इटससद्धि · 2017. 9. 26. · ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ...

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  • प्रात् स्भयणीम ऩयभ ऩूज्म सॊत श्री आसायाभजी फाऩू के

    सत्सॊग-प्रवचन

    इष्टससद्धि प्रास्ताद्धवक

    इस मुग के आत्भऻानी, बक्ति औय मोग की द्धवसबन्न मात्राओॊ से गुजये हुए ऩूज्मऩाद स्वाभीजी की अनुबव सॊऩन्न वैददक वाणी को, ऋद्धषप्रसाद को साधक सुद्धवधाऩूववक ऩचा सकें औय अऩने जीवन को हय ऺेत्र भें चभका सकें इस हेतु भॊत्रानुष्ठान द्धवषमक 'इष्टससद्धि' नाभक इस ऩुस्तक का प्रकाशन हो यहा है।

    भानससक व फौद्धिक फर का द्धवकास कयके अऩना जीवन सदा-सदा के सरए शाश्वत ्सुख भें, शाश्वत शाॊतत भें, जीवन्भुक्ति के द्धवरऺण आनॊद भें सयाफोय कयने की इच्छावारे साधकों के सरए मह सॊतप्रसाद उनके कयकभरों भें सभद्धऩवत कयते हुए ससभतत कुछ अॊशों भें उऋण हो यही है।

    श्री मोग वेदान्त सेवा ससभतत ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

  • अनुक्रभ इष्टससद्धि ............................................................................................................................................. 4

    द्धववेक की जागतृत .......................................................................................................................... 4 भनुष्म की दद्रधा ............................................................................................................................ 5 शास्त्रों भें उऩासना के प्रसॊग ............................................................................................................. 6 भॊत्र् ऩायभार्थवक ऺेत्र का टेसरपोन ................................................................................................... 7 अनुष्ठान की आवश्मकता ................................................................................................................. 8 अनुष्ठान कौन कये ? ....................................................................................................................... 8 स्थान की ऩसन्दगी ........................................................................................................................ 9 आसन ........................................................................................................................................ 10 ददशा .......................................................................................................................................... 12 भारा .......................................................................................................................................... 12 जऩ की सॊख्मा ............................................................................................................................ 14 बोजन ........................................................................................................................................ 15 भौन ........................................................................................................................................... 17 ब्रह्मचमव का ऩारन ........................................................................................................................ 18 अनुष्ठान अकेरे कयो ..................................................................................................................... 19 वासना का दीमा फुझाओ ............................................................................................................... 20 शमन ......................................................................................................................................... 21 तनद्रा-तन्द्रा-भनोयाज से फचो .......................................................................................................... 21 स्वच्छता औय ऩद्धवत्रता ................................................................................................................. 23 र्चत्त के द्धवऺेऩ का तनवायण कयो ................................................................................................... 24 शक्ति का सॊयऺण कयो .................................................................................................................. 25 भॊत्र भें दृढ़ द्धवश्वास ....................................................................................................................... 26 अप्रततहत प्रऻा को जगाओ............................................................................................................ 26 इष्टशयण से अतनष्ट दयू होता है ...................................................................................................... 27

    छत्रऩतत सशवाजी की यऺा .................................................................................................................... 28 उऩासना का पर ............................................................................................................................... 29 दीऺाभात्र से भहाऩातक का नाश .......................................................................................................... 30 भसरन तत्त्वों से यऺण ........................................................................................................................ 31 अदै्रत भें सफ भतों का ऩमाववसान ......................................................................................................... 33 अखण्ड आत्भदेव की उऩासना ............................................................................................................. 34 अदै्रततनष्ठा ......................................................................................................................................... 35 आत्भ-कल्माण के सरए..... .................................................................................................................. 36 र्चन्ततनका ........................................................................................................................................ 38 ॐ स्वास््म के सरए भॊत्र ॐ .............................................................................................................. 42

  • ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

    इष्टससद्धि

    हभाये ऩास खाने को ऩमावद्ऱ अन्न, ऩहनने को वस्त्र, यहने को घय होते हुए बी हभ बीतय से दु् खी क्मों हैं? दीन क्मों है ? अशान्त क्मों हैं ? क्मोंकक हभ रोग अऩने बीतय की चतेना जगाने की तयकीफ बूर गमे हैं, अन्तय भें तनदहत आनन्दसागय से सॊऩकव खो फैठे हैं, ऩयभात्भा का अनुसॊधान कयने के सॊऩकव -सूत्र छोड़ फैठे हैं, भॊत्रजऩ एवॊ उसके द्धवर्ध-द्धवधान त्माग चकेु हैं। ददनों ददन ऩाद्ळात्म जगत के फाह्य ददखावे से प्रबाद्धवत होते जा यहे हैं। परत् जैसे वे रोग बौततक साधनों से सॊऩन्न होते हुए बी अशान्त हैं वैसे हभाया जीवन बी अशाॊतत की ओय फढ़ यहा है।

    वह बी एक ज़भाना था जफ घय-गहृस्थी भें एक आदभी कभाता था औय सौ आदभी शाॊतत से खाते थे, आनन्द से जीते थे। केवर कौऩीन ऩहनकय बी त्मागी रोग भस्ती भें यहते थे। अबी तो कोट, ऩैन्ट, शूट, फूट, टाई आदद सफ ठाठ-फाट होते हुए बी रृदम भें होरी है। हभ र्चत्त की प्रशाॊतत, आत्भ-द्धवश्राॊतत खो फैठे हैं।

    अनुक्रभ ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

    द्धववेक की जागतृत

    सौबाग्मवश जफ हभ ककसी सच्च ेसॊत-भहाऩुरुष के सान्न्नध्म भें ऩहुॉच जाते हैं, सत्सॊग भें ब्रह्मानॊद छरकानेवारी उनकी अभतृवाणी सुनते हैं, ध्मानाभतृ से सयाफोय कयने वारी उनकी तनगाहों भें अऩने जीवन की गहयाइमों को छूने रगते हैं तफ ऐसा रगता है कक बगवान हभाये कयीफ हैं। तत्त्ववेत्ता सदगुरु के कृऩा-प्रसाद को ऩाकय ऐसा भहसूस होता है कक जीवन को भहान ्फनाना कदठन नहीॊ है। हभाया खोमा हुआ खजाना कपय से ऩा रेना दषु्कय नहीॊ है। ...रेककन मह अवस्था सदा दटकती नहीॊ। र्चत्त सॊस्कायों भें कपय से फहने रगता है। कई द्धवघ्न औय फाधाएॉ हभको सताने रगती हैं।

    अनुक्रभ ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

  • भनुष्म की दद्रधा

    एक तयप र्चत्त चाहता है कक् 'भनुष्म-जन्भ दरुवब है अत् इसका सदऩुमोग कयें। दतुनमा भें ऐसा कुछ कय रें कक भेये ऩदर्चह्नों ऩय चरकय अन्म रोग बी अऩना बाग्म फना रें।' दसूयी तयप भन हभें जगत की ओय, फुद्धि का तनणवम जागततक उऩरन्धधमों की ओय तथा शयीय बोग की ओय खीॊच रे जाता है।

    ऐसे दद्रधाऩूणव जीवन भें क्मा ककमा जाम? कबी शे्रमस ्की ओय खखॊचाव होता है तो कबी प्रेमस की ओय खखॊचाव होता है। हभ न ऩूये शे्रमस ऩय चर सकते हैं न ऩूये प्रेमस ्के उऩबोिा हो सकते हैं। हभ न ऩूये सज्जन फन ऩाते हैं, न ईश्वयीम शाॉतत, र्चत्त की प्रशाॊतत, आत्भ-द्धवश्राॊतत रे ऩाते हैं, न हभें सॊसाय भें शैतान होने से ततृद्ऱ सभरती है। साधक औय बि का मह अनुबव होता है। इसके क्मा कायण हैं?

    हभ अच्छाई चाहते हैं रेककन अच्छाई के भागव ऩय ऩूये चर नहीॊ ऩाते। फुयाई से फचना चाहते हैं रेककन फुयाई से ऩूये फच नहीॊ ऩाते। हभाया हार ऐसा है कक्

    जानासभ धभं न च भे प्रवदृ्धत्त्। जानाम्मधभं न च भे तनवदृ्धत्त्। हभ धभव जानते हैं रेककन उस धभव भें हभायी प्रवदृ्धत्त नहीॊ हो यही है। हभ अधभव को जानते

    हैं रेककन उस अधभव से हभायी तनवदृ्धत्त नहीॊ हो यही है। हभ जानते हैं कक मह अच्छा नहीॊ है कपय बी उसभें पॉ से यहते हैं। हभ जानते हैं कक मह अच्छा है रेककन उसभें हभायी प्रवदृ्धत्त नहीॊ हो ऩाती।

    भानवभात्र का मह प्रद्ल है। जो अऩने को भानव भानें उन सफका मह प्रद्ल है। भनुष्म चाहता है कक् 'भैं शे्रष्ठ फन जाऊॉ ।' वह चाहता है कक् 'भैं ईश्वय के साथ खेरूॉ।' वह

    चाहता है कक् 'भैं ईश्वय के साथ एक हो जाऊॉ ।' .....औय साथ-ही-साथ उसको अऩनी कसभमाॉ बी खटकती है।

    बागवत भें एक कथा आती है। कॊ स ने श्रीकृष्ण को फुराने के सरए षड्मॊत्र यचा था। मऻ का आमोजन ककमा औय श्रीकृष्ण को रेने के सरए अकू्रयजी को बेजा।

    अकू्रयजी यास्ते भें सोचने रगे् "आहा ! श्रीकृष्ण से बेंट होगी। वे भुझ े'काका' कहकय फुरामेंगे। ककतना आनन्द ! वे घक्तड़माॉ ककतनी सुहावनी होंगी ! रेककन.... भेया नाभ तो अकू्रय है, कभव भेये कू्रय हैं। कॊ स का अन्न खाता हूॉ, उस ऩाऩी की गुराभी कयता हूॉ। भेये जैसे को श्रीकृष्ण सभरेंगे ? भुझ ेदेखकय अन्तधावन तो नहीॊ हो जामेंगे ?"

    अकू्रयजी जफ अऩने कभों की ओय देखते हैं तो उनकी दहम्भत छूट जाती है, ऩैय थयथयाते हैं। ..... औय जफ बगवान श्रीकृष्ण का सहज स्वबाव स्भयण भें आता है, ऩयभात्भा की उदायता,

  • दमारुता, स्वाबाद्धवकता, सहजता, गरयभा एवॊ आत्भ-दृद्धष्ट का द्धवचाय आता है तफ दहम्भत आ जाती है।

    ऐसा ही हभ रोगों का हार है। बगवान की ऊॉ चाई को देखते हैं, उनकी कृऩा औय करूणा को देखते हैं तो दहम्भत आ जाती है कक् 'अये ! क्मों नहीॊ होगा ब्रह्मऻान? आत्भ-साऺात्काय होना कोई कदठन थोड़ ेही है ! ऩयीक्षऺत को सात ददन भें हो सकता है, याजा जनक को घोड़ ेके यकाफ भें ऩैय डारते-डारते हो सकता है, अष्टावक्र को भाता के गबव भें हो सकता है, रीराशाह फाऩू को हो सकता है तो हभको क्मों नहीॊ होगा ?" फड़ी दहम्भत आती है। हभ ईश्वय की गरयभा औय भहाऩुरुषों के जीवन की ओय देखते हैं तो हभभें दहम्भत आ जाती है ककन्तु जफ हभ अऩनी ओय देखते हैं तो हभाये ऩैय ढीरे हो जाते हैं।

    इसका कायण क्मा है ? हभायी जो सॊबावनाएॉ हैं, हभायी जो सुषुद्ऱ चतेना है, हभभें जो सुषुद्ऱ सत्त्व है उस सत्त्व को हभने द्धवकससत नहीॊ ककमा औय यजस-्तभस ्हभभें ऩूया द्धवकससत हो यहा है। इस यजस-्तभस ्से प्रेरयत होकय जफ हभायी प्रवदृ्धत्तमाॉ होती हैं तो हभ भन से कभजोय हो जाते हैं। जो सत्त्व भें ऩहुॉच ेहैं मा सत्त्व से बी ऩाय हो गमे हैं उनके जीवन का स्भयण कयते हैं तो दहम्भत आ जाती है। हभ जऩ, उऩासना, अनुष्ठान, ध्मान, बजन कयने भें तत्ऩय हो जाते हैं।

    शे्रमद्ळ प्रेमद्ळ भनुष्मभेतस्तौ सम्ऩयीत्म द्धवद्धवनक्ति धीय्। शे्रमो दह धीयोऽसबप्रेमसो वणृीते प्रेमो भन्दो मोगऺेभाद् वणृीते।।

    'शे्रम औय प्रेम (ऩयस्ऩय सभर्श्रत होकय) भनुष्म के ऩास आते हैं। फुद्धिभान ऩुरुष मथामोग्म सोच-द्धवचाय कयके इन दोनों को अरग कयता है। द्धववेकी ऩुरुष प्रेम औय शे्रम भें से शे्रम को ग्रहण कयता है ककन्तु भूढ़ मोगऺेभ चराने के सरए प्रेम को ऩसन्द कयता है।'

    (कठोऩतनषद् – 2.2.2) इससे केवर ऩयभात्भ-प्रातद्ऱ ही होती है, ऐसी फात नहीॊ है। भॊत्रजऩ, अनुष्ठान, उऩासना

    आदद से हभ अऩना ऐदहक, ऩायभार्थवक, स्वर्गवक, ऩैतकृ कल्माण के साथ-साथ ऩुत्र-ऩौत्र का कल्माण बी कय सकते हैं।

    अनुक्रभ ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

    शास्त्रों भें उऩासना के प्रसॊग

    शास्त्रों भें आयाधना-उऩासना कयके कामव ससि कयने के कई प्रसॊग आते हैं। याजा दशयथजी ने मऻदेवता की आयाधना की। मऻदेवता प्रकट हुए, खीय का प्रसाद ददमा। उससे श्रीयाभचन्द्रजी अवतरयत हुए।

  • बगवान श्रीयाभ ने बी याभेश्वय की स्थाऩना की थी, सशवोऩासना की थी। 'ॐ नभ् सशवाम' का जऩानुष्ठान ककमा था औय फाद भें रॊका ऩय चढ़ाई की थी।

    बगवान श्रीकृष्ण की यानी जाम्फवती को ऩुत्र नहीॊ था। वे दु् खी यहती थीॊ। श्रीकृष्ण ने सूमवनायामण की आयाधना की तो जाम्फती को साम्फ नाभक फेटा प्राद्ऱ हुआ।

    बगवान द्धवष्णु बी देवार्धदेव बगवान सशव की उऩासना कयते थे। प्रततददन एक हजाय कभर चढ़ाते। सशवजी ने एक ददन उनकी ऩयीऺा कयने के सरए भामा से एक कभर छुऩा ददमा। कभर चढ़ाते सभम द्धवष्णुजी को जफ हजायवाॉ कभर नहीॊ सभरा तो उन्होंने अऩना नेत्रकभर ही तनकारकय बगवान सशव को चढ़ा ददमा। इस ऩय बोरेनाथ प्रसन्न हो गमे औय द्धवष्णुजी को सुदशवन चक्र प्रदान ककमा।

    मभयाज ने बी नभवदा के ककनाये मऻोऩासना की थी तफ वे मभऩुयी के अर्धष्ठाता फने। ध्रवु को सौतेरी भाॉ का ताना रगा, चोट ऩहुॉची औय ईश्वयोऩासना कयने चर ऩड़ा जॊगर

    की ओय। नायदजी ने भॊत्रदीऺा दी। ध्रवु ने द्रादशाऺयी भॊत्र का अनुष्ठान ककमा औय दतुनमा जानती है कक छ् भहीने भें ही उसके आगे सगुण साकाय ऩयभात्भा प्रगट हो गमे।

    अनुक्रभ ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

    भॊत्र् ऩायभार्थवक ऺेत्र का टेसरपोन

    भॊत्र ऐसा साधन है कक हभाये बीतय सोमी हुई चतेना को वह जगा देता है, हभायी भहानता को प्रकट कय देता है, हभायी सुषुद्ऱ शक्तिमों को द्धवकससत कय देता है।

    सदगुरु से प्राद्ऱ भॊत्र का ठीक प्रकाय से, द्धवर्ध एवॊ अथवसदहत, प्रेभऩूणव रृदम से जऩ ककमा जाम तो क्मा नहीॊ हो सकता? जैसे टेसरपोन के डामर ऩय नम्फय ठीक से घुभामा जाम तो द्धवश्व के ककसी बी देश के कोने भें न्स्थत व्मक्ति से फातचीत हो सकती है वैसे ही भॊत्र का ठीक से जऩ कयने से ससद्धि सभर सकती है। जफ टेसरपोन के इतने छोटे-से डामर का ठीक से उऩमोग कयके हभ द्धवश्व के ककसी बी देश के कोने भें न्स्थत व्मक्ति के साथ सम्फन्ध जोड़ सकते हैं तो बीतय के डामर का ठीक से उऩमोग कयके द्धवशे्वश्वय के साथ सम्फन्ध जोड़ रें इसभें क्मा आद्ळमव है? द्धवश्व का टेसरपोन तो कबी ‘एन्गेज’ सभरता है रेककन द्धवशे्वश्वय का टेसरपोन कबी ‘एन्गेज’ नहीॊ होता। वह सववत्र औय सदा तत्ऩय है। हाॉ... नम्फय घुभाने भें जया-सा हेय-पेय ककमा तो याॉग नम्फय रगेगा। घण्टी फजानी है कहाॉ औय फजती है कहीॊ औय । इस प्रकाय भॊत्र भें बी थोड़ा सा हेय-पेय कय दें, भनभानी चरा दें तो ऩरयणाभ ठीक से नहीॊ सभरेगा।

    आज कर धभव का प्रचाय इतना होते हुए बी भानव के जीवन भें देखा जाम तो वह तसल्री नहीॊ, वह सॊगीत नहीॊ, वह आनन्द नहीॊ जो होना चादहए। क्मा कायण है ? द्धवशे्वश्वय से

  • सॊऩकव कयने के सरए ठीक से नम्फय जोड़ना नहीॊ आता। भॊत्र का अथव नहीॊ सभझते, अनुष्ठान की द्धवर्ध नहीॊ जानते मा जानते हुए बी राऩयवाही कयते हैं तो भॊत्र ससि नहीॊ होता।

    भॊत्र जऩने कक द्धवर्ध, भॊत्र के अऺय, भॊत्र का अथव, भॊत्रानुष्ठान की द्धवर्ध हभ जान रें तो हभायी मोग्मता खखर उठती है। हभ द्धवशे्वश्वय के साथ एक हो सकते हैं। अये ! 'हभ स्वमॊ द्धवशे्वश्वय हैं....' ऐसा साऺात्काय कय सकते हैं।

    अनुक्रभ ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

    अनुष्ठान की आवश्मकता

    हभाये स्थरू शयीय को भाता-द्धऩता जन्भ देते हैं औय सच्च ेब्रह्मतनष्ठ सदगुरु, आत्भतनष्ठा भें जागे हुए भहाऩुरुष हभाये र्चन्भम वऩु को भॊत्रदीऺा के द्राया जन्भ देते हैं। जैसे एक दीऩक से दसूया दीऩक प्रकासशत हो उठता है वैसे ही दीऺा के सभम भॊत्र के साथ साधक भें, सशष्म भें चतैन्म की र्चॊगायी सदगुरु के द्राया स्थाद्धऩत होती है। भॊत्र प्राद्ऱ होने ऩय मदद उसका अनुष्ठान न ककमा जाम, द्धवर्धसदहत उसका ऩुयद्ळयण कयके भॊत्र ससि न ककमा जाम, र्चॊगायी को साधना के द्राया पूॉ क-पूॉ ककय प्रकासशत ज्मोत भें रूऩान्तरयत न की जाम तो भॊत्र से उतना राब नहीॊ होता न्जतना होना चादहए।

    श्रिा, बक्तिबाव एवॊ मथामोग्म द्धवर्ध-द्धवधान का सभन्वम कयके जफ भॊत्र के अथव को, भॊत्र के यहस्म को अन्तदेश भें आत्भसात ्ककमा जाता है तफ साधक भें चतैन्म के ददव्म आन्दोरन उठते हैं। उससे जन्भ-जन्भाॊतय के ऩाऩ-ताऩभम सॊस्काय धरुने रगते हैं। चतेना जीवन्त, ज्वरन्त व जागतृ रूऩ भें चभक उठती है। श्रिा-बाव से भॊत्र का अनुष्ठान ककमा जाता है तो ऩयभात्भ-प्रेभ व आत्भऻान के उदम की सम्बावना फढ़ जाती है।

    अनुष्ठान कई प्रकाय के होते हैं। उनभें से भॊत्रजऩानुष्ठान को केन्द्र भें यखकय कुछ फातें जानेंगे। भॊत्रानुष्ठान भें कुछ तनमभों की आवश्मकता होती है। मभ-तनमभ के सम्मक् ऩारन से आन्तय-फाह्य शुद्धि व शाॊतत फनी यहती है।

    अनुक्रभ ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

    अनुष्ठान कौन कये?

    भॊत्रानुष्ठान स्वमॊ कयना चादहए। मह सवोत्तभ कल्ऩ है। मदद श्री गुरुदेव ही कृऩा कयके अनुष्ठान कय दें तफ तो ऩूछना ही क्मा ! हभ अनुष्ठान न कय सकते हों तो ऩयोऩकायी, प्रेभी,

  • शास्त्रवेत्ता, सदाचायी ब्राह्मण के द्राया बी कयामा जा सकता है। कहीॊ-कहीॊ अऩनी धभवऩत्नी से बी अनुष्ठान कयाने की आऻा है। ऐसे प्रसॊग भें ऩत्नी को ऩुत्रवती होना चादहए। ऩत्नी बी सतत अनुष्ठान नहीॊ कय सकती। उसको भाससकधभव की सभस्मा है। भाससक धभव की अवर्ध भें अनुष्ठान कयने से अनुष्ठान खन्ण्डत हो जाता है। न्स्त्रमों को अनुष्ठान के सरए उतने ही ददन आमोन्जत कयने चादहए न्जतने ददन उनका हाथ स्वच्छ हो।

    अनुक्रभ ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

    स्थान की ऩसन्दगी

    अनुष्ठान कयने के सरए ऐसी जगह ऩसन्द कयो जहाॉ फैठकय जऩ कयने से तुम्हाया भन भॊत्रजऩ भें रग सके, भॊत्र के अथव भें तल्रीन हो सके, आऩके र्चत्त की ग्रातन सभटे औय प्रसन्नता फढे़। अनुष्ठान के सरए ऐसा स्थान ही सववशे्रष्ठ है।

    'श्रीगुरुगीता' भें तनदेश है कक् "जऩानुष्ठान के सरए सागय मा नदी के तट ऩय, तीथव भें, सशवारम भें, द्धवष्णु के मा देवी के भॊददय भें मा अन्म शुब देवारमों भें, गौशारा भें, वटवृऺ मा आॉवरे के वृऺ के नीच,े भठ भें, तुरसीवन भें, ऩद्धवत्र तनभवर स्थान भें फैठना चादहए। स्भशान भें, बफल्व, वटवृऺ मा कनकवृऺ के नीच ेऔय आम्रवृऺ के ऩास जऩ कयने से ससद्धि जल्दी होती है।"

    अनुष्ठान के सरए ऐसी जगह ऩसन्द भत कयो जहाॉ आऩ बमबीत होते यहो, प्राकृततक घटनाओॊ से द्धवक्षऺद्ऱ होते यहो, दहॊसक प्राखणमों से डयते यहो तथा जहाॉ के रोग अनुष्ठान के द्धवयोधी हों। भन भें द्धवयोर्धमों के द्धवयोध का र्चन्तन होगा, शत्र ुका र्चन्तन होगा, बम होगा तो भॊत्र भें भन रग नहीॊ ऩामेगा। जहाॉ चोय-डाकू आदद का बम हो, सऩव-बफच्छू आदद का बम हो वहाॉ अनुष्ठान नहीॊ ककमा जाता।

    इन्न्द्रमों को खीॊचकय फदहभुवख कय दे, ऐसे वातावयण भें अनुष्ठान सपर नहीॊ होता। ससनेभागहृ भें फैठकय मा अऩने घय भें टी.वी., येक्तडमो आदद चराते हुए अनुष्ठान कयने से सपरता नहीॊ सभरती।

    अन्मत्र कहीॊ न जाकय अऩने तनवास स्थान भें ही एक कभया साप-सुथया, ऩद्धवत्र फनाकय, धऩू-दीऩ, अगयफत्ती, ऩुष्ऩ-चन्दनादद से भनबावन वातावयण यचकय अनुष्ठान के सरए फैठ सकते हैं। एक ऩूया खारी कभया न हो तो घय का एकाध कोना बी चर सकता है।

    सूमव, अन्ग्न, गुरु, चन्द्रभा, दीऩक, जर, ब्राह्मण औय गौओॊ के साभने फैठकय जऩ कयना उत्तभ भाना गमा है। मह तनमभ साववबत्रक नहीॊ है। भुख्म फात मह है कक जहाॉ फैठकय जऩ कयने से र्चत्त की ग्रातन सभटे औय प्रसन्नता फढे़, वही स्थान सववशे्रष्ठ है।

  • घय भें जऩ कयने से जो पर होता है उससे दसगुना पर गौशारा भें जऩ कयने से होता है। हाॉ, उस गौशारा भें गामों के साथ फैर नहीॊ होना चादहए। मदद वहाॉ फैर होगा तो उनभें एक-दसूये के चमु्फकत्व से 'वामब्रेशन' गन्दे होते हैं।

    जॊगर भें जऩ कयने से घय की अऩेऺा सौ गुना पर होता है। ताराफ मा सयोवय के ककनाये हजायगुना पर होता है, नदी मा सागय के तीय, ऩववत मा सशवारम भें राखगुना पर होता है। जहाॉ ऻान का सागय रहयामा हो, ऻान की चचाव हुई हो, जहाॉ ऩहरे कोई ऻानी हो गमे हों ऐसे कोई तीथव भें अनुष्ठान कयना इन सफसे शे्रष्ठ है। मदद सदगुरु के ऩावन सान्न्नध्म भें, जीद्धवत ब्रह्मऻानी भहाऩुरुष के भागवदशवन भें अनुष्ठान कयने का सौबाग्म सभर जाम तो अनन्तगुना पर होता है।

    अनुक्रभ ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

    आसन

    (1) ध्मान, जऩ आदद साधना के सरए मथोर्चत आसन होना अतत आवश्मक है। जऩ कयने से हभाये शयीय भें द्धवद्युतशक्ति ऩैदा होती है। आध्मान्त्भक उत्थान भें मह शक्ति फड़ी भहत्त्वऩूणव है। न्जसके शयीय भें द्धवद्युतशक्ति द्धवऩुर प्रभाण भें होती है, साहस, दहम्भत औय तनयोगता उसका स्वबाव फन जाता है। न्जसके शयीय भें मह द्धवद्युतशक्ति कभ होती है उसको योग घेय रेते हैं।

    बफना आसन के फैठकय जऩ कयने से शयीय भें उत्ऩन्न होने वारी द्धवद्युतशक्ति को बूसभ खीॊच रेती है। अत् इस द्धवद्युतशक्ति के सयॊऺण के सरए जऩ के सभम आसन ऩय फैठना चादहए। आसन को द्धवद्युत का अवाहक (Non-conductor) होना जरूयी है न्जससे द्धवद्युत उससे ऩाय गुजय न सके। गयभ आसन हो, भोड़ा हुआ कम्फर हो तो अच्छा है। गद्दी ऩय सादे टाट मा प्रान्स्टक का टुकड़ा बी चर सकता है।

    बूसभ ऩय नॊगे ऩैय चरने से बी शयीय की द्धवद्युतशक्ति बूसभ द्राया खखॊच जाती है। अत् साधनाकार भें ऐसा वैऻातनक असबगभ अऩना कय अऩनी शक्ति का सॊयऺण एव सॊवधवन कयना चादहए। मह वैऻातनक दृद्धष्टबफन्द ु'श्रीगुरुगीता' भें बी देखा जाता है। बगवान शॊकय कहते हैं-

    "बफना आसन ककमे हुए जऩ नीच कभव हो जाता है, तनष्पर हो जाता है।" कौन-से आसन का क्मा प्रबाव होता है, ककस हेतु कैसा आसन उऩमुि है इत्मादद का वणवन कयते हुए आगे कहते हैं-

    "कऩड़ ेके आसन ऩय फैठ कय जऩ कयने से दरयद्रता आती है, ऩत्थय के आसन ऩय योग, बूसभ ऩय फैठकय जऩ कयने से दु् ख आता है औय रकड़ी के आसन ऩय ककमे हुए जऩ तनष्पर होते हैं। कुश औय दवुाव के आसन ऩय सपेद कम्फर बफछाकय उसके ऊऩय फैठकय जऩ कयना

  • चादहए। कारे भगृचभव औय दबावसन ऩय फैठकय जऩ कयने से ऻानससद्धि होती है। व्माघ्रचभव ऩय फैठकय जऩ कयने से भुक्ति प्राद्ऱ होती है ऩयन्तु कम्फर के आसन ऩय सवव ससद्धि प्राद्ऱ होती है।"

    दसूये के आसन ऩय फैठकय जऩ कयने से बी जऩ परदामी नहीॊ होते। साधना के सरए अऩना तनजी आसन अरग यखें। उसे अन्म रोगों के उऩमोग भें न रगाएॉ। अऩना आसन, अऩनी भारा, अऩना गुरुभॊत्र सुयक्षऺत यखना चादहए।

    ससय ऩय कऩड़ा यखकय ककमे हुए जऩ परते नहीॊ। (2) अनुष्ठान भें रम्फे सभम तक न्स्थयता एवॊ एकाग्रता से फैठने के सरए ऩद्मासन,

    अधवऩद्मासन, ससिासन, स्वन्स्तकासन का अभ्मास हो तो अच्छा है। ककसी आसन का अभ्मास न हो तो सुखासन भें ही स्वस्थ, सीधे होकय फैठें । खास ध्मान दें कक साभान्मतमा फैठते वि औय द्धवशषेकय अनुष्ठान के वि यीढ़ की हड्डी बफल्कुर सीधी यहे।

    हभायी जीवनशक्ति, चतेनाशक्ति फीज रूऩ से नीच ेके केन्द्र भें, भूराधाय चक्र भें सुषुद्ऱ ऩड़ी है। जऩ के द्राया वह जागतृ होती है। जफ वह जागतृ होकय ऊऩय उठती है तबी काभ देती है। जऩ के द्राया इसको जगाना है, द्धवकससत कयना है, सदगुरु के आदेशानुसाय, बरी प्रकाय सभझकय मथाथवयीतत से प्रेभ-आदयऩूववक जऩ कयने से जीवनशक्ति जागतृ होती है। उस जगी हुई शक्ति को ऊऩय की ओय उठने के सरए यीढ़ की हड्डी सीधी होना तनतान्त आवश्मक है।

    स्कूर भें बी सशऺक फच्चों को ऩढ़ाते वि आगे झुककय फूढ़ों की तयह फैठते हैं उन्हें अऩना ऩाठ माद कभ यहता है। वे ऩढ़ाई भें कच्च ेयहते हैं औय आगे चरकय जीवन भें बी दफुवर यहते हैं। उनभें साहस, दहम्भत, उत्साह का द्धवकास नहीॊ होता।

    दहटरय जफ ककसी देश ऩय आक्रभण कयता तफ ऩहरे अऩने आदभी बेजकय जाॉच कयवाता कक उस देश के रोग यीढ़ की हड्डी सीधी यखकय चरते-फैठते हैं कक कभय झुकाकय। देश के जवान फूढ़ों की तयह चरत-ेफैठते हैं कक फूढे़ बी जवान की तयह चरते-फैठते हैं। न्जस देश के रोग यीढ़ की हड्डी सीधी कयके चरते-फैठते भारूभ ऩड़ते वहाॉ दहटरय सभझ जाता कक इस देश ऩय द्धवजम ऩाना कदठन है। जो रोग यीढ़ की हड्डी सीधी कयके चरते-फैठते हैं वे उत्साही होते हैं। उनकी जीवन-ऊजाव ठीक से काभ देती है। जो रोग ससकुड़कय फैठते हैं औय झुककय चरते हैं वे रोग न्जन्दे ही भुदे हैं। उनको हयाने भें देय नहीॊ रगती।

    जो रोग दीवाय का सहाया रेकय जऩ कयने फैठते हैं उनको दीवाय अऩने जैसा जड़ फना देती है। अत् अऩनी जीवनशक्ति का ठीक से द्धवकास हो सके इसके सरए जऩ के सभम दीवाय का सहाया छोड़कय सीधे होकय फैठें ।

    अनुक्रभ ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

  • ददशा

    साभान्मतमा ऩूवव मा उत्तय ददशा की ओय भुख कयके जऩ कयना चादहए। कपय बी अरग-अरग हेतुओॊ के सरए अरग-अरग ददशा की ओय भुख कयके जऩ कयने का द्धवधान है।

    'श्रीगुरुगीता' भें आता है कक् "उत्तय ददशा की ओय भुख कयके फैठकय जऩ कयने से शाॊतत, ऩूवव ददशा की ओय वशीकयण, दक्षऺण ददशा की ओय भायण ससि होता है तथा ऩन्द्ळभ ददशा की ओय भुख कयके जऩ कयने से धन की प्रातद्ऱ होती है।

    अन्ग्न कोण की तयप भुख कयके जऩ कयने से आकषवण, वामव्म कोण की तयप शत्रओुॊ का नाश, नैऋत्म कोण की तयप दशवन औय ईशान कोण की तयप भुख कयके जऩ कयने से ऻान की प्रातद्ऱ होती है।"

    अनुक्रभ ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

    भारा

    साधकों के सरए भारा फड़ा भहत्त्वऩूणव साधन है। भॊत्रजाऩ भें भारा फड़ी सहामक होती है। इससरए सभझदाय साधक अऩनी भारा को प्राण जैसी द्धप्रम सभझते हैं औय गुद्ऱ धन की बाॉतत उसकी सुयऺा कयते हैं। जऩभारा की प्राण-प्रततष्ठा ऩीऩर के ऩते्त ऩय यखकय उसकी ऩूजा इस भॊत्र के साथ कयें-

    त्वॊ भारे सववदेवानाॊ प्रीततदा शुबदा बव। सशवॊ कुरुष्व भ ेबदे्र मशो वीमं च सववदा।।

    अथावत ्'हे भारा ! तू सवव देवों की प्रीतत औय शुब पर देने वारी है। भुझ ेतू मश औय फर दे तथा सववदा भेया कल्माण कय।' इससे भारा भें वदृ्धत्त जागतृ हो जाती है औय उसभें ऩयभात्भ-चतेना का आबास आ जाता है। भारा को कऩड़ ेसे ढॉके बफना मा गौभुखी भें यखे बफना जो जऩ ककमे जाते हैं वे परते नहीॊ।

    अनुष्ठान के ददनों भें हययोज के जऩ की सॊख्मा तनन्द्ळत होनी आवश्मक है। मह सॊख्मा ऩूणव कयने के सरए, अनुष्ठान भें उत्साह एवॊ रगन जायी यखने के सरए, प्रभाद फचने के सरए भारा फड़ी सहामक होती है। जऩ कयते-कयते भन अन्मत्र चरा जामेगा मा तॊद्रा घेय रेगी तो भारा रुक जामेगी। मदद भारा चरती यही तो जीब बी चरती यहेगी औय बटकते भन को थोड़ी देय भें वाऩस खीॊच रामेगी। जीब औय भारा दोनों घूभती यहीॊ तो फाहय घूभने वारा भन थोड़ी ही देय भें अऩने उस न्स्थय अॊश के ऩास रौट आमेगा जो भून्च्छवत रूऩ से जीब औय भारा को चराने भें

  • कायणरूऩ था। भारा औय जीब को चराने भें जो श्रिा औय द्धवश्वास की शक्ति काभ कय यही है वह शक्ति एक ददन अवश्म व्मि हो जामेगी, जागतृ हो जामेगी।

    भारा इतना भहत्त्वऩूणव कामव कयती है तफ आदयऩूववक उसका द्धवचाय न कयके मों ही साधायण-सी वस्तु सभझ रेना, केवर र्गनने की एक तयकीफ भात्र सभझकय एक साभान्म वस्तु की तयह अशुि अवस्था भें बी साथ यखना, फामें हाथ से भारा घुभाना, रोगों को ददखाते कपयना, ऩैय तक रटकामे यखना, जहाॉ कहीॊ यख देना मे फातें सभझदायी औय श्रिा की कभी से होती हैं।

    भाराएॉ तीन प्रकाय की होती हैं- कयभारा, वणवभारा औय भखणभारा। अॉगुसरमों ऩय र्गनकय जो जाऩ ककमा जाता है वह कयभारा जाऩ है। वणवभारा का अथव है अऺयों के द्राया जऩ की सॊख्मा र्गनना। भखणभारा भाने भनका द्धऩयोकय जो भारा फनामी जाती है उसे भखणभारा कहते हैं।

    अनुष्ठान भें इस भखणभारा का ही उऩमोग कयना दहतकय एवॊ सयर है। मह भारा अनेक चीजों की फनती है, जैसे रुद्राऺ, तुरसी, शॊख, ऩद्मफीज, भोती, स्पदटक, भखण, यत्न, सुवणव, चाॉदी, चन्दन, कुशभूर आदद। सूत औय ऊन से फनी हुई भारा बी काभ भें आती है।

    सफ प्रकाय के जऩ भें 108 दानों की भारा काभ आती है। एक चीज की भारा भें दसूयी चीज का भनका नहीॊ आना चादहए। भारा के सफ भनके

    एक जैसे होने चादहए, छोटे-फड़ ेएवॊ खन्ण्डत नहीॊ होने चादहए। सफ भाराओॊ भें वैष्णवों के सरए तुरसी की भारा औय स्भातव, शाि आदद के सरए रुद्राऺ

    की भारा सवोत्तभ भानी गमी है। ब्राह्मण कन्माओॊ के द्राया तनसभवत सूत से भारा फनामी जाम तो वह बी अतत उत्तभ है।

    शाॊततकभव भें शे्वत, वशीकयण भें रार, असबचाय भें कारी औय भोऺ तथा ऐश्वमव के सरए येशभी सूत की भारा द्धवशषे उऩमुि है।

    भारा घुभाते वि तजवनी (अॉगूठे का ऩास वारी) अॉगुरी भारा को नहीॊ रगनी चादहए। सुभेरु का उल्रॊघन नहीॊ कयना चादहए। भारा घुभाते-घुभाते जफ सुभेरु आमे तफ भारा को उरटकय दसूयी ओय घुभाना प्रायॊब कयना चादहए।

    ध्मान यहे कक भारा शयीय के अशुि भाने जाने वारे अॊगों का स्ऩशव न कये। नासब के नीच ेका ऩूया शयीय अशुि भाना जाता है अत् भारा घुभाते वि भारा नासब से नीच ेनहीॊ रटकनी चादहए एवॊ बूसभ का स्ऩशव बी नहीॊ होना चादहए।

    भारा को स्वच्छ कऩड़ ेसे ढॉककय घुभाओ। गौभुखी भें भारा यखकय घुभाते हुए जऩ ककमा जाम तो उत्तभ है।

    अनुक्रभ ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

  • जऩ की सॊख्मा

    अऩने इष्टदेव मा गुरुभॊत्र भें न्जतने अऺय हों उतने राख भॊत्रजऩ कयने से उस भॊत्र का अनुष्ठान ऩूया होता है। भॊत्रजऩ हो जाने के फाद उसकी दशाॊश सॊख्मा भें हवन कयना होता है। हवन भें हय भॊत्रोच्चाय के साथ अन्ग्न भें आहुतत देना होता है। हवन का दशाॊश तऩवण, तऩवण का दशाॊश भाजवन औय भाजवन का दशाॊश ब्रह्मबोजन कयाना होता है।

    भान रो हभाया भॊत्र एक अऺय का है तो हभें अनुष्ठान कयने के सरए एक राख जऩ कयना चादहए, दस हजाय हवन, एक हजाय तऩवण, सौ भाजवन औय दस की सॊख्मा भें ब्रह्मबोजन कयाना चादहए।

    मदद हवन, तऩवण, ब्रह्मबोजनादद कयाने का साभ्मव न हो, अनुकूरता न हो, आर्थवक न्स्थतत कभजोय हो तो हवन, तऩवण, भाजवन, ब्रह्मबोजन के फदरे उतनी सॊख्मा भें अर्धक जऩ कयने से बी काभ चर जाता है। इसका भतरफ मह नहीॊ है कक आर्थवक सुद्धवधा होते हुए बी अनुष्ठान दरयद्रों की नाईं ऩूया कयें।

    मदद एक अऺय का भॊत्र है तो 10000+10000+1000+100+10=111110 भॊत्रजाऩ कयने से सफ द्धवर्धमाॉ ऩूयी भानी जाती हैं। आऩके भॊत्र भें न्जतने अऺय हों उनकी सॊख्मा से 111110 का गुणा कयो तो आऩके अनुष्ठान की जऩसॊख्मा सभरेगी।

    अनुष्ठान के प्रायॊब भें ही हययोज की जऩसॊख्मा का तनधावयण कय रो। कुर ककतनी सॊख्मा भें जऩ कयने हैं औय मह सॊख्मा ककतने ददनों भें ऩूयी कयनी है, इसका दहसाफ रगाकय एक ददन के जऩ की सॊख्मा तनकारो। ककतनी भाराएॉ कयने से वह सॊख्मा ऩूयी होगी, मह देख रो। कपय हययोज उतनी भाराएॉ कयो। एक ददन भें बी सुफह, दोऩहय, शाभ, याबत्र की जऩसॊख्मा तनन्द्ळत कय दी जाम तो अच्छा है।

    हययोज सभान सॊख्मा भें जऩ कयो। एक ददन 120 भाराएॉ की, दसूये ददन 140 कीॊ, तीसये ददन 130 कीॊ, चौथे ददन 110 कीॊ.... ऐसे नहीॊ। अनुष्ठान के सफ ददनों की जऩसॊख्मा एक सभान होनी जरूयी है। हाॉ, मह द्धवधान केवर आसन ऩय फैठकय न्जतनी भारा कयते हो, उसकी सॊख्मा के फाये भें ही है। चरते-कपयते, उठते-फैठते, खाते-ऩीते, श्वास के साथ मदद तुभ भानससक जऩ कयते हो, बफना भारा के, तो उसकी कोई र्गनती यखने की आवश्मकता नहीॊ है। इस प्रकाय के भानससक जऩ भें तो मही कहा जा सकता है् अर्धकस्म अर्धकॊ परभ।् जऩ न्जतना अर्धक हो सके उतना अच्छा है। स्तोत्रऩाठ भानससक ककमा जाम तो उसका पर नहीॊ होता औय अनुष्ठान भें भॊत्रजाऩ र्चल्रा-र्चल्रा कय ककमा जाम तो उसका बी पर नहीॊ होता।

  • जऩ भें न फहुत जल्दफाजी कयनी चादहए औय न फहुत द्धवरम्फ। गाकय जऩना, ससय दहराना, सरखा हुआ ऩढ़ना, भॊत्र का अथव न जानना औय फीच-फीच भें बूर जाना-मे सफ भॊत्रससद्धि के अवयोधक हैं।

    जऩ के सभम मह र्चन्तन कक इष्टदेवता, भॊत्र औय गुरुदेव एक ही हैं। अनुक्रभ

    ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

    बोजन

    अनुष्ठान के ददनों भें बोजन बफल्कुर सादा, सान्त्त्वक, हल्का औय ऩुद्धष्टकय होना जरूयी है। ऩेट बायी हो जाम उतना अर्धक एवॊ द्धवशषे र्चकना-चऩुड़ा अथवा गरयष्ठ बोजन नहीॊ कयें। बोजन उतना कभ बी नहीॊ कयें, बुखभयी नहीॊ कयें कक न्जससे जऩ के कायण ददभाग चकयाने रगे, ससय भें खशु्की चढ़ जामे। कधज कयने वारा, ताभससक, याजससक एवॊ अबक्ष्म बोजन वज्मव है। अण्ड-ेभछरी की फात तो दयू यही, रहसुन, प्माज, चकुन्दय आदद चीजें बी अनुष्ठान के ददनों भें नहीॊ खामी जाती है। प्माज, रहसुन तथा तरी हुई एवॊ देय से ऩचने वारी चीजें साधना भें हातनकायक हैं। इनसे र्चत्त की शाॊतत औय प्रसन्नता बॊग होती है।

    फासी बोजन बी नहीॊ कयना चादहए। बोजन फना है सुफह आठ फजे औय आऩ खा यहे हैं दोऩहय एक फजे तो मह बोजन ताभसी हो गमा। बोजन फनने के फाद तीन घण्टे के बीतय-ही-बीतय खा रेना चादहए। जो रोग दो-चाय ददन का बोजन फनाकय किज भें यखते हैं औय फासी कयके खाते हैं उनके जीवन भें देखो तो खफू फेचनैी औय अशाॊतत यहती है। प्रचयु भात्रा भें बोग्म ऩदाथव हैं रेककन शाॊतत नहीॊ है। द्धवदेशों भें मही हारत है। शाॊतत ऩाने की मुक्ति ('टेकतनक') को वे रोग जानते नहीॊ। मॊत्र की 'टेकतनक' को वे खूफ जानते हैं रेककन भॊत्र औय शाॊतत की 'टेकतनक' को वे फेचाये नहीॊ जानते।

    बोजन एवॊ अन्न भें कई प्रकाय के दोष होते हैं। अन्न का सफसे फड़ा दोष है उसका न्मामोऩान्जवत न होना। जो रोग चोयी, डकैती, फेईभानी, अन्माम आदद कयके आजीद्धवका चराते हैं, योटी कभाते हैं उनके भूर भें ही अशुि बावना है, इससरए वह बोजन सववथा ददू्धषत यहता है। जैसा अन्न वैसा भन। ऐसे ददू्धषत बोजन से शुि र्चत्त का तनभावण होना असॊबव है।

    अऩनी कभाई के बोजन भें मदद दसूयों को र्चत्त कष्ट ऩाता हो तो ऐसे बोजन से र्चत्त का प्रसाद नहीॊ सभरेगा। ऩेट बय बोजन न सभरने ऩय न्जस गौ का फछड़ा तड़ऩता हो, गौ की आॉखों से आॉसू र्गय यहे हो, उस गाम का दधू चाहे न्मामोऩान्जवत हो तो बी र्चत्त को शुि एवॊ प्रसन्न कयने के सरए उऩमोगी नहीॊ होगा। न्जस बोजन को ग्रहण कयने से ककसी का हक भाया जाता हो, ककसी को कष्ट होता हो तो उस बोजन से खखन्नता उऩजती है।

  • ककसी आदभी ने ददू्धषत कभव से, अन्माम से, धोखा-धड़ी से कभामा औय कुछ ऩदाथव हभें खाने को दे गमा। वह ऩदाथव खाकय अगय हभ बजन कयेंगे तो मह तनसभत्त अच्छा नहीॊ है।

    बफना ऩरयश्रभ के सभरा हुआ बोजन बी ठीक नहीॊ है। साधतुा, सॊन्मास मा साधना बफना का आदभी मदद बफना ऩरयश्रभ का बोजन खामेगा तो उसका तेज कभ होने रगेगा। साधक है तो साधना का ऩरयश्रभ कय रे, ब्रह्मचायी है तो अऩने ब्रह्मचमव-व्रत भें अक्तडग यह रे तो उसके सरए बफना ऩरयश्रभ के बोजन, बफना नौकयी-धॊधे के बोजन भें कोई हजव नहीॊ है। रेककन जो न सॊन्मासी है, न ब्रह्मचायी है, न साधना कयता है औय दसूये का उऩान्जवत बोजन खा रेता है वह तेजोहीन हो जाता है। उसभें तभोगुण की वदृ्धि हो जाती है। वह प्रभादी औय आरसी फन जाता है। उसके र्चत्त का भर दयू होना कदठन है।

    बोजन भें तीन प्रकाय के दोष होते हैं- जाततदोष, तनसभत्तदोष औय आश्रमदोष। साधक को इन तीनों प्रकाय के दोषोंवारे बोजन से फचना चादहए।

    बोजन स्वबाव से ही ददू्धषत हो मह बोजन का जाततदोष है। जैसे, भाॊस, भछरी, अण्डा, रहसुन, प्माज आदद। दसूया है तनसभत्तदोष। हभने ऩरयश्रभ ककमा है, नौकयी धॊधा ककमा है, अनाज रामे हैं, घय भें फना यहे हैं, चीजें बी सान्त्त्वक हैं, ताभसी नहीॊ है रेककन फनानेवारी देवी का हाथ शुि नहीॊ है अथवा फेटी का हाथ शुि नहीॊ है, वह भाससक धभव भें आ गमी है औय उसकी नजय बोजन ऩय ऩड़ी है तो वह बोजन हभें शाॊतत ऩाने भें भदद नहीॊ कयेगा, अशाॊत होने भें भदद कयेगा। बोजन को कौआ, कुत्ता, बफल्री छू जाम तो बी बोजन अऩद्धवत्र हो जाता है। मह बोजन का तनसभत्तदोष है।

    बोजन का कौआ, कुत्ता, बफल्री ने छूआ नहीॊ, भाससकधभववारी ने फनामा नहीॊ, बोजन हभाये ऩरयश्रभ का है, स्वउऩान्जवत है, सान्त्त्वक है, ताभससक नहीॊ है रेककन हभने बोजन फनामा है स्भशान भें जाकय तो मह बोजन अऩद्धवत्र है। बोजन का आश्रम अशुि है। गन्दे एवॊ अऩद्धवत्र स्थान के कायण बोजन अशुि हो जाता है। शुि दधू बी शयाफखाने भें यख ददमा जाम तो वह अशुि हो जाता है। मह बोजन का आश्रमदोष है। इससरए ऩहरे के जभाने भें औय कहीॊ रीऩा-ऩोती आदद कये न कये रेककन यसोईघय भें तो ऩहरे ही ककमा जाता था। जगह ऩद्धवत्र कयके ही बोजन फनामा जाता था। इन फातों ऩय आऩ थोड़ा गौय से अभर कयें तो कुछ ही ददनों भें भॊत्र के चभत्काय को आऩ देख सकें गे।

    बोजन के यस से ही शयीय, प्राण औय भन का तनभावण होता है। जो अशुि बोजन कयते हैं उनके शयीय भें योग, प्राणों भें ऺोब औय र्चत्त भें ग्रातन की वदृ्धि होती है। खखन्न र्चत्त भें भॊत्रदेवता के प्रसाद का प्रादबुावव नहीॊ होता।

    अनुक्रभ ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

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  • भौन

    जफ अनुष्ठान चरता हो तो उन ददनों भें बफल्कुर सभतबाषी होना जरूयी है। तीन शधद फोरने से काभ चर जाता हो तो चाय शधद नहीॊ फोरें औय हो सके तो बफल्कुर ही भौनव्रत रे रें।

    भुतनवय भौनी के दो प्रकाय फताते हैं- काष्ठभौनी औय जीवन्भुि। ऩयभात्भा की बावना से यदहत शुष्क कक्रमा भें फितनद्ळम औय हठ से सफ इन्न्द्रमों को वश भें कयके यहने वारे भुतन को काष्ठभौनी कहा जाता है। इस द्धवनाशशीर सॊसाय के स्वरूऩ को मथाथव रूऩ भें जानकय जो इस द्धवशुिात्भा व ऩयभात्भा भें न्स्थत ऻानी भहात्भा रौककक व्मवहाय कयते हुए बी अन्दय द्धवऻानानन्दघन ऩयभात्भा भें तदृ्ऱ यहते हैं उनको जीवन्भुि कहा जाता है।

    भौन के यहस्म को जाननेवारे भुतन भौन के चाय प्रकाय फताते हैं- (1) वार्चक भौन (2) इन्न्द्रम भौन (3) काष्ठ भौन (4) सुषुद्ऱ भौन। वार्चक भौन का अथव होता है वाणी का तनयोध। इन्न्द्रम भौन का अथव है हठऩूववक द्धवषमों

    से इन्न्द्रमों का तनग्रह कयना। काष्ठ भौन का अथव है सम्ऩूणव चषे्टाओॊ का त्माग। ऩयभात्भा के स्वरूऩानुबव भें जो जीवन्भुि तनयन्तय तनभग्न यहते हैं उनके भौन को सुषुद्ऱ भौन कहा जाता है।

    काष्ठ भौन भें वार्चक औय इन्न्द्रम भौन अॊतबूवत है । सुषुद्ऱ भौनावस्था भें जो तुयीमावस्था है वही जीवन्भुिों की न्स्थतत है। प्रथभ तीन प्रकाय के भौन प्रस्पुरयत हो यहे र्चत्त की अवस्था के हैं, बिों एवॊ साधकों की साधनावस्था के हैं जफकक चौथा जो सुषुद्ऱ भौन है वह जीवन्भुिों कक ससि अवस्था का है। इस भौन भें ऩहुॉच ेहुए ससि ऩुरुष का ऩुनजवन्भ नहीॊ होता।

    सुषुद्ऱ भौन भें सम्ऩूणव इन्न्द्रमवदृ्धत्तमाॉ अनुकूरता भें हद्धषवत नहीॊ होती औय प्रततकूरता भें घणृा नहीॊ कयतीॊ। द्धवबागयदहत, अभ्मासयदहत औय आदद-अॊत से यदहत तथा ध्मान कयते हुए मा नहीॊ कयते हुए, सफ अवस्थाओॊ भें सभबाव की न्स्थतत हो, मही सुषुद्ऱ भौन है। अनेक प्रकाय के द्धवभ्रभमुि सॊसाय के औय ऩयभात्भा के तत्त्व को मथाथव रूऩ से जानने ऩय जो सॊदेहयदहत न्स्थतत फनती है वही सुषुद्ऱ भौन है। 'जो सववशून्म, अवरॊफनयदहत, शाॊततस्वरूऩ, सवावत्भक तथा सत्ता साभान्मरूऩ ऩयभात्भा है वह भैं ही हूॉ....' इस प्रकाय की ऻानावस्था को सुषुद्ऱ भौन कहा जाता है।

    जाग्रतावस्था भें सववथा मथामोग्म व्मवहाय कयते हुए अथवा तभाभ व्मवहाय छोड़कय सभार्ध भें न्स्थत जीवन्भुि देहमुि होते हुए बी सम्ऩूणव तनभवर शाॊतवदृ्धत्त से मुि तुयीमावस्था भें न्स्थत द्धवदेहस्वरूऩ ही हैं।

    मह ऻानवानों का तनत्म भौन है। इसको ‘वेदान्ती भौन’ कह सकते हैं। आत्भस्वरूऩ भें, ब्रह्मस्वरूऩ भें जागे हुए फोधवान ्ऻानी ऩुरुष खाते-ऩीते, उठते-फैठते, चरते-कपयते सफ कुछ कयते हुए बी बरी प्रकाय से सभझते हैं कक् 'फोरा जाता है वाणी से, सरमा-ददमा जाता है हाथ से,

  • चरा जाता है ऩैय से, सॊकल्ऩ होते हैं भन से, तनणवम होते हैं फुद्धि से। भैं इन सफको देखनेवारा, अचर, कूटस्थ, साऺी हूॉ। भैंने कबी कुछ ककमा ही नहीॊ।'

    ऻानी फोरते हुए बी नहीॊ फोरत,े रेते हुए बी नहीॊ रेत,े देते हुए बी नहीॊ देते। बगवान श्रीकृष्ण का आजीवन भौन था, दवुावसा का भौन था, कफीय का भौन था, याभतीथव औय यभण भहद्धषव का भौन था। इन भहाऩुरुषों ने ठीक से जान सरमा था कक हभ शयीय, प्राण, वाणी, इन्न्द्रमाॉ, भन, फुद्धि, र्चत्त, अहॊकाय आदद से ऩथृक आत्भा हैं। ऐसे ऻानवान ऩुरुष सफ कुछ कयते हुए बी अऩने आऩ भें सभादहत होते हैं। मही ऩयभ भौन है।

    हभ जफ तक ऩयभ भौन की प्रातद्ऱ न कय रें तफ तक वार्चक भौन यखें, ऐन्न्द्रम भौन यखें, काष्ठ भौन यखें। इससे फड़ा राब होता है। वाणी-व्माऩाय द्राया हभायी शक्ति का जो अऩव्मम होता है वह अनुष्ठान के सभम भौन यखने से रुक जामेगा औय अनुष्ठान सुपरदामी फनेगा।

    अनुक्रभ ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

    ब्रह्मचमव का ऩारन

    स्त्री-सॊसगव, उनकी चचाव तथा जहाॉ वे यहती हों वह स्थान छोड़ देना चादहए। ऋतुकार के अततरयि अऩनी स्त्री का बी स्ऩशव कयना तनद्धषि है। स्त्री सार्धकाओॊ के सरए ऩुरुषों के सम्फन्ध भें बी मही फातें सभझनी चादहए। अनुष्ठान के ददनों भें दृढ़ता से ब्रह्मचमव का ऩारन कयना अतत आवश्मक है। शयीयरूऩी वृऺ को हया-बया यखनेवारा यस वीमव है। जीवन भें जो कुछ ओज-तेज, दहम्भत, साहस, ऩयाक्रभ आदद शे्रष्ठ गुण ददखाई देते हैं वे सफ इस वीमवधायण का ही ऩरयणाभ है। ठीक ही कहा है कक्

    भयणॊ बफन्दऩुातेन जीवनॊ बफन्दधुायणात।् वीमवधायण होना जीवन है औय वीमवऩात होना भतृ्मु है। अनुष्ठान कयके न्जस जीवनशक्ति

    को जगाकय उसको बरी प्रकाय द्धवकससत कयके अऩने आदशव को ससि कयना है उसी शक्ति को ब्रह्मचमव के बॊग भें नष्ट कय देना तो फेवकूपी है। ब्रह्मचमव के दृढ़ ऩारन के बफना अनुष्ठान का ऩूया राब नहीॊ उठा ऩामेंगे।

    ब्रह्मचमव-व्रत शयीय को साधना के सुमोग्म फनाता है। तन साथ नहीॊ देगा तो भन बी ठीक से जऩ भें नहीॊ रगेगा। काभयदहत होने से र्चत्त साधना भें ठीक से गतत कय सकता है। काभ सताता हो तो बगवान नसृसॊह का र्चन्तन कयने से काभ से यऺा होती है। नसृसॊह बगवान ने काभना के ऩुतरे दहयण्मकसशऩु को चीय डारा था। बगवान के उग्र रूऩ का स्भयण-र्चन्तन कयने से काभावेग शाॊत हो जाता है।

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  • अनुष्ठान से ऩहरे "मौवन सुयऺा" ऩुस्तक का गहन अध्ममन कय रेना फड़ा दहतकायी होगा। ब्रह्मचमवयऺा के सरए एक भॊत्र बी है्

    ॐ नभो बगवते भहाफरे ऩयाक्रभाम भनोसबराद्धषतॊ भन् स्तॊब कुरु कुरु स्वाहा। योज दधू भें तनहाय कय 21 फाय इस भॊत्र का जऩ कयें औय दधू ऩी रें। इससे ब्रह्मचमव की

    यऺा होती है। स्वबाव भें आत्भसात ्कय रेने जैसा मह तनमभ है। ब्रह्मचमव का अथव केवर वीमवयऺण मा भैथनुत्माग तक ही सीसभत नहीॊ है। हाॉ, मे आवश्मक

    ही नहीॊ, अतनवामव है। कपय बी व्माऩक अथव भें ब्रह्मचमव का भतरफ है कक इन्न्द्रमों को द्धवषमों से सॊमसभत कयके भन को प्रबु भें रगाना, र्चत्त को ऩयभात्भर्चन्तन भें, ब्रह्मर्चन्तन भें रगाना, ब्रह्म भें द्धवचयण कयना। इसको द्धवद्रान रोग ब्रह्मचमव भानते हैं।

    अनुक्रभ ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

    अनुष्ठान अकेरे कयो

    ब्रह्मचायी अकेरा यहता है। अनुष्ठान कयने वारा मदद अद्धववादहत है औय सोच ेकक् 'हाम भैं अकेरा हूॉ... जीवन भें ककसी का साथ नहीॊ सभरा.... ऩतत-ऩत्नी होते तो दोनों सभरकय साथ भें धभव-ऩुण्म, उऩासना-अनुष्ठान कयते, कथा-सत्सॊग भें जाते....'

    रड़का सोच ेकक् 'ऩत्नी सभर जाम तो अकेराऩन सभटे।' रड़की सोच ेकक् 'ऩतत सभर जाम तो अकेराऩन सभटे।' नहीॊ.... जो रोग सभझ से यदहत हैं, द्धववेक द्धवचाय से यदहत हैं उन नादानों को जीवन भें अकेराऩन खटकता है। वयना, न्जनके ऩास सभझ है वे सौबाग्मशारी साधक अऩने को एकदभ खारी, एकदभ अकेरा, रूखा भहसूस नहीॊ कयते। वे अऩने साथ ऩयभ चतेना का अन्स्तत्व भहसूस कयते हैं, ईश्वय के सान्न्नध्म की बावना कयके ततृद्ऱ-सुख बोगते हैं।

    आखखयी दृद्धष्ट से, तत्त्वऻान की दृद्धष्ट से देखा जाम तो एक ही चतैन्म देव, आत्भदेव, अऩना आऩा द्धवसबन्न नाभ एवॊ रूऩों भें यभण कय यहा है, दसूया कुछ है ही नहीॊ।

    अनुष्ठान कयने वारा मदद द्धववादहत है, गहृस्थी है तो बी अनुष्ठान अकेरे ही एकान्त भें कयना चादहए। ऐसा नहीॊ कक ऩतत औय ऩत्नी दोनों साथ भें फैठकय बजन कयें। नहीॊ....

    तऩ् एकत्वभ।् तऩ अकेरे कयना चादहए। ऩतत-ऩत्नी दोनों अनुष्ठान बरे एक साथ चारू कयें रेककन अरग-अरग यहकय। अनुष्ठान

    साथ भें फैठकय कयेंगे तो ऩतत को ऩत्नी का र्चन्तन होगा औय ऩत्नी का र्चन्तन होगा। इष्टभॊत्र का र्चॊतन, इष्टदेव का र्चन्तन, ईश्वय का र्चन्तन छूट जामेगा। र्चत्त को ब्रह्मचमव व्रत भें न्स्थत अथावत ्ब्रह्म भें द्धवचयण कयने वारा फनाना है। इससरए तुभ अकेरे यहकय अनुष्ठान