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ककककक कककक कक Posted by: सससससस- ससससससस सससससस on: August 13, 2008 In: ससससस Comment! ककककक कककक कक ? ~*~*~*~*~ - कककककक ककककककककक ककककक ककककक कक कककककक-ककक कक ककककक कककक कक. कककककक कक कककककक कक ककककककक-ककककक कक ककककक कक ककक कककककक कककक कक कककक कक कककककक कक ककककककक-ककककक ककककककक कक ककककक ककककक कककक ककक. कक ककककककककक ककककक कककक कककक ककक. कककक ककककककक कक ककककककककक कक कककककक कककक ककक कककककक कक ककक कककक कक ककककक कककक ककककक. ककककक कक ककककककक कक कककककककक कक कककककक ककक कक कककक कककक ककक. कककककककक कक कक ककककक कककककककक कक कककककककक कककक कक कक ककककक कककक कक. ककक ककककक, ककककक, ककक, ककककक ककक कककककक कककककक कक कककककककक कक कककक कककक कक कक ककक कक कककक कक कककक. ककककक ककककक कककककककक कक ककककककककक कककक ककककक कककक ककक कक ककक ककक ककक कककक कक. कक कककककक कक कककककककक कक ककककक ककककक कककक कककक ककक.

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कवि�ता क्या हैPosted by: संपादक- मि�थिलेश वा�नकर on: August 13, 2008

In: निनबंध Comment!

कनिवता क्या है ?~*~*~*~*~- आचाय� रा�चन्द्र शुक्लकनिवता से �नुष्य-भाव की रक्षा होती है. सृमि& के पदा� या व्यापार-निवशेष को कनिवता इस तरह व्यक्त करती है �ानो वे पदा� या व्यापार-निवशेष नेत्रों के सा�ने नाचने लगते हैं. वे �ूर्तित1�ान दिदखाई देने लगते हैं. उनकी उत्त�ता या अनुत्त�ता का निववेचन करने �ें बुद्धि: से का� लेने की जरूरत नहीं पड़ती. कनिवता की पे्ररणा से �नोवेगों के प्रवाह जोर से बहने लगते हैं. तात्पय� यह निक कनिवता �नोवेगों को उते्तद्धिजत करने का एक उत्त� साधन है. यदिद क्रोध, करूणा, दया, पे्र� आदिद �नोभाव �नुष्य के अन्तःकरण से निनकल जाए ँतो वह कुछ भी नहीं कर सकता. कनिवता ह�ारे �नोभावों को उच्छवाथिसत करके ह�ारे जीवन �ें एक नया जीव डाल देती है. ह� सृमि& के सौन्दय� को देखकर �ोनिहत होने लगते हैं. कोई अनुथिचत या निनषु्ठर का� ह�ें असह्य होने लगता है. ह�ें जान पड़ता है निक ह�ारा जीवन कई गुना अमिधक होकर स�स्त संसार �ें व्याप्त हो गया है. काय� �ें प्रवृत्तित्त————-कनिवता की पे्ररणा से काय� �ें प्रवृत्तित्त बढ़ जाती है. केवल निववेचना के बल से ह� निकसी काय� �ें बहुत क� प्रवृत्त होते हैं. केवल इस बात को जानकर ही ह� निकसी का� के करने या न करने के थिलए प्रायः तैयार नहीं होते निक वह का� अच्छा है या बुरा, लाभदायक है या हानिनकारक. जब उसकी या उसके परिरणा� की कोई ऐसी बात ह�ारे सा�ने उपस्थिTत हो जाती है जो ह�ें आह्लाद, क्रोध और करूणा आदिद से निवचथिलत कर देती है तभी ह� उस का� को करने या न करने के थिलए प्रस्तुत होते हैं. केवल बुद्धि: ह�ें का� करने के थिलए उते्तद्धिजत नहीं करती. का� करने के थिलए �न ही ह�को उत्सानिहत करता है. अतः काय�-प्रवृत्तित्त के थिलए �न �ें वेग का आना आवश्यक है. यदिद निकसी से कहा जाये निक अ�ुक देश तुम्हारा इतना रुपया प्रनितवष� उठा ले जाता है, इसी से तुम्हारे यहाँ अकाल और दारिरद्रय् बना रहता है? तो सम्भव है निक उस पर कुछ प्रभाव न पडे़. पर यदिद दारिरद्रय् और अकाल का भीषण दृश्य दिदखाया जाए, पेट की ज्वाला से जले हुए प्रात्तिणयों के अस्थिTपंजर सा�ने पेश निकए जाए,ँ और भूख से तड़पते हुए बालक के पास बैठी हुई �ाता का आत्त�स्वर सुनाया जाए तो वह �नुष्य क्रोध और करूणा से निवह्वल हो उठेगा और इन बातों को दूर करने का यदिद उपाय नहीं तो संकल्प अवश्य करेगा. पहले प्रकार की बात कहना राजनीनितज्ञ का का� है और निपछले प्रकार का दृश्य दिदखाना, कनिव का कत�व्य है. �ानव-हृदय पर दोनों �ें से निकसका अमिधकार अमिधक हो सकता है, यह बतलाने की आवश्यकता नहीं. �नोरंजन और स्वभाव-संशोधन——————————.कनिवता के द्वारा ह� संसार के सुख, दुःख, आनन्द और क्लेश आदिद या� रूप से अनुभव कर सकते हैं. निकसी लोभी और कंजूस दुकानदार को देखिखए द्धिजसने लोभ के वशीभूत होकर क्रोध, दया, भथिक्त, आत्�ात्तिभ�ान आदिद �नोनिवकारों को दबा दिदया है. और संसार के सब सुखों से �ुँह �ोड़ थिलया है. अवा निकसी �हाकू्रर राजक��चारी के पास जाइए द्धिजसका हृदय पत्थर के स�ान जड़ और कठोर हो गया है, द्धिजसे दूसरे के दुःख और क्लेश का अनुभव स्वप्न �ें भी नहीं होता. ऐसा करने से आपके �न �ें यह प्रश्न अवश्य उठेगा निक क्या इनकी भी कोई दवा है. ऐसे हृदयों को द्रवीभूत करके उन्हें अपने स्वाभानिवक ध�� पर लाने का सा�र्थ्यय� काव्य ही �ें है. कनिवता ही उस दुकानदार की प्रवृत्तित्त भौनितक और आध्यात्मित्�क सृमि& के सौन्दय� की ओर ले जाएगी, कनिवता ही

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उसका ध्यान औरों की आवश्यकता की ओर आकर्तिष1त करेगी और उनकी पूर्तित1 करने की इच्छा उत्पन्न करेगी, कनिवता ही उसे उथिचत अवसर पर क्रोध, दया, भथिक्त, आत्�ात्तिभ�ान आदिद थिसखावेगी. इसी प्रकार उस राजक��चारी के सा�ने कनिवता ही उसके कायq का प्रनितनिबम्ब खींचकर रक्खेगी और उनकी जघन्यता और भयंकरता का आभास दिदखलावेगी, ता दैवी किक1वा अन्य �नुष्यों द्वारा पहुँचाई हुई पीड़ा और क्लेश के सूक्ष्� से सूक्ष्� अंश को दिदखलाकर उसे दया दिदखाने की थिशक्षा देगी. प्रायः लोग कहा करते हैं निक कनिवता का अन्तिन्त� उदे्दश्य �नोरंजन है. पर �ेरी स�झ �ें �नोरंजन उसका अन्तिन्त� उदे्दश्य नहीं है. कनिवता पढ़ते स�य �नोरंजन अवश्य होता है, पर इसके थिसवा कुछ और भी होता है. �नोरंजन करना कनिवता का प्रधान गुण है. इससे �नुष्य का थिचत्त एकाग्र हो जाता है, इधर-उधर जाने नहीं पाता. यही कारण है निक नीनित और ध��-सम्बन्धी उपदेश थिचत्त पर वैसा असर नहीं करते जैसा निक निकसी काव्य या उपन्यास से निनकली हुई थिशक्षा असर करती है. केवल यही कहकर निक ‘परोपकार करो’ ‘सदैव सच बोलो’ ‘चोरी करना �हापाप है’ ह� यह आशा कदानिप नहीं कर सकते निक कोई अपकारी �नुष्य परोपकारी हो जाएगा, झूठा सच्चा हो जाएगा, और चोर चोरी करना छोड़ देगा. क्योंनिक पहले तो �नुष्य का थिचत्त ऐसी थिशक्षा ग्रहण करने के थिलए उद्यत ही नहीं होता, दूसरे �ानव-जीवन पर उसका कोई प्रभाव अंनिकत हुआ न देखकर वह उनकी कुछ परवा नहीं करता. पर कनिवता अपनी �नोरंजक शथिक्त के द्वारा पढ़ने या सुनने वाले का थिचत्त उचटने नहीं देती, उसके हृदय आदिद अत्यन्त को�ल Tानों को स्पश� करती है, और सृमि& �ें उक्त क�q के Tान और सम्बन्ध की सूचना देकर �ानव जीवन पर उनके प्रभाव और परिरणा� को निवस्तृत रूप से अंनिकत करके दिदखलाती है. इन्द्रासन खाली कराने का वचन देकर, हूर और निगल�ा का लालच दिदखाकर, य�राज का स्�रण दिदलाकर और दोजख़ की जलती हुई आग की ध�की देकर ह� बहुधा निकसी �नुष्य को सदाचारी और कत�व्य-परायण नहीं बना सकते. बात यह है निक इस तरह का लालच या ध�की ऐसी है द्धिजससे �नुष्य परिरथिचत नहीं और जो इतनी दूर की है निक उसकी परवा करना �ानव-प्रकृनित के निवरु: है. सदा-चार �ें एक अलौनिकक सौन्दय� और �ाधुय� होता है. अतः लोगों को सदाचार की ओर आकर्तिष1त करने का प्रकृत उपाय यही है निक उनको उसका सौन्दय� और �ाधुय� दिदखाकर लुभाया जाए, द्धिजससे वे निबना आगा पीछा सोचे �ोनिहत होकर उसकी ओर ढल पड़ें. �न को ह�ारे आचायq ने ग्यारहवीं इद्धिन्द्रय �ाना है. उसका रञ्जन करना और उसे सुख पहुँचाना ही यदिद कनिवता का ध�� �ाना जाए तो कनिवता भी केवल निवलास की सा�ग्री हुई. परन्तु क्या ह� कह सकते हैं निक वाल्�ीनिक का आदिद-काव्य, तुलसीदास का रा�चरिरत�ानस, या सूरदास का सूरसागर निवलास की सा�ग्री है? यदिद इन ग्रन्थों से �नोरंजन होगा तो चरिरत्र-संशोधन भी अवश्य ही होगा. खेद के सा कहना पड़ता है निक निहन्दी भाषा के अनेक कनिवयों ने श्रृंगार रस की उन्�ाद कारिरणी उथिक्तयों से सानिहत्य को इतना भर दिदया है निक कनिवता भी निवलास की एक सा�ग्री स�झी जाने लगी है. पीछे से तो ग्रीष्�ोपचार आदिद के नुस्खे भी कनिव लोग तैयार करने लगे. ऐसी शंृगारिरक कनिवता को कोई निवलास की सा�ग्री कह बैठे तो उसका क्या दोष? सारांश यह निक कनिवता का का� �नोरंजन ही नहीं, कुछ और भी है. चरिरत्र-थिचत्रण द्वारा द्धिजतनी सुग�ता से थिशक्षा दी जा सकती है उतनी सुग�ता से निकसी और उपाय द्वारा नहीं. आदिद-काव्य रा�ायण �ें जब ह� भगवान रा�चन्द्र के प्रनितज्ञा-पालन, सत्यव्रताचरण और निपतृभथिक्त आदिद की छटा देखते हैं, भारत के सव�च्च स्वा�त्याग और सवा�गपूण� सान्तित्वक चरिरत्र का अलौनिकक तेज देखते हैं, तब ह�ारा हृदय श्र:ा, भथिक्त और आश्चय� से स्तम्भिम्भत हो जाता है. इसके निवरु: जब ह� रावण को दु&ता और उदं्दडता का थिचत्र देखते हैं तब स�झते हैं निक दु&ता क्या चीज है और उसका प्रभाव और परिरणा� सृमि& �ें क्या है. अब देखिखए कनिवता द्वारा निकतना उपकार होता है. उसका का� भथिक्त, श्र:ा, दया, करूणा, क्रोध और पे्र� आदिद �नोवेगों को तीव्र और परिर�ार्जिज1त करना ता सृमि& की वस्तुओं और व्यापारों से उनका उथिचत और उपयुक्त सम्बन्ध स्थिTर करना है. उच्च आदश�

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———–.कनिवता �नुष्य के हृदय को उन्नत करती है और उसे उत्कृ& और अलौनिकक पदाq का परिरचय कराती है द्धिजनके द्वारा यह लोक देवलोक और �नुष्य देवता हो सकता है. कनिवता की आवश्यकता———————-.कनिवता इतनी प्रयोजनीय वस्तु है निक संसार की सभ्य और असभ्य सभी जानितयों �ें पाई जाती है. चाहे इनितहास न हो, निवज्ञान न हो, दश�न न हो, पर कनिवता अवश्य ही होगी. इसका क्या कारण है? बात यह है निक संसार के अनेक कृनित्र� व्यापारों �ें फंसे रहने से �नुष्य की �नुष्यता जाती रहने का डर रहता है. अतएव �ानुषी प्रकृनित को जागृत रखने के थिलए ईश्वर ने कनिवता रूपी औषमिध बनाई है. कनिवता यही प्रयत्न करती है निक प्रकृनित से �नुष्य की दृमि& निफरने न पावे. जानवरों को इसकी जरूरत नहीं. ह�ने निकसी उपन्यास �ें पढ़ा है निक एक थिचड़थिचड़ा बनिनया अपनी सुशीला और पर� रुपवती पुत्रवधू को अकारण निनकालने पर उद्यत हुआ. जब उसके पुत्र ने अपनी स्त्री की ओर से कुछ कहा तब वह थिचढ़कर बोला, ‘चल चल! भोली सूरत पर �रा जाता है’ आह! यह कैसा अ�ानुनिषक बता�व है! सांसारिरक बन्धनों �ें फंसकर �नुष्य का हृदय कभी-कभी इतना कठोर और कंुदिठत हो जाता है निक उसकी चेतनता - उसका �ानुषभाव - क� हो जाता है. न उसे निकसी का रूप �ाधुय� देखकर उस पर उपकार करने की इच्छा होती है, न उसे निकसी दीन दुखिखया की पीड़ा देखकर करूणा आती है, न उसे अप�ानसूचक बात सुनकर क्रोध आता है. ऐसे लोगों से यदिद निकसी लो�हष�ण अत्याचार की बात कही जाए तो, �नुष्य के स्वाभानिवक ध�ा�नुसार, वे क्रोध या घृणा प्रकट करने के Tान पर रूखाई के सा यही कहेंगे - “जाने दो, ह�से क्या �तलब, चलो अपना का� देखो.” याद रखिखए, यह �हा भयानक �ानथिसक रोग है. इससे �नुष्य जीते जी �ृतवत् हो जाता है. कनिवता इसी �रज़ की दवा है. सृमि&-सौन्दय�———-. कनिवता सृमि&-सौन्दय� का अनुभव कराती है और �नुष्य को सुन्दर वस्तुओं �ें अनुरक्त करती है. जो कनिवता र�णी के रूप �ाधुय� से ह�ें आह्लादिदत करती है वही उसके अन्तःकरण की सुन्दरता और को�लता आदिद की �नोहारिरणी छाया दिदखा कर �ुग्ध भी करती है. द्धिजस बंनिक� की लेखनी ने गढ़ के ऊपर बैठी हुई राजकु�ारी नितलोत्त�ा के अंग प्रत्यंग की शोभा को अंनिकत निकया है उसी ने आयशा के अन्तःकरण की अपूव� सान्तित्वकी ज्योनित दिदखा कर पाठकों को च�त्कृत निकया है. भौनितक सौन्दय� के अवलोकन से ह�ारी आत्�ा को द्धिजस प्रकार सन्तोष होता है उसी प्रकार �ानथिसक सौन्दय� से भी. द्धिजस प्रकार वन, पव�त, नदी, झरना आदिद से ह� प्रफुस्थिल्लत होते हैं, उसी प्रकार �ानवी अन्तःकरण �ें पे्र�, दया, करुणा, भथिक्त आदिद �नोवेगों के अनुभव से ह� आनंदिदत होते हैं. और यदिद इन दोनों पार्थि1व और अपार्थि1व सौन्दयq का कहीं संयोग देख पडे़ तो निफर क्या कहना है. यदिद निकसी अत्यन्त सुन्दर पुरुष या अत्यन्त रूपवती स्त्री के रूप �ात्र का वण�न करके ह� छोड़ दें तो थिचत्र अपूण� होगा, निकन्तु यदिद ह� सा ही उसके हृदय की दृढ़ता और सत्यनिप्रयता अवा को�लता और स्नेह-शीलता आदिद की भी झलक दिदखावें तो उस वण�न �ें सजीवता आ जाएगी. �हाकनिवयों ने प्रायः इन दोनों सौन्दयq का �ेल कराया है जो निकसी निकसी को अस्वाभानिवक प्रतीत होता है. निकन्तु संसार �ें प्राय- देखा जाता है निक रूपवान् जन सुशील और को�ल होते हैं और रूपहीन जन कू्रर और दुःशील. इसके थिसवा �नुष्य के आंतरिरक भावों का प्रनितनिबम्ब भी चेहरे पर पड़कर उसे रुथिचर या अरुथिचर बना देता है. पार्थि1व सौन्दय� का अनुभव करके ह� �ानथिसक अा�त् अपार्थि1व सौन्दय� की ओर आकर्तिष1त होते हैं. अतएव पार्थि1व सौन्दय� को दिदखलाना कनिव का प्रधान क�� है. कनिवता का दुरूपयोग——————-. जो लोग स्वा�वश व्य� की प्रशंसा और खुशा�द करके वाणी का दुरुपयोग करते हैं वे सरस्वती

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का गला घोंटते हैं. ऐसी तुच्छ वृत्तित्त वालों को कनिवता न करना चानिहए. कनिवता का उच्चाशय, उदार और निनःस्वा� हृदय की उपज है. सत्कनिव �नुष्य �ात्र के हृदय �ें सौन्दय� का प्रवाह बहाने वाला है. उसकी दृमि& �ें राजा और रंक सब स�ान हैं. वह उन्हें �नुष्य के थिसवा और कुछ नहीं स�झता. द्धिजस प्रकार �हल �ें रहने वाले बादशाह के वास्तनिवक सद ्गुणों की वह प्रशंसा करता है उसी प्रकार झोंपडे़ �ें रहने वाले निकसान के सद ्गुणों की भी. श्री�ानों के शुभाग�न की कनिवता थिलखना, और बात बात पर उन्हें बधाई देना सत्कनिव का का� नहीं. हाँ द्धिजसने निनःस्वा� होकर और क& सहकर देश और स�ाज की सेवा की है, दूसरों का निहत साधन निकया है, ध�� का पालन निकया है, ऐसे परोपकारी �हात्�ा का गुण गान करना उसका कत�व्य है. कनिवता की भाषा—————. �नुष्य स्वभाव ही से प्राचीन पुरुषों और वस्तुओं को श्र:ा की दृमि& से देखता है. पुराने शब्द ह� लोगों को �ालू� ही रहते हैं. इसी से कनिवता �ें कुछ न कुछ पुराने शब्द आ ही जाते हैं. उनका ोड़ा बहुत बना रहना अच्छा भी है. वे आधुनिनक और पुरातन कनिवता के बीच सम्बन्ध सूत्र का का� देते हैं. निहन्दी �ें ‘राजते हैं’ ‘गहते हैं’ ‘लहते हैं’ ‘सरसाते हैं’ आदिद प्रयोगों का खड़ी बोली तक की कनिवता �ें बना रहना कोई अचमे्भ की बात नहीं. अँग्रेज़ी कनिवता �ें भी ऐसे शब्दों का अभाव नहीं द्धिजनका व्यवहार बहुत पुराने ज�ाने से कनिवता �ें होता आया है. ‘Main’ ‘Swain’ आदिद शब्द ऐसे ही हैं. अंग्रेज़ी कनिवता स�झने के थिलए इनसे परिरथिचत होना पड़ता है. पर ऐसे शब्द बहुत ोडे़ आने चानिहए, वे भी ऐसे जो भदे्द और गंवारू न हों. खड़ी बोली �ें संयुक्त निक्रयाए ँबहुत लंबी होती हैं, जैसे - “लाभ करते हैं,” “प्रकाश करते हैं” आदिद. कनिवता �ें इनके Tान पर “लहते हैं” “प्रकाशते हैं” कर देने से कोई हानिन नहीं, पर यह बात इस तरह के सभी शब्दों के थिलए ठीक नहीं हो सकती. कनिवता �ें कही गई बात हृत्पटल पर अमिधक Tायी होती है. अतः कनिवता �ें प्रत्यक्ष और स्वभावथिस: व्यापार-सूचक शब्दों की संख्या अमिधक रहती है. स�य बीता जाता है, कहने की अपेक्षा, स�य भागा जाता है कहना अमिधक काव्य सम्�त है. निकसी का� से हा खींचना, निकसी का रुपया खा जाना, कोई बात पी जाना, दिदन ढलना, �न �ारना, �न छूना, शोभा बरसना आदिद ऐसे ही कनिव-स�य-थिस: वाक्य हैं जो बोल-चाल �ें आ गए हैं. नीचे कुछ पद्य उदाहरण-स्वरूप दिदए जाते हैं - (क) धन्य भूमि� वन पं पहारा ।जहँ जहँ ना पाँव तु� धारा ।। -तुलसीदास(ख) �नहुँ उ�निग अंग अंग छनिव छलकै ।। -तुलसीदास, गीतावथिल(ग) चूनरिर चारु चुई सी परै चटकीली रही अंनिगया ललचावे(घ) वीथिन �ें ब्र �ें नवेथिलन �ें बेथिलन �ें बनन �ें बागन �ें बगरो बसंत है। -पद्माकर(ङ) रंग रंग रागन पै, संग ही परागन पै, वृन्दावन बागन पै बसंत बरसो परै। बहुत से ऐसे शब्द हैं द्धिजनसे एक ही का नहीं निकन्तु कई निक्रयाओं का एक ही सा बोध होता है. ऐसे शब्दों को ह� जदिटल शब्द कह सकते हैं. ऐसे शब्द वैज्ञानिनक निवषयों �ें अमिधक आते हैं. उन�ें से कुछ शब्द तो एक निवलक्षण ही अ� देते हैं और पारिरभानिषक कहलाते हैं. निवज्ञानवेत्ता को निकसी बात की सत्यता या असत्यता के निनण�य की जल्दी रहती है. इससे वह कई बातों को एक �ानकर अपना का� चलाता है, प्रत्येक का� को पृक पृक दृमि& से नहीं देखता. यही कारण है जो वह ऐसे शब्द अमिधक व्यवहार करता है द्धिजनसे कई निक्रयाओं से घदिटत एक ही भाव का अ� निनकलता है. परन्तु कनिवता प्राकृनितक व्यापारों को कल्पना द्वारा प्रत्यक्ष कराती है- �ानव-हृदय पर अंनिकत करती है. अतएव पूव�क्त प्रकार के शब्द अमिधक लाने से कनिवता के प्रसाद गुण की हानिन होती है और व्यक्त निकए गए भाव हृदय पर अच्छी तरह अंनिकत नहीं होते. बात यह है निक �ानवी कल्पना इतनी प्रशस्त नहीं निक एक दो बार �ें कई व्यापार उसके द्वारा हृदय पर स्प& रीनित से खथिचत हो सकें . यदिद कोई ऐसा शब्द प्रयोग �ें लाया गया जो कई संयुक्त व्यापारों का बोधक है तो सम्भव है,

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कल्पना शथिक्त निकसी एक व्यापार को भी न ग्रहण कर सके, अवा तदन्तग�त कोई ऐसा व्यापार प्रगट करे जो �ानवी प्रकृनित का उद्दीपक न हो. तात्पय� यह निक पारिरभानिषक शब्दों का प्रयोग, ता ऐसे शब्दों का स�ावेश जो कई संयुक्त व्यापारों की सूचना देते हैं, कनिवता �ें वांथिछत नहीं. निकसी ने ‘पे्र� फ़ौजदारी’ ना� की श्रृंगार-रस-निवथिश& एक छोटी-सी कनिवता अदालती काररवाइयों पर घटा कर थिलखी है और उसे ‘एक तरफा निडगरी’ आदिद क़ानूनी शब्दों से भर दिदया है. यह उथिचत नहीं. कनिवता का उदे्दश्य इसके निवपरीत व्यवहार से थिस: होता है. जब कोई कनिव निकसी दाश�निनक थिस:ान्त को अमिधक प्रभावोत्पादक बना कर उसे लोगों के थिचत्त पर अंनिकत करना चाहता है तब वह जदिटल और पारिरभानिषक शब्दों को निनकाल कर उसे अमिधक प्रत्यक्ष और ��� स्पश� रुप देता है. भतृ�हरिर और गोस्वा�ी तुलसीदास आदिद इस बात �ें बहुत निनपुण े. भतृ�हरिर का एक श्लोक लीद्धिजए- तृषा शुष्य्तास्ये निपबनित सथिललं स्वादु सुरत्तिभकु्षधात्त�ः संछालीन्कवलयनित शाकादिदवथिलतान्।प्रदीप्ते रागाग्रौ सुदृढ़तर�ास्थिश्ल्ष्यनित वधंूप्रतीकारो व्याधैः सुखमि�नित निवपय�स्यनित जनः।। भावा� - प्यासे होने पर स्वादिद& और सुगत्मिन्धत जल-पान, भूखे होने पर शाकादिद के सा चावलों का भोजन, और हृदय �ें अनुरागाखिग्न के प्रज्वथिलत होने पर निप्रयात्�ा का आलिल1गन करन वाले �नुष्य निवलक्षण �ूख� हैं. क्योंनिक प्यास आदिद व्यामिधयों की शान्तिन्त के थिलए जल-पान आदिद प्रतीकारों ही को वे सुख स�झते हैं. वे नहीं जानते निक उनका यह उपचार निबलकुल ही उलटा है. देखिखए, यहाँ पर कनिव ने कैसी निवलक्षण उथिक्त के द्वारा �नुष्य की सुखःदुख निवषयक बुद्धि: की भ्रामि�कता दिदखलाई है. अंग्रेज़ों �ें भी पोप कनिव इस निवषय �ें बहुत थिस:हस्त ा. नीचे उसका एक साधारण थिस:ान्त थिलखा जाता है- “भनिवष्यत् �ें क्या होने वाला है, इस बात की अनत्तिभज्ञता इसथिलए दी गई है द्धिजस�ें सब लोग, आने वाले अनिन& की शंका से, उस अनिन& घटना के पूव�वत� दिदनों के सुख को भी न खो बैठें .” इसी बात को पोप कनिव इस तरह कहता है- The lamb thyariot dooms to bleed to dayHad he thy reason would he skip and play?Pleased to the last he crops the flow’ry foodAnd licks the hand just raised to shed his blood.The blindness to the future kindly given. Essay on man. भावा� - उस भेड़ के बच्चे को, द्धिजसका तू आज रक्त बहाना चाहता है, यदिद तेरा ही सा ज्ञान होता तो क्या वह उछलता कूदता निफरता? अन्त तक वह आनन्दपूव�क चारा खाता है और उस हा को चाटता है जो उसका रक्त बहाने के थिलए उठाया गया है. … भनिवष्यत् का अज्ञान ह�ें (ईश्वर ने) बड़ी कृपा करके दिदया है. ‘अनिन&’ शब्द बहुत व्यापक और संदिदग्ध है, अतः कनिव �ृत्यु ही को सबसे अमिधक अनिन& वस्तु स�झता है. �ृत्यु की आशंका से प्रात्तिण�ात्र का निवचथिलत होना स्वाभानिवक है. कनिव दिदखलाता है निक पर� अज्ञानी पशु भी �ृत्यु थिसर पर नाचते रहते भी सुखी रहता है. यहाँ तक निक वर प्रहारकता� के हा को चाटता जाता है. यह एक अद्भतु और ���स्पश� दृश्य है. पूव�क्त थिस:ान्त को यहाँ काव्य का रूप प्राप्त हुआ है.

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 एक और साधारण सा उदाहरण लीद्धिजए. “तु�ने उससे निववाह निकया” यह एक बहुत ही साधारण वाक्य है. पर “तु�ने उसका हा पकड़ा” यह एक निवशेष अ�-गर्भिभ1त और काव्योथिचत वाक्य है. ‘निववाह’ शब्द के अन्तग�त बहुत से निवधान हैं द्धिजन सब पर कोई एक दफे़ दृमि& नहीं डाल सकता. अतः उससे कोई बात स्प& रूप से कल्पना �ें नहीं आती. इस कारण उन निवधानों �ें से सबसे प्रधान और स्वाभानिवक बात जो हा पकड़ना है उसे चुन कर कनिव अपने अ� को �नुष्य के हृत्पटल पर रेखांनिकत करता है. श्रुनित सुखदता————. कनिवता की बोली और साधारण बोली �ें बड़ा अन्तर है. “शुष्को वृक्षम्भिस्तष्ठत्यग्रे” और “नीरसतरुरिरह निवलसनित पुरतः” वाली बात ह�ारी पस्थि¢डत �¢डली �ें बहुत दिदन से चली आती है. भाव-सौन्दय� और नाद-सौन्दय� दोनों के संयोग से कनिवता की सृमि& होती है. श्रुनित-कटु �ानकर कुछ अक्षरों का परिरत्याग, वृत्त-निवधान और अन्त्यानुप्रास का बन्धन, इस नाद-सौन्दय� के निनबाहने के थिलए है. निबना इसके कनिवता करना, अवा केवल इसी को सव�स्व �ानकर कनिवता करने की कोथिशश करना, निनष्फल है. नाद-सौन्दय� के सा भाव-सौन्दय� भी होना चानिहए. निहन्दी के कुछ पुराने कनिव इसी नाद-सौन्दय� के इतना पीछे पड़ गए े निक उनकी अमिधकांश कनिवता निवकृत और प्रायः भावशून्य हो गई है. यह देखकर आजकल के कुछ स�ालोचक इतना थिचढ़ गए हैं निक ऐसी कनिवता को एकद� निनकाल बाहर करना चाहते हैं. निकसी को अन्त्यानुप्रास का बन्धन खलता है, कोई गणात्�क द्वन्द्वों को देखकर नाक भौं चढ़ाता है, कोई फ़ारसी के �ुखम्�स और रुबाई की ओर झुकता है. ह�ारी छन्दोरचना तक की कोई कोई अवहेलना करते हैं- वह छन्दो रचना द्धिजसके �ाधुय� को भू�¢डल के निकसी देश का छन्द शास्त्र नहीं पा सकता और जो ह�ारी श्रुनित-सुखदता के स्वाभानिवक पे्र� के सव�ा अनुकूल है. जो लोग अन्त्यानुप्रास की निबलकुल आवश्यकता नहीं स�झते उनसे �ुझे यही पूछना है निक अन्त्यानुप्रास ही पर इतना कोप क्यों? छन्द (Metre) और तुक (Rhyme) दोनों ही नाद-सौन्दय� के उदे्दश्य से रखे गए हैं. निफर क्यों एक को निनकाला जाए दूसरे को नहीं? यदिद कहा जाए निक थिसफ� छन्द से उस उदे्दश्य की थिसद्धि: हो जाती है तो यह जानने की इच्छा बनी रहती है निक क्या कनिवता के थिलए नाद-सौन्दय� की कोई सी�ा निनयत है. यदिद निकसी कनिवता �ें भाव-सौन्दय� के सा नाद-सौन्दय� भी वत��ान हो तो वह अमिधक ओजम्भिस्वनी और थिचरTामियनी होगी. नाद-सौन्दय� कनिवता के Tामियत्व का वध�क है, उसके बल से कनिवता गं्राश्रय-निवहीन होने पर भी निकसी न निकसी अंश �ें लोगों की द्धिजह्वा पर बनी रहती है. अतएव इस नाद-सौन्दय� को केवल बन्धन ही न स�झना चानिहए. यह कनिवता की आत्�ा नहीं तो शरीर अवश्य है. नाद-सौन्दय� संबंधी निनय�ों को गत्तिणत-निक्रया स�ान का� �ें लाने से ह�ारी कनिवता �ें कहीं-कहीं बड़ी निवलक्षणता आ गई है. श्रुनित-कटु वणq का निनद¤श इसथिलए नहीं निकया गया निक द्धिजतने अक्षर श्रवण-कटु हैं, वे एकद� त्याज्य स�झे जाए ँऔर उनकी जगह पर श्रवण-सुखद वण� ढंूढ-ढंूढ कर रखे जाए.ँ इस निनय�-निनद¤श का �तलब थिसफ� इतना ही है निक यदिद �धुराक्षर वाले शब्द मि�ल सकें और निबना तोड़ �रोड़ के प्रसंगानुसार खप सकें तो उनके Tान पर श्रुनित-कक� श अक्षर वाले शब्द न लाए जाए.ँ संस्कृत से सम्बन्ध रखने वाली भाषाओं �ें इस नाद-सौन्दय� का निनवा�ह अमिधकता से हो सकता है. अतः अंगरेज़ी आदिद अन्य भाषाओं की देखा-देखी द्धिजन�ें इसके थिलए क� जगह है, अपनी कनिवता को भी ह�ें इस निवशेषता से वंथिचत कर देना बुद्धि:�ानी का का� नहीं. पर, याद रहे, थिसफ� श्रुनित-�धुर अक्षरों के पीछे दीवाने रहना और कनिवता को अन्यान्य गुणों से भूनिषत न करना सबसे बड़ा दोष है. एक और निवशेषता ह�ारी कनिवता �ें है. वह यह है निक कहीं कहीं व्यथिक्तयों के ना�ों के Tान पर उनके रूप या काय�बोधक शब्दों का व्यवहार निकया जाता है. पद्य के नपे हुए चरणों के थिलए शब्दों की संख्या का बढ़ाना ही इसका प्रयोजन जान पड़ता है, पर निवचार करने से इसका इससे भी गुरूतर उदे्दश्य प्रगट होता है. सच पूथिछए तो यह बात कृनित्र�ता बचाने के थिलए की जाती है. �नुष्यों के ना� या� �ें कृनित्र� संकेत हैं द्धिजनसे कनिवता की परिरपोषकता नहीं होती. अतएव कनिव �नुष्यों के ना�ों के Tान पर कभी कभी उनके ऐसे रूप, गुण या व्यापार की ओर इशारा करता है जो स्वाभानिवक होने के कारण सुनने वाले के ध्यान �ें अमिधक आ सकते हैं

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और प्रसंग निवशेष के अनुकूल होने से वण�न की या�ता को बढ़ाते हैं. निगरिरधर, �ुरारिर, नित्रपुरारिर, दीनबन्धु, चक्रपात्तिण, दश�ुख आदिद शब्द ऐसे ही हैं. ऐसे शब्दों को चुनते स�य प्रसंग या अवसर का ध्यान अवश्य रखना चानिहए. जैसे, यदिद कोई �नुष्य निकसी दुघ�ष� अत्याचारी के हा से छुटकारा पाना चाहता हो तो उसके थिलए - ‘हे गोनिपकार�ण!’ ‘हे वृन्दावननिबहारी!’ आदिद कहकर कृष्ण को पुकारने की अपेक्षा ‘हे �ुरारिर!’ ‘हे कंसनिनकंदन’ आदिद सम्बोधनों से पुकारना अमिधक उपयुक्त है. क्योंनिक श्रीकृष्ण के द्वारा �ुर और कंस आदिद दु&ों को �ारा जाना देख कर उसे उनसे अपनी रक्षा की आशा हुई है न निक उनकी वृन्दावन �ें गोनिपयों के सा निवहार करना देख कर. इसी तरह निकसी आपत्तित्त से उ:ार पाने के थिलए कृष्ण को ‘�ुरलीधर’ कह कर पुकारने की अपेक्षा ‘निगरिरधर’ कहना अमिधक तक� -संगत है. अलंकार——. कनिवता �ें भाषा को खूब जोरदार बनाना पड़ता है- उसकी सब शथिक्तयों से का� लेना पड़ता है. कल्पना को चटकीली करने और रस-परिरपाक के थिलए कभी कभी निकसी वस्तु का गुण या आकार बहुत बढ़ाकर दिदखाना पड़ता है और कभी घटाकर. कल्पना-तरंग को ऊँचा करने के थिलए कभी कभी वस्तु के रूप और गुण को उसके स�ान रूप और ध�� वाली और वस्तुओं के सा�ने लाकर रखना पड़ता है. इस तरह की त्तिभन्न त्तिभन्न प्रकार की वण�न-प्रणाथिलयों का ना� अलंकार है. इनका उपयोग काव्य �ें प्रसंगानुसार निवशेष रूप से होता है. इनसे वस्तु वण�न �ें बहुत सहायता मि�लती है. कहीं कहीं तो इनके निबना कनिवता का का� ही नहीं चल सकता. निकन्तु इससे यह न स�झना चानिहए निक अलंकार ही कनिवता है. ये अलंकार बोलचाल �ें भी रोज आते रहते हैं. जैसे, लोग कहते हैं ‘द्धिजसने शालग्रा� को भून डाला उसे भंटा भूनते क्या लगता है?’ इस�ें काव्याा�पत्तित्त अलंकार है. ‘क्या ह�से बैर करके तु� यहाँ दिटक सकते हो?’ इस�ें वक्रोथिक्त है. कई वष� हुए ‘अलंकारप्रकाश’ ना�क पुस्तक के कता� का एक लेख ‘सरस्वती’ �ें निनकला ा. उसका ना� ा- ‘कनिव और काव्य’. उस�ें उन्होंने अलंकारों की प्रधानता Tानिपत करते हुए और उन्हें काव्य का सव�स्व �ानते हुए थिलखा ा निक ‘आजकल के बहुत से निवद्वानों का �त निवदेशी भाषा के प्रभाव से काव्य निवषय �ें कुछ परिरवर्तित1त देख पड़ता है. वे �हाशय सव�लोक�ान्य सानिहत्य-ग्रन्थों �ें निववेचन निकए हुए वं्यग्य-अलंकार-युक्त काव्य को उत्कृ& न स�झ केवल सृमि&-वैथिचत्र्य वण�न �ें काव्यत्व स�झते हैं. यदिद ऐसा हो तो इस�ें आश्चय� ही क्या?’ रस और भाव ही कनिवता के प्राण हैं. पुराने निवद्वान रसात्�क कनिवता ही को कनिवता कहते े. अलंकारों को वे आवश्यकतानुसार वर्भिण1त निवषय को निवशेषतया हृदयंग� करने के थिलए ही लाते े. यह नहीं स�झा जाता ा निक अलंकार के निबना कनिवता हो ही नहीं सकती. स्वयं काव्य-प्रकाश के कता� �म्�टाचाय� ने निबना अलंकार के काव्य का होना �ाना है और उदाहरण भी दिदया है- “तददौषौ शब्दा¦ सगुणावनलंकृती पुनः क्वानिप.” निकन्तु पीछे से इन अलंकारों ही �ें काव्यत्व �ान लेने से कनिवता अभ्यासगम्य और सुग� प्रतीत होने लगी. इसी से लोग उनकी ओर अमिधक पडे़. धीरे-धीरे इन अलंकारों के थिलए आग्रह होने लगा. यहाँ तक निक चन्द्रालोककार ने कह डाला निक- अंगीकरोनित यः काव्यं शब्दाा�वनलंकृती।असौ न �न्यते कस्�ादनुष्ण�नलंकृती।। अा�त् - जो अलंकार-रनिहत शब्द और अ� को काव्य �ानता है वह अखिग्न को उष्णता रनिहत क्यों नहीं �ानता? परन्तु या� बात कब तक थिछपाई जा सकती है. इतने दिदनों पीछे स�य ने अब पलटा खाया. निवचारशील लोगों पर यह बात प्रगट हो गई निक रसात्�क वाक्यों ही का ना� कनिवता है और रस ही कनिवता की आत्�ा है. इस निवषय �ें पूव�क्त गं्रकार �होदय को एक बात कहनी ी, पर उन्होंने नहीं कही. वे कह सकते े निक सृमि&-वैथिचत्र्य-वण�न भी तो स्वभावोथिक्त अलंकार है. इसका उत्तर यह है निक स्वभावोथिक्त को अलंकार �ानना उथिचत नहीं. वह अलंकारों की श्रेणी �ें आ ही नहीं सकती. वण�न करने की

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प्रणाली का ना� अलंकार है. द्धिजस वस्तु को ह� चाहें उस प्रणाली के अन्तग�त करके उसका वण�न कर सकते हैं. निकसी वस्तु-निवशेष से उसका सम्बन्ध नहीं. यह बात अलंकारों की परीक्षा से स्प& हो जाएगी. स्वभावोथिक्त �ें व¢य� वस्तु का निनद¤श है, पर वस्तु-निनवा�चन अलंकार का का� नहीं. इससे स्वभावोथिक्त को अलंकार �ानना ठीक नहीं. उसे अलंकारों �ें निगनने वालों ने बहुत थिसर खपाया है, पर उसका निनद�ष लक्षण नहीं कर सके. काव्य-प्रकाश के कारिरकाकार ने उसका लक्षण थिलखा है- स्वभावोथिक्तवस्तु निडम्भादेः स्वनिक्रयारुपवण�न�् अा�त्- द्धिजस�ें बालकादिदकों की निनज की निक्रया या रूप का वण�न हो वह स्वभावोथिक्त है. बालकादिदकों की निनज की निक्रया या रूप का वण�न हो वह स्वभावोथिक्त है. बालकादिदक कहने से निकसी वस्तुनिवशेष का बोध तो होता नहीं. इससे यही स�झा जा सकता है निक सृमि& की वस्तुओं के व्यापार और रुप का वण�न स्वभावोथिक्त है. इस लक्षण �ें अनितव्यान्तिप्त दोष के कारण अलंकारता नहीं आती. अलंकारसव�स्व के कता� राजानक रूय्यक ने इसका यह लक्षण थिलखा है- सूक्ष्�वस्तु स्वभावयावद्वण�नं स्वभावोथिक्तः। अा�त्- वस्तु के सूक्ष्� स्वभाव का ठीक-ठीक वण�न करना स्वभावोथिक्त है. आचाय� द¢डी ने अवTा की योजना करके यह लक्षण थिलखा है- नानावTं पदा�नां रुपं साक्षानिद्ववृ¢वती।स्वभावोथिक्तश्च जानितश्चेत्याद्या सालंकृनितय�ा।। बात यह है निक स्वभावोथिक्त अलंकार के अंतग�त आ ही नहीं सकती, क्योंनिक वह वण�न की शैली नहीं, निकन्तु व¢य� वस्तु या निवषय है. द्धिजस प्रकार एक कुरूपा स्त्री अलंकार धारण करने से सुन्दर नहीं हो सकती उसी प्रकार अस्वाभानिवक भदे्द और कु्षद्र भावों को अलंकार-Tापना सुन्दर और �नोहर नहीं बना सकती. �हाराज भोज ने भी अलंकार को ‘अल���लंकत्तु�ः’ अा�त् सुन्दर अ� को शोत्तिभत करने वाला ही कहा है. इस कन से अलंकार आने के पहले ही कनिवता की सुन्दरता थिस: है. अतः उसे अलंकारों �ें ढंूढना भूल है. अलंकारों से युक्त बहुत से ऐसे काव्योदाहरण दिदए जा सकते हैं द्धिजनको अलंकार के पे्र�ीलोग भी भद्दा और नीरस कहने �ें संकोच न करेंगे. इसी तरह बहुत से ऐसे उदाहरण भी दिदए जा सकते हैं द्धिजन�ें एक भी अलंकार नहीं, परंतु उनके सौन्दय� और �नोरंजकत्व को सब स्वीकार करेंगे. द्धिजन वाक्यों से �नुष्य के थिचत्त �ें रस संचार न हो - उसकी �ानथिसक स्थिTनित �ें कोई परिरवत�न न हो - वे कदानिप काव्य नहीं. अलंकारशास्त्र की कुछ बातें ऐसी हैं, जो केवल शब्द चातुरी �ात्र हैं. उसी शब्दकौशल के कारण वे थिचत्त को च�त्कृत करती हैं. उनसे रस-संचार नहीं होता. वे कान को चाहे च�त्कृत करें, पर �ानव-हृदय से उनका निवशेष सम्बन्ध नहीं. उनका च�त्कार थिशल्पकारों की कारीगरी के स�ान थिसफ� थिशल्प-प्रदश�नी �ें रखने योग्य होता है. अलंकार है क्या वस्तु? निवद्वानों ने काव्यों के सुन्दर-सुन्दर Tलों को पहले चुना. निफर उनकी वण�न शैली से सौन्दय� का कारण ढंूढा. तब वण�न-वैथिचत्र्य के अनुसार त्तिभन्न-त्तिभन्न लक्षण बनाए. जैसे ‘निवकल्प’ अलंकार को पहले पहल राजानक रुय्यक ने ही निनकाला है. अब कौन कह सकता है निक काव्यों के द्धिजतने सुन्दर-सुन्दर Tल े सब ढंूढ डाले गए, अवा जो सुन्दर स�झे गए - द्धिजन्हें लक्ष्य करने लक्षण बने- उनकी सुन्दरता का कारण कही हुई वण�न प्रणाली ही ी. अलंकारों के लक्षण बनने तक काव्यों का बनना नहीं रुका रहा. आदिद-कनिव �हर्तिष1 वाल्�ीनिक ने - “�ां निनषाद प्रनितष्ठां त्व�ग�ः शाश्वतीः स�ाः” का उच्चारण निकसी अलंकार को ध्यान �ें रखकर नहीं निकया.

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अलंकार लक्षणों के बनने से बहुत पहले कनिवता होती ी और अच्छी होती ी. अवा यों कहना चानिहए की जब से इन अलंकारों को हठात् लाने का उद्योग होने लगा तबसे कनिवता कुछ निबगड़ चली.