती थी।

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अिंत में मैंने हृदय को ब ुत दबाया और बनावटी क्रोि का भाव िारण ककया। ठान शलया कक चलत े ी चलते एकदम से बरस पडूाँगा।

ऐसा न ो कक ववलिंबरपी वायु इस क्रोििारी मेघ को उड़ा ले जाए, परिंतु ज्यों ी घर प ुाँचा, अिंबा ने दौड़कर मुन्नू को गोदी में ले शलया और प्यार से सने ुए कोमल स्वर से बोली - आज इतनी देर तक क ााँ घूमत े र े? चलो, देखो, मैंने तुम् ारे शलए कैसी अच्छी-अच्छी फुलौडड़यााँ बनाई ै। मेरा कृशमत्र क्रोि एक क्षण में उड़ गया। मैंने ववचार ककया, इस देवी पर क्रोि करना भारी अत्याचार ै। मुन्नु अबोि बालक ै। सिंभव ै कक व अपनी मााँ का स्मरण कर रो पड़ा ो। अिंबा इसके शलए दोषी न ीिं ठ राई जा सकती। मारे मनोभाव पूणम ववचारों के अिीन न ीिं ोते, म उनको प्रकट करने के ननशमत्त कैसे-कैसे शब्द गढत े ै,

परिंतु समय पर शब्द में िोखा दे जात े ै और व े ी भावनाएाँ स्वाभाववक रप से प्रकट ोती ैं। मैंने अिंबा को न तो कोई व्यिंग्यपूणम बातें ी क ीिं और न क्रोधित मुख ढााँककर सोया ी, बष्ल्क अत्यिंत कोमल स्वर में बोला - मुन्नू ने आज मुझ ेअत्यिंत लष्ज्जत ककया। खचानजी सा ब ने पूछा तुम् ारी नई अम्मााँ तुम् ें प्यार करती ैं या न ीिं, तो ये रोने लगा। मैं लज्जा से गढ गया। मुझ ेतो स्वप्न में भी य ववचार न ीिं ो सकता कक तुमने इसे कुछ क ा ोगा। परिंतु अनाथ बच्चों का हृदय उस धचत्र की भााँनत ोता ै ष्जस पर एक ब ुत ी सािारण परदा पड़ा ुआ ो। पवन का सािारण झोंका भी उसे टा देता ै।

ये बातें ककतनी कोमल थीिं, नतस पर भी अिंबा का ववकशसत मुखमिंडल कुछ मुरझा गया। व सजल नेत्र ोकर बोली - इस बात का ववचार तो मैंने यथासाध्य प ले ी हदन से रखा ै। परिंतु य असिंभव ै कक मैं मुन्नू के हृदय से मााँ का शोक शमटा दूाँ। मैं चा े अपना सवमस्व अपमण कर दूाँ, परिंतु मेरे नाम पर जो सौतनेेपन की काशलमा लगी ुई ै, व शमट न ीिं सकती।

4

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मुझ ेभय था कक इस वातामलाप का पररणाम क ीिं ववपररत न ो, परिंतु दसूरे ी हदन मुझ ेअिंबा के व्यव ार में ब ुत अिंतर हदखाई देने लगा। मैं उसे प्रातुः-सायिंकाल पयांत मुन्नू की ी सेवा में लगी ुई देखता, य ााँ तक कक उस िुन में उसे मेरी भी धचिंता न र ती थी। परिंतु मैं ऐसा त्यागी न था कक अपने आराम को मुन्नू पर अपमण कर देता। कभी-कभी मुझ ेअिंबा की य अश्रद्धा न भाती, परिंतु मैं कभी भूल कर भी इसकी चचाम न करता। एक हदन मैं अननयशमत रप से दफ्तर से कुछ प ले ी आ गया। क्या देखता ूाँ कक मुन्नू द्वार पर भीतर की ओर मुख ककए खड़ा ै। मुझ ेइस समय आाँख-शमचौली खेलने की सूझी। मैंने दबे पााँव पीछे से जाकर उसके नेत्र मूाँद शलये। पर शोक! उसके दोनों गाल अशु्रपूररत थे। मैंने तुरिंत दोनो ाथ टा शलये। ऐसा प्रतीत ुआ मानो सपम ने डस शलया ो। हृदय पर एक चोट लगी। मुन्नू को गोद में लेकर बोला - मुन्नू क्यों रोत े ो? य क ते-क त ेमेरे नेत्र भी सजल ो आए।

मुन्नू आाँसू पीकर बोला - जी न ीिं, रोता न ीिं ूाँ।

मैंने उसे हृदय से लगा शलया और क ा - अम्मााँ ने कुछ क ा तो न ीिं?

मुन्नू ने शससकत े ुए क ा - जी न ीिं, मुझ ेव ब ुत प्यार करती ै।

मुझ े ववश्वास न ुआ, पूछा - व प्यार करती ै तो तुम रोत ेक्यों? उस हदन खचानजी के घर भी तुम रोये थे। तुम मुझसे नछपात े ो। कदाधचत तुम् ारी अम्मााँ अवश्य तुमसे कुछ कु्रद्ध ुई ै।

मुन्नू ने मेरी ओर कातर दृष्ष्ट से देखकर क ा - जी न ीिं, व मुझ ेप्यार करता ै, इसी कारण मुझ ेबारम्बार रोना आता ै। मेरी अम्मााँ मुझ ेअत्यिंत प्यार करती थी। व मुझ ेछोड़कर चली गई। नई अम्मााँ उससे भी अधिक प्यार करती ै। इसीशलए मुझ ेभय लगता ै कक उनकी तर य भी मुझ ेछोड़कर न चली जाए।

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य क कर मुन्नू पुनुः फूट-फूटकर रोने लगा। मैं भी रो पड़ा। अिंबा के इस स्ने मय व्यव ार ने मुन्नू के कोमल हृदय पर कैसा आघात ककया था। थोड़ी देर तक मैं स्तिंशभत र गया। ककसी कवव की य वाणी स्मरण आ गई कक पववत्र आत्माएाँ इस सिंसार में धचरकाल तक न ीिं ठ रती। क ीिं भावी ी इस बालक की ष्जह्वा से तो य शब्द न ीिं क ला र ी ै। ईश्वर न करे कक व अशुभ हदन देखना पड़।े परिंतु मैंने तकम द्वारा इस शिंका को हदल से ननकाल हदया। समझा कक माता की मतृ्यु ने पे्रम और ववयोग में एक मानशसक सिंबिंि उत्पन्न कर हदया ै और कोई बात न ीिं। मुन्नू को गोद में शलये ुए अिंबा के पास गया और मुस्कराकर बोला - इनसे पूछो क्यों रो र े ै? अिंबा चौंक पड़ी। उसके मुख की कािंनत मशलन ो गई। बोली - तुम् ीिं पूछो। मैंने क ा - य इसशलए रोत े ै कक तुम इन् ें अत्यिंत प्यार करती ो और इनको भय ै कक तुम भी इनकी माता की भााँनत इन् ें छोड़कर न चली जाओ। ष्जस प्रकार गदम साफ ो जाने से दपमण चमक उठता ै, उसी भााँनत अिंबा का मुख मिंडल प्रकाशशत ो गया। उसने मुन्नू को मेरी गोद से छीन शलया और कदाधचत य प्रथम अवसर था कक उसने ममतापूणम स्ने से मुन्नू के पााँव का चुिंबन ककया।

5

शोक! म ाशोक!! मैं क्या जानता था कक मुन्नू की अशुभ कल्पना इतनी शीघ्र पूणम ो जाएगी। कदाधचत उसकी बाल-दृष्ष्ट ने ोन ार को देख शलया था, कदाधचत उसके बाल श्रवण मतृ्यु दतूों के ववकराल शब्दों से पररधचत थे।

छ मास भी व्यतीत न ोने पाए थे कक अिंबा बीमार पड़ी और एिंफ्लुएिंजा ने देखते-देखत ेउसे मारे ाथों से छीन शलया। पुनुः व उपवन मरुतुल्य ो गया, पुनुः व बसा ुआ घर उजड़ गया। अिंबा ने अपने को मुन्नू पर अपमण कर हदया था - ााँ, उसने पुत्र-स्ने का आदशम रप हदखा हदया। शीतकाल था और व घड़ी राबत्र शेष र त े ी मुन्नू के शलए प्रातुःकाल का भोजन बनाने उठती थी। उसके इस स्ने -बा ुल्य ने मुन्नू पर स्वाभाववक प्रभाव डाल हदया था। व ठीला और

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नटखट ो गया था। जब तक अिंबा भोजन कराने न बैठे, मुाँ में कौर न डालता, जब तक अिंबा पिंखा न झले, व चारपाई पर पााँव न रखता। उसे छेड़ता, धचढाता और ैरान कर डालता। परिंतु अिंबा को इन बातों से आष्त्मक सुख प्राप्त ोता था। एिंफ्लुएिंजा से करा र ी थी, करवट लेने तक की शष्क्त न थी, शरीर तवा ो र ा था, परिंतु मुन्नू के प्रातुःकाल के भोजन की धचिंता लगी र ती थी। ाय! व ननुःस्वाथम मात-ृस्ने अब स्वप्न ो गया। उस स्वप्न के स्मरण से अब भी हृदय गद्गद ो जाता ै। अिंबा के साथ मुन्नू का चुलबुलापन और बाल क्रीड़ा ववदा ो गई। अब व शोक और नैराश्य की जीववत मूनतम ै, व अब न ीिं रोता। ऐसा पदाथम खोकर अब उसे कोई खटका, कोई भय न ीिं र गया।

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बूढी काकी

बुढापा ब ुिा बचपन का पुनरागमन ुआ करता ै। बूढी काकी में ष्जह्वा-स्वाद के शसवा और कोई चषे्टा शेष न थी और न अपने कष्टों की ओर आकवषमत करने का, रोने के अनतररक्त कोई दसूरा स ारा ी। समस्त इिंहद्रयााँ, नेत्र, ाथ और पैर जबाव दे चुके थे! पथृ्वी पर पड़ी र ती और घरवाले कोई बात उनकी इच्छा के प्रनतकूल करत,े भोजन का समय टल जाता या उसका पररमाण पूणम न ोता, अथवा बाजार से कोई वस्तु आती और न शमलती तो ये रोने लगती थी। उनका रोना-शससकना सािारण रोना न था, वे गला फाड़-फाड़कर रोती थी।

उनके पनतदेव को स्वगम शसिारे कालािंतर ो चुका था। बेटे तरण ो- ोकर चल बसे थे। अब एक भतीजे के शसवाय और कोई न था। उसी भतीजे के नाम उन् ोंने अपनी सारी सिंपष्त्त शलख दी। भतीजे ने सारी सिंपष्त्त शलखात े समय खूब लिंबे-चौड़ ेवादे ककए, ककिं तु वे सब वादे केवल कुली डडपो के दलालों के हदखाए ुए सब्जबाग थे। यद्यवप उस सिंपष्त्त की वावषमक आय डढे-दो सौ रुपए से कम न थी तथावप बूढी काकी को पेट भर भोजन भी कहठनाई से शमलता था। इससे उनके भतीजे पिंडडत बुवद्धराम का अपराि था अथवा उनकी अद्धामधगनी श्रीमनत रपा का, इसका ननणमय करना स ज न ीिं। बुवद्धराम स्वभाव के सज्जन थे, ककिं तु उसी समय तक जब कक उनके कोष पर कोई आाँच न आए। रपा स्वभाव से तीव्र थी स ी, पर ईश्वर से डरती थी। अतएव बूढी काकी को उसकी तीव्रता उतनी न खलती थी ष्जतनी बुवद्धराम की भलमनसा त।

बुवद्धराम को कभी-कभी अपने अत्याचार का खेद ोता था। ववचारत े कक इसी सिंपष्त्त के कारण मैं इस समय भलामानुष बना बैठा ूाँ। यहद मौखखक आश्वासन और सूखी स ानुभूनत से ष्स्थनत में कुछ सुिार ो सकता ो उन् ें कदाधचत कोई आपष्त्त न ोती, परिंतु ववशेष व्यय का भय उनकी सुचषे्टा को दबाए रखता था। य ााँ तक कक यहद द्वार पर कोई भला आदमी बैठा ोता और बूढी काकी उस समय अपनी राग अलापने लगती तो व आग ो जात ेऔर घर में आकर उन् ें

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जोर से डााँटत।े लड़कों को बुड्ढों से स्वाभाववक ववद्वेष ोता ी ै और कफर जब माता-वपता का य रिंग देखते तो वे बूढी काकी को और सताया करत।े कोई चुटकी काटकर भागता, कोई उनपर पानी की कुल्ली कर देता! काकी चीख मारकर रोती, परिंतु य बात प्रशसद्ध थी कक व केवल खाने के शलए रोती ै,

अतएव उनके सिंताप और आत्तमनाद पर कोई ध्यान न ीिं देता था। ााँ, काकी क्रोिातुर ोकर बच्चों को गाशलयााँ देने लगती तो रपा घटनास्थल पर आ प ुाँचती। इस भय से काकी अपनी ष्जह्वा कृपाण का कदाधचत ी प्रयोग करती थी, यद्यवप उपद्रव-शािंनत का य उपाय रोने से क ीिं अधिक उपयुक्त था।

सिंपूणम पररवार में यहद काकी से ककसी को अनुराग था, तो व बुवद्धराम की छोटी लड़की लाडली थी। लाडली अपने दोनो भाइयों के भय से अपने ह स्से की शमठाई-चबैना बूढी काकी के पास बैठकर खाया करती थी। य ी उसका रक्षागार था और यद्यवप काकी की शरण उनकी लोलुपता के कारण म ाँगी पड़ती थी, तथावप भाइयों के अन्याय से क ीिं सुलभ थी। इसी स्वाथामनुकूलता ने उन दोनों में स ानुभूनत का आरोपण कर हदया था।

2

रात का समय था। बुवद्धराम के द्वार पर श नाई बज र ी थी और गााँव के बच्चों का झुिंड ववस्मयपूणम नेत्रों से गाने का रसास्वादन कर र ा था। चारपाइयों पर मे मान ववश्राम करत े ुए नाइयों से मुष्क्कयााँ लगवा र े थे। समीप ी खड़ा ुआ भाट ववरदावली सुना र ा था और कुछ भावज्ञ मे मानों की 'वा , वा ' पर ऐसा खुश ो र ा था मानो इस वा -वा का यथाथम में व ी अधिकारी ै। दो-एक अाँगे्रजी पढे ुए नवयुवक इन व्यव ारों से उदासीन थे। वे इस गवार मिंडली में बोलना अथवा सष्म्मशलत ोना अपनी प्रनतष्ठा के प्रनतकूल समझत ेथे।

आज बुवद्धराम के बड़ ेलड़के मुखराम का नतलक आया ै। य उसी का उत्सव ै। घर के भीतर शस्रयााँ गा र ी थीिं और रपा मे मानों के शलए भोजन के प्रबिंि

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में व्यस्त थी। भहट्ठयााँ पर कड़ा चढ र े थे। एक में पूडड़यााँ-कचौडड़यााँ ननकल र ी थी, दसूरे में अन्य पकवान बनत ेथे। एक बड़ े िंड ेमें मसालेदार तरकारी पर र ी थी। घी और मसाले की क्षुिाविमक सुगिंधि चारों ओर फैली ुई थी।

बूढी काकी अपनी कोठरी में शोकमय ववचार की भााँनत बैठी ुई थीिं। य स्वाद शमधश्रत सुिंगधि उन् ें बेचैन कर र ी थी। वे मन ी मन ववचार कर र ी थीिं, सिंभवतुः मुझ े पूडड़यााँ न शमलेगी। इतनी देर ो गई, कोई भोजन लेकर न ीिं आया। मालूम ोता ै, सब लोग भोजन कर चुके ैं। मेरे शलए कुछ न बचा। य सोचकर उन् ें रोना आया; परिंतु अशकुन के भय से व रो न सकी।

'आ ा! कैसी सुगिंधि ै? अब मुझ ेकौन पूछता ै? जब रोहटयों ी के लाले पड़ े ै तब ऐसे भाग्य क ााँ कक भरपूर पूडड़यााँ शमलें?' य ववचार कर उन् ें रोना आया, कलेजे में ूक-सी उठने लगी। परिंतु रपा के भय से उन् ोंने कफर मौन िारण कर शलया।

बूढी काकी देर तक इन् ीिं दुुःखदायक ववचारों में डूबी र ीिं! घी और मसालों की सुगिंधि र -र कर मन को आपे से बा र ककए देती थी। मुाँ में पानी भर-भर आता था। पूडड़यों का स्वाद स्मरण करके हृदय में गुदगुदी ोने लगती थी। ककसे पुकाराँ , आज लाडली बेटी भी न ीिं आई। दोनों छोकड़ ेसदा हदक ककया करत े ैं। आज उनका भी क ीिं पता न ीिं। कुछ मालूम तो ोता कक क्या बन र ा ै।

बूढी काकी की कल्पना में पूडड़यों की तस्वीर नाचने लगी। खूब लाल-लाल, फूली-फूली, नरम-नरम ोंगी। रपा ने भली-भााँनत भोजन ककया ोगा। कचौडड़यों में अजवाइन और इलायची की म क जा र ी ोगी। एक पूड़ी शमलती तो जरा ाथ में ले कर देखती। क्यों न चलकर कड़ा के सामने ी बैठूाँ । पूडड़यााँ छन-छनकर तैयार ोंगी। कड़ा से गरम-गरम ननकालकर थाल में रखी जाती ोंगी। फूल म घर में भी सूाँघ सकत े ै; परिंतु वाहटका में कुछ और बात ोती ै। इस प्रकार ननणमय करके बूढी काकी उकडूाँ बैठकर ाथों के बल सरकती ुई बड़ी कहठनाई से चौखट से उतरी और िीरे-िीरे रेंगती ुई कड़ा के पास आ बैठी। य ााँ आने पर

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उन् ें उतना िैयम ुआ ष्जतना भूखे कुत्त ेको खानेवाले के सम्मुख बैठने में ोता ै।

रपा उस समय कायम-भार से उद्ववग्न ो र ी थी। कभी इस कोठे में जाती, कभी उस कोठे में, कभी कड़ा के पास आती, कभी भिंडार में जाती। ककसी ने बा र से आकर क ा - म ाराज ठिंडाई मााँग र े ै। ठिंडाई देने लगी। इतने में कफर ककसी ने आकर क ा - भाट आया ै, उसे कुछ दे दो। भाट के शलए सीिा ननकाल र ी थी कक एक तीसरे आदमी ने आकर पूछा - अभी भोजन तैयार ोने में ककतना ववलिंब ै? जरा ढोल, मजीरा उतार दो। बेचारी अकेली स्त्री दौड़ते-दौड़त ेव्याकुल ो र ी थी, झुाँझलाती थी, कुढती थी, परिंतु क्रोि प्रकट करने का अवसर न पाती थी। भय ोता, क ीिं पड़ोशसनें य न क ने लगें कक इतने में उबल पड़ी। प्यास से किं ठ सूख र ा था। गमी के मारे फुाँ की जा र ी धथ, परिंतु अवकाश भी न ीिं था कक जरा पानी पी ले अथवा पिंखा लेकर झले। व भी खटका था कक जरा आाँख टी और चीजों की लूट मची। इस अवस्था में उसने बूढी काकी को कड़ा के पास बैठी देखा तो जल गई। क्रोि न रुक सका, इसका भी ध्यान न र ा कक पड़ोशसनें बैठी ुई ैं, मन में क्या क ेंगी, पुरुषों में लोग सुनेंगे तो क्या क ेंगे। ष्जस प्रकार मेंढक केचुए पर झपटता ै, उसी प्रकार व बूढी काकी पर झपटी और उन् ें दोनों ाथों से झपटकर क ा - ऐसे पेट में आग लगे, पेट ै य भाड़? कोठरी में बैठत े ुए क्या दम घुटता था? अभी मे मानों ने न ीिं खाया, भगवान को भोग न ीिं लगा, तब तक िैयम न ो सका? आकर छाती पर सवार ो गई। जल जाए ऐसी जीभ। हदन भर खाती न ोती तो न जाने ककसकी ाड़ी में मुाँ डालती? गााँव देखेगा तो क ेगा कक बुहढया को भरपेट खाने को न ीिं पाती तभी तो इस तर मुाँ बाये कफरती ै। डायन न मरे न मााँचा छोड़।े नाम बेचने पर लगी ै। नाक कटवाकर दम लेगी। इतना ठूाँसती ै न जाने क ााँ भस्म ो जाता ै। भला चा ती ो तो जाकर कोठरी में बैठो, जब घर के लोग खाने लगेंगे तब तुम् ें शमलेगा। तुम कोई देवी न ीिं ो कक चा े ककसी के मुाँ में पानी न जाए, परिंतु तुम् ारी पूजा प ले ी ो जाए।

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बूढी काकी ने शसर उठाया; न रोई न बोली। चुपचाप रेंगती ुई अपनी कोठरी में चली गई। आवाज ऐसी कठोर थी कक हृदय और मष्स्तष्क की सम्पूणम शष्क्तयााँ, सम्पूणम ववचार और सम्पूणम भार उसी ओर आकवषमत ो गए थे। नदी में जब कगार का कोई व ृद खिंड कट कर धगरता ै तो आस-पास का जलसमू चारों और उसी स्थान को पूरा करने के शलए दौड़ता ै!

3

भोजन तैयार ो गया ै। आाँगन में पत्तलें पड़ गई, मे मान खाने लगे। ष्स्त्रयों ने जेवनार-गीत आरिंभ कर हदया। मे मानों के नाई और सेवकगण भी उसी मिंडली के साथ ककिं तु कुछ टकर भोजन करने बैठे थे, परिंतु सभ्यतानुसार जब तक सब के सब खा न चुके कोई उठ न ीिं सकता था। दो-एक मे मान जो कुछ पढे-शलखे थे, सेवकों के दीघाम ार पर झुाँझला र े थे। वे इस बिंिन को व्यथम और बे-शसर-पैर की बात समझत ेथे।

बूढी काकी अपनी कोठरी में जाकर पश्चाताप कर र ी थी कक मैं क ााँ से क ााँ गई। उन् ें रपा पर क्रोि न ीिं था। अपनी जल्दबाजी पर दुुःख था। सच ी तो ै जब तक मे मान लोग भोजन कर न चुकें गे, घरवाले कैसे खाएिंगे। मुझसे इतनी देर भी न र ा गया। सबके सामने पानी उतर गया। अब जब तक कोई बुलाने न आएगा, न जाऊाँ गी।

मन ी मन इसी प्रकार का ववचार कर व बुलाने की प्रतीक्षा करने लगीिं। परिंतु घी की रुधचकर सुबास बड़ी िैयम-परीक्षक प्रतीत ो र ी थी। उन् ें एक-एक पल एक-एक युग के समान मालमू ोता था। अब पत्तल बबछ गई ोंगी! अब मे मान आ गए ोंगे। लोग ाथ-पैर िो र े ैं, नाई पानी दे र ा ै। मालूम ोता ै लोग खाने बैठ गए। जेवनार गाया जा र ा ै, य ववचार कर व मन को ब लाने के शलए लेट गई। िीरे-िीरे एक गीत गुनगुनाने लगी। उन् ें मालूम ुआ कक मुझ ेगात े देर ो गई। क्या इतनी देर तक लोग भोजन कर ी र ें ोंगे।

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ककसी की आवाज न ीिं सुनाई देती। अवश्य ी लोग खा-पीकर चले गए। मुझ ेकोई बुलाने न ीिं आया। रपा धचढ गई ै, क्या जाने न बुलाए। सोचती ो कक आप ी आवेंगी, व कोई मे मान तो न ीिं जो उन् ें बुलाऊाँ । बूढी काकी चलने के शलए तैयार ुई। य ववश्वास कक एक शमनट में पूडड़यााँ और मसालेदार तरकाररयााँ सामने आएिंगी, उनकी स्वादेंहद्रयों को गुदगुदाने लगा। उन् ोंने मन में तर -तर के मिंसूबे बााँिे - प ले तरकारी से पूडड़यााँ खाऊाँ गी, कफर द ी और शक्कर से, कचौररयााँ रायत े के साथ मजेदार मालूम ोंगी। चा े कोई बुरा माने चा े भला, मैं तो मााँग-मााँगकर खाऊाँ गी। य न लोग क ेंगे कक इन् ें ववचार न ीिं?

क ा करें , इतने हदन के बाद पडूड़यााँ शमल र ी ैं तो मुाँ जूठा करके थोड़ े ी उठ जाऊाँ गी।

व उकडूाँ बैठकर ाथों के बल सरकती ुई आाँगन में आई। परिंतु दभुामग्य! अशभलाषा ने अपने पुराने स्वभाव के अनुसार समय की शमथ्या कल्पना की थी। मे मान मिंडली अभी बैठी ुई थी। कोई खाकर उाँगशलयााँ चाटता था, कोई नतरछे नेत्रों से देखता था कक और लोग अभी खा र े ैं या न ीिं। कोई इस धचिंता में था कक पत्तल पर पूडड़यााँ छूटी जाती ै ककसी तर इन् ें भीतर रख लेता। कोई द ी खाकर जीभ चटकारता था, परिंतु दसूरा दोना मााँगत ेसिंकोच करता था कक इतने में बूढी काकी रेंगती ुई उनके बीच में जा प ुाँची। कई आदमी चौंक कर उठ खड़े ुए। पुकारने लगे - अरे य बुहढया कौन ै। य क ााँ से आ गई? देखो ककसी को छू न दे।

पिंडडत बुवद्धराम काकी को देखत े ी क्रोि से नतलशमला गए। पूडड़यों का थाल शलये खड़ ेथे। थाल को जमीन पर पटक हदया और ष्जस प्रकार ननदमयी म ाजन अपने ककसी बेईमान और भगोड़ ेकजमदार को देखत े ी झपटकर उसका टें टुआ पकड़ लेता ै उसी तर लपक कर उन् ोंने काकी के दोनों ाथ पकड़ े और घसीटत े ुए लाकर उन् ें अाँिेरी कोठरी में िम से पटक हदया। आशा रपी वाहटका लू के एक झोंके में नष्ट-ववनष्ट ो गई।

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मे मानों ने भोजन ककया। घरवालों ने भोजन ककया। बाजेवाले, िोबी, चमार भी भोजन कर चुके, परिंतु बूढी काकी को ककसी ने न पूछा। बुवद्धराम और रपा दोनों ी बूढी काकी को उनकी ननलमज्जता के शलए दिंड देने का ननश्चय कर चुके थे। उनके बुढापे पर, दीनता पर, तज्ञान पर ककसी को करणा न आई थी अकेली लाडली उनके शलए कुढ र ी थी।

लाडली को काकी से अत्यिंत पे्रम था। बेचारी भोली लड़की थी। बाल-ववनोद और चिंचलता की उसमें गिंि तक न थी। दोनों बार जब उसके माता-वपता ने काकी को ननदमयता से घसीटा तो लाडली का हृदय ऐिंठ कर र गया। व झुाँझला र ी थी कक य लोग काकी को क्यों ब ुत-सी पूडड़यााँ न ीिं दे देत।े क्या मे मान सब की सब खा जाएिंगे? और यहद काकी ने मे मानों से प ले खा शलया तो क्या बबगड़ जाएगा? व काकी के पास जा कर उन् ें िैयम देना चा ती थी, परिंतु माता के भय से न जाती थी। उसने अपने ह स्से की पूडड़या बबलकुल न खाई थी। अपनी गुडड़यों की वपटारी में बिंद कर रक्खी थी। उन पूडड़यों को काकी के पास ले जाना चा ती थी। उसका हृदय अिीर ो र ा था। बूढी काकी मेरी बात सुनत े ी उठ बैठेंगी, पूडड़यााँ देखकर कैसी प्रसन्न ोगी! मुझ ेखूब प्यार करेंगी?

4

रात को ग्यार बज गए थे। रपा आाँगन में पड़ी सो र ी थी। लाडली की आाँखों में नीिंद न आती थी। काकी को पूडड़यााँ खखलाने की खुशी उसे सोने न देती थी। उसने गुडड़यों की वपटारी सामने ी रखी थी। जब ववश्वास ो गया कक अम्मााँ सो र ी ै, तो व चुपके से उठी और ववचारने लगी, कैसे चलूाँ। चारों ओर अाँिेरा था। केवल चूल् ों में आग चमक र ी थी और चूल् ों के पास एक कुत्ता लेटा ुआ था। लाडली की दृष्ष्ट द्वार के सामने वाले नीम की ओर गई। उस मालूम ुआ कक उस पर नुमान जी बैठे ुए ै। उनकी पूाँछ, उनकी गदा, सब स्पष्ट हदखलाई दे र ी ै। मारे भय के उसने आाँखें बिंद कर ली। इतने में कुत्ता उठ बैठा, लाडली को ढाढस ुआ। कई सोये ुए मनुष्यों के बदले एक भागता ुआ कुत्ता उसके

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शलए अधिक िैयम का कारण ुआ। उसने वपटारी उठाई और बूढी काकी की कोठरी की ओर चली।

5

बूढी काकी को केवल इतना स्मरण था कक ककसी ने मेरे ाथ पकड़कर घसीटे,

कफर ऐसा मालूम ुआ कक जैसे कोई प ाड़ पर उड़ाए शलये जाता ै। उसके पैर बार-बार पत्थरों पर टकराए तब ककसी ने उन् ें प ाड़ पर से पटका, वे मूनछमत ो गई।

जब वे सचते ुई तो ककसी की जरा भी आ ट न शमलती थी। समझी कक सब लोग खा-पीकर सो गए और उनके साथ मेरी तकदीर भी सो गई। रात कैसे कटेगी? राम! क्या खाऊाँ ? पेट में अष्ग्न ििक र ी ै? ा! ककसी ने मेरी सुधि न ली! क्या मेरा पेट काटने से िन जुड़ जाएगा? इन लोगों को इतनी दया न ीिं आती कक न जाने बुहढया कब मर जाए? उसका जी क्यों दखुावें? मैं पेट की रोहटयााँ ी खाती ूाँ कक और कुछ? इस पर य ाल। मैं अिंिी, अपाह ज ठ री, न कुछ सुनूाँ न बूझूाँ। यहद आाँगन में चली गई तो क्या बुवद्धराम से इतना क त ेन बनता था कक काकी अभी लोग खा र े ै, कफर आना। मुझ ेघसीटा पटका। उन् ीिं पूडड़यों के शलए रपा ने सबके सामने गाशलयााँ दीिं। उन् ीिं पूडड़यों के शलए इतनी दगुमनत करने पर भी उनका पत्थर का कलेजा न पसीजा। सबको खखलाया, मेरी बात तक न पूछी। जब तब ी न दीिं, तब अब क्या देंगे?

य ववचार कर काकी ननराशामय सिंतोष के साथ लेट गई। ग्लानन से गला भर-भर आता था, परिंतु मे मानों के भय से न रोती थी।

स सा उनके कानों में आवाज आई - काकी उठो, मैं पूडड़यााँ लाई ूाँ। काकी ने लाडकी को बोली प चानी। चटपट उठ बैठी। दोनों ाथों से लाडकी को टटोला और उसे गोद में बैठा शलया। लाडली ने पूडडयााँ ननकाल कर दीिं।

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काकी ने पूछा - क्या तुम् ारी अम्मााँ ने दी ैं?

लाडली ने क ा - न ीिं, य मेरे ह स्से की ैं।

काकी पूडड़यों पर टूट पड़ी। पााँच शमनट में वपटारी खाली ो गई।

लाडली ने पूछा - काकी पेट भर गया।

जैसी थोडी-सी वषाम ठिंडक के स्थान पर और भी गमी पैदा कर देती ै उसी भााँनत इन थोड़ी पूडड़यों ने काकी की क्षुिा और इच्छा को और उत्तषे्जत कर हदया था। बोलीिं - न ीिं बेटी, जाकर अम्मााँ से और मााँग लाओ।

लाडली ने क ा - अम्मााँ सोती ै, जगाऊाँ गी तो मारेगी।

काकी ने वपटारी को कफर टटोला। उसमें कुछ खुचमन धगरे थे। उन् ें ननकालकर व ेखा गई। बार-बार ोट चाटती थीिं, चटखारें मारती थीिं।

हृदय मसोस र ा था कक और पूडड़यााँ कैसे पाऊाँ । सिंतोष-सेतु जब टूट जाता ै तब इच्छा का ब ाव अपररशमत ो जाता ै। मतवालों को मद का स्मरण करना उन् ें मदािंि बनाता ै। काकी का अिीर मन इच्छा के प्रबल प्रवा में ब गया। उधचत और अनुधचत का ववचार जाता र ा। वे कुछ देर तक इस इच्छा को रोकती र ी। स सा लाडली से बोली - मेरा ाथ पकड़कर व ााँ ले चलो ज ााँ मे मानों ने बैठकर भोजन ककया ै।

लाडली उनका अशभप्राय समझ न सकी। उसने काकी का ाथ पकड़ा और ले जाकर जूठे पत्तलों के पास बैठा हदया। दीन, क्षुिातुर, तज्ञान बुहढया पत्तलों से पूडड़यााँ के टुकड़ ेचुन-चुनकर भक्षण करने लगी। ओ द ी ककतना स्वाहदष्ट था, कचौडड़यााँ ककतनी सलोनी, खस्ता ककतने सुकोमल। काकी बवुद्ध ीन ोत े ुए भी इतना जानती थीिं कक मैं व काम क र ी ूाँ, जो मुझ ेकदावप न करना चा ए। मैं दसूरों की जूठी पत्तल चाट र ी ूाँ। परिंतु बुढापा तषृ्णा रोग का अिंनतम समय

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ै, जब सिंपूणम इच्छाएाँ एक ी कें द्र पर आ लगती ैं। बूढी काकी में य कें द्र उनकी स्वादेंहद्रय ती।

ठीक उसी समय रपा की आाँखें खुलीिं। उसे मालूम ुआ कक लाडली मेरे पास न ीिं ै। व चौंकी, चारपाई के इिर-उिर ताकने लगी कक क ीिं नीच े तो न ीिं धगर पड़ी। उसे व ााँ न पाकर व उठी तो क्या देखती ै कक लाडली जूठे पत्तलों के पास चुपचाप खड़ी ै और बूढी काकी पत्तलों पर से पूडड़यों के टुकड ेउठा-उठा कर खा र ी ै। रपा का हृदय सन्न ो गया। ककसी गाय की गदमन पर छुरी चलत ेदेख कर जो अवस्था उसकी ोती, व ी उस समय ुई। एक ब्राह्मणी दसूरों की जूठी पत्तल टटोले,इससे अधिक शोकमय दृश्य असिंभव था। पूडड़यों के कुछ ग्रासों के शलए उसकी चचरेी सास ऐसा पनतत और ननकृष्ट कमम कर र ी ै। य व दृश्य था ष्जसे देखकर देखने वालों के हृदय कााँप उठत े ै। ऐसा प्रतीत ुआ मानों जमीन रुक गई, आसमान चक्कर खा र ा ै। सिंसार पर कोई आपष्त्त आनेवाली ै। रपा को क्रोि न आया। शोक के सम्मुख क्रोि क ााँ? करणा और भय से उसकी आाँखें भर आई! इस अिमम के पाप का भागी कौन ै? उसने सच्चे हृदय से गगन-मिंडल की ओर ाथ उठाकर क ा - परमात्मा, मेरे बच्चों पर दया करो। इस अिमम का दिंड मुझ ेमत दो, न ीिं तो मेरा सत्यानाश ो जाएगा।

रपा को अपनी स्वाथमपरता और अन्याय इस प्रकार प्रत्यक्ष रप में कभी न देख पड़ ेथे। व सोचने लगी - ाय! ककतनी ननदमय ूाँ। ष्जसकी सिंपष्त्त से मुझ ेदो सौ रुपया वावषमक आय ो र ी ै, उसकी य दगुमनत! और मेरे कारण! े दयामय भगवान! मुझसे बड़ी भारी चूक ुई ै, मुझ ेक्षमा करो! आज मेरे बेटे का नतलक था। सैकड़ो मनुष्यों ने भोजन ककया। मैं उनके इशारों की दासी बनी र ी। अपने नाम के शलए सैकड़ो रपए व्यय कर हदए; परिंतु ष्जसकी बदौलत जारों रुपए खाए, उसे इस उत्सव में भी भरपेट भोजन न दे सकी। केवल इसी कारण तो, व वदृ्धा अस ाय ै।

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रपा ने दीया जलाया, अपने भिंडार का द्वार खोला और एक थाली में सिंपूणम सामधग्रयााँ सजाकर शलए ुए बढूी काकी की ओर चली।

आिी रात जा चुकी थी, आकाश पर तारों के थाल सजे ुए थे और उन पर बैठे ुए देवगण स्वगीय पदाथम सजा र े थे, परिंतु उनमें ककसी को व परमानिंद प्राप्त न ो सकता था, जो बूढी काकी को अपने सम्मुख थाल देखकर प्राप्त ुआ। रपा ने किं ठावरुद्ध स्वर में क ा - काकी उठो, भोजन कर लो। मुझसे आज बड़ी भलू ुई, उसका बुरा न मानना। परमात्मा से प्राथमना कर दो कक व मेरा अपराि क्षमा कर दें।

भोले-भाले बच्चों की भााँनत, जो शमठाइयााँ पाकर मार और नतरस्कार सब भूल जाता ै, बूढी काकी वैसे ी सब भुलाकर बैठी ुई खाना खा र ी थी। उनके एक-एक रोयें से सच्ची सहदच्छाएाँ ननकल र ी थीिं और रपा बैठी इस स्वगामय दृश्य का आनिंद लेने में ननमग्न थी।

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हार की जीत

केशव से मेरी पुरानी लाग-डााँट थी। लेख और वाणी, ास्य और ववनोद सभी क्षेत्रों में मुझसे कोसों आगे थे। उसके गुणों की चिंद्र-ज्योनत में मेरे दीपक का प्रकाश कभी प्रस्फुहटत न ुआ। एक बार उसे नीचा हदखाना मेरे जीवन की सबसे बड़ी अशभलाषा थी। उस समय मैंने कभी स्वीकार न ीिं ककया। अपनी त्रुहटयों को कौन स्वीकार करता ै - पर वास्तव में मुझ े ईश्वर ने उसकी जैसी बुवद्ध-शष्क्त न प्रदान की थी। अगर मुझ ेकुछ तस्कीन थी तो य कक ववद्याक्षेत्र में चा े मुझ ेउनसे किं िा शमलाना कभी नसीब न ो, पर व्यव ार की रिंगभूशम में से रा मेरे ी शसर र ेगा। लेककन दभुामग्य से जब प्रणय-सागर में भी उसने मेरे साथ गोता मारा और रत्न उसी के ाथ लगता ुआ नजर आया तो मैं ताश ो गया। म दोनों ने ी एम. ए. के शलए साम्यवाद का ववषय शलया था। म दोनों ी साम्यवादी थे। केशव के ववषय में तो य स्वाभाववक बात थी। उसका कुल ब ुत प्रनतष्ष्ठत न था, न व स्मवृद्ध ी थी जो इस कभी को पूरा कर देती। मेरी अवस्था उसके प्रनतकूल थी। मैं खानदान का ताल्लुकेदार और रईस था। मेरी साम्यवाहदता पर लोगों को कुतू ल ोता थी। मारे साम्यवाद के प्रोफेसर बाब ू ररदास भाहटया साम्यवाद के शसद्धािंतों के कायल थे, लेककन शायद िन की अव ेलना न कर सकत ेथे। अपनी लज्जावती के शलए उन् ोंने कुशाग्र बुवद्ध केशव को न ीिं, मुझ ेपसिंद ककया। एक हदन सिंध्या-समय व मेरे कमरे मे आए और धचिंनतत भाव से बोले - शारदाचरण, मैं म ीनों से एक बड़ी धचिंता में पड़ा ुआ ूाँ। मुझ ेआशा ै कक तुम उसका ननवारण कर सकत े ो! मेरे कोई पुत्र न ीिं ै। मैंने तुम् ें और केशव दोनों ी को पुत्र-तुल्य समझा ै। यद्यवप केशव तुमसे चतुर ै,

पर मुझ े ववश्वास ै कक ववस्ततृ सिंसार में तुम् ें जो सफलता शमलेगी, व उसे न ीिं शमल सकती। अतएव मैंने तुम् ीिं को अपनी लज्जा के शलए वरा ै। क्या मैं आशा कराँ कक मेरा मनोरथ पूरा ोगा।

मैं स्वतिंत्र था। मेरे माता-वपता मुझ ेलड़कपन में ी छोड़ कर स्वगम चले गए थे। मेरे कुटुिंबबयों में अब ऐसा कोई न था, ष्जसकी अनुमनत लेने की मुझ ेजररत

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ोती। लज्जावती जैसी सुशीला, सुिंदरी, सुशशक्षक्षत स्त्री को पा कर कौन पुरुष ोगा जो अपने भाग्य को न सरा ता। मैं फूला न समाया। लज्जा एक कुसुशमत वाहटका थी, ज ााँ गुलाब की मनो र सुगिंधि थी और ररयाली की मनोरम शीतलता, समीर की शुभ्र तरिंगें थी और पक्षक्षयों का मिुर सिंगीत। व स्वयिं साम्यवाद पर मोह त थी। ष्स्त्रयों के प्रनतननधित्व और ऐसे ी अन्य ववषयों पर उसने मुझसे ककतनी ी बार बातें की थीिं। लेककन प्रोफेसर भाहटया की तर केवल शसद्धािंतों की भक्त न थी, उनको व्यव ार में भी लाना चा ती थी। उसने चतुर केशव को अपना स्ने -पात्र बनाया था। तथावप मैं जानता था कक प्रोफेसर भाहटया के आदेश को व कभी न ीिं टाल सकती, यद्यवप उसकी इच्छा के ववरुद्ध मैं उसे अपनी प्रणनयनी बनाने के शलए तैयार न था। इस ववषय में मैं स्वेच्छा के शसद्धािंत का कायल था। इसशलए मैं केशव की ववरष्क्त और क्षोभ से आशातीत आनिंद न उठा सका। म दोनों ी दुुःखी थे, और मुझ े प ली बार केशव से स ानुभूनत ुई। मैं लज्जावती से केवल इतना पूछना चा ता था कक उसने मुझ ेक्यों अपनी नजरों से धगरा हदया। पर उसके सामने ऐसे नाजुक प्रश्नों को छेड़त े ुए मुझ ेसिंकोच ोता था, और य स्वाभाववक था, क्योंकक कोई रमणी अपने अतुःकरण के र स्यों को न ीिं खोल सकती। लेककन शायद लज्जावती इस पररष्स्थनत को मेरे सामने प्रकट करना अपना कतमव्य समझ र ी थी। व इसका अवसर ढूाँढ र ी थी। सिंयोग से उसे शीध्र ी अवसर शमल गया।

सिंध्या का समय था। केशव राजपूत ॉस्टल में साम्यवाद पर एक व्याख्यान देने गया ुआ था। प्रोफेसर भाहटया उस जलसे के प्रिान थे। लज्जा अपने बाँगले में अकेली बैठी ुई थी। मैं अपने अशािंत हृदय के भाव नछपाए ुए, शोक और नैराश्य की दा से जलता ुआ उससे समीप आ कर बैठ गया। लज्जा ने मेरी ओर एक उड़ती ुई ननगा डाली और सदय भाव से बोली - कुछ धचिंनतत जान पड़त े ो?

मैंने कृशमत्र उदासीनता से क ा - तुम् ारी बला से।

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लज्जा - केशव का व्याख्यान सुनने न ीिं गए!

मेरी आाँखों से ज्वाला-सी ननकलने लगी। जब्त करके बोला - आज शसर में ददम ो र ा था।

य क ते-क त ेअनायास ी मेरे नेत्रों से आाँसू की कई बूाँदें टपक पड़ी। मैं अपने शोक को प्रदशशमत करके उसका करुणापात्र बनना न ीिं चा ता था। मेरे ववचार में रोना ष्स्त्रयों के ी स्वाभावानुसार था। मैं उस पर क्रोि प्रकट करना चा ता था और ननकल पड़ ेआाँसू। मन के भाव इच्छा के अिीन न ीिं ोत।े

मुझ ेरोत ेदेखकर लज्जा की आाँखों से आाँसू धगरने लगे।

मैं कीना न ीिं रखता, मशलन हृदय न ीिं ूाँ, लेककन न मालूम क्यों लज्जा के रोने पर मुझ ेइस समय एक आनिंद का अनुभव ुआ। उस शोकावस्था में भी मैं उस पर व्यिंग्य करने से बाज न र सका। बोला - लज्जा, मैं तो अपने भाग्य को रोता ूाँ। शायद तुम् ारे अन्याय की द ुाई दे र ा ूाँ; लेककन तुम् ारे आाँसू क्यों?

लज्जा ने मेरी ओर नतरस्कार-भाव से देखा और बोली - मेरे आाँसुओिं का र स्य तुम न समझोगे क्योंकक तुमने कभी समझने की चषे्टा न ीिं की। तुम मुझ ेकटु वचन सुना कर अपने धचत्त को शािंत कर लेत े ो। मैं ककसे जलाऊाँ । तुम् ें क्या मालूम ै कक मैंने ककतना आगा-पीछा सोचकर, हृदय को ककतना दबाकर, ककतनी रातें करवटें बदलकर और ककतने आाँसू ब ाकर य ननश्चय ककया ै। तुम् ारी कुल-प्रनतष्ठा, तुम् ारी ररयासत एक दीवार की भााँनत मेरे रास्त ेमें खड़ी ै। उस दीवार को मैं पार न ीिं कर सकती। मैं जानती ूाँ कक इस समय तुम् ें कुल-प्रनतष्ठा और ररयासत को लेशमात्र भी अशभमान न ीिं ै। लेककन य भी जानती ूाँ कक तुम् ारा कालेज की शीतल छाया में पला ुआ साम्यवाद ब ुत हदनों तक सािंसाररक जीवन की लू और लपट को न स सकेगा। उस समय तुम अवश्य अपने फैसले पर पछताओगे और कुढोगे। मैं तुम् ारे दिू की मक्खी और हृदय का कााँटा बन जाऊाँ गी।

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मैंने आद्रम ोकर क ा - ष्जन कारणों से मेरा साम्यवाद लुप्त ो जाएगा, क्या व तुम् ारे साम्यवादको जीता छोड़गेा?

लज्जा - ााँ, मुझ ेपूरा ववश्वास ै कक मुझ पर उनका जरा भी असर न ोगा। मेरे घर में कभी ररयासत न ीिं र ी और कुल की अवस्था तुम भली-भााँनत जानत े ो। बाब ूजी ने केवल अपने अववरल पररश्रम और अध्यवसाय से य पद प्राप्त ककया ै। मुझ ेव न ीिं भूला ै जब मेरी माता जीववत थी और बाबू जी 11 बज ेरात को प्राइवेट ट्यूशन कर के घर आत ेथे। तो मुझ ेररयासत और कुल-गौरव का अशभमान कभी न ीिं ो सकता, उसी तर जैसे तुम् ारे हृदय से य अशभमान कभी शमट न ीिं सकता। य घमिंड मुझ ेउसी दशा में ोगा जब मैं स्मनृत ीन ो जाऊाँ गी।

मैंन उद्दिंतता से क ा - कुल-प्रनतष्ठा को तो मैं शमटा न ीिं सकता, मेरे वश की बात न ीिं ै, लेककन तुम् ारे शलए मैं आज ररयासत को नतलािंजशल दे सकता ूाँ।

लज्जा कू्रर मुस्कान से बोली - कफर व ी भावुकता! अगर य बात तुम ककसी अबोि बाशलका से करते तो कदाधचत व फूली न समाती। मैं एक ऐसे ग न ववषय में, ष्जस पर दो प्राखणयों के समस्त जीवन का सुख-दुुःख ननभमर ै,

भावुकता का आश्रय न ीिं ले सकती। शादी बनावट न ीिं ै। परमात्मा साक्षी ै मैं वववश ूाँ, मुझ े अभी तक स्वयिं मालूम न ीिं ै कक मेरी डोंगी ककिर जाएगी; लेककन मैं तुम् ारे जीवन को किं टकमय न ीिं बना सकती।

मैं य ााँ से चला तो इतना ननराश न था ष्जतना सिंधचत। लज्जा ने मेंरे सामने एक नई समस्या उपष्स्थत कर दी थी।

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म दोनों साथ-साथ एम. ए. ुए। केशव प्रथम शे्रणी में आया, मैं द्ववतीय शे्रणी में। उसे नागपुर के एक कालेज में अध्यापक का पद शमल गया। मैं घर आकर अपनी ररयासत का प्रिंबिंि करने लगा। चलत ेसमय म दोनों गले शमलकर और रोकर ववदा ुए। ववरोि और ईष्याम को कालेज में छोड़ हदया।

मैं अपने प्रािंत का प ला ताल्लुकेदार था, ष्जसने एम. ए. पद प्राप्त ककया ो। प ले तो राज्याधिकाररयों ने मेरी खूब आवभगत की; लेककन जब मेरे सामाष्जक शसद्धािंतों से अवगत ुए तो उनकी कृपादृष्ष्ट कुछ शशधथल पड़ गई। मैंने भी उनसे शमलना-जुलना छोड़ हदया। अपना अधिकािंश समय असाशमयों के ी बीच में व्यतीत करता।

पूरा साल भी न गुजरने पाया कक एक ताल्लुकेदार की परलोक-यात्रा ने कौंशसल में एक स्थान खाली कर हदया। मैंने कौंशसल में जाने की अपनी तरफ से कोई कोशशश न ीिं की। लेककन काश्तकारों ने अपने प्रनतननधित्व का भार मेरे ी शसर रखा। बेचारा केशव तो अपने कालेज में लेक्चर देता था, ककसी को खबर न थी कक व क ााँ ै और क्या कर र ा ै और मैं अपने कुल-मयामदा की बदौलत कौंशसल का मेम्बर ो गया। मेरी वकृ्ताताएाँ समाचार-पत्रों में छपने लगीिं। मेरे प्रश्नों की प्रशिंसा ोने लगीिं। कौंशसल में मेरा ववशेष सम्मान ोने लगा, कई सज्जन ऐसे ननकल आए जो जनतावाद के भक्त थे। प ले व पररष्स्थनतयों से कुछ दबे ुए थे, अब व खुल पड़।े म लोगों ने लोकवाहदयों का अपना पथृक दल बना शलया और कृषकों के अधिकारों को जोरों के साथ व्यक्त करना शुर ककया। अधिकािंश भूपनतयों ने मेरी अव ेलना की। कई सज्जनों ने िमककयााँ भी दी; लेककन मैंन अपने ननष्श्चत पथ को न छोड़ा। सेवा के इस सुअवसर को क्योंकर ाथ से जाने देता। दसूरा वषम समाप्त ोत-े ोत ेजानत के प्रिान नेताओिं में मेरी गणना ोने लगी। मझु ेब ुत पररश्रम करना, ब ुत पढना, ब ुत शलखना और ब ुत बोलना पड़ता, पर जरा भी न घबराता। इस पररश्रमशीलता के शलए केशव का ऋणी था। उसी ने मुझ ेइतना अभ्यस्त बना हदया था।

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मेरे पास केशव और प्रोफेसर भाहटया के पत्र बराबर आत ेर त े थे। कभी-कभी लज्जावती भी शमलती थी। उसके पत्रों में श्रद्धा और पे्रम की मात्रा हदनोंहदन बढती जाती थी। व मेरी राष्र सेवा का बड़ े उदार, बड़ े उत्सा मय शब्दों में बखान करती। मेरे ववषय में उसे प ले जो शिंकाएाँ थी, व शमटती जाती थीिं। मेरी तपस्या की देवी को आकवषमत करने लगी थी। केशव के पत्रों से उदासीनता टपकती थी। उसके कालेज में िन का अभाव था। तीन वषम ो गए थे, पर उसकी तरक्की न ुई थी। पत्रों से ऐसा प्रतीत ोता था मानो व जीवन से असिंतुष्ट ै। कदाधचत इसका मुख्य कारण य था कक अभी तक उसके जीवन का सुखमय स्वप्न चररताथम न ुआ था।

तीसरे वषम गशममयों की तातील में प्रोफेसर भाहटया मुझसे शमलने आए और ब ुत प्रसन्न ोकर कर गए। उसके एक सप्ता पीछे लज्जावती का पत्र आया, अदालत ने तजबीज सुना दी, मेरी डडग्री ो गई। केशव की प ली बार मेरे मुकाबले में ार ुई। मेरे षोल्लास की कोई सीमा न थी। प्रोफेसर भाहटया का इरादा भारतवषम के सब प्रािंतों में भ्रमण करने का था। व साम्यवाद पर एक ग्रिंथ शलख र े थे ष्जसके शलए प्रत्येक बड़ ेनगर में कुछ अन्वेषण करने की जररत थी। लज्जा को अपने साथ ले जाना चा त े थे। ननश्चय ुआ कक उनके लौट आने पर आगामी चैत के म ीने में मारा सिंयोग ो जाए। मैं य ववयोग के हदन बड़ी बेसब्री से काटने लगा। अब तक मैं जानता था बाजी केशव के ाथ र ेगी। मैं ननराश था, पर शािंत था। अब आशा थी और उसके साथ घोर अशािंनत थी।

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माचम का म ीना था। प्रतीक्षा की अवधि पूरी ो चुकी थी। कहठन पररश्रम के हदन गए, फसल कटने का समय आया। प्रोफेसर सा ब ने ढाका से पत्र शलखा कक कई अननवायम कारणों से मेरा लौटना माचम में न ीिं मई में ोगा। इसी बीच में कश्मीर के दीवान लाला सोमनाथ कपूर नैनीताल आए। बजट पेश था। उन पर

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व्यवस्थापक सभा में वाद-वववाद ो र ा था। गवनमर की ओर से दीवान सा ब को पाटी दी गई। सभा के प्रनतननधियों को भी ननमिंत्रण शमला। कौंशसल की ओर से मुझ ेअशभवादन करने का सौभाग्य प्राप्त ुआ। मेरी बकवास को दीवान सा ब ने ब ुत पसिंद ककया। चलत ेसमय मुझसे कई शमनट तक बातें की और मुझ ेअपने डरेे पर आने का आदेश हदया। उनके साथ उनकी पुत्री सुशीला भी थी। व पीछे शसर झुकाए खड़ी र ी। जान पड़ता था, भूशम को पढ र ी ै। पर मैं अपनी आाँखों पर काबू न रख सका। व उतनी ी देर में एक बार न ीिं, कई बार उठी और जैसे बच्चा ककसी अजनबी की चुमकार से उसकी ओर लपकता ै, पर कफर डर कर मााँ की गोद से धचपट जाता ै; व भी डर कर आिे रास्त से लौट गई। लज्जा अगर कुसुशमत वाहटका थी तो सुशीला सशलल-िारा थी, ज ााँ वकृ्षों के कुिं ज थे, ववनोदशील मगृों के झुिंड, वव गावली की अनिंत शोभा और तरिंगों का मिुर सिंगीत।

मैं घर पर आया तो ऐसा थका ुआ था जैसे कोई मिंष्जल मारकर आया ूाँ। सौंदयम जीवन-सुिा ै। मालूम न ीिं क्यों इसका असर इतना प्राणघातक ोता ै।

लेटा तो व ी सूरत सामने थी। मैं उसे टाना चा ता था। मुझ ेभय था कक एक क्षण भी उस भाँवर में पड़कर मैं अपने को साँभाल न सकूाँ गा। मैं अब लज्जावती का ो चुका था, व ीिं अब मेरे हृदय की स्वाशमनी थी। मेरा उस पर कोई अधिकार न था लेककन मेरे सारे सिंयम, सारी दलीलें ननष्फल ुई। जल के उद्वेग में नौका को िागे से कौन रोक सकता ै। अिंत में ताश ोकर मैंने अपने को ववचारों के प्रवा में डाल हदया। कुछ दरू तक नौका वेगवती तरिंगों के साथ चली, कफर उसी प्रवा में ववलीन ो गई।

दसूरे हदन मैं ननयत समय पर दीवान सा ब के डरेे पर जा प ुाँचा, इस भााँनत कााँपता और ह चकता जैसे कोई बालक दाशमनी की चमक से चौंक-चौककर आाँख बिंद कर लेता ै कक क ीिं व चमक न जाए, क ीिं मैं उसकी चमक न देख लूाँ; भोला-भाला ककसान भी अदालत के सामने इतना सशिंक न ोता ोगा। यथाथम

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य था कक मेरी आत्मा परास्त ो चुकी थी, उसमें अब प्रनतकार की शष्क्त न र ी थी।

दीवान सा ब ने मुझसे ाथ शमलाया और कोई घिंटे भर तक आधथमक और सामाष्जक प्रश्नों पर वातामलाप करत ेर े। मुझ ेउनकी ब ुज्ञता पर आश्चयम ोता था। ऐसा वाक् चतुर पुरुष मैंने कभी न देखा था। साठ वषम की वयस थी, पर ास्य और ववनोद के मानों भिंडार थे। न जाने ककतने श्लोक, ककतने कववत्त,

ककतने शेर उन् ें याद थे। बात-बात पर कोई न कोई सुयुष्क्त ननकाल लात ेथे। खेद ै उस प्रकृनत के लोग अब गायव ोत ेजात े ै। व शशक्षा प्रणाली न जाने कैसी थी, जो ऐसे-ऐसे रत्न उत्पन्न करती थी। अब तो सजीवता क ीिं हदखाई ी न ीिं देती। प्रत्येक प्राणी धचिंता की मूनतम ै, उसके ोठों पर कभी ाँसी आती ी न ीिं। खैर, दीवान सा ब ने प ले चाय माँगवाई, कफर फल और मेवे माँगवाए। मैं र -र कर उत्सुक नेत्रों से देखता था। मेरे कान उसके स्वर का रसपान करने के शलए मुाँ खोले ुए थे, आाँखें द्वार की ओर लगी ुई थी। भय भी था और लगाव भी, खझझक भी थी और खखिंचाव भी। बच्चा झूले से डरता ै पर उस पर बैठना भी चा ता ै।

लेककन रात के नौ बज गए, मेरे लौटने का समय आ गया। मन में लष्ज्जत ो र ा था कक दीवान सा ब हदल में क्या क र ोंगे। सोचते ोंगे इसे कोई काम न ीिं ैं? जाता क्यों न ीिं, बैठे-बैठे दो ढाई घिंटे तो ो गए।

सारी बातें समाप्त ुई। उनके लतीफें भी खत्म ो गए। व नीरवता उपष्स्थत ो गई, जो क ती ै कक अब चशलए कफर मलुाकात ोगी। यार ष्जिंदा व सो ब्बत बाकी। मैंने कई बार उठने का इरादा ककया, लेककन इिंतजार में आशशक की जान भी न ीिं ननकलती, मौत को भी इिंतजार का सामना करना पड़ता ै। य ााँ तक कक साढे नौ बज गए और अब मुझ े ववदा ोने के शसवाय कोई मागम न र ा, जैसे हदल बैठ गया। ष्जसे मैंने भय क ा ै, व वास्तव में भय न ीिं था, व उत्सुकता की चरम सीमा थी।

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य ााँ से चला तो ऐसा शशधथल और ननजीव था मानो प्राण ननकल गए ो। अपने को धिक्कारने लगा। अपनी क्षुद्रता पर लष्ज्जत ुआ। तुम समझत े ो कक म भी कुछ ैं। य ााँ ककसी को तुम् ारे मरने-जीने की परवा न ीिं। माना उनके लक्षण क्वााँररयों के-से ैं। सिंसार में क्वााँरी लड़ककयों की कमी न ीिं। सौंदयम भी ऐसी दलुमभ वस्तु न ीिं। अगर प्रत्येक रपवती और क्वााँरी युवती को देखकर तुम् ारी व ी ालत ोती र ी तो ईश्वर ी माशलक ै।

व भी तो अपने हदल में य ी ववचार करती ोगी। प्रत्येक रपवान युवक पर उसकी आाँखें क्यों उठें । कुलवती ष्स्त्रयों के य ढिंग न ीिं ोत।े पुरुषों के शलए अगर य रप-तषृ्णा ननिंदाजनक ै तो ष्स्त्रयों के शलए ववनाशकारक ै। द्वैत से अद्वैत को भी इतना आघात न ीिं प ुाँच सकता, ष्जतना सौंदयम को।

दसूरे हदन शाम को मैं अपने बरामदे में बैठा पत्र देख र ा था। क्लब जाने को भी जी न ीिं चा ता था। धचत्त कुछ उदास था। स सा मैंने दीवान सा ब को कफटन पर आत ेदेखा। मोटर से उन् ें घणृा थी। व उसे पैशाधचक उड़नखटोला क ा करत े थे। उसके बगल में सुशीला थी। मेरा हृदय िक-िक करने लगा। उसकी ननगा मेरी तरफ उठी ो या न उठी ो, पर मेरी टकटकी उस वक्त तक लगी र ी जब तक कफटन अदृश्य न ो गई।

तीसरे हदन मैं कफर बरामदे में आ बैठा। आाँखें सड़क की ओर लगी ुई थी। कफटन आई और चली गई। अब य ी उसका ननत्यप्रनत ननयम ो गया ै। मेरा अब य ीिं काम था कक सारे हदन बरामदें में बैठा र ूाँ। मालूम न ीिं कफटन कब ननकल जाए। ववशेषतुः तीसरे प र मैं अपनी जग से ह लने का नाम भी न लेता था।

इस प्रकार एक मास बीत गया। मुझ ेअब कौंशसल के कामों में कोई उत्सा न था। समाचार पत्रों में, उपन्यासों में जी न लगता। क ीिं सरै करने का भी जी न चा ता। पे्रशमयों को न जाने जिंगल-प ाड़ों में भटकने की, कााँटोंस से उलझने की सनक कैसे सवार ोती ै। मेरे तो जैसे पैरों में बेडड़यााँ-सी पड़ गई थी। बस

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बरामदा था और मैं, और कफटन का इिंतजार। मेरी ववचारशष्क्त भी शायद अिंतिामन ो गई थी। मैं दीवान सा ब को या अाँगरेजी शशष्टता के अनुसार सुशीला को ी, अपने य ााँ ननमिंबत्रत कर सकता था, पर वास्तव में मैं अभी तक उससे भयभीत था। अब लज्जावती को अपनी प्रणनयनी समझता था। व अब भी मेरे हृदय की रानी थी, चा े उस पर ककसी दसूरी शष्क्त का अधिकार ी क्यों न ो गया ो!

एक म ीना और ननकल गया, लेककन मैंने लज्जा को कोई पत्र न शलखा। मुझमें अब उसे पत्र शलखने की भी सामथ्यम न थी। शायद उससे पत्र-व्यव ार करने को मैं नैनतक अत्याचार समझता था। मैंने उससे दगा की थी। मुझ ेअब उसे अपने मशलन अिंतुःकरण में भी अपववत्र करने का कोई अधिकार न था। इसका अिंत क्या ोगा? य ीिं धचिंता अ ननमश मेरे मन पर कु र मेघ की भााँनत शून्य ो गई थी। धचिंता-दा से हदनोंहदन घुलता जाता था। शमत्रजन अक्सर पूछा करत ेआपको क्या मरज ै? मुख ननस्तजे, कािंनत ीन ो गया। भोजन औषधि के समान लगता। सोने जाता तो जान पड़ता, ककसी ने वप िंजरे में बिंद कर हदया ै। कोई शमलने आता तो धचत्त कोसों भागता। ववधचत्र दशा थी।

एक हदन शाम को दीवान सा ब की कफटन मेरे द्वार पर आकर रुकी। उन् ोंने अपने व्याख्यानों का एक सिंग्र प्रकाशशत कराया था। उसकी प्रनत मुझ ेभेंट करने के शलये आए थे। मैंने उन् ें बैठने के शलए ब ुत आग्र ककया, लेककन उन् ोंने य ी क ा, सुशीला को य ााँ आने में सिंकोच ोगा और कफटन में अकेली व घबराएगी। व चले तो मैं भी साथ ो शलया और कफटन तक पीछे-पीछे आया। जब व कफटन पर बैठने लगे तो मैंने सुशीला को ननुःशिंक ो आाँख भर देखा, जैसे कोई प्यासा पधथक गमी के हदन में अफर कर पानी वपए कक न जाने कब उसे जल शमलेगा। मेरी उस एक धचतवन में उग्रता, व याचना, व उद्वेग, व करुणा, व श्रद्धा, व आग्र , व दीनता थी, जो पत्थर की मूनतम को भी वपघता देती। सुशीला तो कफर स्त्री थी। उसने भी मेरी ओर देखा, ननभीक सरल नेत्रों से, जरा भी झेंप न ीिं, जरा भी खझझक न ीिं। मेरे परास्त ोने में जो कसर र गई थी, व पूरी ो

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गई। इसके साथ उसने मुझ पर मानों अमतृ वषाम कर दी। मेरे हृदय और आत्मा में एक नई शष्क्त का सिंचार ो गया। मैं लौटा तो ऐसा प्रसन्नधचत्त था मानो कल्पवकृ्ष शमल गया ो।

एक हदन मैंने प्रोफेसर भाहटया को पत्र शलखा - मैं थोड़ ेहदनों से ककसी गुप्त रोग से ग्रस्त ो गया ूाँ। सिंभव ै, तपेहदक (क्षय) का आरिंभ ो इसशलए मैं इस मई में वववा करना उधचत न ीिं समझता। मैं लज्जावती से इस भााँनत परािंमुख ोना चा ता था कक उनकी ननगा ों में मेरी इज्जत कम न ो। मैं कभी-कभी अपनी स्वाथमपरता पर कु्रद्ध ोता। लज्जा के साथ य छल-कपट, व बेवफाई करत े ुए मैं अपनी ी नजरों में धगर गया था। लेककन मन पर कोई वश न था। उस अबला को ककतना दुुःख ोगा, य सोचकर मैं कई बार रोया। अभी तक मैं सुशीला के स्वभाव, ववचार, मनोवषृ्त्तयों से जरा भी पररधचत न था। केवल उसके रप-लावण्य पर अपनी लज्जा की धचरसिंधचत अशभलाषाओिं का बशलदान कर र ा था। अबोि बालकों की भााँनत शमठाई के नाम पर अपने दिू-चावल को ठुकराए देता था। मैंने प्रोफेसर को शलखा था, लज्जावती से मेरी बीमारी की ष्जक्र न करें , लेककन प्रोफेसर सा ब इतने ग रे न थे। चौथे ी हदन लज्जा का पत्र आया, ष्जसमें उसने अपना हृदय खोलकर रख हदया। व मेरे शलए सब कुछ य ााँ तक कक वैिव्य की यिंत्रणाएाँ भी स ने के शलए तैयार थी। उसकी इच्छा था कक अब मारे सिंयोग में एक क्षण का भी ववलिंब न ो, अस्तु! इस पत्र को शलए घिंटों एक सिंज्ञा ीन दशा में बैठा र ा। इस अलौशलक आत्मोत्सगम के सामने अपनी क्षुद्रता, अपनी स्वाथमपरता, अपनी दबुमलता ककतनी घखृणत थी!

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िज्जावती

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साववत्री ने क्या सब कुछ जानत े ुए भी सत्यवान से वववा न ीिं ककया था? मैं क्यों डराँ ? अपने कतमव्य-मागम से क्यों डडगूाँ। मैं उनके शलए व्रत रखूाँगी, तीथम कराँ गी, तपस्या कराँ गी। भय मझु ेउनसे अलग न ीिं कर सकता। मुझ ेउनसे कभी इतना पे्रम न था। कभी इतनी अिीरता न थी। य मेरी परीक्षा का समय ै,

और मैंने ननश्चय कर शलया ै। वपता जो अभी यात्रा से लौटे ैं, ाथ खाली ै,

कोई तैयारी न ीिं कर सके ैं। इसशलए दो-चार म ीनों का ववलिंब से उन् ें तैयारी करने का अवसर शमल जाता; पर मैं अब ववलिंब न कराँ गी। म और व इसी म ीने में एक-दसूरे से ो जाएाँगे, मारी आत्माएाँ सदा के शलए सिंयुक्त ो जाएाँगी, कफर कोई ववपष्त्त, दघुमटना मुझ ेउनसे जुदा न कर सकेगी।

मुझ ेअब एक हदन की देर भी असह्य ै। मैं रस्म और ररवाज की लौंडी न ीिं ूाँ। न व ीिं इसके गुलाम ैं। बाबू जी रस्मों के भक्त न ीिं। कफर क्यों न तुरिंत नैनीताल चलूाँ? उनकी सेवा-शुशू्रषा कराँ , उन् ें ढाढस दूाँ। मैं उन् ें सारी धचिंताओिं से,

समस्त ववघ्न-बािाओिं से मुक्त कर दूाँगी। इलाके का सारा प्रबिंि अपने ाथों में लूाँगी। कौंशसल के कामों में इतना व्यस्त ो जाने के कारण ी उनकी य दशा ुई। पत्रों में अधिकतर उन् ीिं के प्रश्न, उन् ीिं की आलोचनाएाँ, उन् ीिं की वक्ततृाएाँ हदखाई देती ै। मैं उनसे याचना कराँ गी कक कुछ हदनों के शलए कौंशसल से इस्तीफा दे दें। व मेरा गाना ककतने चाव से सुनत े थे। मैं उन् ें अपनी गीत सुनाकर प्रसन्न कराँ गी, ककस्से पढकर सुनाऊाँ गी, उनको समुधचत रप से शािंत रखूाँगी। इस देश में तो इस रोग की दवा न ीिं ो सकती। मैं उनके पैरों पर धगरकर प्राथमना कराँ गी कक कुछ हदनों के शलए यूरोप के ककसी सैननटोररयम चलें और ववधिपूवमक इलाज कराएिं। मैं कल ी कालेज के पुस्तकालय में इस रोग से सिंबिंि की पुस्तकें लाऊाँ गी और ववचारपूवमक उनका अध्ययन कराँ गी। दो-चार हदन में कालेज बिंद ो जाएगा। मैं आज ी बाबू जी से नैनीताल चलने की चचाम कराँ गी।

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आ ! मैंने कल उन् ें देखा तो प चान न सकी। ककतना सुखम चे रा था, ककतना भरा ुआ शरीर। मालूम ोता था, ईंगुर भरी ुई ै! ककतना सुिंदर अिंग-ववन्यास था? ककतना शौर्ययम था! तीन ी वषों में य कायापलट ो गई, मुख पीला पड़ गया ै, शरीर घुल कर कााँटा ो गया। आ ार आिा भी न ीिं र ा, रदम धचिंता में मग्न र त े ैं। क ीिं आते-जात ेन ीिं देखती। इतने नौकर ैं, इतना सुरम्य स्थान ै! ववनोद के सभी सामान मौजूद ैं; लेककन इन् ें अपना अब अिंिकारमय जान पड़ता ै। इस कलमुाँ ी बीमारी का सत्यानाथ ो। अगर इसे ऐसी ी भूख थी तो मेरा शशकार क्यों न ककया। मैं बड़े पे्रम से इसका स्वागत करती। कोई ऐसा उपाय ोता कक य बीमारी इन् ें छोड़कर मुझ े पकड़ लेती! मुझ े देखकर कैसे खखल जात े थे और मैं मुस्कराने लगती थी। एक-एक अिंग प्रफुष्ल्लत ो जाता था। पर मुझ ेय ााँ दसूरा हदन ै। एक बार भी उनके च ेरे पर ाँसी न हदखाई दी। जब मैंने बरामदे में कदम रखा तब जरर ाँसे थे, ककिं तु ककतनी ननराश ाँसी थी! बाबू जी अपने आाँसुओिं को न रोक सके। अलग कमरे में जाकर देर तक रोत ेर े। लोग क त े ैं, कौंशसल में लोग केवल सम्मान-प्रनतष्ठा के लोभ से जात े ैं। उनका लक्ष्य केवल नाम पैदा करना ोता ै। बेचारे मेंबरों पर य ककतना कठोर आक्षेप ै, ककतनी घोर कृतघ्नता। जानत की सेवा में शरीर को घुलाना पड़ता ै, रक्त को जलाना पड़ता ै। य ी जानत सेवा का उप ार ै।

पर य ााँ के नौकरों को जरा भी धचिंता न ीिं ै। बाबू जी ने इनके दो-चार शमलने वालों से बीमारी की ष्जक्र ककया; पर उन् ोंने भी परवा न की। य शमत्रों की स ानुभूनत का ाल ै। सभी अपनी-अपनी िुन में मस्त ैं ककसी को खबर न ीिं कक दसूरों पर क्या गुजरती ै। ााँ, इतना मुझ ेभी मालूम ोता ै कक इन् ें क्षय का केवल भ्रम ै। उसके कोई लक्षण न ीिं देखती। परमात्मा करे मेरा टेम्परेचर शलया। उष्णता सािारण थी। उसमें कोई आकष्स्मक पररवतमन भी न ुआ। अगर य ी बीमारी ो तो अभी आरिंशभक अवस्था ै, कोई कारण न ीिं कक उधचत प्रयत्न से उसकी जड़ न उखड़ जाए। मैं कल से ी इन् ें ननत्य सैर कराने ले जाऊाँ गी। मोटर की जररत न ीिं, कफटन पर बैठने से ज्यादा लाभ ोगा। मुझ ेय स्वयिं कुछ लापरवा से जान पड़त े ैं। इस मरज के बीमारों को बड़ी ए नतयात

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करत े देखा ै। हदन में बीसों बार तो थमाममीटर देखत े ै। पथ्यापथ्य का बड़ा ववचार रखत े ै। वे फल, दिू और पुष्ष्टकारक पदाथों का सेवन ककया करत ेथे। य न ीिं कक जो कुछ रसोइये ने अपने मन से बनाकर सामने रख हदया, व ी दो-चार ग्रास खाकर उठ आए। मझु ेतो ववश्वास ोता जाता ै कक इन् ें कोई दसूरी ी शशकायत ै। जरा अवकाश शमले तो इसका पता लगाऊाँ । कोई धचिंता न ीिं ै?

ररयासत पर कजम का बोझ तो न ीिं ै? थोड़ा ब ुत कजम तो अवश्य ी ोगा। य तो रईसों की शान ै। अगर कजम ी इसका मूल कारण ै तो अवश्य कोई भारी रकम ोगी।

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धचत्त ववववि धचिंताओिं से इतना दबा ुआ ै कक कुछ शलखने को जी न ीिं चा ता! मेरे समस्त जीवन की अशभलाषाएाँ शमट्टी में शमल गई। ा तभाग्य! मैं अपने को ककतनी खुशनसीब समझती थी। अब सिंसार में मझुसे ज्यादा बदनसीब और कोई न ोगा। व अमूल्य रत्न जो मुझ ेधचरकाल की तपस्या और उपासना से न शमला, व इस मगृनयनी सुिंदरी को अनायास शमल जाता ै। शारदा ने अभी उसे ाल में ी देखा ै। कदाधचत अभी तक उससे परस्पर बातचीत करने की नौबत न ीिं आई। लेककन उससे ककतने अनुरक्त ो र े ै। उसके पे्रम में कैसे उन्मत्त ो गए ै। पुरुषों को परमात्मा ने हृदय न ीिं हदया, केवल आाँखें दी ैं। व हृदय की कद्र न ीिं करना जानते, केवल रप-रिंग पर बबक जात े ै। अगर मुझ े ककसी तर ववश्वास ो जाए कक सुशीला उन् ें मुझसे ज्यादा प्रसन्न रख सकेगी, उनके जीवन को अधिक साथमक बना देंगी, तो मुझ े उसके शलए जग खाली करने में जरा भी आपष्त्त न ोगी। व गवमवती,इतनी ननठुर ै कक मुझे भय ै कक क ीिं शारदा का पछताना न पड़।े

लेककन य मेरी स्वाथम-कल्पना ै। सुशीला गवमवती स ी, ननठुर स ी, ववलाशसनी स ी, सारदा ने अपना पे्रम उस पर अपमण कर हदया ै। व बुवद्धमान ै, चतुर ै,

दरूदशी ै। अपना ानन-लाभ सोच सकत े ै। उन् ोंने सब कुछ सोच कर ी

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ननश्चय ककया ोगा। जब उन् ोंने मन में य बात ठान ली तो मुझ े कोई अधिकार न ीिं ै कक उनके सुख-मागम का कााँटा बनूाँ। मुझ ेसब्र करके, अपने मन को समझा कर य ााँ से ननराश, ताश, भग्नहृदय, ववदा ो जाना चाह ए। परमात्मा से य ी प्राथमना ै कक उन् ें प्रसन्न रखे। मुझ ेजरा भी ईष्याम, जरा भी दिंभ न ीिं ै। मैं तो उनकी इच्छाओिं की चरेी ूाँ। अगर उन् ें मुझको ववष दे देने से खुशी ोती तो शौक से ववष का प्याला पी लेती। पे्रम ी जीवन का प्राण ै। म इसी के शलए जाना चा त े ै। अगर इसके शलए मरन ेका भी अवसर शमले तो िन्य भाग। यहद केवल मेरे ट जाने से सब काम साँवर सकत े ै तो मुझ ेकोई इनकार न ीिं। रर इच्छा? लेककन मानव शरीर पाकर कौन मायामो से रह त ोता ै? ष्जस पे्रम-लता को मुद्दतों से पाला था, आाँसुओिं से सीिंचा था, उसको पैरों तले रौंदा जाना न ीिं देखा जाता। हृदय ववदीणम ो जाता ै। अब कागज तैरता जान पड़ता ै, आाँसू उमड़ ेचले आत े ैं, कैसे मन को खीिंचूाँ। ा! ष्जसे अपना समझती थी; ष्जसके चरणों पर अपने को भेंट कर चुकी थी, ष्जसके स ारे जीवन-लता पल्लववत ुई थी, ष्जसे हृदय-मिंहदर में पूजती थी, ष्जसके ध्यान में मग्न ो जाना जीवन का सबसे प्यारा काम था, उससे अब अनन्त काल के शलए ववयोग ो र ा ै। आ ! ककससे फररयाद कराँ ? ककसके सामने जाकर रोऊाँ ? ककससे अपनी दुुःख-कथा क ूाँ। मेरा ननबमल हृदय य वज्राघात न ीिं स सकता। य चोट मेरी जान लेकर छोड़गेी। अच्छा ी ोगा। पे्रम-वव ीन हृदय के शलए सिंसार काल-कोठरी ै, नैराश्य और अिंिकार से भरी ुई। मैं जानती ूाँ अगर आज बाब ूजी उनसे वववा के शलए जोर दें तो व तैयार ो जाएिंगे, बस मुरौवत को पुतले ै। केवल मेरा मन रखने के शलए अपनी जान पर खेल जाएिंगे। व उन शीलवान पुरुषों में ै ष्जन् ोंने 'न ीिं' करना ी न ीिं सीखा। अभी तक उन् ोंने दीवान सा ब से सुशीला के ववषय में कोई बातचीत न ीिं की। शायद मेरा रुख देख र े ै। इसी असमिंजस ने उन् ें इस दशा को प ुाँचा हदया ै। व मुझ े मेशा प्रसन्न रखने की चषे्टा करेंगे। मेरा हदल कभी न दखुावेंगे, सुशीला की चचाम भूलकर भी करेंगे। मैं उनके स्वभाव को जानती ूाँ। व नर-रत्न ै। लेककन मैं उनके पैरों की बेड़ी न ीिं बनना चा ती। जो कुछ बीत ेअपने ी ऊपर बीत।े उन् ें क्यों समेटूाँ?

डूबना ी ै तो आप क्यों न डूबूाँ उन् ें अपने साथ क्यों डूबाऊाँ ।

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व भी जानती ूाँ कक यहद इस शोक ने घुला-घुलाकर मेरी जान ले ली तो य अपने को कभी क्षमा न करेंगे। उनका समस्त जीवन क्षोभ और ग्लानन की भेंट ो जाएगा, उन् ें कभी शािंनत न शमलेगी। ककतनी ववकट समस्या ै। मुझ ेमरने की भी स्वािीनता न ीिं। मुझे इनको प्रसन्न रखने के शलए अपने को प्रसन्न रखना पड़ेगा। उनसे ननष्ठुरता करनी पड़गेी। बत्रयाचररत्र खोलना पड़गेा। हदखाना पड़गेा कक इस बीमारी के कारण अब वववा की बातचीत अनगमल ै। वचन को तोड़ने का अपराि अपने शसर लेना पड़गेा। इसके शसवाय उद्धार की ओर कोई व्यवस्था न ीिं? परमात्मा मुझ ेबले दो कक इस परीक्षा में सफल ो जाऊाँ ।

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िारदाचरण

एक ी ननगा ने ननश्चय कर हदया। लज्जा ने मुझ ेजीत शलया। एक ी ननगा से सुशीला ने भी मुझ े जीता था। उस ननगा में प्रबल आकषमण था, मनो र सारल्य, एक आनिंदोद्गार, जो ककसी भााँनत नछपाए न ीिं था, एक बालोधचत उल्लास,

मानो उसे कोई खखलौना शमल गया ो। लज्जा की धचतवन में क्षमा थी और थी करुणा, नैराश्य तथा वेदना। व अपने को मेरी इच्छा पर बशलदान कर र ी थी। आत्म-पररचय में उसे शसवद्ध ै। उसने अपनी बुवद्धमानी से सारी ष्स्थनत ताड़ ली और तुरिंत फैसला कर शलया। व मेरे सुख में बािक न ीिं बनना चा ती थी। उसके साथ ी य भी प्रकट करना चा ती थी मुझ े तुम् ारी परवा न ीिं ै। अगर तुम मुझसे जौ भर खखिंचोगे तो मैं तुमसे गज भर खखिंच जाऊाँ गी। लेककन मनोवषृ्त्तयााँ सुगिंि के समान ै, जो नछपाने से न ीिं नछपतीिं। उसकी ननठुरता में नैराश्यमय वेदना था, उसकी मुस्कान में आाँसुओिं की झलक। व मेरी ननगा बचा कर क्यों रसोई में चली जाती थी और कोई न कोई पाक, ष्जसे व जानती ै कक मुझ ेरुधचकर ै, बना लेती थी? व मेरे नौकरों को क्यो आराम से रखने की गुप्त रीनत से ताकीद ककया करती थी? समाचारपत्रों को क्यों मेरी ननगा से नछपा हदया करती थी? क्यों सिंध्या समय मुझ ेसैर करने को मजबूर ककया करती

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थी? उनकी एक-एक बात उसके हृदय का परदा खोल देती थी। उसे कदाधचत मालूम न ीिं ै कक आत्म-पररचय रमखणयों का ववशेष गुण न ीिं। उस हदन जब प्रोफेसर भाहटया ने बातों ी बातों में मुझ पर व्यिंग्य ककए, मुझ े वैभव और सिंपष्त्त का दास क ा और मेरे साम्यवाद की ाँसी उड़ानी चा ी तो उसने ककतनी चतुरता से बात टाल दी। पीछे से मालूम न ीिं उसने उसे क्या क ा; पर मैं बरामदे में बैठा सुन र ा था कक बाप और बेटी बगीच ेमें बठेै ुए ककसी ववषय में ब स कर र े थे। कौन ऐसा हृदय-शून्य प्राणी ै जो ननष्काम सेवा के वशीभूत न ो जाए। लज्जावती को मैं ब ुत हदनों से जानता ूाँ। पर मुझ ेज्ञात ुआ कक इसी मुलाकात में मैंने उसका यथाथम रप देखा। प ले मैं उसकी रपराशश का, उसके उदार ववचारों का, उसकी मदृवुाणी का भक्त था। उसकी उज्जवल, हदव्य आत्म-ज्योनत मेरी आाँखों से नछपी ुई थी। मैंने अपकी ी जाना कक उसका पे्रम ककतना ग रा, ककतना पववत्र, ककतना अगाि ै। इस अवस्था में कोई दसूरी स्त्री ईष्याम से बावली ो जाती, मुझसे न ीिं तो सुशीला से तो अवश्य ी जलने लगती, आप कुढती, उसे व्यिंग्यों से छेदती और मुझ ेिूतम, कपटी, पाषाण, न जाने क्या-क्या क ती। पर लज्जा ने ष्जतने ववशुद्ध पे्रम-भाव से सशुीला का स्वागत ककया, व मुझ ेकभी न भूलेगा - माशलन्य. सिंकीणमता, कटुता का लेश न था। इस तर उसे ाथों- ाथ शलये कफरती ती मानो छोटी बह न उसके य ााँ मे मान ै। सुशीला इस व्यव ार पर मानो मुग्ि ोने लगी। आ ! व दृश्य भी धचरस्मरणीय ै, जब लज्जावती मुझसे ववदा ोने लगी। प्रोफेसर भाहटया मोटर पर बैठे ुए थे। व मुझसे कुछ खखन्न ो गए और जल्दी से जल्दी भाग जाना चा त े थे। लज्जा एक उज्जवल साड़ी प ने ुए मेरे सम्मुख आ कर खड़ी ो गई। व एक तपष्स्वनी थी, ष्जसने पे्रम पर अपना जीवन अपमण कर हदया ो, श्वेत पुष्पों की माला थी जो ककसी देवमूनतम के चरणों पर पड़ी ुई ो। उसने मुस्कराकर मुझसे क ा - कभी-कभी पत्र शलखत ेर ना, इतनी कृपा की मैं अपने को अधिकाररणी समझती ूाँ।

मैंने जोश से क ा - ााँ, अवश्य।

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लज्जावती ने कफर क ा - शायद य मारी अिंनतम भेट ो। न जाने मैं क ााँ र ूाँगी, क ााँ जाऊाँ गी; कफर कभी आ सकूाँ गी या न ीिं। मुझ ेबबलकुल भूल न जाना। अगर मेरे मुाँ से कोई ऐसी बात ननकल आई ो ष्जससे तुम् ें दुुःख ुआ ो तो क्षमा करना और अपने स्वास्थ्य का ब ुत ध्यान रखना।

य क त े ुए उसने मेरी तरफ ाथ बढाए। ाथ कााँप र े थे। कदाधचत आाँखों में आाँसुओिं का आवेग ो र ा था। व जल्दी से कमरे के बा र ननकल जाना चा ती थी। अपने जब्त पर अब उसे भरोसा न था। उसने मेरी ओर दबी आाँखों से देखा। मगर इस अद्धम धचतवन में दबे ुए पानी का वेग और प्रवा था। ऐसे प्रवा में मैं ष्स्थर न र सका। इस ननगा ने ारी ुई बाजी जीत ली; मैंने उसके दोनों ाथ पकड़ शलये और गदगद स्वर से बोला - न ीिं लज्जा, अब ममे और तुममे कभी ववयोग न ोगा।

स सा चपरासी ने सुशीला का पत्र लाकर सामने रख हदया। शलखा था -

वप्रय श्री शारदाचरण जी,

म लोग कल य ााँ से चले जाएाँगे। मुझ ेआज ब ुत काम करना ै, इसशलए शमल न सकूाँ गी। मैंने आज रात को अपना कतमव्य ष्स्थर कर शलया। मैं लज्जावती के बने-बनाए घर को उजाड़ना न ीिं चा ती। मुझ ेप ले य बात न मालूम थी, न ीिं तो ममें इतनी घननष्ठता न ोती। मेरा आपसे अनुरोि ै कक लज्जा का ाथ से न जाने दीष्जए। व नारी-रत्न ै। मैं जानती ूाँ कक मेरा रिंग-रप उससे कुछ अच्छा ै और कदाधचत आप उसी प्रलोभन में पड़ गए; लेककन मुझमें व त्याग,

व सेवा भाव, व आत्मोत्सगम न ीिं ै। मैं आपको प्रसन्न रख सकती ूाँ, पर आपके जीवन को उन्नत न ीिं कर सकती, उसे पववत्र और यशस्वी न ीिं बना सकती। लज्जा देवी ै, व आपको देवता बना देगी। मैं अपने को इस योग्य न ीिं समझती। कल मुझसे भेंट करना का ववचार न कीष्जए रोने-रुलाने से क्या लाभ। क्षमा कीष्जएगा।

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आपकी- सुशीला।

मैंने य पत्र लज्जा के ाथ में रख हदया। व पढकर बोली - मैं उससे आज ी शमलने जाऊाँ गी।

मैंने उसका आशय समझकर क ा - क्षमा करो, तुम् ारी उदारता की दसूरी बार परीक्षा न ीिं लेना चा ता।

य क कर मैं प्रोफेसर भाहटया के पास गया। व मोटर पर मुाँ फुलाए बैठे थे। मेरे बदले लज्जावती आई ोती तो उस पर जरर ी बरस पड़त।े

मैंने उनके पद स्पशम ककए और शसर झुका कर बोला - आपने मुझ ेसदैव अपना पुत्र समझा ै। अब उस नात ेको और भी दृढ कर दीष्जए।

प्रोफेसर भाहटया ने प ले तो मेरी ओर अववश्वासपूणम नेत्रों से देखा तब मुस्कराकर बोले - य तो मेरे जीवन की सबसे बड़ी अशभलाषा थी।

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दफ्तरी

रफाकत ुसेन मेरे दफ्तर का दफ्तरी था। 10रु. माशसक वेतन बाता था। दो-तीन रुपए बा र से फुटकर काम से शमल जात ेथे। य ी उसकी जीववका थी, पर व अपनी दशा पर सिंतुष्ट था। उसकी आिंतररक अवस्था तो ज्ञात न ीिं, पर व सदैव साफ-सुथरे कपड़ ेप नता और प्रसन्नधचत र ता। कजम इस शे्रणी के मनुष्यों का आभूषण ै। रफाकत पर इसका जाद ू न चलता थी। उसकी बातों में कृशमत्र शशष्टाचार की झलक भी न ोती। बेलाग और खरी क ता था। अमलों में जो बुराइयााँ देखता, साफ क देता। इसी साफगोई के कारण लोग उसका सम्मान ैशसयत से ज्यादा करत ेथे। उसे पशुओिं से ववशेष पे्रम था। एक घोड़ी, एक गाय,

कई बकररयााँ, एक बबल्ली और एक कुत्ता और कुछ मुधगमयााँ पाल रखी थी। इन पशुओिं पर जान देता था। बकररयों के शलए पष्त्तयााँ तोड़ लाता, घोड़ी के शलए घास छील लाता। यद्यवप उसे आए हदन मवेशीखाने के दशमन करने पड़त े थे,

और ब ुिा लोग उसके पशु-पे्रम की ाँसी उड़ात ेथे, पर व ककसी की न सुनता था और उसका य ननुःस्वाथम पे्रम था। ककसी ने उसे मुधगमयों के अिंड ेबेचत ेन ीिं देखा। उसकी बकररयों के बच्च े कभी बूचड़ की छुरी के नीच े न ीिं गए और उसकी घोड़ी ने कभी लगाम का मुाँ न ीिं देखा। गाय का दिू कुत्ता पीता था। बकरी का दिू बबल्ली के ह स्से में आता था। जो कुछ बचा र ता, व आप पीता था।

सौभाग्य से उसकी पत्नी भी साध्वी थी। यद्यवप उसकी घर ब ुत छोटा था, पर ककसी ने द्वार पर उसकी आवाज न ीिं सुनी। ककसी ने उसे द्वार पर झााँकत ेन ीिं देखा। व ग नों-कपड़ों के तगादों से पनत की नीिंद राम न करती थी। दफ्तरी उसकी पूजा करता था। व गाय का गोबर उठाती, घोड़ी को घास डालती, बबल्ली को अपने साथ बबठाकर खखलाती, य ााँ तक कक कुत्त ेको न लाने से भी उसे घणृा न ीिं ोती थी।

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बरसात था, नहदयों में बाढ आई ुई थी। दफ्तर के कममचारी मछशलयों का शशकार खेलने चले। शामत का मारा रफाकत भी उनके साथ ो शलया। हदन भर लोग शशकार खेला ककए, शाम को मसूलािार पानी बरसने लगा। कममचाररयों ने तो एक गााँव में रात काटी, दफ्तरी घर चला, पर अाँिेरी रात रा भूल गया और सारी रात भटकता कफरा। प्रातुःकाल घर प ुाँचा तो अभी अाँिेरा ी था, लेककन दोनों द्वार-पट खुले ुए थे। उसका कुत्ता पूाँछ दबाए करुण-स्वर से करा ता ुआ आकर,

पैरों पर लोट गया। द्वार खुले देखकर दफ्तरी का कलेजा सन्न-से ो गया। घर में कदम रखे तो बबलकुल सन्नाटा था। दो-तीन बार स्त्री को पुकारा, ककिं तु कोई उत्तर न शमला। घर भााँय-भााँय कर र ा था। उसने दोनों कोठररयों में जाकर देखा। जब व ााँ भी उसका पता न शमला तो पशुशाला में गया। भीतर जात े ुए अज्ञात भय ो र ा था जो ककसी अाँिेरे खो में जाते ुए ोता ै। उसकी स्त्री व ीिं भूशम पर धचत्त पड़ी ुई थी। लक्षणों से अनुमान ोता था कक सााँप ने डस शलया ै।

दसूरे हदन रफाकत आया तो उसे प चानना मुष्श्कल था। मालूम ोता था, बरसों का रोगी ै। बबलकुल खोया ुआ, गुम-सुम बैठा र ा मानों ककसी दसूरी दनुनया में ै। सिंध्या ोत े ी व उठा और स्त्री की कब्र पर जाकर बैठ गया। अाँिेरा ो गया। तीन-चार घड़ी रात बीत गई, पर दीपक के हटमहटमात े ुए प्रकाश में उसी कब्र पर नैराश्य और दुुःख की मूनतम बना बैठा र ा, मानो मतृ्यु की रा देख र ा ो। मालूम न ीिं कब घर आया। अब य ी उसका ननत्य का ननयम ो गया। प्रातुःकाल उठकर मजार पर जाता, झाडू लगाता, फूलों के ार चढाता, लोबान जलाता और नौ बजे तक कुरान का पाठ करता, सिंध्या समय कफर य ी क्रम शुर ोता। अब य ी उसके जीवन का ननयशमत कमम था। अब व अिंतजमगत में बसता था। बाह्य जगत से उसने मुाँ मोड़ शलया था। शोक ने ववरक्त कर हदया था।

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कई म ीने तक य ी ाल र ा। कममचाररयों को दफ्तरी से स ानुभूनत ो गई थी। उसके काम कर लेते, उसे कष्ट न देत।े उसकी पत्नी-भष्क्त पर लोगों को ववस्मय ोता था

लेककन मनुष्य सवमदा प्राणलोक में न ीिं र सकता। व ााँ का जलवायु उसके अनुकूल न ीिं। व ााँ व रपमय, रसमय, भावनाएाँ क ााँ? ववराग में व धचिंतामय उल्लास क ााँ? व आशामय आनिंद क ााँ? दफ्तरी को आिी रात तक ध्यान में डूबे र ने के बाद चूल् ा जलाना पड़ता, प्रातुःकाल पशुओिं की देखभाल करनी पड़ती ै। य बोझा उसके शलए असह्य था। अवस्था ने भावुकता पर ववजय पाई। मरुभूशम के प्यासे पधथक की भााँनत दफ्तरी कफर दािंपत्य-सुख जल स्रोत की ओर दौड़ा। व कफर जीवन का य ी सुखद अशभनय देखना चा ता था। पत्नी की स्मनृत दािंपत्य-सुख के रप में ववलीन ोने लगी। य ााँ तक कक छ म ीने में उस ष्स्थनत का धचह्न भी शेष न र ा।

इस मु ल्ले के दसूरे शसरे पर बड़ ेसा ब का एक अरदली र ता था। उसके य ााँ से वववा की बातचीत ोने लगी, शमयााँ रफाकल फूले न समाए। अरदली सा ब का सम्मान मु ल्ले में ककसी वकील से कम न था। उनकी आमदनी पर अनेक कल्पनाएाँ की जाती थी। सािारण बोलचाल में क ा जाता था - जो कुछ शमल जाए व थोड़ा ै। व स्वयिं क ा करत ेथे कक तकाबी के हदनों में मुझ ेजेब की जग थैली रखनी पड़ती थी। दफ्तरी ने समझा भाग्य उदय ुआ। इस तर टूटे,

जैसे बच्च े खखलौने पर टूटत े ैं। एक ी सप्ता में सारा वविान पूरा ो गया और नवविू घर में आ गई। जो मनुष्य कभी एक सप्ता प ले सिंसार से ववरक्त, जीवन से ननराश बठैा ो, उसे मुाँ पर से रा डाले घोड़ े पर सवार नवकुसुम की भााँनत ववकशसत देखना मानव-प्रकृनत की एक ववलक्षण वववेचना थी।

ककिं तु एक ी अछवारे में नवविू के जौ र खुलने लगे। वविाता ने उसे रपेंहद्रय से विंधचत रखा था। पर उसकी कसर पूरी करने के शलए अनत तीक्ष्ण वाक्येंहद्रय

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प्रदान की थी। इसका सबूत उसकी व वाक्पुटता थी जो अब ब ुिा पड़ोशसयों को ववनोहदत और दफ्तरी को अपमाननत ककया करती थी। उसने आठ हदन तक दफ्तरी के चररत्र का ताष्त्त्वक दृष्ष्ट से अध्ययन ककया और तब एक हदन उससे बोली - तुम ववधचत्र जीव ो। आदमी पशु पालता ै अपने आराम के शलए न कक जिंजाल के शलए। य क्या कक गाय का दिू कुत्त ेवपयें, बकररयों का दिू बबल्ली चट कर जाए। आज से सब दिू घर में लाया करो।

दफ्तरी ननरुत्तर ो गया। दसूरे हदन घोड़ी का रानतब बिंद ो गया। व चने अब भाड़ में भुनने और नमक-शमचम से खाए जाने लगे। प्रातुःकाल ताजे दिू का नाश्ता ोता, आए हदन तस्मई बनती। बड़ ेघर की बेटी, पान बबना क्योंकर र ती?

घी, मसाले का भी खचम बढा। प ले ी म ीने में दफ्तरी को ववहदत ो गया कक मेरी आमदनी गुजर के शलए काफी न ीिं ै। उसकी दशा उस मनुष्य की-सी थी, जो शक्कर के िोखे में कुनैन फााँक गया ो।

दफ्तरी बड़ी िममपरायण मनुष्य था। दो-तीन म ीने तक य ववषम वेदना स ता र ा। पर उसकी सूरत उसकी अवस्था को शब्दों से अधिक व्यक्त कर देती थी। व दफ्तरी जो अभाव में भी सिंतोष का आनिंद उठाता था, अब धचिंता की सजीव मूनतम था। कपड़ ेमैले, शसर के बाल बबखरे ुए, चे रे पर उदासी छाई ुई, अ ननमश ाय- ाय ककया करता था। उसकी गाय अब ड्डडयों का ढााँचा थी, घोड़ी को जग से ह लना कहठन था, बबल्ली पड़ोशसयों के छीिंको पर उचकती और कुत्ता घूरों पर ड्डडयााँ नोचता कफरता था। पर अब भी व ह म्मत का िनी इन पुराने शमत्रों को अलग न करता था। सबसे बड़ी ववपष्त्त पत्नी की व वाक्प्रचुरता थी ष्जसके सामने कभी उसका िैयम, उसकी कममननष्ठा, उसकी उत्सा शीलता प्रस्थान कर जाती और अपनी अाँिेरी कोठरी के एक कोने में बैठकर खूब फूट-फूटकर रोता। सिंतोष के आनिंद को दलुमभ पाकर रफाकत का पीडड़त हृदय उच्छृिंखलता की ओर प्रवतृ्त ुआ। आत्माशभमान जो सिंतोष का प्रसाद ै, उसके धचत्त से लुप्त ो चुका था। उसने फाकेमस्ती का पथ ग्र ण ककया। अब उसके पास पानी रखने के शलए

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कोई बरतन न था। व उस कुएाँ से पानी खीिंचकर उसी दम पी जाना चा ता था ष्जसमें व जमीन पर ब न जाए। वेतन पाकर अब व म ीने भर का सामान जुटाता, ठिंड े पानी और रखी रोहटयों से अब उसे तस्कीन न ोती, बाजार से बबस्कुट लाता, मलाई के दोनों और कलमी आमों की ओर लपकता। दस रुपए की भुगत ी क्या? एक सप्ता में सब रुपए उड़ जाते, तब ष्जल्दबिंहदयों की पेशगी पर ाथ बढाता, कफर दो-एक उपवास ोता, अिंत में उिार मााँगने लगता। शनैुःशनैुः य दशा ो गई कक वेतन देनदारों ी के ाथों में चला जाता और म ीने के प ले ी हदन से कजम लेना शुर करता। व प ले दसूरों को शमतव्ययता का उपदेश हदया करता था, अब लोग उसे समझाते, पर व लापरवा ी से क ता - सा ब, आज शमलता ै खाते ै कल का खुदा माशलक ै; शमलेगा खाएिंगे न ीिं पड़कर सो र ेंगे। उसकी अवस्था अब उस रोगी-सी ो गई जो आरोग्य लाभ से ननराश ोकर पथ्यापथ्य का ववचार त्याग दे, ष्जसमें मतृ्यु आने तक व भोज्य-पदाथों से भली-भााँनत तपृ्त ो जाए।

लेककन अभी तक उसने घोड़ी और गाय न बेची, य ााँ तक कक एक हदन दोनों मवेशीखाने में दाखखल ो गई। बकररयााँ भी तषृ्णा व्याघ्र के पिंजे में फाँ स गई। पोलाव और जरदे के चस्के ने नानबाई को ऋणी बना हदया था। जब उसे मालमू ो गया कक नगद रुपए वसूल न ोंगे तो एक हदन सभी बकररयााँ ााँक ले गया। दफ्तरी मुाँ ताकता र गया। बबल्ली ने भी स्वाशमभष्क्त से मुाँ मोड़ा। गाय और बकररयों के जाने के बाद अब उसे दिू के बरतनों को चाटने की भी आशा न र ी, जो उसके स्ने -बिंिन का अिंनतम सूत्र था। ााँ, कुत्ता पुराने सद्व्यव ारों की याद करके अभी तक आत्मीयता का पालन करता जाता था, ककिं तु उसकी सजीवता ववदा ो गई थी। य व कुत्ता न था ष्जसके सामने द्वार पर ककसी अपररधचत मनुष्य या कुत्त ेका ननकल जाना असिंभव था। व अब भी भूकता था, लेककन लेटे-लेटे और प्रायुः छाती में शसर नछपाए, मानो अपनी वतममान ष्स्थनत पर रो र ा ो। या तो उसमें अब उठने की शष्क्त ी न थी, या व धचरकालीन कृपाओिं के शलए इतना कीनतमगान पयामप्त समझता था।

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सिंध्या का समय था। मैं द्वार पर बैठा ुआ पत्र पढ र ा था कक अकस्मात दफ्तरी को आत ेदेखा। कदाधचत कोई ककसान सम्मन पाने वाले चपसारी से भी इतना भयभीत न ोगा, बाल-वृिंद टीका लगाने वाले से भी इतना न डरत े ोंगे। मैं अव्यवष्स्थत ोकर उठा और चा ा कक अिंदर जा कर द्वार बिंद कर लूाँ कक इतने में दफ्तरी लपककर सामने आ प ुाँचा। अब कैसे भागता? कुसी पर बैठ गया, पर नाक-भौं चढाए ुए। दफ्तरी ककसशलए आ र ा था इसमें मुझ ेलेशमात्र भी शिंका न थी। ऋणेच्छुओिं की हृदय-चषे्टा उनकी मुखाकृनत पर, उनके आचार-ववचार पर उज्जवल रिंगों से अिंककत ोता ै। व एक ववशेष नम्रता, सिंकोचमय परवशता ोती ै ष्जसे एक बार देखकर कफर न ीिं भुलाया जा सकता।

दफ्तरी ने आत े ी बबना ककसी प्रस्तावना के अशभप्राय क सुनाया जो मुझे प ले ी ज्ञात ो चुका था।

मैंने रुखाई से उत्तर हदया - मेरे पास रुपए न ीिं ैं।

दफ्तरी ने सलाम ककया और उल्टे पााँव लौटा। उसके च ेरे पर ऐसी दीनता और बेकसी छाई थी कक मुझ ेउस पर दया आ गई। उसका इस भााँनत बबना कुछ क े-सुने लौटना ककतना सारपूणम था! इसमें लज्जा था, सिंतोष था, पछतावा था। उसके मुाँ से एक शब्द भी न ननकलता, लेककन उसका च ेरा क र ा था, मुझ ेववश्वास था कक आप य ी उत्तर देंगे! इसमें मुझ े जरा भी सिंदे न था। लेककन य जानत े ुए भी मैं य ााँ तक आया, मालूम न ीिं क्यों? मेरी समझ में स्वयिं न ीिं आता। कदाधचत आपकी दयाशीलता, आपकी वात्सल्यता मुझे य ााँ तक लाई। अब जाता ूाँ, व मुाँ ी न ीिं र ा कक अपनी कुछ कथा सुनाऊाँ ।

मैंने दफ्तरी को आवाज दी - जरा सुनो तो क्या काम ै?

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दफ्तरी को कुछ उम्मेद ुई। बोला - आपसे क्या अजम कराँ , दो हदन से उपवास ो र ा ै।

मैंने बड़ी नम्रता से समझाया - इस तर कजम लेकर कै हदन तुम् ारा काम चलेगा। तुम समझदार आदमी ो, जानत े ो कक आजकल सभी को अपनी कफक्र सवार र ती ै। ककसी के पास फालतू रुपए न ीिं र त ेऔर यहद ों भी तो व ऋण देकर रार क्यों लेने लगा। तुम अपनी दशा सुिारत ेक्यों न ीिं।

दफ्तरी ने ववरक्त भाव से क ा - य सब हदनों का फेर ै। और क्या क ूाँ। जो चीज म ीने भर के शलए लाता ूाँ व एक हदन में उड़ जाती ै, मैं घरवाली के चटोरेपन से लाचार ूाँ। अगर एक हदन दिू न शमले तो म नामथ मचा दे, बाजार से शमठाइयााँ न लाऊाँ तो घर में र ना मुष्श्कल ो जाए, एक हदन गोश्त न पके तो मेरी बोहटयााँ नोच खाए। खानदान का शरीफ ूाँ। य बेइज्जती न ीिं स ी जाती कक खाने के पीछे स्त्री से झगड़ा-तकरार कराँ । जो कुछ क ती ै शसर के बल पूरा करता ूाँ। अब खुदा से य ी दआु ै कक मुझ ेइस दनुनया से उठा ले। इसके शसवाय मुझ ेदसूरी कोई सूरत न ीिं नजर आता, सब कुछ करके ार गया।

मैंने सिंदकू से 5 रु. ननकाले और उसे देकर बोला - य लो, य तुम् ारे पुरुषाथम का इनाम ै। मैं न ीिं जानता था कक तुम् ारा हृदय इतना उदार, इतना वीररसपूणम ै।

ग ृदा में जलनेवाले वीर, रणक्षेण के वीरों से कम म त्त्वशाली न ीिं ोत।े

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ववध्वंस

ष्जला बनारस में बीरा नाम का एक गााँव ै। व ााँ एक वविवा वदृ्धा, सिंतान ीन,

गोंडड़न र ती थी, ष्जसका भुनगी नाम था। उसके पास एक िुर भी जमीन न थी और न र ने का घर ी था। उसके जीवन का स ारा केवल एक भाड़ था। गााँव के लोग प्रायुः एक बेला चबैना या सत्तू पर ननवाम करत े ी ै, इसशलए भुनगी के भाड़ पर ननत्य भीड़ लगी र ती थी। व जो कुछ भुनाई पाती व ी भून या पीस कर खा लेती और भाड़ ी की झोंपड़ी के एक कोने पर पड़ र ती। व प्रातुःकाल उठती और चारों ओर से भाड़ झोंकने के शलए सूखी पष्त्तयााँ बटोर लाती। भाड़ के पास ी, पष्त्तयों का एक बड़ा ढेर लगा र ता था। दोप र के बाद उसका भाड़ जलता था। लेककन जब एकादशी या पूणममासी के हदन प्रथानुसार भाड़ न चलता, या गााँव के जमीिंदार पिंडडत उदयभान पााँड े के दाने भूनने पड़ते, उस हदन उसे भूखे ी सो र ना पड़ता था। पिंडडत जी उससे बेगार में दाने ी न भुनवात े थे, उसे उसके घर का पानी भी भरना पड़ता था। और कभी-कभी इस ेतु से भी भाड़ बिंद र ता था। व पिंडडत जी के गााँव में र ती थी, इसशलए उन् ें उससे सभी प्रकार की बेगार लेने का अधिकार था। उसे अन्याय न ीिं क ा जा सकता। अन्याय केवल इतना था कक बेगार सूखी लेत ेथे। उनकी िारणा य थी कक जब खाने ी को हदया गया तो बेगार कैसी। ककसान को अधिकार ै कक बैलों को हदन भर जोतने के बाद शाम को खूाँटे से भूखा बााँि दे। यहद व ऐसा न ीिं करता तो य उसकी दयालुता न ीिं ै, केवल अपनी ह त की धचिंता ै। पिंडडत जी को उसकी धचिंता न थी क्योंकक एक तो भुनगी दो-एक हदन भूखी र ने से मर न ीिं सकती थी और यहद दैवयोग से मर भी जाती तो उसकी जग दसूरा गोंड़ बड़ी आसानी से बसाया जा सकता था। पिंडडत जी की य ी क्या कम कृपा थी कक व भुनगी को अपने गााँव में बसाये ुए थे।

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चैत का म ीना था और सिंक्रािंनत का पवम। आज के हदन नए अन्न का सत्तू खाया और दान हदया जाता ै। घरों में आग न ीिं जलती। भुनगी का भाड़ आज बड़ ेजोरों पर था। उसके सामने एक मेला-सा लगा ुआ था। सााँस लेने का भी अवकाश न था। गा कों का जल्दबाजी पर कभी-कभी झुाँझला पड़ती थी कक इतने में जमीिंदार सा ब के य ााँ से दो बड़े-बड़ ेटोकरे अनाज से भरे ुए आ प ुाँच ेऔर ुक्म ुआ कक अभी भून दे। भुनगी दोनों टोकरे देख कर स म उठी। अभी दोप र था पर सूयामस्त के प ले इतना अनाज भुनना असिंभव था। घड़ी दो घड़ी और शमल जात े तो एक अठवारे के खाने भर को अनाज ाथ आता। दैव से इतना भी न देखा गया, इन यमदतूों को भेज हदया। अब प र रात तक सेंतमेंत में भाड़ में जलना पड़गेा; एक नैराश्य भाव से दोनों टोकरे ले शलये।

चपरासी ने डााँट कर क ा - देर न लगे, न ीिं तो तुम जानती ो।

भुनगी - य ीिं बैठे र ो, जब भनु जाए तो ले कर जाना। ककसी दसूरे के दाने छुऊाँ तो ाथ काट लेना।

चपरासी - बैठने की में छुट्टी न ीिं ै, लेककन तीसरे प र तक दाना भुन जाए।

चपरासी ताकीद कर के चलते बने और भुनगी अनाज भूनने लगी। लेककन मन भर अनाज भूनना कोई ाँसी तो थी न ीिं, उस पर बीच-बीच में भुनाई बिंद करके भाड़ भी झोंकना पड़ता था। अतएव तीसरा प र ो गया और आिा काम भी न ुआ। उसे भय ुआ कक जमीिंदार के आदमी आत े ोंगे। आत े ी गाशलयााँ देंगे,

मारेंगे। उसने वेग से ाथ चलाना शुर ककया। रास्त ेकी ओर ताकती और बालू नााँद में छोड़ती जाती थी। य ााँ तक की बालू ठिंड़ी ो गई, सेवड़ ेननकलने लगे। उसकी समझ में न आता था, क्या करे। न भूनत ेबनता था न छोड़त ेबनता था। सोचने लगी कैसी ववपष्त्त ै। पिंडडत जी कौन मेरी रोहटयााँ चला देत े ै, कौन मेरे आाँसू पोंछ देत े ै। अपना रक्त जलाती ूाँ तब क ी दाना शमलता ै। लेककन जब देखो खोपड़ी पर सवार र त े ै, इसशलए न कक उनकी चार अिंगुल िरती से मेरा ननस्तार ो र ा ै। क्या इतनी-सी जमीन का इतना मोल ै? ऐसे ककतने ी

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टुकड़ ेगााँव में बेकार पड़ े ै, ककतनी बखररयााँ उजाड़ पड़ी ुई ै। व ााँ तो केसर न ीिं उपजती कफर मुझी पर क्यों य आठों प र िोंस र ती ै। कोई बात ुई और य िमकी शमली कक भाड़ खोद कर फें क दूाँगा, उजाड़ दूाँगा, मेरे शसर पर भी कोई ोता तो क्या बौछारें स नी पड़ती।

व इन् ीिं कुष्त्सत ववचारों में पड़ी ुई थी कक दोनों चपराशसयों ने आकर ककम श स्वर में क ा - क्यों री, दाने भुन गए।

भुनगी ने ननडर ोकर क ा - भून तो र ी ूाँ। देखत ेन ीिं ो।

चपरासी - सारा हदन बीत गया और तुमसे इतना अनाज न भूना गया? य तू दाना भून र ी ै कक उसे चौपट कर र ी ै। य तो बबलकुल सेवड़ े ै, इनका सत्तू कैसे बनेगा। मारा सत्यानाश कर हदया। देख तो आज म ाराज तरेी क्या गनत करत े ै।

पररणाम य ुआ कक उसी रात को भाड़ खोद डाला गया और व अभाधगनी वविवा ननरावलम्ब ो गई।

3

भुनगी को अब रोहटयों का कोई स ारा न र ा। गााँववालों को भी भाड़ के ववध्विंस ो जाने से ब ुत कष्ट ोने लगा। ककतने ी घरों में दोप र को दाना ी न मयस्सर ोता। लोगों ने जा कर पिंडडत जी से क ा कक बुहढया को भाड़ जलाने की आज्ञा दे दीष्जए, लेककन पिंडडत जी ने कुछ ध्यान न हदया। व अपना रोब न घटा सकत ेथे। बुहढया से उसके कुछ शुभधचिंतकों ने अनुरोि ककया कक जा कर ककसी दसूरे गााँव में क्यों न ीिं बस जाती। लेककन उसका हृदय इस प्रस्ताव को स्वीकार न करता। इस गााँव में उसने अपने अहदन के पचास वषम काटे थे। य ााँ

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के एक-एक पेड़-पत्त ेसे उसे पे्रम ो गया था! जीवन के सुख-दुुःख इसी गााँव में भोगे थे। अब अिंनतम समय व इसे कैसे त्याग दे! य कल्पना ी उसे सिंकटमय जान पड़ती थी। दसूरे गााँव के सुख से य ााँ का दुुःख भी प्यारा था।

इस प्रकार एक पूरा म ीना गुजर गया। प्रातुःकाल था। पिंडडत उदयभान अपने दो-तीन चपराशसयों के शलये लगान वसूल करने जा र े थे। काररिंदों पर उन् ें ववश्वास न था। नजराने में, डााँड-बााँि में, रसूम में व ककसी अन्य व्यष्क्त को शरीक न करत े थे। बुहढया के भाड़ की ओर ताका तो बदन में आग-सी लग गई। उसका पुनरुद्धार ो र ा था। बुहढया बड़ ेवेग से उस पर शमट्टी ले लोंदे रख र ी थी। कदाधचत उसने कुछ रात र त े ी काम में ाथ लगा हदया था और सूयोदय से प ले ी उसे समाप्त कर देना चा ती थी। उसे लेशमात्र भी शिंका न थी कक मैं जमीिंदार के ववरुद्ध कोई काम कर र ी ूाँ। क्रोि इतना धचरजीवी ो सकता ै इसका समािान भी उसके मन में न था। एक प्रनतभाशाली पुरुष ककसी दीन अबला से इतनी कीना रख सकता ै उसे उसका ध्यान भी न था। व स्वभावतुः मानव-चररत्र को इससे क ीिं ऊाँ चा समझती थी। लेककन ा! तभाधगनी! तूने िूप में बाल सफेद ककए।

स सा उदयभान ने गरज कर क ा - ककसके ुक्म से?

भुनगी के कबका कर देखा तो सामने जमीिंदार म ोदय खड़े ै।

उदयभान ने कफर पूछा - ककसके ुक्म से बना र ी ै?

भुनगी डरत े ुए बोली - सब लोग क ने लगे बना लो, तो बना र ी ूाँ।

उदयभान - मैं अभी इसे कफर खुदवा डालूाँगा। य क कर उन् ोंने भाड़ पर एक ठोकर मारी। गीली शमट्टी सब कुछ शलए हदए बैठ गई। दसूरी ठोकर नााँद पर चलाई लेककन बुहढया सामने आ गई और ठोकर उसकी कमर पर पड़ी। अब उसे क्रोि आया। कमर स लात े ुए बोली - म ाराज, तुम् ें आदमी का डर न ीिं ै तो

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भगवान का डर तो ोना चाह ए। मुझ ेइस तर उजाड़ कर क्या पाओगे? क्या इस चार अिंगुल िरती में सोना ननकल आएगा? मैं तुम् ारे भले की क ती ूाँ, दीन की ाय मत लो। मेरा रोआाँ दखुी मत करो।

उदयभान - अब तो य ााँ कफर भाड़ न बनाएगी?

भुनगी - भाड़ न बनाऊाँ गी तो खाऊाँ गी क्या?

उदयभान - तरेे पेट का मने ठेका न ीिं शलया ै।

भुनगी - ट ल तो तुम् ारी करती ूाँ खाने क ााँ जाऊाँ ?

उदयभान - गााँव में र ोगी तो ट ल करनी पड़गेी।

भुनगी - ट ल तो तभी कराँ गी जब भाड़ बनाऊाँ गी। गााँव में र ने के नात ेट ल न ीिं कर सकती।

उदयभान - तो छोड़ कर ननकल जा।

भुनगी - क्यों छोड़ कर ननकल जाऊाँ । बार साल खेत जोतने से असामी काश्तकार ो जाता ै। मैं तो इस झोंपड़ ेमें बुढी ो गई। मेरे सास-ससुर और उनके बाप-दादे इसी झोंपड़ ेमें र े। अब इसे यमराज को छोड़कर और कोई मुझ से न ीिं ले सकता।

उदयभान - अच्छा तो अब कानून भी बिारने लगी। ाथ-पैर पड़ती तो चा े मैं र ने भी देता, लेककन अब तुझे ननकाल कर तभी दम लूाँगा। (चपराशसयों से) अभी जा कर उसके पष्त्तयों में आग लगा दो, देखें कैसे भाड़ बनता ै.

एक क्षण में ा ाकर मच गया। ज्वाला-शशखर आकाश से बातें करने लगा। उसकी लपटें ककसी उन्मत्त की भााँनत इिर-उिर दौड़ने लगी। सारे गााँव के लोग

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उस अष्ग्न-पवमत के चारों ओर जमा ो गए। भुनगी अपने भाड़ के पास उदासीन भाव से खड़ी य लिंकाद न देखती र ी। अकस्मात व वगे से आ कर उसी अष्ग्न-कुिं ड में कूद पड़ी। लोग चारों तरफ से दौड़,े लेककन ककसी की ह म्मत न पड़ी की आग के मुाँ में जाए। क्षणमात्र में उसका सखूा शरीर अष्ग्न में समाववष्ट ो गया.

उसी दम पवन भी वेग से चलने लगा। ऊध्वमगामी लपटें पूवम हदशा की ओर दौड़ने लगी। भाड़ के समीप ी ककसानों की झोंपडड़यााँ थी, व सब उन्मत्त ज्वालाओिं का ग्रास बन गई। इस भााँनत उत्साह त ोकर लपटें और आगे बढीिं। सामने पिंडडत उदयभान की बखार थी, उस पर झपटीिं। अब गााँव में लचल पड़ी। आग बुझाने की तैयाररयााँ ोने लगीिं। लेककन पानी के छीिंटों ने आग में तले का काम ककया। ज्वालाएाँ और भड़की और पिंडडत जी के ववशाल भवन को दबोच बैठीिं। देखत े ी देखत ेव भवन उस नौका की भााँनत जो उन्मत्त ल रों के बीच में झकोरे खा र ी ो, अष्ग्न-सागर में ववलीन ो गया और व क्रिं दन जो उसके भस्मावशेष में प्रस्फुहटत ोने लगे, भुगनी के शोकमय ववलाप से भी अधिक करुणाकारी थी।

***

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सवत्व-रक्षा

मीर हदलावर अली के पास एक बड़ी रास का कुम्मैत घोड़ा था। क त ेतो व य ी थे कक मैंने अपनी ष्जिंदगी की आिी कमाई इस पर खचम की ै, पर वास्तव में उन् ोंने य पलटन में सस्त ेदामों मोल शलया था। यों कह ए कक य पलटन का ननकाला ुआ घोड़ा था। शायद पलटन के अधिकाररयों ने इसे अपने य ााँ रखना उधचत न समझ कर नीलाम कर हदया था। मीर सा ब कच री में मो ररमर थे। श र के बा र मकान था। कच री तक आने में तीन मील की मिंष्जल तय करनी पड़ती थी, एक जानवर की कफक्र थी। य घोड़ा सुभीत ेमें शमल गया, ले शलया। वपछले तीन वषों से व मीर सा ब की ी सवारी में था। देखने में तो उसमें कोई ऐब न था, पर कदाधचत आत्म-सम्मान की मात्रा अधिक थी। उसे उसकी इच्छा के ववरुद्ध या अपमान-सूचक काम में लगाना दसु्तर था। खैर, मीर सा ब ने सस्त े दामों में कलााँ रास का घोड़ा पाया, तो फूले न समाए। लाकर द्वार पर बााँि हदया। साईस का इिंतजाम करना कहठन था। बेचारे खुद ी शाम-सबेरे उसपर दो-चार ाथ फेर लेत ेथे। शायद घोड़ा इस सम्मान से प्रसन्न ोता था। इसी कारण रानतब की मात्रा ब ुत कम ोने पर भी व असिंतुष्ट न ीिं जान पड़ता था। उसे मीर सा ब से कुछ स ानुभूनत ो गई थी। इस स्वाशमभष्क्त में उसका शरीर ब ुत क्षीण ो चुका था; पर व मीर सा ब को ननयत समय पर प्रसन्नतापूवमक कच री प ुाँचा हदया करता था। उसकी चाल उसके आष्त्मक सिंतोष की द्योतक थी। दौड़ना व अपनी स्वाभाववक गिंभीरता के प्रनतकूल समझता था। उसकी दृष्ष्ट में उच्छृिंखलता थी। स्वाशमभष्क्त में उसने अपने ककतने ी धचर-सिंधचत स्वत्वों का बशलदान कर हदया था। अब अगर ककसी स्वत्व से पे्रम था तो व रवववार का शािंनतननवास था। मीर सा ब इतवार को कच री न जात ेथे। घोड़ ेको मलत,े न लाते, तैरात े थे। इसमें उसे ाहदमक आनिंद प्राप्त ोता था। व ााँ कच री में पेड़ के नीच ेबाँिे ुए सूखी घास पर मुाँ मारना पड़ता था, लू से सारा शरीर झुलस जाता था; क ााँ इस हदन छप्परों की शीतल छााँ में री- री दबू खाने को शमलती थी। अतएव इतवार को आराम व अपना क समझता था

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और मुमककन न था कक कोई उसका य क छीन सके। मीर सा ब ने कभी-कभी बाजार जाने के शलए इस हदन उस पर सवार ोने की चषे्टा की, पर इस उद्योग में बुरी तर मुाँ की खायी। घोड़ ेने मुाँ में लगान तक न ली। अिंत में मीर सा ब ने अपनी ार स्वीकार कर ली। व उसके आत्म-सम्मान को आघात प ुाँचाकर अपने अवयवों को परीक्षा में न डालना चा त ेथे।

2

मीर सा ब के पड़ोस में एक मुिंशी सौदागरलाल र त ेथे। उनका भी कच री से कुछ सिंबिंि था। व मु ररमर न थे, कममचारी भी न थे। उन् ें ककसी ने कभी कुछ शलखते-पढत े न देखा था। पर उनका वकीलों और मुख्तारों के समाज में बड़ा मान था। मीर सा ब से उनकी दााँत-कटी रोटी थी।

जेठ का म ीना था। बारातों की िूम थी। बाजे वाले सीिे मुाँ बात न करत ेथे। आनतशबाज के द्वार पर गरज के बावले लोग चखी की भााँनत चक्कर लगात ेथे। भााँड़ और कथक लोगों को उाँगशलयों पर नचाता थे। पालकी के क ार पत्थर के देवता बने ुए थे, भेंट लेकर भी न पसीजत ेथे। इसी स ालोगों की िूम में मुिंशी जी ने भी लड़के का वववा ठान शलया। दबाववाले आदमी थे। िीरे-िीरे बारात का सब सामान जुटा तो शलया, पर पालकी का प्रबिंि न कर सके। क ारों ने ऐन वक्त पर बयाना लौटा हदया। मुिंशी जी ब ुत गरम पड़,े रजाने की िमकी दी, पर कुछ फल न ुआ। वववश ोकर य ी ननश्चय ककया कक वर को घोड़ ेपर बबठाकर वर-यात्रा की रस्म पूरी कर ली जाए। छ बज ेशाम को बारात चलने का मु ूतम था। चार बजे मुिंशी ने आकर मीर सा ब से क ा - यार अपना घोड़ा दे दो, वर को स्टेशन तक प ुाँचा दें। पालकी तो क ीिं शमलती न ीिं।

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मीरसा ब - आपको मालूम न ीिं, आज इतवार का हदन ै।

मुिंशी जी - मालमू क्यों न ीिं ै, पर आखखर घोड़ा ी तो ठ रा। ककसी न ककसी तर स्टेशन तक प ुाँचा ी देगा। कौन दरू जाना ै?

मीरसा ब - यों आपका जानवर ै ले जाइए। पर मुझ ेउम्मीद न ीिं कक आज व पुटे्ठ पर ाथ तक रखने दे।

मुिंशी जी - अजी मार के आगे भूत भागता ै। आप डरत े ै। इसशलए आप से बदमाशी करता ै। बच्चा पीठ पर बैठ जाएाँगे तो ककतना ी उछले-कूदे पर उन् ें ह ला न सकेगा।

मीरसा ब - अच्छी बात ै, जाइए। और अगर उसकी य ष्जद आप लोगों ने तोड़ दी, तो मैं आपका बड़ा ए सान मानूाँगा।

3

मगर ज्यों ी मुिंशी जी अस्तबल में प ुाँचे, घोड़ ेने शशिंक नेत्रों से देखा और एक बार ह नह ना कर घोवषत ककया कक तुम आज मेरी शािंनत में ववघ्न डालने वाले कौन ोत े ो। बाजे की िड़-िड़, पों-पों से व उत्तषे्जत ो र ा था। मुिंशी जी ने जब पग े को खोलना शुर ककया तो उसने कनौनतयााँ खड़ी की और अशभमानसूचक भाव से री- री घास खाने लगा।

लेककन मुिंशी जी भी चतुर खखलाड़ी थे। तुिंरत घर से थोड़ा-सा दाना माँगवाया और घोड़ े के सामने रख हदया। घोड़ े ने इिर ब ुत हदनों से दाने की सूरत न देखी थी। बड़ी रुधच से खाने लगा और तब कृतज्ञ नेत्रों से मुिंशी जी की ओर ताका, मानो अनुमनत दी कक मुझ ेआप के साथ चलने में कोई आपष्त्त न ीिं ै।

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मुिंशी जी के द्वार पर बाज े बजे र े थे। वर वस्त्राभूषण प ने ुए घोड़ े की प्रतीक्षा कर र ा था। मु ल्ले की ष्स्त्रयााँ उसे ववदा करने के शलए आरती शलये खड़ी थी। पााँच बज गए थे। स सा मुिंशी जी घोड़ा लात े ुए हदखाई हदए। बाज ेवालों ने आगे की तरफ कदम बढाया। एक आदमी मीर सा ब के घर से दौड़कर साज लाया।

घोड़ ेको खीिंचने की ठ री, मगर व लगाम देखकर मुाँ फेर लेता था। मुिंशी जी ने चुमकारा-पुचकारा, पीठ स लाई, कफर दाना हदखलाया। पर घोड़ ेने जब अब भी मुाँ में लगाम न ली, तो उन् ोंने उसके नथनों पर चाबुक के बेंत से कई बार मारा। नथनों से खून ननकलने लगा। घोड़ ेने इिर-उिर दीन और वववश आाँखों से देखा। समस्या कहठन थी। इतनी मार उसने कभी न खायी थी। मीर सा ब की अपनी चीज थी। य इतनी ननदमयता से कभी न पेश आत े थे। सोचा मुाँ न ीिं खोलता तो न ीिं मालूम और ककतनी मार पड़।े लगाम ले ली। कफर क्या था, मुिंशी जी की फत ो गई। उन् ोंने तुरिंत जीन भी कस दी। दलू् ा कूदकर घोड़ ेपर सवार ो गया।

4

जब वर ने घोड़ ेकी पीठ पर आसन जमा शलया, तो घोड़ा मानो नीिंद से जागा। ववचार करने लगा, थोड़े-से दाने के बदले अपने इस स्वत्व से ाथ िोना एक कटोरे कढी के शलए अपने जन्मशसद्ध अधिकारों को बेचना ै। उसे याद आया कक मैं ककतने हदनों से आज के हदन आराम करता र ा ूाँ, तो आज क्यों य बेगार कराँ ? ये लोग मुझ ेन जाने क ााँ ले जाएाँगे, लौंडा आसन का पक्का जान पड़ता ै,

मुझ ेदौड़ाएगा, एाँड़ लगाएगा, चाबुक से मार-मारकर अिमुाँआ कर देगा, कफर न जाने भोजन शमले या न ीिं। य सोच-ववचार कर उसने ननश्चय ककया कक मैं य ााँ से कदम न उठाऊाँ गा। य ी न ोगा मारेंगे, सवार को शलये ुए जमीन पर लोट जाऊाँ गा। आप ी छोड़ देंगे। मेरे माशलक मीर सा ब भी तो य ीिं क ीिं ोंगे। उन् ें

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मुझ पर इतनी मार पड़ती कभी पसिंद न आएगी कक कल उन् ें कच री भी न ले जा सकूाँ ।

वर ज्यों ी घोड़ ेपर सवार ुआ ष्स्त्रयों ने मिंगलगान ककया, फूलों की वषाम ुई। बारात के लोग आगे बढे। मगर घोड़ा ऐसा अड़ा कक पैर ी न ीिं उठाता। वर उसे एाँड़ लगाता ै, चाबुक मारता ै, लगाम को झटके देता ै, मगर घोड़ े के कदम मानों जमीन में ऐसे गड़ गए ैं कक उखड़ने का नाम न ीिं लेत।े

मुिंशी जी को ऐसा क्रोि आता था कक अपना जानवर ोता तो गोली मार देत।े शमत्र ने क ा - अडड़यल जानवर ै, यों न चलेगा। इसके पीछे से डिंड ेलगाओ,

आप दौड़गेा।

मुिंशी जी ने य प्रस्ताव स्वीकार कर शलया। पीछे से जाकर कई डिंड ेलगाए, पर घोड़ ेने पैर न उठाए, उठाए तो भी अगले पैर, और आकाश की ओर। दो-एक बार वपछले पैर भी, ष्जससे ववहदत ोता था कक व बबलकुल प्राण ीन न ीिं ै। मुिंशी जी बाल-बाल बच गए।

तब दसूरे शमत्र ने क ा - इसकी पूाँछ के पास एक जलता ुआ कुिं दा जलाओ,

आाँच के डर से भागेगा।

य प्रस्ताव भी स्वीकृत ुआ। फल य ुआ कक घोड़ ेकी पूाँछ जल गई। व दो-तीन बार उछला-कूदा पर आगे न बढा। पक्का सत्याग्र ी था कदाधचत इन यिंत्रणाओिं ने उसके सिंकल्प को और भी दृढ कर हदया।

इतने में सूयामस्त ोने लगा। पिंडडत जी न क ा - जल्दी कीष्जए न ीिं तो मु ूतम टल जाएगा। लेककन अपने वश की बात तो थी न ीिं। जल्दी कैसे ोती। बाराती लोग गााँव के बा र जा प ुाँचे। य ााँ ष्स्त्रयों और बालकों का मेला लग गया। लोग क ने लगे - कैसा घोड़ा ै कक पग ी न ीिं उठाता। एक अनुभवी म ाशय ने क ा - मार-पीट से काम न चलेगा। थोड़ा-सा दाना माँगवाइए। एक आदमी

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इसके सामने तोबड़ ेमें दाना हदखाता ुआ चले। दाने के लालच में खट-खट चला जाएगा। मुिंशी जी ने य उपाय भी करके देखा पर सफल मनोरथ न ुए। घोड़ा अपने स्वत्व को ककसी दाम पर बेचना न चा ता था। एक म ाशय ने क ा - इसे थोड़ी से शराब वपला दीष्जए, नशे में आकर खूब चौकडड़यााँ भरने लगेगा। शराब की बोतल आई। एक तसले में शराब उाँ ड़ले कर घोड़ ेके सामने रखी गई,

पर उसने सूाँघी तक न ीिं।

अब क्या ो? धचराग जल गए मु ुतम टल चुका था। घोड़ा य नाना दगुमनतयााँ स कर हदल में खुश ोता और अपने सुख में ववघ्न डालनेवाले की दरुवस्था और व्यग्रता का आनिंद उठा र ा था। उसे इस समय इन लोगों की प्रयत्नशीलता पर एक दाशमननक आनिंद प्राप्त ो र ा था। देखें आप लोग अब क्या करत े ै। व जानता था कक अब मार खाने की सिंभावना न ीिं ै। लोग जान गए ै कक मारना व्यथम ै। व केवल अपनी सुयुष्क्तयों की वववेचना कर र ा था।

पााँचवें सज्जन ने क ा - अब एक ी तरकीब ै। व जो खते में खाद फें कने की दो-पह या गाड़ी ोती ै, उसे घोड़ ेके सामने लाकर रखखए। इसके दोनों अगले पैर उसमें रख हदये जाएाँ और म लोग गाड़ी को खीिंचें। तब तो जरर ी उसके पैर उठ जाएिंगे। अगले पैर आगे बढे तो वपछले पैर भी झख मारकर उठें गे ी। घोड़ा चल ननकलेगा।

मुिंशी जी डूब र े थे। कोई नतनका स ारे के शलए काफी था। दो आदमी गए। दो-पह या गाड़ी ननकाल लाए। वर ने लगाम तानी। चार-पााँच आदमी घोड़ ेके पास डिंड े लेकर खड़ े ो गए। दो आदशमयों ने उसके अगले पााँव जबरदस्ती उठाकर गाड़ी पर रक्खे। घोड़ा अभी तक य समझ र ा था कक मैं य उपाय भी न चलने दूाँगा, लेककन जब गाड़ी चली, तो उसके वपछले पैर आप ी आप उठ गए। उसे ऐसा जान पड़ा, मानों पानी में ब ा जा र ा ूाँ। ककतना ी चा ता था कक पैरों को जमा लूाँ पर कुछ अक्ल काम न करती थी। चारों और से शोर मचा - चला-चला। ताशलयााँ पड़ने लगी! लोग ठटे्ठ मार-मार ाँसने लगे। घोड़ े को य

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उप ास असह्य था, पर करता क्या? ााँ, उसने िैयम न छोड़ा। मन में सोचा इस तर क ााँ तक ले जाएिंगे। ज्यों ी गाड़ी रुकेगी मैं भी रुक जाऊाँ गा। मुझसे बड़ी भूल ुई मुझ ेगाड़ी पर पैर ी न रखना चाह ए था।

अिंत में व ी ुआ जो उसने सोचा था। ककसी तर लोगों ने सौ कदम तक गाड़ी खीिंची, आगे न खीिंच सके। सौ-दो सौ कदम ी खीिंचना ोता, तो शायद लोगों की ह म्मत बाँि जाती पर स्टेशन पूरे तीन मील पर था। इतनी दरू घोड़ ेको खीिंच ले जाना दसु्तर था। ज्यों ी गाड़ी रुकी घोड़ा भी रुक गया! वर ने कफर लगाम को झटके हदए, एाँड़ लगायी। चाबुकों की वषाम कर दी, पर घोड़ ेने अपनी टेक न छोड़ी। उसके नथनों से खून ननकल र ा था, चाबुकों से सारा शरीर नछल गया था, वपछले पैरों में घाव ो गए थे, पर व दृढ-प्रनतज्ञ घोड़ा अपनी आन पर अड़ा ुआ था।

5

पुरोह त ने क ा - आठ बज गए। मु ूतम टल गया। दीन-दबुमल घोड़ ेने मैदान मार शलया। मुिंशी जी क्रोिोंमत्त ोकर रो पड़।े वर एक कदम भी पैदल न ीिं चल सकता। वववा के अवसर पर भूशम पर पााँव रखना वष्जमत ै, प्रनतष्ठा भिंग ोती ै, ननिंदा ोती ै, कुल को कलिंक लगता ै पर अब पैदल चलने के शसवाय अन्य उपाय न था। आकर घोड़ े के सामने खड़े ो गए और कुिं हठत स्वर से बोले - म ाशय, अपना भाग्य बखानों कक मीर सा ब के घर ो। यहद मैं तुम् ारा माशलक ोता तो तुम् ारी ड्डी-पसली का पता न लगता। इसके साथ ी मुझ आज मालूम ुआ कक पशु भी अपनी स्वत्व की रक्षा ककस प्रकार कर सकता ै। मैं न जानता था, तुम व्रतिारी ो। बेटा, उतरो, बारात स्टेशन प ुाँच र ी ोगी। चलो पैदल ी चले। म आपस ी के दस-बार आदमी ै, ाँसने वाला कोई न ीिं। ये रिंगीन कपड़ ेउतार दो। रास्त ेमें लोग ाँसेगे कक पााँव-पााँव ब्या करने जाता ै। चल वे अडड़यल घोड़े, तुझ ेमीर सा ब के वाले कर आऊाँ ।

***

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पूवम-संसकार

सज्जनों के ह स्से में भौनतक उन्ननत कभी भूल कर ी आती ै। रामट ल ववलासी, दवु्यमसनी, चररत्र ीन आदमी थे, पर सािंसाररक व्यव ारों में चतुर, सूद-ब्याज के मामले में दक्ष और मुकदमे-अदालत में कुशल थे। उनका िन बढता था। सभी उनके असामी थे। उिर उन् ीिं के छोटे भाई शशवट ल सािु-भक्त, िमम-परायण और परोपकारी जीव थे। उनका िन घटता जाता था। उनके द्वार पर दो-चार अनतधथ बने र त े थे। बड़ ेभाई का सारे मु ल्ले में दबाव था। ष्जतने नीच शे्रणी के आदमी थे, उनका ुक्म पात े ी फौरन उनका काम करत ेथे। उनके घर की मरम्मत बेगार में ो जाती थी। ऋणी कुाँ जड़ ेसाग-भाजी भेंट में दे जात ेथे। ऋणी ग्वाला उन् ें बाजार-भाव से ड्योढा दिू देता। छोटे भाई का ककसी पर रोब न था। सािु-सिंत आत ेऔर इच्छापूणम भोजन करके अपनी रा लेत।े दो-चार आदशमयों को रुपए उिार हदये भी तो सूद के लालच में न ीिं, बष्ल्क सिंकट से छुड़ाने के शलए। कभी जोर देकर तगादा न करत ेकक क ीिं उन् ें दुुःख न ो।

इस तर कई साल गुजर गए। य ााँ तक की शशवट ल की सारी सिंपष्त्त परमाथम में उड़ गई। रुपए भी ब ुत डूब गए! उिर रामट ल ने नया मकान बनवा शलया। सोने-चााँदी की दकूान खोल ली। थोड़ी जमीन भी खरीद ली और खेती-बाड़ी भी करने लगे।

शशवट ल को अब धचिंता ुई। ननवाम कैसे ोगा? िन न था कक कोई रोजगार करत।े व व्यव ार बुवद्ध भी न थी, जो बबना िन के भी अपनी रा ननकाल लेती ै। ककसी से ऋण लेने की ह म्मत न पड़ती थी। रोजगार में घाटा ुआ तो देंगे क ााँ से? ककसी दसूरे आदमी की नौकरी भी न कर सकत ेथे। कुल-मयामदा भिंग ोती थी। दो-चार म ीने तो ज्यों-त्यों करके काटे, अिंत में चारों ओर से ननराश ोकर बड़ े भाई के पास गए और क ा - भैया, अब मेरे और मेरे पररवार के पालन का भार आपके ऊपर ै। आपके शसवा अब ककसकी शरण लूाँ?

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रामट ल ने क ा - इसकी कोई धचिंता न ीिं। तुमने कुकमम में तो िन उड़ाया न ीिं। जो कुछ ककया, उससे कुल-कीनतम ी फैली ै। मैं िूतम ूाँ; सिंसार को ठगना जानता ूाँ। तुम सीिे-सादे आदमी ो। दसूरों ने तुम् ें ठग शलया। य तुम् ारा ी घर ै। मैंने जो जमीन ली ै, उसकी त सील वसूल करो, खेती-बारी का काम साँभालो। म ीने में तुम् ें ष्जतना खचम पड़े, मुझसे ले जाओ। ााँ, एक बात मुझसे न ोगी। मैं सािु-सिंतों का सत्कार करने को एक पैसा भी न दूाँगा और न तुम् ारे मुाँ से अपनी ननिंदा सुनूाँगा।

शशवट ल ने गदगद किं ठ से क ा - भैया, मुझसे इतनी भूल अवश्य ुई कक मैं सबसे आपकी ननिंदा करता र ा ूाँ, उसे क्षमा करो। अब से मझु ेअपनी ननिंदा करत ेसुनना तो जो चा े दिंड देना। ााँ, आपसे मेरी एक ववनय ै। मैंने अब तक अच्छा ककया या बुरा, पर भाभी जी को मना कर देना कक उसके शलए मेरा नतरस्कार न करें।

रामट ल - अगर व कभी तुम् ें ताना देंगी, तो मैं उसकी जीभ खीिंच लूाँगा।

2

रामट ल की जमीन श र से दस-बार कोस पर थी। व ााँ एक कच्चा मकान भी था। बैल, गाड़ी, खेती की अन्य सामधग्रयााँ व ीिं र ती थी। शशवट ल ने अपना घर भाई को सौंपा और अपने बाल-बच्चों को लेकर गााँव चले गए। व ााँ उत्सा के साथ काम करने लगे। नौकरों ने काम में चौकसी की। पररश्रम का फल शमला। प ले ी साल उपज ड्योढी ो गई और खेती का खचम आिा र गया।

पर स्वभाव कैसे बदलें? प ले की तर तो न ीिं, पर अब भी दो-चार मूनतमयााँ शशवट ल की कीनतम सुनकर आ ी जाती थीिं। और शशवट ल को वववश ोकर उनकी सेवा और सत्कार करना ी पड़ता था। ााँ, अपने भाई से य बात नछपाते थे कक क ीिं व अप्रसन्न ोकर जीववका का य आिार भी न छीन लें। फल

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य ोता कक उन् ें भाई से नछपाकर अनाज, भूसा, खली आहद बेचना पड़ता। इस कमी को पूरी करने के शलए व मजदरूों से और भी कड़ी मे नत लेत ेथे और स्वयिं भी कड़ी मे नत करत।े िूप-ठिंड, पानी-बूाँदी की बबलकुल परवा न करत ेथे। मगर कभी इतना पररश्रम तो ककया न था। शरीर शष्क्त ीन ोने लगा। भोजन भी रखा-सूखा शमलता था। उस पर कोई ठीक समय न ीिं। कभी दोप र को खाया, कभी तीसरे प र। कभी प्यास लगी, तो तालाब का पानी पी शलया। दबुमलका रोग का पूवम रप ै। बीमार पड़ गए। दे ात में दवा-दार की सुभीता न था। भोजन में भी कुपथ्य करना पड़ता था। रोग ने जड़ पकड़ ली। ज्वर ने प्ली ा का रप िारण ककया और प्ली ा ने छ म ीने में काम तमाम कर हदया।

रामट ल ने य शोक-समाचार सुना, तो उन् ें बड़ा दुुःख ुआ। इन तीन वषों में उन् ें एक पैसे का नाज न ीिं लेता पड़ा। गुड़, घी, भूसा-चारा, उपले-ईिन सब गााँव से चला आता था। ब ुत रोये पछतावा ुआ कक मैंने भाई की दवा-दरपन की कोई कफक्र न ीिं की; अपने स्वाथम की धचिंता में उसे भूल गया। लेककन मैं क्या जानता था कक मलेररया का ज्वर प्राणघातक ी ोगा! न ीिं तो यथाशष्क्त अवश्य इलाज करता। भगवान की य ी इच्छा थी कफर मेरा क्या वश!

3

अब कोई खेती को साँभालने वाला न था। इिर रामट ल को खेती का मजा शमल गया था! उस पर ववलाशसता ने उसका स्वास्थ्य भी नष्ट कर डाला था। अब व दे ात के स्वच्छ जलवायु में र ना चा त ेथे। ननश्चय ककया कक खुद ी गााँव में जाकर खेती-बारी कराँ । लड़का जवान ो गया था। श र का लेन-देन उसे सौंपा और दे ात चले आए।

य ााँ उनका समय और धचत्त ववशेष कर गौओिं की देखभाल में लगता था। उनके पास एक जमुनापारी बड़ी रास की गाय थी। उसे कई साल ुए बड़ ेशौक से खरीदा था। दिू खूब देती थी, और सीिी व इतनी कक बच्चा भी सीिंग पकड़ ले,

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तो न बोलती! व इन हदनों गाशभन थी। उसे ब ुत प्यार करत ेथे। शाम-सबेरे उसकी पीठ सु लात,े अपने ाथों से नाज खखलात।े कई आदमी उसके ड्याढे दाम देत ेथे, पर रामट ल ने न बेची। जब समय पर गऊ ने बच्चा हदया, तो रामट ल ने िूमिाम से उसका जन्मोत्सव मनाया, ककतने ी ब्राह्मणों को भोजन कराया। कई हदनों तक गाना-बजाता ोता र ा। इस बछड़ ेका नाम रखा गया 'जवाह र'। एक ज्योनतषी से उसका जन्म-पत्र भी बनवाया गया। उसके अनुसार बछड़ा बड़ा ोन ार, बड़ा भाग्यशाली, स्वाशमभक्त ननकला। केवल छठे वषम उस पर एक सिंकट की शिंका थी। उससे बच गया तो कफर जीवन-पयांत सुख से र ेगा।

बछड़ा श्वेत-वणम था। उसके माथे पर एक लाल नतलक थी। आाँखें कजरी थीिं। स्वरप का अत्यिंत मनो र और ाथ-पााँव का सुडौल था। हदन भर कलोलें ककया करता। रामट ल का धचत्त उसे छलााँगें भरत ेदेख कर प्रफुष्ल्लत ो जाता था। व उनसे इतना ह ल-शमल गया कक उनके पीछे-पीछे कुत्त ेकी भााँनत दौड़ा करता था। जब व शाम और सुब को अपनी खाट पर बैठकर असाशमयों से बातचीत करने लगते, तो जवाह र उनके पास खड़ा ो कर उनके ाथ या पााँव को चाटता था। व प्यार से उसकी पीठ पर ाथ फेरने लगते, तो उसकी पूाँछ खड़ी ो जाती और आाँखें हृदय के उल्लास से चमकने लगती। रामट ल को भी उससे इतना स्ने था कक जब तक व उनके सामने चौके में न बैठा ो, भोजन में स्वाद न शमलता था। व उसे ब ुिा गोद में धचपटा शलया करत े। उसके शलए चााँदी का ार, रेशमी फूल, चााँदी की झााँझें बनवाई। एक आदमी उसे ननत्य न लाता और झाड़ता-पोंछता र ता था। जब कभी व ककसी काम से दसूरे गााँव में चले जाते तो उन् ें घोड़ े पर आते देखकर जवाह र कुलेलें मारता ुआ उसके पास प ुाँच जाता और उनके पैरौं को चाटने लगता। पशु और मनुष्य में य वपता-पुत्र-सा पे्रम देखकर लोग चककत ो जात।े

4

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जवाह र की अवस्था ढाई वषम की ुई। रामट ल ने उसे अपनी सवारी की ब ली के शलए ननकालने का ननश्चय ककया। व अब बछड़ ेसे बैल ो गया था। उसका ऊाँ चा डील, गठे ुए अिंग, सुदृढ मािंसपेशशयााँ, गदमन के ऊपर ऊाँ चा डील, चौड़ी छाती और मस्तानी चाल थी। ऐसा दशमनीय बैल सारे इलाके में न था। बड़ी मुष्श्कल से उसका बााँिा शमला। पर देखने वाले साफ क त े थे कक जोड़ न ीिं शमला। रुपए आफने ब ुत खचम ककए ैं, पर क ााँ जवाह र और क ााँ य ! क ााँ लैंप और क ााँ दीपक!

पर कौतू ल की बात य थी कक जवाह र को कोई गाड़ीवान ााँकता तो व आगे पैर न उठाता। गदमन ह ला-ह लाकर र जाता। मगर जब रामट ल आप पग ा ाथ में ले लेत ेऔर एक बार चुमकार करत े - चलो बेटा, तो जवाह र उन्मत्त ोकर गाड़ी को ले उड़ता दो-दो कोस तक बबना रके, एक ी सााँस में दौड़ता चला जाता। घोड़ ेभी उसका मुकाबला न कर सकत।े

एक हदन सिंध्या समय जब जवाह र नााँद में खली और भूसा खा र ा था और रामट ल उसके पास खड़ ेउसकी मष्क्खयााँ उड़ा र े थे, एक सािु म ात्मा आकर द्वार पर खड़ े ो गए। रामट ल ने अववनयपूणम भाव से क ा - य ााँ क्यों खड़े ो म ाराज, आगे आओ।

सािु - कुछ न ीिं बाबा, इसी बैल को देख र ा ूाँ। मैंने ऐसा सुिंदर बैल न ीिं देखा।

रामट ल - (ध्यान देकर) घर ी का बछड़ा ै।

सािु - साक्षात देवरप ै।

य क कर म ात्मा जी जवाह र के ननकट गए और उसके खुर चूमने लगे।

रामट ल - आपका शुभागमन क ााँ से ुआ? आज य ीिं ववश्राम कीष्जए तो बड़ी दया ो।

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सािु- न ीिं बाबा, क्षमा करो। मुझ ेअवाश्यक कायम से रेलगाड़ी पर सवार ोना ै। रातों-रात चला जाऊाँ गा! ठ रने में ववलिंब ोगा।

रामट ल - तो कफर और कभी दशमन ोंगे?

सािु - ााँ, तीथम-यात्रा से तीन वषम में लौटकर इिर से कफर जाना ोगा। तब आपकी इच्छा ोगी तो ठ र जाऊाँ गा! आप बड़ ेभाग्यशाली पुरुष ै कक आपको ऐसे देवरप निंदी की सेवा की अवसर शमल र ा ै। इन् ें पशु न समखझए, य कोई म ान आत्मा ै। इन् ें कष्ट न दीष्जएगा। इन् ें कभी फूल से भी न माररएगा।

य क कर सािु ने कफर जवाह र के चरणों पर सीस नवाया और चले गए।

5

उस हदन से जवाह र की और भी खानतर ोने लगी। व पशु से देवता ो गया। रामट ल उसे प ले रसोई के सब पदाथम खखलाकर तब आप भोजन करत।े प्रातुःकाल उठकर उसके दशमन करते। य ााँ तक कक व उसे अपनी ब ली में भी न जोतना चा त।े लेककन उनको क ीिं जाना ोता और ब ली बा र ननकाली जाती, तो जवाह र उसमें जुतने के शलए इतना अिीर और उत्किं हठत ो जाता, शसर ह ला-ह लाकर इस तर उत्सुकता प्रकट करता कक रामट ल को वववश ोकर उसे जोतना पड़ता। दो-एक बार व दसूरी जोड़ी जोतकर चले गए तो जवाह र को इतना दुुःख ुआ कक उसने हदन भर नााँद में मुाँ न ीिं डाला। इसशलए व अब बबना ककसी ववशेष कायम के क ीिं जात े ी न थे।

उनकी श्रद्धा देखकर गााँव के अन्य लोगों ने भी जवाह र को अन्न ग्रास देना शुर ककया। सुब उसके दशमन करने तो प्रायुः सभी आ जात ेथे।

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इस प्रकार तीन साल और बीत।े जवाह र को छठा वषम लगा।

रामट ल को ज्योनतषी की बात याद थी। भय ुआ, क ीिं उसकी भववष्यवाणी सत्य न ो। पशु-धचककत्सा की पुस्तकें माँगा कर पढी। पशु-धचककत्सक से शमले और कई औषधियााँ लाकर रखीिं। जवाह र को टीका लगवा हदया। क ीिं नौकर उसे खराब चारा या गिंदा पानी न खखला-वपला दें, इस आशिंका से व अपने ाथों से उसे खोलने-बााँिने लगे। पशुशाला का फशम पक्का करा हदया ष्जससे कोई कीड़ा-मकोड़ा न नछप सके। उसे ननत्यप्रनत खूब िुलवात ेभी थे।

सिंध्या ो गई थी। रामट ल नााँद के पास खड़ ेजवाह र को खखला र े थे कक इतने में स सा व ी सािु म ात्मा आ ननकले ष्जन् ोंने आज से तीन वषम प ले दशमन हदए थे। रामट ल उन् ें देखत े ी प चान गए। जाकर दिंडवत की, कुशल-समाचार पूछे और उनके भोजन का प्रबिंि करने लगे। इतने में अकस्मात जवाह र ने जोर से डकार ली और िम-से भूशम पर धगर पड़ा। रामट ल दौड़ े ुए उसके पास आए। उसकी आाँखें पथरा र ी थी। प ले एक स्ने पूणम दृष्ष्ट उन पर डाली और धचत ो गया।

रामट ल घबराए ुए घर से दवाएाँ लाने दौड़।े कुछ समझ में न आया कक खड़े-खड़ ेइसे ो क्या गया। जब व घर से दवाइयााँ लेकर ननकले तब जवाह र का अिंत ो चुका था।

रामट ल शायद अपने छोटे भाई की मतृ्यु पर भी इतने शोकातुर न ुए थे। व बार-बार लोगों के रोकन ेपर भी दौड़-दौड़कर जवाह र के शव के पास जात ेऔर उससे शलपटकर रोत।े

रात उन् ोंने रो-रोकर काटी। उसकी सूरत आाँखों से न उतरती थी। र -र कर हृदय में एक वेदना-सी ोती और शोक से ववह्वल ो जात।े

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प्रातुःकाल लाश उठाई गई, ककिं तु रामट ल ने गााँव की प्रथा के अनुसार उसे चमारों के वाले न ीिं ककया। यथाववधि उसकी दा -कक्रया की, स्वयिं आग दी। शास्त्रानुसार सब सिंस्कार ककए। तरे वें हदन गााँव के ब्राह्मणों को भोजन कराया गया। उक्त सािु म ात्मा को उन् ोंने अब तक न ीिं जाने हदया था। उनकी शािंनत देऩे वाली बातों से रामट ल को बड़ी सािंत्वना शमलती थी।

6

एक हदन रामट ल ने सािु से पूछा - म ात्मा जी, कुछ समझ में न ीिं आता कक जवाह र को कौन-सा रोग ुआ था। ज्योनतषी जी ने उसके जन्मपत्र में शलखा था कक उसका छठा साल अच्छा न ोगा। लेककन मैंने इस तर ककसी जानवर को मरत ेन ीिं देखा। आप तो योगी ै, य र स्य कुछ आपकी समझ में आता ै।

सािु - ााँ, कुछ थोड़ा-ब ुत समझता ूाँ।

रामट ल - कुछ मुझ ेभी बताइए। धचत्त को िैयम न ीिं आता।

सािु - व उस जन्म का कोई सच्चररत्र, सािु-भक्त, परोपकारी जीव था। उसने आपकी सारी सम्पष्त्त िमम-कायों में उड़ा दी थी। आपके सिंबिंधियों में ऐसा कोई सज्जन था?

रामट ल - ााँ म ाराज था।

सािु - उसने तुम् ें िोखा हदया - तुमसे ववश्वासघात ककया। तुमने उसे अपना कोई काम सौंपा था। व तुम् ारी आाँख बचाकर तुम् ारे िन से सािु-जनों की सेवा-सत्कार ककया करता था।

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रामट ल - मुझ ेउस पर इतना सिंदे न ीिं ोता। व इतना सरल प्रकृनत, इतना सच्चररत्र मनुष्य था कक बेईमानी करने का उसे कभी ध्यान भी न ीिं आ सकता था।

सािु - लेककन उसने ववश्वासघात अवश्य ककया। अपने स्वाथम के शलए न ीिं, अनतधथ-सत्कार के शलए स ी, पर था व ववश्वासघाती।

रामट ल - सिंभव ै दरुवस्था ने उसे िमम-पथ से ववचशलत कर हदया ो।

सािु - ााँ, य ी बात ै। उस प्राणी को स्वगम में स्थान देने का ननश्चय ककया गया। पर उसे ववश्वासघात का प्रायष्श्चत करना आवश्यक था। उसने बेईमानी से तुम् ारा ष्जतना िन र शलया था, उसकी पूनतम करने के शलए उसे तुम् ारे य ााँ पशु का जन्म हदया गया। य ननश्चय कर शलया गया कक छ वषम में प्रायष्श्चत पूरा ो जाएगा। इतनी अवधि तक व तुम् ारे य ााँ र ा। ज्यों ी अवधि पूरी ो गई त्यों ी उसकी आत्मा ननष्पाप और ननशलमप्त ोकर ननवामणपद को प्राप्त ो गई।

म ात्मा जी तो दसूरे हदन ववदा ो गए, लेककन रामट ल के जीवन में उसी हदन से एक बड़ा पररवतमन देख पड़ने लगा। उनकी धचत्त-वषृ्त्त बदल गई। दया और वववेक से हृदय पररपूणम ो गया। व मन में सोचते, जब ऐसे िमामत्मा प्राणी को जरा से ववश्वासघात के शलए इतना कठोर दिंड शमला तो मुझ जैसे कुकमी की क्या दगुमनत ोगी! य बात उनके ध्यान से कभी न उतरती थी।

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दसुसाहस

लखनऊ के नौबस्त ेमो ल्ले में एक मुिंशी मैकूलाल मुख्तार र त ेथे। बड़ ेउदार,

दयालु और सज्जन पुरुष थे। अपने पेश ेमें इतने कुशल थे कक ऐसा बबरला ी कोई मुकदमा ोता था ष्जसमें व ककसी न ककसी पक्ष की ओर से न रखे जाते ों। सािु-सिंतों से भी उन् ें पे्रम था। उनके सत्सिंग से उन् ोंने कुछ तत्त्वज्ञान और कुछ गााँजे-चरस का अभ्यास प्राप्त कर शलया था। र ी शराब, य उनकी कुल-प्रथा थी। शराब के नशे में व कानूनी मसौदे खूब शलखत े थे, उनकी बुवद्ध प्रज्वशलत ो जाती थी। गााँजे और चरस का प्रभाव उनका ज्ञान पर पड़ता था। दम लगाकर व वैराग्य और ध्यान में तल्लीन ो जात े थे। मो ल्लेवालों पर उनका बड़ा रोब था। लेककन य उनकी कानूनी प्रनतभा का न ीिं; उनकी उदार सज्जनता का फल था। मो ल्ले के एक्केवान, ग्वाले और क ार उनके आज्ञाकारी थे, सौ काम छोड़कर उनकी खखदमत करत े थे। उनकी मद्यजननत उदारता ने सबों को वशीभूत कर हदया था। व ननत्य कच री से आते ी अलगू क ार के सामने दो रुपए फें क देत ेथे। कुछ क ने-सुनने की जररत न थी, अलगू इसका आशय समझता था। शाम को शराब की एक बोतल और कुछ गााँजा तथा चरस मुिंशी जी के सामने आ जाता था। बस, म कफल जम जाती। यार लोग आ प ुाँचत।े एक ओर मुवष्क्कलों की कतार बैठती, दसूरी ओर स वाशसयों की। वैराग्य की और ज्ञान की चचाम ोने लगती। बीच-बीच में मुवष्क्कलों से भी मुकदमें की दो-एक बातें कर लेत!े दस बजे रात को व सभा ववसष्जमत ोती थी। मुिंशी जी अपने पेशे और ज्ञान चचाम के शसवा और कोई ददम शसर मोल न लेत ेथे। देश के ककसी आिंदोलन, ककसी सभा, ककसी सामाष्जक सुिार से उनका सिंबिंि न था। इस ववषय में व सच्च े ववरक्त थे। बिंग-भिंग ुआ, नरम-गरम दल बने, राजनैनतक सुिारों का आववभामव ुआ, स्वराज्य की आकािंशा ने जन्म शलया, आत्म-रक्षा की आवाजें देश में गूाँजने लगी, ककिं तु मुिंशी जी की अववरल शािंनत में जरा भी ववघ्न न पड़ा। अदालत और शराब के शसवाय व सिंसार की सभी चीजों को माया समझत ेथे, सभी से उदासीन र त ेथे।

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धचराग जल चुके थे। मुिंसी मैकूलाल की सभा जम चुकी थी, उपासकगण जमा ो गए थे, अभी तक महदरा देवी प्रकट न ुई थी। अलगू बाजार से न लौटा था। सब लोग बार-बार उत्सुक नेत्रों से ताक र े थे। एक आदमी बरामदे में प्रतीक्षास्वरप खड़ा था, दो-तीन सज्जन टो लेने के शलए सड़क पर खड़ े थे,

लेककन अलगू आता नजर न आता था। आज जीवन में प ला अवसर था कक मुिंशी जी को इतनी इिंतजार खीिंचनी पड़ी। उनकी प्रतीक्षाजनक उद्ववग्नता ने ग री समाधि का रप िारण कर शलया था, न कुछ बोलत े थे, न ककसी ओर देखत ेथे। समस्त शष्क्तयााँ प्रतीक्षाबब िंद ुपर कें द्रीभूत ो गई।

अकस्मात सूचना शमली कक अलगू आ र ा ै। मुिंशी जी जाग पड़े, स वासीगण खखल गए, आसन बदलकर साँभल बैठे, उनकी आाँखें अनुरक्त ो गई। आशामय ववलिंब आनिंद को और बढा देता ै।

एक क्षण में अलगू आकर सामने खड़ा ो गया। मुिंशी जी ने उसे डााँटा न ीिं, य प ला अपराि था, इसका कुछ न कुछ कारण अवश्य ोगा, दबे ुए पर उत्किं ठायुक्त नेत्रों से अलगू के ाथ की ओर देखा। बोतल न थी। ववस्मय ुआ,

ववश्वास न आया, कफर गौर से देखा बोतल न थी। य अप्राकृनतक घटना थी, पर इस पर उन् ें क्रोि न आया, नम्रता के साथ पूछा - बोतल क ााँ ै।

अलगू - आज न ीिं शमली।

मैकूलाल - य क्यों?

अलगू - दकूान के दोनों नाके रोके ुए सुराजवाले खड़ े ैं, ककसी को उिर जाने ी न ीिं देत।े

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अब मुिंशी जी को क्रोि आया, अलगू पर न ीिं, स्वराजवालों पर। उन् ें मेरी शराब बिंद करने का क्या अधिकार ै? तकम भाव से बोले - तुमने मेरा नाम न ीिं शलया?

अलगू - ब ुत क ा, लेककन व ााँ कौन ककसी की सुनता था? सभी लोग लौट जात ेथे, मैं भी लौट आया?

मुिंशी - चरस लाए?

अलगू - व ााँ भी य ी ाल था।

मुिंशी - तुम मेरे नौकर ो या स्वराज्य वालों के?

अलगू - मुाँ में काशलख लगवाने के शलए थोड़ े ी नौकर ूाँ?

मुिंशी - तो क्या व ााँ बदमाश लोग मुाँ पर काशलख भी लगा र े ै?

अलगू - देखा तो न ीिं, लेककन सब य ी क त ेथे।

मुिंशी - अच्छी बात ै, मैं खुद जाता ूाँ, देखूाँ ककसकी मजाल ै जो रोके। एक-एक को लाल घर हदखा दूाँगा, य सरकार का राज ै, कोई बदशमली न ीिं ै। व ााँ कोई पुशलस का शसपा ी न ीिं था?

अलगू - थानेदार सा ब आप ी खड़ ेसबसे क त ेथे ष्जसका जी चा े जाए शराब ले या पीए लेककन लौट आत ेथे, उनकी कोई न सुनता था।

मुिंशी - थानेदार मेरे दोस्त ै, चलो जी ईद ूचलत े ो। रामबली, बेचन, खझनकू सब चलो। एक-एक बोलत ले लो, देखूाँ कौन रोकता ै। कल ी तो मजा चखा दूाँगा।

3

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मुिंशी जी अपने चारों साधथयों के साथ शराबखाने की गली के सामने प ुाँच ेतो व ााँ ब ुत भीड़ थी। बीच में दो सौम्य मूनतमयााँ खड़ी थीिं। एक मौलाना जाशमन थे जो श र के मश ूर मुजतह द थे, दसूरे स्वामी घनानिंद थे जो व ााँ की सेवासशमनत के सिंस्थापक और प्रजा के बड़ े ह तधचिंतक थे। उनके सम्मुख ी थानेदार सा ब कई कान्स्टेबलों के साथ खड े थे। मुिंशी जी और उनके साधथयों को देखत े ी थानेदार सा ब प्रसन्न ोकर बोले - आइए, मुख्तार सा ब, क्या आज आप ी को तकलीफ करनी पड़ी? य चारों आप ी के मरा ैं न?

मुिंशी जी बोले - जी ााँ, प ले आदमी भेजा, व नाकाम वापस गया। सुना आज य ााँ ड़बोंग मची ुई ै, स्वराज्यवाले ककसी को अिंदर जाने ी न ीिं देत।े

थानेदार - जी न ीिं, य ााँ ककसकी मजाल ै जो ककसी के काम में ाष्जर ो सके। आप शौक से जाइए। कोई चूाँ तक न ीिं कर सकता। आखखर मैं य ााँ ककस शलए ूाँ।

मुिंशी जी ने गौरवोंमत्त दृष्ष्ट से अपने साधथयों को देखा और गली में घुसे कक इतने में मौलाना जाशमन ने ईद ूसे बड़ी नम्रता से क ा - दोस्त, य तो तुम् ारी नमाज का वक्त ै, य ााँ कैसे आए? क्या इसी दीनदारी के बल पर खखलाफल का मसला ल करेंगे?

ईद ूके पैरों में जैसे लो े की बेड़ी पड़ गई। लष्ज्जत भाव से खड़ा भूशम की ओर ताकने लगा। आगे कदम रखने का सा स न ुआ।

स्वामी घनानिंद ने मुिंशी जी और उनके बाकी तीनों साधथयों से क ा - बच्चा, य पिंचामतृ लेत े जाओ, तुम् ारा कल्याण ोगा। खझनकू, रामबली और बेचन ने अननवायम भाव से ाथ फैला हदए और स्वामी जी से पिंचामतृ लेकर पी गए। मुिंशी जी ने क ा - इसे आप खुद पी जाइए। मुझ ेजररत न ीिं।

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स्वामी जी उनके सामने ाथ जोड़कर खड़ े ो गए और ववनोद भाव से बोले - इस शभक्षुक पर आज दया कीष्जए, उिर न जाइए।

लेककन मुिंशी जी ने उनका ाथ पकड़कर सामने से टा हदया और गली में दाखखल ो गए। उनके तीनों साथी स्वामी जी के पीछे शसर झुकाए खड़ ेर े।

मुिंशी - रामबली, खझनकू आत ेक्यों न ीिं? ककसका ताकत ै कक में रोक सके।

खझनकू - तुम ी का े ना ीिं लौत आवत ो। सािु-सिंतन की बात माने का ोत ै।

मुिंशी - तो इसी ौसले पर घर से ननकले थे?

रामबली - ननकले थे कक कोई जबरदस्ती रोकेगा तो उससे समझेंगे। सािु-सिंतों से लड़ाई करने थोड़ े ी चले थे।

मुिंशी - सच क ा ै, गाँवार भेड़ ोत े ै।

बेचन - आप शेर ो जाए, म भेड़ ी बने र ेंगे।

मुिंशी जी अकड़त े ुए शराबखाने में दाखखल ुए। दकूान पर उदासी छाई ुई थी, कलवार अपनी गद्दी पर बैठा ऊाँ ि र ा था। मुिंशी जी आ ट पाकर चौंक पड़ा, उन् ें तीव्र दृष्ष्ट से देखा मानों य कोई ववधचत्र जीव ै, बोतल भर दी और ऊाँ िने लगा।

मुिंशी जी गली के द्वार पर आए तो अपने साधथयों को न पाया। ब ुत से आदशमयों ने उन् ें चारों ओर से घेर शलया और ननिंदासूचक बोशलयााँ बोलने लगे।

एक ने क ा - हदलावर ो तो ऐसा ो।

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दसूरा बोला - शममच ेकुत्तीस्त कक पेश ेमरदााँ वववाअद ( मरदों के सामने लज्जा न ीिं आ सकती)

तीसरा बोला - ै कोई पुराना वपयक्कड़ पक्का लनतयल।

इतने में थानेदार सा ब ने आकर भीड़ टा दी। मुिंशी जी ने उन् ें आशीवामद हदया और घर चले। एक कान्स्टेबल भी रक्षाथम उनके साथ चला।

4

मुिंशी जी के चारों शमत्रों ने बोलत फें क दी और आपस में बातें करत े ुए चले।

खझनकू - एक बेर मारा एक्का बेगार में पकड़ जात र े तो य ी स्वामी जी चपरासी से क -सुन के छुड़ाय हद ेन र ा।

रामबली - वपछले साल जब मारे घर में आग लगी थी तब भी तो य ी सेवा-सशमनत वालों को लेकर प ुाँच गए थे, न ीिं तो घर में एक सूत न बचता।

बेचन - मुख्तार अपने सामने ककसी को धगनत े ी न ीिं। आदमी कोई बुरा काम करता ै तो नछप के करता ै, य न ीिं कक बे ाई कमर बााँि ले।

खझनकू - भाई, पीछ पीछे कोऊ की बुराई न करै चा ीिं। और जौन कुछ ोय पर आदमी बड़ा अकबाली ौ। उतने आदशमयन के बीच मााँ कैसा घुसत चला गवा।

रामबली - य कोई अकबाल न ीिं ै। थानेदार न ोता तो आटे-दाल का भाव मालूम ो जाता।

बेचन - मुझ ेतो कोई पचास रुपए देता तो भी गली में पैर न रख सकता। शमम से शसर ी न ीिं उठता था।

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ईद ू - इनके साथ आकर आज बड़ी मुसीबत में फाँ स गया। मौलाना ज ााँ देखेंगे व ााँ आड़ े ाथों लेगें। दीन के खखलाफ ऐसा काम क्यों करें कक शशमांदा ोना पड़।े मैं तो आज मारे शमम के गड़ गया। आज तोबा करता ूाँ। अब इसकी तरफ आाँख उठाकर भी न देखूाँगा।

रामबली - शराबबयों की तोबा कच्च ेिागे से मजबूत न ीिं ोती।

ईद ू- अगर कफर कभी मुझ ेपीत ेदेखना तो मुाँ में काशलख लगा देना।

बेचन - अच्छा तो इसी बात पर आज से मैं इसे छोड़ता ूाँ। अब पीऊाँ तो गऊ-रक्त बराबर।

खझनकू - तो का म ी सबसे पापी न। कफर कभू जो मका वपयत देख्यो, बैठाय त ेपचास जूता लगाओ।

रामबली - अरे जा अभी मुिंशी जी बुलाएिंगे, तो कुत्त ेकी तर दौड़त े ुए जाओगे।

खझनकू - मुिंशी जी के साथ बैठे देख्यों तो सौ जूता लगायो, ष्जनके बात में फरक ै उनके बाप में फरक ै।

रामबली - तो भाई मैं भी कसम खाता ूाँ कक आज से गााँठ से पसेै ननकाल कर न पीऊाँ गा। ााँ, मुफ्त की पीने में इनकार न ीिं।

बेचन - गााँठ के पैसे तुमने कभी खचम ककए ै?

इतने में मुिंशी मैकूलाल लपके ुए आत ेहदखाई हदए। यद्यवप व बाजी मारकर आए थे, मुख पर ववजय गवम की जग खखशसयानापन छाया ुआ था। ककसी अव्यक्त कारणवश व इस ववजय का ाहदमक आनिंद न उठा सकत ेथे। हृदय के ककसी कोने में नछपी ुई लज्जा उन् ें चुटककयााँ ले र ी थी। व स्वयिं अज्ञात थे,

पर उस दसु्सा स का खेद उन् ें व्यधथक कर र ा था।

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रामबली ने क ा - आइए मुख्तार सा ब, बड़ी देर लगाई।

मुिंशी - तुम सब के सब गावदी ी ननकले, एक सािु के चकमे में आ गए।

रामबली - इन लोगों ने तो आज से शराब न पीने की कसम खा ली ै।

मुिंशी - ऐसा तो मैंने मदम ी न ीिं देखा जो एक बार इसके चिंगुल में फाँ स कर ननकल जाए। मुाँ से बकना दसूरी बात ै।

ईद ू- ष्जिंदगी र ी तो देख लीष्जएगा।

खझनकू - दाना-पानी तो कोऊ से ना ीिं छूट सकत ै और बातन का जब मनमा आवे छोड़ देव। बस चोट लग जाए का चा ी, नशा खाए बबना कोई मर ना ीिं जात ै।

मुिंशी - देखूाँगा तुम् ारी ब ादरुी भी।

बेचन - देखना क्या ै, छोड़ देना कोई बड़ी बात न ीिं। य ी न ोगा कक दो-चार हदन जी सुस्त र ेगा। लड़ाई में अाँगरेजों ने छोड़ हदया था जो इसे पानी की तर पीत े ै, तो मारे शलए कोई मुष्श्कल काम न ीिं।

य ी बातें करत े ुए लोग मुख्तार सा ब के मकान पर आ प ुाँच।े

5

दीवानखाने पर सन्नाटा था। मुवष्क्कल चले गए थे। अलगू पड़ा सो र ा था। मुिंशी जी मसनद पर जा बैठे और आलमारी से ग्लास ननकालने लगे। उन् ें अभी तक अपने साधथयों की प्रनतज्ञा पर ववश्वास न आता था। उन् ें पूरा यकीन था कक शराब की सुगिंि और लाशलमा देखत े ी सभों की तोबा टूट जाएगी। ज ााँ

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मैंने बढावा हदया व ीिं सब के सब आकर डट जाएाँगे और म कफल जम जाएगी। जब ईद ूसलाम करके चलने लगा और खझनकू ने अपनी डिंडा साँभाला तो मुिंशी जी दोनों ाथ पकड़ शलये और बड़ ेमदृलु शब्दों में बोले - यारों, यों साथ छोड़ना अच्छा न ीिं। आओ जरा आज इसका मजा तो चखो, खास तौर पर अच्छी ै।

मुिंशी - अजी आओ तो, इन बातों में क्या िरा ै?

ईद ू- आप ी को मुबारक र े, मुझ ेजाने दीष्जए।

खझनकू - म तो भगवान चा ी तो एके ननयर न जाब; जूता कौन खाय?

य क कर दोनों अपने-अपने ाथ छोड़ा कर चले गए तब मुख्तार सा ब ने बेचन का ाथ पकड़ा जो बरामदे से नीच ेउतर र ा था, बोले - बेचन क्या तुम भी बेवफाई करोगे?

बेचन - मैं तो बड़ी कसम खाई ै। जब एक बार इसे गऊ-रक्त क चुका तो कफर इसकी ओर ताक भी न ीिं सकता। ककतना ी गया बीता ूाँ तो क्या गऊ-रक्त की लाज भी न रखूाँगा। अब आप भी छोडड़ए, कुछ हदन राम-राम कीष्जए। ब ुत हदन तो पीत े ो गए।

य क कर व भी सलाम करके चलता ुआ। अब अकेले रामबली र गया। मुिंशी जी ने उससे शोकातुर ोकर क ा - देखो रामबली, इस सभों की बेवफाई?

य लोग ऐसे ढुलमुल ोंगे, मैं न जानता था। आओ आज मीिं तुम स ी। दो सच्च ेदोस्त ऐसे दरजनों कचलोह यों से अच्छे ैं। आओ बैठ जाओ।

रामबली - मैं तो ाष्जर ी ूाँ, लेककन मैंने भी कसम खाई ै कक कभी गााँठ के पैसे खचम करके न पीऊाँ गा।

मुिंशी - अजी जब तक मेरे दम मे दम ै, तुम ष्जतना चा ो वपयो, गम क्या ै।

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रामबली - लेककन आप न र े तब? ऐसा सज्जन कफर क ााँ पाऊाँ गा।

मुिंशी - अजी तब देखी जाएगी, मैं आज मरा थोड़ े ी जाता ूाँ।

रामबली - ष्जिंदगी का कोई एतबार न ीिं, आप मुझसे प ले जरर ी मरेंगे, तो उस वक्त मुझ ेकौन रोज वपलाएगा। तब तो छोड़ भी न सकूाँ गा। इससे बे तर य ी ै कक अभी से कफक्र कराँ ।

मुिंशी - यार ऐसी बातें करके हदल न छोटा करो। आओ बैठ जाओ, एक ी धगलास ले लेना।

रामबली - मुख्तार सा ब, अब ज्यादा मजबूर न कीष्जए। जब ईद ूऔर खझनकू जैसे लनतयों ने कसम खा ली जो औरतों के ग ने बेच-बेच पी गए और ननरे मूखम ैं, तो मैं इतना ननलमज्ज न ीिं ूाँ कक इसका गुलाम बना र ूाँ। स्वामी जी ने मेरा सवमनाश ोने से बचाया ै। उनकी आज्ञा मैं ककसी तर न ीिं टाल सकता। य क कर रामबली भी ववदा ो गया।

6

मुिंशी जी ने प्याला मुाँ से लगाया, लेककन दसूरा प्याला भरने के प ले उनकी मद्यातुरता गायब ो गई थी। जीवन में य प ला अवसर था कक उन् ें एकािंत में बैठ कर दवा भी भााँनत शराब पीनी पड़ी। प ले तो स वाशसयों पर झुाँझलाए। दगाबाजों को मैंने सैकड़ों रुपए खखला हदए ोंगे, लेककन जरा-सी बात पर सब के सब कफरिंट ो गए। अब मैं भूत की भााँनत अकेला पड़ा ूाँ, कोई ाँसने-बोलने वाला न ीिं। य तो सो बत की चीज ै, जब सो बत का आनिंद ी न र ा तो पीकर खाट पर पड़ र ने से क्या फायदा?

मेरा आज ककतना अपमान ुआ! जब मैं गली में घुसा ूाँ तो सैकड़ो ी आदमी मेरी ओर आग्नेय दृष्ष्ट से ताक र े थे। शराब लेकर लौटा ूाँ तो लोगों का वश

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चलता तो मेरी बोहटयााँ नोच खात।े थानेदार न ोता तो घर तक आना मुष्श्कल था। य अपमान औऱ लोकननिंदा ककसशलए। इसशलए कक घड़ी भर बैठकर मुाँ कड़वा कराँ और कलेजा जलाऊाँ । कोई ाँसी चु ल करनेवाला तक न ीिं।

लोग इसे ककतनी त्याज्य-वस्तु समझत े ैं; इसका अनुभव मुझ ेआज ी ुआ,

न ीिं जो एक सिंन्यासी के जरा-से इशारे पर बरसों के लती वपयक्कड़ यों मेरी अव ेलना न करत।े बात य ी ै कक अिंतुःकरण से सभी इसे ननवषद्ध समझत े ै। जब मेरा साथ के ग्वाले, एक्केवान और क ार तक इसे त्याग सकत े ै तो क्या मैं उनसे भी गया गुजरा ूाँ? इतना अपमान स कर, जनता की ननगा में पनतत ोकर, सारे श र में बदनाम ोकर, नक्कू बनकर एक क्षण के शलए शसर में सरर पैदा कर शलया तो क्या काम ककया? कुवासना के शलए आत्मा को इतना नीचे धगराना क्या अच्छी बात ै! य चारों इस घड़ी मेरी ननिंदा कर र े ोंगे, मुझ ेदषु्ट बना र े ोंगे, मुझ ेनीच समझ र े ोंगे। इन नीचों की दृष्ष्ट से मैं नीचा ो गया। य दरुावस्था न ीिं स ी जाती। आज इस वासना का अिंत कर दूाँगा, अपमान का अिंत कर दूाँगा।

एक क्षण में िड़ाके की आवाज ुई। अलगू चौंक कर उठा तो देखा कक मुिंशी जी बरामदे में खड़ े ै और बोतल जमीन पर टूटी पड़ी ै!

***

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बौड़र्

मुझ ेदेवीपुर गए पााँच हदन ो चुके थे, पर ऐसा एक हदन भी न ोगा कक बौड़म की चचाम न ुई ो। मेरे पास सुब से शाम तक गााँव के लोग बैठे र त ेथे। मुझे अपनी ब ुज्ञता के प्रदशशमत करने का न कभी ऐसा अवसर ी शमला था और न प्रलोभन ी। मैं बैठा-बैठा इिर-उिर की गप्पें उड़ाया करता । बड़ ेलाट ने गााँिी बाबा से य क ा और गााँिी बाबा ने य जवाब हदया। अभी आप लोग क्या देखत े ैं, आगे देखखएगा क्या-क्या गुल खखलत े ै। पूरे 50 जार जवान जेल जाने को तैयार बैठे ुए ैं। गााँिी जी ने आज्ञा दी ै कक ह िंदओुिं में छूत-छात को भेद न र े, न ीिं तो देश को और भी अहदन देखने पड़ेंगे। अस्तु! लोग मेरी बातों को तन्मय ोकर सुनत।े उनके मुख फूल की तर खखल जात।े आत्माशभमान की आभा मुख पर हदखाई देती। गद्गद किं ठ से क त,े अब तो म ात्मा जी ी का भरोसा ै। न ुआ बौड़म न ीिं आपका गला न छोड़ता। आपको खाना-पीना कहठन ो जाता। कोई उससे ऐसी बातें ककया करे तो रात की रात बैठा र े। मैंने एक हदन पूछा, आखखर य बौड़म ै कौन? कोई पागल ै क्या? एक सज्जन ने क ा - 'म ाशय, पागल क्या ै, बस बौड़म ै। घर में लाखों की सिंपष्त्त ै, शक्कर की एक शमल शसवान नें ै, दो कारखाने छप्परे में ैं, तीन-तीन, चार-चार सौ के तलबवाले आदमी नौकर ै, पर इसे देखखए फटे ाल घूमा करता ै। घरवालों ने शसवान भेज हदया था कक जाकर व ााँ ननगरानी करे। दो ी म ीने में मैनेजर से लड़ बैठा, उसने य ााँ शलखा, मेरा इस्तीफा लीष्जए। आपका लड़का मजदरूों को शसर चढाए र ता ै, वे मन से काम न ीिं करत।े आखखर घरवालों ने बुला शलया। नौकर-चाकर लूटत ेखात े ैं उसकी तो जरा भी धचिंता न ीिं, पर जो सामने आम का बाग ै उसकी रात-हदन रखवाली ककया करता ै, क्या मजाल कक कोई एक पत्थर भी फें क सके।' एक शमयााँ जी बोले - 'बाबू जी, घर में तर -तर के खाने पकत े ै, मगर इसकी तकदीर में व ी रोटी और दाल शलखी ै और कुछ ी न ीिं। बाप अच्छे-अच्छे कपड़ े खरीदत े ैं, लेककन व उनकी तरफ ननगा भी न ीिं उठाता। बस, व ी मोटा कुरता गाढे की त मत बााँिे मारा-मारा कफरता ै। आपसे उसकी शसफत क ााँ तक करें , बस पूरा बौड़म ै।'

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2

ये बातें सुनकर भी इस ववधचत्र व्यष्क्त से शमलने की उत्किं ठा ुई। स सा एक आदमी ने क ा - 'य देखखए, बौड़म आ र ा ै।' मैंने कुतू ल से उसकी ओर देखा। एक 20-21 वषम का हृष्ट-पुष्ट युवक था। निंगे शसर, एख गाढे का कुरता, गाढे का ढीला पाजामा प ने चला आता था। पैरों में जूत ेथे। प ले मेरी ी और आया। मैंने क ा - 'आइए बैहठए।' उसने मिंडली की ओर अव ेलना की दृष्ष्ट से देखा और बोला - 'अभी न ीिं, कफर आऊाँ गा।' य क कर चला गया।

जब सिंध्या ो गई और सभी ववसष्जमत ुई तो व आम के बाग की ओर से िीरे-िीरे आकर मेरे पास बठै गया और बोला - इन लोगों ने तो मेरी खूब बुराइयााँ की ोंगी। मुझ ेय बौड़म का लकब शमला ै।

मैंने सकुचात े ुए क ा - ााँ, आपकी चचाम लोग रोज सकत े ै। मेरी आप से शमलने की बड़ी इच्छा थी। आपका नाम क्या क्या ै?

बौड़म ने क ा - नाम तो मेरा मु म्मद खलील ै, पर आस-पास के दस-पााँच गााँवों में मुझ ेलोग उफम के नाम से ज्यादा जानत े ै। मेरा उफम बौड़म ै।

मैं - आखखर लोग आपको बौड़म क्यों क त े ैं?

खलील - उनकी खुशी और क्या क ूाँ? मैं ष्जिंदगी को कुछ और समझता ूाँ, पर मुझ ेइजाजत न ीिं ै कक पााँचों वक्त की नमाज पढ सकूाँ । मेरे वाशलद ैं, चचा ै। दोनों सा ब प र रात से प र रात तक काम में मसरफ र त े ैं। रात-हदन ह साब-ककताब, नफा-नुकसान, मिंदी-तजेी के शसवाय और कोई ष्जक्र ी न ीिं ोता, गोया खुदा के बिंदे न ुए इस दौलत के बिंदे ो। चचा सा ब ैं, व प र रात तक शीरे के पीपों के पास खड़ े ोकर उन् ें गाड़ी पर लदवात े ै। वाशलद सा ब अक्सर अपने ाथों के शक्कर का वजन करत े ै। दोप र का खाना शाम को

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और शाम का खाना आिी रात को खात े ै। ककसी को नमाज पढने की फुसमत न ीिं। मैं क ता ूाँ, आप लोग इतना शसर-मगजन क्यों करत े ैं। बड़ ेकारबार में सारा काम एतबार पर ोता ै। माशलक को कुछ-न-कुछ बल खाना ी पड़ता ै। अपने बलबूत ेपर छोटे कारोबार ी चल सकत े ै। मेरा उसूल ककसी को पसिंद न ीिं, इसशलए मैं बौड़म ूाँ।

मैं - मेरे ख्याल में तो आपका उसूल ठीक ै।

खलील - ऐसा भूल कर भी न कह एगा, वरना एक ी जग दो बौड़म ो जाएाँगे। लोगों को कारबार के शसवा न दीन से गरज ै न दनुनया से। न मुल्क से , न कौम से। मैं अखवार माँगाता ूाँ, स्मनाम फिं ड में रुपए भेजना चा ता ूाँ। खखलाफत-फिं ड को मदद करना भी अपना फजम समझता ूाँ। सबसे बड़ा शसतम ै कक खखलाफत का रजाकार भी ूाँ। क्यों सा ब, जब कौम पर, मुल्क पर और दीन पर चारों तरफ से दशु्मनों का मला ो र ा ै तो क्या मेरा फजम न ीिं ै कक जानत के फायदे को कौम पर कुबामन कर दूाँ। इसीशलए घर और बा र मुझ ेबौड़म का लकब हदया गया ै।

मैं - आप तो व क र े ै ष्जसकी इस कौम को जररत ै।

खलील - मुझ ेखौफ ै कक इस चौपच नगरी में आप बदनाम ोकर जाएाँगे। जब मेरे जारों भाई जेल में पड़ े ुए ैं, उन् ें गजी का गाढा प नने को मयस्सर न ीिं तो मेरी गैरत गवारा न ीिं करती कक मैं मीठे लुकमें उड़ाऊाँ और धचकन के कुते प नूाँ, ष्जनकी कलाइयों और मुड्ढों पर सीजनकारी की गई ो।

मैं - आप य ब ुत ी मुनाशसब क त े ै। अफसोस ै कक और लोग आपका-सा त्याग करने के काबबल न ीिं।

खलील - मैं इसे त्याग न ीिं समझता, न दनुनया के शलए य भेष बना के घूमता ूाँ। मेरा जी ी लज्जत और शौक से कफर गया ै। थोड़ ेहदन ोत े ै वाशलद ने

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मुझ े शसवान के शमल में ननगरानी के शलए भेजा, मैंने व ााँ जाकर देखा तो इिंजीननयर सा ब के खानसामे, बैरे, मे तर, िोबी, माली, चौकीदार, सभी मजदरूों की जेल में शलखे ुए थे। काम सा ब का करत े थे, मजदरूी कारखाने से पात े थे। सा ब ब ादरु खुद तो बेउसूल ै, पर मजदरूों पर इतनी सख्ती थी अगर पााँच शमनट भी देर ो जाए तो उनकी आिे हदन की मजदरूी कट जाती थी। मैंने सा ब की शमजाज-पुरसी करनी चा ी। मजदरूों के साथ ररयायत करनी शुर की। कफर क्या था? सा ब बबगड़ गए, इस्तीफे की िमकी थी। घरवालों को उनके सब ालात मालूम थे। पल्ले दरज ेका रामखोर आदमी ै। लेककन िमकी पात े ी सबके ोश उड़ गए। मैं तार से वापस बुला शलया गया और घर पर मेरी खूब ले-दे ुई। प ले बौड़म ोने में कुछ कोर-कसर थी, व पूरी ो गई। न जाने सा ब से लोग क्यों इतना डरत े ैं?

मैं - आपने व ी ककया जो इस ालत में मैं भी करता बष्ल्क मैं तो प ले सा ब पर ग़बन का मुकदमा दायर करता, बदमाशों से वपटवाता, तब बात करता । ऐसे रामखोरों की य ी सजा ै।

खलील - कफर तो एक और, दो ो गए। अफसोस य ी ै कक आपका य ााँ कयाम न र ेगा। मेरा जी चा ता ै कक चिंद रोज आपके साथ र ूाँ। मुद्दत के बाद आप ऐसे आदमी शमले ै ष्जससे मैं अपने हदल की बातें क सकता ूाँ। इन गाँवारों से मैं बोलता भी न ीिं। मेरे चाचा सा ब को जवानी में एक चमाररन से ताल्लुक ो गया था। उससे दो बच्चे, एक लड़का और एक लड़की पैदा ुआ। चमाररन लड़की को गोद में छोड़कर मर गई। तब से इन दोनों बच्चों की मेरे य ााँ व ी ालत थी जो यतीमों की ोती ै। कोई बात न पूछता था। उनको खाने-प नने को भी न शमलता। बेचारे नौकरों के साथ खात ेऔर बा र झोंपड़ ेमें पड़ ेर त ेथे। जनाब,

मुझसे य न देखा गया। मैंने उन् ें अपने दस्तरखान पर खखलाया और अब भी खखलाता ूाँ। घर में कु राम मच गया। ष्जसे देखखए मुझ पर त्योररयााँ बदल र ा ै, मगर मैंने परवा न की। आखखर ै व भी तो मारा ी खून। इसशलए, मैं बौड़म क लाता ूाँ।

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मैं - जो लोग आपको बौड़म क त े ै, वे खुद बौड़म ै।

खलील - जनाब, इनके साथ र ना अजीब ै। शा काबूल ने कुबामनी की मुमाननयत कर दी ै। ह िंदसु्तान के उलमा ने भी य ी फतवा हदया, पर य ााँ खास मेरे घर कुबामनी ुई। मैंने रचिंद बावैला मचाया, पर मेरी कौन सुनता ै?

उसका कफारा (प्रायष्श्चत) मैंने य अदा ककया कक अपनी सवारी का घोड़ा बेच कर 300 फकीरों का खाना खखलाया और तब से कसाइयों को गायें शलये जात ेदेखता ूाँ तो कीमत देकर खरीद लेता ूाँ। इस वक्त तक दस गायों की जान बचा चुका ूाँ। वे सब य ााँ ह िंदओुिं के घरों में ै, पर मजा य ै कक ष्जन् ें मैंने गायें दी ैं, वे भी मुझ ेबौड़म क त े ै। मैं भी इस नाम का इतना आदी ो गया ूाँ कक अब मुझ ेइससे मु ब्बत ो गई ै।

मैं - आप जैसे बौड़म काश मलु्क में और ज्यादा ोत।े

खलील - लीष्जए आपने भी बनाना शुर कर हदया। य देखखए आम का बाग ै। मैं उनकी रखवाली करता ूाँ। लोग क त े ै ज ााँ जारों का नुकसान ो र ा ै व ााँ तो देखभाल करता न ीिं, जरा-सी बधगया की रखवाली में इतना मुस्तैद। जनाब, य ााँ लड़कों का य ाल ै कक एक आम तो खात े ैं और पचीस आम धगरात े ै। ककतने ी पेड़ चोट खा जात े ै और कफर ककसी काम के न ीिं र त।े मैं चा ता ूाँ कक आम पक जाएाँ, टपकने लगे तब ष्जसका जी चा े चुन ले जाए। कच्च ेआम खराब करने से क्या फायदा? य भी मेरे बौड़मपन में दाखखल ै।

3

ये बातें ो र ी थीिं कक स सा तीन-चार आदमी एक बननये को पकड़े, घसीटत े ुए आत े हदखाई हदये। पूछा तो उन चारों आदशमयों में से एक ने, जो सूरत से मौलवी मालमू ोत े थे, क ा - य बड़ा बेईमान ै, इसके बााँट कम ै। अभी इसके य ााँ से सेर भर घी ले गया ूाँ। घर पर तौलता ूाँ तो आि पाव कम। अब

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लौटाने आया ूाँ तो क ता ै मैंने तो पूरा तौला था। पूछो अगर तूने पूरा तौला था तो क्या मैं रास्त े में खा गया। अब ले चलता ूाँ थाने पर, व ीिं इसकी मरम्मत ोगी।

दसूरे म ाशय, जो व ााँ डाकखाने के मुिंशी थे, बोले - इसकी मेशा की य ी आदत ै, कभी पूरा न ीिं तौलता। आज ी दो आने की शक्कर माँगवाई। लड़का घर लेकर गया तो मुष्श्कल से एक आने की थी। लौटाने आया तो आाँखें हदखाने लगा। इसके बााँटों की आज ी जााँच करानी चाह ए।

तीसरा आदमी अ ीर था। अपने शसर पर से खली की गठरी उतार कर बोला, सा ब, य 11 रु. की खली ै। 6 सेर के भाव से दी थी। घर पर तौला तो 2 सेर ुई। लाया कक लौटा दूाँगा, पर य लेता ी न ीिं! अब इसका ननबटारा थाने ी में ोगा। इस पर कई आदशमयों ने क ा - य सचमुच बेईमान ै।

बननये ने क ा - अगर मेरे बााँट रत्ती भर कम ननकलें तो जार रुपए डााँड दूाँ।

मौलवी सा ब ने क ा - तो कमबख्त, टााँकी मारता ोगा।

मुिंशी जी बोले - टााँकी मार देता ै, य ी बात ै।

अ ीर ने क ा - दो रे बाट रखे ै। हदखाने के और, बेचने के और इसके घर की पुशलस तलाशी ले।

बननये ने कफर प्रनतवाद ककया, पकड़नेवालों ने कफर आक्रमण ककया, इसी तर कोई आि घिंटा तक तकरार ोती र ी। मेरी समझ में न आता था कक क्या कराँ । बननये को छुड़ाने के शलए जोर दूाँ या जाने दूाँ। बननये से सभी जले ुए मालूम ोत े थे। खलील को देखा तो गायब? न जाने कब उठकर चला गया?

बननया ककसी तर न दबता था, य ााँ तक कक थाने जाने से भी न डरता था।

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4

ये लोग थाने जाना ी चा ते थे कक बौड़म सामने आता हदखाई हदया। उसके एक ाथ में एक टोकरा था, दसूरे ाथ में एक टोकरी और पीछे 7-8 बरस का लड़का। उसने आत े ी मौलवी सा ब से क ा - य कटोरा आप ी का ै काजी जी?

मौलवी (चौंककर) - ााँ ै तो कफर? तुम मेरे घर से इसे क्यों लाए?

बौड़म - इसशलए कक कटोरे में व ी आिा पाव घी ै ष्जसके ववषय में आप क त े ै कक बननये ने कम तौला। घी व ी ै। वजन व ी ै। बेईमानी गरीब बननये की न ीिं ै, बष्ल्क काजी ाजी मौलवी ज ूर अ मद की।

मौलवी - तुम अपना बौड़मपन य ााँ न हदखाना न ीिं तो मैं ककसी से डरने वाला न ीिं ूाँ। तुम लखपती ोगे तो अपने घर के ोंगे। तुम् ें क्या मजाल था मेरे घर में जाने का!

बौड़म - व ी जो आपको बननये को थाने में ले जाने का ै। अब य घी भी थाने जाएगा।

मौलवी - (शसटवपटा कर) सबके घर में थोड़ी ब ुत चीज रखी ी र ती ै। कसम कुरान शरीफ की, मैं अभी तुम् ारे वाशलद के पास जाता ूाँ, आज तक गााँव भर में ककसी ने मुझ पर ऐसा इलजाम न ीिं लगाया था।

बननया - मौलवी सा ब आप जात ेक ााँ ै? चशलए मारा-आपका फैसला थाने में ोगा। मैं एक न मानूाँगा। क लाने को मौलवी, दीनदार, ऐसे बनत े ै कक देवता ी

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ैं। पर घर में चीज रखकर दसूरों को बेईमान बनात े ै। य लिंबी दाढी िोखा देने के शलए बढाई ै?

मगर मौलवी सा ब न रुके। बननये को छोड़कर खलील के बाप के पास चले गए,

जो इस वक्त शमम से बचने का स ज ब ाना था।

तब खलील ने अ ीर से क ा - क्यों बे, तू भी थाने जा र ा ै? चल मैं भी चलता ूाँ। तरेे घर से य सेर भर खली लेता आया ूाँ।

अ ीर ने मौलवी सा ब की दगुमनत देखी तो चे रे पर वाइयााँ उड़ने लगीिं, बोला - भैया जवानी की कसम ैं, मुझ ेमौलवी सा ब ने शसखा हदया था।

खलील - दसूरे के शसखाने से तुम ककसी के घर में आग लगा दोगे? खुद तो बच्चा दिू में आिा पानी शमला-शमलाकर बेचत े ो, मगर आज इतनी मुटमरदी सवार ो गई कक एक भले आदमी को तबा करने पर आमादा ो गए। खली उठाकर घर में रख ली, उस पर बननये से क त े ो कक कम तौला।

बननया - भैया, मेरी लाख रुपए की इज्जत बबगड़ गई। मैं थाने में रपट ककए बबना न मानूाँगा।

अ ीर -सा ू जी, अब की माफ करो, न ीिं तो क ीिं का न र ूाँगा।

तब खलील ने मुिंशी जी से क ा - कह ए जनाब, आपकी कलई खोलूाँ या चुपके से घर की रा लीष्जएगा।

मुिंशी - तुम बेचारे मेरी कलई क्या खोलोगे। मुझ ेतो अ ीर समझ शलया ै कक तुम् ारी भपककयों में आऊाँ गा।

खलील - (लड़के से) क्यों बेटा, तुम शक्कर लेकर सीिे घर चले गए थे?

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लड़का - (मुिंशी जी सशिंक नेत्रों से देखकर) बताऊाँ गा।

मुिंशी - लड़कों को जैसा शसखा दोगे वैसा क ेंगे।

खलील - बेटा, अभी तुमने मुझसे जो क ा था, व ी कफर क दो।

लड़का - दादा मारेंगे।

मुिंशी - क्या तूने रास्त ेमें शक्कर फााँक ली थी। लड़का रोने लगा।

खलील - जी ााँ, इसने मुझसे खुद क ा; पर आपने उससे पूछा तो पूछा न ीिं बननये के शसर ो गए। य ी शराफत ै।

मुिंशी - मुझ ेक्या मालूम था कक उसने रास्त ेमें य शरारत की?

खलील - तो ऐसे कमजोर सबतू पर आप थाने क्योंकर चले थे। आप गाँवारों को मनीआडमर के रुपए देत े ै तो उस रुपए पर दो आने अपनी दस्तूरी काट लेत े ै। टके के पोस्टकाडम आने में बेचत े ै, जब कह ए तब साबबत कर दूाँ। उसे क्या आप बेईमानी न ीिं समझत े ै?

मुिंशी जी ने बौड़म के मुाँ लगना मुनाशसब न समझा। लड़के को मारत े ुए घर ले गए। बननये ने बौड़म को खूब आशीवामद हदया। दशमक लोग भी िीरे-िीरे चले गए। तब मैंने खलील से क ा - आपने इस बननये का जान बचा ली न ीिं तो बेचारा बेगुना पुशलस के पिंजे में फाँ स जाता।

खलील - आप जानत े ै कक मुझ े क्या शसला (इनाम) शमलेगा। थानेदार मेरे दशु्मन ो जाएिंगे। क ेंगे य मेरे शशकारों को भगा हदया क ता ै। वाशलद सा ब पुशलस से थर-थर कााँपत े ै। मुझ े ाथों लगे कक तू दसूरों के बीच में क्यों दखल देखा ै? य ााँ य भी बौड़मपन मेरे बौड़मपर में दाखखल ै। एक बननये के पीछे मुझ ेभले आदशमयों की कलई खोलनी मुनाशसन न थी। ऐसी रकत बौड़म लोग ककया करत े ै।

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मैंने श्रद्धा शब्दों में क ा - अब मैं आपको इस नाम से पुकाराँ गा। आज मुझ ेमालूम ुआ कक बौड़म देवताओिं को क ा जाता ै! जो स्वाथम पर आत्मा की भेंट कर देता ै व चतुर ै, बुवद्धमान ै। जो आत्मा के सामने, सच्च े शसद्धािंत के सामने, सत्य के सामने, स्वाथम की, ननिंदा की परवा न ीिं करता व बौड़म ै,

ननबुमवद्ध ै।

***

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गुप् त धन

बाबू ररदास का ईटों का पजावा श र से शमला ुआ था। आसपास के दे ातों से सैकड़ो स्त्री-पुरुष, लड़के ननत्य आत ेऔर पजावे से ईंट शसर पर उठाकर ऊपर कतारों से सजात।े एक आदमी पजावे के पास एक टोकरी में कौडड़यााँ शलए बैठा र ा था। मजदरूों को ईंटों की सिंख्या के ह साब से कौडड़यााँ बााँटता था। ईंटें ष्जतनी ज्यादा ोती उतनी ी ज्यादा कौडड़यााँ शमलती। इस लोभ में ब ुत से मजदरू बूत ेके बा र काम करत।े वदृ्धों और बालकों को ईंटों के बोझ से अकड़े ुए देखना ब ुत करुणाजनक दृश्य थी। कभी-कभी बाबू ररदास स्वयिं आकर कौड़ीवाले के पास बैठ जात ेऔर ईंटें लादने को प्रोत्साह त करत।े य दृश्य तब और भी दारुण ो जाता था, जब ईंटों की कोई असािारण आवश्यकता आ पड़ती। उसमें मजूरी दनूी कर दी जाती और मजूर लोग अपनी सामथ्यम से दनूी ईंटें लेकर चलत।े एक-एक पग उठाना कहठन ो जाता। उन् ें शसर से पैर तक पसीने में डूबे पजाव े की राख चढाए ईंटों का एक प ाड़ शसर पर रखे, बोझ से दबे देखकर ऐसा जान पड़ता था मानों लोभ का भूत उन् ें जमीन पर पटक कर उनके शसर पर सवार ो गया ै। सबसे करुण दशा एक छोटे लड़के की थी जो सदैव अपनी अवस्था के लड़कों से दगुनी ईंटें उठाता और सारे हदन अववश्रािंत पररश्रम और िैयम के साथ अपने काम में लगा र ता था। उसके मुख पर ऐसी दीनता छाई र ती थी, उसका शरीर इतना कृश और दबुमल था कक उसे देखकर दया आ जाती थी। और लड़के बननए की दकुान से गुड़ ला कर खात,े कोई सड़क पर जानेवाले इक्कों और वागाडड़यों का ब ार देखता और कोई व्यष्क्तगत सिंग्राम में अपनी ष्जह्वा और बा ु के जौ र हदखाता, लेककन इस गरीब लड़के को अपने काम से काम था। उसमें लड़कपन की न चिंचलता थी, न शरारत, न खखलाड़ीपर, य ााँ तक कक उसके ओठों पर कभी ाँसी भी न आती थी। बाबू ररराम को उसकी दशा पर दया आती। कभी-कभी कौड़ीवाले को इशारा करत ेकक उसे ह साब से अधिक कौडड़यााँ दे दो। कभी-कभी वे उसे कुछ खाने को दे देत।े

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एक हदन उन् ोंने उस लड़के को बुलाकर अपने पास बैठाया और उसके समाचार पूछने लगे। ज्ञात ुआ कक उसका घर पास ी के गााँव में ै। घर में एक वदृ्धा माता के शसवा कोई न ीिं ै और वदृ्धा भी ककसी पुराने रोग से ग्रस्त र ती ै। घर का सारा भार इसी लड़के के शसर था। कोई उसे रोहटयााँ बनाकर देनेवाला भी न था। शाम को जाता तो अपने ाथों से रोहटयााँ बनाता औऱ अपनी मााँ को खखलाता था। जानत का ठाकुर था। ककसी समय उसका कुल िन-िान्य सिंपन्न था। लेन-देन ोता था और शक्कर का कारखाना चलता था। कुछ जमीन भी थी ककिं तु भाइयों की स्पिाम और ववद्वेष ने उसे इतनी ीनावस्था को प ुाँचा हदया कक अब रोहटयों के लाले थे। लड़के का नाम मगनशसिं था।

ररदास ने पूछा - गााँववाले तुम् ारी कुछ मदद न ीिं करत?े

मगन - वा , उनका वश चले तो मुझ ेमार डालें। सब समझत े ै कक मेरे घर में रुपए गड़ े ै।

ररदास ने उत्सुकता से पूछा - पुराना घराना ै, कुछ-न-कुछ तो ोगा ी। तुम् ारी मााँ ने इस ववषय में तुमसे कुछ न ीिं क ा?

मगन - बाबूजी न ीिं, एक पसैा भी न ीिं। रुपए ोत ेतो अम्मााँ इतनी तकलीफ क्यों उठाती।

2

बाबू ररदास मगनशसिं से इतने प्रसन्न ुए कक मजूरों की शे्रणी से उठाकर अपने नौकरों में रख शलया। उसे कौडड़यााँ बााँटने का काम हदया और पजावे में मुिंशी जी को ताकीद कर दी कक व इसे कुछ पढना-शलखना शसखाइए। अनाथ के भाग्य जाग उठे।

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मगनशसिं बड़ा कतमव्यशील और चतुर लड़का था। उसे कभी देर न ोती, कभी नागा न ोता। थोड़े ी हदनों में उसने बाबू सा ब का ववश्वास प्राप्त कर शलया। शलखने-पढने में भी कुशल ो गया।

बरसात के हदन थे। पजावे में पानी भरा ुआ था। कारबार बिंद था। मगनशसिं तीन हदनों से गैर ाष्जर था। ररदास को धचिंता ुई, क्या बात ै, क ीिं बीमार तो न ीिं ो गया, कोई दघुमटना तो न ीिं ो गई? कई आदशमयों से पूछताछ की, पर कुछ पता न चला! चौथे हदन पूछत-ेपूछत ेमगनशसिं के घर प ुाँच।े घर क्या था पुरानी समवृद्ध का ध्विंसावशेष मात्र था। उनकी आवाज सुनत े ी मगनशसिं बा र ननकल आया। ररदास ने पूछा - कई हदनों से आए क्यों न ीिं, माता का क्या ाल ै?

मगनशसिं ने अवरुद्ध किं ठ से उत्तर हदया - अम्मााँ आजकल ब ुत बीमार ै,

क ती ै अब न बचूाँगी। कई बार आपको बुलाने के शलए मझुसे क चुकी ै, पर मैं सिंकोच के मारे आपके पास न आता था। अब आप सौभाग्य से आ गए ै तो जरा चलकर उसे देख लीष्जए। उसकी लालसा भी पूरी ो जाए।

ररदास भीतर गए। सारा घर भौनतक ननस्सारता का पररचायक था। सुखी, किं कड़,

ईंटों के ढेर चारों ओर पड़ े ुए थे। ववनाश का प्रत्यक्ष स्वरप था। केवल दो कोठररयााँ गुजर करने लायक थी। मगनशसिं ने एक कोठरी की ओर उन् ें इशारे से बताया। ररदास भीतर गए तो देखा वदृ्धा एक सड़ े ुए काठ के टुकड़ ेपर पड़ी करा र ी ै।

उनकी आ ट पात े ी आाँखें खोली और अनुमान से प चान गई, बोली - आप आ गए, बड़ी दया की। आपके दशमनों की बड़ी अशभलाषा थी, मेरे अनाथ बालक के नाथ अब आप ी ैं। जैसे आप ने अब तक उसकी रक्षा की ै, व ननगा उस पर सदैव बनाए रखखएगा। मेरी ववपष्त्त के हदन पूरे ो गए। इस शमट्टी को पार लगा दीष्जएगा। एक हदन घर में लक्ष्मी का वास था। अहदन आए तो उन् ोंने भी आाँखें फेर लीिं। पुरखों ने इसी हदन के शलए कुछ थाली िरती माता को सौंप दी

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थी। उसका बीजक बड़ ेयत्न से रखा था; पर ब ुत हदनों से उसका क ीिं पता न लगता था। मगन के वपता ने ब ुत खोजा पर न पा सके, न ीिं तो मारी दशा इतनी ीन न ोती। आज तीन हदन ुए मुझ े व बीजक आप ी आप रद्दी कागजों में शमल गया। तब से उसे नछपा कर रखे ुए ूाँ, मगन बा र ै? मेरे शसर ाने जो सिंदकू रखी ै, उसी में व बीजक ै। उसमें सब बातें शलखी ै। उसी से हठकाने का भी पता चलेगा। अवसर शमले तो उसे खुदवा डाशलएगा। मगन को दे दीष्जएगा। य ी क ने के शलए आपको बार-बार बुलवाती थी। आपके शसवा मुझ े ककसी पर ववश्वास न था। सिंसार से िमम उठ गया। ककसकी नीयत पर भरोसा ककया जाए।

3

ररदास ने बीजक का समाचार ककसी से न क ा। नीयत बबगड़ गई। दिू में मक्खी पड़ गई। बीजक से ज्ञात ुआ कक िन उस घर से 500 डग पष्श्चम की ओर एक मिंहदर के चबूतरे के नीच े ै।

ररदास िन को भोगना चा त ेथे, पर इस तर कक ककसी को कानों-कान खबर न ो। काम कष्ट-साध्य था। नाम पर िब्बा लगने की प्रबल आशिंका थी, जो सिंसार में सबसे बड़ी यिंत्रणा ै। ककतनी घोर नीचता थी। ष्जस अनाथ की रक्षा की, ष्जसे बच्च ेकी भााँनत पाला, उसके साथ ववश्वासघात! कई हदनों तक आत्म-वेदना की पीड़ा स त ेर े। अिंत में कुतकों ने वववेक को परास्त कर हदया। मैंने कभी िमम का पररत्याग न ीिं ककया और न कभी कराँ गा। क्या कोई ऐसा प्राणी भी ै जो जीवन में एक बार भी ववचशलत न ुआ ो। यहद ै तो व मनुष्य न ीिं देवता ै। मैं मनुष्य ूाँ। मुझ ेदेवताओिं की पिंष्क्त में बठैने का दावा न ीिं ै।

मन को समझाना बच्च ेको फुसलाना ै। ररदास सााँझ को सैर के शलए घर से ननकल जात।े जब चारों ओर सन्नाटा छा जाता तो मिंहदर के चबूतरे पर आ बैठत ेऔर एक कुदाली से उसे खोदत।े हदन में दो-एक बार इिर-उिर ताक-झााँक

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करत े कक कोई चबूतरे के पास खड़ा तो न ीिं ै। रात की ननस्तब्िता में उन् ें अकेले बैठे ईंटों को टात े ुए उतना ी भय ोता था ष्जतना ककसी भ्रष्ट वैष्णव को आशमष भोजन से ोता ै।

चबूतरा लम्बा-चौड़ा था। उसे खोदत े एक म ीना लग गया और अभी आिी मिंष्जल भी तय न ुई। इन हदनों उनकी दशा उस पुरुष की-सी थी जो कोई मिंत्र जगा र ा ो। धचत्त पर चिंचलता छाई र ती। आाँखों की ज्योनत तीव्र ो गई थी। ब ुत गुम-सुम र ते, मानो ध्यान में ो। ककसी से बातचीत न करते, अगर कोई छेड़कर बात करता तो झुाँझला पड़त।े पजावे की ओर ब ुत कम जात।े ववचारशील पुरुष थे। आत्मा बार-बार इस कुहटल व्यापार से भागती, ननश्चय करत ेकक अब चबूतरे की ओर न जाऊाँ गा, पर सिंध्या ोत े ी उन पर एक नशा-सा छा जाता, बुवद्ध-वववेक का अप रण ो जाता। जैसे कुत्ता मार खाकर थोड़ी देर बाद टुकड़ ेकी लालच में जा बैठता ै, व ी दशा उनकी थी। य ााँ तक की दसूरा मास भी व्यतीत ुआ।

अमावस की रात थी। ररदास मशलन हृदय में बैठी ुई काशलमा की भााँनत चबूतरे पर बैठे ुए थे। आज चबूतरा खुद जाएगा। जरा देर तक और मे नत करनी पड़गेी। कोई धचिंता न ीिं। घर में लोग धचिंनतत ो र े ोंगे। पर अभी ननष्श्चत ुआ जाता ै कक चबूतरे के नीच ेक्या ै। पत्थर का त खाना ननकल आया तो समझ जाऊाँ गा कक िन अवश्य ोगा। त खाना न शमले तो मालूम ो जाएगा कक सब िोखा ै। क ीिं सचमुच त खाना न शमले तो बड़ी हदल्लगी ो। मुफ्त में उल्लू बनूाँ। पर न ीिं, कुदाली खट-खट बोल र ी ै। ााँ, पत्थर की चट्टान ै। उन् ोंने टटोल कर देखा। भ्रम दरू ो गया चट्टान थी। त खाना शमल गया; लेककन ररदास खुशी से उछले-कूदे न ीिं।

आज वे लौटे तो शसर में ददम था। समझ ेथकान ै। लेककन य थकान नीिंद से न गई। रात को ी उन् ें जोर से बुखार ो गया। तीन हदन तक ज्वर में पड़ ेर े। ककसी दवा से फायदा न ुआ।

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इस रुग्णावस्था में ररदास को बार-बार भ्रम ोता था - क ीिं य मेरी तषृ्णा का दिंड तो न ीिं ै। जी में आता था, मगनशसिं को बीजक दे दूाँ और क्षमा की याचना कराँ ; पर भिंडाफोड़ ोने का भय मुाँ बिंद कर देता था। न जाने ईसा के अनुयायी अपने पादररयों के सम्मुख कैसे अपने जीवन भर के पापों की कथा सुनाया करत ेथे।

4

ररदास की मतृ्यु के पीछे य बीजक उनके सुपुत्र प्रभुदास के ाथ लगा। बीजक मगनशसिं के पुरखों का शलखा ुआ ै, इसमें लेशमात्र भी सिंदे न था। लेककन उन् ोंने सोचा - वपताजी ने कुछ सोचकर ी इस मागम पर पग रखा ोगा। व ेककतने नीनतपरायण, ककतने सत्यवादी पुरुष थे। उनकी नीयत पर कभी ककसी को सिंदे न ीिं ुआ। जब उन् ोंने इस आचार को घखृणत न ीिं समझा तो मेरी क्या धगनती ै। क ीिं य िन ाथ आ जाए तो ककतने सुख से जीवन व्यतीत ो। श र के रईसों को हदखा दूाँ कक िन का सदपुयोग क्योंकर ोना चाह ए। बड़े-बड़ों का शसर नीचा कर दूाँ। कोई आाँखें न शमला सके। इरादा पक्का ो गया।

शाम ोत े ी वे घर से बा र ननकले। व ी समय था, व ी चौकन्नी आाँखें थी और व ी तजे कुदाली थी। ऐसा ज्ञात ोता था मानो ररदास की आत्मा इस नए भेष में अपना काम कर र ी ै।

चबूतरे का िरातल प ले ी खुद चुका था। अब सिंगीन त खाना था, जोड़ों को टाना कहठन था। पुराने जमाने का पक्का मसाला था; कुल् ाड़ी उचट-उचट कर लौट आती थी। कई हदनों में ऊपर की दरारें खुलीस लेककन चट्टान जरा भी न ह लीिं। तब व लो े की छड़ से काम लेने लगे, लेककन कई हदनों तक जोर लगाने पर भी चट्टानें न खखसकी। सब कुछ अपने ी ाथों करना था। ककसी से स ायता

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न शमल सकती थी। य ााँ तक कक कफर व ी अमावस्या की रात आई! प्रभुदास को जोर लगात ेबार बज गए और चट्टानें भाग्यरेखाओिं की भााँनत अटल थी।

पर आज इस समस्या को ल करना आवश्यक था। क ीिं त खाने पर ककसी की ननगा पड़ जाए तो मेरे मन की लालसा मन ी में र जाए।

व चट्टान पर बैठकर सोचने लगे - क्या कराँ , बुवद्ध कुछ काम न ीिं करती। स सा उन् ें एक युष्क्त सूझी, क्यों न बारद से काम लूाँ? इतने अिीर ो र े थे कक कल पर इस काम को न छोड़ सके। सीिे बाजार की तरफ चले, दो मील का रास्ता वा की तर तय ककया। पर व ााँ प ुाँच ेतो दकूानें बिंद ो चुकी थीिं। आनतशबाज ीले करने लगा। बारद इस समय न ीिं शमल सकती। सरकारी ुक्म ै। तुम कौन ो? इस वक्त बारद लेकर क्या करोगे? न भैया; कोई वारदात ो जाए तो मुफ्त में बाँिा-बाँिा कफराँ तुम् ें कौन पूछेगा?

प्रभुदास की शािंनत-वषृ्त्त कभी इतनी कहठन परीक्षा में न पड़ी थी। वे अिंत तक अनुनय-ववनय ी करत े र े, य ााँ तक कक मुद्राओिं की सुरीली झिंकार ने उसे वशीभूत कर शलया। प्रभुदास य ााँ से चले तो िरती पर पााँव न पड़त ेथे।

रात के दो बजे थे। प्रभुदास मिंहदर के पास प ुाँच।े चट्टानों की दराजों पर बारद रख पलीता लगा हदया और दरू भागे। एक क्षण में बड़ ेजोर का िमाका ुआ। चट्टान उड़ गई। अाँिेरा गार सामने था, मानो कोई वपशाच उन् ें ननगल जाने के शलए मुाँ खोले ुए ै।

5

प्रभात का समय था। प्रभुदास अपने कमरे में लेटे ुए थे। सामने लो े के सिंदकू में दस जार पुरानी मु रें रखी ुई थीिं। उनकी माता शसर ाने बैठी पिंखा झल र ी थी। प्रभुदास ज्वर की ज्वाला से जल र े थे। करवटें बदलत ेथे, करा त ेथे, ाथ-

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पााँव पटकत ेथे; पर आाँखें लो े के सिंदकू की ओर लगी ुई थीिं। इसी में उनकी जीवन की आशाएाँ बन्द थीिं।

मगनशसिं अब पजावे का मुिंशी था। इसी घर में र ता था। आकर बोला - पजाव ेचशलएगा? गाड़ी तैयार कराऊाँ ?

प्रभुदास ने उसके मुख की ओर क्षमा-याचना की दृष्ष्ट से देखा और बोले - न ीिं, मैं आज न चलूाँगा, तबीयत अच्छी न ीिं ैं। तुम भी मत जाओ।

मगनशसिं उनकी दशा देखकर डाक्टर को बुलाने चला।

दस बजत-ेबजत ेप्रभुदास का च ेरा पीला पड़ गया। आाँखे लाल ो गई। माता ने उसकी ओर देखा तो शोक से ववह्वल ो गई। बाबू ररदास की अिंनतम दशा उनकी आाँखों में कफर गई। जान पड़ता था, य उसी शोक घटना की पुनरावषृ्त्त ै! य देवताओिं की मनौनतयााँ मना र ी थी, ककिं तु प्रभुदास की आाँखें उसी लो े के सिंदकू की ओर लगी ुई थीिं, ष्जस पर उन् ोंने अपनी आत्मा अपमण कर दी थी।

उनकी स्त्री आकर उनके पैताने बैठ गई और बबलख-बबलख कर रोने लगी। प्रभुदास की आाँखों में भी आाँखू ब र े थे, पर वे लो े के सिंदकू की ओर ननराशा पूणम भाव से देख र ी थी।

डाक्टर ने आकर देखा, दवा दी और चला गया, पर दवा का असर उल्टा ुआ। प्रभुदास के ाथ-पााँव सदम ो गए, मुख ननस्तजे ो गया, हृदय की गनत मिंद पड़ गई, पर आाँखें सिंदकू की ओर से न टीिं।

मु ल्ले के लोग जमा ो गए। वपता और पुत्र के स्वभाव और चररत्र पर हटप्पखणयााँ ोने लगी। दोनों शील और ववनय के पुतले थे। ककसी को भूलकर भी कड़ी बात न क ीिं। प्रभुदास का सिंपूणम शरीर ठिंड़ा ो गया। प्राण था तो केवल आाँखों में। वे अब भी उसी लो े के सिंदकू की ओर सतषृ्ण भाव से देख र ी थी।

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घर में को राम मचा ुआ था। दोनों मह लाएाँ पछाड़ े खा-खाकर धगरती थीिं। मु ल्ले की ष्स्त्रयााँ उन् ें समझती थीिं। अन्य शमत्रगण आाँखों पर रमाल जमाए ुए थे। जवानी की मौत सिंसार का सबसे करुण, सबसे अस्वाभाववक और भयिंकर दृश्य ै। य वज्रपात ै, वविाता की ननदमय लीला ै। प्रभुदास का सारा शरीर प्राण ीन ो गया था, पर आाँखें जीववत थी। सााँस ननकलती ै, पर आस न ीिं ननकलती।

इतने में मगनशसिं आकर खड़ा ो गया। प्रभुदास की ननगा ें उस पर पड़ी। ऐसा जान पड़ा मानो उनकी शरीर मे कफर रक्त का सिंचार ुआ। अिंगों में स्फूनतम के धचह्न हदखाई हदए। इशारे से अपने मुाँ के ननकट बुलाया, उसके कान में कुछ क ा, एक बार लो े के सिंदकू की ओर इशारा ककया और आाँखें उलट गई, प्राण ननकल गए।

***

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आदिम ववरोध

म ाशय दयाकृष्ण मे ता के पााँव जमीन पर न पड़त े थे। उनकी व आकािंक्षा पूरी ो गई थी जो उनके जीवन का मिुर स्वप्न था। उन् ें व राज्याधिकार शमल गया था जो भारत-ननवाशसयों के शलए जीवन-स्वगम ै। वाइसराय ने उन् ें अपनी कायमकाररणी सभा का मेम्बर ननयुक्त कर हदया था।

शमत्रगण उन् ें बिाइयााँ दे र े थे। चारों ओर आनिंदोत्सव मनाया जा र ा था, क ीिं दावतें ोती थीिं, क ीिं आश्वासन-पत्र हदए जात ेथे। व उनका व्यष्क्तगत सम्मान न ीिं, राष्रीय सम्मान समझा जाता था। अिंगरेज अधिकारी-वगम भी उन् ें ाथों- ाथ शलये कफरता था।

म ाशय दयाकृष्ण लखनऊ के एक सुववख्यात बैररस्टर थे। बड़ े उदार हृदय,

राजनीनत में कुशल और प्रभाभक्त थे। सदैव सावमजननक कायों में तल्लीन र त ेथे। समस्त देश में शासन का ऐसा ननभमय तत्त्वान्वेशी, ऐसा ननस्प ृ समालोचक न था और न प्रजा का ऐसा सूक्ष्मदशी, ऐसा ववश्वसनीय और ऐसा स दृय बिंिु।

समाचार-पत्रों में इस ननयुष्क्त पर खूब टीकाएाँ ो र ी थीिं। एक ओर से आवाज आ र ी थी - म गवनममेंट को इस चुनाव पर बिाई न ीिं दे सकत।े दसूरी ओर के लोग क त ेथे - य सरकारी उदारता और प्रजाह त-धचिंता का सवोत्तम प्रमाण ै। तीसरा दल भी था, जो दबी जबान में क ता था कक राष्र का एक और स्तिंभ धगर गया।

सिंध्या का समय था। कैसरपाकम से शलबरल लोगों की ओर से म ाशय मे ता को पाटी दी गई! प्रािंत भर के ववशशष्ट पुरुष एकत्र थे। भोजन के पश्चात सभापनत ने अपनी वक्ततृा में क ा - में पूरा ववश्वास ै कक आपका अधिकार-प्रवेश प्रजा के शलए ह तकर ोगा, और आपके प्रयत्नों से उन िाराओिं में सिंशोिन ो जाएगा, जो मारे राष्र के जीवन में बािक ै।

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म ाशय मे ता ने उत्तर देते ुए क ा - राष्र के कानून वतममान पररष्स्थनतयों के अिीन ोत े ै। जब तक पररष्स्थनतयों में पररवतमन न ो, कानून में सुव्यवस्था की आशा करना भ्रम ै।

सभा ववसष्जमत ो गई। एक दल ने क ा - ककतना न्याययुक्त और प्रशिंसनीय राजनैनतक वविान ै। दसूरा पक्ष बोला - आ गए जाल में। तीसरे दल ने नैराश्यपूणम भाव से शसर ह ला हदया, पर मुाँ से कुछ न क ा।

2

शम. दयाकृष्ण को हदल्ली आए ुए एक म ीना ो गया। फागुन का म ीना था। शाम ो र ी थी। व ेअपने उद्यान में ौज के ककनारे एक मखमली आरामकुसी पर बैठे ुए थे। शमसेज राजेश्वरी मे ता सामने बैठी ुई वपयानो बजाना सीख र ी थीिं और शमस मनोरमा ौज की मछशलयों को बबस्कुट के टुकड़ ेखखला र ी थीिं। स सा उसने वपता से पूछा - य अभी कौन सा ब आए थे।

मे ता - कौंशसल के सैननक मेम्बर ै।

मनोरमा - वाइसराय के नीच ेय ी ोंगे?

मे ता - वाइसराय के नीच ेतो सभी ै। वेतन भी सबका बराबर ै, लेककन इनकी योग्यता को कोई न ीिं प ुाँचता। क्यों रामेश्वरी, तुमने देखा, अिंगरेज लोग ककतने सज्जन और ववनयशील ोत े ैं।

राजेश्वरी - मैं तो उन् ें ववनय की मूनतम क ती ूाँ। इस गुण में भी ये मसे बढे ुए ैं। उनकी पत्नी मुझसे ककतने पे्रम से गली शमलीिं।

मनोरमा - मेरा तो जी चा ता था, उनके पैरों पर धगर पडूाँ।

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मे ता - मैंने ऐसे उदार, शशष्ट, ननष्कपट और गुणग्रा ी मनुष्य न ीिं देखे। मारा दया-िमम करने ी को ै। मझु े इसका ब ुत दुुःख ै कक अब तक क्यों इनसे बदगुमान र ा। सामान्यतुः इनसे म लोगों को जो शशकायतें ै उनका कारण पारस्पररक सष्म्मलन का न ोना ै। एक दसूरे के स्वभाव औऱ प्रकृनत से पररधचत न ीिं।

राजेश्वरी - एक यूननयन क्लब की बड़ी आवश्यकता ै। ज ााँ दोनों जानतयों के लोग स वास का आनिंद उठावें। शमथ्या-द्वेष-भाव को शमटाने का एकमात्र य ी उपाय ै!

मे ता - मेरा भी य ी ववचार ै। (घड़ी देखकर) 7 बज र े ै, व्यवसाय मिंडल के जलसे का समय आ गया। भारत-ननवाशसयों की ववधचत्र दशा ै। ये समझत े ै ह िंदसु्तानी मेम्बर कौंशसल में आत े ी ह िंदसु्तान के स्वामी ो जात े ै और चा े स्वछिंदता से कर सकत े ैं। आशा की जाती ै कक व ेशासन की प्रचशलत नीनत को पलट दें, नया आकाश और नया सूयम बना दें। उन सीमाओिं पर ववचार न ीिं ककया जाता ष्जनके अिंदर मेम्बरों को काम करना पड़ता ै।

राजेश्वरी - इनमें उनका दोष न ीिं ै। सिंसार की य रीनत ै कक लोग अपनों से सभी प्रकार की आशा रखत े ैं। अब तो कौंशसल के आिे मेम्बर ह िंदसु्तानी ै। क्या उनकी राय का सरकार की नीनत पर असर न ीिं ो सकता?

मे ता - अवश्य ो सकता ै, और ो र ा ै। ककिं तु उस नीनत में पररवतमन न ीिं ककया जा सकता। आिे न ीिं, अगर सारे मेम्बर ह िंदसु्तानी ों तो भी व ेनई नीनत का उद्घाटन न ीिं कर सकत।े वे कैसे भलू जावें कक कौंशसल में उनकी उपष्स्थनत केवल सरकार की कृपा और ववश्वास पर ननभमर ै। उसके अनतररक्त व ााँ आकर उन् ें आिंतररक अवस्था का अनुभव ोता ै और जनता की अधिकािंश शिंकाएाँ असिंगत प्रतीत ोने लगती ै, पद के साथ उत्तरदानयत्व का भारी बोझ भी शसर पर आ पड़ता ै। ककसी नई नीनत की सषृ्ष्ट करत े ुए उनके मन में य धचिंता उठनी स्वाभाववक ै कक क ीिं उसका फल आशा के ववरुद्ध न ो। य ााँ वस्तुतुः

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उनकी स्वािीनता नष्ट ो जाती ै। उन लोगों से शमलत े ुए भी खझझकत े ैं जो प ले इनके स कारी थे; पर अब अपने उच्छृिंखल ववचारों के कारण सरकार की आाँखों में खटक र े ैं। अपनी वक्ततृाओिं में न्याय और सत्य की बातें करत े ैं और सरकार की नीनत को ाननकर समझते ुए भी उसका समथमन करत े ै। जब इसके प्रनतकूल वे कुछ कर ी न ीिं सकते, तो इसका ववरोि करके अपमाननत क्यों बनें? इस अवस्था में य ी सवोधचत्त ै कक शब्दाडिंबर से काम लेकर अपनी रक्षा की जाए। और सबसे बड़ी बात य ै कक ऐसे सज्जन, उदार, नीनतज्ञ शुभधचिंनतकों के ववरुद्ध कुछ क ना या करना मनुष्यत्व और सद्व्यव ार का गला घोटना ै। य लो, मोटर आ गई। चलो व्यवसाय-मिंडल में लोग आ गए ोंगे।

ये लोग व ााँ प ुाँच ेतो करतल ध्वनन ोने लगी। सभापनत म ोदय ने एड्रसे पढा ष्जसका ननष्कषम य था कक सरकार को उन शशल्प-कलाओिं की रक्षा करनी चाह ए जो अन्य देशीय प्रनतद्विंद्ववता के कारण शमटी जाती ै। राष्र की व्यवसानयक उन्ननत के शलए नए-नए कारखाने खोलने चाह ए और जब वे सफल ो जावें तो उन् ें व्यवसानयक सिंस्थाओिं के वाले कर देना चाह ए। उन कलाओिं की आधथमक स ायता करना भी उनका कतमव्य ै, जो अभी शैशवास्था में ैं, ष्जससे जनता का उत्सा बढे।

मे ता म ोदय ने सभापनत को िन्यवाद देने के पश्चात सरकार की औद्योधगक नीनत की घोषणा करत े ुए क ा - आपके शसद्धािंत ननदोष ैं, ककिं तु उनको व्यव ार में लाना ननतािंत दसु्तर ै। गवनममेंट आपको सम्मनत प्रदान कर सकती ै, लेककन व्यवसानयक कायों में अग्रसर बनना जनता का काम ै। आपको स्मरण रखना चाह ए कक ईश्वर भी उन् ीिं की स ायता करता ै जो अपनी स ायता आप करत े ै। आप में आत्म-ववश्वास, औद्योधगक उत्सा का अभाव ै। पग-पग पर सरकार के सामने ाथ फैलाना अपनी अयोग्यता और अकममण्यता की सूचना देना ै।

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दसूरे हदन समाचार-पत्रों में इस वकृ्तता पर टीकाएाँ ोने लगी। एक दल ने क ा - शमस्टर मे ता की स्पीच ने सरकार की नीनत को बड़ी स्पष्टता और कुशलता से ननिामररत कर हदया ै।

दसूरे दल ने शलखा - म शमस्टर मे ता की स्पीच पढकर स्तिंशभत ो गए। व्यवसाय-मिंडल ने व ी पथ ग्र ण ककया ष्जसके प्रदशमक स्वयिं शमस्टर मे ता थे। उन् ोंने उस लोकोष्क्त को चररताथम कर हदया कक नमक की खान मे जो कुछ जाता ै, नमक ो जाता ै।

तीसरे दल ने शलखा - म मे ता म ोदय के इस शसद्धािंत से पूणम स मत ै कक में पग-पग पर सरकार के सामने दीन-भाव के ाथ ने फैलाना चाह ए। य वकृ्तता उन लोगों की आाँखें खोल देगी तो क त े ै कक में योग्यतम पुरुषों को कौशसिंल में भेजना चाह ए। व्यवसाय-मिंडल के सदस्यों पर दया आती ै जो आत्म-ववश्वास का उपदेश ग्र ण करने के शलए कानपुर से हदल्ली गए थे।

3

चते का म ीना था। शशमला आबाद ो चुका था। मे ता म ाशय अपने पुस्तकालय में बैठे ुए पढ र े थे कक राजेश्वरी ने आकर पूछा - ये कैसे पत्र ैं?

मे ता - य आय-व्यय का मसववदा ै। आगामी सप्ता में कौंशसल में पेश ोगा। उनकी कई मदें ऐसी ै ष्जन पर मुझे प ले भी शिंका थी और अब भी ै। अब समझ में न ीिं आता कक इस पर अनुमनत कैसे दूाँ। य देखो, तीन करोड़ रुपए उच्च कममचाररयों के वेतनववृद्ध के शलए रखे गए ैं। व ााँ कममचाररयों के वेतन प ले से ी बढा ुआ ै। इस ववृद्ध की जररत न ीिं, पर बात जबान पर कैसे लाऊाँ ? ष्जन् ें इससे लाभ ोगा वे सभी ननत्य के शमलने वाले ैं। सैननक व्यय में बीस करोड़ बढ गए ैं। जब मारी सेनाएाँ अन्य देशों में भेजी जाती ै

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तो ववहदत ी ै कक मारी आवश्यकता से अधिक ै, लेककन इस मद का ववरोि कराँ तो कौंशसल मुझ पर उाँगशलयााँ उठाने लगे।

राजेश्वरी - इस भय से चुप र जाना तो उधचत न ीिं, कफर तुम् ारे य ााँ आने से ी क्या लाभ ुआ।

मे ता - क ना तो आसान ै, पर करना कहठन ै। य ााँ जो कुछ आदर सम्मान ै, सब ााँ- ुजूर में ैं। वायसराय की ननगा जरा नतरछी ो जाए, तो कोई पास न फटके। नक्कू बन जाऊाँ । य लो, राजा भद्र ब ादरु शसिं जी आ गए।

राजेश्वरी - शशवराजपुर कोई बड़ी ररयासत ै।

मे ता - ााँ, पिंद्र लाख वावषमक से कम आय न ोगी और कफर स्वािीन राज्य ै।

राजेश्वरी - राजा सा ब मनोरमा की ओर ब ुत आकवषमत ो र े ै। मनोरमा को भी उनसे पे्रम ोता जान पड़ता ै।

मे ता - य सिंबिंि ो जाए तो क्या पूछना! य मेरा अधिकार ै जो राजा सा ब को इिर खीिंच र ा ै। लखनऊ में ऐसे सुअवसर क ााँ थे? व देखो अथमसधचव शमस्टर काक आ गए।

काक - (शमस्टर मे ता से ाथ शमलात े ुए) शमसेज मे ता, मैं आपके प नावे पर आसक्त ूाँ। खेद ै, मारी लेडडयााँ साड़ी न ीिं प नतीिं।

राजेश्वरी - मैं तो अब गाउन प नना चा ती ूाँ।

काक - न ीिं शमसेज मे ता, खुदा के वास्त ेय अनथम न करना। शमस्टर मे ता, मैं आपके वास्त ेएक बड़ी खुशखबरी लाया ूाँ। आपके सुयोग्य पुत्र अभी आ र े ै

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या न ीिं? म ाराजा शभिंद उन् ें अपना प्राइवेट सेके्रटरी बनाना चा त े ै। आप उन् ें आज ी सूचना दे दें।

मे ता - मैं आपका ब ुत अनुग्र ीत ूाँ।

काक - तार दे दीष्जए तो अच्छा ो। आपने काबुल की ररपोटम तो पढी ोगी। ह ज मैजेस्टी अमीर मसे सिंधि करने के शलए उत्सुक न ीिं जान पड़त।े वे बोल्शोववकों की ओर झुके ुए ै। अवस्था धचिंताजनक ै।

मे ता - मैं तो ऐसा न ीिं समझता। गत शताब्दी में काबुल को भारत पर आक्रमण करने का सा स कभी न ुआ। भारत ी अग्रसर ुआ। ााँ, वे लोग अपनी रक्षा करने में कुशल ै।

काक - लेककन क्षमा कीष्जएगा, आप भूल जात े ै कक ईरान-अफगाननस्तान और बोल्शेववक में सिंधि ो गई ै। क्या मारी सीमा पर इतने शत्रुओिं का जमा ो जाना धचिंता की बात न ीिं? उनसे सतकम र ना मारा कतमव्य ै।

इतने में लिंच (जलपान) का समय आया। लोग मेज पर जा बैठे। उस समय घुड़दौड़ और नाट्यशाला की चचाम ी रुधचकर प्रतीत ुई।

4

मे ता म ोदय ने बजट पर जो ववचार प्रकट ककए, उनसे समस्त देश में लचल मच गई। एक दल उन ववचारों को देववाणी समझता था, दसूरा दल भी कुछ अिंशों को छोड़कर शेष ववचारों से स मत था, ककिं तु तीसरा दल वक्ततृा के एक-एक शब्द पर ननराशा से शसर िुनता और भारत की अिोगनत पर रोता था। उसे ववश्वास ी न आता था कक ये शब्द मे ता की जबान से ननकले ोंगे।

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मुझ ेआश्चयम ै कक गैर-सरकारी सदस्यों ने एक स्वर से प्रस्ताववत व्यय के उस भाग का ववरोि ककया ै, ष्जस पर देश की रक्षा, शािंनत, सुदशा और उन्ननत अवलिंबबत ै। आप शशक्षा-सिंबिंिी सुिारों को, आरोग्य वविान को, न रों की ववृद्ध को अधिक म त्त्वपूणम समझत े ै। आपको अल्प वेतन वाले कममचाररयों का अधिक ध्यान ै। मुझ ेआप लोगों के राजनैनतक ज्ञान पर इससे अधिक ववश्वास था। शासन का प्रिान कतमव्य भीतर और बा र की अशािंनतकारी शष्क्तयों से देश को बचाना ै। शशक्षा और धचककत्सा, उद्योग और व्यवसाय गौण कतमव्य ै। म अपनी समस्त प्रजा को अज्ञान-सागर में ननमग्न देख सकत े ै, समस्त देश को प्लेग और मलेररया में ग्रस्त रख सकत े ै, अल्प वेतन वाले कममचाररयों को दारुण धचिंता का आ ार बना सकत े ै, कृषकों को प्रकृनत की अननश्चत दशा पर छोड़ सकत े ै, ककिं तु सीमा पर ककसी शत्र ुको खड़ ेन ीिं देख सकत।े अगर मारी आय सिंपूणमतुः देश-रक्षा पर समवपमत ो जाए, तो भी आपको आपष्त्त न ीिं ोनी चाह ए। आप क ेंगे इस समय ककसी आक्रमण की सिंभावना न ीिं ै। मैं क ता ूाँ सिंसार में असिंभव का राज्य ै। वा में रेल चल सकती ै, पानी में आग लग सकती ै, वकृ्षों में वातामलाप ो सकता ै। जड़ चैतन्य ो सकता ै। क्या ये र स्य ननत्य प्रनत मारी नजरों से न ीिं गुजरते? आप क ेंगे राजनीनतज्ञों का काम सिंभावनाओिं के पीछे दौड़ना न ीिं, वतममान और ननकट भववष्य की समस्याओिं को ल करना ै। राजनीनतज्ञों के कतमव्य क्या ै, मैं इस ब स में न ीिं पड़ना चा ता; लेककन इतना तो सभी मानत े ै कक पथ्य औषधि सेवन से अच्छा ोता ै। आपका केवल य ी िमम न ीिं कक सरकार के सैननक व्यय का समथमन करें , बष्ल्क य मन्तव्य आपकी ओर से पेश ोना चाह ए! आप क ेंगे कक स्वयिंसेवकों की सेना बढाई जाए। सरकार को ाल के म ा-सिंग्राम में इसका ब ुत ी खेदजनक अनुभव ो चुका ै। शशक्षक्षत वगम ववलासपूणम, सा स ीन और स्वाथम-पे्रमी ै। दे ात के लोग शािंनतवप्रय, सिंकीणम-हृदय (मैं भीर न क ूाँगा) और ग ृसेवी ै। उनमें व आत्म-त्याग क ााँ, व वीरता क ााँ, अपने पुरखों की व वीरता क ााँ? और शायद मुझ े य याद हदलाने की जररत न ीिं कक ककसी शािंनतवप्रय जनता को आप दो-चार वषों में रणकुशल और समर-प्रवीण न ीिं बना सकत।े

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5

जेठ का म ीना था, लेककन शशमले में न लू की ज्वाला थी और न िूप का ताप। म ाशय मे ता ववलायती धचहट्ठयााँ खोल र े थे। बालकृष्ण का पत्र देखत े ी फड़क उठे, लेककन जब उसे पढा तो मुखमिंडस पर उदासी छा गई। पत्र शलये ुए राजेश्वरी के पास आए। उसने उत्सुक ोकर पूछा - बाला का पत्र आया।

मे ता - ााँ, य ै।

राजेश्वरी - कब आ र े ै।

मे ता - आने-जाने के ववषय में कुछ न ीिं शलखा। बस, सारे पत्र में मेरे जानत-द्रो और दगुमनत का रोना ै। उसकी दृष्ष्ट में मैं जानत का शत्र,ु िूतम-स्वाथाांि, दरुात्मा, सब कुछ ूाँ। मैं न ीिं समझता कक उसके ववचारों में इतना अिंतर कैसे ो गया। मैं तो उसे ब ुत ी शािंत-प्रकृनत, गिंभीर, सुशील, सच्चररत्र और शसद्धािंतवप्रय नवयुवक समझता था और उस पर गवम करता था। और कफर य पत्र शलख कर ी उसे सिंतोष न ीिं ुआ, उसने मेरी स्पीच की ववस्ततृ वववेचन एक प्रशसद्ध अाँगरेजी पबत्रका में छपवाया ै। इतनी कुशल ुए कक व लेख अपने नाम से न ीिं शलखा, न ीिं तो मैं क ीिं मुाँ हदखाने योग्य न र ता। मालूम न ीिं य ककन लोगों की कुसिंगनत का फल ै। म ाराज शभिंद की नौकरी उसके ववचार में गुलामी ै, राजा भद्रब ादरु शसिं के साथ मनोरमा का वववा घखृणत और अपमानजनक ै। उसे इतना सा स ै कक मुझ े िूतम, मक्कार, ईमान बेचनेवाला, कुलद्रो ी क े। य अपमान! मैं उसका मुाँ न ीिं देखना चा ता...

राजेश्वरी - लाओ, जरा इस पत्र को मैं भी देखूाँ! व तो इतना मुाँ फट न था।

य क कर उसने पनत के ाथ से पत्र शलया और एक शमनट में आद्यािंत पढकर बोली - य सब कटु बातें क ााँ ैं? मुझ ेतो इसमें एक भी अपशब्द न ीिं शमलता।

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मे ता - भाव देखो, शब्दों पर न जाओ।

राजेश्वरी - जब तुम् ारे और उसके आदशों में ववरोि ै तो उसे तुम पर श्रद्धा क्योंकर ो सकती?

लेककन मे ता म ोदय जामे से बा र ो र े ै। राजेश्वरी की सह ण्णुपूणम बातों से वे और जल उठे। दफ्तर में जाकर उसी क्रोि में पुत्र को पत्र शलखने लगे ष्जसका एक-एक शब्द छुरी और कटार से ज्यादा तीखा था।

उपयुमक्त घटना के दो सप्ता पीछे शमस्टर मे ता के ववलायती डाक खोली तो बालकृष्ण का कोई पत्र न था। समझ े मेरी चोटें काम कर गई, आ गया सीिे रास्त ेपर, तभी तो उत्तर देने का सा स न ीिं ुआ। 'लिंदन टाइम्स' की धचट फाड़ी (इस पत्र को बड़ ेचाव से पढा करत ेथे) और तार की खबरें देखने लगे। स सा उनके मुाँ से एक आ ननकली। पत्र छूट कर धगर पड़ा। प ला समाचार था -

लिंदन में भारतीय देशभक्तों का जमाव, ऑनरेबुल शमस्टर

मे ता की वक्ततृा पर असिंतोष, शमस्टर बालकृष्ण

मे ता का ववरोि और आत्म त्या

गत शननवार को बैक्सटन ॉल में भारतीय युवकों और नेताओिं की एक बड़ी सभा ुई। सभापनत शमस्टर ताशलबजा ने क ा - म को ब ुत खोजने पर भी कौंशसल के ककसी अाँगरेज मेम्बर की वक्ततृा में ऐसे मममभेदी, ऐसे कठोर शब्द न ीिं शमलत।े मने अब तक ककसी राजनीनतज्ञ के मुख से ऐसे भ्रािंनतकारक, ऐसे ननरिंकुश ववचार न ीिं सुने। इस वक्ततृा ने शसद्ध कर हदया कक भारत के उद्धार का कोई उपाय ै तो व स्वराज्य ै ष्जसका आशय ै - मन और वचन की पूणम स्वािीनता। क्रमागत उन्ननत (evolution) पर से यहद मारा एतबार अब तक न ीिं उठा तो अब उठ गया। मारा रोग असाध्य ो गया ै। य अब चूणों और अवले ों से अच्छा न ीिं ो सकता। उससे ननवतृ्त ोने के शलए में कायाकल्प

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की आवश्यकता ै। ऊाँ च े राज्यपद में स्वािीन न ीिं बनाते; बष्ल्क मारी आध्याष्त्मक परािीनता को और पुष्ट कर देत े ै। में ववश्वास ै कक ऑनेरबुल शमस्टर मे ता ने ष्जन ववचारों का प्रनतदान ककया ै उन् ें वे अिंतुःकरण से शमथ्या समझत े ै; लेककन सम्मान-लालसा, शे्रय-पे्रम और पदानुराग ने उन् ें अपनी आत्मा का गला घोंटने पर बाध्य कर हदया ै...[ककसी ने उच्च स्वर से क ा: य शमथ्या दोषारोपण ै।]

लोगों ने ववष्स्मत ोकर देखा तो शमस्टर बालकृष्ण अपनी जग पर खड़ े थे। क्रोि से उनका शरीर कााँप र ा था। वे बोलना चा त े थे, लेककन लोगों ने उन् ें घेर शलया और उनकी ननिंदा और अपमान करने लगे। सभापनत ने बड़ी कहठनाई से लोगों को शािंत ककया, ककिं तु शमस्टर बालकृष्ण व ााँ से उठकर चले गए।

दसूरे हदन जब शमत्रगण बालकृष्ण से शमलने गए तो उनकी लाश फशम पर पड़ी ुई थी। वपस्तौल की दो गोशलयााँ छाती से पार ो गई थी। मेज पर उनकी डायरी खुली पड़ी थी, उस पर ये पिंष्क्तयााँ शलखी ुई थी -

आज सभा में मेरा गवम दशलत ो गया। मैं य अपमान न ीिं स सकता। मुझ ेअपने पूज्य वपता के प्रनत ऐसे ककतने ी ननिंदासूचक दृश्य देखने पड़गेे। इस आदशम-ववरोि का अिंत ी कर देना अच्छा ै। सिंभव ै, मेरा जीवन उनके ननहदमष्ट मागम में बािक ै। ईश्वर मुझ ेबल प्रदान करे!

***

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ववषर् सर्सया

मेरे दफ्तर में चार चपरासी थे, उनमें एक का नाम गरीब था। ब ुत ी सीिा, बड़ा आज्ञाकारी, अपने काम में चौकस र नेवाला, घुड़ककयााँ खाकर चुप र जानेवाला यथा नाम तथा गुण, गरीब मनुष्य था। मुझ ेइस दफ्तर में आए साल भर ो गया था, मगर मैंने उसे एक हदन के शलए भी गैर ाष्जर न ीिं पाया था। मैं उसे नौ बजे दफ्तर में अपनी दरी पर बैठे ुए देखने का आदी ो गया था, मानो व भी इस इमारत का कोई अिंग ै। इतना सरल ै कक ककसी की बात टालना जानता ी न था। एक चपरासी मुसलमान था। उससे सारा दफ्तर डरता था, मालूम न ीिं क्यों? मुझ ेतो इसका कारण शसवाय उसकी बड़ी-बड़ी बातों के और कुछ न ीिं मालूम ोता। उसके कथनानुसार उसके चचरे भाई रामपुर ररयासत में कोतवाल थे। उसे सवमसम्मनत ने 'काजी-सा ेब' की उपाधि दे रखी थी, शेष दो म ाशय जानत के ब्रह्माण थे। उनके आशीवामद का मूल्य उनके काम से क ीिं अधिक था। ये तीनों कामचोर, गुस्ताख और आलसी थे। कोई छोटा-सा काम करने को कह ए तो बबना नाक-भौं शसकोड़ े न करते थे। क्लकों को तो कुछ समझत े ी न थे! केवल बड़ ेबाबू से कुछ डरते; यद्यवप कभी-कभी उनसे भी बेअदबी कर बैठत ेथे। मगर इन सब दगुुमणों के ोते ुए भी दफ्तर में ककसी की शमट्टी इतनी खराब न ीिं थी, ष्जतनी बेचारे गरीब की। तरक्की का अवसर आता तो ये तीनों निंबर मार ले जाते, गरीब को कोई पूछता भी न था। और सब दस-दस रुपए पात ेथे, पर बेचारा गरीब सात पर ी पड़ा ुआ था। सुब से शाम तक उसके पैर एक क्षण के शलए भी न ीिं हटकत ेथे। य ााँ तक कक तीनों चपरासी भी उस पर क्रोि जतात ेऔर ऊपर की आमदनी में उसे कोई भाग न देत ेथे। नतस पर भी दफ्तर के सब कममचारी से लेकर बड़ ेबाबू तक उससे धचढत ेथे। उसको ककतनी ी बार जुमामना ो चुका था और डााँट-फटकार तो ननत्य का व्यव ार था। इसका र स्य मेरी समझ में कुछ न ीिं आता था। मुझ ेउस पर दया आती थी और अपने बतामव से मैं य हदखाना चा ता था कक उसका आदर मेरी दृष्ष्ट में

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अन्य तीनों चपराशसयों से कम न ीिं ै। य ााँ तक कक कई बार मैं उसके पीछे कममचाररयों से लड़ भी चुका था।

2

एक हदन बड़ ेबाबू ने गरीब से अपनी मेज साफ करने का क ा, व तुरिंत मेज साफ करने लगा। दैवयोग से झाड़न का झटका लगा तो दावात उलट गई और रोशनाई मेज पर फैल गई। बड़ ेबाबू य देखत े ी जामे से बा र ो गए। उसके दोनों कान पकड़कर खूब ऐिंठे और भारतवषम की सभी प्रचशलत भाषाओिं से दवुमचन चुन-चुनकर उसे सुनाने लगे। बेचारा गरीब आाँखों में आाँस ूभरे चुपचाप सुनता था, मानो उसने कोई त्या कर डाली ो। मुझ े बड़ े बाब ूका जरा-सी बात पर इतना भयिंकर रौद्ररुप िारण करना बुरा मा लूम ुआ। यहद ककसी दसूरे चपरासी ने उससे भी बड़ा अपराि ककया ोता तो भी उस पर इतना कठोर वज्र प्र ार न ोता। मैंने अाँगे्रजी में क ा - बाबू सा ब, य अन्याय कर र े ै, उसने जान-बूझ कर तो रोशनाई धगराई न ीिं। इसका इतना कड़ा दिंड देना अनौधचत्य की पराकाष्ठा ै।

बाबू जी ने नम्रता से क ा - 'आप इसे जानत ेन ीिं, य बड़ा दषु्ट ै।'

'मैं तो इसकी कोई दषु्टता न ीिं देखता।'

'आप अभी इसे जात ेन ीिं। य बड़ा पाजी ै। इसके घर में दो लों की खेती ोती ै, जारों का लेन-देन करता ै, कई भैंसे लगती ैं, इन बातों का इसे घमिंड ैं।'

'घर की दशा ऐसी ी ोती तो आपके य ााँ चपरासीधगरी क्यो करता?'

बड़ ेबाबू ने गिंभीर भाव से क ा - ववश्वसा माननए, बड़ा पोढा आदमी ै, और बला का मक्खीचूस ै।

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'यहद ऐसा ी ो तो भी कोई अपराि न ीिं ैं।'

'अभी आप य ााँ कुछ हदन और रह ए तो आपको मालूम ो जाएगा कक य ककतना कमीना आदमी ै।'

एक दसूरे म ाशय बोल उठे - भाई सा ब, इसके घर मनों दिू ोता ै, मनों जुआर, चना, मटर ोती ै, लेककन इसको इतनी ह म्मत न ीिं ोती कक थोड़ा-सा दफ्तरवालों को भी दे दे। य ााँ इन चीजों के शलए तरस-तरस कर र जात े ैं। तो कफर क्यों न जी जले और य सब कुछ इसी नौकरी की बदौलत ुआ ै न ीिं तो प ले इसके घर में भूनी भााँग तक न थी।

बड़ ेबाबू सकुचा कर बोले - य कोई बात न ीिं। उसकी चीज ै चा े ककसी को दे या न दे।

मैं इसका ममम कुछ-कुछ समझ गया। बोला - यहद ऐसे तुच्छ हृदय का आदमी ै तो वास्तव में पशु ी ै। मैं य न जानता था।

अब बड़ ेबाबू भी खुले, सिंकोच दरू ुआ। बोले - इन बातों से उबार तो ोता न ीिं, केवल देने वाले की सहृदयता प्रकट ोती और आशा भी उसी से की जाती ै जो इस योग्य ै। ष्जसमें कुछ सामथ्यम ी न ीिं उससे कोई आशा भी न ीिं करता। निंगे से कोई क्या लेगा?

र स्य खुल गया। बड़ ेबाब ूने सरल भाव से सारी अवस्था दशाम दी। समवृद्ध के शत्रु सब ोत े ै, छोटे ी न ीिं, बड़ ेभी। मारी ससुराल या ननन ाल दररद्र ो तो म उससे कोई आशा न ीिं रखत।े कदाधचत म उसे भूल जात े ैं, ककिं तु वे सामथमवान ोकर में न पूछें , मारे य ााँ तीज और चौथ न भेजें तो मारे कलेज ेपर सााँप लोटने लगता ै।

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म अपने ककसी ननिमन शमत्र के पास जाए तो उसके एक बीड़ े पान ी पर सिंतुष्ट ो जात े ै, पर ऐसा कौन मनुष्य ै जो ककसी िनी शमत्र के घर से बबना जलपान ककए ुए लौटे और सदा के शलए उसका नतरस्कार न करने लगे। सुदामा कृष्ण के घर से यहद ननराश लौटत ेतो कदाधचत वे उनके शशशुपाल और जरासिंि से भी बड़ ेशत्र ु ोत।े

3

कई हदन पीछे मैंने गरीब से पूछा - क्यों जी, तुम् ारे घर कुछ खेती-बारी ोती ै?

गरीब ने दीनभाव से क ा - ााँ सरकार, ोती ै, आप के दो गुलाम ै। व ी करत े ै।

मैंने पूछा - गाय-भैंसे लगती ैं?

' ााँ ुजूर, दो भैंसे लगती ैं? गाय अभी गाशभन ै। आप लोगों की दया से पेट की रोहटयााँ चल जाती ैं।'

'दफ्तर के बाबू लोगों की भी कभी कुछ खानतर करत े ो?'

गरीब ने दीनतापूणम आश्चयम से क ा - ुजूर, मैं सरकार लोगों की क्या खानतर कर सकता ूाँ। खेती में जौ, चना, मक्का, जुवार, घासपात की शसवाय और क्या ोता ै! आप लोग राजा ैं, य मोटी-झोटी चीज ककस मुाँ से आपको भेंट कराँ । जी डरता ै कक क ीिं कोई डााँट न बैठे कक टके से आदमी की इतनी मजाल! इसी मारे बाब ूजी कभी ह याव न ीिं पड़ता। न ीिं तो दिू-द ी की कौन बबसात थी। मुाँ के लायक बीड़ा तो ोना चाह ए।

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'भला एक हदन कुछ लाके दो तो; देखो लोग क्या क त े ै। श र में ये चीजें क ााँ मयस्सर ोती ै। इन लोगों का जी भी तो कभी-कभी मोटी-झोटी चीजों पर चला करता ैं।'

'जो सरकार कोई कुछ क े तो? क ीिं सा ब से शशकायत कर दें तो मैं क ीिं का न र ूाँ।'

'इसका मेरा ष्जम्मा ै, तुम् ें कोई कुछ न क ेगा, कोई कुछ क ेगा भी; तो मैं समझा दूाँगा।'

' ुजूर आजकल तो मटर की फशसल ै और कोल् ू भी खड़ े ो गए ैं। इसके शसवाय तो और कुछ भी न ीिं ै।'

'बस तो य ी चाजें लाओ।'

'कुछ उल्टी-सीिी पड़ी तो आप ी को साँभालना पड़गेा।'

दसूरे हदन गरीब आया तो उसके साथ तीन हृष्ट-पुष्ट युवक भी थे। दो के शसरों पर दो टोकररयााँ थीिं। उनमें मटर की फशलयााँ भरी ुई थी। एक के शसर पर एक मटका था ष्जसमें ऊख का रस था। तीनों युवक ऊख का एक-एक गट्ठा कााँख में दबाए ुए थे। गरी आकर चुपके से बरामदे के सामने पेड़ के नीच ेखड़ा ो गया। दफ्तर में उसे आने का सा स न ीिं ोता था मानो कोई अपरािी ै। वकृ्ष के नीच ेखड़ा ी था कक इतने में दफ्तर के चपराशसयों और अन्य कममचाररयों ने उसे घेर शलया। कोई ऊख लेकर चूसने लगा। कई आदमी टोकरों पर टूट पड़।े इतने में बड़ ेबाब ूभी दफ्तर में आ प ुाँच।े य कौतुक देखकर उच्च स्वर से बोले - य क्या भीड़ लगा रखी ै! चलो अपना-अपना काम देखो।

मैंने जाकर उसके कान में क ा -गरीब अपने घर से सौगात लाया ै, कुछ आप लीष्जए, कुछ म लोगों में बााँट दीष्जए।

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बड़ ेबाबू ने कृबत्रम क्रोि िारण करके क ा - क्यों गरीब, तुम य चीजें य ााँ क्यों लाए? अभी लौटा ले जाओ, न ीिं तो मैं अभी सा ब से क दूाँगा। क्या म लोगों को मरभुख समझ शलया?

गरीब का रिंग उड़ गया। थर-थर कााँपने लगा। मुाँ से एक शब्द भी न ीिं ननकला। मेरी ओर अपरािी नेत्रों से ताकने लगा।

मैंने अपनी ओर से क्षमा-प्राथमना की। ब ुत क ने-सुनने पर बाबू सा ब राजी ुए। अब चीजों में से आिी अपने घर शभजवाई, आिी में अन्य लोगों के ह स्से लगाए। इस प्रकार य अशभनय समाप्त ुआ।

4

अब दफ्तर में गरीब का मान ोने लगा। उसे ननत्य घुड़ककयााँ न शमलतीिं। हदन भर दौड़ना न पड़ता। कममचाररयों के व्यिंग और अपने स वधगमयों के कटु वाक्य न सुनने पड़त।े चपरासी लोग स्वयिं उसका काम कर देत।े उसके नाम में थोड़ा-सा पररवतमन ुआ। व गरीब से गरीबदास बना। स्वभाव में भी कुछ तबदीली पैदा ुई। दीनता की जग आत्म-गौरव का उद्भव ुआ। तत्परता की जग आलस्य ने ली। व अब कभी-कभी देर से दफ्तर आता। कभी-कभी बीमारी का ब ाना करके घर बैठ र ता। उसके सभी अपराि अब क्षम्य थे। उसे अपनी प्रनतष्ठा का गुर ाथ लग गया। व अब दसवें-पााँचवे हदन दिू, द ी आहद लाकर बड़ ेबाब ूको भेंट ककया करता। व देवता को सिंतुष्ट करना सीख गया। सरलता के बदले अब उसमें काइयााँपन आ गया। एक रोज बड़ ेबाबू ने उसे सरकारी फामों का पासमल छुड़ाने के शलए स्टेशन भेजा। कई बड़े-बड़ ेपुशल िंदे थे, ठेले पर आए। गरीब ने ठेलेवालों से बार आने मजदरूी तय की थी। जब कागज दफ्तर में प ुाँच गए तो उसने बाबू से बार आने पसेै ठेलेवालों के देने के शलए वसूल ककए। लेककन दफ्तर से कुछ दरू जाकर उसकी नीयत बदली, अपनी दस्तूरी मााँगने लगा, ठेलेवाले राजी न ुए। इस पर गरीब ने बबगड़कर सब पैसे जेब में रख शलये और

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िमकाकर बोला - अब एक फूटी कौड़ी न दूाँगा, जाओ ज ााँ चा ो फररयाद करो। देखें मारा क्या बना लेत े ो।

ठेलेवालों ने जब देखा कक भेंट न देने से जमा ी गायब ुई जाती ै तो रो-िोकर चार आने पैसे देने को राजी ुए। गरीब ने अठन्नी उनके वाले की और बार आने की रसीद शलखवाकर उनके अाँगूठों के ननशान लगवाए और रसीद दफ्तर में दाखखल ो गई।

व कौतू ल देखकर मैं दिंग र गया। य व ी गरीब ै जो कई म ीने प ले सत्यता और दीनता की मूनतम था। ष्जसे कभी अन्य चपराशसयों से भी अपने ह स्से की रकम मााँगने का सा स न ोता! दसूरों को खखलाना भी न जानता था, खाने का ष्जक्र ी क्या। मुझ ेय स्वभावािंतर देखकर अत्यिंत खेद ुआ। इसका उत्तरदानयत्व ककसके शसर था - मेरे शसर। मैंने उसे िूतमता का प ला पाठ पढाया था। मेरे धचत्त में प्रश्न उठा, इस काइयााँपन से, जो दसूरों का गला दबाता ै, व भोलापन क्या बुरा था, जो दसूरों का अन्याय स लेता था। व अशुभ मु ूतम था जब उसे मैंने प्रनतष्ठा-प्राष्प्त का मागम हदखाया, क्योंकक वास्तव में व उसके पतन का भयिंकर मागम था। मैंने बाह्य प्रनतष्ठा पर उसकी आत्म-प्रनतष्ठा का बशलदान कर हदया।

***

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अननष् ट िंका

चााँदनी रात, समीर के सुखद झोंके, सुरम्य उद्यान। कुाँ वर अमरनाथ अपनी ववस्तीणम छत पर लेटे ुए मनोरमा से क र े थे - तुम घबराओ न ीिं, मैं जल्द आऊाँ गा।

मनोरमा ने उसके ओर कातर नेत्रों से देखकर क ा - मुझ ेक्यों न ीिं लेत ेचलते?

अमरनाथ - तुम् ें व ााँ कष्ट ोगा, मैं कभी य ााँ र ूाँगा, कभी व ााँ, सारे हदन मारा-मारा कफराँ गा, प ाड़ी देश ै, जिंगल और बी ड़ के शसवाय बस्ती का कोसों पता न ीिं, उन पर भयिंकर पशुओिं का भय, तुमसे य तकलीफें न स ी जाएाँगी।

मनोरमा - तुम भी तो इन तकलीफों के आदी न ीिं ो।

अमरनाथ - मैं पुरुष ूाँ, आवश्यकता पड़ने पर सभी तकलीफों का सामना कर सकता ूाँ।

मनोरमा (गवम से) - मैं भी स्त्री ूाँ, आवश्यकता पड़ने पर आग में कूद सकती ूाँ। ष्स्त्रयों की कोमलता पुरुषों की काव्य-कल्पना ै। उनमें शारीररक सामथ्यम चा े न ो पर उनमें य िैयम और सा स ै ष्जस पर काल की दषु्श्चिंताओिं का जरा भी असर न ीिं ोता।

अमरनाथ ने मनोरमा को श्रद्धामय दृष्ष्ट से देखा और बोले - य मैं मानता ूाँ, लेककन ष्जस कल्पना को म धचरकाल से प्रत्यक्ष समझत ेआए ै व एक क्षण में न ीिं शमट सकती। तुम् ारी तकलीफ मुझसे न देखी जाएगी, मुझ ेदुुःख ोगा! देखो इस समय चााँदनी में ककतनी ब ार ै।

मनोरमा - मुझ ेब लाओ मत। मैं ठ न ीिं करती, लेककन य ााँ मेरा जीवन अपाढ ो जाएगा। मेरे हृदय की दशा ववधचत्र ै। तुम् ें अपने सामने न देखकर मेरे मन में तर -तर की शिंकाएाँ ोती ै कक क ीिं चोट न लग गई ो, शशकार खेलने

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जात े ो तो डरती ूाँ क ीिं घोड़े ने शरारत न की ो। मुझ ेअननष्ट का भय सदैव सताया करता ै।

अमरनाथ - लेककन मैं तो ववलास का भक्त ूाँ। मुझ पर इतना अनुराग करके तुम अपने ऊपर अन्याय करती ो।

मनोरमा ने अमरनाथ को दबी ुई दृष्ष्ट से देखा जो क र ी थी मैं तुमको तुमसे ज्यादा प चानती ूाँ।

बुिंदेलखिंड में भीषण दशुभमक्ष था। लोग वकृ्षों की छालें छील-छील कर खात े थे। क्षुिा-पीड़ा ने भक्ष्याभक्ष्य की प चान शमटा दी थी। पशुओिं का तो क ना ी क्या, मानव सिंतानें कौडड़यों के मोल बबकती थीिं। पादररयों की चढ बनी थी, उनके अनाथालयों में ननत्य गोल के गोल बच्च ेभेंड़ों की भााँनत ााँके जात ेथे। मााँ की ममता मुट्ठी भर अनाज पर कुबामन ो जाती। कुाँ वर अमरनाथ काशी-सेवा-सशमनत के व्यवस्थापक थे। समाचार-पत्रों में य रोमािंचकारी समाचार देखे तो तड़प उठे। सशमनत के कई नवयुवकों को साथ शलया और बुिंदेलखिंड जा प ुाँच।े मनोरमा को वचन हदया कक प्रनतहदन पत्र शलखेंगे और यथासिंभव जल्द लौट आएाँगे।

एक सप्ता तक तो उन् ोंने अपने वचन का पालन ककया, लेककन शनैुःशनैुः पत्रों में ववलिंब ोने लगा। अक्सर इलाके डाकघर से ब ुत दरू पड़त े थे। य ााँ से ननत्यप्रनत पत्र भेजने का प्रबिंि करना दुुःसाध्य था।

मनोरमा ववयोग-दुुःख से ववकल र ने लगी। व अव्यवष्स्थत दशा में उदास बैठी र ती, कभी नीच ेआती, कभी ऊपर जाती, कभी बाग में जा बैठती। जब तक पत्र न आ जाता व इसी भााँनत व्यग्र र ती, पत्र शमलत े ी सूखे िान में पानी पड़ जाता।

लेककन जब पत्रों में आने में देर ोने लगी तो उसका ववयोग-ववकल हृदय अिीर ो गया। बार-बार पछताती कक मैं ना क उनके क ने में आ गई, मुझ े उनके

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साथ जाना चाह ए था। उसे ककताबों से पे्रम था पर अब उनकी ओर ताकने का भी जी न चा ता। ववनोद की वस्तुओिं से उसे अरुधच-सी ो गई! इस प्रकार एक म ीना गुजर गया।

एक हदन उसने स्वप्न देखा कक अमरनाथ द्वार पर निंगे शसर, निंगे पैर खड़ ेरो र े ै। व घबराकर उठ बैठी और उग्रावस्था में दौड़ी द्वार तक आई। य ााँ का सन्नाटा देखकर उसे ोश आ गया। उसी दम मुनीम को जगाया और कुाँ वर सा ब के नाम तार भेजा। ककिं तु जवाब न आया। सारा हदन गुजर गया कोई जवाब न ीिं। दसूरी रात भी गुजरी लेककन जवाब का पता न था। मनोरमा ननजमल, ननरा ार मूष्च्छमत दशा में अपने कमरे में पड़ी र ती। ष्जसे देखती उसी से पूछती जवाब आया? कोई द्वार पर आवाज देता तो दौड़ी ुई आती और पूछती - कुछ जवाब आया?

उसके मन में ववववि शिंकाएाँ उठतीिं; लौंडडयों से स्वप्न का आशय पूछती। स्वप्नों के कारण और वववेचना पर कई ग्रिंथ पढ डाले, पर कुछ र स्य न खुला। लौंडडयों उसे हदलासा देने के शलए क तीिं, कुाँ वर जी कुशल से ै। स्वप्न में ककसी को निंगे पैर देखें तो समझो व घोड़ ेपर सवार ै। घबराने की कोई बात न ीिं। लेककन रमा को इस बात से तस्कीन न ोती। उसे तार के जवाब की रट लगी ुई थी, य ााँ तक कक चार हदन गुजर गए।

ककसी मु ल्ले में मदारी का आ जाना बालवृिंद के शलए एक म त्त्व की बात ै। उसके डमर की आवाज में खोंचवेाले की क्षुिाविमक ध्वनन से भी अधिक आकषमण ोता ै। इसी प्रकार मु ल्ले में ककसी ज्योनतषी का आ जाना मारके की बात ै। एक क्षण में इसकी खबर घर-घर फैल जाती ै। सास अपनी ब ू को शलये आ प ुाँचती ै, माता भाग्य ीन कन्या को लेकर आ जाती ै। ज्योनतवष जी दुुःख-सुख की अवस्थानुसार वषाम करने लगत े ैं। उनकी भववष्यवाखणयों में बड़ा गूढ र स्य ोता ै। उनका भाग्य ननमामण भाग्य-रेखाओिं से भी जहटल और दषु्ग्राह्य ोता ै। सिंभव ै कक वतममान शशक्षा वविाता ने ज्योनतषी का आदर

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कुछ कम कर हदया ो पर ज्योनतषी जी के म ात्म्य में जरा कमी न ीिं ुई। उनकी बातों पर चा े ककसी को ववश्वास न ो पर सुनना सभी चा त े ै। उनके एक-एक शब्दों में आशा और भय को उत्तषे्जत करने की शष्क्त भरी र ती ै,

ववशेषतुः उसकी अमिंगल सूचना तो वज्रपात के तुल्य ै, घातक और दग्िकारी।

तार भेजे ुए आज पााँचवााँ हदन था कक कुाँ वर सा ब के द्वार पर एक ज्योनतषी का आगमन ुआ। तत्काल मु ल्ले की मह लाएाँ जमा ो गई। ज्योनतषी जी भाग्य-वववेचन करने लगे, ककसी को रुलाया, ककसी को ाँसाया। मनोरमा को खबर शमली। उन् ें तुरिंत अिंदर बुला भेजा और स्वप्न का आशय पछूा।

ज्योनतषी ने इिर-उिर देखा, पन्ने के पन्ने उल्टे, उाँगशलयों पर कुछ धगना, पर कुछ ननश्चय न कर सके कक क्या उत्तर देना चाह ए, बोले क्या सरकार ने य स्वप्न देखा ै?

मनोरमा बोली - न ीिं, मेरी एक सखी ने देखा ै, मैं क ती ूाँ, य अमिंगलसूचक ै। व क ती ै, मिंगलमय ै। आप इसकी क्या वववेचना क त े ैं?

ज्योनतषी जी कफर बगलें झााँकने लगे। उन् ें अमरनाथ की यात्रा का ाल न मालूम था और न इतनी मु लत ी शमली थी कक य ााँ आने के पूवम य अवस्थाज्ञान प्राप्त कर लेत ेजो अनुमान से साथ शमलकर जनता में ज्योनतष के नाम से प्रशसद्ध ै। जो प्रश्न पूछा था उसकी भी कुछ सतू्रसचूक उत्तर न शमला। ननराश ोकर मनोरमा के समथमन करने ी में अपना कल्याण देखा। बोले - सरकार जो क ती ै व ी सत्य ै। य स्वप्न अमिंगलसूचक ै।

मनोरमा खड़ी शसतार के तार की भााँनत थर-थर कााँपने लगी। ज्योनतवष जी ने उस अमिंगल का उद्घाटन करत े ुए क ा - उनके पनत पर कोई म ान सिंकट आनेवाला ै उनका घर नाश ो जाएगा, व देश-ववदेश मारे-मारे कफरेंगे।

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मनोरमा ने दीवार का स ारा लेकर क ा - भगवान, मेरी रक्षा करो और मूष्च्छमत ो कर जमीन पर धगर पड़ी।

ज्योनतषी जी अब चते।े समझ गए कक बड़ा िोखा खाया। आश्वासन देने लगे,

आप कुछ धचिंता न करे। मैं उस सिंकट का ननवारण कर सकता ूाँ। मुझ े एक बकरा, कुछ लौंग और कच्चा िागा माँगा दे। जब कुाँ वर जी के य ााँ से कुशल-समाचार आ जाए तो जो दक्षक्षणा चा ें दे दो। काम कहठन ै पर भगवान की दया से असाध्य न ीिं ै। सरकार देखें मुझ ेबड़-ेबड़ े ाककमों ने सहटमकफकेट हदए ैं। अभी डडप्टी सा ब की कन्या बीमार थी। डाक्टरों ने जवाब दे हदया था। मैंने यिंत्र हदया, बैठे-बैठे आाँखें खुल गई। कल की बात ै, सेठ चिंदलूाल के य ााँ से रोकड़ की एक थैली उड़ गई थी, कुछ पता न चलता था, मैंने सगुन ववचारा और बात की बात में चोर पकड़ शलया। उनके मुनीम का काम था, थैली ज्यों की त्यों ननकल आई।

ज्योनतषी जी तो अपनी शसवद्धयों की सरा ना कर र े थे और मनोरमा अचते पड़ी ुई थी।

अकस्मात व उठ बैठी, मुनीम को बुलाकर क ा - यात्रा की तैयारी करो, मैं शाम गी गाड़ी से बुिंदेलखिंड जाऊाँ गी।

2

मनोरमा ने स्टेशन पर आकर अमरनाथ को तार हदया - मैं आ र ी ूाँ। उनके अिंनतम पत्र से ज्ञात ुआ कक व कबरई में ै, कबरई का हटकट शलया। लेककन कई हदनों से जागरण कर र ी थी। गाड़ी पर बैठत े ी नीिंद आ गई और नीिंद आत े ी अननष्ट शिंका ने एक भीषण स्वप्न का रप िारण कर शलया।

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उसने देखा सामने एक अगम सागर ै, उसमें एक टूटी ुई नौका लकोरें खाती ब ती चली जाती ै। उस पर न कोई मल्ला ै न पाल, न डााँड़ें। तरिंगें उसे कभी ऊपर ले जाती ै कभी नीचे, स सा उस पर एक मनुष्य दृष्ष्टगोचर ुआ। य अमरनाथ थे, निंगे शसर, निंगे पैर, आाँखों में आाँसू ब ात े ुए। मनोरमा थर-थर कााँप र ी थी। जान पड़ता था नौका अब डूबी और अब डूबी। उसने जोर से चीख मारी और जाग पड़ी। शरीर पसीने से तर था, छाती िड़क र ी थी। व तुरिंत उठ बैठी, ाथ-मुाँ िोया और इसका इरादा ककया अब न सोऊाँ गी! ा! ककतना भयाव दृश्य था। परम वपता! अब तुम् ारा ी भरोसा ै। उसकी रक्षा करो।

उसने खखड़की से शसर ननकालकर देखा। आकाश पर तारागण दौड़ र े थे। घड़ी देखी, बार बजे थे, उसको आश्चयम ुआ मैं इतनी देर तक सोई। अभी तो एक झपकी भी पूरी न ोने पाई।

उसने एक पुस्तक उठा ली और ववचारों को एकाग्र कर पढने लगी। इतने में प्रयाग आ प ुाँचा, गाड़ी बदली। उसने कफर ककताब खोली और उच्च स्वर से पढने लगी। लेककन कई हदनों की जगी आाँखें इच्छा के अिीन न ीिं ोती। बैठे-बैठे झपककयााँ लेने लगी, आाँखें बिंद ो गई और एक दसूरा दृश्य सामने उपष्स्थत ो गया।

उसने देखा, आकाश से शमला ुआ एक पवमत-शशखर ै। उसके ऊपर के वकृ्ष छोटे-छोटे पौिों के सदृश हदखाई देत े ै। श्यामवणम घटाएाँ छाई ुई ैं, बबजली इतने जोर से कड़कती ै कक कान के परदे फटे जात े ैं, कभी य ााँ धगरती ै कभी व ााँ। शशखर पर एक मनुष्य निंगे शसर बैठा ुआ ै, उसकी आाँखों का अशु्र-प्रवा साफ दीख र ा ै। मनोरमा द ल उठी, य अमरनाथ थे। व पवमत शशखर से उतरना चा त ेथे लेककन मागम न शमलता था। भय से उनका मुख वणम-शून्य ो र ा था। अकस्मात एक बार बबजली का भयिंकर नाद सुनाई हदया, एक ज्वाला-सी हदखाई दी और अमरनाथ अदृश्य ो गया। मनोरमा ने कफर चीख मारी और जाग पड़ी। उसका हृदय बााँसों उछल र ा था, मष्स्तष्क चक्कर खाता था। जागते

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ी उसकी आाँखों में जल-प्रवा ोने लगा। व उठ खड़ी ुई और कर जोड़कर ईश्वर से ववनय करने लगी - ईश्वर मुझ ेऐसे बुरे-बुरे स्वप्न हदखाई दे र े ै, न जाने इन पर क्या बीत र ी ै, तुम दीनों के बिंिु ो, मुझ पर दया करो, मुझ ेिन और सिंपष्त्त की इच्छा न ीिं, मैं झोंपड़ी में खुश र ूाँगी, मैं केवल उनकी शुभकामना रखती ूाँ। मेरी इतनी प्राथमना स्वीकार करो।

व कफर अपनी जग पर बैठ गई। अरुणोदय की मनोरम छटा और शीतल सुखद समीरण ने उसे आकवषमत कर शलया। उसे सिंतोष ुआ, ककसी तर रात कट गई, अब तो नीिंद न आएगी। पवमतों से मनो र दृश्य हदखाई देने लगे, क ीिं प ाडड़यों पर भेड़ों के गल्ले, क ीिं प ाडड़यों के दामन में मगृों के झुिंड, क ीिं कमल के फूलों से ल रात ेसागर मनोरमा एक अिमस्मनृत की दशा में इन दृश्यों को देखती र ी। लेककन कफर न जाने कैसे उसकी अभागी आाँखें झपक गई।

उसने देखा अमरनाथ घोड़ ेपर सवार एक पुल पर चले जात े ै। नीच ेनदी उमड़ी ुई ै, पुल ब ुत तिंग ै, घोड़ा र -र कर बबचकता ै और अलग ो जाता ै। मनोरमा के ाथ-पााँव फूल गए। व उच्च-स्वर से धचल्ला-धचल्काकर क ने लगी - घोड़ े से उतर पड़ो, घोड़ े से उतर पड़ो, य क ती ुए व उनकी तर झपटी, आाँखें खुल गई। गाड़ी ककसी स्टेशन के प्लेटफामम से सनसनाती चली जाती थी। अमरनाथ निंगे शसर, निंगे पैर प्लेटफामम पर खड़ ेथे। मनोरमा की आाँखों में अभी तक व ी भयिंकर स्वप्न समाया ुआ था। कुाँ वर को देखकर उसे भय ुआ कक व घोड़ े से धगर पड़ ेऔर नीच ेनदी में कफसलना चा त े ै। उसने तुरिंत उन् ें पकड़ने के शलए ाथ फैलाया और जब उन् ें न पा सकी तो उसी सुषुप्तावस्था में उसने गाड़ी का द्वार खोला और कुाँ वर सा ब की ओर ाथ फैलाए ुए गाड़ी से बा र ननकल आई। तब व चौंकी, जान पड़ा ककसी ने उठाकर आकाश से भूशम पर पटक हदया, जोर से एक िक्का लगा और चतेना शून्य ो गई।

3

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व कबरई का स्टेशन था। अमरनाथ तार पाकर स्टेशन पर आए थे। मगर य डाक थी, व ााँ न ठ रती थी, मनोरमा को ाथ फैलाए गाड़ी से धगरत ेदेखकर व ााँ ााँ, करत े ुए लपके लेककन कममलेख पूरा ो चुका था। मनोरमा पे्रमवेदी पर बशलदान ो चुकी थी।

इसके तीसरे हदन व निंगे शसर, निंगे पैर भग्नहृदय घर प ुाँचे। मनोरमा का स्वप्न सच्चा ुआ।

उस पे्रमवव ीन स्थान में अब कौन र ेगा। उन् ोंने अपनी सम्पूणम सम्पनत काशी-सेवा सशमनत को प्रदान कर दी और अब निंगे शसर, निंगे पैर, ववरक्त दशा में देश-ववदेश घूमत ेर त े ै। ज्योनतवष जी को वववेचना भी चररताथम ो गई।

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सौत

पिंडडत देवदत्त का वववा ुए ब ुत हदन ुए, पर उनके कोई सिंतान न ुई। जब तक उनके मााँ-बाप जीववत थे तब तक वे उनसे सदा दसूरा वववा कर लेने का आग्र ककया करत ेथे पर वे राजी न ुए। उन् ें अपनी पत्नी गोदावरी से अटल पे्रम था। सिंतान से ोनेवाले सुख के ननशमत्त वे अपना वतममान पाररवाररक सुख नष्ट न करना चा त े थे। इसके अनतररक्त वे कुछ नए ववचार के मनुष्य थे। क ा करत े थे कक सिंतान ोने से मााँ-बाप की ष्जम्मेदाररयााँ बढ जाती ै। जब तक मनुष्य में य सामथ्यम न ो कक व उसका भले प्रकार पालन-पोषण और शशक्षण आहद कर सके तब तक सिंतान से देश, जानत और ननज का कुछ भी कल्याण न ीिं ो सकता। प ले तो कभी-कभी बालकों को ाँसत े खेलत े देखकर उनके हृदय पर चोट भी लगती थी, परिंतु अब अपने अनेक देश-भाइयों की तर वे भी शारीररक व्याहदयों से ग्रस्त र ने लगे। अब सिंतान का ख्याल करते ी उन् ें भय-सा लगता था।

पर, गोदावरी इतनी जल्दी ननराश ोनेवाली न थी। प ले तो व देवी-देवता, गिंड़े-ताबीज और यिंत्र-मिंत्र आहद की शरण लेती र ी, परिंतु जब उसने देखा कक ये औषधियााँ कुछ काम न ीिं करती तब व एक म ौषधि की कफक्र में लगी जो कायाकल्प से कम न ीिं थी। उसने म ीनों, बरसों इसी धचिंता-सागर में गोत ेलगात ेकाटे। उसने हदल को ब ुत समझाया; परिंतु मन में जो बात समा गई थी ककसी तर न ननकली। उसे बड़ा भारी आत्मत्याग करना पड़गेा। शायद पनत-पे्रम के सदृश अनमोल रत्न भी उसके ाथ से ननकल जाए, पर क्या ऐसा ो सकता ै?

पिंद्र वषम तक लगातार ष्जस पे्रम के वकृ्ष की उसने सेवा की ै क्या व वा का एक झोंका भी न स सकेगा?

गोदावरी ने अिंत में अपने प्रबल ववचारों के आगे शसर झुका ी शलया। अब सौत का शुभागमन करने के शलए व तैयार ो गई थी।

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पिंडडत देवदत्त गोदावरी का य प्रस्ताव सुनकर स्तिंशभत ो गए। उन् ोंने अनुमान ककया कक या तो य पे्रम की परीक्षा कर र ी ै या मेरा मन लेना चा ती ै। उन् ोंने उसकी बात ाँस कर टाल दी। पर जब गोदावरी ने गिंभीर भाव से क ा, तुम इसे ाँसी मत समझो, मैं अपने हृदय से क ती ूाँ कक सिंतान का मुाँ देखने के शलए मैं सौत से छाती पर मूाँग दलवाने के शलए तैयार ूाँ, तब तो उनका सिंदे जाता र ा। इतने ऊाँ च ेऔर पववत्र भाव से भरी ुई गोदावरी को उन् ोंने गले से शलपटा शलया। वे बोले , मुझसे य न ोगा। मुझ ेसिंतान की अशभलाषा न ीिं।

गोदावरी ने जोर देकर क ा, तुमको न ो मुझ ेतो ै। अगर अपनी खानतर से न ीिं तो तुम् ें मेरी खानतर से य काम करना ी पड़गेा।

पिंडडत जी सरल स्वभाव के आदमी थे। ामी तो उन् ोंने न भरी, पर बार-बार क ने से वे कुछ-कुछ राजी अवश्य ो गए। उस तरफ से इसी की देर थी। पिंडडत जी को कुछ भी पररश्रम न करना पड़ा। गोदावरी की कायमकुशलता ने सब काम उनके शलए सुलभ कर हदया। उसने इस काम के शलए अपने पास से केवल रुपए ी न ीिं ननकाले, ककिं तु अपने ग ने और कपड़ ेभी अपमण कर हदये! लोक-ननिंदा का भय इस मागम में सबसे बड़ा कााँटा था। देवदत्त ववचार करने लगे कक जब मैं मौर सजा कर चलूाँगा तब लोग मुझ ेक्या क ेंगे? मेरे दफ्तर के शमत्र मेरी ाँसी उड़ाएिंगे और मुस्करात े ुए कटाक्षों से मेरी ओर देखेंगे। उनके कटाक्ष छुरी से भी ज्यादा तजे ोगें। उस समय मैं क्या कराँ गा?

गोदावरी ने अपने गााँव में जाकर इस कायम को आरिंभ कर हदया और इसे ननववमध्न समाप्त भी कर डाला। नई ब ू घर में आ गई। उस समय गोदावरी ऐसी प्रसन्न मालूम ुई मानो बेटे को ब्या कर लाई ो। व खूब गाती-बजाती र ी। उसे क्या मालूम था कक शीघ्र ी उसे इस गान के बदले रोना पड़गेा।

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कई मास बीत गए। गोदावरी अपने सौत पर इस तर शासन करती मानो व उसकी सास ो, तथावप व य बात कदावप न भूलती थी कक मैं वास्तव में उसकी सास न ीिं ूाँ। उिर गोमनत को अपनी ष्स्थनत का परूा ख्याल र ता था। इसी कारण सास के शासन की तर कठोर न र ने पर भी गोदावरी का शासन उसे अवप्रय ोता था। उसे अपनी छोटी-मोटी जररतों के शलए गोदावरी से क ते सिंकोच ोता था।

कुछ हदनों बाद गोदावरी के स्वभाव में एक ववशेष पररवतमन हदखाई देने लगा। व पिंडडत जी को घर में आते-आत े बड़ी तीव्र दृष्ष्ट से देखने लगी। उसकी स्वाभाववक गिंभीरता अब मानो लोप-सी ो गई, जरा-सी बात भी उसके पेट में न ीिं पचती! जब पिंडडत जी दफ्तर आत े तब गोदावरी उनके पास घिंटों बैठी गोमती का वतृािंत सुनाया करती। वतृ्तािंत-कथन में ब ुत-सी छोटी-मोटी बातें भी ोती थी कक जब कथा समाप्त ोती तब पिंडडत जी के हृदय से बोझ-सा उतर जाता। गोदावरी इतनी मदृभुावषणी ो गई थी; इसका कारण समझना मुष्श्कल ै। शायद अब व गोमती से डरती थी। उसके सौंदयम से, उसके जीवन से, उसके लज्जायुक्त नेत्रों से शायद व अपने को पराभूत समझती। बााँि को तोड़कर व पानी की िारा को शमट्टी के ढेलों से रोकना चा ती थी।

एक हदन गोदावरी ने गोमती को मीठा चावल पकाने को क ा। शायद व रक्षाबिंिन का हदन था। गोमती ने क ा, शक्कर न ीिं ै। गोदावरी य सुनत े ी ववष्स्मत ो उठी। उतनी शक्कर इतनी जल्दी कैसे उठ गई! ष्जसे छाती फाड़कर कमाना पड़ता ै, उसे अखरता ै, खानेवाले क्या जानें?

जब पिंडडत जी दफ्तर से आए तब य जरा-सी बात बड़ा ववस्ततृ रप िारण करके उनके कानों में प ुाँची। थोड़ी देर के शलए पिंडडत जी के हदल में भी य शिंका ुई कक गोमती को क ीिं भस्मक रोग तो न ीिं ो गया।

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ऐसी घटना एक बार कफर ुई। पिंडडत जी को बवासीर की शशकायत थी। लालशमचम व बबलकुल न ीिं खात े थे। गोदावरी जब रसोई बनाती थी तब व लालशमचम रसोई घर में लाती ी न थी। गोमती ने एक हदन दाल में मसाले के साथ थोड़ी-सी लालशमचम भी डाल दी। पिंडडत जी ने दाल कम खाई। पर गोदावरी गोमती के पीछे पड़ गई। ऐिंठ कर व बोली - ऐसी जीभ जल क्यों न ीिं जाती?

4

पिंडडत जी बड़ े ी सीिे आदमी थे। दफ्तर से आए, खाना खाया, पड़कर सो र े। वे एक साप्ताह क पत्र माँगात ेथे। उसे कभी-कभी म ीनों खोलने की नौबत न आती थी। ष्जस काम में जरा भी कष्ट या पररश्रम ोता, उससे वे कोसों दरू भागत ेथे। कभी उनके दफ्तर में धथयेटर के 'पास' मुफ्त शमला करत े थे। पर पिंडडत जी उनसे कभी काम न ीिं लेत,े और ी लोग उनसे मााँग ले जाया करत।े रामलीला या कोई मेला तो उन् ोंने शायद नौकरी करने के बाद कफर कभी देखा ी न ीिं। गोदावरी उनकी प्रकृनत का पररचय अच्छी तर पा चुकी थी। पिंडडत जी भी प्रत्येक ववषय में गोदावरी के मतानुसार चलने में अपनी कुशल समझत ेथे।

पर रुई-सी मुलायम वस्तु भी दबकर कठोर ो जाती ै। पिंडडत जी को य आठों प र की च -च असह्य प्रतीत ोती, कभी-कभी मन में झुाँझलाने भी लगत।े इच्छा-शष्क्त जो इतने हदनों तक बेकार पड़ी र ने से ननबमल-सी ो गई थी, अब कुछ सजीव-सी ोने लगी। थी।

पिंडडत जी य मानत ेथे कक गोदावरी ने सौत को घर लाने में बड़ा भारी त्याग ककया ै। उसका य त्याग अलौककक क ा जा सकता ै; परिंतु उसके त्याग का भार जो कुछ ै व मुझ पर ै, गोमती पर उसका क्या ए सान? य ााँ उसे कौन-सा सुख ै ष्जसके शलए व फटकार पर फटकार स े? पनत शमला ै व बूढा और सदा रोगी, घर शमला ै व ऐसा कक अगर नौकरी छूट जाए तो कल चूल् ा

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न जले। इस दशा में गोदावरी का य स्ने -रह त बतामव उन् ें इतना अनुधचत मालूम ोता।

गोदावरी की दृष्ष्ट इतनी स्थूल न थी कक उसे पिंडडत जी के मन के भाव नजर न आवें। उनके मन में जो ववचार उत्पन्न ोत ेये सब गोदावरी को उनके मुख पर अिंककत से हदखाई पड़त।े य जानकारी उसके हृदय में एक ओर गोमती के प्रनत ईष्याम की प्रचिंड अष्ग्न द का देती, दसूरी ओर पिंडडत देवदत्त पर ननष्ठुरता और स्वाथमवप्रयता का दोषारोपण कराती। फल य ुआ कक मनोमाशलन्य हदन-हदन बढता गया।

5

गोदावरी ने िीरे-िीरे पिंडडत जी से गोमती की बातचीत करनी छोड़ दी, मानो उसके ननकट गोमती घर में थी ी न ीिं। न उसके खाने-पीने की व सुधि लेती, न कपड़े-लत्त ेकी। एक बार कई हदनों तक उसे जलपान के शलए कुछ भी न शमला। पिंडडत जी तो आलसी जीव थे। व े इन अत्याचारों को देखा करत,े पर अपने शािंनतसागर में घोर उपद्रव मच जाने के भय से ककसी से कुछ न क त।े तथावप इस नछछले अन्याय ने उनकी म ती स न-शष्क्त को भी मथ डाला। एक हदन उन् ोंने गोदावरी ने डरते-डरत ेक ा, क्या आजकल जलपान के शलए शमठाई-ववठाई न ीिं आती?

गोदावरी ने क्रद्ध ोकर जबाव हदया, तुम लात े ी न ीिं तो आए क ााँ से! मेरे कोई नौकर बैठा ै?

देवदत्त को गोदावरी ने ये कठोर वचन तीर-से लगे। आज तक गोदावरी ने उनसे ऐसी रोषपूणम बातें न की थी।

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वे बोले, िीरे बोलो, झुाँझलाने की तो कोई बात न ीिं ै। गोदावरी ने आाँखें नीची करके क ा, मुझ ेतो जैसा आता ै वैसे बोलती ूाँ, दसूरों की-सी मिुर बोली क ााँ से लाऊाँ ।

देवदत्त ने जरा गरम ोकर क ा, आजकल मुझ ेतुम् ारे शमजाज का कुछ रिंग ी न ीिं मालूम ोता। बात-बात पर उलझती ो!

गोदावरी का च ेरा क्रोिाष्ग्न से लाल ो गया। व बैठी थी खड़ी ो गई। उसके ोंठ फड़कने लगे। व बोली, मेरी कोई बात अब तुमको क्यों अच्छी लगेगी। अब मैं शसर से पैर तक दोषों से भरी ुई ूाँ। अब और लोग तुम् ारे मन का काम करेंगे। मुझसे न ीिं ो सकता। य लो सिंदकू की कुिं जी! अपने रुपए-पैसे साँभालो, य रोज-रोज की झिंझट मेरे मान की न ीिं। जब तक ननभा, ननभाया। अब न ीिं ननभ सकता।

पिंडडत देवदत्त मानो मूष्च्छमत ो गए। ष्जस शािंनत-भिंग का उन् ें भय था, उसने अत्यिंत भयिंकर रप िारण करके घर में प्रवेश ककया। व कुछ भी न बोल सके। इस समय उनके अधिक बोलने से बात बढ जाने का भय था। व बा र चले आए और सोचने लगे कक गोदावरी के साथ कौन-सा अनुधचत व्यव ार ककया ै। उनके ध्यान में आया कक गोदावरी के ाथ से ननकल कर घर का प्रबिंि कैसे ो सकेगा। इस थोड़ी-सी आमदनी में व न जाने ककस प्रकार काम चलाती थी?

क्या-क्या उपाय व करती थी? अब न जाने नारायण कैसे पार लगावेंगे। उसे मनाना पड़गेे, और ो ी क्या सकता था। गोमती भला क्या कर सकती ै, सारा बोझ मेरे ी शसर पड़गेा। मानेगी तो, पर मुष्श्कल से।

परिंतु पिंडडत जी की ये शुभकामनाएाँ ननष्फल ुई। सिंदकू की कुिं जी ववषैली नाधगन की तर व ीिं आाँगन में ज्यों की त्यों तीन हदन तक पड़ी र ी, ककसी को उसके ननकट जाने का सा स न ुआ। चौथे हदन पिंडडत जी ने मानो जान पर खेल कर उस कुिं जी को उठा शलया। उस समय उन् ें मालूम ुआ कक ककसी ने उनके शसर

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पर प ाड़ उठाकर रख हदया। आलसी आदशमयों को अपने ननयशमत मागम से नतल भर भी टना बड़ा कहठन मालमू ोता ै।

यद्यवप पिंडडत जी जानते थे कक मैं दफ्तर के कारण इस कायम को सम्भालने में असममथ ूाँ, तथावप उनमें इतनी हढठाई न ो सकी कक य कुिं जी गोमती को दें। पर य केवल हदखावा ी भर था। कुिं जी उन् ीिं के पास र ती थी, काम सब गोमती को करना पड़ता था। इस प्रकार ग ृस्थी के शासन का अिंनतम सािन भी गोदावरी के ाथ से ननकल गया। गहृ णी के नाम के साथ जा मयामदा और सम्मान था व भी गोदावरी के पास ने उसी कुिं जी के साथ चला गया। देखत-ेदेखत े घर की म री और पड़ोस की ष्स्त्रयााँ के बतामव में भी ब ुत अिंतर पड़ गया। गोदावरी अब पदच्युता रानी की तर थी। उसका अधिकार अब केवल दसूरों की स ानुभूनत पर ी र गया था।

6

ग ृस्थी के काम-काज में पररवतमन ोत े ी गोदावरी के स्वभाव में भी शोकजनक पररवतमन ो गया। ईष्याम मन में र नेवाली वस्तु न ीिं। आठों प र पास-पड़ोस के घरों में य ी चचाम ोने लगी, देखा दनुनया कैसे मतलब की ै। बेचारी ने लड़-झगड़ कर ब्या कराया, जान-बूझकर अपने पैरों पर कुल् ाड़ी मारी। य ााँ तक कक अपने ग ने-कपड़ ेतक उतार हदए। पर अब रोत-ेरोत ेआाँचल भीगता ै। सौत तो सौत ी ै, पनत ने भी उसे आाँखों से धगरा हदया। बस, अब दासी की तर घर में पड़ी-पड़ी पेट ष्जलाया करे। य जीना भी कोई जीना ै?

ये स ानुभूनतपूणम बातें सुनकर गोदावरी की ईष्यामष्ग्न और भी प्रबल ोती जाती थी। इसे इतना न सूझता था कक व मौखखक सिंवेदनाएाँ अधिकािंश में उस मनोववकार से पैदा ुई ै ष्जससे मनुष्यों को ानन और दुुःख पर ाँसने में ववशेष आनिंद आता ै।

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गोदावरी को ष्जस बात का पणूम ववश्वास और पिंडडत जी को ष्जसका बड़ा भय था, व न ुई। िर के काम-काज में कोई ववध्न-बािा, कोई रुकावट न पड़ी। ााँ, अनुभव न ोने के कारण पिंडडत जी का प्रबिंि गोदावरी के प्रबिंि जैसा अच्छा न था। कुछ खचम ज्यादा पड़ जाता था। पर काम भली-भााँनत चला जाता था। ााँ, गोदावरी को गोमती के सभी काम दोषपूणम हदखाई देत ेथे। ईष्याम में अष्ग्न ै। परिंतु अष्ग्न का गुण उसमें न ीिं। व हृदय को फैलाने के बदले और भी सिंकीणम कर देती ै। अब घर में कुछ ानन ो जाने से गोदावरी को दुुःख के बदले आनिंद ोता! बरसात के हदन थे। कई हदन तक सूयमनारायण के दशमन न ुए। सिंदकू में रक्खे ुए कपड़ों में फफूाँ दी लग गई। तले के अचार बबगड़ गए। गोदावरी को य सब देखकर रत्ती भर भी दुुःख न ुआ। ााँ, दो-चार जली-कटी सुनाने का अवसर अवश्य शमल गया। मालककन ी बनना आता ै कक मालककन का काम करना भी।

पिंडडत देवदत्त की प्रकृनत में भी अब नया रिंग नजर आने लगा। जब तक गोदावरी अपनी कायमपरायणता से घर का सारा बोझ सम्भाले थी, तब तक उनको कभी ककसी चीज की कमी न ीिं खली। य ााँ तक कक शाक-भाजी के शलए भी उन् ें बाजार न ीिं जाना पड़ा। अब गोदावरी उन् ें हदन में कई बार बाजार दौड़त ेदेखती। ग ृस्थी का प्रबिंि ठीक न र ने के कारण ब ुिा जररी चीजों के शलए उन् ें बाजार ऐन वक्त पर जाना पड़ता। गोदावरी य कौतुक देखती और सुना सुनाकर क ती, य ी म ाराज ै कक एक नतनका उठाने के शलए भी न उठत ेथे। अब देखती ूाँ, हदन में दस दफे बाजार में खड़ ेर त े ै। अब मैं इन् ें कभी य क त ेन ीिं सुनती कक मेरे शलखने-पढने में जम ोगा।

गोदावती को इस बात का एक बार पररचय शमल चुका था कक पिंडडत जी बाजार- ाट के काम में कुशल न ीिं ै। इसशलए जब उसे कपड़ ेकी जररत ोती तब व अपने पड़ोस के एक बूढे लाला सा ब से माँगवाया करती थी। पिंडडत जी को य बात भूल-सी गई थी कक गोदावरी को साडड़यों की भी जररत पड़ती ै। उनके शसर से तो ष्जतना बोझ कोई टा दे उतना ी अच्छा था। खुद वे भी व ी कपड़ े

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प नत ेथे जो गोदावरी माँगाकर उन् ें देती थी। पिंडडत जी को नए फैशन और नए नमूनों से कोई प्रयोजन न था। पर अब कपड़ों के शलए भी उन् ीिं को बाजार जाना पड़ता ै। एक बार गोमती के पास साडड़यााँ न ीिं थी। पिंडडत जी बाजार गए तो एक ब ुत अच्छा-सा जोड़ा उसके शलए ले आए। बजाज ने मनमाने दाम शलये। उिार सौदा लाने में पिंडडत जी जरा भी आगा-पीछा न करत ेथे। गोमती ने व जोड़ा गोदावरी को हदखाया। गोदावरी ने देखा और मुाँ फेर कर रुखाई से बोली, भला तुमने उन् ें कपड़ ेलाना तो शसखा हदया। मुझ े तो सोल वषम बीत गए, उनके ाथ का लाया ुआ एक कपड़ा स्वप्न में भी प नना नसीब न ुआ।

ऐसी घटनाएाँ गोदावरी की ईष्यामष्ग्न को और भी प्रज्वशलत कर देती थी। जब तक उसे व ववश्वास था कक पिंडडत जी स्वभाव से ी रखे ै तब तक उसे सिंतोष था। परिंतु अब उनकी ये नई-नई तरिंगें देखकर उसे मालूम ुआ कक ष्जस प्रीनत को मैं सैकड़ों यत्न करके भी न पा सकी उसे इस रमणी ने केवल अपने यौवन से जीत शलया। उसे अब ननश्चय ुआ कक मैं ष्जसे सच्चा पे्रम समझ र ी थी व वास्तव में कपटपूणम था। व ननरा स्वाथम था।

दैवयोग से इन् ीिं हदनों गोमती बीमार पड़ी। उसे उठने-बैठने की भी शष्क्त न र ी। गोदावरी रसोई बनाने लगी, पर उसे इसका ननश्चय न ीिं था कक गोमती वास्तव में बीमार ै। उसे य ी ख्याल था कक मुझसे खाना पकवाने के शलए ी दोनों प्राखणयों ने य स्वााँग रचा ै। पड़ोस की ष्स्त्रयों से क ती कक लौंडी बनने में इतनी ी कसर थी व पूरी ो गई।

पिंडडत जी को आजकल खाना खात ेवक्त भाग-भाग-सी पड़ जाती ै। वे न जाने क्यों गोदावरी से एकािंत में बातचीत करत ेडरते थे। न मालूम कैसी कठोर और हृदय-ववदारक बातें न सुनाने लगे। इसीशलए खाना खात े वक्त वे डरत े थे कक क ीिं उस भयिंकर समय का आगमन न ो जाए। गोदावरी अपने तीव्र नेत्रों से उनके मन का भाव ताड़ जाती थी, पर मन ी मन में ऐिंठ कर र जाती थी।

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एक हदन उससे न र ा गया। व बोली, क्या मुझसे बोलने की भी मना ी कर दी गई ै? देखती ूाँ, क ीिं तो रात-रात भर बातों का तार न ीिं टूटता, पर मेरे सामने मुाँ खोलने की भी कसम-सी खाई ै। घर का रिंग-ढिंग देखत े ो न? अब तो काम तुम् ारे इच्छानुसार चल र ा ै न?

पिंडडत जी ने शसर नीचा ककए ुए उत्तर हदया, उाँ ! जैसे चलता ै, वैसे चलता ै। उस कफक्र से क्या अपनी जान दे दूाँ? जब तुम य चा ती ो कक घर शमट्टी में शमल जाए तब कफर मेरा क्या वश ै?

इस पर गोदावरी ने बड़ ेकठोर वचन क े। बात बढ गई। पिंडडत जी चौके पर से उठ आए। गोदावरी ने कसम हदलाकर उन् ें बबठाना चा ा, पर वे व ााँ क्षणभर भी न रके! तब उसने भी रसोई उठा दी। सारे घर को उपवास करना पड़ा।

गोमती में एक ववधचत्रता थी कक व कड़ी से कड़ी बात स न कर सकती थी पर भूख स न करना उसके शलए कहठन था। इसशलए कोई व्रत भी न रखती थी। ााँ, क ने-सुनने को जन्माष्टमी रख लेती थी। पर आजकल बीमारी के कारण उसे और भी भूख लगती थी। जब उसने देखा कक दोप र ोने को आई और भोजन शमलने के कोई लक्षण न ीिं, तब वववश ोकर बाजार से शमठाई माँगाई। सिंभव ै उसने गोदावरी को जलाने के शलए ी खेल खेला ो, क्योंकक कोई भी एक वक्त खाना न खाने से मर न ीिं जाता। गोदीवरी के शसर से पैर तक आग लग गई। उसने भी तुरिंत शमठाइयााँ माँगवाई। कई वषम के बाद आज उसने पेट भर शमठाइयााँ खाई। ये सब ईष्याम के कौतुक ैं।

जो गोदावरी दोप र के प ले मुाँ में पानी न डालती थी व ी अब प्रातुःकाल ी कुछ जलपान ककए बबना न ीिं र सकती। शसर में मेशा मीठा तले डालती थी, पर अब मीठे तले से उसके शसर में पीड़ा ोने लगती थी। पान खाने का उसे नया व्यसन लग गया। ईष्याम ने उसे नई नवेली ब ू बना हदया।

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जन्माष्टमी का शुभ हदन आया। पिंडडत जी का स्वाभाववक आलस्य इन दो-तीन हदनों के शलए गायब ो जाता था। बड़ ेउत्सा से झााँकी बनाने में लग जात ेथे। गोदावरी य व्रत बबना जल के रखती थी। और पिंडडत जी तो कृष्ण के उपासक ी थे। अब उनके अनुरोि से गोमती ने भी ननजमल व्रत रखने का सा स ककया, पर उसे बड़ा आश्चयम ुआ जब म री ने आकर उससे क ा, बड़ी ब ू ननजमल न र ेंगी, उनके शलए फला ार माँगा दो।

सिंध्या समय गोदावरी ने मान-मिंहदर जाने के शलए इक्के की फरमाइश की। गोमती को य फरमाइश बुरा मालूम ुई। आज के हदन इक्कों का ककराया ब ुत बढ जाता था। मान-मिंहदर कुछ दरू भी न ीिं था। इससे व धचढकर बोली - व्यथम रुपया क्यों फें का जाए? मिंहदर कौन बड़ी दरू ै। पााँव-पााँव क्यों न ीिं चली जाती। ुक्म चला देना तो स ज ै। अखरता उसे ै जो बैल की तर कमाता ै।

तीन साल प ले गोमती ने इसी तर की बातें गोदावरी के मुाँ से सुनी थीिं। आज गोदावरी को भी गोमती के मुाँ से सुननी पड़ी। समय की गनत!

इन हदनों गोदावरी बड़ े उदासीन भाव से खाना बनाती ै। पिंडडत जी के पथ्यापथ्य के ववषय में भी अब उसे प ले की-सी धचिंता न थी। एक हदन उसने म री से क ा कक अिंदाज से मसाले ननकालकर पीस ले, मसाले दाल में पड़ ेतो शमचम जरा तजे ो गई। मारे भय से पिंडडत जी से व न खाई गई। अन्य आलसी मनुष्यों की तर चटपटी वस्तुएाँ उन् ें भी ब ुत वप्रय थी, परिंतु य रोग से ारे ुए थे। गोमती ने जब य सुना तब भौं े चढाकर बोली, क्या बुढापे में जबान गज भर की ो गई ै।

कुछ इसी तर से कटु-वाक्य एक बार गोदावरी ने भी क े थे। आज उसकी बारी सुनने की थी।

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आज गोदावरी गिंगा से गले शमलने आई ै। तीन साल ुए व वर और विू को लेकर गिंगा जी को पुष्प और दिू चढाने गई थी। आज व अपने प्राण समपमण करने आई ै। आज व गिंगा जी की आनिंदमयी ल रों में ववश्राम करना चा ती ै।

गोदावरी को अब उस घर में एक क्षण र ना भी दसु्स ो गया था। ष्जस घर में रानी बन कर र ी उसी में चरेी बन कर र ना जैसी सगवाम स्त्री के शलए असिंभव था।

अब इस घर में गोदावरी का स्ने उस रस्सी की तर था जो बराबर गााँठ देने पर भी क ीिं न क ीिं से टूट ी जाती ै। उसे गिंगा जी की शरण लेने के शसवाय और कोई उपाय न सूझता था।

कई हदन ुए उसके मुाँ से बार-बार जान देने की िमकी सनु पिंडडत जी खखजला कर बोल उठे थे, तुम ककसी तर मर भी तो जाती। गोदावरी उन ववष-भरे शब्दों को अब तक न भूली थी। चुभनेवाली बातें उसको कभी न भूलती थीिं। आज गोमती ने भी व ीिं बातें क ी, यद्यवप उसने ब ुत कुछ स न करने के पीछे कठोर बातें क ी थी। तथावप गोदावरी को अपनी बातें तो भलू-सी गई थी। केवल गोमती और पिंडडत जी के वाक्य ी उसके कानों में गूाँज र े थे। पिंडडत जी ने उसे डााँटा तक न ीिं। मुझ पर ऐसा घोर अन्याय और वे मुाँ तक न खोलें।

आज सब लोगों के सो जाने पर गोदावरी घर बा र ननकली, आकाश में काली घटाएाँ छाई ुई थीिं। वषाम की झड़ी लग र ी थी। उिर नेत्रों से भी आाँसुओिं की िारा ब र ी थी। पे्रम का बिंिन ककतना कोमल ै और दृढ भी ककतना! कोमल ै अपमान के सामने, दृढ ै ववयोग के सामने! गोदावरी चौखट पर खड़ी-खड़ी घिंटों रोती र ी, ककतनी ी वपछली बातें उसे याद आती थीिं। ा! कभी य ााँ उसके शलए पे्रम भी था, मान भी था, जीवन का सुख था। शीघ्र ी पिंडडत जी के वे कठोर शब्द भी याद आ गए। आाँखों में कफर पानी की िारा ब ने लगी। गोदावरी घर से चल खड़ी ुई।

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इस समय पिंडडत देवदत्त निंगे शसर, निंग पााँव पानी में भीिंगत े ुए उसे लगा कर क ते, गोदावरी के किं वपत ाथों को पकड़कर अपने िड़कत े ुए हृदय से उसे लगा कर क ते, 'वप्रये!' इससे अधिक और उनके मुाँ से कुछ भी ननकलता, तो भी क्या गोदावरी अपने ववचारों पर ष्स्थर र सकती?

कुआर का म ीना था। रात को गिंगा की ल रों की गरज बड़ी भयानक मालूम ोती थी। साथ ी जब बबजली तड़प जाती तब उसकी उछलती ुई ल रें प्रकाश से उन्मत्त ो जाती थीिं। मानो प्रकाश उन्मत्त ाथी का रप िारण कर ककलोलें कर र ा ो। जीवन-सिंग्राम का एक ववशाल दृश्य आाँखों के सामने आ र ा था।

गोदावरी के हृदय में भी इस समय ववचार की अनेक ल रें बड़ ेवेग से उठतीिं, आपस में टकराती और ऐिंठती ुई लोप ो जाती थी। क ााँ? अिंिकार में।

क्या य गरजने उमड़नेवाली गिंगा गोदावरी को शािंनत प्रदान कर सकती ै?

उसकी ल रों से सुिासम मिुर ध्वनन न ीिं ै और न उसमें करुणा का ववकास ी ै। व इस समय उद्दिंड़ता और ननदमयता की भीषण मूनतम िारण ककए ुए ै।

गोदावरी ककनारे बैठी ुई क्या सोच र ी थी, कौन क सकता ै? क्या अब उसे य खटका न ीिं लगा था कक पिंडडत देवदत्त आत ेन ोगे? पे्रम का बिंिन ककतना मजबूत ोता ै।

उसी अिंिकार में ईष्याम, ननष्ठुरता और नैराश्य की सताई ुई व अबला गिंगा की गोद में धगर पड़ी। ल रें झपटी और उसे ननगल गई।

सवेरा ुआ। गोदावरी घर में न ीिं थी। उसकी चारपाई पर य पत्र पड़ा ुआ था -

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'स्वाशमन, सिंसार में शसवाय आपके मेरा और कौन स्ने ी थी? मैंने अपना सवमस्व आपके सुख की भेंट कर हदया। अब आपका सुख इसी में ै कक मैं इस सिंसार से लोप ो जाऊाँ । इसीशलए ये प्राण आपकी भेंट ै। मुझसे जो कुछ अपराि ुए ो, क्षमा कीष्जएगा। ईश्वर सदा आपको सुखी रक्खे?'

पिंडडत जी इस पत्र को देखत े ी मूष्च्छमत ोकर धगर पड़।े गोमती रोने लगी। पर क्या वे उनके ववलाप के आाँसू थे?

***

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सज्जनता का दंड

सािारण मनुष्य की तर शा ज ााँपुर के डडष्स्रक्ट इिंजीननयर सरदार शशव शसिं में भी भलाइयााँ और बुराइयााँ दोनों ी वतममान थी। भलाई य थी कक उनके य ााँ न्याय और दया में कोई अिंतर न था। बुराई य थी कक वे सवमथा ननलोभ और ननुःस्वाथम थे। भलाई ने मात तों को ननडर और आलसी बना हदया था, बुराई के कारण उस ववभाग के सभी अधिकारी उनकी जान के दशु्मन बन गए थे।

प्रातुःकाल का समय था। वे ककसी पुल की ननगरानी के शलए तैयार खड़ े थे। मगर साईस अभी मीठी नीिंद ले र ा था। रात को उसे अच्छी तर स ेज हदया था कक पौ फटने से प ले गाड़ी तैयार कर लेना। लेककन सुब भी ुई, सूयम भगवान ने दशमन भी हदए, शीतल ककरणों में गरमी भी आई, पर साईस की नीिंद अभी तक न ीिं टूटी।

सरदार सा ब खड़े-खड़ ेथक कर एक कुसी पर बैठ गए। साईस तो ककसी तर जागा, परिंतु अदमली के चपराशसयों का पता न ीिं। जो म ाशय डाक लेने गए थे व ेएक ठाकुरद्वारा में खड़ ेचरणामतृ पी र े थे। जो ठेकदार को बुलाने गए थे व ेबाबा रामदास की सेवा में बैठे गााँजे की दम लगा र े थे।

िूप तजे ोती जाती थी। सरदार सा ब झुाँझला कर मकान में चले गए औ अपनी पत्नी से बोले, इतना हदन चढ आया, अभी तक चपरासी का भी पता न ीिं। इसके मारे तो मेरे नाक में दम आ गया ै।

पत्नी ने दीवार की ओर देखकर दीवार से क ा, य सब उन् ें शसर चढाने का फल ै।

सरदार सा ब धचढकर बोले, क्या कराँ , उन् ें फााँसी दे दूाँ?

2

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सरदार सा ब के पास मोटरकार का तो क ना ी क्या, कोई कफटन भी न थी। व ेअपने इक्के से ी प्रसन्न थे, ष्जसे उनके नौकर-चाकर अपनी भाषा में उड़नखटोला क त े थे। श र के लोग उसे इतना आदर-सूचक नाम न देकर छकड़ा क ना ी उधचत समझत ेथे। इस तर सरदार सा ब अन्य व्यव ारों में भी बड़ े शमतव्ययी थे। उनके दो भाई इला ाबाद में पढत े थे। वविवा माता बनारस में र ती थी। एक वविवा बह न भी उन् ीिं पर अवलिंबबत थी। इनके शसवा कई गरीब लड़कों को छात्रवषृ्त्तयााँ भी देत े थे। इन् ीिं कारणों से व ेसदा खाली ाथ र त!े य ााँ तक कक उनके कपड़ों पर भी इस आधथमक दशा के धचह्न हदखाई देत ेथे! लेककन य सब कष्ट स कर भी वे लोभ को अपने पास फटकने न देत ेथे! ष्जन लोगों पर उनका स्ने था वे उनकी सज्जनता को सरा त ेथे और उन् ें देवता समझत ेथे। उनकी सज्जनता से उन् ें कोई ानन न ोती थी, लेककन ष्जन लोगों से उनके व्यावसानयक सिंबिंि थे वे उनके सद्भावों के ग्रा क न थे, क्योंकक उन् ें ानन ोती थी। य ााँ तक कक उन् ें अपने स िशममणी से भी कभी-कभी अवप्रय बातें सुननी पड़ती थी।

एक हदन वे दफ्तर से आए तो उनकी पत्नी ने स्ने पूणम ढिंग से क ा, तुम् ारी सज्जनता ककस काम की, जब सारा सिंसार तुमको बुरा क र ा ै।

सरदार सा ब ने दृढता से जवाब हदया, सिंसार जो चा े क े परमात्मा तो देखता ै।

रामा ने य जवाब प ले ी सोच शलया। व बोली, मैं तुमसे वववाद तो करती न ीिं, मगर जरा अपने हदल में ववचार करके देखो कक तुम् ारी इस सचाई का दसूरों पर क्या असर पड़ता ै? तुम तो अच्छा वेतन पात े ो। तुम अगर ाथ न बढाओ तो तुम् ारा ननवाम ो सकता ै? रखी रोहटयााँ शमल ी जाएाँगी मगर ये दस-दस पााँच-पााँच रुपए के चपरासी, मु ररमर, दफ्तरी बेचारे कैसे गुजर करें। उनके भी बाल-बच्च े ै। उनके भी कुटुिंब-पररवार ै। शादी-गमी, नतधथ-त्यो ार य सब उनके पास लगे ुए ैं। भलमनसी का भेष बनाए काम न ीिं चलता। बताओ

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उनका गुजर कैसे ो? अभी रामदीन चपरासी की घरवाली आई थी। रोते-रोत ेआाँचल भीगता था। लड़की सयानी ो गई ै। अब उसका ब्या करना पड़गेा। ब्राह्मण की जानत - जारों का खचम। बताओ उसके आाँसू ककसके शसर पड़ेंगे?

ये सब बातें सच थी। इनसे सरदार सा ब को इनकार न ीिं ो सकता। उन् ोंने स्वयिं इस ववषय में ब ुत कुछ ववचार ककया था। य ी कारण था कक व अपने मात तों के साथ बड़ी नरमी का व्यव ार करते थे। लेककन सरलता और शालीनता का आष्त्मक गौरव चा े जो ो, उनका आधथमक मोल ब ुत कम ै। वे बोले, तुम् ारी बातें सब ययाथम ैं, ककिं तु मैं वववश ूाँ। अपने ननयमों को कैसे तोडूाँ?

यहद मेरा वश चले तो मैं उन लोगों का वेतन बढा दूाँ। लेककन य न ीिं ो सकता कक मैं खुद लूट मचाऊाँ और उन् ें लूटने दूाँ।

रामा ने व्यिंग्यपूणम शब्दों में क ा, तो य त्या ककस पर पड़ेगी?

सरदार सा ब ने तीव्र ोकर उत्तर हदया, य उन लोगों पर पड़गेी जो अपनी ैशसयत और आमदनी से अधिक खचम करना चा त े ै। अरदली बनकर क्यों वकील के लड़के से लड़की ब्या ने को ठानत े ै। दफ्तरी को यहद ट लुवे की जररत ो तो य ककसी पाप कायम से कम न ीिं। मेरे साईस की स्त्री अगर चााँदी की शसल गले में डालना चा े तो य उसकी मूखमता ै। इस झूठी बड़ाई का उत्तरदाता मैं न ीिं ो सकता।

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इिंजीननयर का ठेकेदारों से कुछ ऐसा ी सिंबिंि ै जैसे मिु-मष्क्खयों का फूलों से। अगर वे अपने ननयत भाग से अधिक पाने की चषे्टा न करें , तो उनसे ककसी को शशकायत न ीिं ो सकती। य मिु-रस कमीशन क लाता ै। ररश्वत लोक और परलोक दोनों का ी सवमनाश कर देती ै। उसमें भय ै, चोरी ै, बदमाशी ै। मगर कमीशन एक मनो र वाहटका ै, ज ााँ न मनुष्य का डर ै, न परमात्मा का

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भय, य ााँ तक कक व ााँ आत्मा की नछपी ुई चुटककयों का भी गुजर न ीिं ै। और क ााँ तक क ें उसकी ओर बदनामी आाँख भी न ीिं उठा सकती। य व बशलदान ै जो त्या ोत े ुए भी िमम का एक अिंश ै। ऐसी अवस्था में यहद सरदार शशवशसिं अपने उज्जवल चररत्र को इस िब्बे से साफ रखत े थे और उस पर अशभमान करत ेथे तो क्षमा के पात्र थे।

माचम का म ीना बीत र ा था। चीफ इिंजीननयर सा ब ष्जले का मुआयना करने आ र े थे। मगर अभी तक इमारतों का अपूणम था। सड़कें खराब ो र ी थीिं, ठेकेदारों ने शमट्टी और किं कड़ भी न ीिं जमा ककए थे।

सरदार सा ब रोज ठेकेदारों को ताकीद करत ेथे, मगर इसका कुछ फल न ोता था।

एक हदन उन् ोंने सबको बुलाया। वे क ने लगे, तुम लोग क्या य ी चा त े ो कक मैं इस ष्जले से बदनाम ोकर जाऊाँ । मैंने तुम् ारे साथ कोई बुरा सलूक न ीिं ककया। मैं चा ता तो आपके काम छीनकर खुद करा लेता, मगर मैंने आपको ानन प ुाँचाना उधचत न समझ। उसकी मुझ ेय सजा शमल र ी ै। खैर!

ठेकेदार लोग य ााँ से चले तो बातें ोने लगी। शमस्टर गोपालदास बोले - अब आटे-दाल का भाव मालूम ो जाएगा।

शा बाज खााँ ने क ा, ककसी तर इसका जनाजा ननकले तो य ााँ से...।

सेठ चुन्नीलाल ने फरमाया, इिंजीननयर से मेरी जान-प चान ै मैं उसके साथ काम कर चुका ूाँ व खूब लथेड़गेा।

इस पर बूढे ररदास ने उपदेश हदया, यारों स्वाथम की बात े ै। न ीिं तो सच य ै कक य मनुष्य न ीिं देवता ै। भला और न ीिं तो साल भर में कमीशन के 10 जार तो ोत े ोंगे। इतने रुपयों को ठीकरे की तर तुच्छ समझना क्या कोई

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स ज बात ै? एक म ैं कक कौडड़यों के पीछे ईमान बेचत े कफरत े ै। जो सज्जन पुरुष मसे एक पाई का रवादार न ो, सब प्रकार के कष्ट उठाकर भी ष्जसकी नीयत डावााँडोल न ो, इसके साथ ऐसा नीच और कुहटल बतामव करना पड़ता ै। इसे अपने अभाग्य के शसवा और क्या समझें।

शा बाज खााँ ने फरमाया - ााँ; इसमें तो कोई शक न ीिं कक शक्स नेकी का फररश्ता ै।

सेठ चुन्नीलाल ने गिंभीरता से क ा - खााँ सा ब! बात तो व ी ै, जो तुम क ते ो। लेककन ककया क्या जाए? नेकनीयती से तो काम न ीिं चलता। य दनुनया तो छल-कपट की ै।

शमस्टर गोपालदास बी. ए. पास थे। वे गवम के साथ बोले - इन् ें जब इस तर र ना था नौकरी करने की क्या जररत थी? य कौन न ीिं जानता की नीयत को साफ रखना अच्छी बात ै। मगर य भी तो देखना चाह ए कक इसका दसूरों पर क्या असर पड़ता ै। मको तो ऐसा आदमी चाह ए जो खुद खाए और में भी खखलावे। खुद लुवा खाए, में रखी रोहटयााँ ी खखलावे। व अगर एक रुपया कमीशन लेगा तो उसकी जग पााँच का फायदा कर देगा। इन म ाशय के य ााँ क्या ै? इसीशलए आप जो चा े क ें , मेरी तो कभी इनसे ननभ न ीिं सकती।

शा बाज खााँ बोले - ााँ, नेक और पाक-साफ र ना जरर अच्छी चीज ै, मगर ऐसी नेकी ी से क्या जो दसूरो की जान ले ले।

बूढे ररदास की बातों की ष्जन लोगों ने पुष्ष्ट की थी वे सब गोपालदास की ााँ में ााँ शमलाने लगे! ननबमल आत्माओिं में सचाई का प्रकाश जगुनू की चमक ै।

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सरदार सा ब के एक पुत्री थी। उसका वववा मेरठ के एक वकील के लड़के से ठ रा था। लड़का ोन ार था। जानत कुल का ऊाँ चा था। सरदार सा ब ने कई म ीने की दौड़-िूप में इस वववा को तै ककया था। और सब बातें ो चुकी थीिं, केवल द ेज का ननणमय न ीिं ुआ था। आज वकील सा ब का एक पत्र आया। उसने इस बात का भी ननश्चय कर हदया, मगर ववश्वास, आशा और वचन के बबलकुल प्रनतकूल। प ले वकील सा ब ने एक ष्जले के इिंजीननयर के साथ ककसी प्रकार का ठ राव व्यथम समझा। बड़ी सस्ती उदारता प्रकट की। इस लष्ज्जत और घखृणत व्यव ार पर खूब आाँसू ब ाए। मगर जब ज्यादा पूछताछ करने पर सरदार सा ब के िन-वैभव का भेद खुल गया तब द ेज का ठ राना आवश्यक ो गया। सरदार सा ब ने आशिंककत ाथों से पत्र खोला, पााँच जार रुपए से कम पर वववा न ीिं ो सकता। वकील सा ब को ब ुत खेद और लज्जा थी कक इस ववषय में स्पष्ट ोने पर मजबूर ककए गए। मगर वे अपने खानदान के कई बूढे खुरामट, ववचार ीन, स्वाथाांि म ात्माओिं के ाथों ब ुत तिंग थे। उनका कोई वश न था। इिंजीननयर सा ब ने एक लिंबी सााँस खीिंची - सारी आशाएाँ शमट्टी में शमल गई। क्या सोचत ेथे, क्या ो गया। ववकल ो कमरे में ट नलने लगे।

उन् ोंने जरा देर पीछे पत्र को उठा शलया और अिंदर चले गए। ववचारा कक य पत्र रामा को सुनावें, मगर य खयाल आता कक य ााँ स ानुभूनत की कोई आशा न ीिं। क्यों अपनी ननबमलता हदखाऊाँ ? क्यों मूखम बनू? व बबना बातों के बात न करेगी। य सोच कर वे आाँगन में लौट गए।

सरदार सा ब स्वभाव के बड़ ेदयालु थे और कोमल हृदय आपष्त्तयों में ष्स्थर न ीिं र सकता। वे दुुःख और ग्लानन से भरे ुए सोच र े थे कक मैंने ऐसे कौन से बुरे काम ककए ैं ष्जनका मुझ ेय फल शमल र ा ै। बरसों की दौड़-िूप के बाद जो कायम-शसद्ध ुआ था व क्षण मात्र में नष्ट ो गया। अब व मेरी सामथ्यम से बा र ै। मैं उसे न ीिं सम् ाल सकता। चारों ओर अिंिकार ै। क ीिं आशा का प्रकाश न ीिं। कोई मेरा स ायक न ीिं। उनके नेत्र सजल ो गए।

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सामने मेज पर ठेकेदारों के बबल रखे ुए थे। व ेकई सप्ता ों से यों ी पड़ ेथे। सरदार ने उन् ें खोलकर भी न देखा था। आज इस आष्त्मक ग्लानन और नैराश्य की अवस्था में उन् ोंने इन बबलों को सतषृ्ण आाँखों से देखा। जरा से इशारे पर ये सारी कहठनाइयााँ दरू ो सकती ै। चपरासी और क्लकम केवल मेरी सम्मनत के स ारे सब कुछ कर लेंगे। मुझ े जबान ह लाने की भी जररत न ीिं। न मुझ ेलष्ज्जत ी ोना पड़गेा। इन ववचारों का इतना प्राबल्य ुआ कक वे वास्तव में बबलों को उठाकर गौर से देखने और ह साब लगाने लगे कक उनमें ककतनी ननकासी ो सकती ै।

मगर शीघ्र ी आत्मा ने उन् ें जगा हदया - आ ! मैं ककस भ्रम में पड़ा ुआ ूाँ?

क्या उस आष्त्मक पववत्रता को, जो मेरी जन्म-भर की कमाई ै, केवल थोड़ े से िन पर अपणम कर दूाँ? जो मैं अपने स काररयों के सामने गवम से शसर उठाए चलता था, ष्जससे मोटरकार वाले भ्रातगृण आाँखें न ीिं शमला सकत े थे, व ीिं मैं आज अपने उस सारे गौरव और मान को, अपनी सिंपूणम आष्त्मक सिंपष्त्त को दस-पााँच जार रुपयों पर त्याग दूाँ। ऐसा कदावप न ीिं ो सकता।

अब उस कुववचार को परास्त करने के शलए, ष्जसने क्षणमात्र के शलए उनपर ववजय पा ली थी, वे उस सुनसान कमरे में जोर से ठठा कर ाँसे। चा े य ाँसी उन बबलों ने और कमरे की दीवारों ने न सुनी ो, मगर उनकी आत्मा ने अवश्य सुनी। उस आत्मा को एक कहठन परीक्षा में पार पाने पर परम आनिंद ुआ।

सरदार सा ब ने उन बबलों को उठाकर मेज ने नीच ेडाल हदया। कफर उन् ें पैरों से कुचला। तब इस ववजय पर मुस्करात े ुए वे अिंदर गए।

5

बड़ े इिंजीननयर सा ब ननयत समय पर शा ज ााँपुर आए। उसके साथ सरदार सा ब का दभुामग्य भी आया। ष्जले के सारे काम अिूरे पड़ ेथे। उनके खानसामा

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ने क ा - ुजूर! काम कैसे परूा ो? सरदार सा ब ठेकेदारों को ब ुत तिंग करते ै। ेडक्लकम ने दफ्तर के ह साब को भ्रम और भूलों से भरा ुआ पाया। उन् ें सरदार सा ब की तरफ से न कोई दावत दी गई न कोई भेंट। तो क्या वे सरदार सा ब के नातदेार थे जो गलनतयााँ न ननकालत।े

ष्जले के ठेकेदारों ने एक ब ुमूल्य डाली सजाई और उसे बड़ ेइिंजीननयर सा ब की सेवा में लेकर ाष्जर ुए। वे बोले - ुजूर! चा े गुलामों को गोली मार दें, मगर सरदार सा ब का अन्याय अब न ीिं स ा जाता। क ने को तो कमीशन न ीिं लेत ेमगर सच पूधथए तो जान ले लेत े ै।

चीफ इिंजीननयर सा ब ने मुआइने की ककताब में शलखा, 'सरदार शशवशसिं ब ुत ईमानदार आदमी आदमी ै। उसका चररत्र उज्जवल ै, मगर व ेइतने बड़ ेष्जले के कायम का भार न ीिं सम्भाल सकत।े'

पररणाम य ुआ कक वे एक छोटे से ष्जले में भेज हदए गए और उनका दरजा भी घटा हदया गया।

सरदार सा ब के शमत्रों और स्नेह यों ने बड़ ेसमारो से एक जलसा ककया। उसमें उनकी िममननष्ठा और स्वतिंत्रता की प्रशिंसा की। सभापनत ने सजलनेत्र ोकर किं वपत स्वर में क ा - सरदार सा ब के ववयोग का दुुःख मारे हदल में सदा खटकता र ेगा। य घाव कभी न भरेगा।

मगर 'फेयरवेल डडनर' में य बात शसद्ध ो गई कक स्वाहदष्ट पदाथों के सामने ववयोग का दुुःख दसु्स न ीिं।

यात्रा के सामान तैयार थे। सरदार सा ब जलसे से आए तो रामा ने उन् ें ब ुत उदास और मशलनमुख देखा। उसने बार-बार क ा था कक बड़ े इिंजीननयर के खानसामा को इनाम दो, ेड क्लकम की दावत करो; मगर सरदार सा ब ने उसकी बात न मानी थी। इसशलए जब उसने सुना कक दरजा घटा और बदली भी ुई

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तब उसने बड़ी ननदमयता से अपने व्यिंग्य-बाण चलाए। मगर इस वक्त उन् ें उदास देखकर उससे न र ा गया। बोला - क्यों इतने उदास ो? सरदार सा ब ने उत्तर हदया - क्या कराँ ाँसूाँ? रामा ने गिंभीर स्वर से क ा - ाँसना ी चाह ए। रोये तो व ष्जसने कौडड़यों पर अपनी आत्मा भ्रष्ट की ो- ष्जसने रुपयों पर अपना िमम बेचा ो। व बुराई का दिंड न ीिं ै। य भलाई और सज्जनता का दिंड ै, इसे सानिंद झलेना चाह ए।

य क उसने पनत की ओर देखा तो नेत्रों में सच्चा अनुराग भरा ुआ हदखाई हदया। सरदार सा ब ने भी उसकी ओर स्ने पूणम दृष्ष्ट से देखा। उनकी हृदयेश्वरी का मुखारवव िंद सच्च ेआमोद से ववकशसत था। उसे गले लगाकर बोले, रामा! मुझ ेतुम् ारी ी स ानुभूनत की जररत थी, अब मैं इस दिंड को स षम स ूाँगा।

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नर्क का दारोगा

जब नमक का नया ववभाग बना और ईश्वरप्रदत्त वस्तु के व्यव ार करने का ननषेि ो गया तो लोग चोरी-नछपे इसका व्यव ार करने लगे। अनेक प्रकार के छल-प्रपिंचों का सूत्रपात ुआ, कोई घूस से काम ननकालता था, कोई चालाकी से। अधिकाररयों के पौ-बार थे। पटवारीधगरी का सवमसम्माननत पद छोड़-छोड़ कर लोग इस ववभाग की बरकिं दाजी करत ेथे। इसके दारोगा पद के शलए तो वकीलों का भी जी ललचाता था। य व समय था जब अिंगरेजी शशक्षा और ईसाई मत को लोग एक ी वस्तु समझत ेथे। फारसी का प्राबल्य था। पे्रम की कथाएाँ और शृिंगार रस का काव्य पढ कर फारसी दााँ लोग सवोच्च पदों पर ननयुक्त ो जाया करत े थे। मुिंशी विंशीिर भी जुलेखा की ववर कथा समाप्त करके मजनू और फर ाद के पे्रम-वतृ्तािंत को नल और नील की लड़ाई और अमेररका के आववष्कार से अधिक म त्त्व की बातें समझत े ुए रोजगार की खोज में ननकले। उनके वपता एक अनुभवी पुरुष थे। समझाने लगे, बेटा! घर की ददुमशा देख र े ो। ऋण के बोझ से दबे ुए ैं। लड़ककयााँ ैं, व घास-फूस की तर बढती चली जाती ै। मैं कगारे पर का वकृ्ष ो र ा ूाँ, न मालूम कब धगर पडूाँ! अब तुम् ीिं घर के माशलक मुख्तार ो। नौकरी में ओ दे की ओर ध्यान मत देना, य तो पीर का मजार ै। ननगा चढावे और चादर पर रखनी चाह ए। ऐसा काम ढूाँढना ज ााँ कुछ ऊपरी आय ो। माशसक वेतन तो पूणममासी का चााँद ै, जो एक हदन हदखाई देता ै और घटत-ेघटत े लुप्त ो जाता ै। ऊपरी आय ब ता ुआ स्रोत ै ष्जससे सदैव प्यास बुझती ै। वेतन मनुष्य देता ै, इसी से उसमें ववृद्ध न ीिं ोती। ऊपरी आमदनी ईश्वर देता ै, इसी से उसकी बरकत ोती ै, तुम स्वयिं ववद्वान ो, तुम् ें क्या समझाऊाँ । इस ववषय में वववेक की बड़ी आवश्यकता ै। मनुष्य को देखो, उसकी आवश्यकता को देखो और अवसर देखो, उसके उपरािंत जो उधचत समझो, करो। गरजवाले आदमी के साथ कठोरता करने में लाभ ी लाभ ै। लेककन बेगरज को दााँव पर पाना जरा कहठन ै। इन बातों को ननगा में बााँि लो। य मेरी जन्म भर की कमाई ै।

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इस उपदेश के बाद वपता जी ने आशीवामद हदया। विंशीिर आज्ञाकारी पुत्र थे। ये बातें ध्यान से सुनी और तब घर से चल खड़ े ुए। इस ववस्ततृ सिंसार में उनके शलए िैयम अपना शमत्र, बुवद्ध अपनी पथप्रदशमक और आत्मावलम्बन ी अपना स ायक था। लेककन अच्छे शकुन से चले थे, जात े ी जात े नमक ववभाग के दारोगा पद पर प्रनतष्ष्ठत ो गए। वेतन अच्छा और ऊपरी आय का तो हठकाना ी न था। वदृ्ध मुिंशी जी को सुख-सिंवाद शमला तो फूले न समाए। म ाजन कुछ नरम पड़े, कलवार की आशालता ल ल ाई। पड़ोशसयों के हृदय में शूल उठने लगे।

2

जाड़ ेके हदन थे और रात का समय। नमक के शसपा ी, चौकीदार नशे में मस्त थे। मुिंशी विंशीिर को य ााँ आए अभी छ म ीनों से अधिक न ुआ थे; लेककन इस थोड़ े समय में ी उन् ोंने अपनी कायमकुशलता और उत्तम आचार से अफसरों को मोह त कर शलया था। अफसर लोग उन पर ब ुत ववश्वास करने लगे। नमक के दफ्तर से एक मील पूवम की ओर जमुना ब ती थी, उस पर नावों का एक पुल बना ुआ था। दारोगा जी ककवाड़ बिंद ककये मीठी नीिंद से सो र े थे। अचानक आाँख खुली तो नदी के प्रवा की जग गाडड़यााँ क्या नदी के पार जाती ैं? अवश्य कुछ न कुछ गोलमाल ै। तकम ने भ्रम को पुष्ट ककया। वरदी प नी, तमिंचा जेब में रखा और बात की बात में घोड़ा बढाये ुए पुल पर आ प ुाँच।े गाडड़यों की एक लम्बी कतार पुल के पार जाती देखी। डााँट कर पूछा, ककसकी गाडड़यााँ ैं।

थोड़ी देर तक सन्नाटा र ा। आदशमयों में कुछ कानाफूसी ुई तब आगे वाले ने क ा - पिंडडत अलोपीदीन की।

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'कौन पिंडडत अलोपीदीन!'

'दातागिंज के।'

मुिंशी विंशीिर चौंके। पिंडडत अलोपीदीन इस इलाके के सबसे प्रनतष्ष्ठत जमीिंदार थे। लाखों रुपये का लेन-देन करत ेथे, इिर छोटे से बड़ ेकौन ऐसे थे जो उनके ऋणी न ों। व्यापार भी बड़ा लम्बा-चौड़ा था। बड़ े चलते-पुरजे आदमी थे। अिंगरेज अफसर उनके इलाके में शशकार खेलने जात ेऔर उनके मे मान ोत।े बार ों मास सदाव्रत चलता था।

मुिंशी जी ने पूछा, गाडड़यााँ क ााँ जाएाँगी? उत्तर शमला, कानपुर। लेककन इस प्रश्न पर कक इनमें क्या ै, सन्नाटा छा गया। दारोगा सा ब का सिंदे और भी बढा। कुछ देर तक उत्तर की बाट देख कर व जोर से बोले, क्या गूाँगे ो गए ो? म पूछत े ै, इनमें क्या लदा ै?

जब इस बार भी कोई उत्तर न शमला तो उन् ोंने घोड़ ेको एक गाड़ी से शमला कर बोरे को टटोला। भ्रम दरू ो गया। य नमक के ढेले थे।

3

पिंडडत अलोपीदीन अपने सजीले रथ पर सवार, कुछ सोत,े कुछ जागत ेचले आते थे। अचानक कई गाड़ीवानों ने घबराए ुए आ कर जगाया और बोले - म ाराज! दारोगा ने गाडड़यााँ रोक ली ै और घाट पर खड़ ेआपको बुलात े ै।

पिंडडत अलोपीदीन का लक्ष्मी जी पर अखिंड ववश्वास था। व क ा करत ेथे कक सिंसार का तो क ना ी ककया, स्वगम में भी लक्ष्मी का ी राज्य ै। उनका य क ना यथाथम ी था। न्याय और नीनत सब लक्ष्मी के ी खखलौने ै, इन् ें व जैसे चा ती ै नचाती ै। लेटे ी लेटे गवम से बोले, चलो म आत े ै। य क कर पिंडडत जी ने बड़ी ननष्श्चिंतता से पान के बीड़ ेलगा कर खाए। कफर शल ाफ

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ओढे ुए दारोगा के पास आ कर बोले - बाबू जी आशीवामद! कह ए, मसे ऐसा कौन-सा अपराि ुआ कक गाडड़यााँ रोक दी गई। म ब्राह्मणों पर तो आपकी कृपा-दृष्ष्ट र नी चाह ए।

विंशीिर रुखाई से बोले, सरकारी ुक्म!

पिंडडत अलोपीदीन ने ाँस कर क ा, म सरकारी ुक्म को न ीिं जानत ेऔर न सरकार को। मारे सरकार तो आप ी ै। मारा और आपका तो घर का मामला ै, म कभी आपसे बा र ो सकत े ै? आपने व्यथम का कष्ट उठाया। य तो न ीिं ो सकता कक इिर से जाएाँ और इस घाट के देवता को भेंट न चढावें। मैं तो आपकी सेवा में स्वयिं ी आ र ा था। विंशीिर पर ऐश्वयम की मो नी का कुछ प्रभाव न पड़ा। ईमानदारी की नई उमिंग थी। कड़क कर बोले, म उन नमक रामों में न ीिं जो कोडड़यों पर अपना ईमान बेचते कफरत े ै। आप इस समय ह रासत में ै। आपका कायदे के अनुसार चालान ोगा। बस, मुझ ेअधिक बातों की फुसमत न ीिं ै। जमादार बदलूशसिं ! तुम इन् ें ह रासत में ले चलो, मैं ुक्म देता ूाँ।

पिं. अलोपीदीन स्तिंशभत ो गए। गाड़ीवानों में लचल मच गई। पिंडडत जी के जीवन में कदाधचत य प ला अवसर था कक पिंडडत को ऐसी कठोर बातें सुननी पड़ी। बदलूशसिं आगे बढा, ककिं तु रोब के मारे य सा स न ुआ कक उनका ाथ पकड़ सके। पिंडडत जी ने िमम को िन का ऐसा ननरादर करत ेकभी न देखा था। ववचार ककया कक य अभी उद्दिंड लड़का ै। माया-मो के जाल में अभी न ीिं पड़ा। अल् ड़ ै, खझझकतुः ै। ब ुत दीन-भाव से बोले, बाबू सा ब, ऐसा न कीष्जए,

म शमट जाएाँगे। इज्जत िूल में शमल जाएगी। मारा अपमान करने से आपके ाथ क्या आएगा। म ककसी तर आपसे बा र थोड़ े ी ैं!

विंशीिर ने कठोर स्वर में क ा, म ऐसी बातें न ीिं सुनना चा त।े

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अलोपीदीन ने ष्जस स ारे को चट्टान समझ रखा था, व पैरों के नीच ेखखसकता ुआ मालूम ुआ। स्वाशभमान और िन ऐश्वयम को कड़ी चोट लगी। ककिं तु अभी तक िन की सािंष्ख्यक शष्क्त का पूरा भरोसा था। अपने मुख्तार से बोले, लाला जी, एक जार के नोट बाबू सा ब की भेंट करो, आप इस समय भूखे शसिं ो र े ै।

विंशीिर ने गरम ोकर क ा, एक जार न ीिं, एक लाख भी मुझ ेसच्च ेमागम से न ीिं टा सकत।े

िमम की इस बुवद्ध ीन दृढता और देव-दलुमभ त्याग पर मन ब ुत झुाँझलाया। अब दोनों शष्क्तयों में सिंग्राम ोने लगा। िन ने उछल-उछल कर आक्रमण करने शुर ककए। एक से पााँच, पााँच से दस, दस से पिंद्र और पिंद्र से बीस जार तक नौबत प ुाँची, ककिं तु िमम अलौककक वीरता के साथ इस ब ुसिंख्यक सेना के सम्मखु अकेला पवमत की भााँनत अटल, अववचशलत खड़ा था।

अलोपीदीन ननराश ोकर बोले; अब इससे अधिक मेरा सा स न ीिं। आगे आपकी।

विंशीिर ने अपने जमादार को ललकारा। बदलूशसिं मन में दारोगा जी को गाशलयााँ देता ुआ पिंडडत अलोपीदीन की ओर बढा। पिंडडत जी घबराकर दो-तीन कदम पीछे ट गए। अत्यिंत दीनता से बोले, बाबू सा ब, ईश्वर के शलए मुझ पर दया कीष्जए, मैं पच्चीस जार पर ननपटारा करने को तैयार ूाँ।

'असिंभव बात ै।'

'तीस जार पर।'

'ककसी तर भी सिंभव न ीिं ै।'

'क्या चालीस जार पर भी न ीिं?'

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'चालीस जार न ीिं, चालीस लाख पर भी असिंभव ै।'

'बदलूशसिं , इस आदमी को अभी ह रासत में ले लो। अब मैं एक शब्द भी न ीिं सुनना चा ता।'

िमम ने िन को पैरों तले कुचल डाला। अलोपीदीन ने एक हृष्ट-पुष्ट मनुष्य को थकडड़यााँ शलए ुए अपनी तरफ आत ेदेखा। चारों ओर ननराश और कातर दृष्ष्ट से देखने लगे। इसके बाद मूष्च्छमत ोकर धगर पड़।े

4

दनुनया सोती थी पर दनुनया की जीभ जागती थी। सबेरे देखखए तो बालक-वदृ्ध सब के मुाँ से य ी बात सुनाई देती थी। ष्जसे देखखए, व ीिं पिंडडत के इस व्यव ार पर टीका-हटप्पणी कर र ा था, ननिंदा की बौिारें ो र ी थीिं, मानो सिंसार से अब पापी का पाप कट गया। पानी को दिू के नाम से बेचनेवाला ग्वाला, कष्ल्पत रोजनामच ेभरनेवाले अधिकारी वगम, रेल में बबना हटकट सफर करनेवाले बाबू लोग, जाली दस्तावेज बनानेवाले सेठ और सा ूकार य सब के सब देवताओिं की भााँनत गदमनें चला र े थे। जब दसूरे हदन पिंडडत अलोपीदीन अशभयुक्त ोकर कािंस्टेबलों के साथ, ाथों में थकडड़यााँ, हृदय में ग्लानन और क्षोभ भरे, लज्जा से गदमन झुकाए अदालत की तरफ चले तो सारे श र में लचल मच गई। मेलों में कदाधचत आाँखें इतनी व्यग्र न ोती ोंगी। भीड़ के मारे छत और दीवार में कोई भेद न र ा।

ककिं तु अदालत में प ुाँचने की देर थी। पिंडडत अलोपीदीन इस अगाि वन के शसिं थे। अधिकारी वगम उनके भक्त, अमले उनके सेवक, वकील-मुख्तार उनके आज्ञा पालक और अरदली, चपरासी तथा चौकीदार तो उनके बबना मोल के गुलाम थे। उन् ें देखत ेलोग चारों तरफ से दौड़।े सभी लोग ववष्स्मत ो र ा थे। इसशलए न ीिं कक अलोपीदीन ने क्यों य कमम ककया बष्ल्क इसशलए कक व कानून के

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पिंजे में कैसे आए। ऐसा मनुष्य ष्जसके पास असाध्य सािन करने वाला िन और अनन्य वाचालता ो, व क्यों कानून के पिंजे में आए। प्रत्येक मनुष्य उनसे स ानुभूनत प्रकट करता था। बड़ी तत्परता से इस आक्रमण को रोकने के ननशमत्त वकीलों की एक सेना तैयार की गई। न्याय के मैदान में िमम और िन में युद्ध ठन गया। विंशीिर चुपचाप खड़ ेथे। उनके पास सत्य के शसवा न कोई बल था, न स्पष्ट भाषण के अनतररक्त कोई शस्त्र। गवा थे, ककिं तु लोभ से डावााँडोल।

य ााँ तक कक मुिंशी जी को न्याय भी अपनी ओर से कुछ खखिंचा ुआ दीख पड़ता था। व न्याय का दरबार था, परिंतु उसके कममचाररयों पर पक्षपात का नशा छाया ुआ था। ककिं तु पक्षपात और न्याय का क्या मेल? ज ााँ पक्षपात ो, व ााँ न्याय की कल्पना भी न ीिं की जा सकती। मुकदमा शीघ्र ी समाप्त ो गया। डडप्टी मष्जस्रेट ने अपनी तजवीज में शलखा, पिंडडत अलोपीदीन के ववरुद्ध हदए गए प्रमाण ननमूमल और भ्रमात्मक ै। व एक बड़ ेभारी आदमी ै। य बात कल्पना के बा र ै कक उन् ोंने थोड़े लाभ के शलए ऐसा दसु्सा स ककया ो। यद्यवप नमक के दारोगा मुिंशी विंशीिर का अधिक दोष न ीिं, लेककन य खेद की बात ै कक उसकी उद्दिंडता और ववचार ीनता के कारण एक भलेमानुस को कष्ट झलेना पड़ा। म प्रसन्न ै कक व अपने काम से सजग और सचते र ता ै, ककिं तु नमक से मुकदमें की बढी ुई नमक लाली ने उसके वववेक और बुवद्ध को भ्रष्ट कर हदया। भववष्य में उसे ोशशयार र ना चाह ए।

वकीलों ने य फैसला सुना और उछल पड़।े पिंडडत अलोपीदीन मुस्करात े ुए बा र ननकले। स्वजन बािंिवों ने रुपयों की लूट की। उदारता का सागर उमड़ पड़ा। उसकी ल रों ने अदालत की नीिंव तक ह ला दी। जब विंशीिर बा र ननकले तो चारों ओर से उनके ऊपर व्यिंगवाणों की वषाम ोने लगी। चपराशसयों ने झुक-झुककर सलाम ककए। ककिं तु र समय एक-एक कटुवाक्य, एक-एक सिंकेत उनकी गवामष्ग्न को प्रज्वशलत कर र ा था। कदाधचत मुकदमे में सफल ोकर व इस तर अकड़त े ुए न चलत।े आज उन् ें सिंसार का एक खेदजनक ववधचत्र अनुभव

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ुआ। न्याय और ववद्वता, लिंबी-चौड़ी उपाधियााँ, बड़ी-बड़ी दाहढयााँ और ढीले चोंगे एक भी सच्च ेआदर के पात्र न ीिं ैं।

विंशीिर ने िन से बैर मोल शलया, उसका मूल्य चुकाना अननवायम था। कहठनता से एक सप्ता बीता ोगा कक मुअत्तली का परवाना आ प ुाँचा। कायमपरायण्ता का दिंड शमला। बेचारे भग्न हृदय, शोक और खेद से व्यधथत घर को चले। बढेू मुिंशी जी तो प ले ी से कुड़-बुड़ा र े थे कक चलते-चलत े इस लड़के को समझाया था, लेककन इसने एक न सुनी। सब मनमानी करता ै। म तो कलवार और कसाई के तगादे स ें , बुढापे में भगत बनकर बैठे और व ााँ बस व ी सूखी तनख्वा ! मने भी तो नौकरी की ै और कोई ओ देदार न ीिं थे, लेककन काम ककया, हदल खोलकर ककया और आप ईमानदार बनने चले ै। घर में चा े अाँिेरा ो, मष्स्जद में अवश्य दीया जलाएिंगे। खेद ऐसी समझ पर! पढना-शलखना सब अकारथ गया। इसके थोड़ े ी हदनों बाद, जब मुिंशी विंशीिर इस दरुावस्था में घर प ुाँच ेऔर बूढे वपता जी ने समाचार सुना तो शसर पीट शलया। बोले, जी चा ता ै कक तुम् ारा और अपना शसर फोड़ लूाँ। ब ुत देर तक पछता-पछता कर ाथ मलत ेर े। क्रोि में कुछ कठोर बातें भी क ीिं और यहद विंशीिर व ााँ से टल न जात ेतो अवश्य ी य क्रोि ववकट रप िारण करता। वृद््धा माता को भी ब ुत दुुःख ुआ। जगन्नाथ और रामेश्वर यात्रा की कामनाएाँ शमट्टी में शमल गई। पत्नी ने तो कई हदन तक सीिे मुाँ से बात भी न ीिं की।

इसी प्रकार एक सप्ता बीत गया। सिंध्या का समय था। बूढे मुिंशी जी बैठे राम-नाम का माला जप र े थे। इसी समय उनके द्वार पर सजा ुआ रथ आकर रुका। रे और गुलाबी परदे, पछाह यें बैलों की जोड़ी, उनकी गदमनों में नीले िागें, सीिंगे पीतल से जड़ी ुईं। कई नौकर लाहठयााँ किं िों पर रखे साथ थे। मुिंशी जी अगवानी को दौड़।े देखा तो पिंडडत अलोपीदीन ै। झुककर दिंडवत की और लल्लो-चप्पो की बातें करने लगे, मारा भाग्य उदय ुआ जो आपके चरण इस द्वार पर आए। आप मारे पजू्य देवता ै, आपको कौन-सा मुाँ हदखावें, मुाँ में

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तो काशलख लगी ुई ै। ककिं तु क्या करें , लड़का अभागा कपतू ै, न ीिं तो आपसे क्यों मुाँ नछपाना पड़ता? ईश्वर ननस्सिंतान चा े रक्खे पर ऐसी सिंतान न दे।

अलोपीदीन ने क ा - न ीिं भाई सा ब, ऐसा न कह ए।

मुिंशी जी ने चककत ोकर क ा - ऐसी सिंतान को और क्या क ूाँ।

अलोपीदीन ने वात्सल्यपूणम स्वर में क ा - कुलनतलक और पुरुषों की कीनतम उज्जवल करनेवाले सिंसार में ऐसे ककतने िममपरायण मनुष्य ै जो िमम पर अपना सब कुछ अपमण कर सकें ?

पिं अलोपीदीन ने विंशीिर से क ा - दारोगा जी, इसे खुशामद न समखझए, खुशामद करने के शलए मुझ ेइतना कष्ट उठाने की जररत न थी। उस रात को आपने अपने अधिकार-बल से मुझ ेअपनी ह रासत में शलया था, ककिं तु आज में स्वेच्छा से आपकी ह रासत में आया ूाँ। मैंने जारों रईस और अमीर देखे, जारों उच्च पदाधिकाररयों से काम पड़ा। ककिं तु मुझ ेपरास्त ककया आपने। मैंने सबको अपना और अपने िन का गुलाम बनाकर छोड़ हदया। मुझ ेआज्ञा दीष्जए कक आपसे कुछ ववनय कराँ ।

विंशीिर ने अलोपीदीन को आत ेदेखा तो उठ कर सत्कार ककया, ककिं तु स्वाशभमान के साथ। समझ गए कक य म ाशय मुझ ेलष्ज्जत करने और जलाने आए ै। क्षमा-प्राथमना की चषे्टा न ीिं की; वरन ्अपने वपता की य ठकुरसु ाती की बातें असह्य-सी प्रतीत ुई। पर पिंडडत जी की बातें सुनीिं तो मन की मैल शमट गई। पिंडडत जी की ओर उड़ती ुई दृष्ष्ट से देखा। सद्भाव झलक र ा था। गवम ने लज्जा के सामने शसर झुका हदया। शमामत े ुए बोले - य आपकी उदारता ै जौ ऐसा क त े ै। मुझसे जो कुछ अववनय ुई ै, उसे क्षमा कीष्जए। मैं िमम की बेड़ी में जकड़ा ुआ था, न ीिं तो वैसे मैं आपका दास ूाँ। जो आज्ञा ोगी, व मेरे शसर-माथे पर।

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अलोपीदीन ने ववनीत भाव से क ा - न ीिं तट पर आपने मेरी प्राथमना न ीिं स्वीकार की थी, ककिं तु आज स्वीकार करनी पड़गेी।

विंशीिर बोले - मैं ककस योग्य ूाँ, ककिं तु जो कुछ सेवा मुझसे ो सकती ै उसमें त्रुहट न ोगी।

अलोपीदीन ने एक स्टाम्प लगा ुआ पत्र ननकाला और उसे विंशीिर के सामने रखकर बोले - इस पद को स्वीकार कीष्जए और अपने स्ताक्षर कर दीष्जए। मैं ब्राह्मण ूाँ, जब तक य सवाल पूरा न कीष्जएगा, द्वार से न टूाँगा।

मुिंशी विंशीिर ने उस कागज को पढा तो कृतज्ञता से आाँखों में आाँसू भर आए। पिंडडत अलोपीदीन ने उनको अपनी सारी जायदाद का स्थाई मैनेजर ननयत ककया था। छ जार वावषमक वेतन के अनतररक्त रोजाना खचम अलग, सवारी के शलए घोड़ा, र ने को बाँगला, नौकर-चाकर मुफ्त। किं वपत स्वर से बोले - पिंडडत जी, मुझमें इतनी सामथ्यम न ीिं ै कक आपकी उदारता की प्रशिंसा कर सकूाँ । ककिं तु ऐसे उच्च पद के योग्य न ीिं ूाँ।

अलोपीदीन ाँसकर बोले - मुझ ेइस समय एक अयोग्य मनुष्य की ी जररत ै।

विंशीिर ने गिंभीर भाव से क ा - यों मैं आपका दास ूाँ। आप जैसे कीनतमवान,

सज्जन पुरुष की सेवा करना मेरे शलए सौभाग्य की बात ै। ककिं तु मुझमें न ववद्या ै, न बुवद्ध, न व स्वभाव जो त्रुहटयों की पूनतम कर देता ै। ऐसे म ान कायम के शलए एक बड़ ेमममज्ञ अनुभवी मनुष्य की जररत ै।

अलोपीदीन ने कलमदान से कलमदान से कलम ननकाली और उसे विंशीिर के ाथ में देकर बोले - न मुझ े ववद्वत्ता की चा ै, न अनुभव की, न मममज्ञता की, न कायम-कुशलता की। इन गुणों के म त्त्व का पररचय खूब पा चुका ूाँ। अब सौभाग्य और सुअवसर ने मझु ेव मोती हदया ै ष्जसके सामने योग्यता और ववद्वता की चमक फीकी पड़ जाती ै। य कलम लीष्जए, अधिक सोच-ववचार न

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कीष्जए, दस्तखत कर दीष्जए। परमात्मा से य ी प्राथमना ै कक व आपको सदैव व ी नदी के ककनारे वाला, बेमुरौवत, उद्दिंड, कठोर परिंतु िममननष्ठ दारोगा बनाए रखे।

विंशीिर की आाँखें डबडबा आई। हृदय के सिंकुधचत पात्र में इतना ए सान न समा सका। एक बार कफर पिंडडत जी की ओर भष्क्त और श्रद्धा की दृष्ष्ट से देखा और कााँपत े ए ाथ से मैनेजरी पर स्ताक्षर कर हदए।

अलोपीदीन ने प्रफुष्ल्लत ोकर उन् ें गले लगा शलया।

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उपदेि

प्रयाग के सुशशक्षक्षत समाज में पिंडडत देवरत्न शमाम वास्तव में एक रत्न थे। शशक्षा भी उन् ोंने उच्च शे्रणी की पाई थी और कुल के भी उच्च थे। न्यायशीला गवनममेंट ने उन् ें एक उच्च पद पर ननयुक्त करना चा ा, पर उन् ोंने अपनी स्वतिंत्रता का घात करना उधचत न समझा। उनके कई शुभधचिंतक शमत्रों ने ब ुत समझाया कक इस सुअवसर को ाथ से मत जाने दो, सरकारी नौकरी बड़ ेभाग्य से शमलती ै, बड़-ेबड़ ेलोग इसके शलए तरसत े ैं और कामना शलए ी सिंसार से प्रस्थान कर जात े ैं। अपने कुल की कीनतम उज्जवल करने का इससे सुगम और मागम न ीिं ै, इसे कल्पवकृ्ष समझो। ववभव, सिंपष्त्त, सम्मान और ख्यानत य सब इसके दास ैं। र गई देश-सेवा, सो तुम् ीिं देश के शलए प्राण देत े ो? इस नगर में अनेक बड़-ेबड़ ेववद्वान और िनवान पुरुष ैं, जो सुख चैन से बाँगलों में र त ेऔर मोटरों पर र राते, िूल की आाँिी उड़ात ेघूमत े ैं। क्या वे देश-सेवक न ीिं ैं? जब आवश्यकता ोती ै या कोई अवसर आता ै तो वे लोग देश-सेवा में ननमग्न ो जात े ैं। अभी जब म्युननशसपल चुनाव का झगड़ा नछड़ा तो मेयो ाल के ात ेमें मोटरों का तााँता लगा ुआ था। भवन के भीतर राष्रीय गीतों और व्याख्यानों की भरमार थी। पर इनमें से कौन ऐसा ै, ष्जसने स्वाथम को नतजािंष्जल दे रखी ो? सिंसार का ननयम ी ै कक प ले घर में दीया जला कर तब मष्स्जद में जलाया जाता ै। सच्ची बात तो य ै कक य जातीयता की चचाम कुछ कालेज के ववद्याधथमयों को ी शोभा देती ै। जब सिंसार में प्रवशे ुआ तो क ााँ की जानत और क ााँ की जातीय चचाम। सिंसार की य ी रीनत ै। कफर तुम् ीिं को काजी बनने की क्या जररत! यहद सूक्ष्म दृष्ष्ट से देखा जाए तो सरकारी पद पाकर मनुष्य अपने देश भाइयों की जैसी सच्ची सेवा कर सकता ै,

वैसी ककसी अन्य व्यवस्था से कदावप न ीिं कर सकता। एक दयालु दारोगा सैकड़ो जातीय सेवकों से अच्छा ै। एक न्यायशील, िममपरायण मष्जस्रेट स स्रों जातीय दानवीरों से अधिक सेवा कर सकता ै। इसके शलए केवल हृदय में लगन चाह ए। मनुष्य चा े ष्जस अवस्था में ो, देश का ह त-सािन कर सकता ै। इस शलए अब अधिक आगा-पीछा न करो, चटपट पद को स्वीकार कर लो।

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शमाम जी को और युष्क्तयााँ कुछ न जाँची, पर इस अिंनतम युष्क्त की सारगशभमता से व इनकार न कर सके। लेककन कफर भी चा े ननयमपरायणता के कारण, चा े केवल आलस्य के वश जो ब ुिा ऐसी दशा में जातीय सेवा का गौरव पा जाता ै, उन् ोंने नौकरी से अलग र ने में ी अपना कल्याण समझा। उनके इस स्वाथम-त्याग पर कालेज के नवयुवकों ने उन् ें खूब बिाइयााँ दी। इस आत्म-ववजय पर एक जातीय ड्रामा खेल गया, ष्जसके नायक मारे शमाम जी ी थे। समाज की उच्च शे्रखणयों में इस आत्म-त्याग की चचाम ुई और शमाम जी को अच्छी-खासी ख्यानत प्राप्त ो गई! इसी से व कई वषों से जातीय सेवा में लीन र त ेथे। इस सेवा का अधिक भाग समाचार-पत्रों के अवलोकन में बीतता था, जो जातीय सेवा का ी एक ववशेष अिंग समझा जाता ै। इसके अनतररक्त व पत्रों के शलए लेख शलखते, सभाएाँ करत ेऔर उनमें फड़कत े ुए व्याखान देत ेथे। शमाम जी फ्री लाइब्ररी के सेके्रटरी, स्टूडेंटस एसोशसएशन के सभापनत, सोशल सववमस लीग के स ायक मिंत्री और प्राइमरी एजूकेशन कशमटी के सिंस्थापक थे। कृवष-सिंबिंिी ववषयों से उन् ें ववशेष पे्रम था। पत्रों में ज ााँ क ी नई खाद या ककसी नवीन आववष्कार का वणमन देखते, तत्काल उस पर लाल पेंशसल से ननशान कर देत ेऔर अपने लेखों में उसकी चचाम करत ेथे। ककिं तु श र से थोड़ी दरू पर उनका एक बड़ा ग्राम ोने पर भी, व अपने ककसी असामी से पररधचत न थे। य ााँ तक कक कभी पयाग के सरकारी कृवष-क्षेत्र की सैर करने न गए थे।

2

उसी मु ल्ले में एक लाला बाबूलाल र त े थे। व एक वकील के मु ररमर थे। थोड़ी-सी उदूम-ह िंदी जानत ेथे और उसी से अपना काम भली-भााँनत चला लेत ेथे। सूरत-शक्ल के कुछ सुिंदर न थे। उस शक्ल पर मऊ के चारखाने की लम्बी अचकन और भी शोभा देती थी। जूता भी देशी प नत ेथे। यद्यवप कभी-कभी वे कड़वे तजे से उसकी सेवा ककया करत ेथे, पर व नीच स्वभाव के अनुसार उन् ें

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काटने से न चूकता था। बेचारे को साल के छ म ीने पैरों में मल म लगानी पड़ती। ब ुिा निंगे पााँव कच री जात,े पर किं जूस क लाने के भय से जूतों को ाथ में ले जात।े ष्जस ग्राम में शमाम जी की जमीिंदारी थी, उसमें कुछ थोड़ा-सा ह स्सा उनका भी था। इस नात े से कभी-कभी उनके पास आया करत े थे ााँ, तातील के हदनों में गााँव चले जात।े शमाम जी को उनका आ कर बैठना नागवार मालूम देता, ववशेषकर जब व फैशनेबुल मनुष्यों की उपष्स्थनत में आ जात।े मुिंशी जी भी कुछ ऐसी स्थूल दृष्ष्ट के पुरुष थे कक उन् ें अपना अनशमलापन बबलकुल हदखाई न देता। सबसे बड़ी आपष्त्त य थी कक वे बराबर कुसी पर डट जात,े मानो िंसों में कौआ। उस समय शमत्रगण अिंगरेजी में बातें करने लगत ेऔर बाबूलाल को क्षुद्र-बुवद्ध, झक्की, बौड़म, बुदू्ध आहद उपाधियों का पात्र बनात।े कभी-कभी उनकी ाँसी उड़ात।े शमाम जी में इतनी सज्जनता अवश्य थी कक व ेअपने ववचार ीन शमत्रों को यथाशष्क्त ननरादर से बचात े थे। यथाथम में बाबूलाल की शमाम जी पर सच्ची भष्क्त थी। एक तो व बी. ए. पास थे, दसूरे व देशभक्त थे। बाबूलाल जैसे ववद्या ीन मनुष्य का ऐसे रत्न को आदरणीय समझना कुछ अस्वाभाववक न था।

3

एक बार प्रयाग में प्लेग का प्रकोप ुआ। श र के रईस लोग ननकल भागे। बेचारे गरीब चू ों की भााँनत पटापट मरने लगे। शमाम जी ने भी चलने की ठानी। लेककन सोशल सववमस लीग के वे मिंत्री ठ रे। ऐसे अवसर पर ननकल भागने में बदनामी का भय था। ब ाना ढूाँढा। लीग के प्रायुः सभी लोग कॉलेज में पढत ेथे। उन् ें बुलाकर इन शब्दों में अपना अशभप्राय प्रकट ककया - शमत्रवृिंद! आप लोग जानत के दीपक ैं। आप ी इस मरणोंमुख जानत के आशास्थल ैं। आज म पर ववपष्त्त की घटाएाँ छाई ुई ैं। ऐसी अवस्था में मारी आाँखें आपकी ओर न उठें तो ककसकी ओर उठेंगी। शमत्र, इस जीवन में देशसेवा का अवसर बड़ ेसौभाग्य से शमला करत े ै। कौन जानता ै कक परमात्मा ने तुम् ारी परीक्षा के शलए ी य वज्र प्र ार ककया ो। जनता को हदखा दो कक तुम वीरों का हृदय

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रखत े ो, जो ककतने ी सिंकट पड़ने पर भी ववचशलत न ीिं ोता। ााँ, हदखा दो कक व वीरप्रसववनी पववत्र भूशम ष्जसने ररश्चिंद्र और भरत को उत्पन्न ककया, आज भी शून्यगभाम न ीिं ै। ष्जस जानत के युवकों में अपने पीडड़त भाइयों के प्रनत ऐसी करणा और अटल पे्रम ै व सिंसार में सदैव यश-कीनतम की भागी र ेगी। आइए, म कमर बााँिकर कमम-क्षेत्र में उतर पड़।े इसमें सिंदे न ीिं कक काम कहठन ै, रा बी ड़ ै, आपको अपने आमोद-प्रमोद, अपने ाकी-टेननस, अपने शमल और शमल्टन को छोड़ना पड़गेा। तुम जरा ह चकोगे, टोगे और मुाँ फेर लोगे,

परिंतु भाइयों! जातीय सेवा का स्वगीय आनिंद स ज में न ीिं शमल सकता! मारा पुरुषत्व, मारा मनोबल, मारा शरीर यहद जानत के काम न आवे तो व व्यथम ै। मेरी प्रबल आकािंक्षा थी कक इस शुभ कायम में मैं तुम् ारा ाथ बाँटा सकता, पर आज ी दे ातों में भी बीमारी फैलने का समाचार शमला ै। अतएव मैं य ााँ का काम आपके सुयोग्य, सुदृढ ाथों में सौंपकर दे ात में जाता ूाँ कक यथासाध्य दे ाती भाइयों की सेवा कराँ । मुझ ेववश्वास ै कक आप स षम मातभृूशम के प्रनत अपने कतमव्य का पालन करेंगे।

इस तर गला छुड़ाकर शमाम जी सिंध्या समय स्टेशन प ुाँच।े पर मन कुछ मशलन था। वे अपनी इस कायरता और ननबमलता पर मन ी मन लष्ज्जत थे।

सिंयोगवश स्टेशन पर उनके एक वकील शमत्र शमल गए। य य ी वकील थे ष्जनके आश्रय में बाबूलाल का ननवाम ोता था। य भी भागे जा र े थे। बोले - कह ए, शमाम जी ककिर चले? क्या भाग खड़ े ुए।

शमाम जी पर घड़ों पानी पड़ गया, पर साँभल कर बोले - भागूाँ क्यों?

वकील - सारा श र क्यों भागा जा र ा ै?

शमाम जी - मैं ऐसा कायर न ीिं ूाँ?

वकील - यार क्यों बात बनात े ो, अच्छा बताओ, क ााँ जात े ो?

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शमाम जी - दे ातों में बीमारी फैल र ी ै, व ााँ कुछ ररलीफ का काम कराँ गा।

वकील - य बबलकुल झूठ ै। अभी मैं डडष्स्रक्ट गजट देख के चला आता ूाँ। श र के बा र क ीिं बीमारी का नाम न ीिं ै।

शमाम जी ननरुत्तर ोकर भी वववाद कर सकत ेथे। बोले - गजट को आप देव-वाणी समझत े ोंगे, मैं न ीिं समझता।

वकील - आपके कान में तो आकाश के दतू क गए ोंगे? साफ-साफ क्यों न ीिं क त ेथे कक जान के डर से भागा जा र ा ूाँ।

शमाम जी - अच्छा, मान लीष्जए य ी स ी। तो क्या पाप कर र ा ूाँ? सबको अपनी जान प्यारी ोती ै।

वकील - ााँ, अब आए रा पर। य मरदों की-सी बात ै। अपने जीवन की रक्षा करना शास्त्र का प ला ननयम ै। लेककन अब भूलकर भी देश-भष्क्त की डीिंग न माररएगा। इस काम के शलए बड़ी दृढता और आष्त्मक बल की आवश्यकता ै। स्वाथम और देश-भष्क्त में ववरोिात्मक अिंतर ै। देश पर शमट जाने वाले देश-सेवक को सवोच्च पद प्राप्त ोता ै, वाचालता और कोरी कलम नघसने से देश-सेवा न ीिं ोती। कम से कम में तो अखबार पढने को य गौरव न ीिं दे सकता। अब कभी बढ-बढकर बातें न कीष्जएगा। आप लोग अपने शसवा सारे सिंसार को स्वाथाांि समझत े ै, इसी से क ता ूाँ।

शमाम जी ने उद्दिंडता का कुछ उत्तर न हदया। घणृा से मुाँ फेरकर गाड़ी में बैठ गए।

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तीसरे ी स्टेशन पर शमाम जी उतर पड़।े वकील की कठोर बात से खखन्न ो र े थे। चा त े थे कक उनकी आाँख बचाकर ननकल जाएाँ, पर देख ी शलया औऱ ाँसकर बोला - क्या आपके ी गााँव में प्लेग का दौरा ुआ ै!

शमाम जी ने कुछ उत्तर न हदया। ब ली पर जा बैठे। कई बेगार ाष्जर थे। उन् ोंने असबाब उठाया। फागनु का म ीना था। आमों के बौर से म कती ुई मिंद-मिंद वायु चल र ी थी। कभी-कभी कोयल की सुरीली तान सुनाई दे जाती थी। खशल ानों में ककसान आनिंद से उिंमत्त ो- ोकर फाग गा र े थे। लेककन शमाम जी को अपनी फटकार पर ऐसी ग्लानी थी कक इन धचत्ताकषमक वस्तुओिं का उन् ें कुछ ध्यान ी न ुआ।

थोड़ी देर बाद व ेग्राम में प ुाँच।े शमाम जी के स्वगमवासी वपता एक रशसक पुरुष थे। एक छोटा-सा बाग, छोटा-सा पक्का कुआाँ, बाँगला, शशवजी का मिंहदर य सब उन् ीिं के कीनतम धचह्न थे। व गमी के हदनों में य ीिं र ा करत ेथे; पर शमाम जी के य ााँ आने का प ला अवसर था। बेगाररयों ने चारों तरफ सफाई कर रक्खी थी। शमाम जी ब ली से उतर कर सीिे बाँगले में चले गए, सैकड़ों असामी दशमन करने आए थे, पर व उनसे कुछ न बोले।

घड़ी रात जाते-जात ेशमाम जी के नौकर टमटम शलये आ प ुाँच।े क ार, साईस और रसोइया-म ाराज तीनों ने असाशमयों को इस दृष्ष्ट से देखा मानो व उनके नौकर ैं। साईस ने एक मोटे-ताजे ककसान से क ा - घोड़ ेको खोल दो।

ककसान बेचारा डरता-डरता घोड़ े के ननकट गया। घोड़ े ने अनजान आदमी को देखत े ी तवेर बदल कर कनौनतयााँ खड़ी की। ककसान डर कर लौट आया, तब साईस ने उसे ढकेलकर क ा - बस, ननरे बनछया के ताऊ ी ो। ल जोतने से क्या अक्ल भी चली जाती ै? य लो घोड़ा ट लाओ। मुाँ क्या बनात े ो, कोई शसिं ै कक खा जाएगा?

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ककसान ने भय से कााँपत े ुए रास पकड़ी। उसका घबराया ुआ मुख देखकर ाँसी आती थी। पग-पग पर घोड़ ेको चौकन्नी दृष्ष्ट से देखता, मानो व कोई पुशलस का शसपा ी ै।

रसोई बनानेवाले म ाराज एक चारपाई पर लेटे ुए थे - कड़ककर बोले, अरे नऊआ क ााँ ै? चल पानी-वानी ला, ाथ-पैर िो दे।

क ार ने क ा - अरे ककसी के पास जरा सुरती-चूना ो तो देना। ब ुत देर से तमाखू न ीिं खाई।

मुख्तार (काररिंदा) सा ब ने इन मे मानों की दावत का प्रबिंि ककया। साईस और क ार के शलए पूररयााँ बनने लगीिं, म ाराज को सामान हदया गया। मुख्तार सा ब इशारे पर दौड़त ेथे और दीन ककसानों की तो पूछना ी क्या, वे तो बबना दामों के गुलाम थे। सच्च-ेस्वतिंत्र लोग इस समय सेवकों के सेवक बने ुए थे।

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कई हदन बीत गए। शमाम जी अपने बाँगले में बैठे पत्र और पुस्तकें पढा करत ेथे। रष्स्कन के कथनानुसार राजाओिं और म ात्माओिं के सत्सिंग का सुख लूटत े थे,

ालैंड के कृवष-वविान, अमेररकी-शशल्प-वाखणज्य और जममनी की शशक्षा-प्रणाली आहद गूढ ववषयों पर ववचार ककया करत ेथे। गााँव में ऐसा कौन था ष्जसके साथ बैठते? ककसानों से बातचीत करने को उनका जी चा ता, पर न जाने क्यों वे उजड्ड, अक्खड़ लोग उनसे दरू र त।े शमाम जी का मष्स्तष्क कृवष-सिंबिंिी ज्ञान का भिंडार था। ालैंड और डनेमाकम की वैज्ञाननक खेती, उसकी उपज का पररमाण और व ााँ के कोआपरेहटव बैंक आहद ग न ववषय उनकी ष्जह्वा पर थे, पर इन गाँवारों को क्या खबर? य सब उन् ें झुककर पालागन अवश्य करत ेऔर कतरा कर ननकल जात,े जैसे कोई मरक े-बैल से बच।े य ननश्चय करना कहठन ै कक

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शमाम जी की उनसे वातामलाप करने की इच्छा का क्या र स्य था, सच्ची स ानुभूनत या अपनी सवमज्ञता का प्रदशमन!

शमाम जी की डाक श र से लाने और ले जाने के शलए दो आदमी प्रनतहदन भेज ेजात।े व लुई कूने की जल-धचककत्सा के भक्त थे। मेवों का अधिक सेवन करते थे। एक आदमी इस काम के शलए भी दौड़ाया जाता था। शमाम जी ने अपने मुख्तार से सख्त ताकीद कर दी थी कक ककसी से मुफ्त काम न शलया जाए तथावप शमाम जी को य देखकर आश्चयम ोता था कक कोई इन कामों के शलए प्रसन्नता से न ीिं जाता। प्रनतहदन बारी-बारी से आदमी भेजे जात ेथे। व इसे भी बेगार समझत े थे। मुख्तार सा ब को प्रायुः कठोरता से काम लेना पड़ता था। शमाम जी ककसानों की इस शशधथलता को मुटमरदी के शसवा और क्या समझत!े कभी-कभी व स्वयिं क्रोि से भरे ुए अपने शािंनत-कुटीर से बा र ननकल आत ेऔर अपनी तीव्र वाक्य-शष्क्त का चमत्कार हदखाने लगत ेथे। शमाम जी के घोड़ ेके शलए घास-चारे का प्रबिंि भी कुछ कम कष्टदायक न था। रोज सिंध्या समय डााँट-डपड और रोने-धचल्लाने की आवाज उन् ें सुनाई देती थी। एक कोला ल-सा मच जाता था। पर व इस सिंबिंि में अपने मन को इस प्रकार समझा लेत ेथे कक घोड़ा भूखों न ीिं मर सकता, घास का दाम दे हदया जाता ै, यहद इस पर भी य ाय- ाय ोती ै तो ुआ करे। शमाम जी को य कभी न ीिं सूझी कक जरा चमारों से पूछ लें कक घास का दाम शमलता ै या न ीिं। य सब व्यव ार देख-देखकर उन् ें अनुभव ोता जाता था कक दे ाती बड़ ेमुटमरद, बदमाश ैं। इनके ववषय में मुख्तार सा ब जो कुछ क त े ै, व यथाथम ै। पत्रों और व्याख्यानों में उनकी अवस्था पर व्यथम गुल-गपाड़ा मचाया जाता ै, य लोग इसी बतामव के योग्य ैं। जो इनकी दीनता और दररद्रता का राग अलापते ैं, व सच्ची अवस्था से पररधचत न ीिं ैं।

एक हदन शमाम जी म ात्माओिं की सिंगनत से उकताकर सैर को ननकले। घूमते-कफरत ेखशल ानों की तरफ ननकल गए। व ााँ आम के वकृ्ष के नीच ेककसानों की गाढी कमाई के सुन रे ढेर लगे ुए थे। चारों ओर भूसे की आाँिी-सी उड़ र ी

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थी। बैल अनाज का एक गाल खा लेत े थे। य सब उन् ीिं की कमाई ै, उनके मुाँ में आज चाबी देना बड़ी कृतघ्नता ै। गााँव के बढई, चमार, िोबी और कुम् ार अपना वावषमक कर उगा ने के शलए जमा थे। एक ओर नट ढोल बजा-बजाकर अपने करतब हदखा र ा था। कवीश्वर म ाराज की अतुल काव्य-शष्क्त आज उमिंग पर थी।

शमाम जी इस दृश्य से ब ुत प्रसन्न ुए। परिंतु इस उल्लास में उन् ें अपने कई शसपा ी हदखाई हदए जो लट्ठ शलये अनाज के ढेरों के पास जमा थे। पुष्पवाहटका में ठूाँठ जैसा भद्दा हदखाई देता ै अथवा लशलत सिंगीत में जैसे कोई बेसुरी तान कानों को अवप्रय लगती ै, उसी तर शमाम जी की सहृदयता दृष्ष्ट में ये माँडरात े ुए शसपा ी हदखाई हदए। उन् ोंने ननकट जाकर एक शसपा ी को बुलाया। उन् ें देखत े ी सब के सब पगडड़यााँ साँभालत ेदौड़।े

शमाम जी ने पूछा - तुम लोग य ााँ इस तर क्यों बैठे ो?

एक शसपा ी ने उत्तर हदया - सरकार. म लोग असाशमयों के शसर पर सवार न र ें तो एक कौड़ी वसूल न ो। अनाज घर जाने की देर ै, कफर व सीिे बात भी न करेंगे - बड़ ेसरकश लोग ैं। म लोग रात की रात बैठे र त े ै। इतने पर भी ज ााँ आाँख झपकी ढेर गायब ुआ।

शमाम जी ने पूछा - तुम लोग य ााँ कब तक र ोगे?

एक शसपा ी ने उत्तर हदया - ुजूर! बननयों को बुलाकर अपने सामने अनाज तौलात े ैं। जो कुछ शमलता ै उसमें से लगान काटकर बाकी असामी को देत े ै।

शमाम जी सोचने लगे, जब य ाल ै तो इस ककसानों की अवस्था क्यों न खराब ो? य बेचारे अपने िन के माशलक न ीिं ै। उसे अपने पास रखकर अच्छे अवसर पर न ीिं बेच सकत।े इस कष्ट का ननवारण कैसे ककया जाए? यहद मैं इस समय इनके साथ ररआयत कर दूाँ तो लगान कैसे वसूल ोगा।

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इस ववषय पर ववचार करत े ुए व ााँ से चल हदए। शसपाह यों ने साथ चलना चा ा, पर उन् ोंने मना कर हदया। भीड़-भाड़ में उन् ें उलझन ोती थी। अकेले ी गााँव में घूमने लगे। छोटा-सा गााँव था, पर सफाई का क ीिं नाम न था। चारों ओर से दगुांि उठ र ी थी। ककसी के दरवाजे पर गोबर सड़ र ा था, तो क ीिं कीचड़ और कूड़ ेका ढेर वायु को ववषैली बना र ा था। घरों के पास ी घूर पर खाद के शलए गोबर फें का ुआ था ष्जससे गााँव में गिंदगी फैलने के साथ-साथ खाद का सारा अिंश िूप और वा के साथ गायब ो जाता था। गााँव के मकान और रास्त ेवेशसलशसले, बेढिंगे और टूटे-फूटे थे। मोररयों से गिंदे पानी के ननकास का कोई प्रबिंि न ोने की वज से दगुांि से दम घुटता था। शमाम जी ने नाक पर रमाल लगा ली। सााँस रोककर तजेी से चलने लगे। ब ुत जी घबराया तो दौड़ ेऔर ााँफत े ुए एक सघन नीम के वकृ्ष की छाया में आकर खड़े ो गए। अभी अच्छी तर सााँस भी न लेने पाए थे कक बाबूलाल ने आकर पालागन ककया और पूछा - क्या कोई सााँड़ था?

शमाम जी सााँस खीिंचकर बोले - सााँड़ से अधिक भयिंकर ववषैली वा थी। ओ ! य लोग ऐसी गिंदगी में र त े ैं?

बाबूलाल - र त ेक्या ै, ककसी तर जीवन के हदन पूरे करत े ैं।

शमाम जी - पर य स्थान तो साफ ै?

बाबूलाल - जी ााँ, इस तरफ गााँव के ककनारे तक साफ जग शमलेगी।

शमाम जी - तो उिर इतना मैला क्यों ै?

बाबूलाल - गुस्ताखी माफ ो तो क ूाँ?

शमाम जी ने ाँसकर क ा - प्राणदान मााँगा ोता। सच बताओ क्या बात ै? एक तरफ ऐसी स्वच्छता और दसूरी तरफ व गिंदगी।

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बाबूलाल - य मेरा ह स्सा ै और व आपका ह स्सा ै। मैं अपने ह स्से की देख-रेख स्वयिं करता ूाँ, पर आपका ह स्सा नौकरों की कृपा के अिीन ै।

शमाम जी - अच्छा य बात ै। आखखर आप क्या करत े ै?

बाबूलाल - और कुछ न ीिं, केवल ताकीद करता र ता ूाँ। ज ााँ अधिक मैलापन देखता ूाँ, स्वयिं साफ करता ूाँ। मैंने सफाई का एक इनाम ननयत कर हदया ै,

जो प्रनत ममास सबसे साफ घर के माशलक को शमलता ै।

शमाम जी के शलए एक कुसी रख दी गई। वे उस पर बैठ गए और बोले - क्या आप आज ी आए ैं?

बाबूलाल - जी ााँ, कल तातील ै। आप जानत े ै कक तातील के हदन में भी य ीिं र ता ूाँ।

शमाम जी - श र का क्या रिंग-ढिंग ै?

बाबूलाल - व ी ाल, बष्ल्क और भी खराब। 'सोशलसववमस लीग' वाले भी गायब ो गए। गरीबों के घरों में मदेु पड़ े ुए ै। बाजार बिंद ै। खाने को अनाज न ीिं शमलता ै।

शमाम जी - भला बताओ तो ऐसी आग में मैं व ााँ कैसे र ता? बस लोगों ने मेरी ी जान सस्ती समझ रखी ै। ष्जस हदन मैं य ााँ आ र ा था आपके वकील सा ब शमल गए, बेतर गरम ो पड़े, मुझ ेदेश-भष्क्त के उपदेश देने लगे। ष्जन् ें कभी भूलकर भी देश का ध्यान न ीिं आता, वे भी मुझ े उपदेश देना अपना कतमव्य समझत े ै। कुछ ो देश-भष्क्त का दावा ै। ष्जसे देखो व ी तो देश-सेवक बना-कफरता ै। जो लोग स स्रों रुपए अपने भोग-ववलास में फूाँ कत े ै उनकी गणना भी जानत-सेवकों नें ै। मैं तो कफर भी कुछ-न-कुछ करता ूाँ। मैं भी मनुष्य ूाँ कोई देवता न ीिं, िन की अशभलाषा अवश्य ै। मैं जो अपनी जीवन

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पत्रों के शलए लेख शलखने में काटता ूाँ, देश ह त की धचिंता में मग्न र ता ूाँ, उसके शलए मेरा इतना सम्मान ब ुत समझा जाता ै। जब ककसी सेठ जी या ककसी वकील सा ब के दरेदौलत पर ाष्जर ो जाऊाँ तो व कृपा करके मेरा कुशल-समाचार पूछ लें। उस पर भी यहद दभुामग्यवश ककसी चिंदे के सिंबिंि में जाता ूाँ, तो लोग मुझ ेयम का दतू समझत े ैं। ऐसी रुखाई का व्यव ार करत े ैं ष्जससे सारा उत्सा भिंग ो जाता ै। य सब आपष्त्तयााँ तो मैं झलेूाँ , पर जब ककसी सभा का सभापनत चुनने का समय आता ै तो कोई वकील सा ब इसके पात्र समझ ेजात े ै, ष्जन् ें अपने िन के शसवा उक्त पद का कोई अधिकार न ीिं। तो भाई जो गुड़ खाए व कान नछदावे। देश-ह तैवषयों का पुरस्कार य ी जानतय-सम्मान ै। जब व ााँ तक मेरी प ुाँच ी न ीिं तो व्यथम जान क्यों दूाँ। यहद य आठ वषम मैंने लक्ष्मी की आरािना में व्यतीत ककए ोत े तो अब तक मेरी धगनती बड़ ेआदशमयों में ोती। अभी मैंने ककतने पररश्रम से दे ाती बैंकों पर लेख शलखा, म ीनों उसकी तैयारी में लगे, सैकड़ो पत्र-पबत्रकाओिं के पन्ने उलटने पड़े, पर ककसी ने उसके पढने का कष्ट भी न उठाया। यहद इतना पररश्रम ककसी और काम में ककया ोता तो कम से कम स्वाथम तो शसद्ध ोता। मुझ ेज्ञात ो गया कक इन बातों को कोई न ीिं पूछता। सम्मान और कीनतम य सब िन के नौकर ैं।

बाबूलाल - आपका क ना यथाथम ी ै; पर आप जैसे म ानुभाव इन बातों को मन में लावेंगे तो य काम कौन करेगा?

शमाम जी - व ीिं करेंगे जो 'ऑनरेबुल' बने कफरत े ैं या जो नगर के वपता क लात े ैं। मैं तो अब देशाटन कराँ गा, सिंसार की वा खाऊाँ गा।

बाबूलाल समझ गए कक य म ाशय इस समय आपे में न ीिं ै। ववषय बदलकर पूछा - य तो बताइए, आपने दे ात को कैसे पसिंद ककया? आप तो प ले- ी-प ले य ााँ आए ैं।

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शमाम जी - बस, य ी कक बैठे-बैठे जी घबराता ै। ााँ, कुछ नए अनुभव अवश्य प्राप्त ुए ै। कुछ भ्रम दरू ो गए। प ले समझता था कक ककसान बड़ ेदीन-दुुःखी ोत े ैं। अब मालूम ुआ कक य मुटमरद, अनुदार और दषु्ट ैं। सीिे बात न सुनेंगे, पर कड़ाई से जो काम चा े करा लो। बस, ननरे पशु ैं। और तो और,

लगान के शलए भी उनके शसर पर सवार र ने की जररत ै। टल जाओ तो कौड़ी वसूल न ो। नाशलश कीष्जए, बेदखली जारी कीष्जए, कुकी कराइए, य सब आपष्त्तयााँ स ेंगे, पर समय पर रुपया देना न ीिं जानत।े य सब मेरे शलए नई बातें ैं। मुझ ेअब तक इनसे जो स ानुभूनत थी व अब न ीिं ै। पत्रों में उनकी ीनावस्था के जो मरशसये गाए जात े ैं, व सवमथा कष्ल्पत ैं। क्यों आपका क्या ववचार ै?

बाबूलाल ने सोचकर जवाब हदया - मुझ ेतो अब तक कोई शशकायत न ीिं ुई। मेरा अनुभव य ै कक य लोग बड़ ेशीलवान, नम्र और कृतज्ञ ोत े ैं। परिंतु उनके गुण प्रकट में हदखाई न ीिं देत।े उनमें शमशलए और उन् ें शमलाइए तब उनके जौ र खुलत े ै। उन पर ववश्वास कीष्जए तब व आप पर ववश्वास करेंगे। आप क ेंगे इस ववषय में अग्रसर ोना उनका काम ै और आपका य क ना उधचत भी ैं, लेककन शताष्ब्दयों से व इतने पीसे गए ैं, इतनी ठोकरें खाई ै कक उनमें स्वािीन गुणों का लोप-सा ो गया ै। जमीिंदार को व एक ौआ समझत े ै ष्जसका काम उन् ें ननगल जाना ै। व उनका मुकाबबला न ीिं कर सकत,े इसशलए छल और कपट से काम लेत े ैं, जो ननिमनों का एकमात्र आिार ै। पर आप एक बार उनके ववश्वासपात्र बन जाइए, कफर आप कभी उनकी शशकायत न करेंगे।

बाबूलाल य बातें कर ी र े थे कक कई चमारों ने घास के बड़-ेबड़ ेगटे्ठ लाकर डाल हदए और चुपचाप चले गए। शमाम जी को आश्चयम ुआ। इसी घास के शलए इनसे बाँगले पर ाय- ाय ोती ै औऱ य ााँ ककसी को खबर भी न ीिं ुई। बोले - आखखर अपना ववश्वास जमाने का कोई उपाय भी ै।

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बाबूलाल ने उत्तर हदया - आप स्वयिं बुवद्धमान ै। आपके सामने मेरा मुाँ खोलना िषृ्टता ै। मैं इसका एक ी उपाय जानता ूाँ। उन् ें ककसी कष्ट में देखकर उनकी मदद कीष्जए। मैं उन् ीिं के शलए वैद्यक शसखा और एक छोटा-मोटा औषिालय अपने साथ रखता ूाँ। रुपया मााँगत े ै तो रुपया, अनाज मााँगते ै तो अनाज देता ूाँ, पर सूद न ीिं लेता। इससे मुझ ेग्लानन न ीिं ोती, दसूरे रप में सूद से अधिक शमल जाता ै। गााँव में दो अिंिी ष्स्त्रयों और दो अनाथ लड़ककयााँ ैं, उनके ननवाम का प्रबिंि कर हदया ै। ोता सब उन् ीिं की कमाई से ै, पर नेकनामी मेरी ोती ै।

इतने में कई असामी आए और बोले - भैया, पोत ले लो।

शमाम जी ने सोचा इसी लगान के शलए मेरे चपसारी खशल ान में चारपाई डालकर सोत े ै और ककसानों को अनाज के ढेर के पास फटकने न ीिं देत ेऔर य ी लगान य ााँ इस तर आप से आप चला आता ै। बोले - य सब तो तब ी ो सकता ै जब जमीिंदार आप गााँव में र ें।

बाबूलाल ने उत्तर हदया - जी ााँ, और क्यों? जमीिंदार के गााँव में न र ने से इन ककसानों को बड़ी ानन ोती ै। काररिंदों और नौकरों से य आशा करनी भूल ै कक व इनके साथ अच्छा बतामव करेंगे, क्योंकक उनको तो अपना उल्लू सीिा करने से काम र ता ै। जो ककसान उनकी मुट्ठी गरम करत े ैं उन् ें माशलक से सामने सीिा और जो कुछ न ीिं देत े उन् ें बदमाश और सरकश बतलात े ैं। ककसानों को बात-बात के शलए चूसत े ैं, ककसान छान छवाना चा े तो उन् ें दे,

दरवाजे पर एक खूाँटा तक गाड़ना चा े तो उन् ें पूजे, एक छप्पर उठाने के शलए दस रुपए जमीिंदार को नजराना दे तो दो रुपए मुिंशी जी तो जरर ी देने ोंगे। काररिंदे को घी-दिू मुफ्त खखलावे, क ीिं-क ीिं तो गे ूाँ-चावल तक मुफ्त जम कर जात े ैं। जमीिंदार तो ककसानों को चूसत े ी ैं, काररिंदे भी कम न ीिं चूसत।े जमीिंदार तीन पाव के भाव में रुपए का सेर भर घी ले तो मुिंशी जी को अपने घर अपने साले-ब नोइयों का शलए अठार छटााँक चाह ए ी। तननक-तननक

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सी बात के शलए डााँड़ और जुमामना देत-ेदेत ेककसानों के नाक में दम ो जाता ै। आप जानत े ैं इसी से और क ीिं की 30 रु. की नौकरी छोड़कर जमीिंदारों की काररिंदाधगरी लोग 8 रु., 10 रु. में स्वीकार कर लेत े ैं, क्योंकक 8 रु., 10 रु. का काररिंदा साल में 800 रु., 1000 रु. ऊपर से कमाता ै। खेद तो य ै कक जमीिंदार लोगों में शशक्षा की उन्ननत के साथ-साथ श र में र ने की प्रथा हदनोंहदन बढती जा र ी ै। मालूम न ीिं आगे चलकर इन बेचारों की क्या गनत ोगी?

6

शमाम जी को बाबूलाल की बातें ववचारपूणम मालूम ुई! पर व सुशशक्षक्षत मनुष्य थे। ककसी बात को चा े व ककतनी ी यथाथम क्यों न ो, बबना तकम के ग्र ण न ीिं कर सकत ेथे। बाबूलाल को व सामान्य बुवद्ध का आदमी समझत ेआए थे। इस भाव में एकाएक पररवतमन ो जाना असिंभव था। इतना ी न ीिं इन बातों का उल्टा प्रभाव य ुआ कक व बाबूलाल से धचढ गए। उन् ें ऐसा प्रतीत ुआ कक बाबूलाल अपने सुप्रबिंि के अशभमान में मुझ े तुच्छ समझता ै, मुझ ेज्ञान शसखाने की चषे्टा करता ै। जो सदैव दसूरों को सद्ज्ञान शसखाने और सम्मान हदखाने की प्रयत्न करता ो व बाबूलाल जैसे आदमी के सामने कैसे शसर झुकाता? अतएव जब य ााँ से चले तो शमाम जी की तकम -शष्क्त बाबूलाल की बातों की आलोचना कर र ी थी। मैं गााँव में क्योंकर र ूाँ! क्या जीवन की सारी अशभलाषाओिं पर पानी फेर दूाँ? गाँवारों के साथ बैठे-बैठे गप्पें लड़ाया कराँ ! घड़ी-आि-घड़ी मनोरिंजन के शलए उनसे बातचीत करना सिंभव ै, पर य मेरे शलए असह्य ै कक व आठों प र मेरे शसर पर सवार र ें। मुझ ेतो उन्माद ो जाए। माना कक उनकी रक्षा करना मेरा कतमव्य ै, पर य कदावप न ीिं ो सकता कक उनके शलए मैं अपना जीवन नष्ट कर दूाँ। बाबूलाल बन जाने की क्षमता मुझमें न ीिं ै, ष्जससे बेचारे इस गााँव की सीमा के बा र न ीिं जा सकत।े मुझ ेसिंसार में ब ुत काम करना ै, ब ुत नाम करना ै। ग्राम्य जीवन मेरे शलए अनुकूल ी न ीिं प्राणघातक भी ै।

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य ी सोचत े ुए व बाँगले पर प ुाँच ेतो क्या देखत े ै कक कई कािंस्टेबल कमरे के बरामदे में लेटे ुए ैं। मुख्तार सा ब शमाम जी को देखत े ी आगे बढकर बोले - ुजूर! बड़ ेदारोगा जी, छोटे दारोगा जी के साथ आए ैं। मैंने उसके शलए पलिंग कमरे में ी बबछवा हदए ैं। ये लोग जब इिर आ जात े ैं तो ठ रा करत े ैं। दे ात में इनके योग्य स्थान और क ााँ ै? अब मैं इनसे कैसे क ता कक कमरा खाली न ीिं ै। ुजूर का पलिंग ऊपर बबछा हदया ै।

शमाम जी अपने अन्य देश-ह तधचिंतक भाइयों की भााँनत पुशलस के घोर ववरोिी थे। पुशलसवालों के अत्याचारों के कारण उन् ें बड़ी घणृा की दृष्ष्ट से देखत े थे। उनका शसद्धािंत था कक यहद पशुलस का कोई आदमी प्यास से भी मर जाए तो उसे पानी न देना चाह ए। अपने काररिंदे से य समाचार सुनत े ी उनके शरीर में आग-सी लग गई। काररिंदे की ओर लाल आाँखों से देखा और लपक कर कमरे की ओर चले गए कक बेईमानों का बोररया-बाँिना उठाकर फें क दूाँ। वा ! मेरे घर न ुआ कोई ोटल ुआ! आकर डट गए। तवेर बदले ुए बरामदे में जा प ुाँच ेकक इतने में छो ो़टे दारोगा बाब ूकोककला शसिं ने कमरे से ननकल कर पालागन ककया और ाथ बढाकर बोले - अच्छी साइत से चला था कक आपके दशमन ो गए। आप मुझ ेभूल तो न गए ोंगे?

य म ाशय दो साल प ले 'सोशल सववमस लीग' के उत्सा ी सदस्य थे। इिंटरमीडडयेट फेल ो जाने के बाद पुशलस में दाखखल ो गए। शमाम जी ने उन् ें देखत े ी प चान शलया। क्रोि शािंत ो गया। मसु्कराने की चषे्टा करके बोले - भूलना बड़ ेआदशमयों का काम ै। मैंने तो आपको दरू ी से प चान शलया था। कह ए, इसी थाने में ै क्या?

कोककला शसिं बोले - जी ााँ, आजकल य ीिं ूाँ। आइए, आपको दारोगा जी से इिंरोड्यूस (पररचय) कर दूाँ।

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भीतर आराम कुरसी पर लेटे दारोगा जुष्ल्फकार अली खााँ ुक्का पी र े थे। बड़ ेडीलडौल के मनुष्य थे। चे रे से रौब टपकता था। शमाम जी को देखत े ी उठकर ाथ शमलाया और बोले - जनाब से ननयाज ाशसल करने का शौक मुद्दत से था। आज खुशनसीब मौका भी शमल गया। इस मुदाखखलत बेजा को मुआफ़ फरमाइएगा।

शमाम जी को आज मालूम ुआ कक पुशलसवालों को अशशष्ट क ना अन्याय ै। ाथ शमलाकर बोले - य आप क्या फरमात े ै, य आपका घर ै।

पर इसके साथ ी पुशलस पर आक्षेप करने का ऐसा अच्छा अवसर ाथ से न ीिं जाने देना चा त े थे। कोककला शसिं से बोले - आपने तो वपछले साल कालेज छोड़ा ै। लेककन आपने नौकरी भी की तो पुशलस की!

बड़ ेदारोगा जी य ललकार सुनकर साँभल बैठे और बोले - क्यों जनाब! क्या पुशलस ी सारे मु कमों से गया-गुजरा ै? ऐसा कौन-सा सेगा ै ज ााँ ररश्वत का बाजार गमम न ीिं। अगर आप ऐसे एक भी सेगा का नाम बता दीष्जए तो मैं ताउम्र आपकी गुलामी कराँ । मुलाजमत करके ररश्वत लेना मु ाल ै। तामील के सेगे को बेलौस क ा जाता ै, मगर मुझको इसका खूब तजरबा ो चुका ै। अब मैं ककसी रास्तबाजी के दावे को तसलीम न ीिं कर सकता। और दसूरे सेगों की ननस्बत तो मैं न ीिं क सकता, मगर पुशलस में जो ररश्वत न ीिं लेता उसे मैं अ मक समझता ूाँ। मैंने दो एक दयानतदार सब-इन्सपेक्टर देख ैं, पर उन् ें मेशा तबा देखा। कभी मातूइ, कभी मुअत्तल, कभी बरखास्त! चौकीदार और कािंस्टेबल बेचारे थोड़ी औकात के आदमी ैं, इनका गुजारा क्योंकर ो? व ी मारे ाथ-पााँव ैं, उन् ीिं पर मारी नेकनामी का दारमदार ै। जब खुद भूखों मरेंगे, तब मारी मदद करेंगे! जो लोग ाथ बढाकर लेत े ै, खुद खात े ैं, दसूरों को खखलात े ै; अफसरों को खुश रखत े ै, उनका शुमा कारगुजार, नेकनाम आदशमयों में ोता ै। मैंने तो य ी अपनी वसलू बना रखा ै और खुदा का शुक्र ै कक अफसर और मात त सभी खुश ैं।

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शमाम जी ने क ा- इसी वज से तो मैंने ठाकुर सा ब से क ा था कक आप क्यों इस सेगे में आए?

जुष्ल्फकार अली खााँ गरम ोकरबोले - आए तो मु कमे पर कोई ए सान न ीिं ककया। ककसी दसूरे सेगे में ोत ेतो अभी तक ठोकरें खात े ोते, न ीिं तो घोड़ ेपर सवार नौशा बने घुमत े ैं। मैं तो बात सच्ची क ता ूाँ, चा े ककसी को अच्छी लगे या बुरी, इनसे पूनछए, राम की कमाई अकेले आज तक ककसी को जम ुई ै? य नए लोग जो आत े ै उनकी य आदत ोती ै कक जो कुछ शमले अकेले ी जम कर ले। चुपके-चुपके लेत े ै और थाने में अ लकार मुाँ ताकत े र जात े ै! दनुनया की ननगा में ईमानदार बनना चा त े ैं, पर खुदा से न ीिं डरत।े अबे, जब म खुदा ी से न ीिं डरत ेतो आदशमयों का क्या खौफ? ईमानदार बनना ो तो हदल से बनो। सचाई का स्वााँग क्यों भरत े ो? य जरत छोटी-छोटी रकमों पर धगरत े ैं। मारे गरर के ककसी आदमी से राय तो लेत े न ीिं। ज ााँ आसानी से सौ रुपए शमल सकत े ैं व ााँ पााँच रुपए में बुलबुल ो जात े ैं! क ीिं दिूवाले के दाम मार शलये, क ीिं ज्जाम के पैसे दबा शलये, क ीिं बननये से ननखम के शलए झगड़ बैठे। य अफसरी न ीिं लुच्चापन ै; गुना बेलज्जत, फायदा तो कुछ न ीिं, बदनामी मुफ्त। मैं बड़े-बड़ े शशकारों पर ननगा रखता ूाँ। य वपद्दी और बटेर मात तों के शलए छोड़ देता ूाँ। लफ से क ता ूाँ, गरज बुरी शय ै। ररश्वत देनेवालों से ज्यादा अ मक अिंिे आदमी दनुनया में न ोंगे। ऐसे ककतने ी उल्लू आत े ै जो म ज य चा त े ै कक मैं उसके ककसी पट्टीदार या दशु्मन को दो-चार खोटी खरी सुना दूाँ, कई ऐसे बेईमान जमीिंदार आत े ै जो य चा ते ै कक व असाशमयों पर जुल्म करत ेर ें और पुशलस दखल न दे! इतने ी के शलए व सैकड़ो रुपए मेरी नजर करत े ैं और खुशामद घालू में। ऐसे अक्ल के दशु्मनों पर र म करना ह माकत ै। ष्जले में मेरे इस इलाके को सोने की खान क त े ै। इस पर सब के दााँत र त े ैं। रोज एक न एक शशकार शमलता र ता ै। जमीिंदार ननरे जाह ल, लिंठ, जरा-जरा सी बात पर फौजदाररयााँ कर बैठत े ैं। मैं तो खुदा से दआु करता ूाँ कक य मेशा इसी ज ालत के गढे में पड़ े र ें। सुनता ूाँ, कोई सा ब आम तालीम का सवाल पेश कर र े ै, उस भलेमानुष को

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न जाने क्या िुन ै। शुक्र ै कक मारी आली फ म सरकार ने नामिंजूर कर हदया। बस, इस सारे इलाके में एक य ी आप का पट्टीदार अलबत्ता समझदार आदमी ै। उसके य ााँ मेरी या और ककसी की दाल न ीिं गलती और लुफ्त य कक कोई उससे नाखुश न ीिं! बस मीठी-मीठी बातों से मन भर देता ै। अपने असाशमयों के शलए जान देने को ाष्जर, और लफ से क ता ूाँ कक अगर मैं जमीिंदार ोता तो इसी शख्स का तरीका अष्ख्तयार करता। जमीिंदार का फजम ै कक असाशमयों को जुल्म से बचाए। उन पर शशकाररयों का वार न ोने दे। बेचारे ककसानों की जान के तो सभी ग्रा क ोत े ैं और लफ से क ता ूाँ, उनकी कमाई उनके काम न ीिं आती! उनकी मे नत का मजा म लूटत े ैं। यों तो जररत से मजबूर ोकर इनसान क्या न ीिं कर सकता, पर क य ै कक इन बेचारों की ालत वाकई र म के काबबल ै और जो शख्स उनके शलए सीनाशसपर ो सके उसके कदम चूमने चाह ए। मगर मेरे शलए तो व ी आदमी सबसे अच्छा ै जो शशकार में मेरी मदद करे।

शमाम जी ने इस बकवाद को बड़ ेध्यान से सुना। व रशसक मनुष्य थे। इसकी माशममकता पर मुग्ि ो गए। सहृदयता और कठोरता के ऐसे ववधचत्र शमश्रण से उन् ें मनुष्यों के मनोभावों का एक कौतू लजनक पररचय प्राप्त ुआ। ऐसी वकृ्ताता का उत्तर देने की कोशशश करना व्यथम था। बोले - क्या कोई त कीकात ै, या म ज गश्त?

दारोगा जी बोले - जी न ीिं, म ज गश्ता। आजकल ककसानों के फसल के हदन ैं। य ी जमाना ै मारी फसल का भी ै। शेर को भी तो मााँद में बैठे-बैठे शशकार न ीिं शमलता। जिंगल में घुमता ै। म भी शशकार की तलाश में ैं। ककसी पर खुकफयाफरोशी का इलजाम लगाया, ककसी को चोरी का माल खरीदने के शलए पकड़ा, ककसी को मल राम का झगड़ा उठाकर फााँसा। अगर मारे नसीब से डाका पड़ गया तो मारी पााँचों अाँगुशलयााँ िी में समखझए। डाकू तो नोच-खसोटकर भागत े ै। असली डाका मारा पड़ता ै। आस-पास के गााँव में झाड़ फेर देत े ै। खुदा से शबोरोज दआु ककया करत े ै कक परवरहदगार! क ीिं से

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ररजक भेज। झूठे-सच्च ेडाकें की खबरें आवे। अगर देखा कक तकदीर पर शाककर र ने से काम न ीिं चलता तो तदवीर से काम लेत े ै। जरा से इशारे की जररत ै, डाका पड़त ेक्या देर लगती ै! आप मेरी साफगोई पर ैरान ोत े ोंगे। अगर मैं अपने सारे थकड़ ेबयान कराँ तो आप यकीन न करेंगे और लुत्फ य कक मेरा शुमार ष्जले के नन ायत ोशशयार, कारगुजार, दयानतदार सब-इन्स्पेक्टरों में ै। फजी डाके डलवाता ूाँ! फजी मुष्ल्जम पकड़ता ूाँ, मगर सजाएाँ असली हदलवाता ूाँ। श ादतें ऐसी गढता ूाँ कक कैसा ी बैररस्टर का चचा क्यों न ो, उनमें धगरफ्तार न ीिं कर सकता।

इतने में श र से शमाम जी की डाक आ गई। वे उठ खड़ े ुए और बोले - दारोगा जी, आपकी बातें बड़ी मजेदार ोती ैं। अब इजाजत दीष्जए। डाक आ गई ै। जरा उसे देखना ै।

7

चााँदनी रात थी। शमाम जी खुली छत पर लेटे ुए एक समाचार-पत्र पढने में मग्न थे। अकस्मात कुछ शोरगुल सुनकर नीच ेकी तरफ झााँका तो क्या देखत े ै कक गााँव के चारों तरफ से कान्स्टेबलों के साथ ककसान चले आ र े ैं। ब ुत-से आदमी खशल ान की तरफ से बड़बड़ात ेआत ेथे। बीच-बीच में शसपाह यों की डााँट-फटकार की आवाजें भी कानों में आती थीिं। य सब आदमी बाँगले के सामने स न में बैठत ेजात ेथे। क ीिं-क ीिं ष्स्त्रयों का आत्तमनाद भी सुनाई देता था। शमाम जी ैरान थे कक मामला क्या ै? इतने में दारोगा जी की भयिंकार गरज सुनाई पड़ी - म एक न मानेंगे, सब लोगों को थाने चलना ोगा।

कफर सन्नाटा ो गया। मालूम ोता था कक आदशमयों में कानाफूसी ो र ी ै। बीच-बीच में मुख्तार सा ब और शसपाह यों के हृदय-ववदारक शब्द आकाश में गूाँज उठत।े कफर ऐसा जान पड़ा कक ककसी पर मार पड़ र ी ै। शमाम जी से अब

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न र ा गया। व सीहढयों के द्वार पर आए। कमरे में झााँककर देखा। मेज पर रुपए धगने जा र े थे। दारोगा जी ने फमामया, इतने बड़ ेगााँव में शसफम य ी?

मुख्तार सा ब ने उत्तर हदया - अभी घबराइए न ीिं। अबकी मुखखयों की खबर ली जाए। रुपयों का ढेर लग जाता ै।

य क कर मुख्तार ने कई ककसानों को पुकारा, पर कोई न बोला। तब दारोगा जी का गगनभेदी नाद सुनाई हदया - य लोग सीिे न मानेंगे, मुखखयों को पकड़ लो। थकडड़यााँ भर दो। एक-एक को डामुल शभजवाऊाँ गा।

य नाहदरशा ी ुक्म पात े ी कान्स्टेबलों का दल उन आदशमयों पर टूट पड़ा। ढोल-सी बजने लगी। क्रिं दन-ध्वनन से आकाश गूाँज उठा। शमाम जी का रक्त खौल र ा था। उन् ोंने सदैव न्याय और सत्य की सेवा की थी। अन्याय और ननदमयता का य करुणात्मक अशभमान उनके शलए असह्य था।

अचानक ककसी ने क ा - दो ाई सरकार की, मुख्तार सा ब म लोगन को क ना क मरवाए डारत ैं।

शमाम जी क्रोि से कााँपत े ुए िम-िम कोठे से उतर पड़े, य दृढ सिंकल्प कर हदया कक मुख्तार सा ब को मारे िंटर के धगरा दूाँ , पर जन सेवा में मनोवेगों को दबाने की बड़ी प्रबल शष्क्त ोती ै। रास्त े में ी साँभल गए। मुख्तार को बुलाकर क ा - मुिंशी जी, आपने य क्या गुल-गपाड़ा मचा रखा ै।

मुख्तार ने उत्तर हदया - ुजूर, दारोगा जी ने इन् ें एक डाके की त कीकात में तलब ककया ै।

शमाम जी बोले - जी ााँ, इस त कीकात का अथम मैं खूब समझता ूाँ। घिंटे भर से इसका तमाशा देख र ा ूाँ। त कीकात ो चुकी या कसर बाकी ै?

मुख्तार ने क ा - ुजूर, दारोगा जी जानें, मुझ ेक्या मतलब?

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दारोगा जी बड़ ेचतुर पुरुष थे। मुख्तार सा ब की बातों से उन् ोंने समझा था कक शमाम जी का स्वभाव भी अन्य जमीिंदारों के सदृश ै। इसशलए व बेखटके थे, पर इस समय उन् ें अपनी भूल ज्ञात ुई। शमाम जी के तवेर देखे, नेत्रों से क्रोिाष्ग्न की ज्वाला ननकल र ी थी, शमाम जी की शष्क्तशालीनता से भली-भााँनत पररधचत थे। समीप आकर बोले - आपके इस मुख्तार ने मुझ ेबड़ा िोखा हदया, वरना मैं लफ से क ता ूाँ कक य ााँ य आग न लगती। आप मेरे शमत्र बाबू कोककला शसिं के शमत्र ै और इस नाते से मैं आपको अपना मुरब्बी समझता ूाँ, पर इस नामरददू बदमाश ने मुझ ेबड़ा चकमा हदया! मैं भी ऐसा अ मक था कक इसके चक्कर में आ गया। मैं ब ुत नाहदम ूाँ कक ह माकत के बाइस जनाब को इतनी तकलीफ ुई! मैं आपसे मुआफी का सायल ूाँ। मेरी एक दोस्ताना इल्तमाश य ै कक ष्जतनी जल्दी मुमककन ो इस शक्स को बरतरफ कर दीष्जए। य आपकी ररयासत को तबा ककए डालता ै। अब मुझ ेभी इजाजत ो कक अपने मन ूस कदम य ााँ से ले जाऊाँ । मैं लफ से क ता ूाँ कक मुझ ेआपको मुाँ हदखात ेशमम आती ै।

8

य ााँ तो य घटना ो र ी थी, उिर बाबूलाल अपने चौपाल पर बैठे ुए, इसके सिंबिंि में अपने कई असाशमयो से बातचीत कर र े थे। शशवदीन ने क ा - भैया, आप जाके दारोगा जी को का े न ीिं समझावत ो। राम-राम! ऐसन अिंिेर!

बाबूलाल - भाई, मैं दसूरे के बीच में बोलने वाला कौन? शमाम जी तो व ीिं ै। व आप ी बुवद्धमान ैं। जो उधचत ोगा, करेंगे। य आज कोई नई बात थोड़ े ी ै। देखत ेतो ो कक आए हदन एक न एक उपद्रव मचा ी र ता ै। मुख्तार सा ब का इसमें भला ोता ै। शमाम जी से मैं इस ववषय में इसशलए कुछ न ीिं क ता कक शायद वे य समझें कक मैं ईष्यामवश शशकायत कर र ा ूाँ।

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रामदास - शमाम जी कोठा पर ै और नीचू बेचारन पर मार परत ै। देखा ना ीिं जात ै। ष्जनसे मुराद पाए जात ै। उनका छोड़ ेदेत े ै। मोका तो जान परत ै कक ई त कीकात-स कीकात सब रुपऐयन के खानतर कीन जात ै।

बाबूला - और का े के शलए की जाती ै। दारोगा जी ऐसे ी शशकार ढूाँढा करत े ै, लेककन देख लेना शमाम जी अबकी मुख्तार सा ब की जरर खबर लेंगे। व ऐसे-वैसे आदमी न ीिं ै कक य अिंिेर अपनी आाँखों से देखें और मौन िारण कर लें? ााँ, य तो बताओ अबकी ककतनी ऊख बोई ै?

रामदास - ऊख बोए ढेर र े मुदा दषु्टन के मारे बचै पाव।ै तू मानत ना ीिं भैया, पर आाँखन देखा बात ै कक करा के करा रस जर गया और छटााँकों भर माल न परा। न जानी अस कौन मिंतर मार देत े ैं।

बाबूलाल - अच्छा, अबकी मेरे क ने से य ानन उठा लो। देखूाँ ऐसा कौन बड़ा शसद्ध ै जो करा ी का रस उड़ा देता ै? जरर इसमें कोई न कोई बात ै, इस गााँव में ष्जतने कोल् ू जमीन में गड़ ेपड़ े ै उनसे ववहदत ोता ै कक प ले य ााँ ऊख ब ुत ोती थी, ककिं तु अब बेचारी का मुाँ भी मीठा न ीिं ोने पाता।

शशवदीन - अरे भैया! मारे ोस में ई सब कोल् ू चलत र े ैं। माघपूस में रात भर गााँव में मेला लगा र त र ा, पर जब स ई नाशसनी ववद्या फैली ै तब से कोऊ का ऊख के नेरे जाए का ह साब न ीिं परत ै।

बाबूलाल - ईश्वर चा ेंगे तो कफर वैसी ी ऊख लगेगी। अबकी मैं इस मिंत्र को उलट दूाँगा। भैया य तो बताओ अगर ऊख लग जाए और माल पड़ ेतो तुम् ारी पट्टी में एक जार का गुड़ ो जाएगा?

रखू ने ाँसकर क ा - भैया, कैसी बात क त े ो - जार तो पााँच बीघा में शमल सकत े ै। मारे पट्टी में 25 बीघा से कम ऊख न ीिं था। कुछो न परे तो अढाई जार क ूाँ न ीिं गए ैं।

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बाबूलाल - तब तो आशा ै कक कोई पचास रुपए बयाई में शमल जाएिंगे। य रुपए गााँव की सफाई में खचम ोंगे।

इतने में एक युवा मनुष्य दौड़ता ुआ आया और बोला - भैया! ऊ त कीकात देखे गइल र लीिं। दारोगा जी सबका डााँटत मारत र ें। देवी मुखखया बोला - मुख्तार सा ब, मका चा े काट डारो मुदा म एक कौड़ी न देबै। थाना कच री ज ााँ क ो चलै के तैयार ुई। ई सुन के मुख्तार लाल ुई गयेन। चार शसपाह न से क ेन कक एह का पकररके खूब मारो, तब देवी धचल्लाय-धचल्लाय रोवे लागल,

एतने में सरमा जी कोठी पर से खट-खट उतरेन और मखु्तार का लगे डााँटे। मुख्तार ठाटे झूर ोय गयेन। दारोगा िीरे से घोड़ा माँगवाय के भागेन। मनई सरमा जी का असीसत चला जात ै।

बाबूलाल - य तो मैं प ले ी क ता था कक शमाम जी से य अन्याय न देखा जाएगा।

इतने में दरू से एक लालटेन का प्रकाश हदखाए हदया। एक आदमी के साथ शमाम जी आत े ुए हदखाई हदए। बाबूलाल ने असाशमयों को व ााँ से टा हदया, कुरसी रखवा दी और बढकर बोले - आपने इस समय कष्ट क्यों ककया, मुझको बुला शलया ोता।

शमाम जी ने नम्रता से उत्तर हदया - आपको ककस मुाँ से बुलाता, मेरे सारे आदमी व ााँ पीटे जा र े थे, उनका गला दबाया जा र ा था और आप पास न फटके। मुझ ेआपसे मदद की आशा थी। आज मारे मुख्तार ने गााँव में लटू मचा दी थी। अख्तार की और क्या क ूाँ। बेचारा थोड़ ेऔकात का आदमी ै। खेद तो य ै कक आपके दारोगा जी भी उसके स ायक थे। कुशल य थी कक मैं व ााँ मौजूद था।

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बाबूलाल - ब ुत लष्ज्जत ूाँ कक इस अवसर पर आपकी सेवा न कर सका। पर बात य ै कक मेरे व ााँ जाने से मुख्तार सा ब और दारोगा जी दोनों ी अप्रसन्न ोत।े मुख्तार सा ब मुझसे कई बार क चुके ै कक आप मेरे बीच में न बोला कीष्जए। मैं आपसे कभी गााँव की दशा इस भय से न क ता था कक शायद आप समझें कक मैं ईष्याम के कारण ऐसा क ता ूाँ। य ााँ य कोई नई बात न ीिं ै। आए हदन ऐसी ी घटनाएाँ ोती र ती ैं, और कुछ इसी गााँव में न ीिं, ष्जस गााँव को देखखए, य ी दशा ै। इन सब आपष्त्तयों का एकमात्र कारण य ै कक दे ातों में कममपरायण, ववद्वान और नीनतज्ञ मनुष्यों का अभाव ै। श र के सुशशक्षक्षत जमीिंदार ष्जनसे उपकार की ब ुत कुछ आशा की जाती ै, सारा काम काररिंदों पर छोड़ देत े ै। र े दे ात के जमीिंदार सो ननरक्षर भट्टाचायम ै। अगर कुछ थोड़ ेब ुत पढे भी ै तो अच्छी सिंगनत न शमलने के कारण उनमें बुवद्ध का ववकास न ीिं ै। कानून के थोड़ े से दफे सुन-सुना शलये ै, बस उसी की रट लगाया करत े ैं। मैं आपसे सत्य क ता ूाँ, मुझ े जरा भी खबर ोती तो मैं आपको सचते कर हदए ोता।

शमाम जी - खैर, य बला तो टली, पर मैं देखता ूाँ कक इस ढिंग से काम न चलेगा। अपने असाशमयों को आज इस ववपष्त्त में देखकर मुझ ेबड़ा दुुःख ुआ। मेरा मन बार-बार मुझको इन सारी दघुमटनाओिं का उत्तरदाता ठ राता ै। ष्जनकी कमाई खाता ूाँ, ष्जनकी बदौलत टमटम पर सवार ोकर रईस बना घूमता ूाँ, उनके कुछ स्वत्व भी तो मुझ पर ैं। मुझ ेअपनी स्वाथाांिता स्पष्ट दीख पड़ती ै। मैं आप अपनी ी दृष्ष्ट में धगर गया ूाँ। मैं सारी जानत के उद्धार का बीड़ा उठाए ुए ूाँ, सारे भारतवषम के शलए प्राण देता कफरता ूाँ, पर अपने घर की खबर ी न ीिं। ष्जनकी रोहटयााँ खाता ूाँ उनकी तरफ से इस तर उदासीन ूाँ! अब इस दरुावस्था को समूल नष्ट करना चा ता ूाँ। इस काम में मुझ ेआपकी स ायता और स ानुभूनत की जररत ै। मुझ े अपना शशष्य बनाइए। मैं याचकभाव से आपके पास आया ूाँ। इस भार को साँभालने की शष्क्त मझुमें न ीिं। मेरी शशक्षा ने मुझ ेककताबी कीड़ा बनाकर छोड़ हदया औऱ मन के मोदक खाना शसखाया। मैं मनुष्य न ीिं, ककिं तु ननयमों का पोथ ूाँ। आप मुझ मनुष्य बनाइए, मैं अब य ीिं

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र ूाँगा, पर आपको भी य ीिं र ना पड़गेा। आपकी जो ानन ोगी उसका भार मझु पर ै। मुझ ेसाथमक जीवन का पाठ पढाइए। आपसे अच्छा गुरु मुझ ेन शमलेगा। सिंभव ै कक आपका अनुगामी बनकर मैं अपना कतमव्य पालन करने योग्य ो जाऊाँ ।

***

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परीक्षा

जब ररयासत देवगढ के दीवान सरदार सुजानशसिं बूढे ुए तो परमात्मा की याद आई। जा कर म ाराज से ववनय की कक दीनबिंिु! दास ने श्रीमान की सेवा चालीस साल तक की, अब मेरी अवस्था भी ढल गई, राज-काज साँभालने की शष्क्त न ीिं र ी। क ीिं भूल-चूक ो जाए तो बढुापे में दाग लगे। सारी ष्जिंदगी की नेकनामी शमट्टी में शमल जाए।

राजा सा ब अपने अनुभवशील नीनतकुशल दीवान का बड़ा आदर करत ेथे। ब ुत समझाया, लेककन दीवान सा ब ने न माना, तो ार कर उसकी प्राथमना स्वीकार कर ली; शतम य लगा दी कक ररयासत के शलए नया दीवान आप ी को खोजना पड़गेा।

दसूरे हदन देश के प्रशसद्ध पत्रों में य ववज्ञापन ननकला कक देवगढ के शलए एक सुयोग्य दीवान की जररत ै। जो सज्जन अपने को इस पद के योग्य समझें व े वतममान सरकार सुजानशसिं की सेवा में उपष्स्थत ो। य जररी न ीिं ै कक वे गे्रजुएट ों, मगर हृष्ट-पुष्ट ोना आवश्यक ै, मिंदाष्ग्न के मरीज को य ााँ तक कष्ट उठाने की कोई जररत न ीिं। एक म ीने तक उम्मीदवारों के र न-स न,

आचार-ववचार की देखभाल की जाएगी। ववद्या का कम, परिंतु कतमव्य का अधिक ववचार ककया जाएगा। जो म ाशय इस परीक्षा में पूरे उतरेंगे, वे इस उच्च पद पर सुशोशभत ोंगे।

2

इस ववज्ञापन ने सारे मुल्क में त लका मचा दी। ऐसा ऊाँ चा पद और ककसी प्रकार की कैद न ीिं? केवल नसीब का खेल ै। सैकड़ो आदमी अपना-अपना भा्ग्य परखने के शलए चल खड़ े ुए. देवगढ में नए-नए और रिंग-ववरिंगें मनुष्य हदखाई देने लगे। प्रत्येक रेलगाड़ी से उम्मीदवारों का एक मेला-सा उतरता। कोई

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पिंजाब से चला आता था, कोई मद्रास से, कोई नए फैशन का पे्रमी, कोई पुरानी सादगी पर शमटा ुआ। पिंडडतों और मौलववयों को भी अपने-अपने भाग्य की परीक्षा करने का अवसर शमला। बेचारे सनद के नाम रोया करत ेथे, य ााँ उसकी कोई जररत न ीिं थी। रिंगीन एमामे, चोगे और नाना प्रकार के अिंगरखे और किं टीप देवगढ में अपनी सज-िज हदखाने लगे। लेककन सबसे ववशेष सिंख्या गे्रजुएटों की थी, क्योंकक सनद की कैद न ोने पर भी सनद से परदा तो ढाँका र ता ै।

सरदार सुजानशसिं ने इन म ानुभावों के आदर-सत्कार का बड़ा अच्छा प्रबिंि कर हदया था। लोग अपने-अपने कमरों में बैठे ुए रोजेदार मुसलमानों की तर म ीने के हदन धगना करत ेथे। र एक मनुष्य अपने जीवन को अपनी बुवद्ध के अनुसार अच्छे रप में हदखाने की कोशशश करता था। शमस्टर अ नौ बज े हदन तक सोया करत ेथे, आजकल वे बगीच ेमें ट लत े ुए ऊषा का दशमन करत ेथे। शम. ब को ुक्का पीने की लत थी, आजकल ब ुत रात गए ककवाड़ बिंद करके अाँिेरे में शसगार पीत ेथे। शम. द, स और ज से उनके घरों पर नौकरों के नाक में दम था, लेककन ये सज्जन आजकल 'आप' और 'जनाब' के बगैर नौकरों से बातचीत न ीिं करत े थे। म ाशय क नाष्स्तक थे, क्सले के उपासक, मगर आजकल उनकी िममननष्ठा देख कर मिंहदर के पुजारी को पदच्युत ो जाने की शिंका लगी र ती थी! शम. ल को ककताब से घणृा थी, परिंतु आजकल वे बड़-ेबड़ ेग्रिंथ देखने-पढने में डूबे र त ेथे। ष्जससे बात कीष्जए, व नम्रता और सदाचार का देवता बना मालूम ोता था। शमाम जी घड़ी रात से ी वेद-मिंत्र पढने लगत ेथे और मौलवी सा ब को नमाज और तलावत के शसवा और कोई काम न था। लोग समझत े थे कक एक म ीने का झिंझट ै, ककसी तर काट लें, क ीिं कायम शसद्ध ो गया तो कौन पूछता ै।

लेककन मनुष्यों में व बूढा जौ री आड़ में बैठा ुआ देख र ा था कक इन बगुलों में िंस क ााँ नछपा ुआ ै।

3

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एक हदन नए फैशनवालों को सूझी कक आपस में ाकी का खेल ो जाए। य प्रस्ताव ाकी के माँजे ुए खखलाडड़यों ने पेश ककया। य भी तो आखखर एक ववद्या ै। इसे क्यों नछपा रखें। सिंभव ै, कुछ ाथों की सफाई ी काम कर जाए। चशलए तय ो गया, फील्ड बन गई, खेल शुर ो गया और गेंद ककसी दफ्तर के अप्रेंहटस की तर ठोकरें खाने लगा।

ररयासत देवगढ में य खेल बबलकुल ननराली बात थी। पढे-शलखे भलेमानस लोग शतरिंज और ताश जैसे गिंभीर खेल खेलत ेथे। दौड़-कूद के खेल समझ ेजात ेथे।

खेल बड़ ेउत्सा से जारी था। िावे के लोग जब गेंद को ले कर तजेी से उड़त ेतो ऐसा जान पड़ता था कक कोई ल र बढती चली आती ै। लेककन दसूरी ओर से खखलाड़ी इस बढती ुई ल र को इस तर रोक लेत े थे कक मानो लो े की दीवार ै।

सिंध्या तक य ी िूमिाम र ी। लोग पसीने से तर ो गए। खून की गमी आाँख और च ेरे से झलक र ी थी। ााँफते- ााँफत ेबेदम ो गए, लेककन ार-जीत का ननणमय न ो सका।

अाँिेरा ो गया था। इस मैदान से जरा दरू ट कर एक नाला था। उस पर कोई पुल न था। पधथकों को नाले में से चल कर आना पड़ता था। खेल अभी बिंद ी ुआ था और खखलाड़ी लोग बैठे दम ले र े थे कक एक ककसान अनाज से भरी ुई गाड़ी शलये उस नाले में आया। लेककन कुछ तो नाले में कीचड़ था और कुछ उसकी चढाई इतनी ऊाँ ची थी कक गाड़ी ऊपर न चढ सकती थी। व कभी बैलों को ललकारता, कभी पह यों को ाथ से ढकेलता लेककन बोझ अधिक था और बैल कमजोर। गाड़ी ऊपर को न चढती और चढती भी तो कुछ दरू चढकर कफ खखसक कर नीच ेप ुाँच जाती। ककसान बार-बार जोर लगाता और बार-बार झुाँझला कर बैलों को मारता, लेककन गाड़ी उभरने का नाम न लेती। बेचारा इिर-उिर

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ननराश ो कर ताकता मगर व ााँ कोई स ायक नजर न आता। गाड़ी को अकेले छोड़कर क ीिं जा भी न ीिं सकता। बड़ी आपष्त्त में फाँ सा ुआ था। इसी बीच खखलाड़ी ाथों में डिंड ेशलये घूमत-ेघूमात ेउिर से ननकले। ककसान ने उसकी तरफ स मी ुई आाँखों से देखा; परिंतु ककसी से मदद मााँगने का सा स न ुआ। खखलाडड़यों ने भी उसको देखा मगर आाँखों से, स ानुभूनत न थी। उनमें स्वाथम था, मद था, मगर उदारता और वात्सल्य का नाम भी न था।

4

लेककन उसी समू में एक ऐसा मनुष्य था ष्जसके हृदय में दया थी और सा स था। आज ाकी खेलत े ुए उसके पैरों में चोट लग गई थी। लाँगड़ाता ुआ िीरे-िीरे चला आता था। अकस्मात उसकी ननगा गाड़ी पर पड़ी। हठठक गया। उसे ककसान की सूरत देखत े ी सब बातें ज्ञात ो गई। डिंडा एक ककनारे रख हदया। कोट उतार डाला और ककसान के पास जाकर बोला - मैं तुम् ारी गाड़ी ननकाल दूाँ?

ककसान ने देखा एक गठे ुए बदन का लम्बा आदमी सामने खड़ा ै। झुक कर बोला - ुजूर मैं आपसे कैसे क ूाँ?

युवक ने क ा - मालूम ोता ै, तुम य ााँ बड़ी देर से फाँ से ो। अच्छा, तुम गाड़ी पर जाकर बैलों को सािो, मैं पह यों को ढकेलता ूाँ, अभी गाड़ी ऊपर चढ जाती ै।

ककसान गाड़ी पर जा बैठा। युवक ने पह ये को जोर लगा कर उकसाया। कीचड़ ब ुत ज्यादा था। व घुटने तक जमीन में गड़ गया, लेककन ह म्मत न ारी। उसने कफर जोर ककया, उिर ककसान ने बैलों को ललकारा। बैल को स ारा शमला, ह म्मत बाँि गई, उन् ोंने किं िे झुका कर एक बार जोर ककया तो गाड़ी नाले के ऊपर थी।

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ककसान युवक के सामने ाथ जोड़ कर खड़ा ो गया। बोला - म ाराज, आपने आज मुझ ेउबार शलया, न ीिं तो सारी रात मुझ ेय ााँ बैठना पड़ता।

युवक ने ाँस कर क ा - अब मुझ ेकुछ इनाम देत े ो?

ककसान ने गिंभीर भाव से क ा - नारायण चा ेंगे तो दीवानी आपको ी शमलेगी।

युवक ने ककसान की तरफ गौर से देखा। उसके मन में एक सिंदे ुआ, क्या य सुजानशसिं तो न ीिं ै? आवाज शमलती ै, च ेरा-मो रा भी व ी। ककसान ने भी उसकी ओर तीव्र दृष्ष्ट से देखा। शायद उसके हदल के सिंदे को भााँप गया। मुस्करा कर बोला - ग रे पानी में बैठने से ी मोती शमलता ै।

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ननदान म ीना पूरा ुआ। चुनाव का हदन आ प ुाँचा। उम्मीदवार लोग प्रातुःकाल ी से अपनी ककस्मतों का फैसला सुनने के शलए उत्सुक थे। हदन काटना प ाड़ ो गया। प्रत्येक के च ेरे पर आशा और ननराशा के रिंग आत ेथे। न ीिं मालूम,

आज ककसके नसीब जागेंगे! न जाने ककस पर लक्ष्मी की कृपादृष्ष्ट ोगी।

सिंध्या समय राजा सा ब का दरबार सजाया गया। श र के रईस और िनाढ्य लोग, राज्य के कममचारी और दरबारी तथा दीवानी के उम्मीदवारों का समू , सब रिंग-बबरिंगी सज-िज बनाए दरबार में आ ववराजे! उम्मीदवारों के कलेजे िड़क र े थे।

जब सरदार सुजानशसिं ने खड़ े ो कर क ा - मेरे दीवानी के उम्मीदवार म ाशयों! मैंने आप लोगों को जो कष्ट हदया ै, उसके शलए मुझ ेक्षमा कीष्जए। इस पद के शलए ऐसे पुरुष की आवश्यकता थी ष्जसके हृदय में दया ो और साथ-साथ आत्मबल। हृदय व जो उदार ो, आत्मबल व जो आपष्त्त का

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वीरता के साथ सामना करे और इस ररयासत के सौभाग्य से में ऐसा पुरुष शमल गया। ऐसे गुणवाले सिंसार में कम ैं और जो ै, वे कीनतम और मान के शशखर पर बैठे ुए ैं, उन तक मारी प ुाँच न ीिं। मैं ररयासत के पिंडड़त जानकीनाथ-सा दीवान पाने पर बिाई देता ूाँ।

ररयासत के कममचाररयों और रईसों ने जानकीदास की तरफ देखा। उम्मीदवार दल की आाँखें उिर उठीिं, मगर उन आाँखों में सत्कार था, इन आाँखों में ईष्याम।

सरदार सा ब ने कफर फरमाया, आप लोगों को य स्वीकार करने में कोई आपष्त्त न ोगी कक जो पुरुष स्वयिं जख्मी ो कर भी एक गरीब ककसान की भरी ुई गाड़ी को दलदल से ननकाल कर नाले के ऊपर चढा दे उसके हृदय में सा स, आत्मबल और उदारता का वास ै। ऐसा आदमी गरीबों को कभी न सतावेगा। उसका सिंकल्प दृढ ै उसके धचत्त को ष्स्थर रखेगा। व चा े िोखा खा जाए। परिंतु दया और िमम से कभी न टेगा।

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